Tuesday, April 23, 2024

विचार तरंगेे

 [12:14 am, 16/04/2024] sanantha.50@gmail.com: एस. अनंत कृष्णन सेतु रामन का नमस्कार।

साहित्य नव कुंभ साहित्य सेवा संस्थान को 

प्रणाम।

 चित्रलेखा।

 शीर्षक --जंग लगी ताला।

विधा --अपनी हिंदी अपने विचार 

अपनी शैली भावाभिव्यक्ति 

-------++---++++((+((

सुना 

उर्वरा भूमि सोना उगलती है,

 आश्चर्य जंग लगी ताला में 

 अंकुर पनप रहा है।

 आज वैज्ञानिक युग में,

छत पर गमलों में पेड़-पौधे 

 खाली फैंके बोतल में भी।

 तब चतुर मानव 

आलसी न तो भीख नहीं माँगता।

प्रकृति बहुत कुछ देती है

 हवा मुफ्त जीने के लिए।

वर्षा मुफ्त।

कृषी प्रधान भारत।

  बेकारी नहीं सोच समझकर 

 बाग बगीचा उद्यान।

 जंग लगी ताला में पौधा।

 प्रेरित करती, प्रोत्साहन देती।

 मानव! खेती करो,

भूमि  बोतल भी बन सकता है।

 जंग लगी ताला भी।

 एस. अनंतकृष्णन चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक द्वारा स्वरचित भावाभिव्यक्ति कविता।

[12:16 am, 16/04/2024] sanantha.50@gmail.com: एस. अनंत कृष्णन सेतु रामन का नमस्कार।

साहित्य नव कुंभ साहित्य सेवा संस्थान को 

प्रणाम।

 चित्रलेखा।

 शीर्षक --जंग लगी ताला।

विधा --अपनी हिंदी अपने विचार 

अपनी शैली भावाभिव्यक्ति 

-------++---++++((+((

सुना 

उर्वरा भूमि सोना उगलती है,

 आश्चर्य जंग लगी ताला में 

 अंकुर पनप रहा है।

 आज वैज्ञानिक युग में,

छत पर गमलों में पेड़-पौधे 

 खाली फैंके बोतल में भी।

 तब चतुर मानव 

आलसी न तो भीख नहीं माँगता।

प्रकृति बहुत कुछ देती है

 हवा मुफ्त जीने के लिए।

वर्षा मुफ्त।

कृषी प्रधान भारत।

  बेकारी नहीं सोच समझकर 

 बाग बगीचा उद्यान।

 जंग लगी ताला में पौधा।

 प्रेरित करती, प्रोत्साहन देती।

 मानव! खेती करो,

भूमि  बोतल भी बन सकता है।

 जंग लगी ताला भी।

 एस. अनंतकृष्णन चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक द्वारा स्वरचित भावाभिव्यक्ति कविता।

[12:17 am, 16/04/2024] sanantha.50@gmail.com: नमस्ते वणक्कम्।


साहित्य  परिवार भारत को 

एस.अनंतकृष्णन का  प्रणाम।।

विषय --तमन्ना 

विधा --अपनी हिंदी अपने विचार 

           अपनी भाषा अपने विचार 

           अपनी शैली भावाभिव्यक्ति।

            १५-४-२०२४.

 तमन्ना क्या है?

