Tuesday, October 24, 2023

सनातन धर्म

 

एस.अनंतकृष्णन,S. ANANDAKRISHNAN
शोध विषय –सनातन धर्म और मानवता
52. HR/369/52/17-072023

                                      शोधार्थी घोषणा पत्र
मैं एस.अनंतकृष्णन (शोधार्थी दिव्य प्रेरक कहानियाँ मानवता अनुसंधान केंद्र )यह प्रमाणित करता हूँ  कि प्रस्तुत शोध प्रबंध “सनातन धर्म और मानवता”  जो व्यवहारिक अनुसंधान का मूल भाग है तथा अप्रकाशित है।इस शोध प्रबंध को डा०.अभिषेक कुमार के मार्गदर्शन में हमने पूरा किया है।मैं यह घोषणा करता हूँ  कि  इससे पहले किसी अन्य डिग्री डिप्लोमा के लिए  उपयोग नहीं किया गया है। यह भी प्रमाणित करता हूँ कि  हमने अपना अनुसंधान कार्य  दिव्य प्रेरक कहानियाँ मानवता अनुसंधान केंद्र द्वारा प्रतिपादित सभी नियम व निर्देशों के तहत पूर्ण किया है।

दिनांक                                                        शोधार्थी का हस्ताक्षर
 
                                 

                            पर्यवेक्षक घोषणा पत्र
    प्रमाणित किया जाता है कि दिव्य प्रेरक कहानियाँ मानवता अनुसंधान केंद्र के अंतर्गत “सनातन धर्म और मानवता” विषय पर शोधार्थी “एस. अनंतकृष्णन द्वारा किया गया प्रस्तुत अनुसंधान मूल व अप्रकाशित भाग है। इनके द्वारा मेरे निर्देशन में यह शोध कार्य किया गया है एवं शोध प्रकाशन के लिए उपयुक्त है।
वर्तमान  में यह व्यवहारिक अनुसंधान कार्य सामाजिक समरसता, आपसी एकता,प्रेम,सहयोग,परोपकार तथा नैतिकता,मानवता युक्त सौहार्दपूर्ण वातावरण बनाने में अति महत्वपूर्ण साबित होगा।  इस तरह का अनुसंधान कार्य करना, अनुसंधान कर्ता की कार्य कुशलता व सच्ची मानवता के प्रति समर्पण को दर्शाता है।
यह भी प्रमाणित किया जाता है कि शोधार्थी ने अपना अनुसंधान कार्य दिव्य प्रेरक कहानियाँ मानवता अनुसंधान केंद्र द्वारा प्रतिपादित सभी नियम व निर्देशों के तहत पूर्ण किया है।

दिनांक—--                                      पर्यवेक्षक का हस्ताक्षर
                                                    नाम
                                                    पद का नाम
                                                    पता

                                                           
                                                             
                                                     
 



 
                                     


धर्म -सनातन धर्म और मानवता

धर्म क्या है ?
सनातन क्या है ?
मानवता क्या है ?
शोध विषय –सनातन धर्म और मानवता
        १.धर्म है :-
अग जग का कल्याण करना।
धर्म –
१.ईश्वरीय धर्म,
२.मानव धर्म  ।
1.ईश्वरीय धर्म– 
अग जग की सारी सृष्टियों में सार्वजनिक कल्याण के लिए पंचतत्व ही ईश्वरीय तटस्थ तथ्य है । सब के हित और अहित में निष्पक्षता पंचतत्वों में ही है,अन्य विषयों में नहीं है ।
यही प्राकृतिक धर्म है । इन पंचतत्वों के कारण जो हित कार्य होते हैं,वे केवल मनुष्य के लिए नहीं बल्कि सब के लिए  अर्थात संपूर्ण भूलोक के जड,चेतन पशु-पक्षी,पेड-पौधे,जलाशय,पर्वत  सब के लिए ।
यह भूलोक नश्वर है। भूलोक को मृत्यु लोक भी कहते हैं ।पंचतत्व परिशुदध  रहते हैं तो अशाश्वत संसार में सुख, समृद्धि,संतोष,शांति आदि  रहते हैं ।पंचतत्व कुपित और प्रदूषित होंगे तो नदी-नाले जलाशय सूख जाते हैं । जड-चेतन वस्तुओं में अशांति बिखेर जाती है। हवा जो प्राण दात्री है,वही प्रचंड तेज़ होने पर बडे बडे वृक्ष गिर जाते हैं।  पहाड से चट्टानें गिरती हैं ।  जंगली नदियों के बाढ़ समुद्र की तेज़ लहरें चट्टानों को तोड देते हैं । बडे-बडे नगरों को डुबो देता है ।ज्वार-भाटा  के कारण कई सभ्यताएँ कालकवलित हो गई हैं ।भूकंप,ज्वाला मुखी,आकाश के बिजली वज्रघात अति विनाशक तत्व हैं. यही ईश्वरीय नियमित शाश्वत धर्म है
मानव धर्म —
मानव धर्म है मानवता । मानवता न तो मानव  आदमखोर -पशु ही है। मानव का कोई मूल्य नहीं है। मानवता ही मानव-धर्म होता है ।
मानवता—मानवता सहज ही प्राप्त नहीं होती। सभ्यता और संस्कृतियों के विकास के कारण मानवता का विकास होता है।  आज भी घने जंगलों में असभ्य आदीवासी पशु -सा जीवन बिता रहे हैं ।
    मानव में ही ज्ञान-चक्षु होते हैं ।वे कुछ लोगों को स्वतः खुल जाते हैं ।कुछ लोगों को सत्संग के कारण खुल जाते हैं । कुछ लोगों को गुरु कृपा से,ईश्वरीय अनुग्रह से खुल जाते हैं ।कुछ लोगों को अभ्यास,अनुभव और सामाजिक व्यवहार से स्वतः खुल जाते हैं ।ज्ञान चक्षु के खुलने में सत्संगति का अधिक महत्व है।
  अनपढ कबीर  ज्ञानमार्ग के जनक होते हैं । उनकी जीवनी से दो बातें स्पष्ट होती हैं ।
पहली बात है गुरु भक्ति ,गुरु उपदेश। कट्टर जातिवाद का जमाना था। गुरु मिलना और गुरु की आशीषें मिलना दुर्लभ था।कबीर का जन्म विधवा ब्राह्मणी के कोख से हुआ। मुगल दंपति नीमा-नीरु द्वारा पालन पोषण हुआ।  उनके भाग्य के निर्माण में ऐसा ज्ञान चक्षु खुला कि  गुरु के उपदेश प्राप्त करने  मुँह अंधेरे में जाग उठे। गुरु नदी में नहाने तभी आते थे। कबीर घाट की सीढी पर लेट गये ।   गुरु नहाने आये तो उनके चरण कमल सीढी पर लेेटे कबीर पर पडे । तब गुरु ने राम,राम कहा।  गुरु के चरण कमल का स्पर्श और उपदेश ।  वे अपने को सौभाग्यशाली मान गये।   राम,राम उनके लिए सीमित पंथ का नाम नहीं था । अति व्यापक था।  निराकर परबह्म स्वरूप था।
उन्होंने कहा -
चारी भुजा के चरण में,भूले परे सब संत।
  कबीरा पूजै तासू को जिनकी पुजाएँ अनंत।
यह ज्ञान उनको किसी गुरुकुल के अध्ययन से नहीं मिला ।
विश्वविद्यलय के प्राध्यापक से न मिला । बडे बडे ग्रंथों के रात-दिन के अभ्यास से नहीं मिला ।
  सत्संग से मिला।  हिंदू-मुसलिम की दुश्मनी के तत्काल वातावरण में दोनों मजहबियों के लोग उन्हें गुरु माना। यही मानव धर्म और मानवता है ।मानवता मनुष्य-मनुष्य में एकता,समानता लाती है।    सत्य,अहिंसा,प्रेम,दया-करुणा,त्याग,परोपकार,जन-कल्याण  की भावना सेवा, निस्वार्थता,तटस्थता.ईमानदारी,परायों के लिए जीना-मरना,अग जग में मित्रता लाना,  अग जग कल्याण का नारा -  जय जगत,वसुधैव कुटुंबकम्,सर्वे जनाः सुखिनो भवंतु।
      यही है सनातन धर्म और मानवतावाद । इसका प्रमाण है वेद-पुराण। स्थल वृक्ष,वनमहोत्सव,नदी में स्नान करने के नियम,योगाभ्यास,प्राणायाम,आयुर्वेद आदि।
सनातन धर्म —---
सनातन शब्द का अर्थ सब के सार्वजनिक कल्य़ाण के शाश्वत नियम ,सिद्धांत,मार्गदर्शन । मानव का वर्गीकरण बुद्धि कौशल और पेशे के आधार पर । इसे वर्णाश्रम धर्म कहते हैं ।
आजकल जातीय भेद भाव दूर करने के लिए सबको समान अवसर दिया गया है । जो जैसा चाहे ,वैसा पेशा कर सकता है ।उदाहरण के लिए  तमिलनाडू में सब  बिना जाति भेद के मंदिर का अर्चक बन सकते हैं ।तब वह ब्राह्मण  बन जाता है ।एक ब्राह्मण नाई की दूकान चलाएगा तो नाई। ये सब पेशे के अनुकूल आदरणीय ही रहा । जब ऐसी व्यवस्था थी, तब भारत ज्ञान में,कला कौशल में,वास्तुकला में,संगीत कला में,नाट्य कला में,साहित्य में ज्ञान भूमि रही। जगत गुरु  भारत रहा। ऋषि-मुनि,साधु-संत त्रिकाल ज्ञानी रहे ।अद्भुत मंदिर बनावट की कला के बराबर अग जग में और कहीं नहीं ।छेनी से बनी पाषाण कला की मूर्तियाँ ईश्वरीय चमत्कार हैं ।अतः सनातन धर्म आध्यात्मिक मार्गदर्शक है । कदम कदम पर मनुष्येतर शक्ति की याद दिलाता रहता है।मानव में एक ही प्रकार की क्षमता नहीं है  मानव मानव में रूप,रंग,आकार और बुद्धि कौशलों में ,खून के वर्ग में अंतर होते हैं ।  यह तो कर्म फल के अनुसार होता है।मानव के सुख -दुख तो सोच-विचार-कर्म के आधार पर होता है ।  धर्म तो अपनी अपनी उम्र के अनुसार पालन करना है ।
शैशव काल में बच्चा भोलाभाला है । चिकनी मिट्टी को कुम्हार जैसा रूप देता है,  वैसा बन जाता है । वह मिट्टी में भगवान भी बना सकता है,बंदर भी।  गुलाब का फूल भी बना सकता है।  जहरीले काँटेदार पौधे भी बना सकता है ।  चिकनी मिट्टी के समान  शिशु को अच्छे संस्कार में डालने का धर्म अभिभावकों का है ।  लडकपन का धर्म शिक्षा और स्वास्थ्य पर  ध्यान देना है ।छात्र धर्म गुरु का सम्मान,अच्छी -चालचलन,अनुशासन,दीन-दुखियों की सेवा,सार्वजनिक सफाई आदि ।  मानव धर्म आवश्यकता के अनुसार आम धर्म हो जाता है। जीना,जीने देना मानवधर्म है ।
    भगवान तो एक है ।पर  विद्वानों ने अनेक रूप देकर मजहब के नाम से समझाया है । मजहब या मत मतांतर के सिदधांत तो मूल में एक है । सत्य बोलना,चोरी डकैति न करना,मानवता अर्थात दूसरों के लिए जीना,दान -धर्म करना, आपस में प्रेम भाव निभाना,तटस्थ  जीवन  बिताना,अहित न करना, विश्व शांति कायम रखना, आदि l
२. विश्व गुरु भारत–
विश्व में आदी सभ्यता का केंद्र भारत है।  पाषाण युग के पशु-तुल्य जीवन से धीरे-धीरे बुद्धिबल से आधुनिक सुख सुविधा का विकास कर रहा है।  पाश्चात्य देश और भारत की तु्ल्ना में भारत ही सर्वसंपन्न देश है।  पाश्चात्य देशों का जलवायु मानव को सुस्त बना रहा है । वहाँ प्राकृतिक वातावरण में चार ही महीना भारतीयों के जैसे चलने फिरने का है. फिर ठंड पड जाता है । बर्फीले प्रदेश में भारत जैसे खाद्य-पदार्थ नहीं मिलते।   वहाँ मानव को प्रकृति के कोप से बचने संघर्ष करना पडता है । ईश्वर ने पाश्चात्य देशों को वैज्ञानिक साधनों के आविष्कार के लिए सृजन किया है ।  भारत में खाद्य पदार्थों की कमी नहीं है। मानव को जब खाने के लिए बहुत मिल जाता है,  तब अन्य बातों की चिंता नहीं करता।  पेट भर जाता है,तो मेहनत में मन नहीं लगता।  अतः ईश्वर की देन से संतुष्ट मानव त्यागमय जीवन बिताने लगा।  भारत में साधु-संत और भिखारियों की संख्या अधिक हैं ।  उनका मुख्य कार्य मानव में मानवता लाना ही रहा।  वे त्यागमय जीवन सादा जीवन, उच्च विचार के जीवन बिताने लगे। अग-जग को मार्ग दिखानेवाले,तपोमय जीवन बितानेवाले  ऋषि-मुनि लौकिकता छोडकर दूर जंगलों में , पहाड की गुफाओं में , नदियों के तीर पर अलौकिक जीवन बिताने लगे।  ईश्वरीय चिंतन और लोक कल्याण में लगा रहते थे ।
वे मानव को मानव बनाने के लिए तप करते थे । विद्या प्राप्त करना विनयशील रहना था।  विनयशीलता ही विद्या देती है ।चरित्र सही नहीं तो मानव पशु ही है । पशुत्व के गुण काम,क्रोध,मद, लोभ के आने पर मनुष्य महा मूर्ख बन जाता है।  राम भक्त कवि तुलसी का एक दोहा है–
काम,क्रोध,मद,लोभ,जब मन में लगै खान ।
तब पंडित मूर्खौ एक समान,तुलसी कहत विवेक।.
तुलसीदास जब तक अविवेकी थे, तब तक पत्नी से चिपक रहते थे।  मानव में संयम की अत्यंत जरूरत है। मानव को जितेंद्र होना चाहिए ।मानव में अच्छी चालचलन चाहिए ।मानव में अनुशासन चाहिए ।हमारे वेद ग्रंथों में,पौराणिक दिव्य प्रेरक कहानियों में त्यागमय जीवन की शिक्षा ही मिलती है ।  उपदेशों के मूल में प्रेम,परोपकार,दान-धर्म,भक्ति , श्रद्धा ही प्रधान रहे।  जगत् मिथ्या,ब्रह्मम सत्यम । संत कवि तिरुवल्लुवर ने लिखा है,धर्म प्रेमहीन लोगों को सताएगा ।हड्डी हीन कीटों को धूप जैसे झुलसाती है,वैसे ही धर्म देव प्रेम हीन लोगों को सताएगा।
सनातन धर्म के आरोग्य वेद में  योग,प्राणायाम,देहाभ्यास,रोग के कारण-निवारण आदि बातें बतायी गयी हैं। हर एक अंग को स्वस्थ रखने के नियम बताये गये हैं ।
  दाँत साफ करने के नियम में जिह्वा निर्लेखन करने का,  मुँह खुल्ला करने का नियम है । स्नान करने का भी नियम है। तेल  स्नान पुरुषों को कौन से  दिन में ,स्त्रियों  को कौन से दिन में,तेल स्नान के लिए तेल स्नान करने की रीतियों को भी उल्लेख हुआ है।  सनातन धर्म बात बात में आचार व्यवहार पर ही जोर देता है।  ब्रह्म मुहूर्त में उठना,शौचादि नियमानुसार करना,ठंडे पानी में स्नान करना,ईश्वर का ध्यान करना,विद्याध्ययन करना,निष्काम सेवा करना,कर्तव्य निभाना आदि ।
ब्रह्म मुहूर्त में उठने के  लाभ – वेद-शास्त्रों में सूर्योदय के पहले के दृश्य का उल्लेख मिलता है।
अथर्वण वेद –१०-७-३१
नाम नामना जोहवीति पुरा सूर्यास्त पुरषोसः
यदजःप्रथममम
जीवन को सुचारू रूप से चलाने पाँच सिद्धांतों का पालन अनिवार्य बताया गया है। सत्य ,अहिंसा अस्तेय,ब्रह्मचर्य,अपरिग्रह आदि का पालन करना अति आवश्यक है।
अस्तेयप्रतिष्ठायांसर्वरत्नोपस्थानम्।  अस्तेय का मतलब है चोरी नहीं करना। चोरी केवल सोना,चांदी,हीरा जवाहरात ही नहीं,दिल की चोरी,विचारों की चोरी,अन्यों की पत्नी से प्यार करना, सुंदर महिलाओं को अपनाने की कल्पना आदि भी चोरी की सूची में आ जाते हैं।  दूसरों  के पास जो है,वह हमारे पास नहीं तो  पछताना भी चोरी है। इसके फल स्वरूप का दंड  ईर्ष्या  मन में जम जाती है। आजीवन  ईर्ष्या के कारण मानव दुखी रहता है ।चोरी करने की इच्छा न तो मानव में दुर्गुण के लिए  स्थान ही नहीं है। भगवान के अनुग्रह के लिए हमें अपने मिले पेशे को निष्काम भाव से मन लगाकर करना चाहिए ।यही गीतोपदेश है ।
  हमें अपने वातावरण को प्रदूषित करना न चाहिए।आजकल जल,थल,वायु प्रदूषण आदि से  बढकर विचारों के प्रदूषण में ही बडा खतरा है। मानव में सद्वृततियाँ या दुष्वृत्तियाँ श्रवण द्वारा या संगति के फल द्वारा बस जाती है।   मंडण मिश्र के आश्रम के तोते वेद मंत्रों को बोलते थे। सद्गुरु कबीर सत्संग के कारण ही वाणी के सर्वाधिकारी बने। पशु तुल्य मानव को ईश्वर तुल्य बनाने की शक्ति  वाणी में हैं। डाकू रत्नाकर नारद के सदुपदेश के कारण आदी कवि वाल्मकी बना । कामुक तुलसीदास  पत्नी के क्रोध भरे शब्दों को सुनकर पत्नी दासता तजकर राम दास बने । हिंदी साहित्याकाश के चंद्र बने । आजकल बाह्याडंबर के कारण फ़जूलखर्च करते हैं। भगवान की मूर्ति लड्डू से बनवाकर फिर तोड तोडकर प्रसाद समान बाँटते हैं। इमली भात में भी मूर्ति बनाते हैं । ये सब भक्ति का बाह्याडंबर सही नहीं है!
  आजकल विचारों का प्रदूषण युवकों में लौकिक चाहें बढा रहा है। अंग्रेज़ी शिक्षा माध्यम पाश्चात्य मोह बढा रहा है। जनसंपर्क प्रसाधन में अश्लील चित्र ,फ़िल्मी गीत,लघु चित्रपट,संवाद में अश्लीलता युवकों को बिगाड रहे हैं । खान-पान,पोशाकें,आचार -विचार,अंग्रेज़ी मिश्रित संवाद  विचारों को प्रदूषित कर रहा है ।
  ब्रह्मांड पंच तत्वों से बना है।  उन तत्वों को प्रदूषित रहित रखना ही सुखी जीवन का आधार है हमारे पुराणों में वन महोत्सव ,वन संरक्षण की  व्यवस्था बतायी गई है ।मंदिरों में स्थल वृक्ष होते हैं। पीपल पेड के नीचे  गणेश की मूर्ति प्रतिष्ठित करते हैं । पीपल और नीम के पेडों की शादी रचाई जाती है। वातावरण को प्रदूषण से बचाने के लिए यज्ञ-हवन करते हैं।  यज्ञ की धुएँ प्रदूषण रहित  वातावरण को रखती हैं।  दिव्य स्थलों में स्थल वृक्ष लगाते हैं। ज्योतिष शास्त्र में हर बारह राशी के लिए एक एक पेड लगाना सुख प्रद और आनंदप्रद हैं । हर राशी के व्यक्ति अपने अपने राशी के पेड लगाकर प्रार्थना करें तो उनको मनोवांछित फल मिलेगा।

