Sunday, February 28, 2016

अर्थ भाग --राजनीती --स्थान पहचान --४९१-से -५०० --तिरुक्कुरल

अर्थ भाग --राजनीती --स्थान पहचान --४९१-से -५०० --तिरुक्कुरल 

१.  शत्रुओं का सामना उचित मैदान  चुनकर करना है;शत्रुओं को   दुर्बल  समझकर कभी उदासीन  दृष्टी से देखना  न चाहिए. 
२.  दुश्मनों से अधिक ताकतवर होने पर भी सुरक्षित स्थान में रहना ही  ठीक  है  और बुद्धिमानी भी. 
३.  दुर्बल भी तभी बलवान बनेंगे  जब  वे सुरक्षित स्थान में रहकर शत्रु का सामना  करते हैं।  
४. उचित रण-क्षेत्र  चुनकर शत्रु का सामना करें तो विजय निश्चित है.
5. जब तक पानी में रहेगा तब तक मगर मच्छ को बल  है;पानी छोड़कर बाहर आने पर  दुर्बल पशु भी उसे हरा देगा. 
६.  बड़े जहाज  जमीन   पर नहीं चलेगा .सदृढ़ चक्र के  रथ समुद्र पर चल नहीं  सकता .हर एक को अपने अपने स्थान में ही बल है.
७.एक कर्म करने के लिए निडर रहना आवश्यक  है. 
८. छोटी  सेना भी  अपने उचित स्थान में  रहेगी तो जीतेगी ही. 
९. सुरक्षित दुर्ग के  बिना ,सबल सेना के बिना  शत्रु के यहाँ जाकर आक्रमण करना  नामुमकिन है. 


Saturday, February 27, 2016

समय का पहचान --४८१ से ४९० --तिरुक्कुरल

समय का  पहचान  --४८१  से ४९० --तिरुक्कुरल 

१, 
कौआ  अपने  से बलवान  उल्लू  को  दिन में हरा देगा।  
इसलिए दुश्मनों को  हराने  समय  का पहचान  जरूरी  है। 
२ 
काल या ऋतू  जानकर उसके   अनुसार  चलना ,
 सफलता  को रस्सी  में बाँधकर  अपने  साथ ले  चलने  के समान  है।  
३.
उचित औजारों को  पास रखकर काम करने पर  असंभव  काम कोई नहीं है.
४.
उचित  समय  और  काल  पहचानकर  काम  करें तो  संसार हमारे मुट्टी में  आ जाएगा। 
५. 
संसार को  जो अपने वश में   करना चाहते हैं ,
वे उचित अवसर और काल  की प्रतीक्षा में  रहेंगे। उचित समय  तक सब्रता दिखाएँगे।
६.
साहसी और हिम्मती   दबकर रहने  का मतलब है,
वह उचित समय  की प्रतीक्षा में  है। 
वह  ऐसा  हैकि  भेड जैसे  अपने शत्रु  पर  आक्रमण  करने  पीछे जाता  है। 
७.
बुद्धिमान  और चतुर  अपने क्रोध को  बाहर  नहीं  दिखाएँगे। 
 वे तब तक सब्रता से रहेंगे ,जब  तक उचित समय नहीं आता। 
८. 
शत्रु  को देखकर सहनशील  बनना  है; उचित समय आने पर शत्रु का सर लुढ़केगा। 
९. 
जब दुर्लभ  समय  मिलता  है ,उस समय को  न  खोकर ,
  असंभव काम को कर देना चाहिए। 
१०. 
१०. उचित  समय  आने तक हमें बगुला भगत बन जाना चाहिए. 





४७१ से ४८० तक ---अर्थ भाग --बल /ताकत पहचानना --तिरुक्कुरल

४७१  से ४८०  तक ---अर्थ भाग --बल /ताकत पहचानना --तिरुक्कुरल 

१.   किसी  कार्य  को  करने  के  पहले   ,कार्य के बल ,
      अपने  बल,  दोनों पक्षों के सहायकों  के बल आदि 
      जानकर  ही कार्य में  लगना   चाहिए.
२.किसी कार्य  को  करने  के  पहले
खूब सोच -समझकर  कार्य  करने के प्रयत्न में लगेंगे तो 
 कोई भी काम असंभव  नहीं  है.

३. अपने बल और अपनी क्षमता न जानकर 
कार्य में लगे लोगों  को 
 नुकसान  ही  उठाना पड़ेगा.

४.  दूसरों  की इज्जत  न करनेवाले  और अपने बल और क्षमता  न जाननेवाले  ,अपने को  बड़ा  मानकर  बोलनेवाले  जल्दी  बिगड़  जायेंगे.
५. मोर के पंख  ढोने  की गाडी में  भी  
अधिक  पंख रखेंगे तो वह गाडी का अक्ष टूट जाएगा. 
असीम बोझ ढोना भी बरबाद के कारण बनेंगे .
६. एक पेड़  की डाली पर चढ़नेवाले ,नोक तक पहुंचेंगे तो दाल टूटकर नीचे गिर  पड़ेंगे.
७.आय के अनुसार हिसाब लगाकर खर्च करने में ही भला होगा. न तो बहुत मुश्किल होगा. 
८. आय कम होने पर खर्च उसके अनुकूल करेंगे तो ठीक है; आय से अधिक खर्च  दुःख के कारण बनेंगे.
९.अपनी संपत्ति  के  परिमाण  न  जानकर  जीनेवालों का  जीवन संकट में पड  जाएगा.
   १०.  अपनी संपत्ति से ज्यादा परोपकार करना भी संकटप्रद है.

461 से ४७० तक --तिरुक्कुरल -अर्थ भाग --समझकर जानबूझकर कर्म में लगना .

461 से ४७० तक --तिरुक्कुरल -अर्थ भाग --समझकर जानबूझकर  कर्म में लगना .


