Sunday, September 17, 2023

खुशी

 परिंदा खुशी।

पशु-पक्षी खुशी।

न उनको वर्तमान की चिंता।

न कपड़ों की चिंता।

न षडरस स्वाद की चिंता।

न परिवार की चिंता।

न अस्पताल की चिंता।

न नाते रिश्ते परिवार की चिंता।

न श्मशान खर्च की चिंता।

न आत्मशांति पुरोहित की चिंता।

न कर की चिंता।न आय की चिंता।

न नौकरी की चिंता, न पदोन्नति की चिंता।

शं

न पेशाब पट्टी संभोग के लिए

आठ जगह की चिंता।।

न पंखा, वातानुकूलित कमरे की चिंता।।

न मान मर्यादा की चिंता।

न जलन न लोभ न ईर्ष्या।।

न स्वार्थ ।न अहंकार।न ख्वाब।

मानव  में न चैन।

 स्वरचित स्वचिंतक स्वरचनाकार एस.अनंतकृष्णन, तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक

सनातन धर्म और मानवता

 

एस.अनंतकृष्णन,S. ANANDAKRISHNAN
शोध विषय –सनातन धर्म और मानवता
52. HR/369/52/17-072023
धर्म -सनातन धर्म और मानवता

धर्म क्या है ?
सनातन क्या है ?
मानवता क्या है ?




शोध विषय –सनातन धर्म और मानवता
धर्म है :-
अग जग का कल्याण करना।
धर्म –
१.ईश्वरीय धर्म,
२.मानव धर्म  ।
1.ईश्वरीय धर्म– 
अग जग की सारी सृष्टियों में सार्वजनिक कल्याण के लिए पंचतत्व ही ईश्वरीय तटस्थ तथ्य है । सब के हित और अहित में निष्पक्षता पंचतत्वों में ही है,अन्य विषयों में नहीं है ।
यही प्राकृतिक धर्म है । इन पंचतत्वों के कारण जो हित कार्य होते हैं,वे केवल मनुष्य के लिए नहीं ,बल्कि सब के लिए ।
सब भूलोक केजड,चेतन पशु-पक्षी,पेड-पौधे,जलाशय,पर्वत  सब के लिए ।
यह भूलोक नश्वर है। भूलोक को मृत्यु लोक भी कहते हैं ।
पंचतत्व परिशुदध  रहते हैं तो अशाश्वत संसार में सुख, समृद्धि,संतोष,शांति आदि  रहते हैं ।पंचतत्व कुपित और प्रदूषित होंगे तो नदी-नाले जलाशय सूख जाते हैं । जड-चेतन वस्तुओं में अशांति बिखेर जाती है। हवा जो प्राण दात्री है,वही प्रचंड तेज़ होने पर बडे बडे वृक्ष गिर जाते हैं। पहाड से चट्टानें गिरती हैं । जंगली नदियों के बाढ़ ,समुद्र की तेज़ लहरें चट्टानों को तोड देते हैं । बडे-बडे नगरों को डुबो देता है ।ज्वार-भाटा  के कारण कई सभ्यताएँ कालकवलित हो गई हैं ।
भूकंप,ज्वाला मुखी,आकाश के बिजली वज्रघात अति विनाशक तत्व हैं. यही ईश्वरीय नियमित शाश्वत धर्म है
मानव धर्म —
मानव धर्म है मानवता । मानवता न तो मानव  आदमखोर -पशु ही है। मानव का कोई मूल्य नहीं है । मानवता ही मानव-धर्म होता है ।
मानवता—मानवता सहज नहीं प्राप्त नहीं होती। सभ्यता और संस्कृतियों के विकास के कारण मानवता का विकास होता है।
आज भी घने जंगलों में असभ्य आदीवासी पशु -सा जीवन बिता रहे हैं ।
    मानव में ही ज्ञान-चक्षु होते हैं ।वे कुछ लोगों को स्वतः खुल जाते हैं ।कुछ लोगों को सत्संग के कारण खुल जाते हैं । कुछ लोगों को गुरु कृपा से,ईश्वरीय अनुग्रह से खुल जाते हैं ।कुछ लोगों को अभ्यास,अनुभव और सामाजिक व्यवहार से स्वतः खुल जाते हैं ।
ज्ञान चक्षु के खुलने में सत्संगति का अधिक महत्व है।अनपढ कबीर
ज्ञानमार्ग के जनक होते हैं ।उनकी जीवनी से दो बातें स्पष्ट होती हैं ।
पहली बात है गुरु भक्ति ,गुरु उपदेश।
कट्टर जातिवाद का जमाना था। गुरु मिलना और गुरु की आशीषें मिलना दुर्लभ था।कबीर का जन्म विधवा ब्राह्मणी के कोख से हुआ। मुगल दंपति नीमा-नीरु द्वारा पालन पोषण हुआ।  उनके भाग्य के निर्माण में ऐसा ज्ञान चक्षु खुला कि  गुरु के उपदेश प्राप्त करने
मुँह अंधेरे में जाग उठे। गुरु नदी में नहाने तभी आते थे। कबीर घाट की सीढी में लेट गये । गुरु नहाने आये तो उनके चरण कमल सीढी पर लेेटे कबीर पर पडे । तब गुरु ने राम,राम कहा।गुरु के चरण कमल का स्पर्श और उपदेश ।वे अपने को सौभाग्यशाली मान गये। राम,राम उनके लिए सीमित पंथ का नाम नहीं था ।अति व्यापक था। निराकर परबह्म स्वरूप था।
उन्होंने कहा -
चारी भुजा के चरण में,भूले परे सब संत।
  कबीरा पूजै तासू को जिनकी पुजाएँ अनंत।
यह ज्ञान उनको किसी गुरुकुल के अध्ययन से नहीं मिला ।
विश्वविद्यलय के प्राध्यापक से न मिला ।
बडे बडे ग्रंथों के रात-दिन के अभ्यास से नहीं मिला ।
सत्संग से मिला।हिंदू-मुसलिम की दुश्मनी के तत्काल वातावरण में
दोनों मजहबियों के लोग उन्हें गुरु माना। यही मानव धर्म और मानवता है ।मानवता मनुष्य-मनुष्य में एकता,समानता लाती है।सत्य,अहिंसा,प्रेम,दया-करुणा,त्याग,परोपकार,जन-कल्याण की सेवा,निस्वार्थता,तटस्थता.ईमानदारी,परायों के लिए जीना-मरना,
अग जग में मित्रता लाना,अग जग कल्याण का नारा -जय जगत,वसुधैव कुटुंबकम्,सर्वे जनाः सुखिनो भवंतु।
    यही है सनातन धर्म और मानवता वाद । इसका प्रमाण है वेद-पुराण। स्थल वृक्ष,वनमहोत्सव,नदी में स्नान करने के नियम,योगाभ्यास,प्राणायाम,आयुर्वेद आदि।
सनातन धर्म —---
सनातन शब्द का अर्थ सब के सार्वजनिक कल्य़ाण के शाश्वत नियम ,सिद्धांत,मार्गदर्शन । मानव का वर्गीकरण बुद्धि कौशल और पेशे के आधार पर । इसे वर्णाश्रम धर्म कहते हैं ।
आजकल जातीय भेद भाव दूर करने के लिए सबको समान अवसर दिया गया है । जो जैसा चाहे ,वैसा पेशा कर सकता है ।उदाहरण के लिए  तमिलनाडू में सब  बिना जाति भेद के मंदिर का अर्चक बन सकते हैं ।तब वह ब्राह्मण  बन जाता है ।एक ब्राह्मण नाई की दूकान चलाएगा तो नाई। ये सब पेशे के अनुकूल आदरणीय ही रहा । जब ऐसी व्यवस्था थी, तब भारत ज्ञान में,कला कौशल में,वास्तुकला में,संगीत कला में,नाट्य कला में,साहित्य में ज्ञान भूमि रही। जगत गुरु  भारत रहा। ऋषि-मुनि,साधु-संत त्रिकाल ज्ञानी रहे ।अद्भुत मंदिर बनावट की कला बराबर अग जग में कहीं नहीं ।छेनी से बनी पाषाण कला की मूर्तियाँ ईश्वरीय चमत्कार है ।अतः सनातन धर्म आध्यात्मिक मार्गदर्शक है । कदम कदम पर मनुष्येतर शक्ति की याद दिलाता रहता है।मानव में एक ही प्रकार की क्षमता नहीं है मानव मानव में रूप,रंग,आकार और बुद्धि कौशलों में ,खून के वर्ग में
अंतर होते हैं ।  यह तो कर्म फल के अनुसार होता है।मानव के
सुख -दुख तो सोच-विचार-कर्म के आधार पर होता है ।
धर्म तो अपनी अपनी उम्र के अनुसार पालन करना है ।
शैशव काल में बच्चा भोलाभाला है । चिकनी मिट्टी को कुम्हार जैसा रूप देता है,वैसा बन जाता है ।वह मिट्टी में भगवान भी बना सकता है,बंदर भी।गुलाब का फूल भी बना सकता है।जहरीले काँटेदार पौधे भी बना सकता है । चिकनी मिट्टी के समान  शिशु को अच्छे संस्कार में डालने का धर्म अभिभावकों का है । लडकपन का धर्म शिक्षा पर स्वास्थ्य पर  ध्यान देना है ।छात्र धर्म गुरु का सम्मान,अच्छीचालचलन,अनुशासन,दीन-दुखियों की सेवा,सार्वजनिक सफाई आदि ।  मानव धर्म आवश्यकता के अनुसार
आम धर्म हो जाता है। जीना,जीने देना मानवधर्म है ।
    भगवान तो एक है ।पर  विद्वानों ने अनेक रूप देकर मजहब के नाम से समझाया है । मजहब या मत मतांतर के सिदधांत तो मूल में एक है । सत्य बोलना,चोरी डकैति न करना,मानवता अर्थात दूसरों के लिए जीना,दान -धर्म करना, आपस में प्रेम भाव निभाना,तटस्थ जीवन बिताना,अहित न करना,विश्व शांति कायम रखना,आदि l
विश्व गुरु भारत–
विश्व में आदी सभ्यता का केंद्र भारत है। पाषाण युग के पशु-तुल्य जीवन से धीरे-धीरे बुद्धिबल से आधुनिक सुख सुविधा का विकास कर रहा है।
पाश्चात्य देश और भारत की तु्ल्ना में भारत ही सर्वसंपन्न देश है।पाश्चात्य देशों का जलवायु मानव को सुस्त बना रहा है ।वहाँ प्राकृतिक वातावरण में चार ही महीना भारतीयों के जैसे चलने फिरने का है.फिर ठंड पड जाता है ।बर्फीले प्रदेश में भारत जैसे खाद्य-पदार्थ नहीं मिलते।वहाँ मानव को प्रकृति के कोप से बचने संघर्ष करना पडता है । ईश्वर ने पाश्चात्य देशों को वैज्ञानिक साधनों के आविष्कार के लिए सृजन किया है ।
भारत में खाद्य पदार्थों की कमी नहीं है ।मानव को जब खाने के लिए बहुत मिल जाता है,तब अन्य बातों की चिंता नहीं करता।पेट भर जाता है,तो मेहनत में मन नहीं लगता।अतः ईश्वर की देन से संतुष्ट मानव त्यागमय जीवन बिताने लगा। भारत में साधु-संत और भिखारियों की संख्या अधिक हैं ।उनका मुख्य कार्य मानव में मानवता लाना ही रहा।वे त्यागमय जीवन ,सादा जीबन,उच्च विचार के जीवन बिताने लगे।अग-जग को मार्ग दिखानेवाले,तपोमय जीवन बितानेवाले ऋषि-मुनि लौकिकता छोडकर दूर जंगलों में ,पहाड की गुफाओं में ,नदियों के तीर पर अलौकिक जीवन बिताने लगे। ईश्वरीय चिंतन और लोक कल्याण में लगा रहते थे ।
वे मानव को मानव बनाने के लिए तप करते थे ।
  विद्या प्राप्त करना विनयशील रहना था ।विनयशीलता ही विद्या देती है ।चरित्र सही नहीं तो मानव पशु ही है ।पशुत्व के गुण काम,क्रोध,मद, लोभ के आने पर मनुष्य महा मूर्ख बन जाता है।राम भक्त कवि तुलसी का एक दोहा है–
काम,क्रोध,मद,लोभ,जब मन में लगै खान ।
तब पंडित मूर्खौ एक समान,तुलसी कहत विवेक।.
तुलसीदास जब तक अविवेकी थे,तब तक पत्नी से चिपक रहते थे।मानव में संयम की अत्यंत जरूरत है। मानव को जितेंद्र होना चाहिए ।मानव में अच्छी चालचलन चाहिए ।मानव में अनुशासन चाहिए ।हमारे वेद ग्रंथों में,पौराणिक दिव्य प्रेरक कहानियों में त्यागमय जीवन की शिक्षा ही मिलती है ।उपदेशों के मूल में प्रेम,परोपकार,दान-धर्म,भक्ति श्रद्धा ही प्रधान रहे ।जगत् मिथ्या,ब्रह्मम सत्यम । संत कवि तिरुवल्लुवर ने लिखा है,धर्म प्रेमहीन लोगों को सताएगा ।हड्डी हीन कीटों को धूप जैसे झुलसाती है,वैसे ही धर्म देव प्रेम हीन लोगों को सताएगा।
सनातन धर्म के आरोग्य वेद में योग,प्राणायाम,देहाभ्यास,रोग के कारण-निवारण आदि बातें बतायी गयी हैं।
हर एक अंग को स्वस्थ रखने के नियम बताये गये हैं ।
  दाँत साफ करने के नियम में जिह्वा निर्लेखन करने का ,मुँह खुल्ला करने का नियम है । स्नान करने का भी नियम है ।तेल  स्नान पुरुषों को कौन से  दिन में ,स्त्रियों  को कौन से दिन में,तेल स्नान के लिए तेल स्नान करने की रीतियों को भी उल्लेख हुआ है ।
सनातन धर्म बात बात में आचार व्यवहार पर ही जोर देता है ।
ब्रह्म मुहूर्त में उठना,शौचादि नियमानुसार करना,ठंडे पानी में स्नान करना,ईश्वर का ध्यान करना,विद्याध्ययन करना,निष्काम सेवा करना,कर्तव्य निभाना आदि ।
ब्रह्म मुहूर्त में उठने के  लाभ –
वेद-शास्त्रों में सूर्योदय के पहले के दृश्य का उल्लेख मिलता है ।
अथर्वण वेद –१०-७-३१—
नाम नामना जोहवीति पुरा सूर्यास्त पुरषोसः
यदजःप्रथममम
जीवन को सुचारू रूप से चलाने पाँच सिद्धांतों का पालन अनिवार्य बताया गया है ।सत्य ,अहिंसा ,अस्तेय,ब्रह्मचर्य,अपरिग्रह आदि का पालन करना अति आवश्यक है ।
अस्तेयप्रतिष्ठायांसर्वरत्नोपस्थानम् ।
अस्तेय का मतलब है चोरी नहीं करना ।चोरी केवल सोना,चांदी,हीरा जवाहरात ही नहीं,दिल की चोरी,विचारों की चोरी,अन्यों की पत्नी से प्यार करना,सुंदर महिलाओं को अपनाने की कल्पना आदि भी चोरी की सूची में आ जाते हैं ।दूसरों  के पास जो है,वह हमारे पास नहीं तो
पछताना भी चोरी है। इसके फल स्वरूप का दंड  ईर्ष्या मन में जम जाती है । आजीवन  ईर्ष्या क कारण मानव दुखी रहता है ।चोरी करने की इच्छा न तो मानव में दुर्गुण के लिए  स्थान ही नहीं है।
भगवान के अनुग्रह के लिए हमें अपने मिले पेशे को निष्काम भाव से मन लगाकर करना चाहिए ।यही गीतोपदेश है ।
हमें अपने वातावरण को प्रदूषित करना न चाहिए।आजकल जल,थल,वायु प्रदूषण आदि से  बढकर विचारों के प्रदूषण में ही बडा खतरा है । मानव में सद्वृततियाँ या दुष्वृत्तियाँ श्रवण द्वारा या संगति के फल द्वारा बस जाती है ।मुनि मंडण मिश्र के आश्रम के तोते वेद मंत्रों को बोलते थे। सद्गुरु कबीर सत्संग के कारण ही वाणी के सरवाधिकारी बने ।पशु तुल्य मानव को ईश्वर तुल्य  बनाने की शक्ति  वाणी में हैं ।डाकू रत्नाकर नारद के सदुपदेश के कारण आदी कवि वाल्मकी बना । कामुक तुलसीदास  पत्नी के क्रोध भरे शब्दों को सुनकर पत्नी दासता तजकर राम दास बने । हिंदी साहित्याकाश के चंद्र बने । आजकल बाह्याडंबर के कारण फ़जूलखर्च करते हैं।भगवान की मूर्ति लड्डू से बनवाकर फिर तोड तोडकर प्रसाद समान बाँटते हैं ।इमली भात में भी मूर्ति बनाते हैं । ये सब भक्ति का बाह्याडंबर सही नहीं है!