  हमारे पूर्वज अमानुष्य शक्ति पर भरोसा रखते थे। हर एक बात को वैज्ञानिक न मानकर ईश्वरीय देन ही मानते हैं। ईश्वरीय दंड,ईश्वरीय परीक्षा, ईश्वरीय सुख, ईश्वरीय दुख , ईश्वरीय पद और अधिकार ही मानते हैं ।
नाखून में रोगाणु रहते हैं। इसलिए नाखून काटने से बीमारी होगी। यों न सिखाकर यही कहते है कि नाखून काटने पर ईश्वर नाराज़ हो जाएँगेे ।
  ईश्वरीय चमत्कार को नास्तिक विचारवाले  और  वैज्ञानिक न मानते। लोग प्रत्यक्ष प्रमाण और दृश्य  को मानने लगे।  जब वैज्ञानिक महत्व बढा,तब मानव -मानव में गलतफहमी होने लगी। वैज्ञानिक सुख-सुविधा के साधनों की प्रगति के कारण ईश्वरीय शक्ति को कम मानने लगे। उन्होंने यही सोचा कि  संसार में  हर बात ईश्वरीय संकेत से होती है। यह नहीं सोचा कि सबहिं नचावत राम गोसाई ।
वह तर्क करने लगा कि पौराणिक कथाओं और ऐतिहासिक कथाओं में आसुरी शक्ति बडी है उनमें देवों को भी जेल में डालने की  शक्ति थी ।एक बार असुरों ने देवों को अधिक तंग किया। देवों को असुरों को हराना था। पता चला कि असुरों को हराने की शक्ति दधिची नामक तपस्वी की रीढ की हड्डी में है। देवों की माँग पर दधिची ने अपनी रीढ की हड्डी दे दी।  सनातन धर्म की सीख है कि मानव में ईश्वर बस जाता है । जब उनका आचरण सद्व्यवहार से भरा हो ।यह  मानव मूल्य सनातन धर्म की विशेषता है। मानव की विवेक शीलता ने धार्मिक अंधविश्वास को भगाया। पर जन्म और मरण के रहस्य की सूक्ष्मता ने मानव को अमानुष्य शक्ति पर उम्मीद रखने को विवश कर दिया।
  पंच तत्वों के अनुकूल -प्रतिकूल क्रियाकलाप के कारण मानव प्रकृति की आराधना करने लगा। सूर्य,चंद्र जैसे नव ग्रहों की गति के कारण अनुकूल-विपरीत परिस्थितियाँ, प्राकृतिक आपत्तियाँ भूकंप,समुद्र का प्रकोप ,आँधी-तूफान,कीटाणुओं  के कारण होनेवाले असाध्य रोग मृत्यु ,तो  अति सूक्ष्म अदृश्य बिंदुओं में पशु-पक्षी, वनस्पतियों में अंग,प्रत्यंग,उपांग, डाल ,शाखाएँ,
विभिन्न गुण-दोष के जड-चेतन सृजनें आदि ने  मानव बुद्धि से बढकर  एक अज्ञात शक्ति ,एक सूत्रधारी के अस्तित्व  को मानव सोचने लगा। वटवृक्ष के बीज,वट वृक्ष के आकार का चमत्कार भगवान को मानने को विवश कर दिया ।बडे-बडे हाथी,हठीले घोडे,खूँख्वार शेर,बाघ,विषैला नाग सबको अपने इशारे पर नचानेवाले मनुष्य को अदृश्य कीटाणु,मच्छर,  असाध्य संक्रामक  रोग डराने लगे। तब  मानव को  दिव्य आध्यात्मिकता को झुककर दंडवत  करना पडा ।
मानव में मनुष्येतर अमानुष्य शक्ति की खोज की जिज्ञासाएँ बढती रही। जन्म,शैशव,बचपन,लडकपन,जवानी,बुढापा,रोग,मृत्यु आदि जीवन चक्र की सूक्ष्मता जानने के प्रयत्न में राजकमार सिद्धार्थ  अपना राजषी सुखी जीवन तजकर जंगल में तपस्या करने गया तो
उनको ज्ञान ही मिला । बुद्धि मिली।बुदध बना। अहिंसा,शांति,मानव कल्याण की निस्वार्थ  सेवा,चिकित्सा दान- धर्म का प्रचार करने लगा।करतल भिक्षा,तरुतलवसा का जीवन सनातन धर्म की सीख है।
महावीर तो अपने वस्त्र तक त्याग दिया । सनातन धर्म में भी ये सिद्धंत है ही।
एक छोटा -सा बीज बहुत बडा वट वृक्ष बन जाता है।उसकी जड शाखाएँ फैलकर तीन -चार एकड़ का विशाल वृक्ष बन जाता है ।एक बडे वट वृक्ष के नीचे एक बडी सेना ठहर सकती हैं। विविध किस्म के पक्षी घोंसले बनाकर रहते हैं।  मानव अपने वैज्ञानिक ज्ञान द्वारा इतना बडा वटवृक्ष उगा नहीं सकता ।
अंडज,पिंडज,स्वेतज की सृष्टियौं में वेदों के अनुसार चौरसी लाख सृष्टियाँ  हैं ।पिंडज की सृष्टियाँ अंडज में असंभव हो जाती हैं।अंडज-पिंडज  से भिन्न स्वेतज,(पसीने में उ्पन्न होेनेवाले),चावल,दाल,इमली में अपने आप उत्पन्न होनेवाले कीट। तितली का विकास क्रम अद्भुत  कीडे के रूप में पेड-पौधों के पत्ते-पत्तियाँ खाकर बिगडती हैं। तितली बनकर फूल-फूल पर बैठकर मकरंद मिलन के लिए मदद करती है। यह कितना बडा देव रहस्य है ।
पत्तों के नीचे अंडे देकर तितलियाँ निश्चिंत उड जाती हैं।ये अंडे मोटे कीडे बनते हैं ।रूप तो काले घृणित है। बडा होने पर इन की सुरक्षा के लिए इनके चारों ओर कडा खोल बन जाता है।(अंडे,केटर पिल्लर,प्यपा,तितली)  अपने कीडे की अवस्था में पेड-पौधे के पत्तों को खाने से पेड नष्ट होते हैं। वही कीडा तितली का रूप धारण करके फूल-फूल का रस चूसती है और मकरंद लेकर अन्य फूलों में मकरंद मिलाकर बीज बनने की मदद करते हैं। कहा जाता है कि तितलियाँ १३००० किस्म के होते हैं।  रेशमी कीडे बहुमूल्य रेशम देते हैं।
ऊँचे-ऊँचे पहाड,जीव नदियाँ,जंगली नदियाँ,समुद्र तट पर पेय जल,समुद्र का खारा पानी ये सब मानव के लिए एक पहलू है।  ऊँचे-ऊँचे पेड,उनके विविध आकार के विविध स्वाद के विविध रंगों के ,गुणों के फूल,पत्ते,फल, नाना प्रकार के रंग के ,विविध गुणों के भिन्न-भिन्न खुशबू के फूल, बद्बू के फूल ,सुगंध रहित के फूल आदि सर्वेश्वर के विचारों को शाश्वत बना देता है।
ईश्वर  की सृष्टियों को  वर्तमान में सुरक्षित रखना मानव धर्म और कर्तव्य है।  नगरीकरण के कारण जंगल,झील नदारद हो गये हैं । कई जंगली जानवर भी अब देखने को नहीं मिलते परिणाम स्वरूप पृथ्वी प्रकृति के विपरीत बदल रही है। जलवायु में परिवर्तन,गर्मी बढना,सुनामी,भूकंप,अनावृष्टि,अति वृष्टि आदि पृथ्वी वासियों को तंग देने लगते है। बीमारियाँ प्राण लेवा होती हैं। पाश्चात्य प्रभाव के कारण संयम कम हो रहा है ।
भारतीय सम्मिलित परिवार में आत्मनियंत्रण,आत्मत्याग,सहायता,सहनशीलता,सादा जीवन उच्च विचार आदि की प्रधानता है।  संयमित रहने के लिए रिश्तों की व्यवस्था अगजग मेें सिवा भारत के और कहीं नहीं है। नाना,नानी,दादा-दादी,माता-पिता,भाई-बहन,बुआ,बुआइन,सास-ससुर,साला,साली,देवर-देवरानी,
ननद-ननदोई,मामा-मामी,पति-पत्नी,चाचा-चाची,जेठ-जेठानी,बहु,पुत्र,पुत्री,भतीजा,भतीजी,भांजा-भाँजी,नाती-नातिन,मौसा,मौसी,संबंधी,ताऊ,साडू,भाभी,पोता,पोती,नाती-नातिदत्तक पुत्र पुत्री,सौतेला भाई आदि। इन रिश्तों की व्यवस्था  परिवार को मर्यादित रखती है ।
पाश्चात्य व्यवस्था तो मर्यादा से परे होती है। वहाँ वैवाहिक व्यवस्था अव्यवस्था दिल से संबंधित नहीं है।  चंचल मनवाले आसानी से तलाक देते हैं और आपस में यह बोलने लग जाते हैं कि तेरा बेटा,मेरा बेटा  हमारे बेटे के साथ खेल रहे हैं ।भारतीय रिश्तों का प्रबंध स्थाई होता है ।वहाँ का रिश्ता प्रबंध माता-पिता,भाई-बहन,अंकिल-आंटी तक ही सीमित हैं ।हमारी सम्मिलित परिवार की सहयोग सहकारिता देख अवाक् रह जाते हैं ।
पियक्कड भी बढ रहे हैं।  मानसिक अनियंत्रण  होने से  वैवाहिक जीवन में अतृप्त हो जाता है भारतीय भाषाऔं में तलाक शब्द नहीं है।  विदेशी शासन के बाद विदेशी भाषा के कारण तलाक बढ रहा है । मानवीय मन के कुविचारों में नियंत्रण लाने की एक मात्र शक्ति ईश्वरीय ध्यान और आध्यात्मिकता ही है।  हम वेदों का अध्ययन भूलकर बडी भूल कर रहे हैं। वेदों में मानव के स्वच्छ जीवन की नसीहतें हैं।  माता-पिता-गुरु ईश्वर है,यह सीख लुप्त हो रहा है।  आधुनिक स्नातक और स्नातकोत्तर का ध्यान नौकरी करने और धन कमाने में ही है।  शिक्षा,इलाज,न्याय आदि धनियों को ही मिलते हैं।  इन तीनों के लिए धन प्रधान हो गया है।
शिक्षा में ब्रह्मचर्य की बात नहीं है। बचपन में ही बुरे विचार आ जाते हैं। प्राचीन काल में बच्चों के सामने माता पिता दूर रहते थे।  आधुनिक काल में माता-पिता बच्चों के सामने ही चूमते हैं। चित्रपट बालकों के मन में कामुकता बढा रहे हैं।  प्रेमी-प्रेमिका की आंगिक चेष्टाएँ चित्रपट में दिखाते हैं। शुक्ल पतन के कारण पुरुष कमजोर हो जाता है।परिणाम अवैध संबंध की खबरें समाचार पत्रों में आते हैं।पति को छोडकर बच्चों को छोडकर  भागना,पत्नी को छोडकर पति को भागना,बलात्कार दैनिक ताज़ी खबरें बन गयी हैं। कभी-कभी अपने बच्चे को भी हत्या करके कामांध बन जाते हैं।  कारण धार्मिक शिक्षा का अभाव और माया-शैतान का असर।
तुलसीदास ने विवेक सहित कहा है-
काम,क्रोध,मद,लोभ,जब मन में लगै खान,पंडित मूर्खौ एक समान,तुलसी कहत विवेक।।
वेदों में ब्रह्मचर्य की अनिवार्यता बताई गई है। मानव का मन ब्रह्म में सदा विचरण करना ब्रह्मचर्य है।  मानव को अपनी इच्छाओं और अपने इंद्रियों पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त करने का ज्ञान ब्रह्मचर्य में मिलता है।  वेदों के अनुसार ब्रह्मचर्य तीन प्रकार के हैं—-
१.शारीरिक ब्रह्मचर्य २.मानसिक ब्रह्मचर्य ३.वाचिक ब्रह्मचर्य
१.शारीरिक ब्रह्मचर्य  -आलिंगन,चुंबन,हाव-भाव, उपस्थेंदरिय के संचालन में गुप्त स्थान में अलग रहना।
२.मानसिक बरह्मचर्य—वासना विषय का चिंतन,प्यर मिलन,संभोग आदि भावनाओं को बिलकुल त्याग कर देना।
३. वाचिक ब्रह्मचर्य–प्रेम की चर्चा,ऐशआरम की चर्चा,अश्लील बातें करना,नग्न चित्र,इंटरनेट के ब्लू फ़िल्म,अश्लील किताबों की चर्चा आदि न करना वाचिक ब्रह्मचर्य की बातें हैं ।आधुनिक काल में सामाजिक माध्यम ,दीर्घ,लघु चित्र पट,जनसंपर्क साधन के नाच-गान,रिकार्ड डान्स जो मंदिरों के उत्सव और चुनाव प्रचार में होते होते हैं, वे सब ब्रह्मचर्य के  बाधक होते हैं ।
  सनातन धर्म हर मानव जीवन को अनुशासित रखने  ब्रह्ममुहूर्त से रात्री सोने तक  के नियम बता रहे हैं।  वे केवल अग जग को अघ रहित बनाने के लिए हैं। मानव के सुखी-स्वस्थ जीवन के लिए हैं ।जय जगत,सर्वे जना सुखिनो भवंतु,वसुधैव कुटुंबकम् यही आदी काल के
सनातन धर्म की सीख है।  भारतीय धर्म  संकुचित विचार धारा का नहीं है।  मजहब मत-मतांतर,संप्रदाय संकीर्ण होते हैं।  धर्म सार्वजनिक हित के लिए है। मत या मजहब मानव मानव में घृणा पैदा करते हैं।  धर्म विश्व मानव को एक बनाने के लिए विस्तृत सिद्धांत रखते हैं ।
हर सृष्टि का सम्मान ,सुरक्षा मानव धर्म है।  सनातन धर्म केवल पुण्य के पक्ष में है। पाप कर्म करने के लिए सोचना भी पाप मानता है ।वह बताता है कि पाप कर्म ज्ञात हो या अज्ञात दंडनीय होते हैं। मानव जीवन में चरित्र ही प्रधान होता है। चरित्रहीन मानव सिर ऊँचा करके चलफिर नहीं सकता। सनातन धर्म जगत गुरु है। भारत आदी सभ्यता का मूल होता है । वह सारी दुनिया का मार्ग दर्शक है। आगे इन बातों पर विस्तार से सोच-विचार करेंगे तो मानव मानवता सीखकर संतोषप्रद,आनंदप्रद,शांतिप्रद हो जाएँगे ।
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३.अनुसंधान की आवश्यक्ता
आधुनिक युग में ज्ञान का विस्फोट हो रहा है।हर बात के लिए सत्य प्रमाण की  जरूरत है ।
सत्य की खोज के लिए अनुशीलन-विश्लेषण अनिवार्य है। वही शोध ग्रंथ का आधार है।  अतः सनातन धर्म के  सर्वे जनाः सुखिनो भवंतु ,वसुधैव कुटुंबकम् अहिंसो परमो धर्मःअतिथिदेवोभव,
परोपकार,आत्मत्याग,सादाजीवन,उच्चविचार,दान-धर्म,सहानुभूति,अनुशासन का प्रमाणित करने खोज करना आवश्यक है ।आधुनिक पीढी को ,जो पाश्चात्यता अपनाकर अंग्रेज़ी सीखकर  चरित्र पतन की ओर जा रहेे हैं। जिस देश की भाषाओंं मेंं तलाक शब्द ही नहीं,वहाँं तलाक मुवकद्दमा बढ रहे हैंं ।मानव में मानवता जगाकर चरित्र निर्माण के लिएसनातन धर्म और मानवता  की खोज करके भावी पीढी में जागृति लाने शोध ग्रंथ की आवश्यक्ता है।

सभी मजहबी के प्रवर्तक एक ही प्रकार के ही चिंतक और सैद्धांतिक  होने पर भी बाह्याडंबर में अंतर होते हैं। इस बाह्य वेश -भूषा और बाह्याडंबर के कारण विविधता आ जाती है ।तब मानव में भेद-भाव आ जाते हैं।अपने को अलग व्यक्तित्व का मानकर एक मजहबी दूसरे मजहबी,जाति- संप्रदाय से नफरत की नजर से देखने लगे हैं ।

यद्यपि सभी मजहबियों का समर्थन एक ही प्रकार का है ,भाई चारा निभाना,पुण्य काम ही करना,दान -धर्म करना, सत्य,अहिंसा,शांति के मार्ग अपनाना,सबको कल्याण करना, फिर भी मजहबियों में एक दूसरे के प्रति द्वेष भाव और विरोध भाव ही पनप रहे हैं ।
  तमाम मजहबियों के आदी गुरु जनक सनातन धर्म है,मत -मजहब-जाति-संप्रदाय नहीं है।
  अतः सनातन धर्म और मानवता की खोज आवश्यक है ।
सनातन धर्म अग जग के कल्याण के लिए नारा लगाता है—

१.जय जगत।२.सर्वे जना: सुखिनो भवंतु ३.वसुधैव कुटुंबकम् ४,मानव सेवा महादेव की सेवा
ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः ।

सर्वे सन्तु निरामयाः ।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु ।

मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत् ॥

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्त

सबको सुखी रहना चाहिए ।सबको रोग रहित जीना चाहिए।सभी का जीवन आनंद से परिपूर्ण रहना चाहिए । 

हिन्दी भावार्थ:
सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी का जीवन मंगलमय बनें और कोई भी दुःख का भागी न बने।

सनातन धर्म  को सही तरह से समझने में सब भूल करते हैं ।संप्रदाय के संकुचित अर्थ में सनातन धर्म को समझकर समूल नष्ट करने की बात करना उनकी अज्ञानता ही है।  
सनातन धर्म का मतलब है शाश्वत धर्म है । सत्य बोलना शाश्वत धर्म है ।अहिंसा परमो धर्म है।
आचरः परमो धर्म है । स्थाई धर्म ही सनातन धर्म है ।आग का जलन स्थाई धर्म है ।वैसे ही सनातन धर्म  स्थाई गुणवाला धर्म है। चोर अपनी चोरी वस्तु को खुल्लमखुल्ला दिखा नहीं सकता।अमुक दल का सांसद या विधयक  यह भाषण देकर वोट नहीं माँग नहीं सकता कि मैं भ्रष्टाचार करूँगा । ठेकेदार से रिश्वत लेकर कच्ची सडक बनवाऊँगा । सत्तर साल के बूढे को बीस साल का जवान बनाऊँगा ।कोई न मरेगा ।सब को ऐसी बूटी दूँगा ,जिससे कोई न मरेगा।  क्या यह संभव है ।ये सब नश्वर दुनिया की बातें हैं ।
                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                     

ॐ मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः। भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते।।भगवद गीता अध्याय17.16।।
मानसिक शांति,मृदुता,चुप रहना,आत्म नियंत्रण,पवित्र दिल आदि मानसिक सादगी संयम होते हैं ।


नातन धर्म का अर्थ —

सन +आतन+धर्म –
सन का मतलब है प्राचीन लंबे समय ,आतन का मतलब है–व्यापित,धरम का मतलब है सबको बंधन में जोडना ,भगवान का ,धर्म का चिंतन करना ।सब में सद्भावना लाना,सदाचार सिखाना,चरित्रगठन आदि ।समाज के हर मनुष्य का,हर पेशेवर का अपना अपना धर्म है ।स्त्रियों का धर्म,पुरुषों का धर्म,पति का धर्म,पत्नी का धर्म,राज धर्म,शिक्षक धर्म आदि ।हर व्यक्ति,हर पेशेवर अपने कर्म में ही मगन रहना चाहिए ।अपने कर्म को सुचारू रूप से जो करते हैं,उनका जीवन  सार्थक होगा ही।