१. एक  काम करने के पहले 
सोच-समझकर
  उससे होने वाले लाभ -नष्ट  को हिसाब  करके ही
 उसे  कार्यान्वित  करना है.
२.
छान-बीन  करके  ,सोच-समझकर 
सही काम चुनकर
 योग्य लोगों की सहायता से करने पर 
लाभ ही होगा.
३. 
चतुर लोग  अपनी पूँजी तभी लगायेंगे ,
जिससे लाभ हो.
 नुकसान के व्यापार पर  पूँजी   न लगायेंगे. 
४. 
जो मान -अपमान से  डरते हैं ,
कलंकित होने के बदनाम से भयभीत होते हैं ,
वे कलंक लगने का  काम  न  करेंगे.
५.  पूर्व तैयारियों के बिना काम करना ,
शत्रुओं को लाभ पहुँचाने के सिवा और कुछ नहीं है.
६. जो काम करने योग्य हैं ,
उसे न करनेवाले ,
जो काम करना अयोग्य है , उसे करनेवाले 
 दोनों ही   नाश हो जायेंगे.
७. सोच -समझकर  ही कार्य में  लगना है, 
कार्य में लगने के बाद सोचना न्यून  है. 
८.  अनजान कार्य में लगने के बाद ,
कईयों की मदद मिलने पर भी 
 उसमें सफलता  पाना   असंभव  है. 
९.  किसी के स्वाभाव जानकार ही मदद करनी चाहिए ,
 नहीं तो उपकार के बदले अपकार  ही होगा. 
१०.अपनी स्तिथि और योग्यता  के अनुकूल काम न करेंगे  तो 
संसार के  दिल्लगी   का पात्र बन जायेंगे. 





Friday, February 26, 2016

सुनना -- अर्थ -तिरुक्कुरल --४१० से ४२० तक

सुनना -- अर्थ -तिरुक्कुरल --४१० से ४२० तक 

१. 
संपत्तियों  में बड़ी संपत्ति  सुनना है ; (बड़ों की नसीहतें और दूसरों की बातें)   वही  प्रधान संपत्ति  है। 

२.
जब अच्छी  बातों  का भोजन  सुनने  को नहीं  मिलता  ,
तभी पेट को जरा भोजन देना है। 

३.संसार  के  श्रवण ज्ञान के  ज्ञानी ,देवों के सामान होंगे। 

४. ग्रंथों को  न  पढनेवाले ,पढ़े -लिखों से सुनकर प्राप्त करना चाहिए.
वह श्रुत ज्ञान उसको शिथिलावस्था में छडी के सामान सहारा देगा. 

५. फिसलन भूमि में चलने को जैसे छडी सहायक है ,वैसे ही अनुशासित ज्ञानियों की बातें श्रवण करने से जीवन में सहारा देगा. 

६. जितनी ज्ञान की बातें सुनते हैं ,उतना लाभ हमें मिलेगा।

७. सूक्ष्म श्रवण ज्ञानी  ,बुरी बातें सुनने पर भी ,गलत नहीं बोलेंगे।

८. अच्छे सुननेवाले कान होने पर भी 
अच्छी बातें सुनने तैयार नहीं है तो वे  बहरे ही है.

९. स्पष्ट  श्रवण ज्ञान जिसमें नहीं है ,वे कभी विनम्र न होंगे.

१०. जो भोजन को ही प्रधान  मानकर ,श्रवण ज्ञान का भोजन नहीं करते ,
उनका जीना -मरना दोनों बराबर है.


४५१ से ४६० तक तिरुक्कुरल ---निम्न लोगों से दूर रहना,

४५१ से ४६० तक तिरुक्कुरल ---निम्न लोगों से दूर  रहना,
१.  बड़े लोग निम्न गुणियों से दूर  रहेंगे. लेकिन छोटे लोग निम्न गुणियों के संग में ही रहेंगे.
२. जल का गुण   जहाँ हैं ,वहाँ की भूमि के अनुकूल ही रहेगा. वैसे ही लोगों के गुण  अपने कुल के अनुसार होगा. 
३. लोगों  को सहज ज्ञान मन से होगा; पर यश तो उसके कुल के कारण ही मिलेगा  और इज्जत भी. 
४. एक व्यक्ति का विशेष ज्ञान ऐसा लगेगा कि उसका अपना मानासिक ज्ञान  है; पर वास्तव में उसके कुल के कारण ही होगा.
५. मानसिक और कार्मिक पवित्रता एक व्यक्ति को अपने कुल के अनुसार ही होगी.
६. मन से जो अच्छे हैं ,उनके चले जाने के  बाद का यश ही श्रेष्ठ होगा.
कुल से जो अच्छे हैं ,उन के लिए कोई भी काम दुर्लभ नहीं है.
७. मन की पवित्रता उसको धन प्रदान  करेगा. कुल के गुण केवल धन ही नहीं ,और सभी तरह के नाम देगा. 
८. मन पवित्र होने पर  भी कुल के कारण ही नाम मिलेगा. 
९.एक आदमी को मन की पवित्रता के  कारण सुख  मिलेगा; पर अपने कुल के कारण बल पकड़ेगा. 
१०. अच्छे कुल से बढ़कर  लाभ प्रद और कोई  नहीं है.
बुरे कुल से बढ़कर हानी प्रद और कोई नहीं है.

ज्ञानियों से मित्रता --तिरुक्कुरल ४४१ से ४५० तक

ज्ञानियों  से मित्रता ४४१  से  ४५० 
१.  अपने से उम्र में बड़े ,
सूक्ष्म धार्मिक  ज्ञानियों  के मार्गदर्शन 
और मित्रता हासिल  करना  चाहिए .

२.जो दुःख हैं ,उन्हें  दूर करनेवाले  
और भविष्य में आने वाले दुःख से बचानेवाले 
 दूरदर्शी  को मित्र बना लेना चाहिए.
३.बड़ों की प्रशंसा  करके उनको मित्र बनाना मुक्ति  का  साधन  है.
४.हमसे  बढ़कर ज्ञानियों की मित्रता बलदायी  है.
५.उचित मार्गदर्शक ज्ञानियों को मित्र बनाने में ही कल्याण है. 
६.उचित बड़े ज्ञानियों के संग में रहने पर   
दुश्मन हानी नहीं पहुँचा  सकता. 
७.   जो निंदक  सज्जनों को अपने पास रखता  है , उसे   कोई उसे बिगाड़ नहीं सकता.
८.  जिस देश  में सरकार की  कमियों को  बतानेवाले नहीं होते ,वह शासन अपने  आप पतन हो जाएगा. 
९.  पूँजी रहित व्यापारी को कोई लाभ नहीं प्राप्त होगा ;वैसे  ही सज्जन के साथी रहित मित्र को  या शासकों को भी कोई प्रयोज़न नहीं  है.
१०. सज्जन मित्रों की मित्रता टूटना  दुश्मनी मोल लेना दोनों बराबर है. 