आजकल विचारों का प्रदूषण युवकों में लौकिक चाहें बढा रहा है। अंग्रेज़ी शिक्षा माध्यम पाश्चात्य मोह बढा रहा है ।जनसंपर्क प्रसाधन में अश्लील चित्र ,फ़िल्मी गीत,लघु चित्रपट,संवाद में अश्लीलता युवकों को बिगाड रहे हैं । खान-पान,पोशाकें,आचार -विचार,अंग्रेज़ी मिश्रित संवाद  विचारों को प्रदूषित कर रहा है ।

  ब्रह्मांड पंच तत्वों से बना है ।उन तत्वों को प्रदूषित रहित रखना ही सुखी जीवन का आधार है ।हमारे पुराणों में वन महोत्सव ,वन संरक्षण का भी व्यवस्था बतायी गई है ।मंदिरों में स्थल वृक्ष होते हैं।पीपल पेड के नीचे  गणेश की मूर्ति प्रतिष्ठित करते हैं । पीपल और नीम के पेडों की शादी रचाई जाती है।वातावरण को प्रदूषण से बचाने के लिए यज्ञ-हवन करते हैं ।यज्ञ की धुएँ प्रदूषण रहित  वातावरण को रखती हैं।दिव्य स्थलों में स्थल वृक्ष लगाते हैं। ज्योतिष शास्त्र में हर बारह राशी के लिए एक एक पेड लगाना सुख प्रद और आनंदप्रद हैं । हर राशी के व्यक्ति अपने अपने राशी के पेड लगाकर प्रार्थना करें तो उनको मनोवांछित फल मिलेगा।