मनुस्मृति में “आचारःपरमो धर्मः।।
एक धर्म ही जन्मजन्मांतर का साथी है।हमारा कर्म फल मरने के बाद भी हमें पुनर्जन्म में सुखी या दुखी मानव के रूप में सृष्टि करने ईश्वर का नियम है।
मानव के सद्गुणों का भी मनु धर्म में जिक्र किया गया है:---
धृतिः क्षमा दमोsतेयं शौचमिंदरियनिग्रहः  धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ।.
सहनशीलता,धैर्य, क्षमा,सामर्थ्य,संयम, अक्ल,विद्या,सत्य,क्रोध न करना  आदि धर्म के दस लक्ष्ण हैं ।ये गुण सर्वमान्य हैं।
माया भरे जगत में धर्म का पालन अति दुर्लभ है ।पुराणों के प्रसंग में मुनि विभांडक ने अपने पुत्र  विभांडक को ऐसा पाला कि उसको स्त्रियों के अस्तित्व का पता न लगे। पर यह साध्य न रहा । ब्रह्मचर्य धर्म के बारे में पहले ही चर्चा की है कि ब्रह्मचर्य का पालन तन,मन,वचन से करना चाहिए।
आधुनिक काल में वैज्ञानिक आविष्कारों के कारण मनुष्य अपनी शरीरिर  शक्ति कम हो रही है । कम्प्यूटर,कालकुलेटर,मोबाइल आदि मानव को आलसी बना रहे हैं ।मानव की स्मरण शक्ति कम हो रही है। इनके अभाव में वह कोई भी काम नहीं कर सकता।धर्म मार्ग आधुनिक काल में अधिक संकीर्ण है ।
  उपनिषद में -”क्षुरस्य धारा  निशिता दुरत्य–धर्म मार्ग तलवार की तेज धार पर चलना है ।सत्य बोलो ,फिर कटु सत्य मत बोलो।प्रिय सत्य बोलो ,अप्रिय सत्य मत बोलो । यही सनातन धर्म है।
जिजिविषेच्छतम्  समाः  यजुर्वेद ।इस पर इतना पीटो कि वह न टूटे और मज़बूत हो जाए ।

सनातन धर्म में मानव के चार आश्रम  की व्यवस्था हैं । १.ब्रह्मचर्य २.गृहस्थ ३.वानप्र्स्थ ४. सन्यास.
मनुस्मृति के अनुसार गृहस्थाश्रम ही श्रेष्ठ है। क्योंकि बाकी तीन आश्रमों को रोटी,कपडा और मकान  गृहस्थाश्रम के द्वारा ही मिलता है । गृहस्थ देवयज्ञ के द्वारा सारे जगत का परवरिश करता है। मानवता का सुख संतोष से ही संभव है ।संतोष ही सुख का मूल है । तुलसीदास कहते हैं–
गो धन,गज धन,बाजी धन,रतन धन खान।जब न आवै संतोष धन सब धन धूरी समान।.
सहज रूप में जो कुछ मिलता है,उससे संतुष्ट होना चाहिए । दूसरों की प्रगति देखकर ईर्ष्या होने से  मानव असंतोष हो जाता है ।लोभी हो जाएगा ,तो जिंदगी भर दुखी रहेगा ।

सनातन आत्मा है।मन को आत्मा की ओर ले जा ना। आत्मा ही सनातन है। सनातन निराकार निर्गुण है। आत्मा ही सत्य है।  सनातन में स्थिरता । आत्म परिवर्तन नहीं है ।मन चंचल है।मन को स्थिर बनाना सनातन है । मन को दुख सेे मुक्त करना धर्म है । मनको संतोष ,शांति की ओर ले जाना सनातन धर्म है।आत्मा  जन्म नहीं लेती । जन्म लेने पर दूसरा रूप हो जाता है ।सनातन काल से परे हैं। प्रकृति में गुण-दोष होते हैं ।संस्कृति में भी परिवर्तन है।  याद रखना ,भूलना धर्म नहीं है।
मन को चैन की ओर ले जाना सनातन धर्म है।
वैद्य मुआ रोगी मुआ,मुआ सकल संसार।
एक कबीरा ना मुआ,जेहि राम का आधार ।
  कबीर का उपर्युक्त दोहा  सनातन धर्म  का सरलतम व्याख्या है।  कबीर और वेद का कोई संबंध नहीं है।  पर इस दोहे में सनातन धर्म का सार तत्व है।
जगत मिथ्या,ब्रहमम् सत्यम्।  वेद भी शाश्वत नहीं, मिट जाएगा।  रोगी भी मर जाएगा , पर कबीर का राम अर्थात सर्वेश्वर न मरेगा। वह सर्वेश्वर राम का आधार है, अतःकबीर भी न मरेगा। राम अर्थात ब्रह्म अनादी,अनंत,अनश्वर है । आत्मा में परमात्मा ऐक्य है। वैसे ही कबीर में राम ऐक्य है।
कबीर आत्मा और परमात्मा  के संबंध के बारे में और स्पष्ट रूप में बताते हैं–
“लाली मेरे लाल की ,जित  देखो तित लाल ।
लाली देखन मैं गयी.मैं भी हो गई लाल ।।
शंकराचार्य का अद्वैत भावना इस दोहे में है ।कबीर अनपढ थे । गुरु के उपदेश के रूप में मुँह अंधेरे में  केवल राम शब्द मिला । उनका राम  अवतारपुरुष राम नहीं, उनका राम सनातन राम होते हैं ।
अवतार नहीं लेते ।रूप -रंग का बंधन नहीं है ।सर्वज्ञानी होते हैं । तटस्थ होते हैं ।लौकिक माया मोह से परे होते हैं ।
कबीर अपने भगवान का उल्लेख यों करते हैं —-
चारी भुजा के भजन में भूले परे सब संत।कबीरा पूजै तासुको,जाकै भुजा अनंत ।.
कबीर का यह ज्ञान संदेश मानव-मानव के संप्रदाय भेद मिटा देगा ।।.
यही सनातन धर्म का सहज बोध होता है ।

तमिल वेद  के नाम से विश्वविख्यात तिरुक्कुरल में सनातन धर्म को अप्रत्यक्ष रूप मेें उल्लेख करते हैं । भगवान तटस्थ हैं।  वे पापात्मा -पुण्यात्मा ,आदमखोर,मृदुस्वभाववाले ,कीडे मकोडे,घासफूस सब  पर निगरानी रखते हैं।  सनातन धर्म भी तटस्थ है।  मानव मानव में भेद नहीं देखता। वेद,कुरान,बैबिल से व्यापक है।  संकुचित मनोविकार नहीं करता।  मानव मानव में वेद ही बडा है,कुरान ही बडा है ,बाइबिल ही बडा है  का संकुचित विचार धारा सनातन धर्म में नहीं है ।

मत/मजहब,जाति,पंथ आदि से परे हैं  सनातन धर्म मानव -मानव के रिश्तों को जोडनेवाला है,तोडनेवला नहीं है। आग का गुण जलना है,गरम करना है।  वह गुण शाश्वत है।
हवा के गुण आग बुझाना है और जलाना है। दीप को बुझा देती है,चिनगारी को इतना भटका देता है कि एक जंगल को ही जला देती है ।पानी आग को बुझा देता है। भूमि सहनशील है ।आकाश पानी बरसाता है ।सूर्य और चंद्र प्रकाश देते हैं ।  ये पंचतत्व प्राण देनेवाले और प्राण लेनेवाले हैं ।
इन पंचतत्वों को पवित्र रखने की अनिवार्य आवश्यक्ता मानव धर्म है।  सनातन धर्म इन पंचतत्वों को प्रदूषण रहित  रखने की सीख देता है।  ये पंच तत्व आपे से बाहर होने पर उसका सामना करना  अति मुश्किल हो जाता है।  मानव बुद्धि से दूर है।  विष क्रीट कीडाणुओं  के कारण फैलने वाला असाध्य रोग। वायु और पानी के द्वारा रोग फैलता है।  सनातन धर्म नदी में स्नान करने के नियम भी बताता है।   भूकंप के कारण का घाटा,ज्वाला मुखी पहाड आदि जगत मिथ्या और नाश के  शाश्वत सूचक है।  मजहबियों अर्थात जाति संप्रदायों के द्वारा बचाना असंभव हैै।


आजकल मानवीय मूल्य की कमी राजनीति,संप्रदाय जाति भेद के कारण बढ रहा है ।वोट पाने के लिए जनता को दल के आधार पर,जाति संप्रदाय के आधार पर बाँट रहे हैं।  धर्म मत -मतांतर से भिन्न है।  धर्म मानवता चाहता है। विश्व  भर में शांति चाहता है।  सनातन धर्म आदर्श मानवीय गुणों का उपदेश देता है।मानवता का पतन मानव को निर्दयी पशु बना देगा ।
  सनातन धर्म में मानव बिलकुल स्वतंत्र है। भगवान एक है। संसार के सभी जड-चेतन एक सर्वेश्वर के इशारे पर चलता है ।हर जीवराशी के गुण अलग -अलग होते हैंं ।मानव बुदधि जीवी है ।बुद्धि भी सभी मानव को एक समान नहीं है ।
ईश्वर एक है।मानव ही नहीं,संपूर्ण योनियों के जीव उनमें ऐक्य हैं ।हर जीव में ब्रह्म ऐक्य हैं ।सभी जड-चेतन जीवों के सुख-दुख,ऐश-आराम,जन्म -मरण, हर जीव-राशियों का आयु निर्णय सृजनहार के हाथ में है । ईश्वर की खोज में  भटकना बेकार है । ईश्वर के जप -तप में  भी ईश्वर की कृपा न हो तो विधि की विडंबना को बदलना मुश्किल है ।
ज्ञानमार्गी शाखा के प्रवर्तक वाणी के डिक्टेटर सत्संग के द्वारा ज्ञानी बने कबीर के दोहे में सरल भाषा में मिलते हैं। सर्वेश्वर सर्वत्र विद्यमान है ।भगवान की खोज में तीर्थयात्रा बेकार है।मन की पवित्रता ही प्रधान है। ईश्वर  इत्र-तत्र-सर्वत्र विद्यमान है ।यह भी सनातन धर्म का मूल सिद्धांत है ।

कस्तूरी कुंडली बसै,मृग ढूँढै वन माही,ऐसे घट-घट राम है,
दुनिया देखै नाहीं ।।मूल आत्मा और परमात्मा भिन्न नहीं, एक है।
जब मैं था,तब हरी नहीं ।अब हरी नहीं,मैं नाहीं । प्रेम गली अति सांकरी ,जामे न दो समाहीं ।।
सनातन धर्म में दया का अति महत्व है ।  लोभ,क्रोध सनातन धर्मानुसार मानव को पतन करना है ।

जहाँ दया तहाँ धर्म नहीं,जहाँ लोभ,वहाँ पाप।जहाँ क्रोध,तहाँ  काल।.जहाँ क्षमा ,वहाँ आप ।–कबीर का यह दोहा सरलतम अर्थ में सनातन धर्म के बुनियाद बातें बता रहा है ।
सच्चा भगवान संप्रदाय से परे  हैं । अति शक्तिवान होते हैं।
हिंदू कहे  मोही राम पियारा, तुरक कहे मोही रहमाना ,
आपस में दोऊँ लडी लडी मुए,मरम न कोऊ जाना।.

भगवान मानव में सदा विद्यमान होते हैं ।अहं ब्रह्मास्मी  सनातन तत्व है ।
भगवान के रूप अनेक है पर मूल तत्व एक ही है ।सनातन धर्म भी एक ही ईश्वर को मानता है ।
कबीर कहते हैं —
        कबीरा कुँवा एक है,पानी भरैं अनेक। बर्तन में ही भेद है ।पानी सबमें एक ।।
        जैसे तिल में तेल है,ज्यों चकमक में आग। तेरा साई तुझमें,तू जाग सकै तो जाग ।.
भगवान तो हर एक मानव में है ,पास ही है। भगवान की तलाश में जाना बेवकूफी है ।इस बात का
सिवा संत कबीर के और किसीने  बताया नहीं है ।
मोको कहाँ ढूँढे रे बंदे।मैं तेरे पास में ।
ना तीर्थ में ना मूरत में,ना एकांत वास में ।ना मंदिर में ,ना मसजद में।नाकाबे,ना कैलास में ।
ना जप में ,ना तप में ,ना बरत  में ,ना उपवास में ।..
ना मैं क्रिया कर्म में  ना मैं जोग संन्यास में ।
खोज हो तो तुरत मिल जाऊँ,एक पल की तलास में ।
कहत सुनो मेरे भाई  साधू ।
मैं तो तेरे पास में बंदु ,तेरे पास में। कबीर सनातन धर्म के अनुसार एक ही भगवान को ही मानतेहैंं।


माला तो कर में फिरै,जीभ फिरै मुँह माही ।मनुआ तो दस दिसै फिरै,यह तो सुमिरन नाहीं ।
कबीर के दोहों में सनातन धर्म  के स्थिर सिद्धांतों को सरलतम भाषा में कबीर व्यक्त करते हैं ।

ईश्वर  इत्र-तत्र-सर्वत्र विद्यमान है ।यह भी सनातन धर्म का मूल सिद्धांत है ।


कबीर के दोहों में  सनातन सिद्धांत—
सनातन धर्म में  दान का प्रमुख स्थान है —
धर्म  किये धन ना घटे,नदी न घटै नीर।।
भगवन तो
अपनी आँखों देखिले,यों कथि कहहीं कबीर।।
  कबीर कहते हैं कि दान धर्म के देने पर धन घटेगा नहीं, नदी में पानी न घटेगा।
अपनी आँखों से देखकर जान-समझकर कबीर कहते हैं।
कबीर मजहबी नहीं थे,धर्मवादी थे ।मानव मानव को जोडकर ,मजहबी भेद भाव मिटाकर एकता की भावना भरना चाहते थे ।कबीर विश्व में एक ही भगवान को मानते हैं ।

दुई जगदीस कहाँ ते आया, कहु कवने भरमाया।

अल्लह राम करीमा केसो, हजरत नाम धराया॥

गहना एक कनक तें गढ़ना, इनि महँ भाव न दूजा।

कहन सुनन को दुर करि पापिन, इक निमाज इक पूजा॥

वही महादेव वही महंमद, ब्रह्मा−आदम कहिये।

को हिन्दू को तुरुक कहावै, एक जिमीं पर रहिये॥

बेद कितेब पढ़े वे कुतुबा, वे मोंलना वे पाँडे।

बेगरि बेगरि नाम धराये, एक मटिया के भाँडे॥

कहँहि कबीर वे दूनौं भूले, रामहिं किनहुँ न पाया।

वे खस्सी वे गाय कटावैं, बादहिं जन्म गँवाया॥
भगवान दयालू हैं ।भगवान के भक्त  एक सर्वेश्वर को न मानकर भिन्न भिन्न नाम लेकर आपस में लडते हैं । सचमुच ईश्वर को पहचानने में बडी भूल करते हैं।
एकेश्वर वाद के कबीर पूछते हैं कि दो भगवान कहाँ से आया है ।किसने बताया?सनातन धर्म के अनुसार भगवान तो एक है ।
भगवान के नाम तो भिन्न भिन्न है।राम,रहीम,।केशवआदि नामों से पुकारते हैं एक ही सोने से बने विविध आभूषण  है,पर स्वर्ण तो एक ही है। एक नमाज पढकर अपने को तुर्क कहता है ।दूसरा वेद पढकर अपने को हिंदू कहता है ।पर महादेव और मुहम्मद दोनों एक ही है।ब्रह्मा और आदम एक ही है।दोनों एक ही धरती पर रहते हैं।एक मौलाना है और दूसरा पंडित हैं । नाम तो भिन्न है।पर ब्रहमा एक ही है ।बर्तन भिनन हैं ,पर एक ही मिट्टी के बने हैं ।आभूषण नाना प्रकार के बने हैं।पर सोना एक ही है ।यह न जानकर दोनों असली भगवान को पहचान न कर सके।दोनों भगवान से न मिले ।एक बकरी काटता है और दूसरा गाय।दोनों आपस में भगवान के नाम लेकर कटते -मरते हैं । ये अपने जीवन को निरर्थक बना लेते हैं ।
    सनातन धर्म लगभग पंद्रह हजार साल पुराना है ।कबीर का जीवन काल डेढ हजार साल पुरानाहै। कबीर तो वेदों या कुरान का ज्ञाताा नहीं है ।पर सनातन धर्म की बात कबीर के दोहे में.साखी,रमनी में मिलते हैं।सनातन धरम के महत्व को पीढी दर पीढी प्रमाणित करने के लिए अनुसंधान की जरूरत हैं ।
सनातन धर्म  के मूल तत्व
१.एकवस्तु २. विवेक-अनेक ३.पुनर्जन्म ४.कर्म ५.त्याग ६.प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष संसार         