Friday, February 12, 2016

निरपराध --अर्थ -तिरुक्कुरल --४३१ से ४४०

निरपराध --अर्थ -तिरुक्कुरल --४३१ से ४४० 
१. काम ,क्रोध और मद आदि  अपराध रहित मनुष्य  ही निर्दोषी है. वे ही श्रेष्ठ  है.
२. शासकों के अपराध है --दान  न देना ,दोषी मन , अपराध में आनंद  ,बड़ों का अपमान करना आदि  अपराधी शासकों  के अवलक्षण है.  
३. 
जो अपयश से डरते हैं ,वे ज़रा - सी गलती  भी नहीं  करेंगे. तिल बराबर की गलती भी उन्हें बहुत बड़े पर्वत -सा लगेगा.
४.
अपराध ही एक मनुष्य को सर्वनाश करेगा ; अतः अपराध से बचना चाहिए. 
५. अपराध करने  से जो पहले ही नहीं अपने को बचा नहीं सकते  उनका जीवन  आग  में बड़े भूसे के सामान भस्म हो जाएगा. 
६. पहले अपने दोष और अपराधों से बचनेवाले नेता को किसी  भी  प्रकार का दुःख  न  आएगा. 
७. सत्कार्य में खर्च न करके धन जमा करने वाले कंजूस की संपत्ति बेकार हो जायेंगी . वह खुद सुख नहीं भोग सकता.
८.कंजूसों का अपराध अपराधों की सूची से हटकर विशेष अपराध हो जाएगा. 
९. किसी भी स्थिति में अपने को बड़ा मानकर अहंकार वश  दूसरों के लिए हानिकारक काम नहीं करना चाहिए.
१०.अपनी इच्छाओं और अपनी योज़नाओं को जो गोपनीय रखता है,उसको दुश्मनों का षड्यंत्र कुछ नहीं  कर सकता.

अर्थ --राजनीती --बुद्धिमत्ता --चतुराई ---तिरुक्कुरल -४२१ से ४३० तक

अर्थ --राजनीती --बुद्धिमत्ता --चतुराई ---तिरुक्कुरल -४२१ से  ४३० तक 
१.बुद्धि  सुरक्षित दुर्ग  के सामान हैं . बुद्धि हमें अपने शत्रुओं  से बचायेगी ; और हानि से भी .
२. मन को नियंत्रण में रखकर बुरे मार्ग में  न जाकर अच्छे मार्ग पर चलना ही  बुद्धिमत्ता  और  चतुराई है.
३.
दूसरे जो भी कहें उसे ज्यों का त्यों  न मानकर छानबीन करके सच्चाई जानना ही बुद्धिमत्ता है.
४.
जो कहते हैं  ,उसे अधिक सरलता से  श्रोताओं  को समझाना ही बुद्धिमत्ता है. वैसे ही दूसरों की बातें  सुनकर उनको सूक्ष्मता से समझना  भी बुद्धिमत्ता है. 
५. 
संसार के  सब  से  बड़े लोगों को मित्रता बनाना ही बुद्धिमत्ता है, ऐसे बनाने से खिला हुआ चेहरा  कभी नहीं कुम्हालाएगा.
६. 
संसार  जैसा हैं ,वैसा ही संसार  के साथ चलना बुद्धिमत्ता है.
७.
चतुर / बुद्धिमान लोग भविष्य में होनेवाली
 घटनाओं को जान सकते हैं .बुद्धिहीन लोग  भविष्य  को जान  नहीं सकते. चतुर दूरदर्शी होते  हैं .
८.
जिन बातों से डरना हैं ,उनसे डरना ही बुद्धिमत्ता है;
९.
जो बुद्धिमान दूरदर्शी होते  हैं ,उनको धक्का देने का कष्ट कभी  नहीं  होगा.
१०.
बुद्धिमानों  के पास  कुछ भी न होने पर भी  ,ऐसे रहेंगे  जैसे सब कुछ  अपने पास है. पर बुद्धीहीनों  के पास सब कुछ होने पर भी ,वैसी ही हैं ,जिसके पास कुछ  न हो.

Thursday, February 11, 2016

धर्म --राजनीती --राज्य और राजा की विशेषता ---तिरुक्कुरल ३८१ से ३९०

 धर्म --राजनीती --राज्य  और राजा की विशेषता ---तिरुक्कुरल ३८१ से ३९० 

१. राज्यों में श्रेष्ठ सिंह जैसे  राज्य  के छे अंग हैं  , शक्ति शाली सेना ,होशियार होनहार प्रजा ,धन का न घटना ,अटूट मित्रता ,मजबूत किला ,निर्दोष मंत्री  आदि. 
२. साहस , दया( दानी ) ,चतुराई ,ऊंचे लक्ष्य पर पहुँचने के सिद्धांत  आदि चार ही आदर्श राजा के स्वभाव है.
३.राजा के आवश्यक शाश्वत  तीन गुण हैं --समय का पालन ,ज्ञान और साहस .
४. श्रेष्ठ राजा के लक्षण हैं :-१. धर्म मार्ग पर अटल चलना २. अधर्म को मिटाना ,निष्कलंक ,३.वीरता ४. मर्यादा  आदि .
५.
संसार उसी राजा 
को ही चाहेगा, प्रशंसा करेगा ,
 जो देखने में सीधा साधा हो 
और मधुरवाणी बोलता हो ,
कठोर शब्द न बोलता हो.
६.
न्यायोचित मार्ग पर कर वसूल करके  खजाना 
भरना   और धन को सुरक्षित रखकर सही   योज़ना  बनाकर  खर्च  करना    ही   सुशासन  के लक्षण  है.
७.

मधुर बोली बोलकर  उचित ज़रूरतमंदों को दान देनेवाले उदार राजा  ही संसार के लोगों  की प्रशंसा के पात्र बनेंगे. 
८. 
न्याय और नैतिक में तटस्थ राजा  को  ही लोग ईश्वर तुल्य  सम्मान देंगे .
९.
निंदकों की बातें सहने वाले  गुणी शासक के अधीन/ उनके छत्र -छाया   में  ही संसार ठहरेगा.
१०.
दानी ,दयालु ,न्याय पर अटल ,दुखीलोगों  के रक्षक  आदि गुणवाले शासक  आकाश दीप के समान होते हैं. 


