Thursday, February 4, 2016

धोखेबाज ---ठग --तिरुक्कुरल --२७१ से २८०

धोखेबाज ---ठग --तिरुक्कुरल --२७१ से २८०

१. धोखेबाजी के मिथ्या   व्यवहार देखकर    उसके शरीर  के पंचभूत   खुद हँसेंगे.


२. भले ही बड़े साधु -संत हो  जान बूझकर  धोखादेने पर  उसका आदर  धुल में मिल जाएगा.


३.मन को वश में रखनेवालों का सन्यासी वेश  बाघ  के खाल ओढ़कर   खेत में चरनेवाली   गाय के समान  है.

४.झाडी  में छिपकर पक्षियों के शिकार   करने  जाल  फेंककर   प्रतीक्षा करनेवाले शिकारी और सन्यासी के वेश में बुरे कार्य करने वाले तपस्वीं दोनों बराबर ही होते है.

५. अनासक्त जीवन के मिथ्या आचरण करनेवाले  कई प्रकार के दुःख झेलेंगे ही.

६.धोखा देनेवाले तपस्वी ही संसार में  बड़े निर्दयी है.तपस्वीं सा  ठगी ही निर्दयी होते हैं.

७. लाल मणि   के सामान  सुन्दर  मनुष्यों में भी उसके नोक पर के काले दाग के समान मन में काले विचार रखनेवाले भी संसार  में  जीते हैं.

८. मन अन्धेरा है;  बाहर स्नान आदि करके  पवित्र है ; ऐसे भी लोग रहते हैं.

९. तीर सीधा  है;  पर प्राण लेनेवाला  है; वीणा का कोना  टेढ़ा है ;पर सुन्दर संगीत देता है; वैसे ही एक मनुष्य के बुरे या अच्छे गुण  उसके कर्म देखकर ही पता चलेगा.

१०.बुरी आदत न छोड़कर सर मुंडन करना काषाय वस्त्र पहनना  बेकार है; अच्छी चालचलन ही प्रधान है;बाकी सब दिखावा है.

Tuesday, February 2, 2016

चोरी --२८१ --२९० तिरुक्कुरल

चोरी --२८१ --२९० तिरुक्कुरल 
 १.  जो अपने को श्रेष्ठ और सम्मानित बनाना चाहते है ,उनको अपने मन में चोरी करने को  स्थान देना नहीं चाहिए.


२. दूसरों की चीज़ों को चोरी करने  की बात सोचना भी अपराध है;


३..चुराकर धन जोड़ने पर एक दिन ऐसा वक्त आएगा , चोर  का  सर्वस्व लुट जाएगा.


४.चुराने की इच्छा  से असीम दुःख होगा.

५. जिसे के मन में चोरी करने का  विचार है,उसके मन में ज़रा भी दया या करूणा नहीं रहेगी.

६.. चोरी करके जीनेवाले मितव्ययी नहीं  होंगे.

७.आय के अनुकूल  जो जीना चाहते हैं ,उनमें चोरी का बुरा गुण  नहीं रहेगा.

८.ईमानदारी का मन धर्म पथ पर चलेगा; ठग या चोर का मन चोरी करने को ही सोचेगा.

९. चोरी  को ही अपनाकर  जीनेवाले जल्दी बरबाद  हो जायेंगे.

१० .चोर को खुद उसके प्राण घृणा करेंगे; ईमानदारी को देव -देवता भी प्रेम करेंगे.

தபஸ்யா--तपस्या २६१ से २७० तक तिरुक्कुरल

तपस्या --२६१  से  २७०

१.  दूसरों के दुःख दूर करना   और अपने दुखों को सहना ही तपस्या का मूल आकार है.

२. पूर्व जन्म के पुण्य से ही तप करना संभव है ; नहीं तो तपस्या में मन लगना दुर्लभ है.