सनातन का मतलब है शाश्वत संप्रदाय। ये वेदों के आधार पर बनाये सामान्य नियम है।  इनका पालन आर्यों ने किया। आर्य का मतलब है श्रेष्ठ। सनातन धर्म ही विश्व का स्थाई पहला धर्म है  जिसने सदाचार के असंख्य ग्रंथकार,ऋषि-मुनि,दार्शनिक,चिकित्सक,शल्य चिकित्सक ,ज्योतिष शास्त्री ,अर्थशास्त्री ,खगोल शास्त्री,राजतंत्री,लोकोपकारी आदि सबको बनाया।  इस अत्यंत सनातन धर्म का प्रमाण हैं स्मृतियाँ । देवों की अमृतवाणी सुनकर याद रखकर देवों के प्रिय सदाचारों को जग कल्याण के लिए प्रवचन करते थे। श्रुति की यादें श्रवण द्वारा ही की जाती थी। लिखित रूप नहीं था।
श्रुति में चार वेद हैं।   वेद का अर्थ है ज्ञान। वेद चार  प्रकार के हैं ।१.ऋगवेद २.यजुर्वेद ३. सामवेद ४. अथर्व वेद आदि । इन वेदों  को तीन भागों में बाँटा गया है। वे हैं संहिता,ब्राह्मण,उपनिषद। संहिता अर्थात मंत्र भाग।  वेद मंत्रों को सस्वर पाठ करने में दिव्य शक्ति की अनुभूति होती है ।मन अति प्रसन्न होता है । ब्राह्मण में यज्ञों के विधान और विज्ञान का वर्णन मिलते हैं। उपनिषद में ईश्वर सृष्टि आत्मा के संबंध में गहन और दार्शनिक वर्णन मिलता है ।
इन वेदों के चार उपवेद होते हैं ।१.आयुर्वेद २.धनुर्वेद ३.गांधर्ववेद ४.स्थापत्यवेद ।
सनातन धर्म  प्राचीन नियम है ।इसमें मानव में मानवता भरने के नियम हैं। इसको आर्य धर्म भी कहते हैं। वेदों के सही उच्चारण में  ही दिव्य शक्ति और दिव्य फल मिलते हैं ।
सनातन धर्म  के प्रमाण में स्मृतियों का स्थान सर्वोपरी हैं। इनके चार भाग होते हैं । इनमें मानव जीवन को व्यवस्थित अनुशासन में जीने की नीति -रीतियों की व्याख्याएँ मिलती हैं।
स्मृतियों के चार भाग हैं —१.मनुस्मृति–मनु द्वारा रचित मानव धर्म शास्त्र -आर्यजाति  के सभी आचारों का सार रूप मिलते हैं ।
२.याज्ञवल्क्य स्मृति में भी मानव जीवन को सुचारू रूप में चलाने  की बातों का ही विवरण मिलते हैं ।
भगवान की सृष्टि स्वयंभु हैं ।ब्रह्मा सृष्टित महामनु वंश में ६ मनुओं की सृष्टियाँ हुई हैं । वे दिव्यांश के हैं ।
तीसरी और चौथी मनुस्मृतियाँ दक्षिण भारत के कुछ भागों में ही पालन करते हैं।.
श्रुति और स्मृति दोनों ही सनातन धर्म की आधार शिलाएँ होती हैं।
इनके अलावा और दो सहायक ग्रंथ होते हैं ।वे हैं पुराण और  इतिहास।
वेदों को जो समझ नहीं सकते, उनको समझाने के लिए  उपमान उपमेय से भरी कहानियाँ ही पुराण हैं। पुराणों को समझने के लिए  गुरु की जरूरत है।
इतिहास में दो महाकाव्य होते हैं ।एक रामायण और दूसरा महाभारत।
रामायण अयोध्या के महाराज दशरथ के पुत्र श्रीराम ,बहु सीता ,और राम के भाई लक्ष्मण भरत,शतृघ्न की कहानी हैं।  यह विनोद और आनंद से भरा काव्य है।
२.महाभारत –महाभारत उत्तर भारत के  कुरु राजवंश की कहानी है ।कौरव और पाँडव के आपसी द्वेष और युद्ध ,श्री कृष्ण गीतोपदेश और कई नैतिक प्रसंग मिलते हैं।  इन दोनों ग्रंथों के द्वारा प्राचीन भारत के लोगों के आचार-विचार ,उस समय की परिस्थिति ,कलाएँ,पोशाक कुटीर उद्योग आदि विवरणों का पता चलता है।  इन दो काव्यों से भारत के वैज्ञानिक ज्ञान संपन्नता और समृद्धियों का पता चलता है।
  सनातन धर्म का आधार श्रुति,स्मृति,पुराण ही  मूलाधार नहीं है, इनके आधार पर की गई खोजें,अनुशीलन,विश्लेषण,दार्शनिकों के सिद्धांत,अद्वैत,द्वैत,विशिष्टाद्वैद,नास्तिक-आस्तिक       विभिन्न विचारों  के तर्क-वितर्क, लौकिक-अलौकिक सुख-दुखों की व्याख्याएँ आ जाती हैं ।
उन दिनों में लौकिक-अलौकिक विचारों की खोज अलग -अलग नहीं हुई ।
इनके अंतर्गत व्याकरण,नृत्त,ज्योतिष और चौंसठ कला-व्यवसायों के अनुसंधान,इनको प्रयोग और अभ्यास के नियम और विधियाँ आ जाती हैं।  अतः वेद- वेदांगों के ज्ञानी अनेक विद्याओं के निपुण निकले।  इन सबको मानव के मार्गदर्शक या सलाह ग्रंथ मानने लगे ।
ये सब जीवात्मा को परमात्मा के दर्शन,साक्षात्कार करने,कराने और करवाने ,आत्मसात करने के  मार्गदर्शक रहे।  मानव के सकल दुखों को हरने के पथप्रदर्शक रहे।   वर्तमान और भविष्य में भी रहेंगे। ये ज्ञानप्राप्ति के साधन हैं।  ज्ञानप्राप्ति इन  श्रुति ,समृति,वेद-वेदांगों के गहरे अध्ययन से ही मिलता है।
संसार के सभी पदार्थों को कुछ वर्गों में  विभाजित करते हैं  न्याय वैशेषिक संप्रदाय ।इन संप्रदायों को मानव अपने इंद्रियों के द्वारा महसूस करता है ।  प्रत्यक्ष प्रमाणों द्वारा ,अंदाजों से ,अनुभवों से, ज्ञानियों के अनुभूतियुक्त  ग्रंथों के द्वारा जान समझ लेता है ।  भगवान इस स्थूल लोक में  अणु और अणुओं के सम्मिश्रण में कैसे इन सृष्टियों की सृष्टि की है?   सृष्टियों का रहस्य जानने और सभी जीवराशियों में बसे हुए सर्वेश्वर को पहचानने,जानने,समझने और साक्षात करके वरदान प्राप्त करने आत्मा-परमात्मा एक होने  ये वेद,श्रुति और स्मृति मार्ग दिखाते हैं ।
सांख्य योग में ज्ञानेंद्रिय और कर्मेंद्रिय के अलावा और कई सूक्ष्म इंद्रियों का भी उल्लेख किया गया है।  अंतरात्मा भगवान को पहचानने कई मानसिक  परिपक्वता के मार्गों का विस्तृत व्याख्या सांख्य योग में मिलती है। सांख्य में मन की पाँच भावात्मक अवस्थाएँ बतायी गयी है।इनको पंचक्लेष कहते हैं ।सांख्य योग प्रकृति को जड और परिवर्तनशील कहता है।
मीमांस लौकिक और अलौकिक कर्म भेदों की व्याख्या करती है ।इह लोक और परलोक में मिलनेवाले कर्मफलों के कारण और अंत को भी व्याख्या करती है ।
सभी दर्शनों के सिरो भूषण है वेदांत।वेदांत भगवान या आत्मा की वास्तविक लक्षणों की  व्याख्या करके आत्मा और परमात्मा को एक वस्तु बताता है।सांसारिक बंधनों से छूटकर आवश्यक सभी कर्मों को दोषरहित कर्तव्य निभाकर जीने का मार्ग दिखाकर अंत में जन्म-मरण की माया शक्ति का पता लगाकर योग के द्वारा जन्म-मरण के बंधन से छूटकर  मोक्ष प्राप्त करने के उपाय बताते हैं।
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४.सनातन धर्म के मूल-तत्व—------
  १. एक वस्तु
भगवान एक है ।अनंत है ।शाश्वत है ।निर्विकार है।समस्त हैं। उनसे सभी सृष्टियों की सृष्टियाँ होती हैं।  उनमें ही आत्मसात होती हैं । भगवान एक है का प्रमाण छांदोग्योपनिषद में मिलता है–परमात्मा एक है, दो नहीं। परमतत्व भगवान में ही तीनों काल भूत,वर्तमान ,भविष्य आत्मजात हैं।  एकवस्तु भगवान को ही मनुष्य अनेक नाम देकर पुकारते हैं। सनातन धर्म में ब्रह्म ही ईश्वरहै। परमार्थ स्थिति ब्रह्म ,निर्गुण ब्रह्म।  ब्रह्म तटस्थ है। ब्रह्म में किसी प्रकार का राग -द्वेष नहीं है। भगवान को सगुण कहते हैं। पर वे निर्गुण से परे नहीं होतेl  भगवान परब्रह्म
सच्चिदानंद स्वरूपी  जगन्नाथ हैं। एकवस्तु परम स्वाधीन है। उनको परमात्मा,
पुरुषोत्तम भी कहते हैं।

प्रमाण श्लोक —--भगवदगीता  अध्याय ७(१२-१७) जिसे जानने से जन्म-मरण रहित अमृत पद मिलेगा ,वही आदि-अंत रहित परब्रह्म है ,वह सत् भी नहीं,असत् भी नहीं।  वह परब्रह्म सर्वत्र व्यापित रहते हैं।  सर्वत्र ब्रह्म के हाथ,पैर,सिर,मुख,कान होते हैं।सभी इंद्रिय गुणों के प्रकाश पुंज है। किसीसे जुडता नहीं है,फिर भी सबका आधार स्तंभ है।  निर्गुण में ही सगुण भी है।
चर-अचर वस्तुओं के अंदर-बाहर भी भगवान है।  अरूप होने से अज्ञानियों के लिए दूर ,ज्ञानियों के लिए अति निकट होते हैं।पंचभूत अलग अलग  होने पर भी  एक ही है।सबको निगलते हैं ,सबको उत्पन्न करते हैं।  भगवान ज्योतिस्वरूप होते हैं।  अंधकार रहित होते हैं। ज्ञानस्वरूपी है। भगवान में सभी ज्ञान के विषय होते हैं। सकल जीवराशियों के हृदय में होते हैं।
एक में अनेक —-सनातन धर्म में यही कहते हैं कि शाश्वत ईश्वर एक ही हैं। एक ईश्वर में  ही अनेक ईश्वर निहित होते हैं।  सारे जग के जड-चेतन,गुण-अवगुण के जीव,वनस्पति,नदी-नाले-नहर,झील सब की सृष्टियों के तमस,राजस,तेजस गुण भगवान की सूक्ष्मता का रहस्य है।  एक परमोत्तम भगवान की सृष्टियों के उत्थान-पतन,
विकास,बल-दुर्बल ,प्रशंसा-निंदा,मान-अपमान सब के सब भगवान के ही नियंत्रण में है। चल-अचल सब के सब एक ही सर्वेश्वर की कठपुत्लियाँ होते हैं। सब के स्वस्थ-अस्वस्थ जीवन आनंदमय -संतापमय जीवन,अपूर्ण-पूर्ण जीवन ईश्वर का ही अनुग्रह  होता है। सामान्य मानव सृष्टियों की इस सूक्षमता को समझना असंभव है ।
देव रहस्यों को जानने के लिए ज्ञान प्रदान करने की सीख हमें  श्रुति,स्मृति वेद,वेदांग,वेदांत, इतिहास-पुराण,योग ,मीमांस आदि के गहरे अध्ययन और ध्यान से मिलती है।  प्रपंच की सृष्टि के समय प्रकृति की ओर अपने विक्षण के प्रयोग से कई रूपों को प्रकृति के लिए प्रदर्शित किया। इनमें सर्वप्रथम आकार ईश्वर के त्रिमूर्तियों के दिव्य आकार ही है । ये ही ब्रह्मा एक अंड का सार्थक होता है। ये ही एक ब्रह्मांड की सृष्टि करता है। एक ब्रह्मांड संसार का व्यवस्थित मंडल होता है।  इन मूर्तियों में एक ही ईश्वर उपस्थित होकर प्रपंच की सृष्टि करता है।  ईश्वर का ही एक अंश ब्रह्मा होते हैं।  ब्रह्मा ही सृष्टि करता है,पर ब्रह्मा ईश्वर में निहित होते हैं।  वैसे ही संसार का परिपालक का ईश्वरांश  विष्णु होते हैं।  इसलिए विष्णु ही परिपालन करता होते हैं। विष्णु लोक रक्षक का ईश्वरांश हैं । संसार कालक्रम में क्षीण जीर्ण होते समय लय लानेवला अंश महादेव होते हैं। शिव ही संसार का लयकर्ता होते हैं। ये ही त्रिमूर्तियाँ ब्रह्मा के सर्वप्रथम आविर्भाव मूर्ति या श्रीमुख होते हैं।  इस प्रकार एक रूपी निराकार परब्रह्म सगुण बहु रूपी होते हैं ।
ब्रह्मा ने  सृष्टि को सात तत्वों में विभाजित किया है।  इनको भूत कहते हैं। महद्बुद्धि, अहंकार आदि प्रथम दो तत्व होते हैं। ये दोनों तत्व जीवों में अदृश्य होते हैं,जीव के व्यवहार में प्रकट होते हैं। बाकी पाँच तत्व होते हैं–१.आकाश २.वायु ३.अग्नि ४.जल ५.पृथ्वी।
इन पंच तत्वों के अंशों को मिलाकर ही विश्व की सारी सृष्टियाँ होती हैं।
इन भूत सृष्टियों के बाद दशेंद्रियों की सृष्टियाँ होती हैं।  ये पहले ब्रह्मा के मन में संकल्प रूप में रहकर भूत शरीर में  दशेंद्रिय पहुँच जाते हैं ।
  इन दशेंद्रियों को दो भागों में  बाँटते हैं,  वे पाँच ज्ञानेंद्रिय और पाँच कर्मेंद्रिय हैं।
१. पाँच ज्ञानेंद्रिय—१.गंध जानने के लिए नाक २.षड रस स्वाद जानने के लिए जीभ ३.प्रकृति के रूप और दृश्य देखने के लिए आँखें  ४.स्पर्श जानने के लिए त्वचा  ५.धवनियाँ और बोलियाँ सुनने के लिए कान।
२.  पाँच ज्ञानेंद्रिय—१.हाथ २.पैर ३.मुंह ४.गुदा ५.लिंग
इन इंद्रियों में  तमो गुण और सत्व गुणों से बढकर रजो गुण ही प्रधान होता है। रजोगुणों के कारण जीव को अधिक  शक्ति मिल जाती है।
ज्ञानेंद्रिय और कर्मेंद्रियों के बाद देव और मन की सृष्टियाँ हुईं।  इन इंद्रियों को बाह्य संसार से भी अनेक प्रकार के भाव और मनोविकार होते हैं । कई बातों को तुलना करके ग्रहण कर अपनाने की सहज प्रवृत्तियाँ मन को होता है। देव और मन में सत्व गुण ही श्रेष्ठ अमित होता है। रजो गुण,तमो गुण,सत्व गुण आदि तीनों सहोदर के समान साथ-साथ ही रहते हैं । जीवों में तमोगुण अधिक होे पर वे तामस जीव,रजोगुण अधिक होने पर वे जीव राजस जीव, सत्व गुण  अधिक होने पर सात्विक जीव ,  ऐसे जीवों का वर्गीकरण तीन सहज ही हो जाते हैं ।
ब्रह्मा ने सृष्टि,स्थिति,लय और ईश्वर की आज्ञाओं को निर्वाह और पूर्ति करने के लिए देवगणों का सृजन किया। अनेक में एक ईश्वर ही चक्रवर्ती होते हैं । सर्वाधिकरी होते हैं।  हम सब ईश्वर नियमित कर्तव्य निभाते हैं,वैसे ही देवगण ईश्वर के काम करनेवाले कार्यस्त होते हैं।  ये देव ही मानव के कर्म फल के आधार पर सुख-दुख ,जय-पराजय का निर्णय करते हैं।  जिनके कार्यों से देव संतुष्ट होते हैं,जिनके कार्य प्रिय लगते हैं,उनको सभी प्रकार के सुख देते हैं । हर एक मानव की सृष्टि  जग कल्याण के अलग अलग कार्य करने के लिए होती है । अतः सर्वेश्वर को अपने अपने कर्तव्य करनेवले अतिप्रिय होते हैं। ईश्वर को २४ घंटे उनके नाम लेनेवालों से ,कर्तव्य ईमानदारी से निभानेवाले ही प्रिय लगे हैं ।
भगावन का आदर्श भक्त अनासक्त रहता है।  भूखा-प्यासा करतल भिक्षा,तरुतल वासा बनकर ईश्वर की कृपा केलिए तपोमग्न लगता है।  वे केवल सदुपदेश देकर
समाज को अनुशासित रखने में समर्थ हो जाते हैं । लौकिक काम-काज में लगनेवाले जब मानसिक पीडा का अनुभव करते हैं,तब ईश्वर के चरण लेते हैं।  ईश्वर तो दोनों से संतुष्ट नहीं होते।  हर व्यक्ति में  किसी एक ही कर्म करने का निपुणत्व है ।
बडे बडे लोग बद्बू सह नहीं सकते जो काम भंगी करते हैं।  मज़दूर वर्ग के बगैर कोई महल में धनी रह नहीं सकता।  अतः भगवान द्वारा जो काम निश्चित है, उसको लगन से करनेवले भगवान का प्रिय हो जाते हैं ।

कबीर तो इस आदर्श वेद को सरलतम शब्दों में समझाते हैं—-
दुख में सुमिरण सब करै,सुख में करै न कोय।सुख में भी सुमिरण करै,दुख काहे को होय।.
मानव को देवगणों के प्रति के कर्तव्यों को सही रूप में सुचारू ढंग से पालन करना चाहिए। पंचतत्व आग,पानी,आकाश,वायु,पृथ्वी आदि को उचित देखरेख  प्रदूषण रहित रखना चाहिए। ऐसा न करेंगे तो प्राकृतिक कोप का सामना करना पडेगा। भूकंप,आँधी-तूफान,अति वर्षा,बाढ, अति धूप,सूख,अकाल,संक्रामक रोग,असाध्य रोग आदि का सामना करना पडेगा।
देवगण तो असंख्य हैं।  इनमें पाँच प्रधान होते हैं।  वे हैं १.इंद्र -(आकाश) २.वायु ३.अग्नी ४.वर्ण ५.कुबेर(पृथवी।  इन देवों में रजोगुण विशेष रूप में है।  देवों के शत्रु असुरों में  तमो गुण  प्रधान होते है।  उपर्युक्त सभी सृष्टियों के बाद ब्रह्मा ने धातुएँ,गंध-मूल,जानवर,मनुष्य समाज की सृष्टियाँ की है।   इन सभी सृ्ृष्टियों के परिपालन का भार विष्णु  के हाथों में हैं।  ब्रह्मा विष्णु  के बाद जीवराशियों को परब्रह्म के आदि आधार में ऐक्य होकर परमानंद की अनुभूति कराने के काम के लिए  महादेव की सृष्टि हुई है।   एक में अनेक की सृष्टि है ।
ब्रह्म एक ही है ,पर क्रियान्वित करते समय अनेक हो जाते हैं।  मानव शरीर एक है ।

पर देखने के लिए आँखें,सूँघने,साँस लेने नाक,सुनने कान,काम करने हाथ,चलने-फिरने पैर,काटने दाँत,स्वाद लेने बोलने  जीभ ,स्पर्श के लिए त्वचा ये बाह्यांग होते हैं।  इनके अलावा पाचन केलिए,रक्त संचार केलिए,मल-मूत्र केलिए कितने अंग होते हैं, सब मिलकर ही एक शरीर होता है।  वैसे ही ईश्वर  एक हैं। ब्रह्मांड के जड-चेतन की सृष्टियाँ,नाश उनके हाथ में ही हैं ।
विश्व का परिपालन विष्णु के अवतारों से हो रहा हैं ।  सनातन धर्म के प्रमाणित ग्रंथों में विष्णु के दस अवतार माने जाते हैं । कुछ लोग भगवान बुद्ध को  मिलाकर ग्यारह अवतार मानते हैं । अब तक दस अवतार ले चुके हैं । अंतिम अवतार कल्की अवतार कलियुग में होगा।
विष्णु के दस अवतार क्रमशः १.मच्छावतार २.कूर्मावतार ३.वराहावतार ४.नरसिंहावतर ५.वामनावतार ६.परशुरामावतार ७.श्री रामावतार ८. बलरामावतार ९.श्री कृष्णावतर १०.श्री बुद्धावतार ११.कल्की अवतार।ये दशावतार प्रधान अवतारमाना जाता है।
जब जब संसार में संकट और अत्याचार चरम सीमा पर पहुँचते हैं,तब तब संसार के संताप दूर करने संसार को संकटों से मुक्ति करने भगवान अवतार लेता है। इन दशावतारों के अलावा गौण अवतार १४ का भी उल्लेख करते हैं।
१. सनकादि मुनि —लोक संस्थापक ब्रह्मा ने अनेक लोकों की सृष्टि करने कठोर तपस्या में ध्यान मग्न हो गए। तब तपसे प्रसन्न होकर ब्रह्मा के सहायक के रूप में  विष्णु ने तप अर्थवाले सनक,सनंदन ,सनातन,सनतकुमार आदि चार नामों से अवतार लिये। ये विष्णु के प्रथम चार अवतार माने जाते हैं ।
२.मत्सयावतार –विष्णु के दश अतारों में मत्स्य अर्थात मछली का अवतार प्रथम है। एक बार राजा वैवस्त मनु सबेरे तर्पण करते समय उनकी हथेली में एक छोटी सी मछली आ गई।  वे उस मछली को जल में छोडनेवाले ही थे कि मछली बोलने लगी –मुझे आप घर दीजिए ;राजा के यहाँ मछली बडी होती रही कि उसको समुद्र में ही छोडना पडा।  तब राजा को लगा कि यह साधारण मछली नहीं है।  राजा को अपना अहंकार तजना पडा ।  सोचने लगे  कि   मछली में कोई दिव्य शक्ति होगी।  राजा ने मछली से उसकी अपनी असलियत प्रकट करने की प्रार्थना की।  मछली  विष्णु  के रूप में दर्शन देकर कहा कि मुझे समुद्र में छोड दो। मनु का अहंकार मिट गया। विष्णु ने कहा कि प्रलय के समय मैं समुद्र में एक सींगवाली मछली के रूप में आकर सबकी रक्षा करूँगा। देवताओं के द्वारा बनाए जहाज मे सपरवार प्रजाओं के साथ बैठ जाओ।
विष्णु  की सूचनानुसार जल प्रलय हुआ। सब जहाज में बैठ गये। सींगवाली मछली प्रकट हुई। मछली की सींग में जहाज से जुडे रस्से को बाँध दिया। मत्स्यावतार विष्णु ने सबको सुरक्षित स्थान में छोड दिया जिनके कारण मानव समाज फूले-फलें ।
३. कूर्मावतार —कूर्म संस्कृत शब्द है  जिसका अर्थ है कछुआ।  विष्णु  विशालकाय कछुए का अवतार लेकर  देव और असुरों के समुद्र मंथन में मंदरा पहाड का भार ढोकर सहायता की थी। देव और असुर अमरता पाने के लिए मंदरा पहाड को मंथनी बनाकर अमृत मंथन कर रहे थे ।तब पहाड डूबने लगा तो मंदरा के डूबने को रोकने के लिए विशालकाय कछुए का अवतार लेकर अमृत मंथन में सहायता की।  मंथन का रस्सा बना वासुकी जो अनंतशयन का बिस्तर था दुग्ध सागर में।