Wednesday, February 10, 2016

तिरुक्कुरल --अर्थ -- अशिक्षा /अनपढ़ --अविद्या .४०१ से ४१० तक =

तिरुक्कुरल  --अर्थ  --   अशिक्षा /अनपढ़ --अविद्या .४०१ से ४१० तक.

१.  अधूरे ज्ञान  लेकर  शिक्षितों की  सभा में बोलना  बिना  बिछौने के जुआ खेलने के समान है .

२. विद्वानों  की सभा  में अशिक्षित  कुछ कहना चाहता है तो वह  बगैर कुछ  की लडकी स्त्रीत्व चाहने के जैसे है.

३.शिक्षितों   की सभा  में  चुप रहने   पर  बुद्धू को भी  अच्छा  नाम मिल जाता  है.

४. अशिक्षितों को सहज ज्ञान मिलने पर भी लोग  उसके ज्ञान  नहीं  मानेंगे.

५. अशिक्षित  का शिक्षित छद्मवेश   शिक्षितों  के साथ बोलने पर खुल  जाएगा.

६. अशिक्षित बंजर भूमि के समान  है; वे चलते फिरते शव  समान  है.

७. देखने में सुन्दर ,पर अशिक्षित लोग  मिट्टी की सुन्दर मूर्ति के समान ही होंगे.

८.अशिक्षितों  के पास  जो धन   है ,वह शिक्षित  की गरीबी से  बढ़कर दुखप्रद है.

९. शिक्षित होने पर उंच -नीच के भेद मिट जायेंगे.

१०.पशु और मनुष्य में कितना अंतर है ,उतना ही अंतर शिक्षित और अशिक्षितों के बीच  में  है.

शिक्षा --अर्थ --तिरुक्कुरल ३९१ से ४००

शिक्षा --धर्म --तिरुक्कुरल ३९१ से ४०० 
१.  हमें  बिना किसी कसर के सीखना चाहिए.  सीखने के बाद प्राप्त ज्ञान का अक्षरसः  पालन करना चाहिए. धर्म मार्ग से फिसलना नहींचाहिये. 

२. अंक  और अक्षर ज्ञान  ही वास्तविक आँखें है. मनुष्य  जीवन के प्राण ये ही हैं.

३.  शिक्षित अंधे को कोई भी अँधा नहीं कहेंगे ; नेत्र होकर भी जो अशिक्षित हैं, उसे  अंधे कहेंगे.अशिक्षितों  की आँखें आँखें नहीं ,वे तो दो घाव है.

४.ज्ञानी  मिलकर रहते समय आनंदप्रद  व्यवहार करेंगे  ; बिछुड़ते समय ऐसी खुशी की बातें छोड़कर जायेंगे  कि   फिर मिलने के विचार  से पछताना  पडेगा.. यही कवियों का पेशा है. 

५.  रायीशों  के सामने  रंक अपने को हीन मानेंगे ; वैसे ही शिक्षितों के सामने अशिक्षित हीनता का महसूस करेंगे.

६.  खोदते खोदते जैसे पानी   ज्यादा निकालता हैं स्त्रोत से  वैसे ही शिक्षा भी पढ़ते -पढ़ते  बढ़ती रहेगी. 
७. शिक्षितों का आदर सर्वत्र होता है ,ऐसी हालत  में क्यों मनुष्य अशिक्षित है ?पता नहीं .
८. मनुष्य को एक जन्म में सीखी शिक्षा, कई  जन्मों तक लाभप्रद रहेगी. 
९.. अपनी सीखी शिक्षा से मिले सुख  को खुद अनुभव करके,
 संसार के लोगों को  भी शिक्षा  से मिले  आनंद  देखकर
  शिक्षित  और  अधिक पढने में  लग जायेंगे. 
१०. शिक्षा ही शाश्वत निधि है ; उसके सामान शाश्वत संपत्ति और कोई  नहीं  है. 


Tuesday, February 9, 2016

भाग्य /विधि /किस्मत . तिरुक्कुरल --३६१ से ३७० तक

भाग्य /विधि /किस्मत . तिरुक्कुरल --३६१ से ३७० तक 

१. भाग्य या विधि के अनुसार धन जुड़ने पर उत्साह बढेगा .  विधि गरीबी  लायेगी तो आलसी बढ़ेगी.
उत्साह या  आलसी विधि के कारण ही  बढ़ता है. 
२. विधि या  भाग्य  के कारण घाटा होगा तो अज्ञानता बढेगी . बेवकूफी घर कर लेगी.  संपत्ति भाग्य के अनुसार बढ़ेगी तो ज्ञान का भी विकास होगा. 
३. सूक्ष्म ज्ञान के ग्रंथों  के अध्ययनसे बढ़कर लाभ देगा सहज ज्ञान  जिसका आधार भाग्य ही है.
४.संसार में  भाग्य दो प्रकार के हैं. भाग्य किसी को अमीर बनाता है तो किसी को दरिद्र . यही विधि की विडम्बना है.
५. भाग्य बड़ी है; कल्याण कार्य करने काम शुरू करेंगे तो बुराई होगी;  बुराई करने काम शुरू करेंगे तो भलाई होगी . यही भाग्य का खेल है. 
६. जिसे  हम अधिक चाहते है और सुरक्षित रखते हैं ,उसे भाग्य  रहने नहीं देगा, जिसे हम नहीं चाहते उसे भाग्य जाने नहीं देगा.
७. करोड़ों रूपये  मेहनत करके कमाने पर भी भाग्य हो तो उसे भोग सकते है.  कमानेवाले के इच्छानुसार भोगना  अपने अपने भाग्य पर निर्भर है.
८.कष्ट भोगने की विधि लिखित आदमी को कष्टमय जीवन से मुक्ति नहीं मिलेगी ; विधि उसको संन्यास बन्ने नहीं देगी. 
९.जीवन में सुख -दुःख बदल बदल कर आयेंगे. सुख में प्रसन्नता और दुःख में अप्रसन्नता क्यों ?पता नहीं. 
१०.भाग्य से बढ़कर बलवान संसार में  कोई नहीं है. भाग्य से बचने के उपाय करने जायेंगे तो आगे विधि रोकने आयेगी.

सत्य का महसूस / सत्य जानना /तत्वज्ञान --तिरुक्कुरल --३५१ से ३६०

सत्य का महसूस /  सत्य जानना /तत्वज्ञान  --तिरुक्कुरल --३५१ से ३६० 

१. जो तत्वज्ञान नहीं हैं ,उन्हें तत्वज्ञान समझकर चलने से अत्यधिक दुःख होगा.