हमारे पूर्वज अमानुष्य शक्ति पर भरोसा रखते थे।हर एक बात को वैज्ञानिक न मानकर ईश्वरीय देन ही मानते हैं।ईश्वरीय दंड,ईश्वरीय परीक्षा ईश्वरीय सुख,ईश्वरीय दुख ,ईश्वरीय पद और अधिकार ही मानते हैं ।
नाखून में रोगाणु रहते हैं ।इसलिए नाखून काटने से बीमारी होगी।यों न सिखाकर यही कहते है कि नाखून काटने पर ईश्वर नाराज़ हो जाएँगेे ।
  ईश्वरीय चमत्कार को नास्तिक और वैज्ञानिक न मानते ।लोग प्रत्यक्ष प्रमाण और दृश्य  को मानने लगे ।जब वैज्ञानिक महत्व बढा,तब मानव -मानव में गलतफहमी होने लगी।वैज्ञानिक सुख-सुविधा के साधनों की प्रगति के कारण ईश्वरीय शक्ति को कम मानने लगे। उन्होंने यही सोचा कि  संसार में  हर बात ईश्वरीय संकेत से होती है ।यह नहीं सोचा कि सबहिं नचावत राम गोसाई ।
  वह तर्क करने लगा कि पौराणिक कथाओं और ऐतिहासिक कथाओं में आसुरी शक्ति बडी है ।उनमें देवों को भी जेल में डालने की  शक्ति थी ।
एक बार असुरों ने देवों को अधिक तंग किया ।देवों को असुरों को हराना था।पता चला कि असुरों को हराने की शक्ति दधिची नामक तपस्वी की रीढ की हड्डी में है ।देवों की माँग पर दधिची ने अपनी रीढ की हड्डी दे दी।सनातन धर्म की सीख है कि मानव में ईश्वर बस जाता है जब उनका आचरण सद्व्यवहार से भरा हो ।यह  मानव मूल्य सनातन धर्म की विशेषता है ।
मानव की विवेक शीलता ने धार्मिक अंधविश्वास को भगाया।पर जन्म और मरण के रहस्य की सूक्ष्मता ने मानव को अमानुष्य शक्ति पर उम्मीद रखने को विवश कर दिया ।
पंच तत्वों के अनुकूल -प्रतिकूल क्रियाकलाप के कारण मानव प्रकृति की आराधना करने लगा।सूर्य,चंद्र जैसे नव ग्रहों की गति के कारण अनुकूल-विपरीत परिस्थितियाँ,प्राकृतिक आपत्तियाँ भूकंप,समुद्र का प्रकोप ,आँधी-तूफान,कीटाणुओं  के कारण होनेवाले असाध्य रोग मृत्यु ,दो अति सूक्ष्म अदृश्य बिंदुओं में पशु-पक्षी,वनस्पतियों में अंग,परत्यंग,उपांग,डाल ,शाखाएँ,
विभिन्न गुण-दोष के जड-चेतन सृजनें मानव बुद्धि के पार एक अज्ञात शक्ति ,एक सूत्रधारी के अस्तित्व का बोध होने लगा ।वटवृक्ष के बीज,वट वृक्ष के आकार का चमत्कार भगवान को मानने को विवश कर दिया ।बडे-बडे हाथी,हठीले घोडे,खूँख्वार शेर,बाघ,विषैला नाग सबको अपने इशारे पर नचानेवाले मनुष्य को अदृश्य कीटाणु,मच्छर,  असाध्य संक्रामक  रोग डराने लगे ।तब  दिव्य आध्यात्मिक को झुककर दंडवत  करना पडा ।
मानव में मनुष्येतर अमानुष्य शक्ति की खोज की जिज्ञासाएँ बढती रही। जन्म,शैशव,बचपन,लडकपन,जवानी,बुढापा,रोग,मृत्यु आदि जीवन चक्र की सूक्ष्मता जानने के प्रयत्न में राजकमार सिद्धार्थ  अपना राजषी सुखी जीवन तजकर जंगल में तपस्या करने गया तो
उनको ज्ञान ही मिला । बुद्धि मिली।बुदध बना।अहिंसा,शांति,मानव कल्याण की निस्वार्थ  सेवा,चिकित्सा दान- धर्म का प्रचार करने लगा।करतल भिक्षा,तरुतलवसा का जीवन सनातन धर्म की सीख है।
महावीर तो अपने वस्त्र तक त्याग दिया । सनातन धर्म में भी ये सिद्धंत है ही।
एक छोटा -सा बीज बहुत बडा वट वृक्ष बन जाता है।उसकी जड शाखाएँ फैलकर तीन -चार एकड़ का विशाल वृक्ष बन जाता है ।एक बडे वट वृक्ष के नीचे एक बडी सेना ठहर सकती हैं।विविध किस्म के पक्षी घोंसले बनाकर रहते हैं ।मानव अपने वैज्ञानिक ज्ञान द्वारा इतना बडा वटवृक्ष उगा नहीं सकता ।
अंडज,पिंडज,स्वेतज की सृष्टियौं में वेदों के अनुसार चौरसी लाख सृष्टियाँ  हैं ।पिंडज की सृष्टियाँ अंडज में असंभव हो जाती हैं।अंडज-पिंडज  से भिन्न स्वेतज,(पसीने में उ्पन्न होेनेवाले),चावल,दाल,इमली में अपने आप उत्पन्न होनेवाले कीट ।तितली का विकास क्रम अद्भुत । कीडे के रूप में पेड-पौधों के पत्ते-पत्तियाँ खाकर बिगडती हैं।तितली बनकर फूल-फूल पर बैठकर मकरंद मिलन के लिए मदद करती है।यह कितना बडा देव रहस्य है ।
पत्तों के नीचे अंडे देकर तितलियाँ निश्चिंत उड जाती हैं।ये अंडे मोटे कीडे बनते हैं ।रूप तो काले घृणित है।बडा होने पर इन की सुरक्षा के लिए इनके चारों ओर कडा खोल बन जाता है।(अंडे,केटर पिल्लर,प्यपा,तितली) अपने कीडे की अवस्था में पेड-पौधे के पत्तों को खाने से पेड नष्ट होते हैं ।वही कीडा तितली का रूप धारण करके फूल-फूल का रस चूसती है और मकरंद लेकर अन्य फूलों में मकरंद मिलाकर बीज बनने की मदद करते हैं।कहा जाता है कि तितलियाँ १३००० किस्म के होते हैं । रेशमी कीडे बहुमूल्य रेशम देते हैं।
ऊँचे-ऊँचे पहाड,जीव नदियाँ,जंगली नदियाँ,समुद्र तट पर पेय जल,समुद्र का खारा पानी ये सब मानव के लिए एक पहलू है । ऊँचे-ऊँचे पेड,उनके विविध आकार के,विविध स्वाद के विविध रंगों के ,गुणों के फूल,पत्ते,फल, नाना प्रकार के रंग के ,विविध गुणों के भिन्न-भिन्न खुशबू के फूल,बद्बू के फूल ,सुगंध रहित के फूल आदि सर्वेश्वर के विचारों को शाश्वत बना देता है।
ईश्वर  की सृष्टियों को  वर्तमान में सुरक्षित रखना मानव धर्म और कर्तव्य है । नगरीकरण के कारण जंगल,झील नदारद हो गये हैं ।कई जंगली जानवर भी अब देखने को नहीं मिलते परिणाम स्वरूप पृथ्वी प्रकृति के विपरीत बदल रही है।जलवायु में परिवर्तन,गर्मी बढना,सुनामी,भूकंप,अनावृष्टि,अति वृष्टि आदि पृथ्वी वासियों को तंग देने लगते है।बीमारियाँ प्राण लेवा होती हैं।पाश्चात्य प्रभाव के कारण संयम कम हो रहा है ।
भारतीय सम्मिलित परिवार में आत्मनियंत्रण,आत्मत्याग,सहायता,सहनशीलता,सादा जीवन उच्च विचार आदि की प्रधानता है ।संयमित रहने के लिए रिश्तों की व्यवस्था अगजग मेें सिवा भारत के और कहीं नहीं है।नाना,नानी,दादा-दादी,माता-पिता,भाई-बहन,बुआ,बुआइन,सास-ससुर,साला,साली,देवर-देवरानी,ननद-ननदोई,मामा-मामी,पति-पत्नी,चाचा-चाची,जेठ-जेठानी,बहु,पुत्र,पुत्री,भतीजा,भतीजी,भांजा-भाँजी,नाती-नातिन,मौसा,मौसी,संबंधी,ताऊ,साडू,भाभी,पोता,पोती,नाती-नातिदत्तक पुत्र पुत्री,सौतेला भाई आदि। इन रिश्तों की व्यवसथा परिवार को मर्यादित रखतीहै ।
पाश्चात्य व्यवस्था तो मर्यादा से परे होती है।वहाँ वैवाहिक व्यवस्था अव्यवस्था दिल से संबंधित नहीं है। चंचल मनवाले आसानी से तलाक देते हैं और आपस में यह बोलने लग जाते हैं कि तेरा बेटा,मेरा बेटा  हमारे बेटे के साथ खेल रहे हैं ।भारतीय रिश्तों का प्रबंध स्थाई होता है ।वहाँ का रिश्ता प्रबंध माता-पिता,भाई-बहन,अंकिल-आंटी तकहीसीमित हैं ।
हमारी सम्मिलित परिवार की सहयोग सहकारिता देख अवाक् रह जाते हैं ।