४.वराहावतार —-जय और विजय विष्णु लोक के द्वारपाल थे ।तब सनक मुनि विष्णु भगवन से मिलने आये । दोनों द्वार पालकों ने सनक मुनि को विष्णु से मिलने नहीं दिया। मुनि ने उन दोनों को असुरों के रूप में जन्म लेने का शाप दिया। वे ही हिरण्यक्ष और हिरणंयकश्यप थे। इनके शाप का विमोचन विष्णु के द्वारा ही होगा। विष्णु वराहावतार में हिरणयक्ष का वध करके मुक्ति देते हैं।

५.नरसिंहावतार— विष्णु के दो द्वार पालकों को शाप से मुक्त करने पहले वराहावतार लेकर  हिरण्यक्ष की मुक्ति दी। अब हिरण्यकश्यप को शाप से मुक्त करना था ।
हिरण्यकश्यप विष्णु से अति घृणा करता था।  वह अपने को विष्णु से बडा मानता था। उसने अपने नागरिकों को आज्ञा दी कि हिरण्याय नमः ही कहना चाहिए।  उसका बेटा प्रह्लाद विष्णु का तीव्र भक्त था।  वह नारायणाय नमः ही कहा करता था।  उसके राज्य में सिवा प्रह्लाद के बाकी सब हिरण्य कश्यप के नाम लेकर ही जप करते थे।  हिरण्यकश्यप अपने बेटे प्रह्लाद की हत्या करने की कोशीशें की।  हर बार  वह बचता रहा।  एक दिन उसने अपने बेटे को खुद टुकडे करने तैयार हो गया।  तब प्रह्लाद हँस रहा था। हिरण्यकश्यप ने क्रोधित होकर पूछा कि तेरा भगवान कहाँ है ?  प्रह्लाद ने जवाब दिया कि मेरा भगवान इत्र-तत्र-सर्वत्र विद्यमान है वे धूल में भी है,
खंभ में है ।
तभी खंभ तोडकर  नरसिंह अवतार में प्रकट हुए। सिर से आधा शरीर  सिंह रूप,आधा मानव रूप। हिरण्यकश्यप ने वर माँगा था कि आधे सिंह रूप,आधे मानव रूप ही मुझे वध करना है।  वैसा ही अवतार लेकर विष्णु ने प्रह्लाद का वध कर दिया।
६.वामन अवतार —प्रह्लाद के पोते बलि ने अपनी  भक्ति और तपस्या के बल से देवेंद्र को हराने की शक्ति प्राप्त कर ली। बलि ने पृथ्वी और स्वर्ग का आधिपत्य स्थापित कर लिया।  देवताओं ने भगवान विष्णु से अपनी रक्षा की प्रार्थना की। विष्णु भगवान वामन का रूप अर्थात बौेने  भिक्षु का रूप धारण कर बलि से मिले।  बलि बडे दान वीर थे। वामन अवतार के विष्णु ने तीन पग की भूमि दान में माँगी।   बलि सहर्ष देने तैयार थेे।छली विष्णू ने अपने त्रिविक्रम विराट रूप धारण कर लिया।  अपने एक पद से सारी पृथ्वी माप कर डाली  और दूसरे पद से सारे आसमान नाप डाला। तीसरे कदम रखने बलि ने अपने सिर दिखाया।  वामन को सीधे पाताल लोक का राजा बनाकर भेज दिया।बलि को मन्वंतर के बाद देवलोक का राजा बनने का भी वरदान दिया।
७.परशुरामावतार –
परशुराम ने विष्णु के योद्धा के रूप में  अवतार लिया। वे ऋषि  जमदाग्नि  और रेणुका के पुत्र थे। वे शिव भक्त थे।  उनकी तपस्या से खुश होकर भगवान शिव ने एक कुल्हाडी दी।  परशुराम जन्म से ब्राह्मण और कर्म से क्षत्रिय थे।ऋषि जमदाग्नि के आश्रम में एक दिव्य गाय कामधेनु थी।
एक बार राजा कर्त्तवीर्य  अर्जुन जमदाग्नि  ऋषि के आश्रम में आये। उन्होंने गाय की दिव्य शक्ति देखकर ऋषि से गाय की माँग की। ऋषि ने इनकार किया तो गाय को बलपूर्वक ले गया और आश्रम को नष्ट कर डाला।क्रोधित परशुराम ने राजा करत्तवीर्य अर्जुन को मार डाला। तब राजा के पुत्रों ने जमदाग्नि को मार डाला। परशुराम ने क्षत्रिय राजाओं को मारने लगा। उनके दादा ऋषि रुचिका ने उनको रोका। परशुराम चिरंजीवि हैं। अपनी शक्तिशाली कुलहाडी फेंककर केरल और कर्नाटक का तटीय भूमि बनायी ।
८.रामावतार—रामावतार में वे मर्यादा पुरुषोत्तम है। वे आराध्य भगवान हैं। उनकी रामायण नैतिक नियमों और समन्वयात्मक प्रसंगों से भरी हुई हैं। मातृ-पितृ भक्ति,त्याग,ऊँच-नीच के भेद मिटाना,आ सेतु हिमाचल की एकता ,शैव-वैष्णव की एकता स्थापित करना आदि राम को मर्यादा पुरुषोत्तम बनाया है।
  रामावतार का उद्देश्य अहंकारी कामुक रावण का वध करना था। उसमें उनको सफलता भी मिली।
९.कृष्णावतार लोकरक्षक और लोक रंचक के रूप में श्री कृष्ण का जन्म हुआ।  देवकी और वसुदेव के आठवें पुत्र हैं।  दुष्ट संहारक और इष्ट संरक्षक के रूप में उनका अवतार हुआ।  कृष्ण लोकप्रिय अवतार होते हैं।  गीताचार्य श्री कृष्ण का हरे कृष्ण,हरे कृष्ण,कृष्ण कृष्ण हरे हरे ,विश्व भर में प्रसिदध है। भगवद् गीता मानसिक शांति और कर्तव्य मार्ग  दिखाने का सार्थक ग्रंथ है।  कंस,भूतकी,कालिंग वध के लिए और महाभारत के प्रधान नायक के रूप में प्रसिद्ध है।
१०. बुद्ध का अवतार -भगवान बुद्ध को विष्णु का अवतार मानने में मतभेद होते हैं। वे बौद्ध धर्म के संस्थापक होते हैं। दक्षिण भारत में बलराम को नौवाँ अवतार मानते हैं ।
उड़िसा के कुछ लोग जगननाथ को कृष्णावतार मानते हैं।जैसा भी हो बुद्ध अहिंसा और शांति,सत्य,दया,परोपकार आदि सद्गुणों के प्रचार-प्रसार में विश्वविख्यात महात्मा बन गये। जापानी दिमाग,चीनी दिमाग .तिब्बती दिमाग बुद्ध को मानते हैं ।
उपर्युक्त अवतारों के अलावा निम्न अवतारों का भी आध्यात्मिक लोग विष्णु अवतार मानते हैं ।
१५,दत्तात्रेय—इनमें त्रिदेव ब्रहमा,विष्णु,महेश के रूप मिलते हैं ।
१६.मोहिनी अवतार भस्मासुर का वध करने मोहिनी अवतार ।
मोहिनी अवतार से शिव मोहित हुए। परिणाम केरल के प्रसिद्ध कलियुग के देव ऐयप्पन का अवतार हुआ।
१७.धन्वंतरी—समुद्र मंथन के बाद अमृत कलश लेकर प्रकट हुए ।
१८.यज्ञावतार १९.आदिराज पृथु २०.नारद मुनि २१.हयग्रीव अवतार २२.वेदव्यास  २३ .ऋषभदेव २४.हँसावतार २५.कल्की
इन सभी अवतारों का उद्देशय दुष्ट संहरण ,इष्ट संरक्षण ।
सनातन धर्म और मानवता -
इन दस अवतारों में कोई जाति भेद और संप्रदाय भेद नहीं के बराबर है।
धीरोदत्त -धीर प्रशांत और खल नायकों का संघर्ष,खलों के अंत का वर्णन होते हैं।
ऊँच-नीच का समन्वय ,स्वयं वर जाति के आधार पर नहीं,क्षमता और वीरता के आधार पर।
बच्चे न होेने पर बहु विवाह की रीतियाँ,संतान न होने पर अन्य पुरुषों के संपर्क से शिशु की उत्पत्ति रामायण में दशरथ के चार पुत्र शुक्ल दान से, कुंति के अवैध पुत्र का नदी में छोडना ,ये सब आजकल में भी चालू है। हर घटना जो वेदों में जिक्र है,वही चल रहा है । विमान यात्रा,चंद्र मंडल सौर मंडल की यात्रा आज भारतीय अंतरिक्ष शोध संस्थान द्वारा प्रमाणित हो रहा है। सनातन धर्म के सिद्धांत स्थाई और युग युग तक अनुकरणीय और स्मरणीय हैं।
  आधुनिक की तरह भीष्म ने राजकुमारियों को जबर्दस्त उठा ले आया। पांडव के पिता पांडु नहीं ।   सीता भूमि से निकली ।ऐसी घटनाएँ आजकल भी चलती रहती हैं ।
    भारत की एकता,अखंडता का आधार आध्यात्मक ही है।  रामायण की घटनाएँ अयोध्या से श्रीलंका तक पंचवटी महाराष्ट्र में, कर्नाटक में,केरल,तमिलनाडू में  सभी जगह रामायण की स्मृतियाँ हैं।
मानव जीवन में सुख-दुख का दिवा सपना बदल -बदलकर आते हैं। मानव कल्याण में बाधक सृष्टियाँ अधिक खतरनाक होते हैं। ईश्वर की लीलाएँ अति सूक्ष्म होती हैं। खूँख्वार जानवर जंगल में होते हैं।  उनके आहार के लिए हिरन जैसे शाकपक्षी की सृष्टियाँ होती हैें । मकडी जैसे जाल बनाकर कीडे-मकोडे खानेवाले जंतु ही नहीं, कीडे मकोडे खानेवाले वनस्पतियाँ भी होती हैं। चूहों को पकडनेवाली बिल्लियाँ कृतघ्न भी होती हैं। बिल्लियों को खानेवाले कुत्ते कृतज्ञ होते हैं। नरभक्षी जानवर भी होते हैं ।
बुद्धिमान,वीर,साहसी,चतुर,चालाकी,वीर ,धीर,पराक्रमी मानव  की परेशानियाँ देने खटमल,मच्छर,चींटियाँ,विषैली जंतुएँ,विषैली संक्रामक रोग कीटाणु,संक्रामक रोग,बाढ,भूकंप,आँधी-तूफान सचेत कर रहे हैं  कि जगत मिथ्या,ब्रह्मम् सत्यम्। वेदों में यह भी दर्शाया गया है कि हर एक सृष्टि कर्म फल के अनुसार होती हैं।
हर सृष्टियों में व्यापित ईश्वर को ,अद्भुत शक्ति को,अपूर्व चमत्कार को  मानव आश्चर्य चकित देख रहाहै।
ईश्वर के बारे में प्रमाणित श्लोक कह रहे हैं—-
सर्वेश्वर एक हैं, उनमें ही सभी जीवराशियाँ समाहित हैं। उनके विश्वरूप शरीर में इंद्र जैसे देव,कमलासन का ब्रह्मा, विविध प्रकार के ऋषि ,नाना प्रकार  के स्थावर-जंगमों के भूतगण, दिव्य सर्प समाहित रहते हैं।  रूद्र,आदित्य,वसु,मसात्य,मरुतगण,पितृदेव,गंधर्व,यक्ष,असुर सिद्ध पुरुष ईश्वर को दाँतों तले उंगली दबाकर देख रहे हैं।
एक ही परमेश्वर को इंद्र,अग्नी,वर्षा,वायु,यम,गरुड आदि अनेक नामों से पुकारते हैं। आत्मा ही सकल देवता  होती है। आत्मा में ही भगवान विराजमान है।
ज्वलित अग्नि से अनगिनत चिंगारियाँ निकलती हैं, वैसे ही एक ही सर्वेश्वर से जीवराशियों की भीड निकलती हैं, फिर उस परमेश्वर में ही समाहित हो जाती हैं। एक ही सर्वेश्वर से ही प्राण,मन और सर्व इंद्रियों का सृजन होता है ।
इन सबका आधार पंचतत्व आग,हवा,पृथ्वी,जल,आकाश आदि हैं । उन से ही अनेक प्रकार के देव,पशु-पक्षी,वन-संपत्तियों की उत्पत्तियाँ हुई हैं । सत्व से ज्ञानोदय होता है ।रजस से लोभ उदय होता है।तमस से मोह,असावधानी,अज्ञान आदि उत्पन्न होते हैं ।
जो सत्वगुणी हैं,वे आगे बढते हैं ।रजस गुणी बीच में लटकते हैं। तमस गुणी निम्न हो जाते हैं। सत्व गुणी सुख में भूल करते हैं। रजो गुणी कर्म में भूल करते हैं। तमोगुणी ज्ञान भूलकर लापरवाही से रहते हैं ।
सत्वगुण ,रजस गुण,तमो गुण तीनों में तीनों गुण सम्मिलित रहते हैं और प्रकट होते हैं ।इस देह में सभी द्वारों में प्रकाश होने का महसूस होने पर समझ लेना चाहिए कि सत्वगुण  बढ गया है ।
रजोगुण जब बढने लगता है, तब धन कमाने ,कर्म करने की इच्छा बढती है। मन चुस्त हो जाता है। मानव प्रयत्नशील  रहता है। सावधान से आगे बढता है।
तमोगुण की अभिवृद्धि होने पर मानव की बुद्धि काम नहींकरती।  वह अप्रयत्नशील ,विवेकहीन हो जाता है। ज्ञान विपरीत काम करता है ।जब धर्म का नाश होता है, तब भगवान अवतार लेता है। विष्णु का अवतर होता है ।साधुओं की रक्षा,दुष्टों का वध,धर्म की स्थापना करने प्रत्येक युग में  जगत पालक विष्णु  अवतार लेते हैं ।( संदर्भ–भगवद्गीता अध्याय ११–(१५,२२).ऋगवेद.४६ )


५.पुनर्जन्म
  मानव की  आत्मा अमर है। आत्मा का पुनर्जन्म विभिन्न रूपों में होती रहती है , फिर उसी सनातन सर्वेश्वर रूप में विलीन हो जाती है। संत कबीर अपने पद में सहज सरल ढंग से प्रकट करते हैं। हमारे सिद्ध पुरुषों की रचनाओं में वेदों की बातों  का सरल रूप मिले हैं। मानव की आत्मा मरती नहीं है ।शरीर मरता है और आत्मा परमेश्वर में विलीन होजा है ।परमेश्वर वही है,जिन्होंने आत्मा और शरीर की सृष्टि की है । भगवद गीता  में अध्यय दो -२८ में जो है,वही कबीर पदावली मे सरल रूप में मिलता है ।
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना।।(भगवद्  गीता-२-२८)
कौन मरै कौन जनमै आई।
सरग नरक कौने गति पाई ।।
पंचतत अबिगतथैं उतपनाम,रेख रही न आसा ।।

जल में कुंभ में जल है,बाहरि भीतरि पानी ।
फूटा कुंभ जलहिं समांनां,यह तत कथौ गियानीं। (कबीर पदावली-४४
५.पुनर्जन्म
मानव की  आत्मा अमर है। आत्मा का पुनर्जन्म विभिन्न रूपों में होती रहती है,  फिर उसी सनातन सर्वेश्वर रूप में विलीन हो जाती है। संत कबीर अपने पद में सहज सरल ढंग से प्रकट करते हैं। हमारे सिद्ध पुरुषों की रचनाओं में वेदों की बातों  का सरल रूप मिले हैं। मानव की आत्मा मरती नहीं है। शरीर मरता है और आत्मा परमेश्वर में विलीन हो जाती है। परमेश्वर वही है, जिन्होंने आत्मा और शरीर की सृष्टि की है।  भगवद गीता  में अध्याय दो -२८ में जो है, वही कबीर पदावली में सरल रूप में मिलता है।
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना।।(भगवद्  गीता-२-२८)
कौन मरै कौन जनमै आई।
सरग नरक कौने गति पाई। ।
पंचतत अबिगतथैं उतपनाम, रेख रही न आसा। ।

जल में कुंभ कुंभ में जल है, बाहरि भीतरि पानी।
फूटा कुंभ जलहिं समाना यह तत कथौ गियानीं। (कबीर पदावली-४४)
कबीर का कहना है कि जन्म-मरण आदि सब मिथ्या है। कौन मरता है ? कौन जन्म लेता है ? स्वर्ग-नरक किसने देखा है।  हम पंचतत्व भगवान से उत्पन्न होते हैं और उसीमें समा हो जाते हैं।  जैसे जल में घडा है,घडे में जल है बाहर और भीतर जल ही जल है। घडे टूटने पर जल में ही जल समा हो जाता है, वैसे ही शरीर में आत्मा है, शरीर नष्ट होने पर आत्मा परमात्मा में समा हो जाता है। कबीर कहते हैं-मिट्टी रूप स्थूल शरीर पृथ्वी में समा जाता है। प्राणवायु वायु से मिल जाता है।दुनिया रूप को ही जन्म लेते,मरे देखती है। आत्मा को नहीं देखती।