२. सांसारिक बेहोशी से होश में आकर तत्व ज्ञान को जानने -समझने से  ही सुख मिलेगा.

३. खोज और छानबीन के बाद  संदेहों से निपटकर  तत्वज्ञान  जानने -समझने से  देवलोक अधिक  निकट हो जाएगा. 

४. जो तत्वज्ञान को समझ नहीं सकता , वह भले ही संयमी जितेन्द्र हो ,उससे कोई फल नहीं मिलेगा. 

५. जिसको   देखने में सत्य जैसे लगेगा,वह सत्य है या  नहीं ,इसपर खोज करके   उसकी  वास्तविक दशा को जानना ही  तत्वज्ञान है.

६. तत्वज्ञान को जानकार जो सन्यासी बन जाते हैं ,वे फिर गृहस्थ जीवन कभी नहीं अपनाएंगे .

७.जो तत्वज्ञान को सही रूप में जान -समझकर उनका सही अनुकरण करते हैं ,उनको पुनर्जन्म नहीं होगा.

८. तत्वज्ञानी संसारिकता  को छोड़कर मुक्ति चाहेगा.पुनर्जन्म  लेने से मुक्ति पाना ही तत्वज्ञान है.

९.दुखों के कारणों को जानकर उनको छोड़कर जीने से ही दुःख से बाख सकते हैं . वही तत्वज्ञान है.

१०.काम ,क्रोध ,अज्ञान से बचकर अनुशासित जीवन में ही आनंद है; वही तत्वज्ञान है.

Monday, February 8, 2016

संन्यास या अनासक्त जीवन ०३४१ से ३५०

संन्यास  या अनासक्त जीवन ०३४१ से  ३५०

१. मनुष्य  जिन  जिन  वस्तुओं से  अनासक्त हो जाता है ,उन  वस्तुओं  से आनेवाले दुःखों  से मुक्त हो जाता है.

२. बिन दुखों के जीना हैं तो अनासक्त जीवन जीना चाहिए.

३.  संयम से जीना ,पंचेंद्रियों की पसंद की चीजों से अनासक्त रहना ही संन्यास के लक्षण है,

४. सन्यासी बनना है तो मन में किसी भी चीज़ के प्रति इच्छा नहीं होनी चाहिए.किसी एक पर इच्छा रखना सांसारिक माया =मोह से फँसना है.

५. जन्म दुःख से जो छुटकारा पाना चाहता है, उसको उसका शरीर ही भर स्वरुप है ; अतः उस को बिलकुल अनासक्त हो जाना है.

६. अहंकार रहित मनुष्य देवों से बढ़कर नाम हासिल करेगा.

७.आसक्त व्यक्ति  जो इच्छा  नहीं छोड़ सकता  उसको कभी दुःख नहीं छोड़ेगा .

८. बिलकुल  जो अनासक्त बनता है ,वही सन्यासी है ; एक भी इच्छा रहें तो वह सांसारिक माया मोह से छूट नहीं सकता.

९. इच्छाओं को  छोड़ने पर सुख दुःख भी छूट जाता है; नहीं तो सुख -दुःख का बंधन घेरकर ही रहेगा.

१०.जो संन्यास बनना चाहता हैं ,उसको  अनासक्त साधुओं  से आसक्त रहना चाहिए. तभी वह सांसारिक बंधनों और इच्छाओं से छूट सकता है,

अस्थिरता ---तिरुक्कुरल --३३१ से ३४० तक

अस्थिरता  ---तिरुक्कुरल --३३१ से   ३४०  तक 
१.
अस्थिरता को स्थिर मानकर जीना अज्ञानता  है.
२.
अति संपत्ति का आना नाटक सभा में  दर्शकों के आने के समान है . वैसे  ही संपत्ति का चले जाना भी नाटक  के बाद दर्शकों  के जाने  के समान   है.
३.
अशाश्वत   संपत्ति  के मिलते  ही शाश्वत धर्म कर्म में लग जाना  है.
४.
जीवन में एक दिन का कटना तलवार से जीने के दिन को काटने के सामान है. जीवन अस्थिर है ,एक एक दिन कटता जाता  है.
५.
अशाश्वत जीवन को जान समझकर  हमें जीते जी शाश्वत धर्म कर्म में लग जाना चाहिए .
६.
दुनिया का बड़प्पन  यही है  कि जो कल था ,वह आज नहीं  है .
७.
जो जीवन की अस्थिरता को नहीं सोचते ,वे अज्ञानी है ,वे ही बेकार ही करोड़ों के विचार में लगेंगे.
८.
शरीर और प्राण का सम्बन्ध अंडे छोड़कर   निकले पक्षी के समान  उडनेवाला  है; 
९.
मृत्यु  नींद जैसी है; जन्म नींद से जगने के सामान  है.
१० .
शरीर से निकले प्राण को कोई आश्रय स्थल नहीं  है. 

वध या ह्त्या न करना तिरुक्कुरल ३२१ से ३३०

 वध  या  ह्त्या  न  करना  तिरुक्कुरल  ३२१ से ३३० 

१.  वध या हत्या न  करना ही धर्म है; 
 हत्या करने  से  सभी अधर्म कर्म का बुरा परिणाम मिलेगा ही .


२.

जो कुछ मिलता है ,उन सब को  समानता  से बाँटकर खाने  से कल्याण  होगा;
  सभी जीव राशियों के जीने  के निरपेक्ष सिद्धांत के सामान 
और कोई दूसरा धर्म कर्म  संसार  में  नहीं है.

३.
धर्मों  के कतार में पहला स्थान  हत्या न करने को मिलता  है ;
 दूसरा  स्थान झूठ बोलनेवाले को मिलता है.

४.
किसी जीव की हत्या न   करना ही धर्म मार्ग है.कल्याण  मार्ग है.
५.
सांसारिक  कष्टों को जानकार 
संन्यास धर्म को अपनाने वाले  से वही श्रेष्ठ है ,
जो जीव वध  न करने को अपना लक्ष्य बनाकर  जी ता है . 
६.
जीव हत्या न  करने केधार्मको  जिसने अपनाया ,उसके प्राण लेने यम भी डरेगा .
७.
  हत्या  करने  से  बहुत बड़े लाभ मिलने की संभावना  भले ही हो ,फिर भी बड़े लोग हत्या न करेंगे.
८.
जीव हत्या  से अत्यधिक संपत्ति प्राप्ति की संभावना होने पर भी  बड़े लोग हत्या को अपना पेशा न बनायेंगे.