 आजकल के छात्र से पूछा तो  कहा 

 तमन्ना अभिनेत्री।

  बूढ़े से पूछा तो

  तमन्ना ? मेरी कामना स्वस्थ तन।

ताज़े स्नातक से पूछा,

 नौकरी।

 युवति के पिता से पूछा 

 बेटी की शादी योग्य वर से।

शादी के बाद   सुंदर बच्चे की तमन्ना।

  हर कोई की तमन्ना/ख्वाहिश/इच्छा/

 उम्र के अनुसार बदलती है तमन्ना।

भारतीय  आध्यात्मिक जीवन

 तमन्ना रहित जीना।

 चाह गई चिंता मिटी,

 जानें कछु न चाहिए 

 वही शाहँशाह।।

 इच्छा नहीं,

 ऊँची अभिलाषा आकांक्षा नहीं 

तो ज्ञान नहीं, जिज्ञासा नहीं तो

 खोज नहीं, क्रिया नहीं।

 लौकिक ख्वाहिशें अलक।

अलौकिक ख्वाहिशें अलग।

 साहित्यकार की तम…

[7:58 am, 16/04/2024] sanantha.50@gmail.com: लिखा है हिंदी में, 

 लिखूँगा हिंदी में 

 लिख रहा हूँ हिंदी में।

 अनिवार्य दोहा

 लिखने के प्रयत्न

फिर भी राय दोहे की विधा नहीं।

कोशिश करके छोड़ दिया।

 कवि बनना ईश्वरीय वरदान।


 विधा  है  

अपनी भाषा अपनी हिंदी अपने‌ विचार

अपनी शैली  भावभिव्यकति।

 छंद बंद रखना,

विचारों  की धारा मैं बाँध बनाना।

दोहे लिखना आसान।

पर न  १३,११ मात्राएँ

 सही नहीं बैठता।

  अनिवार्य दोहा शैली।

   प्राचीनता की रक्षा।

 न पैदल चलतै हैं,

न घुड सवार,

न बैलगाड़ी 

 न घोड़ा गाड़ी 

न पैर गाड़ी

न हिंदी भारतीय माध्यम  पाठशालाएँ

न गुरु कुल, न चोटी न धोती।

 न राजतंत्र न दीवान।

 लोकतंत्र न ईमानदारी 

भ्रष्टाचारी अपराधी ३०% सांसद विधायक।

 २०% विपक्षी दल,१०% गिरगिट दल

२०%प्रधान दल 

मतदाता में ३०% मत नहीं देते७०% में 

पैसे लेकर खोट देने वाले।

 अपने दल के नेता 

 अपराध करें फिर भु समर्थन।

 देश की चिंता सच…

[2:22 am, 18/04/2024] sanantha.50@gmail.com: कलम बोलती है साहित्य मंच को एस अनंतकृष्णन चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक का प्रणाम वणक्कम।

विषय --सपनों की दुनिया 

विधा --अपनी हिंदी अपने विचार 

अपनी शैली भावाभिव्यक्ति 

18-4-24.

+++++++++

सपना कितने-कितने किस्म के।

 दिवा सपना,जो साकार नहीं होता।

 ब्रह्म मुहूर्त में सपना कहते हैं 

 जरूर सत्य है, फल मिलेगा।

 जागते जागते सपना,

 बड़े उद्योगपति बनने का।

 नेता बनने का।

 वैज्ञानिक बनने का।

जिसको कीर्तवान

चतुर होशियार 

 नामी धनी देखते हैं 

 वैसा ही बन जाने का।

 जादूगर बनने का।

अभिनेता बनने का।

जागते जागते सपना।

 वह तो  सपना सपना सपना ही ।

 तमिल के  शिव भक्त 64 थे।

 उनको कहते नायन्मार।

 उनमें एकते पूसलार।

 गरीब भक्त।

 शिव के मंदिर बनाने का सपना।

 कल्पना में ही मंदिर बन गये।

 दिव्य मंदिर।

 कल्पना में ही कुंभाभिषेक।।

शिव भगवान की लीला देखिए।।

राजा के स्वप्न में …

[6:43 am, 20/04/2024] sanantha.50@gmail.com: साहित्य बोध प्रमुख इकाई को एस.अनंतकृष्णन का प्रणाम।वणक्कम।

बढ़ गया प्यास का एहसास दरिया देखकर।

विधा --अपनी हिंदी अपने विचार 

 अपनी शैली भावाभिव्यक्ति 20-4-24.