वेद और कृष्ण दोनों यही कहते हैं कि जीव भी मेरा एक भाग है। ब्रह्म की सकल शक्तियाँ इसी जीव में ही समाहित होती है।  श्रुति भी यही कहती है कि जीव ब्रह्म ही है। तुम वही हो। यद्यपि दोनों एक है, फिर भी बीज और वृक्ष में जैसे अंतर है, वैसे ही जीव और ब्रह्म में भेद होते ही है।  वृक्ष फिर बीज उत्पन्न करके उन बीजों को मिट्टी में ही डालते हैं।  बीज  फिर वृक्ष बनते हैं।बीज वृक्ष ही बनता है। अन्य रूप नहीं ले सकता।  वह प्रकृति में वृक्ष ही है।  वैसे ही जीव भी बीज के समान ही है।  जीव भी ईश्वर की प्रकृति से बनकर आहिस्ते आहिस्ते बढकर परमात्मा ब्रह्म में विलीन हो जाता है।  मानव ईश्वर की प्रकृति ही है।
ईश्वर सर्वज्ञ है,सर्वशक्तिमान हैं। अनासक्त है। जीव किंचन है ।कालक्रमानुसार जीव बढकर ज्ञान और शक्ति पाता है। इस अभिवृद्धि को परिभाग कहते हैं। इस स्थूल लोक में जीव धातु वर्ग में परिभाग को शुरु करता है। इस स्थिति में उसको बाह्य स्थिति का ज्ञान नहीं है।  बाहर से आनेवाले कठोर आक्रमण से बाह्य जगत का ज्ञान होता है।  भूकंप,ज्वालामुखी,बडे भू भाग का हिलना,चलना,क्रूर
ज्वार -भाटा आदि खतरनाक प्राकृतिक चोटों के कारण उसकी जडता दूर होकर बाह्य जगत की यादें आती है।  प्राचीन काल की खोजों से पता चलेगा कि जीव को कई प्रकार के उत्पातों का सामना करना पडा।  इन उपद्रवों की आवश्यक्ता के कारण जीव में मानसिक परिपक्वता आयी।  धातु समान जीव में कोमल शारीरिक अंगों का विकास हुआ।   धातुता मिटने के बाद ईश्वर रचित जीव में प्रवेश हुई कोमलता।  वे बाह्य जगत का अधिक महसूस करते हैं।  सूरज की गर्मी,मलय पवन,शरीर पोषक तत्व वर्षा आदि का महसूस करते हैं।  भूख का महसूस करते ही आहार की खोज में भटकने लगा। शिकारी जीवन संघर्षमय रहा।  तब जीव की इच्छा शक्ति,ज्ञान शक्ति ,क्रिया शक्ति  क्रमशः काम करने लगती है।
जीव जन्म-मरण के संसार सागर के बंधन में नियंत्रित नहीं रहता।  संसार चक्र में जीव के बंधन में बाँधनेवाला उनकी चाहें हैं।  चाहों के अनुकूल शारीरिक अवयवयों का विकास होता है।  जब तक शक्ति है,तब तक इच्छाओं का दास बनता है।  जीव अपनी लौकिक इच्छाओं को छोड देगा तो लौकिक बंधन टूट जाएगा,  जीव भी मोक्ष प्राप्त करेगा।  इसको मुक्तवान कहते हैं।
ये मुक्त खुद इच्छाओं से मुक्त होकर अन्य लौकिक इच्छुकों को भी मुक्ति दिलाते हैं।  ये हैं महर्षि,महाराजा,कभी-कभी सामान्य मानव भी अवतार पुरुष होते हैं।  वास्तव में ये ऋषि-मुनि,संत,महर्षि बहुत ही परिशुद्ध आत्मा के होते हैं।  लोक कल्याण के लिए कठोर मेहनत करते हैं।  परिश्रम में आत्मानंद का महसूस करते हैं।  जन सेवा में और ईश्वर से आत्मैक्य होने में परमानंद और ब्रह्मानंद पाते हैं।
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    ५.सनातन धर्म में कर्म
कर्म तद्भव शब्द होता है जिसका मतलब है धंधा या पेशा। आजकल कर्म फल,क्रिया के अर्थ में प्रयोग करते हैं।  अग जग में जो भी कर्म होता है,उ सका कोई न कोई कारण होता हैl आगे-पीछे के संबंध के बिना कोई भी कार्य नहीं होता।  इसमें कोई शक नहीं कि पूर्वोत्तर संबंधों के साथ एक के बाद एक क्रमशः व्यवस्थित रूप में चलता रहता है।
जिस पौधे का बीज बोतेे हैं, वही पौधा उत्पन्न होता है।   धान हो तो धान, आम है तो आम। पहले अंकुर फूटते हैं, फिर पत्ते,शाखाएँ, कलियाँ.फूल, कच्चा फल, फल,फिर बीज क्रमशः होते हैं।  काँटेधार पौधों के बीज में काँटेधार पौधे, उसमें अंगूर फल नहीं होंगे। कार्य के अनुसार फल मिलना ही कर्म है।  जैसा बोते है,वैसा फल पाते हैं।  इसकी सदा याद रखनी चाहिए।
आप सोचते होंगे कि वास्तव में हर कार्य संबद्धित है?  हाँ,यह सत्य है।  हम जो कुछ आँखों से देखते हैं,  वह ऐसा लगेगा कि असंबद्धित है। आदमी जो भी हो, कहीं भी हो,बाहर निकलेगा तो कोई संबंध रहेगा ही। दूकान जाने पर दूकानदार से संबंध नहीं,पर माल-असबाब से संबंध है। अमेरिका से संबंध नहीं,पर वहाँ की शिक्षा और नौकरी से संबंध है। गोताखोरों को मोती से संबंध है, समुद्र से नहीं।  समुद्र का पानी  भाप बनने और नमक बनने धूप की आवश्यक्ता है।
पर नमक को वर्षा की जरूरत नहीं।   ये संबंध प्रकृति का है। प्रकृति का नियंत्रण एक ही सर्वेश्वर के  नियंत्रण में है। मानव को उसकी इच्छाएँ और जिज्ञासाएँ भौतिक वस्तुओं की ओर खींचती रहती है। जब उसका अंग,प्रत्यंग,उपांग बीमारी के कारण या बुढापे के कारण मर जाता है। वह मरता नहीं उसकी जीवात्मा परमात्मा से मिल जाता है।  पहले मानव सोचता है, विचार करता है। फिर अभिलाषाएँ,बुद्धि,प्राप्त करने क्रियाएँ, अंत में ईश्वर में लीन हो जाता है।  क्रिया,ज्ञान,इच्छा आदि तीनों आपस में गुंथे हुए धागे के समान हैं।  हमारी क्रियाएँ दूसरों को सुख भी दे सकता है और दुख भी।. मानव परायों के सुख के लिए काम करेगा तो वह सुख देनेवाले  बीज बोनेवाला हो जाता है। कालांतर में उसको आनंददेनेवाला फल मिलता है।  वैसा न करके परायों को दुख देनेवाले कर्म करेगा तो दुखप्रद बीज बोनेवाले हो जाता है। तब मानव को दुखप्रद फल मिलता है।  प्रेम के बीज बोएगा तो प्रेम,घृणा के बीज बोएगा तो घृणा,अत्याचार के बीज बोएगा तो अत्याचार। क्रमानुसार कर्मानुसार फल मिलता ही है।  हम जैसा बीज बोएँगे,वैसा ही फल मिलेगा। जैेसे करनी,वैसी भरनी।
हमारी सोच,हमारे विचार ही हमारे शील और स्वभाव होता है। हम जिस विषय पर खूब गहरा  ध्यान देते हैं, हमारा मन और स्वभाव भी वैसा हो जाता है। हम अपने स्वभावानुसार चलते हैं।  एक प्यार भरे आदमी का व्यवहार प्रेम से ओतप्रोत रहता है। क्रूर स्वभावी का व्यवहार भी क्रूर होता है।  अगले जन्म के सुख-दुख इस जन्म के सोच विचार पर निर्भर है।
इच्छाएँ भी हमारी माँग के विषय देते हैं। जैसे चुंबक लोहे को उसकी ओर खींचता है,वैसे ही इच्छाएँ मानव को अपनी ओर आकर्षित करती हैं।  हम धन चाहते हैं तो हमें अगले जन्म में धन मिलेगा।  शिक्षा चाहें तो किसी एक जन्म में शिक्षा मिलेगी। वैसे ही प्रेम पाने की इच्छा है तो भविष्य में हम प्यार का पात्र बनेंगे।  अधिकार पाना चाहते हैं तो विशेष अधिकार प्राप्त करने की  योग्यता प्राप्त करेंगे। यही कर्म है। यही कर्म फल का बुनियाद विषय है।  इसे हम स्पष्ट रूप से समझने की कोशिश करें तो कर्म संबंधि सूक्ष्म बातें जानने के समर्थक बनेंगे। संक्षेप में कहें तो जैसे  कर्म के बीज बोते हैं,वैसा कर्मफल भोगना अनिवार्य हो जाता है।
अब यह प्रश्न उठता है,जो कुछ हम इस जन्म में भोग रहे हैं,वे पिछले जन्म के कर्म या सोच का परिणाम है तो  इस जन्म में हमारी अपनी पूरी स्वाधीनता खो देते हैं न? पर कर्म के दुखांत के कारण हमारी सोच या इच्छाएँं बदल सकती हैं। बद् इच्छाओं  को सद्-इच्छाओं में परिवर्तन करने की स्वाधीनता हमें इस जन्म में मिली है। तब इस जन्म में हमारे कर्म की बदमाशी कम होगाही।  हमारे कर्म ज़रा प्रगति की ओर जाएगा ही। यह परिवर्तन स्थाई रहेगा ही।  यही कर्म है।
हम जो कुछ सोचते हैं,वह इच्छा भी हो सकती है या वसीयत भी। हमें अपनी संपत्तियाँ दान देने की इच्छा प्रकट कर सकते हैं। वह इच्छा बदल सकती है। पर वसीयत  जो लिखेंगे वही स्थाई होती है। सोच या इच्छा तात्कालिक है, वसीयत स्थाई होती है।  जैसे चुंबक लघु चीजों को अपनी ओर खींच लेती है, वैेसे ही इच्छाएँ अपनी अनुकूल बातों को ग्रहण करती है। प्रतिकूल  बातों को छोड देती है। यही इस जन्म की स्वाधीनता है। जिन सोच-विचार और कर्म के कारण वेदनाएँ बढती है, मानसिक और शारीरिक दुख होते हैं, तब हमें संकल्प लेना पडेगा कि जिन इच्छाओं के कारण मुझे  दुखों का सामना करना पडता है, उन सबको छोड दूँगा। बुरी इच्छाएँ अपनी सीमा  से बढती है, रोकना मुश्किल हो जाती है। वह अपनी राह पर ले चलती है तो रोक लगाना मुश्किल हो तो कर्मफल दुख हो जाता है। इसलिए सुख का परिणाम देनेवाले शुभ सोचना और शुभ कर्म करना ही मानव धर्म हो जाता है। अतः मानव सुखप्रद कर्म करना ही श्रेष्ठ मानता है। पर मन में अहम् और माया बस जाता है तो उसको हर जन्म में दुख ही होता है। नूतन जीव इच्छाओं का बेगार बन जाता है। उसके जीवन में दुख की अविरल धारा बहने लगती है। अनुभवी जीव विशेष लगन और ध्यान लगाकर ज्ञान प्राप्त करते हैं। महसूस करते हैं कि हमारे दुखों के कारण पूर्व कर्म फल या पूर्वजों का कर्म फल या पूर्व जन्म का कर्म फल। तब मन में पुण्य -पवित्र विचार होते हैं। मानव धर्म कर्म करके पुण्यात्मा धर्मात्मा बन जाता है।  दूसरों को भी धर्म मार्ग दिखाता है। दीन-दुखियों की सेवा करना,नाना प्रकार के दानदेना, जैसेअन्नदान, स्वर्णदान, चाँदीदान, वस्त्रदान, गोदान, रत्नदान, भूदान, आधुनिक दान रक्त दान,नेत्रदान,हृदय दान, किड्नीदान और माँग के अनुसार दान। वेद,पुराण,स्मृति,श्रुति में इन सब के विवरण मिलते हैं।
सीता और राम के दुख,रावण का अहंकार,कामांधता,शुक्ल दान से बच्चे होना,पति पौरुषहीन है तो अन्यों के शारीरिक संबंध से संतान भाग्य प्राप्त करना,अवैध पुत्र को तजना,गर्भपतन,
गर्भच्छेद,वनवास,अधरम का शोक,ईश्वरीय कोप इन सब का वर्णन मिलता है। भले ही ईश्वर का मानव अवतार हो,दुख भोगने में से कदापि छूट नहीं,राम भी दुखी,कृष्ण भी दुखी,पांडव जीतकर भी दुखी।
मानसिक परिपक्वता होने पर भी,लौकिक इच्छाओं से एकदम छूटना असंभव ही हो जाता है। यद्यपि क्षत्रिय जनक महाराज,वैश्य तुलाधर दोनों को मुक्ति मिली,पर वे लौकिक बंधन और इच्छाओं से नहीं छूटे।
मानव को संपत्तियों के कारण ,पद-अधिकार,सत्ता आदि के कारण वास्तविक सुख नहीं मिलता।भौतिक सुख-साधनों से मानव सुखी नहीं होता।गरीब खाद्य-पदार्थ के अभाव में भूखा है।अमीर खाद्यपदार्थ होने पर भी  अपच के कारण भूखा है।भिखारी फुटपात पर मीठी नींद सोता है।  अमीर वातानुकूलित कमरे में कोमल महँगी बिस्तर पर करवटें बदलता रहता है या नींद की गोलियाँ खाकर सोता है।मानव के सुखों का आधार पद और धन नहीं है,पवित्र मन ही प्रधान होता है।
जनक महाराज विदेह देश का राजा था।  राजा के चित्त को  विश्रांति मिली तो कहा–मेरे ऐश्वर्य की कोई सीमा नहीं है।पर इनकी चाह मुझमें नहीं है।संपूर्ण मिथिला पुरी औरदेश के जलने  पर भी मेरी कोई हानि नहीं है।किसी आदमी के पास जितना अधिक संपत्तियाँ बढेंगी,
उतना अधिक दुख भी बढेगा।केवल इस संसार में मात्र नहीं,स्वर्ग में भी सारी इच्छाओं को न्योछावर करने से ही संतोष होता है।आनंद होता है।मानसिक शांति मिलती है।जिनको धन की इच्छा होती है,वह बढती ही रहेंगी ,जैसे बीज से अंकुर फूटकर बडे वृक्ष,शाखाएँ बढती हैं।वैसा ही लोभी का लोभ कभी नहीं दूर होगा।
संपत्ति को बढने देना बेचैनी का मूल कारण होता है।धन के मिलते ही परोपकार के लिए खर्च करना ही उत्तम कार्य है।दान-धर्म कार्य में लगाना चाहिए।खुद भोगना दुख की राह बना लेना ही है।इच्छा दुख का बीज होता है।याज्ञवल्क्य महर्षि के उपदेश  यही है जिसके अपनाने से जनक महाराज को मोक्ष मिला।
जलाली नामक बडा तपस्वी था।उसका विचार था कि इस विशाल संसार में,अनंत सागर में उसके बराबर का दूसरा कोई नहीं है। तब उसने सुना है कि उससे बडा है तुलाधर नामक व्यापारी।जलाली ने सोचा कि एक व्यापारी कैसे तटस्थ रह सकता है।खरीदने-बेचने में, वचन के पालन में व्यापारी कैसे सत्यवान रह सकता है?तब एक आकाशवाणी सुनाई पडी कि तुम उसके बराबर नहीं हो । आकाशवाणी के कथन सुनकर जलाली तुलाधर से मिलकर अपना शक दूर करना चाहता था। उसको पता चला कि वास्तव में तुलाधर बडा है।तुलाधर ने तब कहा कि ब्राह्मण श्रेष्ठ! आप मुझसे क्रोध होकर मुझसे मिलने आये हैं। क्या आपको कोई मदद करनी चाहिए।जलाली तुलाधर के द्वारा अपने पूर्व चरित्र की घटना सुनकर अवाक रह गया।तब तुलाधर ने कहा कि धर्म की बात अति सूक्ष्म है।फिर जलाली को तुलाधर ने समझाया कि