३. शायद   सन्यासियों की अर्थात तपस्वीं   की सेवा  के लिए ही अन्य लोग  तपस्या करना छोड़ दिया हो ?
४. तपोबल से बुरों को  दमन   करने  का बल और अच्छों की भलाई करने  का   बल  मिलेगा .
५. जो भी हमारी चाह  है ,वे सब कुछ तपस्या से  मिल जाएगा. अतः तमास्या में मग्न होना चाहिए.
६.तपस्या करनेवाले अपने कर्तव्य मात्र निभाएँगे. अन्य लौकिक इच्छाओं में न  लगनेवाले तपस्वी नहीं बन सकते.
७. आग  में सोना जितना तपता है ,उतना चमकेंगे;  वैसे ही तपस्वी जितना कष्ट भोगेंगे ,उतना  ज्ञान  चमकेंगे.
८. जिन तपस्वीं  में अहंकार और अपने प्राण से अनासक्त होता है,उन्हें सब प्रशंसा करेंगे.
९.तपोबल प्राप्त तपस्वी  में यम को जीतने की दिव्य शक्ति मिलेगी.
१० .संसार  में शक्तिहीन  लोगों की संख्या ज्यादा है ,बलवान और शक्तिवानों की संख्या कम है; इसका  कारण  यही   है  कि तपस्या करने वाले कम है. न  करनेवाले ज्यादा है.

Monday, February 1, 2016

कृपा कटाक्ष ---तिरुक्कुरल --२५१ से २६० तक.

कृपा कटाक्ष ---तिरुक्कुरल --२४१ से २५० तक.
१. क्रूर अत्याचारियों के यहाँ भी धन -दौलत भरा रहेगा.

 पर  वह कृपा कटाक्ष  की संपत्ति के बराबर नहीं हो सकता. 

२. कई प्राकार के अनुसंधान के बाद  यही निष्कर्ष निकला कि  जीवन का साथी कृपा कटाक्ष ही है.

३. कृपा प्राप्त लोग दुःख के अँधेरे में घेरकर न रहेंगे. 

४. दूसरों को और अन्य जीवराशियों पर दया दिखानेवाले  और रक्षा करनेवाले सज्जन अपने प्राण को अति तुच्छ मानेंगे. 

५. कृपा कटाक्ष प्राप्तकर जीनेवाले को कभी किसी हालत में दुःख नहीं होगा. इस उक्ति का प्रमाण वायु है.वायु के चलने से ही संसार अति बलवान है.

६. जो कृपा प्राप्त करके जीते हैं वे निर्धनी होंगे और कर्तव्य विमुख होंगे. 

७. अर्थविहीन गृहस्थ जीवन इस संसार में दुखी रहेगा. उसी प्रकार करूण बिन  उस लोक में दुखी रहेंगे; 
अर्थात इस संसार में अर्थ ही प्रधान है और उस संसार में अर्थात देव लोक में कृपा ही प्रधान है.

८ . धन खोकर पुनः प्राप्त कर सकते हैं;पर कृपा खोकर प्राप्त करना असंभव है. 

९. ईश्वर की कृपा अप्राप्त व्यक्ति का धर्म- कार्य ,
अज्ञानी के ग्रन्थ पढने के सामान ही होगा. 
 अज्ञानी ग्रन्थ समझ नहीं पायेगा; 
कृपा अप्राप्त धर्म कर्म सही मूलसे कर न पायेगा.

१० .कृपा अप्राप्त बलवान दुर्बलों को सताते वक्त 
यह सोचना चाहिए कि उससे बलवान इस संसार में है. उसके सामने भयभीत रहना पड़ेगा .

कीर्ति = यश =प्रसिद्धि --तिरुक्कुरल --२३१ से २४०

कीर्ति = यश =प्रसिद्धि --तिरुक्कुरल --२३१ से २४० 

१. दीन -दुखियों  को  दान देना और यश भरे जीवन जीना  
 इससे  बढ़कर   और दूसरी बड़ी  कोई संपत्ति नहीं  है.

२. दींन -दुखियों के दाताओं की प्रशंसा ही सब से ऊंची कीर्ति है.

३. इस संसार में कोई चीज  अतुलनीय  और शाश्वत है तो 
वह  कीर्ति या यश  ही है.

४. आनेवाले युग में भी नामियों की ही प्रशंसा होगी ,
न विद्वानों की न शिक्षितों की .

५. जीते जी कीर्ति और मृत्यु की दशा में भी कीर्ति  पाना 
 सब के वश में नहीं हैं .
ऐसी प्रसिद्धि उनको मिलेगी ,जिनको  सहज रूप में वह शक्ति मिली हो.

६. संसार में जन्म लेने पर यश प्राप्त करना चाहिए; 
अर्थात जो भी काम करने को मिलता है ,
उसे ऐसा करना है ,
जिससे नाम मिले. 
 ऐसा  न  हो तो जन्म न  लेना ही  उचित है. 