९.
जो हत्या करने को ही अपना पेशा बना लेते हैं , उसकी बुराई को जानने वाले चतुर उस को हीन ही मानेंगे.

१० 
  बड़े लोग दीर्घ रोगी और दीर्घ दरिद्री को    पूर्व जन्म का  हत्यारा ही कहेंगे,.




वेदना न देना /दुःख न पहुँचाना -----तिरुक्कुरल --३१० से ३२० तक

वेदना न देना /दुःख न पहुँचाना -----तिरुक्कुरल --
३१० से ३२० तक 
१. सज्जनों का सिद्धांत है ,दूसरों को हानि /दुःख /पीड़ा न पहुँचाना .

  दुःख  पहुँचाने  पर धन, दौलत ,यश आदि मिलेगा  तो भी न दुःख देंगे  बड़े लोग.
यद्यपि यश मिलें या धन , फिर भी बुराई न  करेंगे बड़े लोग.
௨.
मन में बदला लेने की भावना से बुराई करनेवालों को भी निर्दोषी  सज्जन

उनको हानियाँ  न  पहुँचाएँगे. 
३.
 हम दूसरे को बुराई न  करने  पर  भी  ,

 वह क्रोध के आवेग में हमें दुःख देता है , तो  

हम भी बदले में हानी करेंगे तो 

हमें बहुत  ऐसी बुराइयाँ होंगी,जिन से बचना मुश्किल है.
४.
जो हमें बुराई करता है ,दुःख देता है ,
उसको ऐसी भलाई करनी  है ,
 जिससे उसको शर्मिंदा होना पड़ें. 
५.
दूसरों के दुःख को अपना समझकर ,
उनके दुःख दूर करने की सहायता  न करनेवाले , 
 भले ही ज्ञानी हो , उसको अपने  उस  ज्ञान से भी प्रयोजन नहीं है..
६.
जो अपने को हानिप्रद और दुःख प्रद है, 
उसे दूसरों को न करनेवाले   ही श्रेष्ठ है. 
७.
तनिक भी हानी दूसरों को न पहुँचाना  या 
करने को न सोचना ही बड़प्पन है.
८.
अपने को जिससे दुःख या हानी होती हैं ,उन्हें क्यों दूसरों को देते हैं ;
 यह अवगुण कैसे आते हैं ,पता नहीं.
९. 
हम किसी को सबेरे हानी करेंगे तो शाम को हमें हानियाँ होंगीं .
१०.
मनुष्यों के सारे दुःख के कारण अन्यों को दुःख देना ही है; 
अतः अन्यों को दुःख  न देने में  ही भला है;


.

Thursday, February 4, 2016

क्रोध न करना -तिरुक्कुरल --३०१ से ३१०

क्रोध  न  करना   -तिरुक्कुरल --३०१ से ३१०


१.जहाँ अपने क्रोध सफल होगा ,वहाँ क्रोध दबाना ही क्रोध  न करना है; जहां अपना क्रोध असफल होगा  वहाँ   क्रोध न करने क्रोध न करने से क्या लाभ.

२. अपने से  बलवानों से क्रोध करने से बुराई होगी ; अपने से दुर्बलों से क्रोध करने पर भी बुराई ही होगी.

३. क्रोध  भूल जाने में ही भलाई है; न तो उस क्रोध से कई बुराइयाँ  होंगी.

४.क्रोधीके चेहरे में खुश दिखाई न  पडेगा. वैसे ही उसके मन में भी खुश न रहेगा.

५. जो अपने को बचाना चाहता है ,उसको अपने क्रोध को दबा लेना चाहिए. नहीं तो उसके क्रोध ही उसे नाश कर देगा.

६.क्रोधी  का क्रोध केवल उसीको ही
  नहीं ,उसके नाते -रिश्ते को भी नाश कर देगा.

७. जैसे धरती को हाथ से मारनेवाले  का  हाथ  दुखेगा ,वैसे ही क्रोधी के क्रोध ही उसको कष्ट देगा.

८.अग्नी जैसे जलानेवाले दुःख जो देता हैं , वह मिलने आयें तो उससे गुस्सा न दिखाना ही अच्छा  है.
९.  जो क्रोधी नहीं ,उसको फल ही फल मिलेगा..

१० , अति क्रोधी  मरे हुए आदमी के सामान है ; जिसमें क्रोध नहीं वह साधू संत -तपस्वी सामान है.

सत्य --तिरुक्कुरल --२९१ से ३००

    सत्य --तिरुक्कुरल --२९१ से ३००


   १.बुरे शब्द न बोलना  और दूसरों को तनिक भी हानिप्रद शब्द  न  बोलना  ही सत्य है.


२.सब की भलाई के लिए झूठ बोलना भी सत्य बराबर है.

३. जान बूझकर झूठ बोलना नहीं चाहिए; ऐसे झूठका  भंडा फोड़ जाएँ तो  बोलनेवाले का दिल ही उसे गाली देगा.


४. जो अपने मन में भी झूठ बोलने का विचार नहीं करता ,वह सब के प्रशंसा का पात्र बनेगा.

५. जो दिल से सच बोलते हैं ,वे  तपस्वीं  और दानी से श्रेष्ठ है;

६. सत्यवान  खुद  जाने  बिना  यशास्वीं बनेगा;उसको सभी धर्मों  के फल मिलेंगे.

७. बगैर झूठ बोलने जीने  का व्रत जो रखते हैं ,उनको दूसरे धर्म -कर्म करने  की जरूरत नहीं है.सत्य ही उसको सभी धर्म का फल देगा.

८.स्नान  करने  से  शेरीर का मैल दूर होगा;  मन  की गन्दगी दूर होने सत्य वचन ही बोलना चाहिए;

९. बाहरी अन्धकार मिटानेवाले सब दीप  दीप नहीं है; आतंरिक मन के अन्धकार दूर करनेवाले झूठ न  बोलने का दीप ही सच्चा दीप  है; सत्य ही असली दीप  है.

१०. सांसारिक वस्तुओं  में   सत्य से बढ़कर सर्वश्रेष्ठ  गुण और कोई नहीं है.