मानव को मोक्ष प्राप्त करना है तो किसी से भी लडना-झगडना, पसंद-नफ़रत करना नहीं चाहिए।सबको समान दृष्टि से देखना चाहिए।स्तुति -निंदा से परे रहना चाहिए।निडर होना चाहिए।दूसरों को बुराई करना नहीं चाहिए।मानव अधिक अत्याचारी करते हैं।वह ठीक नहीं है।
फिर त्याग के लक्षण,तीर्थयात्रा के लाभ बताकर कहा कि अहिंसा के द्वारा मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं।जलाली को तुलाधर द्वारा कई अद्भुत बातों की जानकारी मिली।
संदर्भ ग्रंथ--बृहधारणियोपनिषद,चांदोक्कयोपनिषद,कटोपनषद,
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६.परित्याग
भगवान की सृष्टियों में आत्मत्याग प्रधान होता है। ईश्वर ने वृक्षों की सृष्टि की है। वृक्ष समान परोपकारी अन्य जीवराशियाँ नहीं है। माँस भक्षी, शाकभक्षी, सर्वभक्षी।मनुष्य सर्व भक्षिणी वर्ग में आता है।पाप-पुण्य सोचने की शक्ति मानव में है।मानव वर्ग में दानव भी होते हैं।ज्ञानी वर्ग शाकाहारी होते हैं।अन्य परिश्रमी वर्ग माँस भक्षी होते हैं।असभ्य आदीवासी,द्वीपवासी नरभक्षी,सर्व भक्षी होते हैं।
आदमखोर जानवर क्रूर होते हैं।पर वे संग्रह करके खाते नहीं है।भविष्य के लिए जमा नहीं करते।भूख लगने पर खाते हैं।ये खूँख्वार जंगली होते हैं। मानव ही जंगली जानवरों का शिकार करता है।जंगल में हिरन,हाथी,खरगोश जैसे शाक भक्षी होते है। बिल्ली,कुत्ते जैसे सर्व भक्षी होते हैं।
एक दूसरे का शिकार बनना ही ईश्वर सृष्टित परित्याग या बलिदान हो जाता है। इन सभी सृष्टियों में मानव में ही मानवता और पशुत्व है।मानवता  निभानेवाला ही मानव होता है।
भगवान खुद यज्ञ-हवन करके ही सारी सृष्टियाँ की है।यज्ञ हवन करते समय बलि चढाते हैं।
पाषाण काल से मानव सभ्य बनने तक माँस खाते थे।पाश्चात्य देशों में,द्विपों में जहाँ खेती नहीं कर सकते,वहाँ माँसाहार ही प्रधान है। जैसे ईश्वर को फल नैवेद्य के रूप में चढाते हैं,वैसे ग्रामीण देवताओं को बकरे का बली चढाते हैं ।
हमें ईश्वर का अनुग्रह प्राप्त करने अपनी लौकिक इच्छाओं को बली चढाना चाहिए।
बली चढाने का मतलब है आत्मत्याग।
कहा जाता हैै कि इस प्रपंच की सृष्टि ही महा यज्ञ द्वारा हुई है। इसमें आत्मत्याग का महाबलि ही प्रधान है। अपने को ही अर्पण करना ही आत्मत्याग है।
मानव में त्याग और दया नहीं है तो वह पशु ही है। अतःमानव में ही दया,करुणा,सहानुभूति,परोपकार,दान-धर्म,अहिंसा,सत्य, ईमानदारी आदि गुणों के द्वारा मनुष्यता अपनाता है।
७.प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष संसार
हम पंचेंद्रियों द्वारा जो कुछ देखते हैं, सुनते हैं, सूँघते हैं,स्वाद लेते हैं, स्पर्श करके अनुभव करते हैं, वे सब हमारी दश-दिशाओं में घेरी हुई प्रत्यक्ष संसार है।  आँखों के द्वारा गुलाब के फूल देखते हैं। चमेली देखते हैं। रंगबिरंगे सुगंधित फूल,सफे़द चमेली ,उनके सुगंध हमको उनकी ओर खींचते हैं। उनपर बैठनेवाली तितलयाँ ,भ्रमर हम को सुंदर लगता है। वैसे ही रंगबरंगे मनुष्य देखते हैं, उनके मधुर स्वर,कठोर स्वर सुनते हैं। षडरस भोजन का स्वाद लेते हैं। ये हमारे लिए प्रत्यक्ष संसार होता है। हवा के स्पर्श का ठंडापन गर्मी में थकावट दूर करता है।
हम अप्रत्यक्ष संसार के बारे में भी सुनते हैं। मृत्यु के बाद आत्मा कर्म फल के अनुसार
स्वर्ग या नरक पहुँचती है।  इंद्रलोक,देवलोक,शिवलोक और विष्णु लोक का वर्णन सुनते हैं। पर वे अप्रत्यक्ष संसार होता है। त्रिलोकों के बारे में भी सुनते हैं। इन लोकों के बारे में भी जानना-समझना आवश्यक हो जाता है। जन्म-मरण के चक्र यहीं घूमता रहता है। ये तीनों लोक ब्रह्मा के लिए एक दिन होता है।
भूलोक,स्वर्ग लोक,नरक लोक आदि । भूलोक को मृत्यु लोक भी कहते हैं। यह संसार प्रत्यक्ष है। स्वर्ग और नरक अप्रत्यक्ष लोक होते हैं। इनके अलावा चार महा लोक भी होते हैं। भूलोक में प्रेतलोक,पितृलोक होते हैं। स्वर्ग में इंद्रलोक और सूर्यलोक होते हैं।  इन तीन लोकों को भूः,भुवः,स्वः कहते हैं। यह स्थूल लोक भूलोक है। स्वर्ग और भूमि का मध्य लोक भुवः लोक है। यह लोक स्वर्ग से भूलोक की ओर आने के लिए, भूलोक से स्वर्ग की ओर जाने के लिए है। तीसरा लोक स्वर्ग लोक है। इनमें भूलोक का छोटा-सा अंश प्रत्यक्ष है। बाकी दो लोक अगोचर है।
भू लोक में दृढ,द्रव,भाप,ज्योति,आकाश,परमाणु आदि सात प्रकार के रूप है| अंतिम चार लोक आकाश में हैl  भूलोक में जैसे सात रूप होते हैं, वैसे ही भुवः, स्वः लोक में भी सात भेद प्रकृति से मिलते हैं। वहाँ उनके लिए अग्नि तत्व ही आधार होता है।
इन तीन लोकों के जैसे ही जीव में भी तीन कोश होते हैं। वे हैं अन्नमय कोश,प्राणमय कोश,मनोमय कोश।
अन्नमय कोश-अन्न तथा भोजन से निर्मित कोश। यह जीव के प्रत्यक्ष दीखनेवाले हैं। यह शरीर अन्न से बना है, अन्न को ब्रह्मा भी कहते हैं।
प्राणमय कोश–प्राण बसने का कोश है। प्राणायाम के लगातार प्रयास से प्राणायाम कोश स्वस्थ रहता है। प्राण का मतलब है जीवशक्ति। इसमें चुंबक शक्तियाँ,बिजली की शक्तियाँ समाहित है।
मनोमय कोश मन से संबंधित है।  कामोत्तेजना स्थूल शरीर से संबंधित है। मनोकामनाएँ,संकल्प आदि सूक्ष्म बातें स्वर्गलोक से संबंधित है।
१.स्थूल शरीर—-भूलोक-अन्नमय कोश.,
२.सूक्ष्म शरीर -भूलोक-प्राणमय कोश
३.सूक्ष्म शरीर-भुवः लोक–मनोमय कोश
४.सूक्ष्म शऱीर-स्वर्ग लोक-मनोमय कोश
५.सूक्ष्म महरलोक–विज्ञानमय कोश
कई प्रकार के लोकों का जिक्र करते हैं। वास्तव में तीन ही लोक है।
वे हैं १.मनुष्य लोक,२.पितृलोक ३देवलोक—- बृहद् आरण्यम -V.16
जो जन्म लेते हैं,उनकी मृत्यु निश्चित है। जो मरते हैं,उनका पुनर्जन्म निश्चित है। इसके लिए दुखी होना सही नहीं है।
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८.सनातन धर्म के चार आश्रम
मानव-मानव में चरित्र गठन के लिए,व्यवस्थित रखने के लिए अनुशासित रखने के लिए एकता बनाए रखने के लिए कुछ नियमों को बनाये थे।वे सनातन धर्म के स्थाई गुण बन गए।श्री कृष्ण ने भी गीता मेंं एकता को ही योग बताया है।
वेदों में यही बताया गया है कि सभी पदार्थ आत्माओं के लिए है।आ्त्माओं को भोगने के लिए है।
मानव जीवन में बचपन,लडकपन,जवानी,बुढापा आदि की चार अवस्थाओं में मानव अनुशासित न रहा।तब अनुशासन बनाये रखने के लिए चार आश्रम की व्यवस्था की गयी।
वे है ब्रह्मचर्य,गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास।
१.ब्रह्मचर्य -विद्याभ्यास की स्थिति, गुरु कीसेवा, आत्मसंयम, आतमाभिमान, विनयशीलता, सत्यशीलता, त्याग, देश-प्रेम, परोपकार,समजसेवा,वचन का पालन आदर्श स्वस्थ जीवन जीने प्रस्तुत हो जाना।
२.गृहस्थ -दांपत्य जीवन,संतान पालन, पारिवारिक जीवन, माता-पिता, दादा-दादी,सास-ससुर की देखरेख करना, पति-पत्नी का कर्तव्य निभाना, संतानों का देखपाल,शिक्षा दीक्षा का प्रबंध करना,
३.वानप्रस्थ सकल सांसारिक सुख-दुखों को त्यागकर जीने का मन में परिपक्व लाना । लौकिकता कम करना।
४.संन्यासी जीवन में सकल सांसारिक सुख-दुख भूलकर ईश्वर आश्रित रहना। भगवान की ही ओर ध्यान मग्न होना। सिवा ईश्वर के अन्य बंधनों का सोचविचार न रखना।
ब्रह्मचर्य केवल विद्यार्जन के लिए। ब्रह्मचर्य के आश्रम में अन्य आश्रमों के लिए स्थान नहीं है। वैसे ही एक आश्रम को दूसरे आश्रम में मिलाना सही नहीं है।
ब्रह्मचर्य छात्र जीवन होता है। उपनयन संस्काकार मानव का दूसरा जनम होता है। उपनयन संस्कार के बाद विद्यार्थियों को अच्छी चालचलन और सद्गुणों को ही अपनाना चाहिए। शिष्यों की जीवन चर्याएँ सादा और विशेष सुविधाओं की चाहें रहित होनी चाहिए। उनकी अच्छी आदतें उनको स्वस्थ और नीरोग बनाती है। ब्रह्म मुहूर्त में उठना,स्नान करना,सादा आहार मित करना चाहिए। यंत्रीकरण का गुलाम न बनकर शारीरिक श्रम करना चाहिए। आलसी से दूर रहना चाहिए। सुख की खोज न करनी चाहिए। षडरस भोजन को ज्यादा न खाना चाहिए। हमें आलसी,पेटू,कोमल शय्या में सोनेवाले विद्यार्थी के अध्ययन से पता चलेगा कि वह अधिक आलसी ,मोटा,सुस्त रहेगा।
ब्रह्ममुहूर्त में उठकर शौचादी करनेवाले विद्यार्थी स्वस्थ और चुस्त रहेगा।  उनकी स्मरण शक्ति अच्छी रहेगी। मुख में दिव्य चमक रहेगी। वह मनसा,वाचा और कर्मणा पवित्र रहेगा। ऐसे ब्रह्मचर्य के पालन करनेवाले गृहस्थ जीवन में सफल रहेगा। विद्यार्थी जीवन में ही शादी करनेवाले बाल्य काल में ही बूढे बन जाते हैं। संभोग में कमजोरी होती है। रोग बढ जाता है। वंश क्षीण हो जाता है।
ब्रह्मचर्य जीवन में सद्गुणों को अपनाकर विद्याध्ययन के बाद  विवाह करने योग्य हो जाते हैं। मानव जीवन के चार आश्रमों में गृहस्थाश्रम ही महत्वपूर्ण हैं। किसी एक देश या परिवार का कुशल क्षेम गृहस्थ पर ही निर्भर होता है। पुरुष सद्गुणवले पति,पिता,नागरिक,मालिक होेने से  समाज की प्रगति होती है। गृस्थ परोपकारी, शीलवान, दयालू, परिश्रमी, दानी, धर्मात्मा, अल्पाहारी,चतुर,सलाहकार होता है। इन गुणों से युक्त व्यक्ति ही श्रेष्ठ कुटुंबस्थ का नाम पाता है।  यही गृहस्थ देश और विश्व कल्याण की सेवा करता तो साधु-योगी बन जाता है।
गृहस्थ जीवन में अपनी संतानों को पाल पोषकर बडा बनाकर अपने कर्तव्य निभाने के बाद
वानप्रस्थ जीवन में अपनी पत्नी के साथ एकांत में जीते हैं। अपने पारिवारिक जिम्मेदारियों को दूसरों के हाथ सौंपकर रहते हैं। लौकिकता तजकर समाज कल्याण में लगना,छोटों को नसीहतें देना तीसरा आश्रम है।
संन्यासी जीवन चौथाश्रम है बुढापे में भगवान के ध्यान में मग्न होना ,भक्ति में तल्लीन जीवन पर्यंत बिताना संन्यासी जीवन है। फिर मृत्यु के बाद उस दुनिया में प्रवेश करता है, जहाँ कर्मफल के अनुसार स्वर्ग -नरक का पुरस्कार- दंड मिलता है। यह अप्रत्यक्ष संसार है।

९.वर्णाश्रम धर्म
मानव की सृष्टी में भगवान की अत्यधिक सूक्ष्मता है। भगवान मानव में समानता लाना नहीं चाहता। मानव के आकार, रंग,रूप,उच्चारण,भाषा,वेशभूषा,खुराक जलवायु ,आँखें,कान आदि सब में भिन्नताएँ मिलती हैं। बडे फर्क होते हैं तन बल,मन बल,धन बल,बुद्धि बल आदि में।
बुद्धि बल के अंतर्गत ब्राह्मण,मंत्री,लेखक,कवि,न्यायाधीश होते हैं। दूसरा वर्ग तन,मन,बुद्धि बल से युक्त शासक वर्ग जिन्हें क्षत्रिय कहते हैं। तीसरा वर्ग है धनी वर्ग जिन्हें वैश्य कहते हैं। वे सब के लिए आवश्यक भोजन सामग्रियाँ,आभूषण,कपडे आदि का व्यापार करते हैं।
चौथे वर्ग के लोगों में शारीरिक बल, बुद्धि बल होते हैं। चौथे वर्ग के बिना बाकी तीन वर्गों का जीना दुश्वार हो जाएगा। इस वर्ग में किसान भी होते हैं। किसान ही अन्नदाता है। उनको मौसम का पता चलता है।  कौन से मौसम में कौन-सा अनाज पैदा करना है,पानी अधिक या कम के अनाज,तरकारी,फूल-फल सब जानकारियाँ किसान में मौज़ूद रहेगा।
वास्तुकला,चित्रकला,बढईगिरी,लोहार,सोनार ,शिल्पकला,पशुपालन,सब इस चौथे वर्ग में आएगा जिन्हें शूद्र कहते हैं। बिना इस शूद्र वर्ग के बाकी तीनों वर्ग आराम की जिंदगी जी नहीं सकते।
सनातन धर्म की वर्णाश्रम व्यवस्था किसी मनुष्य को नीचे करने या अपमानित करने केलिए नहीं बने। यह व्यवस्था अन्योन्याश्रित है। चारों अपने अपने कर्तव्य करते रहे।
कालांतर में जाति-संप्रदाय के कारण ऊँच-नीच के भेद, एक दूसरे के प्रति घृणा भाव बढ रहा है।  विदेशों के आक्रमण,विदेशियों के षडयंत्र, विदेशी शासन भारतीय वर्ण व्यवस्था को भंग कर दिया।   ऊँच -नीच,छूत-अछूत की भावनाएँ उत्पन्न होने लगी। परिणाम यह हुआ कि हिंदुओं की एकता में दरारें पड गयी।  दलित पीडित तिरस्कृत हिंदू लोग ईसाई धर्म अपनाने लगे। मुगल शासन काल में आतंकित हिंदु मुगल धर्म में बदल गये। स्वतंत्रता के बाद भारत में धर्म निरपेक्ष राज्य की स्थपना हुई। ऋगवेद में जाति व्यवस्था की उत्पत्ति के बारे में बताया गया है कि सनातन धर्म का मुख ब्राह्मण होता है और क्षत्रिय बाहुबल के होेते हैं। वैश्य जाँघ होते है। शूद्र पैर होते हैं। सनातन धर्म में शूद्र वर्ग का ही महत्व है।  उनके कठोर मेहनत के बिना न खेती,न बाँध,न सफाई।
सर्वेश्वर ने ब्राह्मण को वेद मंत्र पढने,यज्ञ करने,दान देने,दान लेने सृष्टि की है।
सर्वेश्वर ने क्षत्रियों को प्रजा की रक्षा करने,दान करने,वेद मंत्र पढने,विषय सुख में न पडने के लिए सृष्टि की है। भगवान ने वैश्य की सृष्टि पशुओं की रक्षा करने,दान देने,वेद पढने,व्यापार करने ,खेती करने,मुद्रा विनिमय आदि के लिए सृष्टि की है। शूद्रों की सृष्टि अन्य वर्णो की सेवा के लिए की है ।
द्विज जन्म से नहीं,संस्कार से नहीं,अच्छी चाल-चलन से ही होते हैं। जिनमें सत्यता,दान शीलता ,गुणवत्ता,कोमल स्वभाव,तप,करुणा आदि होते हैं, वे ब्राह्मण कहे जाते हैं। ये गुण जिस में नहीं होते, वे शूद्र होते हैं। आचार हीन ब्राह्मण ऐसा है,जैसे अंधे व्यक्ति के लिए सुंदर नारी होती है । आचरण ही मनुष्य को श्रेष्ठ बनाते हैं,कुल परंपरा से नहीं।
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१०. धर्माधर्म चिंतन
मानव की महानता,श्रेष्ठता उसके आचरण पर ही निर्भर है। माता,पिता,गुरु को ईश्वर मानना,विनम्रता,अध्ययन शीलता, अच्छी चालचलन,अनुशासन,चरित्र गठन,परोपकार,दानशीलता,दयालुता,सत्य का पालन,वचन का पालन,अहिंसा,ध्यान,तटस्थता,निस्वार्थता,अलौकिक विचार, त्याग,देश भक्ति आदि मानवीय मूल्य धर्म  के अंतर्गत आ जाते हैं।धर्मो रक्षति रक्षितः, धर्म की रक्षा करनेवाले को धर्म रक्षा करता है।  आचारः परमो धर्म –सनातन धर्म आचरण का महत्व देता है।आचार हीनं न पुनन्ति वेदाः– वेद भी आचार हीन का उद्धार नहीं कर सकता। सत और आचार  ही सदाचार-मतलब है सत्य-अहिंसा,भगवान पर भरोसा,मित्रता,महानों का अनुसरण आदि।
भारत में धर्म प्रधान है। धर्म से ही मनुष्य की लौकिक और अलौकिक प्रगति होती है। सदाचार की शक्ति शील है।सदाचार ही मनुष्य को बद्गुणों से बचाता है।सदाचार में भक्ति प्रधान होने से काम,क्रोध,मद,लोभ आदि बुरेे गुण दूर हो जाते हैं।आचरण की पवित्रता में मानसिक शांति मिलती है।सदाचार के कारण मानव के मन में धैर्य होता है।धैर्य और सदाचार दोनों ही मानव को सफलता के शिखर पर पहुँचाता है।मानव को अधर्म अधःपतन की ओर ले जाएगा।
धर्म और अधर्म की लडाइयाँ,असुरों का शासन,देवों का भय अति प्राचीनतम काल से आज तक जारी है। धर्म अधर्मों के पैरों कुचले जाते हैं।नाना प्रकार  का कष्ट झेलकर धर्म की विजय होता है,  अधर्मियों के अट्टहास आज तक जोर पकड रहा है।मानव व्यवहार के व्यवस्थित संग्रह का नाम  नीति शास्त्र है।नीति शास्त्र का दूसरा धर्म है।धर्म अच्छी चालचलन का व्यवहारिक रूप होता है। यह चरित्र गठन पर आधारित है ।सद्गुण वाले व्यक्ति शाश्वत सुख मोक्ष को प्राप्त करता है।बद्चलन वाले दुख का अनुभव करते हैं।श्रेष्ठता का लक्षण सदाचार होता है। धर्म आचार का आधार होता है। अच्छे आचार के द्वारा मनुष्य कीर्ती के शिखर पर पहुँचता है।आत्म ज्ञानी द्विज को सदाचार का ही अपनाना चाहिए।श्रृति और स्मृति आचार को ही धर्म मानता है।आचार से ही धर्म की प्रवृत्ति होती है।जिसमें अहिंसा प्रधान होता है,उसमे ही धर्म की स्थापना होती है। मनुष्य बाह्य जगत से अनुभव प्राप्त करता है। बाह्य जगत के अनुभव के द्वारा त्रिलोकी प्रगति को जान लेता है।वही ऊँ तत्सत। ऊँ ब्रह्म या वास्तविकता की धवनि है ।तत् शिव है।सत् विष्णु है। इनका मतलब सर्वोच्च वास्तविकता,पूर्ण सत्य,सर्वेश्वर  का अस्तित्व ही पूर्ण सत्य है। इनको जानना,समझना ही मोक्ष प्राप्ति का मार्ग है।
मुक्ति का मतलब है जीव ब्रह्मत्व को प्राप्त कर लेना।मरना मुक्ति नहीं है ।जेसे नमक समुद्र में घुलकर एक हो जाता है,वैसे ही आत्मा परमात्मा एक होना अद्वैत होना ही मुक्ति है।तब मानव में केवल धर्म के विचार और धर्म की सोच ही प्रधानता पाते हैं।
धर्म अधर्म के सुख-दुखों को पहचानकर धर्म मार्ग पर चलना ही मानव धर्म है।सनातन धर्म मानव व्यवहार के लक्षण में धर्म-अधर्म के लक्षण बताते हैं।धर्म के पालन में मनुष्य में दिव्यत्व आ जाता है।
मानव जीवन में धर्म -अधर्म के विचार में प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्ग पर भी विचार करना आवश्यक है। जगत माया पूर्ण है। माया से छूटने और बचने का मार्ग भक्ति और अलौकिक मार्ग है।वेदों में,स्मृति और पुराणों में लौकिक और अलौकिक बातों को सरलता से समझने के लिए प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्ग की व्याख्या की गयी है।प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्ग की अवधारणा स्पष्ट हो जाने पर ही वेदों के सनातनता को पूर्ण रूप से समझ सकते हैं,समझा सकते हैं।
  प्रवृत्ति मार्ग में लौकिकता प्रधान हो जाता है,उसकी आसक्ति सांसारिक विषयों में ही लगी रहती है।उस मार्ग में भी उचित-अनुचित का उल्लेख हुआ है।
निवृत्तिमार्ग त्यग का मार्ग या संन्यासी मार्ग है। प्रवृत्ति का उल्टा निवृत्ति मार्ग है।
भीष्म ने युधिष्ठिर को समझाया है कि ज्ञान और अनुभव के आधार पर ही मेरा उपदेश हो रहा है।एक देशाचार से धर्म का अनुसरण करना भव सागर की यात्रा को व्यवस्थित न करेगी।  वेदों की युक्तियों को अति ध्यान से जाँचकर समझ लेना चाहिए। एक
राजा अपनी बुराई करनेवालों को क्षमा कर सकता है।पर अपने देश और नागरिकों को बुरा करनेवालों को किसी भी हालत में  क्षमा करना नहीं चाहिए। शत्रु अक्षम्य होते हैं।निरपराध की हत्या बडा पाप है। अक्षम्य अपराधी की हत्या पाप नहीं है।एक राजा में समानुभूति होनी चाहिए।  जिसकी लाठी, उसकी भैंस  के व्यवहार पर रोक लगानी चाहिए। उनको नियंत्रण में रखना चाहिए।
मधुर बोली बोलनेवाली ही पत्नी है।  पिताजी को संतुष्ट करनेवाला ही पुत्र है। सदा सर्वकाल विश्वसनीय ही मित्र है। जीविकोपार्जन के मार्ग नहीं है तो वह देश देश नहीं है।
दूसरों को सुख देना पुण्य कर्म है।दूसरों को दुख देना पाप कर्म है।
अपने को जिन कार्यों को करने से अहित होगा,उन कार्यों को दूसरों के लिए करना,कराना और करवाना बहुत बडा पाप होगा।
धर्म-अधर्म विचार जो सनातना धर्म में बताए गये हैं,वे अग जग के लिए सदा अनुकरणीय और चिर स्मरणीय होते हैं।
धर्म-अधर्म के भेद में हमें जानना चाहिए तो जो भी काम करते हैं, उसमें ऐक्य भाव हो तो एकता की भावना जाग उठें तो धर्म पक्ष है।  भेद भाव,दुश्मनी,घृणा जागें तो अधर्म काम है।