 पियक्कड भी बढ रहे हैं । मानसिक अनियंत्रण  होने से  वैवाहिक जीवन में अतृप्त हो जाता है भारतीय भाषाऔं में तलाक शब्द नहीं है ।विदेशी शासन के बाद विदेशी भाषा के कारण तलाक बढ रहा है ।
मानवीय मन के कुविचारों में नियंत्रण लाने की एक मात्र शक्ति ईश्वरीय ध्यान और आध्यात्मिकता ही है ।हम वेदों का अध्ययन भूलकर बडी भूल कर रहे हैं । वेदों में मानव के स्वच्छ जीवन की नसिकतें हैं ।माता-पिता-गुरु ईश्वर है,यह सीख लुप्त हो रहा है ।आधुनिक स्नातक और स्नातकोत्तर का ध्यान नौकरी करने और धन कमाने में ही है।शिक्षा,इलाज,न्याय आदि धनियों को ही मिलते हैं ।तीनों के लिए धन प्रधान हो गया है।
शिक्षा में ब्रह्मचर्य की बात नहीं है ।बचपन में ही बुरे विचार आ जाते हैं।बच्चों के सामने माता पिता दूर रहते थे ।आधुनिक काल में माता-पिता बच्चों के सामने ही चूमते हैं ।चित्रपट बालकों के मन में कामुकता बढा रहे हैं ।प्रेमी-प्रेमिका की आंगिक चेष्टाएँ चित्रपट में दिखाते हैं ।शुक्ल पतन के कारण पुरुष कमजोर हो जाता है।परिणाम अवैध संबंध की खबरें समाचार पत्रों में आते हैं।पतिको छोडकर बच्चों को भागना,पत्नी को छोडकर पति को भागना,बलात्कार दैनिक ताज़ी खबरें बन गयी हैं ।कभी-कभी अपने बच्चे को भी हत्या करके कामांध बन जाते हैं ।कारण धार्मिक शिक्षा का अभाव और माया-शैतान का असर।तुलसीदास ने विवेक सहित कहा है-
काम,क्रोध,मद,लोभ,जब मन में लगै खान,पंडित मूर्खौ एक समान,तुलसी कहत विवेक।।
वेदों में ब्रह्मचर्य की अनिवार्यता बताई गई है ।मानव का मन ब्रह्म में सदा विचरण करना बरह्मचर्य है।मानव को अपनी इच्छाओं और अपने इंदरियों पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त करने का ज्ञान ब्रह्मचर्य में मिलता है ।वेदों के अनुसार ब्रह्मचर्य तीन प्रकार के हैं—-
१.शारीरिक ब्रह्मचर्य २.मानसिक ब्रह्मचर्य ३.वाचिक ब्रह्मचर्य
१.शारीरिक ब्रह्मचर्य  -आलिंगन,चुंबन,हाव-भव,उपस्थेंदरिय के संचालन में गुप्त स्थान में अलग रहना।
२.मानसिक बरह्मचर्य—वासना विषय का चिंतन,प्यर मिलन,संभोग आदि भावनाओं को बिलकुल त्याग कर देना।
३. वाचिक ब्रह्मचर्य–प्रेम की चर्चा,ऐशआरम की चर्चा,अशलील बातें करना,नग्न चित्र,इंटरनेट के ब्लू फ़िल्म,अश्लील किताबों की चर्चा आदि न करना वाचिक ब्रह्मचर्य की बातें हैं ।आधुनिक काल में सामाजिक माध्यम ,दीर्घ,लघु चित्र पट,जनसंपर्क साधन के नाच-गान,रिकार्ड डान्स जो मंदिरों के उत्सव और चुनाव प्रचार में होते होते हैं,वे सब ब्रह्मचर्य के  बाधक होते हैं ।
सनातन घर्म हर मानव जीवन को अनुशासित रखने ब्रह्ममुहूर्त से रात्री सोने तक  के नियम बता रहे हैं । वे केवल अग जग को अघ रहित बनाने के लिए हैं।मानव के सुखी-स्वस्थ जीवन के लिए हैं ।जय जगत,सर्वे जना सुखिनो भवंतु,वसुधैव कुटुंबकम् यही आदी काल के
सनातन धर्म की सीख है।भारतीय धर्म  संकुचित विचार धारा का नहीं है।मजहब मत-मतांतर,संप्रदाय संकीर्ण होते हैं । धर्म सार्वजनिक हित के लिए है ।मत या मजहब मानव मानव में घृणा पैदा करते हैं । धर्म विश्व मानव को एक बनाने के लिए विस्तृत सिद्धांत रखते हैं ।
हर सृष्टि का सम्मान ,सुरक्षा मानव धर्म है ।सनातन घर्म केवल पुण्य के पक्ष में है।पाप कर्म करने के लिए सोचना भी पाप मानता है ।वह बताता है कि पाप कर्म ज्ञात हो या अज्ञात दंडनीय  होते हैं ।मानव जीवन में चरित्र ही प्रधान होता है।चरित्रहीन मानव सिर ऊँचा करके चल -फिर नहीं सकता ।सनातन धर्म जगत गुरु है।भारत आदी सभ्यता का मूल होता है ।वह सारी दुनिया का मार्ग दर्शक है।आगे इन बातों पर विस्तार से सोच-विचार करेंगे तो मानव मानवता सीखकर संतोषप्रद,आनंदप्रद,शांतिप्रद हो जाएँगे ।
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३.अनुसंधान की आवश्यक्ता 


आधुनिक युग में ज्ञान का विस्फोट हो रहा है।हर बात के लिए सत्य प्रमाण की 

    जरूरत है ।सत्य की खोज के लिए अनुशीलन-विश्लेषण अनिवार्य है ।वही शोध ग्रंथ का आधार है । अतः सनातन धर्म के  सर्वे जनाः सुखिनो भवंतु ,
वसुधैव कुटुंबकम् अहिंसो परमो धर्मःअतिथिदेवोभव,
परोपकार,आत्मत्याग,सादाजीवन,उच्चविचार,दान-धर्म,सहानुभूति,अनुशासन का प्रमाणित करने खोज करना आवश्यक है ।आधुनिक पीढी को ,जो पाश्चात्यता अपनाकर अंग्रेज़ी सीखकर  चरित्र पतन की ओर जा रहेे हैं। जिस देश की भाषाओंं मेंं तलाक शब्द ही नहीं,वहाँं तलाक मुवकद्दमा बढ रहे हैंं ।मानव में मानवता जगाकर चरित्र निर्माण के लिए
सनातन धर्म और मानवता  की खोज करके भावी पीढी में जागृति लाने शोध ग्रंथ की आवश्यक्ता है।
सभी मजहबी के प्रवर्तक एक ही प्रकार के ही चिंतक और सैद्धांतिक  होने पर भी बाह्याडंबर में अंतर होते हैं।इस बाह्य वेश -भूषा और बाह्याडंबर के कारण विविधता आ जाती है ।तब मानव में भेद-भाव आ जाते हैं।अपने को अलग व्यक्तित्व का मानकर एक मजहबी दूसरे मजहबी,जाति- संप्रदाय से नफरत की नजर से देखने लगे हैं ।
यद्यपि सभी मजहबियों का समर्थन एक ही प्रकार का है ,भाई चारा निभाना,पुण्य काम ही करना,दान -धर्म करना, सत्य,अहिंसा,शांति के मार्ग अपनाना,सबको कल्याण करना, फिर भी मजहबियों में एक दूसरे के प्रति द्वेष भाव और विरोध भाव ही पनप रहे हैं ।
तमाम मजहबियों के आदी गुरु जनक सनातन धर्म है,मत -मजहब-जाति-संप्रदाय नहीं है।
  अतः सनातन धर्म और मानवता की खोज आवश्यक है ।
सनातन धर्म अग जग के कल्याण के लिए नारा लगाता है—
१.जय जगत।२.सर्वे जना: सुखिनो भवंतु ३.वसुधैव कुटुंबकम् ४,मानव सेवा महादेव की सेवा
ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः ।

सर्वे सन्तु निरामयाः ।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु ।

मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत् ॥

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्त

सबको सुखी रहना चाहिए ।सबको रोग रहित जीना चाहिए।सभी का जीवन आनंद से परिपूर्ण रहना चाहिए । 

हिन्दी भावार्थ:
सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी का जीवन मंगलमय बनें और कोई भी दुःख का भागी न बने।

सनातन धर्म  को सही तरह से समझने में सब भूल करते हैं ।संप्रदाय के संकुचित अर्थ में सनातन धर्म को समझकर समूल नष्ट करने की बात करना उनकी अज्ञानता ही है।  
सनातन धर्म का मतलब है शाश्वत धर्म है । सत्य बोलना शाश्वत धर्म है ।अहिंसा परमो धर्म है।
आचरः परमो धर्म है । स्थाई धर्म ही सनातन धर्म है ।आग का जलन स्थाई धर्म है ।वैसे ही सनातन धर्म  स्थाई गुणवाला धर्म है। चोर अपनी चोरी वस्तु को खुल्लमखुल्ला दिखा नहीं सकता।अमुक दल का सांसद या विधयक  यह भाषण देकर वोट नहीं माँग नहीं सकता कि मैं भ्रष्टाचार करूँगा । ठेकेदार से रिश्वत लेकर कच्ची सडक बनवाऊँगा । सत्तर साल के बूढे को बीस साल का जवान बनाऊँगा ।कोई न मरेगा ।सब को ऐसी बूटी दूँगा ,जिससे कोई न मरेगा।  क्या यह संभव है ।ये सब नश्वर दुनिया की बातें हैं ।
                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                     