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प्यास,

 बुझाने 

पानी की आवश्यकता।

प्यास प्राकृतिक उद्वेग।

 प्यास प्यार का,

प्यास ईश्वर भक्ति का

प्यास ज्ञान प्राप्त करने का

 ज्ञान पिपासा।

 प्यास आम भावना ,

 सब को मानव, पशु-पक्षी, वनस्पति।

पर मानव को मात्रा

 सांसारिक जीवन में 

 दरिया प्यास का बुझता नहीं।

विविध प्यास, विविध परिस्थितियों में।

तृष्णा नाम प्राप्त करने का।

 ये भी ईश्वर प्रेरित।

 कविता सुनने में का आम तृष्णा।

 कवि ही बनने की तृष्णा 

 उनका प्यास बुझता नहीं।

 देश की सुरक्षा सब की चाह।

 सेना में भर्ती होकर 

 जान त्यागने की पिपासा।।

नेता को देखकर नेता बनने का

 अध्यापक देख अध्यापक बनने का।

 अभिनेता , अभिनेत्री बनने का।

ये तो प्रपंच का आकर्षण।

 वैज्ञानिक बनने  का प्यास

 व्यक्ति गत क्षमता ,कौशल

 ईश्वर की देन, वह तो बुझता नहीं।

 प्यास, पिपासा,  तृष्णा।

  विविध प्राकृतिक विशेषताएँ।

  सांसारिक दरिया में 

जन्म पर्यंत ज्ञान पिपासा बढ़ता है,

बढ़ रहा है, बढ़ेगा ही,

मानव बुद्धि जीवी,

 न पशु-पक्षी वनस्पति समान 

 पानी मात्र पीना,बढना,मरना।

 मानव का ज्ञान पिपासा 

जिज्ञासा बढ़ गया संसार की दरिया देखकर।।

 प्यार, ज्ञान, भक्ति तीनों अति विस्तार।

 बढ़ गया प्यास का एहसास दरिया देखकर।


एस.अनंतकृष्णन, चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक

[4:01 pm, 21/04/2024] sanantha.50@gmail.com: नमस्ते वणक्कम् एस.अनंतकृष्णन का 

साहित्य बोध महाराष्ट्र इकाई को।

विषय -जख्म कहीं नासूर न बन जाए।

 विधा --अपनी हिंदी अपने विचार 

          अपनी शैली भावाभिव्यक्ति 

 २२-४-९०२४.

  शब्द कया है?

 वक्रोक्ति।

 तुम तो वैशाखनंद हो,

मैं तो अर्थ नहीं जानता।

 नंदकिशोर, नंद गोपाल जैसे 

 पता चला वैशाखनंद का अर्थ गधा है।

तब मेरी प्रसन्नता अप्रसन्न ।

 मेरी तारीफ वाजस्तुति।

  एक शब्द है औषधी दूसरा शब्द तीर।

  धीमा शब्द कहना,

  कुंजरः,ऊंचे स्वर में अश्वत्थामा।

 गुरु द्रोणाचार्य का भ्रम।

 परिणाम चेले के द्वारा मृत्यु।

 भले ही भगवान कृष्ण हो

ज़ख्म तो नासूर ही।

 धर्म निंदा नहीं,

 अधर्म युद्ध सा चोट।।

क्या करें हम,

 चोट  तो लगजाती।

मधुर वचन है औषधी,

 कटुकी वचन है तीर। 

 सोचो समझो

 ज़ख्म कहीं नासूर न बन जाए।

 जिह्वा बावरी कह गया

 स्वर्ग पाताल।

 खोपड़ी पर चोट।

तिरुवल्लुवर ने कहा,

 …

[10:28 pm, 21/04/2024] sanantha.50@gmail.com: मानव मन डरपोक होता,

 जब   इति भीति दुखी  घटना

 सोचता ही रहता।

 जीवन का सुख भगवान की कृपा 

 अति आनंद मनाना 

वैसे ही दुख में भी मनाना।

 दुख भगवान के पास ले जाएगा।

 सुख भगवान से 

अति दूर भगाएगा।

 वेदना तू भली गुप्त जीने लिखा।

नर हो, न निराश करो मन को।

 आप क्यों इतना उदास दीख पड़ते हैं।

 सुख में दुख में 

 साथ देनेवाली,

 ऊर्जा देनेवाली ऋतुएँ

 पतझड़ में सूखे पेड़।

 एक पत्ता भी नहीं,

 वसंत में पनपते हैं 

 ताज़े पत्ते, फूल नव वधु समान।

 तज चले पक्षु वापस आते।

 कोयल कू कू।

 मानव में क्या नहीं,

 मानव खुद भगवान 

 अहंब्रह्मास्मी।

 शक्ति पुंज।

 शरणागत वत्सल।

 शरणार्थी बनो।

 शक्तिशाली बनोगे।

 मूर्ख भी कवि बनता।

 वरकवि कालीदास।

 वरकवि वाल्मीकि।

 आप तो नामी कवि

 हमेशा सरोताज़ा रहना। 

एस.अनंतकृष्णन

[12:46 pm, 22/04/2024] sanantha.50@gmail.com: नमस्ते वणक्कम्।

 भू लोक 

 मृत्यु लोक

 नश्वर लोक

 पर भूमि तो शाश्वत।

 भू दिवस चाहिए क्या?