 भगवद्  गीता में भी भगवान कृष्ण  देवगुण,आसुरी गुणों की व्याख्या करते हैं।
अभय,सत्वशुद्धि,ज्ञानयोग,दान,धर्म,यज्ञ,शास्त्रों का अध्ययन,यथार्थ भावना,अहिंसा,सत्य,त्याग,शांति,विषम रहित जीवन,भूत दया,लोभ रहित जीवन,कोमल स्वभाव,लज्जा,क्रोध न होना,शबलता न होना,दृढता,क्षमा शीलता,धैर्य,द्रोह रहित जीना,गर्व न होना आदि गुणों को मनुष्य एकता स्थापित करनेवाले गुण मानते हैं। ये गुण सब मानवों में होने पर भी ज्ञान के आधार पर ही जगते हैं।ये सब दिव्य गुण होते हैं। छल,कपट,अहंकार,क्रोध,कटुवचन बोलना,स्वार्थता,पक्षपात आदि दुर्गुण अज्ञानता के कारण होनेवाले आसुरी गुण होते हैं।
आनंद और मनोभाव
सनातन धर्म यही बताता है—ब्रह्म आनंदस्वरूप है।जीवात्मा ब्रह्म स्वरूप है।अतः जीवात्मा भी आनंद स्वरूप है। विचार  विपरीत होने पर,बदव्यवहार होने पर मानव दुख स्वरूप हो जाता है।  ईश्वर का ध्यान न करेगा तो दुख ही बचेगा।
ईश्वर में संकल्प,शक्ति और आनंद नामक तीन लक्षण होते हैं। मनुष्य ईश्वर के प्रतिबिंब होने से ये लक्षण मनुष्य में भी विद्यमान होते हैं। पर मानव अपने आनंद लक्षण के लिए बाह्य जगत की ओर आकर्षित होता है।उसको बाह्य पदार्थों पर मोह,प्रेम और इच्छा होती है। इच्छुक पदार्थों के कारण वह दुखी होकर द्वेष करने लगता है। पहले बाह्य पदार्थों से मोह,फिर नफ़रत करने लगता है।
इच्छा,इच्छा के कारण घृणा ,फिर इन दोनों के परिणाम भोगकर सही मनोभावों पर पहुँच जाता है।  मनोभाव ही कालांतर में शीलवान या गुणवान बनाता है। प्रेम का मनोभाव पहले मानव को अपने परिवार तक सीमित रखता है। धीरे धीरे प्रेम जाति-संप्रदाय,वर्ग और राष्ट्र तक विकसित होता है।सबको अपने जैसे ही प्यार करने लगता है। ईश्वर का संकल्प सभी जीवों में ऐक्य लाना है।तभी मानव में वास्तविक आनंद इोगा। वास्तविक आनंद के आने पर
अच्छी चालचलन भी होगी।
मानव के मन में अनेक प्रकार के विचारों की लहरें उठती रहेंगी।  मनको चंचलता से दूर रखना चाहिए। मन को वश में रखना चाहिए।इंद्रियों को वश में रखने के लिए मन को जीतना चाहिए।  मनुस्मृति कहता है कि मन वश में हो जाता है तो दस इंद्रियाें को जीत सकते हैं।  ये इंद्रियाँ हैं पाँच ज्ञानेंद्रिय और पाँच कर्मेंद्रिय। 
मन बुराई की ओर जाता है तो पहले मन को नियंत्रण में रखना चाहिए। मन को नियंत्रण में रखने के लिए अच्छी बातों को ही मन में स्थान देना चाहिए।
मन को वश में रखने के बाद वचन को वश मे रखना चाहिए। रहीम ने भी कहा है–
रहिमन जिह्वा बावरी,कहि गई सरग पाताल। आपू तो कहि भीतर रही,जूति खात कपाल।।
जीभ को बकने देने पर जूतों की मार सहनी पडती है। बने-बनाया काम बिगड जाता है।
मन और जिह्वा को वश में रखना पर्याप्त नहीं है।शरीर को भी वश में रखना चाहिए।ईमानदारी,ब्रह्मचर्य,अहिंसा आदि ही शरीर की तपस्या कही जाती है। जवानी ही शरीर को वश में रखने का समय है। शारीरिक आदतें व्यवहार से बनी है।हम लगातार कोशिश करेंगे तो तन को भी काबू में रख सकते हैं।
हमारे पाप और दुख के बीज होते हैं स्वार्थता और आर्थिक चाहें।  धन की इच्छा बढती रहती है। कभी कम नहीं होती। मनकी नाम का व्यक्ति बडा लोभी था।धन जोडने के प्रयत्न में सब कुछ खो चुका। तभी उसको लोभ का परिणाम मालूम हुआ। मनकी ने अपने अनुभव से कहा कि जो आनंद चाहते हैं,उनको इच्छाओं को छोड देना चाहिए।मानव को अपनी सारी इच्छाओं को पूर्ति कर लेना असंभव है।
धर्म-अधर्मों  को तीन भागों में विभाजित कर सकते हैं।
१. हमसे श्रेष्ठ लोगों से मिलकर रहते समय होनेवाले धर्म-अधर्म,
२.हमारे बराबर के लोगों के साथ  मिलकर रहते समय होनेवाले धर्म-अधर्म
३.हमसे निम्न लोगों से मिलकर रहते समय होनेवले धर्म-अधर्म
सभी धर्म प्यार के आधार पर निर्भर है। आनंददायक है।
सभी अधर्म द्वेष के आधार पर होते हैं।दुखदायक है ।
सद्गुण और दुर्गुण
एक परिवार के सद्गुण और दुर्गुण के आधार पर ही एक देश और समाज की प्रगति या दुर्गति निर्भर है। पारिवारिक धर्म के अनुकरण में ही आनंद भरा परिवार होता है।ऐसे संतुष्ट परिवार ही देश के और जाति के कल्याण का आधार होता है। मनु धर्म के अनुसार स्त्री और पुरुष दोनों एक ही होते हैं।प्यार दोनों को एक बनाता है।पुरुष की जिम्मेदारी स्त्री की रक्षा करनी है।स्त्री पर दया दिखानी है।स्त्री को पुरुष से प्यार करना,सेवा करनी चाहिए। इन दोनों में परस्परिक प्रेम अंत तक होना चाहिए। सीता और राम दोनों आदर्श पति-पत्नी के लिए उदाहरण है।दोनों सुख-दुख को एक साथ भोग रहे थे।
सत्यवान और सावित्री भी आदर्श दंपति थे। सावित्री ने यम से लडकर पति की जान की रक्षा की। नल और दमयंति भी आदर्श दंपति थे।
राम,लक्ष्मण,भरत और शतृघ्न भी आदर्श भाई रहे।इस प्रकार पौराणिक कथाओं में आदर्श पात्र त्याग का मार्ग ,सुख-दुख सहने का प्रेम मार्ग दिखाते हैं।
शुभ-अशुभ मानव जीवन में उत्तम,अधम,मध्यम कर्म के अनुसार होते हैं।  मनुष्य देह में दस लक्षण ,तीन अतिष्टान और तीन प्रकार के स्वभाव होते हैं। इनको नचानेवाला मन ही है।यह जीव मन में जो सोचता है, वह मन से ही अनुभूति करता हे। वचन में जो चाहता है,वचन से अनुभव करता है। शरीर से जो भोगना चाहता है,उसे शरीर से भोगता है।
जिव्हा नियंत्रण,कर्म नियंत्रण और काया नियंत्रण कर लेता है ,उसे त्रितंडी कहते हैं,इस त्रितंड को सर्व भूतों पर प्रयोग करके काम,क्रोध को नियंत्रण में लाकर जीव सिद्धि प्राप्त करता है।
देव,ब्राह्मण,गुरु,देवी की पूजा,ब्रह्मचर्य का पालन,अहिंसा आदि काया से करनेवाली तपस्या है।
दूसरों को लाभ और सुख देनेवाली बातें करना,कल्याण की बातें करना,वेद-शास्त्रों को पढना वाक् तपस्या है ।
मन की स्पष्टता,मौन,क्रूरता न करना,आत्मनियंत्रण,पवित्र स्वभाव, मानसिक नियंत्रण आदि मनः तपस्या कही जाती है।
मनसा, वाचा,कर्मणा जो पवित्र रहते हैं,वे ईश्वरत्व प्राप्त करते हैं।
किसी भी हालत में क्रोध दिखना, क्रोध बढाना अशांति बढाती रहती है।
मनुस्मृति के मानवधर्म
१.आदर्श गृहस्थी को अतिथि सेवा करनी चाहिए। अतिथि-सत्कार करने से धन,आयुष,कीर्ती,स्वर्ग प्राप्ति आदि अपने आप मिलेंगे।
2.सदा सत्य बोलना चाहिए। अप्रिय सत्य बोलना नहीं चाहिए।प्रिय सत्य बोलना चाहिए।
३.जो मनसा,वाचा,कर्म से पवित्र होते हैं, वही वेदांत के समस्त फल पाने का अधिकार होता है।
४.श्रोताओं को दुख देनेवाले शब्द बोलना नहीं चाहिए।
५. नास्तिकता, ईश्वर निंदा,द्वेष,हठ,क्रोध,अत्याचार,कटुवचन आदि को जड-मूल नष्ट कर देना चाहिए।
6.दूसरों को दुख देेनेवाले कठोर शब्द बोलनेवाला दुर्भाग्यशाली होता है।
७. पंचभूतों में ही दया,मित्रता,दानशीलता,करुणा आदि तटस्थ रहते हैं।ये गुण ही अतुलनीय संपत्ति है।  ८.जो धर्म चाहते हैं,उनको कोमल बातें करनी चाहिए।मौन धर्म का पालन करना चाहिए।
शासक का कर्तव्य
९.जो शासक स्वर्ग प्राप्त करना चाहते हैं,उनको अनुशासित रहना चाहिए। अच्छी चालचलनवालों की सुरक्षा करनी चाहिए। नागरिकों की आवश्यक सभी सुविधाएँ करनी चाहिए।अन्यायियों को दंड देना चाहिए।अपने अपने धर्मानुष्टानों का पालन करनेवाले वर्णाश्र्मों की रक्षा करनी चाहिए।शासक कोनिराई करनेवालों के समान बुराइयों को निराई करनी चाहिए।
गृहस्थ को अतिथि भोजन के पहले रोगियों को,गर्भिनियों को भोजन खिलाने का अपवाद है।
आवागमन नियम—
नब्बे साल के बूढों के ,रगियों के ,भार ढोनेवालों के,राजा के,दुल्हन के वाहनों को जाने के लिए मार्ग छोड देना चाहिए।
करुणा ही साधुओं के लिए बडप्पन है।
सनातन धर्म के सिद्धांतों को शोध करने पर इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि पंद्रह हजार साल पुराना धर्म धर्म है,न मजहब । सनातन धर्म के जनक कोई नहीं है।
वह किसीको सनातन धर्म अपनाने का ज़ोर नहीं देता। सनातन धर्म के प्रचारक आदि काल से आज तक कोई नहीं है।
सनातन धर्म के अनुसार सर्वेश्वर एक ही है। संसार की हर एक सृष्टि ईश्वर का ही अंश है।
जन्म-जीवन-मरण के चक्र में सुख-दुख का अनुभव करके जीव फिर सर्वेश्वर में ही समा हो जाता है। आत्मा अमर है। आत्मा जिसमें रहती है, उसका आकार ही भिन्न-भिन्न होता है।
सद्विचार से सुखात्मक और सुखांत है।  दुर्विचार से जीव का जीवन दुखात्मक और दुखांत होता है।
    शोध का सार
सनातन धर्म लगभग पंद्रह हजार साल पुराना जीवन शास्त्र है।सनातन धर्म विशिष्ट धर्म है जिसका कोई संबंध मजहब,जाति-संप्रदाय से नहीं है।यह प्राचीनतम संस्कृति है।माता,पिता और बडों का आदर करना चाहिए। सबसे प्यार करना चाहिए।तमिल संत कोयम्पुत्तूर पेरूर मठ के प्रधान के अनुसार आधुनिक सिद्ध साहित्यों में भी सनातन धर्म के सिद्धांत मिलते हैं।जाति सनातन धर्म की बात नहीं है। आग ऊपर की ओर जलता है,नीर नीचे की ओर गिरता है,यह प्राकृतिक नियम  शाश्वत है,वैसे ही सनातन धर्म के सिद्धांत शाश्वत है।
हे ईश्वर। मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो।अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो।मृत्यु से अमृत की ओर ले चलो।
सनातन धर्म के शोध के आधार पर निम्नलिखित निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं–
१.सर्वेश्वर एक ही होते हैं। संसार के सभी जीव-जंतु  पंच तत्व नीर,भूमि,आकाश,वायु,अग्नि के मिश्रण से बना है। एक ईश्वर का अनेक रूप है। सनतान शाश्वत है।

२.जीवात्मा में परमात्मा बसता है।
३.परमातमा के सभी गुण जीवात्मा में हैं।
४.ब्रह्मा,विष्णु,शिव तीनों को परमात्मा ने अपने प्रतिनिधि के रूप में सृष्टि की है।
ब्रह्मा का काम सृष्टि करना है।विष्णु का काम जीवों का पालन करना है।सत युगी दुनिया की स्थापना,दिव्य संसार का पालन करना,पतित संसार का विनाश करना, शिव भगवान की जिम्मेदारी है।  उनको त्रिमूर्ति कहते हैं।
५.मानव में दिव्यत्व है,वह बाहरी आकर्षणों के कारण दिव्यत्व खोकर सुखमय जीवन को दुखमय बना लेता है। बाह्य आकर्षण के कारण मानव के मन में काम,क्रोध,मद,लोभ,अहंकार घेर लेता है। मानव में आसुरी गुण के आने से दिव्यत्व खो बैठता है।
६.सनातन धर्म मानव में अच्छी चालचलन अनुशासन पर जोर देता है।
७.मनुस्मृति और भगवद् गीता में मानव के चरित्र निर्माण के आधारभूत सिद्धांत मिलते हैं।
मनुस्मृति,याज्ञवल्क्य स्मृति,शंकर,लिकित की संस्मृतियाँ,परासरस्मृति,रामायण,महाभारत काव्य,आदि में मानव धर्म के शाश्वत सिद्धांत सुरक्षित हैं।
८.सनातन धर्म में चार वर्णाश्रम हैं ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य,शूद्र आदि।
९.मनुष्य जीवन के चार आश्रम है ब्रह्मचर्य,गृहस्थ,वानप्रस्थ,संन्यासी आदि।
१०. सत्य,अहिंसा,परोपकार,दान,धर्म,वचन का पालन,परोपकार,ईश्वर भक्ति,प्राणायाम आदि ही मानव को ईश्वर बनाता है।
सनातन धर्म ही मानव को ईश्वर के समान मानता है।सनातन धर्म में किसी एक ईश्वर को ही ईश्वर नहीं कहा गया है।मंदिर में ही भगवान है का नियम नहीं है।कर्तव्य का पालन करना ही भक्ति है।भगवान तो इत्र-ततर-सर्वत्र विद्यान है।
११. सनातन धर्म धर्म-अधर्म के परिणाम की व्याख्या अनेक पात्रों के चरित्र चित्रण द्वारा करके स्थाई सिद्धांत बना दिया है। धर्म कर्मों के द्वारा ही ईश्वर का प्रिय पात्र बन सकते हैं।
१२.चाह रहित जीवन ही सुखप्रद,शांतिप्रद और संतोष प्रद जीवन है।
१३. लौकिक ज्ञान प्राप्त करने के छे अंग हैं व्याकरण,नृत्त,ज्योतिष,काव्य,६४ कलाएँ हैं।
१४.जीवात्मा को परमात्मा से मिलाने के मार्गदर्शक है ।
१५.मीमांस में लौकिक-अलौकिक कर्मों की बातें और उनके सुपरिणाम और दुष्परिणाम भी बताये  गये हैं।
१६.रामायण,महाभारत के पात्र प्रेम ,भक्ति,त्याग,दान वीरता परोपकार के सुपरिणाम और काम.क्रोध,मद,लोभ के दुष्परिणाम का भी जिक्र करते हैं। 
१७. उपनिषद की कहानियों में सत्यकाम जाबाल की कहानी सुधारात्मक विषय है। सत्यकाम को उसके पिता का नाम मालूम नहीं था। उसके गोत्र का भी पता नहीं था। वह गु्रु गौतम  से अपने बारे में सत्य बोला। उसकी माता का नाम जाबाला था। वह वेश्या थी।  गुरु ने उससे कहा कि तुम सत्य बोलते हो। सत्य बोलनेवाल ब्राह्मण होता है। सत्यकाम को माँ के नाम को ही जाबाल गोत्र बना दिया।  वह आगे चलकर ब्रह्म ज्ञानी बना। तमिलनाडु सरकार ने माँ के नाम को आद्याक्षर रखने का आदेश जारी किया है। मानव जन्म के कुल के कारण नहीं,सत्संग और आचरण के कारण ज्ञानी बनता है।
उपनिषद की यह कहानी जाबाला जाबाल बनकर गोत्र बनने से सनातन धर्म के सुधारात्मक विचार का पता चलता है। सत्यकाम जाबाल की कहानी आधुनिक सुधारवादी विचार का द्योतक है।(छांदोग्य उपनिषद).ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति गुरु द्वारा दिखाए मार्ग से होती है।ब्रह्मज्ञान से मनुष्य जितेंद्र बनता है। जितेंद्र बनने से ईश्वर की प्राप्ति संभव है।पुण्य से व्यक्ति को आनंद और समृद्धि मिलती है।पाप से आदमी के जीवन में कष्ट ही आते हैं।मानव का संपूर्ण जीवन नारकीय बन जाता है।
१८.सनातन धर्म में भगवान की प्रार्थना में पूरी स्वतंत्रता है। गुरु महान होते हैं। सबको सुमार्ग दिखानेवाले हैं। गुरु उसीको अपना शिष्य मानता था,जो विनम्र और प्रतिभाशाली होता है।
१९.सनातन धर्म वास्तव में हिंदु मजहब  नहीं है। वह अग जग के कल्याण के लिए पथ प्रदर्शक है। सर्वेश्वर एक ही है।  उनके कार्य करने के लिए ब्रह्मा,विष्णु,महेश्वर की सृष्टि की है।

                                                                                                                                                                                                                                                             


माता बरसा दो अपनी कृपा।

 जानता हूँ, भाग्य रेखा,

सिरो रेखा लिखकर ही

 धरती पर मेरा जन्म दिया है।

कर्मफल, पूजा फल,

पूर्वजों के

पुण्य पाप बल 

भोगना ही 

सर्वेश्वर के कानून नियम।

 इसमें से कोई भी छूटता माँ।

ये पाप हमने जान -बूझकर 

या

 अनजान में या

 विवशता के कारण,

नाते रिश्तों के कारण,

मित्र , लंगोटी यारों के कारण,

शासकों के कारण,

ऊपर अधिकारियों के कारण,

लोभ वश या ईर्ष्या वश या

गलतफहमी से या अहंकार से,

पूर्व जन्म के असर के 

जो भी हो 

माफ़ करना,

माता का गुण।

 पाप या पुण्य

विधि की विडंबना 

तेरे ही के कारण।

तूने माया मोह की सृष्टियाँ की है।

मानव को ज्ञान दिया है,

 बुद्धि दी है पर

माता यह माया महा ठगनी,

तेरी सूक्ष्म लीला,

मानव को संताप देना।

अमीर के यहाँ ,

असाध्य रोगी संतान।

दीर्घ रोगी,लंबी आयु।।

अति चतुर अति बुद्धिमान

 अल्पायु में  स्वर्ग सिधारना,

अड़चनें भरी जिंदगी,

माँ तेरा खेल अद्भुत।

बिल्ली ने चूहा पकड़ी,

छिपकली ने कीड़ा पकड़ा,

बाघ ने हिरण को दबोचा,

इन से दुखी मानव,

अपनी भूख मिटाने 

कसाई की दूकान गया,

 मधुशाला गया, पियक्कड़ बना,

सुधरा नहीं क्यों?

यह तो किसका दोष?

माँ, तेरी लीला विचित्र।

बदबू पानी में भी जीव,

पंक पानी में पंकज।

माँ,तेरी लीला विचित्र।

तू अपनी लीला बदलो,

सबको सद्बुद्धि देना।

कांटा चुभता है,

काँटे का दोष नहीं,

लुटेरा लूटता है,

लुटेरा का दोष नहीं,

सबहिं नचावत राम गोसाईं तो

 ऐसी बुद्धि तेरी देन।

 अपनी सृष्टि की लीला बदलो।

 सबको देना सद्गुण, सद्बुद्धि।।

सब  पर बरसा दो अपनी कृपा।

 सब पर बरसा दो अपनी कृपा,

जिससे पापियों‌ का  जन्म ही न हो।—मेरी प्रार्थना-एस. अनंतकृष्णन.
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संदर्भ ग्रंथ–
सनातनधर्मम्—Tamil publshed by Thompsion and co.Minerva press year 1907
2. Sanatana dharma Central hindu college,Benaras year1916.
3.Bhagavad geeta
4.manusmrity
5.you tube 6.google wikipedia 7,speech by su.ki.sivam,
आचार्य प्रशांत शर्मा,youtube प्रवचन
6.the science behind sanatan Dharma Sadguru
7.sanatana dhrma parichay discourse स्वामी शारदानंदा
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