ॐ मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः। भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते।।भगवद गीता अध्याय17.16।।
मानसिक शांति,मृदुता,चुप रहना,आत्म नियंत्रण,पवित्र दिल आदि मानसिक सादगी संयम होते हैं ।


नातन धर्म का अर्थ —

सन +आतन+धर्म –
सन का मतलब है प्राचीन लंबे समय ,आतन का मतलब है–व्यापित,धरम का मतलब है सबको बंधन में जोडना ,भगवान का ,धर्म का चिंतन करना ।सब में सद्भावना लाना,सदाचार सिखाना,चरित्रगठन आदि ।समाज के हर मनुष्य का,हर पेशेवर का अपना अपना धर्म है ।स्त्रियों का धर्म,पुरुषों का धर्म,पति का धर्म,पत्नी का धर्म,राज धर्म,शिक्षक धर्म आदि ।हर व्यक्ति,हर पेशेवर अपने कर्म में ही मगन रहना चाहिए ।अपने कर्म को सुचारू रूप से जो करते हैं,उनका जीवन  सार्थक होगा ही।

मनुस्मृति में “आचारःपरमो धर्मः।।
एक धर्म ही जन्मजन्मांतर का साथी है।हमारा कर्म फल मरने के बाद भी हमें पुनर्जन्म में सुखी या दुखी मानव के रूप में सृष्टि करने ईश्वर का नियम है।
मानव के सद्गुणों का भी मनु धर्म में जिक्र किया गया है:---
धृतिः क्षमा दमोsतेयं शौचमिंदरियनिग्रहः  धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ।.
सहनशीलता,धैर्य, क्षमा,सामर्थ्य,संयम, अक्ल,विद्या,सत्य,क्रोध न करना  आदि धर्म के दस लक्ष्ण हैं ।ये गुण सर्वमान्य हैं।
माया भरे जगत में धर्म का पालन अति दुर्लभ है ।पुराणों के प्रसंग में मुनि विभांडक ने अपने पुत्र  विभांडक को ऐसा पाला कि उसको स्त्रियों के अस्तित्व का पता न लगे। पर यह साध्य न रहा । ब्रह्मचर्य धर्म के बारे में पहले ही चर्चा की है कि ब्रह्मचर्य का पालन तन,मन,वचन से करना चाहिए ।
आधुनिक काल में वैज्ञानिक आविष्कारों के कारण मनुष्य अपनी शरीरिर  शक्ति कम हो रही है । कम्प्यूटर,कालकुलेटर,मोबाइल आदि मानव को आलसी बना रहे हैं ।मानव की स्मरण शक्ति कम हो रही है। इनके अभाव में वह कोई भी काम नहीं कर सकता।धर्म मार्ग आधुनिक काल में अधिक संकीर्ण है ।
उपनिषद में -”क्षुरस्य धारा  निशिता दुरत्य–धर्म मार्ग तलवार की तेज धार पर चलना है ।सत्य बोलो ,फिर कटु सत्य मत बोलो।प्रिय सत्य बोलो ,अप्रिय सत्य मत बोलो । यही सनातन धर्म है।
जिजिविषेच्छतम्  समाः  यजुर्वेद ।इस पर इतना पीटो कि वह न टूटे और मज़बूत हो जाए ।

सनातन धर्म में मानव के चार आश्रम  की व्यवस्था हैं । १.ब्रह्मचर्य २.गृहस्थ ३.वानप्र्स्थ ४. सन्यास.
मनुस्मृति के अनुसार गृहस्थाश्रम ही श्रेष्ठ है। क्योंकि बाकी तीन आश्रमों को रोटी,कपडा और मकान  गृहस्थाश्रम के द्वारा ही मिलता है । गृहस्थ देवयज्ञ के द्वारा सारे जगत का परवरिश करता है।
मानवता का सुख संतोष से ही संभव है ।संतोष ही सुख का मूल है । तुलसीदास कहते हैं–
गो धन,गज धन,बाजी धन,रतन धन खान।जब न आवै संतोष धन सब धन धूरी समान।.
सहज रूप में जो कुछ मिलता है,उससे संतुष्ट होना चाहिए । दूसरों की प्रगति देखकर ईर्ष्या होने से  मानव असंतोष हो जाता है ।लोभी हो जाएगा ,तो जिंदगी भर दुखी रहेगा ।

सनातन आत्मा है।मन को आत्मा की ओर लेना।आत्मा ही सनातन है।सनातन निराकार निर्गुण है।
आत्मा ही सत्य है ।सनातन में स्थिरता । आत्मा परिवर्तन नहीं है ।मन चंचल है।मन को स्थिर बनाना सनातन है । मन को दुख सेे मुक्त करना धर्म है । मनको संतोष ,शांति की ओर ले जाना सनातन धर्म है।आत्मा का जन्म नहीं लेता । जन्म लेने पर दूसरा रूप हो जाता है ।सनातन काल से परे हैं । प्रकृति में गुण-दोष होते हैं ।संस्कृति में भी परिवर्तन है ।याद रखना ,भूलना  धर्म नहीं है ।
मन को चैन की ओर ले जाना सनातन धर्म है।
वैद्य मुआ रोगी मुआ,मुआ सकल संसार।
एक कबीरा ना मुआ,जेहि राम का आधार ।
  कबीर का उपर्युक्त दोहा  सनातन धर्म  का सरलतम व्याख्या है ।कबीर और वेद का कोई संबंध नहीं है ।पर इस दोहे में सनातन धर्म का सार तत्व है ।
जगत मिथ्या,ब्रहमम् सत्यम् । वेद भी शाश्वत नहीं, मिट जाएगा ।रोगी भी मर जाएगा , पर कबीर का राम अर्थात सर्वेश्वर  न मरेगा। वह सर्वेश्वर राम का आधार है,अतःकबीर भी न मरेगा।राम अर्थात ब्रह्म अनादी,अनंत,अनश्वर है ।आत्मा में परमात्मा ऐक्य है ।वैसे ही कबीर में राम ऐक्य है ।
कबीर आत्मा और परमात्मा  के संबंध के बारे में और स्पष्ट रूप में बताते हैं–
“लाली मेरे लाल की ,जित  देखो तित लाल ।
लाली देखन मैं गयी.मैं भी हो गई लाल ।।
शंकराचार्य का अद्वैत भावना इस दोहे में है ।कबीर अनपढ थे । गुरु के उपदेश के रूप में मुँह अंधेरे में  केवल राम शब्द मिला । उनका राम  अवतारपुरुष राम नहीं, उनका राम सनातन राम होते हैं ।
अवतार नहीं लेते ।रूप -रंग का बंधन नहीं है ।सर्वज्ञानी होते हैं । तटस्थ होते हैं ।लौकिक माया मोह से परे होते हैं ।
कबीर अपने भगवान का उल्लेख यों करते हैं —-
चारी भुजा के भजन में भूले परे सब संत।कबीरा पूजै तासुको,जाकै भुजा अनंत ।.
कबीर का यह ज्ञान संदेश मानव-मानव के संप्रदाय भेद मिटा देगा ।।.
यही सनातन धर्म का सहज बोध होता है ।
तमिल वेद  के नाम से विश्वविख्यात तिरुक्कुरल में सनातन धर्म को अप्रत्यक्ष रूप मेें उल्लेख करते हैं । भगवान तटस्थ हैं ।वे पापात्मा -पुण्यात्मा ,आदमखोर,मृदुस्वभाववाले ,कीडे मकोडे,घासफूस सब  पर निगरानी रखते हैं।सनातन धर्म भी तटस्थ है ।मानव मानव में भेद नहीं देखता।वेद,कुरान,बैबिल से व्यापक है।संकुचित मनोविकार नहीं करता ।मानव मानव में वेद ही बडा है,कुरान ही बडा है ,बाइबिल ही बडा है  का संकुचित विचार धारा सनातन धर्म में नही है ।
मत/मजहब,जाति,पंथ आदि से परे हैं  सनातन धर्म मानव -मानव के रिश्तों को जोडनेवाला है,तोडनेवला नहीं है। आग का गुण जलना है,गरम करना है ।वह गुण शाश्वत है।
हवा के गुण आग बुझाना है और जलाना है। दीप को बुझा देती है,चिनगारी को इतना भटका देता है कि एक जंगल को ही जला देती है ।पानी आग को बुझा देता है।भूमि सहनशील है ।आकाश पानी बरसाता है ।सूर्य और चंद्र प्रकाश देते हैं । ये पंचतत्व प्राण देनेवाले और प्राण लेनेवाले हैं ।
इन पंचतत्वों को पवित्र रखने की अनिवार्य आवश्यक्ता मानव धर्म है। सनातन धर्म इन पंचतत्वों को प्रदूषित रखने की सीख देता है । ये पंच तत्व आपे से बाहर होने पर उसका सामना करना  अति मुश्किल हो जाता है । मानव बुद्धि से दूर है विष क्रीट कीडाणुओं  के कारण फैलने वाला असाध्य रोग। वायु और पानी के द्वारा रोग फैलता है । सनातन धर्म नदी में स्नान करने के नियम भी बताता है।भूकंप के कारण का घाटा,ज्वाला मुखी पहाड आदि जगत मिथ्या और नाश के  शाश्वत सूचक है। मजहबियों अर्थात जाति संप्रदायों के द्वारा बचाना असंभव हैै।