धोखेबाज ---ठग --तिरुक्कुरल --२७१ से २८०

धोखेबाज ---ठग --तिरुक्कुरल --२७१ से २८०

१. धोखेबाजी के मिथ्या   व्यवहार देखकर    उसके शरीर  के पंचभूत   खुद हँसेंगे.


२. भले ही बड़े साधु -संत हो  जान बूझकर  धोखादेने पर  उसका आदर  धुल में मिल जाएगा.


३.मन को वश में रखनेवालों का सन्यासी वेश  बाघ  के खाल ओढ़कर   खेत में चरनेवाली   गाय के समान  है.

४.झाडी  में छिपकर पक्षियों के शिकार   करने  जाल  फेंककर   प्रतीक्षा करनेवाले शिकारी और सन्यासी के वेश में बुरे कार्य करने वाले तपस्वीं दोनों बराबर ही होते है.

५. अनासक्त जीवन के मिथ्या आचरण करनेवाले  कई प्रकार के दुःख झेलेंगे ही.

६.धोखा देनेवाले तपस्वी ही संसार में  बड़े निर्दयी है.तपस्वीं सा  ठगी ही निर्दयी होते हैं.

७. लाल मणि   के सामान  सुन्दर  मनुष्यों में भी उसके नोक पर के काले दाग के समान मन में काले विचार रखनेवाले भी संसार  में  जीते हैं.

८. मन अन्धेरा है;  बाहर स्नान आदि करके  पवित्र है ; ऐसे भी लोग रहते हैं.

९. तीर सीधा  है;  पर प्राण लेनेवाला  है; वीणा का कोना  टेढ़ा है ;पर सुन्दर संगीत देता है; वैसे ही एक मनुष्य के बुरे या अच्छे गुण  उसके कर्म देखकर ही पता चलेगा.

१०.बुरी आदत न छोड़कर सर मुंडन करना काषाय वस्त्र पहनना  बेकार है; अच्छी चालचलन ही प्रधान है;बाकी सब दिखावा है.

Tuesday, February 2, 2016

चोरी --२८१ --२९० तिरुक्कुरल

चोरी --२८१ --२९० तिरुक्कुरल 
 १.  जो अपने को श्रेष्ठ और सम्मानित बनाना चाहते है ,उनको अपने मन में चोरी करने को  स्थान देना नहीं चाहिए.


२. दूसरों की चीज़ों को चोरी करने  की बात सोचना भी अपराध है;


३..चुराकर धन जोड़ने पर एक दिन ऐसा वक्त आएगा , चोर  का  सर्वस्व लुट जाएगा.


४.चुराने की इच्छा  से असीम दुःख होगा.

५. जिसे के मन में चोरी करने का  विचार है,उसके मन में ज़रा भी दया या करूणा नहीं रहेगी.

६.. चोरी करके जीनेवाले मितव्ययी नहीं  होंगे.

७.आय के अनुकूल  जो जीना चाहते हैं ,उनमें चोरी का बुरा गुण  नहीं रहेगा.

८.ईमानदारी का मन धर्म पथ पर चलेगा; ठग या चोर का मन चोरी करने को ही सोचेगा.

९. चोरी  को ही अपनाकर  जीनेवाले जल्दी बरबाद  हो जायेंगे.

१० .चोर को खुद उसके प्राण घृणा करेंगे; ईमानदारी को देव -देवता भी प्रेम करेंगे.

தபஸ்யா--तपस्या २६१ से २७० तक तिरुक्कुरल

तपस्या --२६१  से  २७०

१.  दूसरों के दुःख दूर करना   और अपने दुखों को सहना ही तपस्या का मूल आकार है.

२. पूर्व जन्म के पुण्य से ही तप करना संभव है ; नहीं तो तपस्या में मन लगना दुर्लभ है.

३. शायद   सन्यासियों की अर्थात तपस्वीं   की सेवा  के लिए ही अन्य लोग  तपस्या करना छोड़ दिया हो ?
४. तपोबल से बुरों को  दमन   करने  का बल और अच्छों की भलाई करने  का   बल  मिलेगा .
५. जो भी हमारी चाह  है ,वे सब कुछ तपस्या से  मिल जाएगा. अतः तमास्या में मग्न होना चाहिए.
६.तपस्या करनेवाले अपने कर्तव्य मात्र निभाएँगे. अन्य लौकिक इच्छाओं में न  लगनेवाले तपस्वी नहीं बन सकते.
७. आग  में सोना जितना तपता है ,उतना चमकेंगे;  वैसे ही तपस्वी जितना कष्ट भोगेंगे ,उतना  ज्ञान  चमकेंगे.
८. जिन तपस्वीं  में अहंकार और अपने प्राण से अनासक्त होता है,उन्हें सब प्रशंसा करेंगे.
९.तपोबल प्राप्त तपस्वी  में यम को जीतने की दिव्य शक्ति मिलेगी.
१० .संसार  में शक्तिहीन  लोगों की संख्या ज्यादा है ,बलवान और शक्तिवानों की संख्या कम है; इसका  कारण  यही   है  कि तपस्या करने वाले कम है. न  करनेवाले ज्यादा है.

Monday, February 1, 2016

कृपा कटाक्ष ---तिरुक्कुरल --२५१ से २६० तक.

कृपा कटाक्ष ---तिरुक्कुरल --२४१ से २५० तक.
१. क्रूर अत्याचारियों के यहाँ भी धन -दौलत भरा रहेगा.

 पर  वह कृपा कटाक्ष  की संपत्ति के बराबर नहीं हो सकता. 

२. कई प्राकार के अनुसंधान के बाद  यही निष्कर्ष निकला कि  जीवन का साथी कृपा कटाक्ष ही है.

३. कृपा प्राप्त लोग दुःख के अँधेरे में घेरकर न रहेंगे. 

४. दूसरों को और अन्य जीवराशियों पर दया दिखानेवाले  और रक्षा करनेवाले सज्जन अपने प्राण को अति तुच्छ मानेंगे. 

५. कृपा कटाक्ष प्राप्तकर जीनेवाले को कभी किसी हालत में दुःख नहीं होगा. इस उक्ति का प्रमाण वायु है.वायु के चलने से ही संसार अति बलवान है.

६. जो कृपा प्राप्त करके जीते हैं वे निर्धनी होंगे और कर्तव्य विमुख होंगे. 