 हाँ, आजकल का मानव

 वैज्ञानिक मानव,

 अपने स्वार्थ के लिए 

सद्यःफल के लिए 

 जंगलों को नगर बना रहे हैं।

 प्राकृतिक जलाशयों को

 जल रहित बना रहे हैं।

 यंत्रीकरण  कारखाने 

 धूएँ, रसायनिक जल,

 आवागमन की ध्वनियां,

 भू गर्भ के प्राकृतिक संतुलन 

बिगाड़ रहे हैं।

 तमिलनाडु मदुरै के पास 

 पहाड़ समतल बना रहा है।

 पहाड़ को चूर्ण करने का नतीजा 

 नदी की चौड़ाई कम,

 तालाब हमारे पूर्वजों ने बनाया 

 कूड़े कचरे डालकर 

 नदारद है।

 भू को पवित्र रखने

 सनातन धर्म में  वन महोत्सव,

 होम हवन पर आजकल 

 भूतल जल प्रदूषित,

 विषैले वायु भोपाल दुर्घटनाएँ।

इन सब बातों को ध्यान दिलाने

 दुबाई बाढ़ अप्रतीक्षित वर्षा 

 सतर्क करने पृथ्वी दिवस/धर्ती दिवस/भू दिवस 

 मनाना चाहिए।

एस.अनंतकृष्णन, चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक द्वारा स्वरचित भावाभिव्यक्ति कविता 

 स्वरचित

[11:09 pm, 22/04/2024] sanantha.50@gmail.com: साहित्य बोध उत्तर प्रदेश इकाई को एस.अनंतकृष्णन का नमस्कार वणक्कम।

शीर्षक ---अनुभव ही जीवन का श्रेष्ठ शिक्षक है।

विधा --अपनी हिंदी अपने विचार 

           अपनी शैली भावाभिव्यक्ति 

२३-०४-२०२४

  अनुभव से ही मानव 

    मानव बनता है।

    आग के छूने से जलन का अनुभव।

     नीचे गिरने से चोट का अनुभव।

       गाली सुनने से मनुष्य का स्वभाव।

         कदम कदम पर अनुभव।

         नवरसों का अनुभव।। 

         आलंबन आश्रय  उद्दीपन से

          प्रेम करुणा भय शोक घृणा।

           धोखा खाने से अनुभव।

             हर अनुभव ही शिक्षक।

             विद्यालय में अनुभव।

             महाविद्यालय में अनुभव।

             मैदान में अनुभव।

            परिवारवालों से अनुभव ,

            समाज में , यात्रा में 

             पढ़ने सुनने में

               प्रेम के मिलन में,

              प्यार के कारण 

             मधुर अनुभव,कटु अनुभव।

             धनी, निर्धनी का अनुभव।

              नौकरी साक्षात्कार में 

              नौकरी  मिलने न मिलने के अनुभव।

              वाणिज्य में लाभ नष्ट के अनुभव।

                बाढ़ सुनामी भूकंप के अनुभव में 

                हर अनुभव के सुपरिणाम, कुपरिणाम।  

                 शिक्षक बनता है।

               संक्रामक रोग के अनुभव तो बड़ा शिक्षक।

               प्रदूषण के अनुभव भी शिक्षक।

         चित्रपट में विचार प्रदूषण।

         सोचो समझो जानो अनुभव ही शिक्षक।

एस.अनंतकृष्णन, चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक।

[9:39 am, 23/04/2024] sanantha.50@gmail.com: कुएं सूखा नहीं,

 प्रकृति का क्रोध बढ़ रहा है

 आहिस्ते-आहिस्ते।

 समृद्ध भारत कृषि प्रधान भारत 

 नगर विस्तार नगरीकरण 

  भावी पीढ़ी के लिए नरकीकरण।

 कह रहे हैं प्रकृति प्रेमी।

 सद्यःफल विज्ञान मधुशाला की तरह।

 गोरी गली-गली बिकै।

 जीना मरना 

 दुख भूलने पूर्वजों का

 आध्यात्मिक ध्यान में परिवर्तन।

 मधुशाला की ओर आकर्षण।

स्थाई सुख ईश्वर ध्यान।

 अस्थाई  सुख बाह्य माया।

 स्नातक स्नातकोत्तर महाविद्यालय के 

बढते बढते भ्रष्टाचार रिश्वतखोर का

 बढना, मुगलों के आने के पहले

 भारतीय विकास बाद के आधुनिक विकास

 आनन्द किस में?