आजकल मानवीय मूल्य की कमी राजनीति,संप्रदाय जाति भेद के कारण बढ रहा है ।वोट पाने के लिए जनता को दल के आधार पर,जाति संप्रदाय के आधार पर बाँट रहे हैं । धर्म मत -मतांतर से भिन्न है । धर्म मानवता चाहता है ।विश्व  भर में शांति चाहता है । सनातन धर्म आदर्श मानवीय गुणों का उपदेश देता है।मानवता का पतन मानव को निर्दयी पशु बना देगा ।
  सनातन धर्म में मानव बिलकुल स्वतंत्र है।भगवान एक है।संसार के सभी जड-चेतन एक सर्वेश्वर के इशारे पर चलता है ।हर जीवराशी के गुण अलग -अलग होते हैंं ।मानव बुदधि जीवी है ।बुद्धि भी सभी मानव को एक समान नहीं है ।
ईश्वर एक है।मानव ही नहीं,संपूर्ण योनियों के जीव उनमें ऐक्य हैं ।हर जीव में ब्रह्म ऐक्य हैं ।सभी जड-चेतन जीवों के सुख-दुख,ऐश-आराम,जन्म -मरण, हर जीव-राशियों का आयु निर्णय सृजनहार के हाथ में है । ईश्वर की खोज में  भटकना बेकार है । ईश्वर के जप -तप में  भी ईश्वर की कृपा न हो तो विधि की विडंबना को बदलना मुश्किल है ।
ज्ञानमार्गी शाखा के प्रवर्तक वाणी के डिक्टेटर सत्संग के द्वारा ज्ञानी बने कबीर के दोहे में सरल भाषा में मिलते हैं। सर्वेश्वर सर्वत्र विद्यमान है ।भगवान की खोज में तीर्थयात्रा बेकार है।मन की पवित्रता ही प्रधान है। ईश्वर  इत्र-तत्र-सर्वत्र विद्यमान है ।यह भी सनातन धर्म का मूल सिद्धांत है ।

कस्तूरी कुंडली बसै,मृग ढूँढै वन माही,ऐसे घट-घट राम है,
दुनिया देखै नाहीं ।।मूल आत्मा और परमात्मा भिन्न नहीं, एक है।
जब मैं था,तब हरी नहीं ।अब हरी नहीं,मैं नाहीं । प्रेम गली अति सांकरी ,जामे न दो समाहीं ।।
सनातन धर्म में दया का अति महत्व है ।  लोभ,क्रोध सनातन धर्मानुसार मानव को पतन करना है ।

जहाँ दया तहाँ धर्म नहीं,जहाँ लोभ,वहाँ पाप।जहाँ क्रोध,तहाँ  काल।.जहाँ क्षमा ,वहाँ आप ।–कबीर का यह दोहा सरलतम अर्थ में सनातन धर्म के बुनियाद बातें बता रहा है ।
सच्चा भगवान संप्रदाय से परे  हैं । अति शक्तिवान होते हैं।
हिंदू कहे  मोही राम पियारा, तुरक कहे मोही रहमाना ,
आपस में दोऊँ लडी लडी मुए,मरम न कोऊ जाना।.

भगवान मानव में सदा विद्यमान होते हैं ।अहं ब्रह्मास्मी  सनातन तत्व है ।
भगवान के रूप अनेक है पर मूल तत्व एक ही है ।सनातन धर्म भी एक ही ईश्वर को मानता है ।
कबीर कहते हैं —
        कबीरा कुँवा एक है,पानी भरैं अनेक। बर्तन में ही भेद है ।पानी सबमें एक ।।
        जैसे तिल में तेल है,ज्यों चकमक में आग। तेरा साई तुझमें,तू जाग सकै तो जाग ।.
भगवान तो हर एक मानव में है ,पास ही है। भगवान की तलाश में जाना बेवकूफी है ।इस बात का
सिवा संत कबीर के और किसीने  बताया नहीं है ।
मोको कहाँ ढूँढे रे बंदे।मैं तेरे पास में ।
ना तीर्थ में ना मूरत में,ना एकांत वास में ।ना मंदिर में ,ना मसजद में।नाकाबे,ना कैलास में ।
ना जप में ,ना तप में ,ना बरत  में ,ना उपवास में ।..
ना मैं क्रिया कर्म में  ना मैं जोग संन्यास में ।
खोज हो तो तुरत मिल जाऊँ,एक पल की तलास में ।
कहत सुनो मेरे भाई  साधू ।
मैं तो तेरे पास में बंदु ,तेरे पास में ।।
कबीर सनातन  धर्म के अनुसार एक ही भगवान को ही मानते हैंं ।











माला तो कर में फिरै,जीभ फिरै मुँह माही ।मनुआ तो दस दिसै फिरै,यह तो सुमिरन नाहीं ।
कबीर के दोहों में सनातन धर्म  के स्थिर सिद्धांतों को सरलतम भाषा में कबीर व्यक्त करते हैं ।

ईश्वर  इत्र-तत्र-सर्वत्र विद्यमान है ।यह भी सनातन धर्म का मूल सिद्धांत है ।


कबीर के दोहों में  सनातन सिद्धांत—
सनातन धर्म में  दान का प्रमुख स्थान है —
धर्म  किये धन ना घटे,नदी न घटै नीर।।
भगवन तो
अपनी आँखों देखिले,यों कथि कहहीं कबीर।।
  कबीर कहते हैं कि दान धर्म के देने पर धन घटेगा नहीं, नदी में पानी न घटेगा।
अपनी आँखों से देखकर जान-समझकर कबीर कहते हैं।
कबीर मजहबी नहीं थे,धर्मवादी थे ।मानव मानव को जोडकर ,मजहबी भेद भाव मिटाकर एकता की भावना भरना चाहते थे ।कबीर विश्व में एक ही भगवान को मानते हैं ।

दुई जगदीस कहाँ ते आया, कहु कवने भरमाया।

अल्लह राम करीमा केसो, हजरत नाम धराया॥

गहना एक कनक तें गढ़ना, इनि महँ भाव न दूजा।

कहन सुनन को दुर करि पापिन, इक निमाज इक पूजा॥

वही महादेव वही महंमद, ब्रह्मा−आदम कहिये।

को हिन्दू को तुरुक कहावै, एक जिमीं पर रहिये॥

बेद कितेब पढ़े वे कुतुबा, वे मोंलना वे पाँडे।

बेगरि बेगरि नाम धराये, एक मटिया के भाँडे॥

कहँहि कबीर वे दूनौं भूले, रामहिं किनहुँ न पाया।

वे खस्सी वे गाय कटावैं, बादहिं जन्म गँवाया॥
भगवान दयालू हैं ।भगवान के भक्त  एक सर्वेश्वर को न मानकर भिन्न भिन्न नाम लेकर आपस में लडते हैं । सचमुच ईश्वर को पहचानने में बडी भूल करते हैं।
एकेश्वर वाद के कबीर पूछते हैं कि दो भगवान कहाँ से आया है ।किसने बताया?सनातन धर्म के अनुसार भगवान तो एक है ।
भगवान के नाम तो भिन्न भिन्न है।राम,रहीम,।केशवआदि नामों से पुकारते हैं एक ही सोने से बने विविध आभूषण  है,पर स्वर्ण तो एक ही है। एक नमाज पढकर अपने को तुर्क कहता है ।दूसरा वेद पढकर अपने को हिंदू कहता है ।पर महादेव और मुहम्मद दोनों एक ही है।ब्रह्मा और आदम एक ही है।दोनों एक ही धरती पर रहते हैं।एक मौलाना है और दूसरा पंडित हैं । नाम तो भिन्न है।पर ब्रहमा एक ही है ।बर्तन भिनन हैं ,पर एक ही मिट्टी के बने हैं ।आभूषण नाना प्रकार के बने हैं।पर सोना एक ही है ।यह न जानकर दोनों असली भगवान को पहचान न कर सके।दोनों भगवान से न मिले ।एक बकरी काटता है और दूसरा गाय।दोनों आपस में भगवान के नाम लेकर कटते -मरते हैं । ये अपने जीवन को निरर्थक बना लेते हैं ।
    सनातन धर्म लगभग पंद्रह हजार साल पुराना है ।कबीर का जीवन काल डेढ हजार साल पुराणा है। कबीर तो वेदों या कुरान का ज्ञाताा नहीं है ।पर सनातन धर्म की बात कबीर के दोहे में.साखी,रमनी में मिलते हैं।सनातन धरम के महत्व को पीढी दर पीढी प्रमाणित करने के लिए अनुसंधान की जरूरत हैं ।
सनातन धर्मम् के तमिल ग्रंथ ही मेरा संदर्भ ग्रंथ। मिनर्वा प्रस ,ब्राडवे  चेन्नै. प्रकाशित वर्ष 1907ई.