७. अर्थविहीन गृहस्थ जीवन इस संसार में दुखी रहेगा. उसी प्रकार करूण बिन  उस लोक में दुखी रहेंगे; 
अर्थात इस संसार में अर्थ ही प्रधान है और उस संसार में अर्थात देव लोक में कृपा ही प्रधान है.

८ . धन खोकर पुनः प्राप्त कर सकते हैं;पर कृपा खोकर प्राप्त करना असंभव है. 

९. ईश्वर की कृपा अप्राप्त व्यक्ति का धर्म- कार्य ,
अज्ञानी के ग्रन्थ पढने के सामान ही होगा. 
 अज्ञानी ग्रन्थ समझ नहीं पायेगा; 
कृपा अप्राप्त धर्म कर्म सही मूलसे कर न पायेगा.

१० .कृपा अप्राप्त बलवान दुर्बलों को सताते वक्त 
यह सोचना चाहिए कि उससे बलवान इस संसार में है. उसके सामने भयभीत रहना पड़ेगा .

कीर्ति = यश =प्रसिद्धि --तिरुक्कुरल --२३१ से २४०

कीर्ति = यश =प्रसिद्धि --तिरुक्कुरल --२३१ से २४० 

१. दीन -दुखियों  को  दान देना और यश भरे जीवन जीना  
 इससे  बढ़कर   और दूसरी बड़ी  कोई संपत्ति नहीं  है.

२. दींन -दुखियों के दाताओं की प्रशंसा ही सब से ऊंची कीर्ति है.

३. इस संसार में कोई चीज  अतुलनीय  और शाश्वत है तो 
वह  कीर्ति या यश  ही है.

४. आनेवाले युग में भी नामियों की ही प्रशंसा होगी ,
न विद्वानों की न शिक्षितों की .

५. जीते जी कीर्ति और मृत्यु की दशा में भी कीर्ति  पाना 
 सब के वश में नहीं हैं .
ऐसी प्रसिद्धि उनको मिलेगी ,जिनको  सहज रूप में वह शक्ति मिली हो.

६. संसार में जन्म लेने पर यश प्राप्त करना चाहिए; 
अर्थात जो भी काम करने को मिलता है ,
उसे ऐसा करना है ,
जिससे नाम मिले. 
 ऐसा  न  हो तो जन्म न  लेना ही  उचित है. 

७. जो अपने यश के लिए उचित कर्म न कर सकते ,
वे अपने आप दुखी होना  पडेगा. 
 ऐसा न करके  वे क्यों अपनी निंदकों
 और  अपने अपामान करने वालों की निंदा  करते है .
यह तो सही नहीं  है. 

८. अपने कर्म से  यश  प्राप्त न करनेवालों पर,
उसके निदन के बाद  लोग निंदा  ही  करेंगे .

९. बिना नाम के अर्थात कीर्ति के शारीर को भूमि ढोता है तो 
 मतलब है भूमि ऊसर है.

१० . बिन अपयश के जीना ही जीवन है,
 बिन कीर्ति के जीना और न जीना दोनों बराबर ही है. 

दान --तिरुक्कुरल --२२० से २३०

दान --तिरुक्कुरल --२२० से २३०  

 १. दान --तिरुक्कुरल --२२० से २३० दीन- दुखियों को      देना ही दान  है ; बाकी सब दान किसी फल की प्रतीक्षा में दिया हुआ दान सम है.
२.   भलाई  के लिए दूसरों के आग्रह से 
दूसरों से कुछ लेने में बड़प्पन नहीं हैं ;छुटपन ही है. 
३. अपनी गरीबी का दुखड़ा न रोकर  दान  देना कुलीन कर्म है.
४. दाता को तभी सुख होगा , तब तक उससे दान देनेवाले के चेहरे से उदासी दूर होगी और प्रसन्नता दीख पड़ेगी. 
५. अनशन रखकर तप करने के फल -पुण्य से ,दूसरों की भूख  मिटाने से अधिक फल और पुण्य मिलेगा. 
६. अपने यहाँ आये भूखे का पेट भरना  ही अमीरी का भविष्य निधि है.
७. अपने पास जो कुछ है ,उसे बांटकर खानेवाले को कभी भूख का महसूस करेंगे.
८. अपनी संपत्ति को दान पुण्य न करके sampatti  खोनेवाले दान कर्म के आनंद और महत्त्व को न जानते.
९. दान देने से जो अपनी संपत्ति के घटने की बात सोचेगा ,अपनी ढेर संपत्ति को खुद भोगना चाहेगा ,वह भीख मांगने से निम्न कार्य है.
१०.मृत्यु के  दुःख से अधिक दुःख प्रद है दूसरों को दान  न देने की दयनीय दशा . 

परोपकार २११ से २२० तक --तिरुक्कुरल

परोपकार   २११ से २२० तक --तिरुक्कुरल 

     १.    वर्षा  प्रत्युपकार  की चाह के बिना ही होती है;
वैसे   ही संसार में परोपकार करनेवाले होते हैं.

२. परोपकारी कठोर मेहनत  करके जो  कुछ जमा करता है ,वे सब दूसरों की मदद करने के लिए ही है. 
३.परोपकार जैसे सत्कार्य के सामान और कोई श्रेष्ठ कार्य इस लोक में भी नहीं और परलोक में भी नहीं.
४. परोपकार के लिए ही जीनेवाला ही ज़िंदा आदमी है; बाकी सब मरे हुए माने जायेंगे .
५. सार्वजनिक भलाई के लिए जीनेवाले की संपत्ति 
सार्वजनिक तालाब जैसा है.जिसमें पानी का स्त्रोत भरता रहता है.
६. दयालु और परोपकारी की संपत्ति शहर के बीच पले
फलों के वृक्ष सामान हैं ,जिसमें जो चाहे फल तोड़ सकते हैं.
७.दयालु और परोपकार की संपत्ति  एक ऐसे पेड़ के सामान हैं ,जिसके सारे अंग दूसरों के लिए ही काम आयेगा,
८. जो परोपकार को ही श्रेष्ठ मानते हैं ,वे अपनी दीनावस्था में भी परोपकार कर्म पर दृढ़ रहेंगे ; ज़रा भी विचलित नहीं  होंगे. 
९.जो परोपकार करता हैं ,वह तभी पछतायेगा ,जब वह दूसरों  को दे नहीं सकता .
१० .परोपकार से बुराई होगी तो वह उसे अपने को बेचकर भी प्राप्त कर सकता है.