 Kiss में , चुंबन स्वतंत्रता क्रांति।

 सोचो, समझो, 

धन 

 झूठे हिसाब किताब लिखने में 

 धन

 अपराधियों को बचाने में 

 धन 

 अश्लील गाना लिखने में 

 अश्लील दृश्य दिखाने में।

 धन धन धन 

देखो ,ज़रा तन परिवर्तन 

 तन की शिथिलता 

 तेरा धन कुछ काम का नहीं 

 जवानी न …

[9:39 am, 23/04/2024] sanantha.50@gmail.com: मन मान मर्यादा 

 तीनों शब्द 

 आ सेतु हिमाचल तक।

 मनम् मानम् मरियादै  

 तमिल में।

 धन धनम् तमिल में 

 धन के लिए 

मन बदलना,

 मान-मर्यादा छोड़ना

मातृभाषा के लिए कब्र खोदना,

अंग्रेज़ी माध्यम स्कूल की अनुमति 

 सद्यःफल  आय। 

 देश भक्ति , संस्कृति  भूलना


 ईश्वरीय अपमान 

 मानव सदा दुखी।

 देश की प्रगति में बाधक।

एस. अनंत कृष्णन चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक

[4:43 pm, 23/04/2024] sanantha.50@gmail.com: नमस्ते वणक्कम्।

परिवार दल को,

 किसका प्रणाम?

एस., अनंतकृष्णन चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक  का। 

  विषय 

अनेकता में एकता।

विधा

अपनी भाषा अपनी हिंदी अपने‌ विचार अपनी सोच

 अपनी शैली भावाभिव्यक्ति 

+++++++++++++++++++

 एक सफेद सूत,

 रंग-बिरंगे धागा।

एकता में विविधता।

 अब  विविध रंग।

  विविध रंगों का एक कपड़ा। 

 भगवान एक,

 सृष्टियांँ विविध।

 बुद्धिहीन पशु-पक्षी,

 हड्डी हीन कीड़े मकोड़े।

 मानव में कितने रंग।

 विचारों में कितने रंग भंग।

फिर मानव में एकता का ज्ञान।

 प्रेम देश प्रेम, विविधता भूलकर एकता।

धर्म-कर्म गुण दान वीर।

 पर मज़हब तो अनेक।।

मजहब में ईश्वर अनेक।

 पंचभूत नहीं देखता

 विविधता।

   प्यास , प्रेम,  आत्मज्ञान न तो

 मानव पशु समान।

मानवीय गुण,

नवरस

 दया, ममता, करुणा, अहिंसा,

 ईश्वरीय कानून मृत्यु 

  विविध गुण वाले मानव में 

 एकता के कारण बनते।

 एस.अनंतकृष्णन,

चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक द्वारा स्वरचित भावाभिव्यक्ति।

Friday, April 19, 2024

तमन्ना

सपना कितने-कितने किस्म के। दिवा सपना,जो साकार नहीं होता। ब्रह्म मुहूर्त में सपना कहते हैं जरूर सत्य है, फल मिलेगा। जागते जागते सपना, बड़े उद्योगपति बनने का। नेता बनने का। वैज्ञानिक बनने का। जिसको कीर्तवान चतुर होशियार नामी धनी देखते हैं वैसा ही बन जाने का। जादूगर बनने का। अभिनेता बनने का। जागते जागते सपना। वह तो सपना सपना सपना ही । तमिल के शिव भक्त 64 थे। उनको कहते नायन्मार। उनमें एकते पूसलार। गरीब भक्त। शिव के मंदिर बनाने का सपना। कल्पना में ही मंदिर बन गये। दिव्य मंदिर। कल्पना में ही कुंभाभिषेक।। शिव भगवान की लीला देखिए।। राजा के स्वप्न में पूसलार भक्त के बारे में कहा। राजा पूसलार की खोज में गये। उनकी कल्पना के जैसे ही मंदिर बनवाये। जो भी सपना हो, पूरा होने कठोर प्रयत्न लग्न ईश्वरीय अनुग्रह चाहिए। तभी सपना साकार होगा। स्वर्गीय राष्ट्रपति अब्दुल कलाम कहते थे स्वप्न देखिए। लक्ष्य बनाइए। एस . अनंत कृष्णन, चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक।