सनातन धर्म  के मूल तत्व
१.एकवस्तु २. विवेक-अनेक ३.पुनर्जन्म ४.कर्म ५.त्याग ६.प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष संसार         

सनातन का मतलब है शाश्वत संप्रदाय।ये वेदों के आधार पर बनाये सामान्य नियम है।इनका पालन आर्यों ने किया ।आर्य का मतलब है श्रेष्ठ ।सनातन धर्म ही विश्व का स्थाई पहला धर्म है  जिसने सदाचार के असंख्य ग्रंथकार,ऋषि-मुनि,दार्शनिक,चिकित्सक,शल्य चिकित्सक ,ज्योतिष शास्त्री ,अर्थशास्त्री ,खगोल शास्त्री,राजतंत्री,लोकोपकारी आदि सबको बनाया। इस अत्यंत सनातन धर्म का प्रमाण हैं स्मृतियाँ । देवों की अमृतवाणी सुनकर याद रखकर देवों के प्रिय सदाचरों को जग कल्याण के लिए प्रवचन करते थे।श्रुति की यादें श्रवण द्वारा ही की जाती थी। लिखित रूप नहीं था।
श्रुति में चार वेद हैं ।वेद का अर्थ है ज्ञान।वेद चार  प्रकार के हैं ।१.ऋगवेद २.यजुर्वेद ३. सामवेद ४. अथर्व वेद आदि । इन वेदों  को तीन भागों में बाँटा गया है ।वे हैं संहिता,ब्राह्मण,उपनिषद ।संहिता अर्थात मंत्र भाग।वेद मंत्रों को सस्वर पाठ करने में दिव्य शक्ति की अनुभूति होती है ।मन अति प्रसन्न होता है । ब्राह्मण में यज्ञों के विधान और विज्ञान का वर्णन मिलते हैं। उपनिषद में ईश्वर ,सृष्टि आत्मा के संबंध में गहन और दार्शनिक वर्णन मिलता है ।
इन वेदों के चार उपवेद होते हैं ।१.आयुर्वेद २.धनुर्वेद ३.गांधर्ववेद ४.स्थापत्यवेद ।
सनातन धर्म  प्राचीन नियम है ।इसमें मानव में मानवता भरने के नियम हैं।इसको आर्य धर्म भी कहते हैं ।
वेदों के सही उच्चारण में  ही दिव्य शक्ति और दिव्य फल मिलते हैं ।
सनातन धर्म  के प्रमाण में स्मृतियों का स्थान सर्वोपरी हैं।इनके चार भाग होते हैं ।इनमें मानव जीवन को व्यवस्थित अनुशासन में जीने की नीति -रीतियों की व्याख्याएँ मिलती हैं।
स्मृतियों के चार भाग हैं —१.मनुस्मृति–मनु द्वारा रचित मानव धर्म शास्त्र -आर्यजाति  के सभी आचारों का सार रूप मिलते हैं ।
२.याज्ञवल्क्य स्मृति में भी मानव जीवन को सुचारू रूप में चलाने  की बातों का ही विवरण मिलते हैं ।
भगवान की सृष्टि स्वयंभु हैं ।ब्रह्मा सृष्टित महामनु वंश में ६ मनुओं की सृष्टियाँ हुई हैं । वे दिव्यांश के हैं ।
तीसरी और चौथी मनुस्मृतियाँ दक्षिण भारत के कुछ भागों में ही पालन करते हैं ।.
श्रुति और स्मृति दोनों ही सनातन धर्म की आधार शिलाएँ होती हैं ।
इनके अलावा और दो सहायक ग्रंथ होते हैं ।वे हैं पुराण और  इतिहास ।
वेदों को जो समझ नहीं सकते, उनको समझाने के लिए  उपमान उपमेय से भरी कहानियाँ ही पुराण हैं। पुराणों को समझने के लिए  गुरु की जरूरत है।
इतिहास में दो महाकाव्य होते हैं ।एक रामायण और दूसरा महाभारत।
रामायण अयोध्या के महाराज दशरथ के पुत्र श्रीराम ,बहु सीता ,और राम के भाई लक्ष्मण भरत,शतृघ्न की कहानी हैं । यह विनोद और आनंद से भरा काव्य है।
२.महाभारत –महाभारत उत्तर भारत के  कुरु राजवंश की कहानी है ।कौरव और पाँडव के आपसी द्वेष और युद्ध ,श्री कृष्ण गीतोपदेश और कई नैतिक प्रसंग मिलते हैं।इन दोनों ग्रंथों के द्वारा प्राचीन भारत के लोगों के आचार-विचार ,उस समय की परिस्थिति ,कलाएँ,पोशाक कुटीर उद्योग आदि विवरणों का पता चलता है।इन दो काव्यों से भारत के वैज्ञानिक ज्ञान संपन्नता और समृद्धियों का पता चलता है।
  सनातन धर्म का आधार श्रुति,स्मृति,पुराण ही  मूलाधार नहीं है,इनके आधार पर की गई खोजें,अनुशीलन,विश्लेषण,दार्शनिकों के सिद्धांत,अद्वैत,द्वैत,विशिष्टाद्वैद,नास्तिक-आस्तिक       विभिन्न विचारों  के तर्क-वितर्क,लौकिक-अलौकिक सुख-दुखों की व्याख्याएँ आ जाती हैं ।
उन दिनों में लौकिक-अलौकिक विचारों की खोज अलग -अलग नहीं हुई ।
इनके अंतर्गत व्याकरण,नृत्त,ज्योतिष और चौंसठ कला-व्यवसायों के अनुसंधान,इनको प्रयोग और अभ्यास के नियम और विधियाँ आ जाती हैं ।अतः वेद- वेदांगों के ज्ञानी अनेक विद्याओं के निपुण निकले।इन सबको मानव के मार्गदर्शक या सलाह ग्रंथ मानने लगे ।
ये सब जीवात्मा को परमात्मा के दर्शन,साक्षात्कार करने,कराने और करवाने ,आत्मसात करने के  मार्गदर्शक रहे।मानव के सकल दुखों को हरने के पथप्रदर्शक रहे। वर्तमान और भविष्य में भी रहेंगे ।ये ज्ञानप्राप्ति के साधन हैं। ज्ञानप्राप्ति इन  श्रुति ,समृति,वेद-वेदांगों के गहरे अध्ययन से ही मिलता है।
संसार के सभी पदार्थों को कुछ वर्गों में  विभाजित करते हैं न्याय वैशेषिक संप्रदाय ।इन संप्रदायों को मानव अपने इंद्रियों के द्वारा महसूस करता है ।प्रत्यक्ष प्रमाणों द्वारा ,अंदाजों से ,अनुभवों से,ज्ञानियों के अनुभूतियुक्त  ग्रंथों के द्वारा जान समझ लेता है ।भगवान इस स्थूल लोक में  अणु और अणुओं के सम्मिश्रण में कैसे इन सृष्टियों की सृष्टि की है? सृष्टियों का रहस्य जानने और सभी जीवराशियों में बसे हुए सर्वेश्वर को पहचानने,जानने,समझने और साक्षात करके वरदान प्राप्त करने आत्मा-परमात्मा एक होने ये वेद,श्रुति और स्मृति मार्ग दिखाते हैं ।
सांख्य योग में ज्ञानेंद्रिय और कर्मेंद्रिय के अलावा और कई सूक्ष्म इंद्रियों का भी उल्लेख किया गया है ।अंतरात्मा भगवान को पहचानने कई मानसिक  परिपक्वता के मार्गों का विस्तृत व्याख्या सांख्य योग में मिलती है। सांख्य में मन की पाँच भावात्मक अवस्थाएँ बतायी गयी है।इनको पंचक्लेष कहते हैं ।सांख्य योग प्रकृति को जड और परिवर्तनशील कहता है।
मीमांस लौकिक और अलौकिक कर्म भेदों की व्याख्या करती है ।इह लोक और परलोक में मिलनेवाले कर्मफलों के कारण और अंत को भी व्याख्या करती है ।
सभी दर्शनों के सिरो भूषण है वेदांत।वेदांत भगवान या आत्मा की वास्तविक लक्षणों की  व्याख्या करके आत्मा और परमात्मा को एक वस्तु बताता है।सांसारिक बंधनों से छूटकर आवश्यक सभी कर्मों को दोषरहित कर्तव्य निभाकर जीने का मार्ग दिखाकर अंत में जन्म-मरण की माया शक्ति का पता लगाकर योग के द्वारा जन्म-मरण के बंधन से छूटकर  मोक्ष प्राप्त करने के उपाय बताते हैं।

सनातन धर्म के मूल-तत्व—------
  १. एक वस्तु
भगवान एक है ।अनंत है ।शाश्वत है ।निर्विकार है।समस्त हैं ।उनसे सभी सृष्टियों की सृष्टियाँ होती हैं ।उनमें ही आत्मसात होती हैं । भगवान एक है का प्रमाण छांदोग्योपनिषद में मिलता है–परमात्मा एक है दो नहीं ।परमतत्व भगवान में ही तीनों काल भूत,वर्तमान ,भविष्य आत्मजात हैं।एकवस्तु भगवान को ही मनुष्य अनेक नाम देकर पुकारते हैं।सनातन धर्म में ब्रह्म ही ईश्वरहै।परमार्थ स्थिति ब्रह्म ,निर्गुण ब्रह्म। ब्रह्म तटस्थ है।ब्रह्म में किसी प्रकार का राग -द्वेष नहीं है। भगवान को सगुण कहते हैं।पर वे निर्गुण से परे नहीं होते lभगवान परब्रह्म
सच्चिदानंद स्वरूपी  जगन्नाथ हैं।एकवस्तु परम स्वाधीन है।उनको परमात्मा,
पुरुषोत्तम भी कहते हैं।