७. जो अपने यश के लिए उचित कर्म न कर सकते ,
वे अपने आप दुखी होना  पडेगा. 
 ऐसा न करके  वे क्यों अपनी निंदकों
 और  अपने अपामान करने वालों की निंदा  करते है .
यह तो सही नहीं  है. 

८. अपने कर्म से  यश  प्राप्त न करनेवालों पर,
उसके निदन के बाद  लोग निंदा  ही  करेंगे .

९. बिना नाम के अर्थात कीर्ति के शारीर को भूमि ढोता है तो 
 मतलब है भूमि ऊसर है.

१० . बिन अपयश के जीना ही जीवन है,
 बिन कीर्ति के जीना और न जीना दोनों बराबर ही है. 

दान --तिरुक्कुरल --२२० से २३०

दान --तिरुक्कुरल --२२० से २३०  

 १. दान --तिरुक्कुरल --२२० से २३० दीन- दुखियों को      देना ही दान  है ; बाकी सब दान किसी फल की प्रतीक्षा में दिया हुआ दान सम है.
२.   भलाई  के लिए दूसरों के आग्रह से 
दूसरों से कुछ लेने में बड़प्पन नहीं हैं ;छुटपन ही है. 
३. अपनी गरीबी का दुखड़ा न रोकर  दान  देना कुलीन कर्म है.
४. दाता को तभी सुख होगा , तब तक उससे दान देनेवाले के चेहरे से उदासी दूर होगी और प्रसन्नता दीख पड़ेगी. 
५. अनशन रखकर तप करने के फल -पुण्य से ,दूसरों की भूख  मिटाने से अधिक फल और पुण्य मिलेगा. 
६. अपने यहाँ आये भूखे का पेट भरना  ही अमीरी का भविष्य निधि है.
७. अपने पास जो कुछ है ,उसे बांटकर खानेवाले को कभी भूख का महसूस करेंगे.
८. अपनी संपत्ति को दान पुण्य न करके sampatti  खोनेवाले दान कर्म के आनंद और महत्त्व को न जानते.
९. दान देने से जो अपनी संपत्ति के घटने की बात सोचेगा ,अपनी ढेर संपत्ति को खुद भोगना चाहेगा ,वह भीख मांगने से निम्न कार्य है.
१०.मृत्यु के  दुःख से अधिक दुःख प्रद है दूसरों को दान  न देने की दयनीय दशा . 

परोपकार २११ से २२० तक --तिरुक्कुरल

परोपकार   २११ से २२० तक --तिरुक्कुरल 

     १.    वर्षा  प्रत्युपकार  की चाह के बिना ही होती है;
वैसे   ही संसार में परोपकार करनेवाले होते हैं.

२. परोपकारी कठोर मेहनत  करके जो  कुछ जमा करता है ,वे सब दूसरों की मदद करने के लिए ही है. 
३.परोपकार जैसे सत्कार्य के सामान और कोई श्रेष्ठ कार्य इस लोक में भी नहीं और परलोक में भी नहीं.
४. परोपकार के लिए ही जीनेवाला ही ज़िंदा आदमी है; बाकी सब मरे हुए माने जायेंगे .
५. सार्वजनिक भलाई के लिए जीनेवाले की संपत्ति 
सार्वजनिक तालाब जैसा है.जिसमें पानी का स्त्रोत भरता रहता है.
६. दयालु और परोपकारी की संपत्ति शहर के बीच पले
फलों के वृक्ष सामान हैं ,जिसमें जो चाहे फल तोड़ सकते हैं.
७.दयालु और परोपकार की संपत्ति  एक ऐसे पेड़ के सामान हैं ,जिसके सारे अंग दूसरों के लिए ही काम आयेगा,
८. जो परोपकार को ही श्रेष्ठ मानते हैं ,वे अपनी दीनावस्था में भी परोपकार कर्म पर दृढ़ रहेंगे ; ज़रा भी विचलित नहीं  होंगे. 
९.जो परोपकार करता हैं ,वह तभी पछतायेगा ,जब वह दूसरों  को दे नहीं सकता .
१० .परोपकार से बुराई होगी तो वह उसे अपने को बेचकर भी प्राप्त कर सकता है.