Tuesday, April 16, 2024

विचार तरगें

[9:08 am, 15/04/2024] sanantha.50@gmail.com: नमस्ते वणक्कम्। साहित्य परिवार भारत को एस.अनंतकृष्णन का प्रणाम।। विषय --तमन्ना विधा --अपनी हिंदी अपने विचार अपनी भाषा अपने विचार अपनी शैली भावाभिव्यक्ति। १५-४-२०२४. तमन्ना क्या है? आजकल के छात्र से पूछा तो कहा तमन्ना अभिनेत्री। बूढ़े से पूछा तो तमन्ना ? मेरी कामना स्वस्थ तन। ताज़े स्नातक से पूछा, नौकरी। युवति के पिता से पूछा बेटी की शादी योग्य वर से। शादी के बाद सुंदर बच्चे की तमन्ना। हर कोई की तमन्ना/ख्वाहिश/इच्छा/ उम्र के अनुसार बदलती है तमन्ना। भारतीय आध्यात्मिक जीवन तमन्ना रहित जीना। चाह गई चिंता मिटी, जानें कछु न चाहिए वही शाहँशाह।। इच्छा नहीं, ऊँची अभिलाषा आकांक्षा नहीं तो ज्ञान नहीं, जिज्ञासा नहीं तो खोज नहीं, क्रिया नहीं। लौकिक ख्वाहिशें अलक। अलौकिक ख्वाहिशें अलग। साहित्यकार की तम… [4:56 pm, 15/04/2024] sanantha.50@gmail.com: एस.अनंतक‌ष्णन का नमस्कार वणक्कम साहित्य मंच प्रकाश को। विषय --वन-उपवन। காடும் தோட்டமும். विधा --स्वच्छिक मौलिक रचना मौलिक विधा। 27-4-2022. ------------------ वन ईश्वर की सृष्टि। காடு கடவுளின் படைப்பு. उपवन मानव निर्मित। தோட்டம் மனிதன் படைத்தது. मानव ईश्वर निर्मित।। மனிதன் கடவுள் படைத்தது. मानवता मानव ज्ञान निर्मित। மனிதம் மனித ஞானம் படைத்தது. जन्म ईश्वर की देन। பிறப்பு கடவுள் அளித்தது. जीवन में जी और वन है। ஜீவன் ஜீ மனது வனம் காடு जी में सुविचार है तो. மனதில் நல்ல எண்ணங்கள் இருந்தால் मानव की जिंदगी उपवन। மனித வாழ்க்கை ஒரு தோட்டம். जी में मानवता है तो मानव श्रेष्ठ। மனதில் மனிதம் இருந்தால் மனிதன் மேன்மையானவன். जी में पशुत्व हो तो मानव अधम, மனதில் மிருக குணம் இருந்தால் மனிதன் அதமன்.தாழ்ந்தவன். पशु बराबर, भयंकर वन समान।। மிருகத்… [0:14 am, 16/04/2024] sanantha.50@gmail.com: एस. अनंत कृष्णन सेतु रामन का नमस्कार। साहित्य नव कुंभ साहित्य सेवा संस्थान को प्रणाम। चित्रलेखा। शीर्षक --जंग लगी ताला। विधा --अपनी हिंदी अपने विचार अपनी शैली भावाभिव्यक्ति -------++---++++((+(( सुना उर्वरा भूमि सोना उगलती है, आश्चर्य जंग लगी ताला में अंकुर पनप रहा है। आज वैज्ञानिक युग में, छत पर गमलों में पेड़-पौधे खाली फैंके बोतल में भी। तब चतुर मानव आलसी न तो भीख नहीं माँगता। प्रकृति बहुत कुछ देती है हवा मुफ्त जीने के लिए। वर्षा मुफ्त। कृषी प्रधान भारत। बेकारी नहीं सोच समझकर बाग बगीचा उद्यान। जंग लगी ताला में पौधा। प्रेरित करती, प्रोत्साहन देती। मानव! खेती करो, भूमि बोतल भी बन सकता है। जंग लगी ताला भी। एस. अनंतकृष्णन चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक द्वारा स्वरचित भावाभिव्यक्ति