प्रमाण श्लोक —--भगवदगीता  अध्याय ७(१२-१७)जिसे जानने से जन्म-मरण रहित अमृत पद मिलेगा ,वही आदि-अंत रहित परब्रह्म है ,वह सत् भी नहीं,असत् भी नहीं।वह परब्रह्म सर्वत्र व्यापित रहते हैं। सर्वत्र ब्रह्म के हाथ,पैर,सिर,मुख,कान होते हैं।सभी इंद्रिय गुणों के प्रकाश पुंज है।किसीसे जुडता नहीं है,फिर भी सबका आधार स्तंभ है ।निर्गुण में ही सगुण भी है।
चर-अचर वस्तुओं के अंदर-बाहर भी भगवान है।अरूप होने से अज्ञानियों के लिए दूर ,ज्ञानियों के लिए अति निकट होते हैं।
पंचभूत अलग अलग  होने पर भी  एक ही है।सबको निगलते हैं ,सबको उत्पन्न करते हैं ।
भगवान ज्योतिस्वरूप होते हैं।अंधकार रहित होते हैं।ज्ञानस्वरूपी है ।भगवान में सभी ज्ञान के विषय होते हैं।सकल जीवराशियों के हृदय में होते हैं।
एक में अनेक —-
सनातन धर्म में यही कहते हैं कि शाश्वत ईश्वर एक ही हैं ।एक ईश्वर में  ही अनेक ईश्वर निहित होते हैं। सारे जग के जड-चेतन,गुण-अवगुण के जीव,वनस्पति,नदी-नाले-नहर,झील सब की सृष्टियों के तमस,राजस,तेजस गुण भगवान की सूक्ष्मता का रहस्य है ।एक परमोत्तम भगवान की सृष्टियों के उत्थान-पतन,
विकास,बल-दुर्बल ,प्रशंसा-निंदा,मान-अपमान सब के सब भगवान के ही नियंत्रण में है। चल-अचल सब के सब एक ही सर्वेश्वर की कठपुत्लियाँ होते हैं ।सब के स्वस्थ-अस्वस्थ जीवन ,आनंदमय -संतापमय जीवन,अपूर्ण-पूर्ण जीवन ईश्वर का ही अनुग्रह  होता है ।सामान्य मानव सृष्टियों की इस सूक्षमता को समझना असंभव है ।
देव रहस्यों को जानने के लिए ज्ञान प्रदान करने की सीख हमें  श्रुति,स्मृति वेद,वेदांग,वेदांत, इतिहास-पुराण,योग ,मीमांस आदि के गहरे अध्ययन और ध्यान से मिलती है। प्रपंच की सृष्टि के समय प्रकृति की ओर अपने विक्षण के प्रयोग से कई रूपों को प्रकृति के लिए प्रदर्शित किया।इनमें सर्वप्रथम आकार ईश्वर के त्रिमर्तियों के दिव्य आकार ही है ।ये ही ब्रह्मा एक अंड का सार्थक होता है।ये ही एक ब्रह्मांड की सृष्टि करता है ।एक ब्रह्मांड संसार का व्यवस्थित मंडल होता है ।इन मूर्तियों में एक ही ईश्वर उपस्थित होकर प्रपंच की सृष्टि करता है ।ईश्वर का ही एक अंश ब्रह्मा होते हैं ।ब्रह्मा ही सृष्टि करता है,पर ब्रह्मा ईश्वर में निहित होते हैं ।वैसे ही संसार का परिपालक का ईश्वरांश  विष्णु होते हैं ।इसलिए विष्णु ही परिपालन करता होते हैं ।विष्णु लोक रक्षक का ईश्वरांश हैं ।संसार कालक्रम में क्षीण जीर्ण होते समय लय लानेवला अंश महादेव होते हैं ।शिव ही संसार का लयकर्ता होते हैं।ये ही त्रिमर्तियाँ ब्रह्मा के सर्वप्रथम आविर्भाव मूर्तियाँ या श्रीमुख होते हैं।इस प्रकार एक रूपी निराकार परब्रह्म सगुण बहु रूपी होते हैं ।
ब्रह्माने  सृष्टि को सात तत्वों में विभाजित किया है ।इनको भूत कहते हैं ।महद्बुद्धि, अहंकार आदि प्रथम दो तत्व होते हैं ।ये दोनों तत्व जीवों में अदृश्य होते हैं,जीव के व्यवहार  में प्रकट होते हैं।बाकी पाँच तत्व होते हैं–१.आकाश २.वायु ३.अग्नि ४.जल ५.पृथ्वी।
इन पंच तत्वों के अंशों को मिलाकर ही विश्व की सारी सृष्टियाँ होती हैं।
इन भूत सृष्टियों के बाद दशेंद्रियों की सृष्टियाँ होती हैं।ये पहले ब्रह्मा के मन में संकल्प रूप में रहकर भूत शरीर में  दशेंद्रिय पहुँच जाते हैं ।
  इन दशेंद्रियों को दो भागों में  बाँटते हैं ,वे पाँच ज्ञानेंद्रिय और पाँच कर्मेंद्रिय हैं।
१. पाँच ज्ञानेंद्रिय—१.गंध जानने के लिए नाक २.षड रस स्वाद जानने के लिए जीभ ३.प्रकृति के रूप और दृश्य देखने के लिए आँखें ४.स्पर्श जानने के लिए त्वचा ५.धवनियाँ और बोलियाँ सुनने के लिए कान।
२.  पाँच ज्ञानेंद्रिय—१.हाथ २.पैर ३.मुंह ४.गुदा ५.लिंग
इन इंद्रियों में  तमो गुण और सत्व गुणों से बढकर रजो गुण ही प्रधान।रजोगुणों के कारण जीव को अधिक  शक्ति मिल जाती है।
ज्ञानेंद्रिय और कर्मेंद्रियों के बाद देव और मन की सृष्टियाँ हुईं।इन इंद्रियों को बाह्य संसार से भी अनेक प्रकार के भाव और मनोविकार होते हैं ।कई बातों को तुलना करके ग्रहण कर अपनाने की सहज प्रवृत्तियाँ मन को होता है ।देव और मन में सत्व गुण ही श्रेष्ठ अमित होता है ।रजो गुण,तमो गुण,सतव गुण आदि तीनों सहोदर के समान साथ-साथ ही रहते हैं ।जीवों में तमोगुण अधिक होे पर वे तामस जीव,रजोगुण अधिक होने पर वे जीव राजस जीव,सत्व गुण अधिक होने पर सात्विक जीव , ऐसे जीवों का वर्गीकरण तीन सहज ही हो जाते हैं ।
ब्रह्मा ने सृष्टि,स्थिति,लय और ईश्वर की आज्ञाओं को निर्वाह और पूर्ति करने के लिए देवगणों का सृजन किया ।
अनेक में एक ईश्वर ही चक्रवर्ती होते हैं ।सर्वाधिकरी होते हैं। हम सब ईश्वर नियमित कर्तव्य निभाते हैं,वैसे ही देवगण ईश्वर के काम करनेवाले कार्यस्त होते हैं ।ये देव ही मानव के कर्म फल के आधार पर सुख-दुख ,जय-पराजय का निर्णय करते हैं ।जिनके कार्यों से देव संतुष्ट होते हैं,जिनके कार्य प्रिय लगते हैं,उनको सभी प्रकार के सुख देते हैं ।हर एक मानव की सृष्टि  जग कल्याण के अलग अलग कार्य करने के लिए होती है ।अतः सर्वेश्वर को अपने अपने कर्तव्य करनेवले अतिप्रिय होते हैं।ईश्वर को २४ घंटे उनके नाम लेनेवालों से कर्तव्य ईमानदारी से निभानेवाले ही प्रिय लगे हैं ।
भगावन का आदर्श भक्त अनासक्त रहता है ।भूखा-प्यासा करतल भिक्षा,तरुतल वासा बनकर ईश्वर की कृपा केलिए तपोमग्न लगता है। वे केवल सदुपदेश देकर
समाज को अनुशासित रखने में समर्थ हो जाते हैं । लौकिक काम-काज में लगनेवाले जब मानसिक पीडा का अनुभव करते हैं,तब ईश्वर के चरण लेते हैं ।ईश्वर तो दोनों से संतुष्ट नहीं होते।हर व्यक्ति में  किसी एक ही कर्म करने का निपुणत्व है ।
बडे बडे लोग बद्बू सह नहीं सकते जो काम भंगी करते हैं । मज़दूर वर्ग के बगैर कोई महल में धनी रह नहीं सकता । अतः भगवान द्वारा जो काम निश्चित है,उसको लगन से करनेवले भगवान का प्रिय दो जाते हैं ।

कबीर तो इस आदर्श वेद को सरलतमम शब्दों में समझाते हैं—-
दुख में सुमिरण सब करै,सुख में करै न कोय।सुख में भी सुमिरण करै,दुख काहे को होय।.
मानव को देवगणों के प्रति के कर्तव्यों को सही रूप में सुचारू ढंग से पालन करना चाहिए।पंचतत्व आग,पानी,आकाश,वायु,पृथ्वी आदि को  उचित देखरेख  प्रदूषण रहित रखना चाहिए ।ऐसा न करेंगे तो प्राकृतिक कोप का सामना करना पडेगा। भूकंप,आँधी-तूफान,अति वर्षा,बाढ, अति धूप,सूख,अकाल,संक्रामक रोग,असाध्य रोग आदि का सामना करना पडेगा।
देवगण तो असंख्य हैं ।इनमें पाँच प्रधान होते हैं। वे हैं १.इंद्र -(आकाश) २.वायु ३.अग्नी ४.वर्ण ५.कुबेर(पृथवी।इन देवों में रजोगुण विशेष रूप में है ।देवों के शत्रु असुरों में  तमो गुण प्रधान है।
उपर्युक्त सभी सृष्टियों के बाद ब्रह्मा ने धातुएँ,गंध-मूल,जानवर,मनुष्य समाज की सृष्टियाँ की है ।