कविता। [0:16 am, 16/04/2024] sanantha.50@gmail.com: एस. अनंत कृष्णन सेतु रामन का नमस्कार। साहित्य नव कुंभ साहित्य सेवा संस्थान को प्रणाम। चित्रलेखा। शीर्षक --जंग लगी ताला। विधा --अपनी हिंदी अपने विचार अपनी शैली भावाभिव्यक्ति -------++---++++((+(( सुना उर्वरा भूमि सोना उगलती है, आश्चर्य जंग लगी ताला में अंकुर पनप रहा है। आज वैज्ञानिक युग में, छत पर गमलों में पेड़-पौधे खाली फैंके बोतल में भी। तब चतुर मानव आलसी न तो भीख नहीं माँगता। प्रकृति बहुत कुछ देती है हवा मुफ्त जीने के लिए। वर्षा मुफ्त। कृषी प्रधान भारत। बेकारी नहीं सोच समझकर बाग बगीचा उद्यान। जंग लगी ताला में पौधा। प्रेरित करती, प्रोत्साहन देती। मानव! खेती करो, भूमि बोतल भी बन सकता है। जंग लगी ताला भी। एस. अनंतकृष्णन चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक द्वारा स्वरचित भावाभिव्यक्ति कविता। [0:17 am, 16/04/2024] sanantha.50@gmail.com: नमस्ते वणक्कम्। साहित्य परिवार भारत को एस.अनंतकृष्णन का प्रणाम।। विषय --तमन्ना विधा --अपनी हिंदी अपने विचार अपनी भाषा अपने विचार अपनी शैली भावाभिव्यक्ति। १५-४-२०२४. तमन्ना क्या है? आजकल के छात्र से पूछा तो कहा तमन्ना अभिनेत्री। बूढ़े से पूछा तो तमन्ना ? मेरी कामना स्वस्थ तन। ताज़े स्नातक से पूछा, नौकरी। युवति के पिता से पूछा बेटी की शादी योग्य वर से। शादी के बाद सुंदर बच्चे की तमन्ना। हर कोई की तमन्ना/ख्वाहिश/इच्छा/ उम्र के अनुसार बदलती है तमन्ना। भारतीय आध्यात्मिक जीवन तमन्ना रहित जीना। चाह गई चिंता मिटी, जानें कछु न चाहिए वही शाहँशाह।। इच्छा नहीं, ऊँची अभिलाषा आकांक्षा नहीं तो ज्ञान नहीं, जिज्ञासा नहीं तो खोज नहीं, क्रिया नहीं। लौकिक ख्वाहिशें अलक। अलौकिक ख्वाहिशें अलग। साहित्यकार की तमन्ना अलग। वैज्ञानिकों की तमन्ना अलग। तमन्ना विविध।। सर्वे जना सुखिनो भवंतु। वसुधैव कुटुंबकम् जय जगत। सत्यमेव जयते भारतीय तमन्ना जागते कल्याण। जगतोद्धार। एस.अनंतकृष्णन, चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक द्वारा स्वरचित भावाभिव्यक्ति कविता ।

विचार तरंगें

लिखा है हिंदी में, लिखूँगा हिंदी में लिख रहा हूँ हिंदी में। अनिवार्य दोहा लिखने के प्रयत्न फिर भी राय दोहे की विधा नहीं। कोशिश करके छोड़ दिया। कवि बनना ईश्वरीय वरदान। विधा है अपनी भाषा अपनी हिंदी अपने‌ विचार अपनी शैली भावभिव्यकति। छंद बंद रखना, विचारों की धारा मैं बाँध बनाना। दोहे लिखना आसान। पर न १३,११ मात्राएँ सही नहीं बैठता। अनिवार्य दोहा शैली। प्राचीनता की रक्षा। न पैदल चलतै हैं, न घुड सवार, न बैलगाड़ी न घोड़ा गाड़ी न पैर गाड़ी न हिंदी भारतीय माध्यम पाठशालाएँ न गुरु कुल, न चोटी न धोती। न राजतंत्र न दीवान। लोकतंत्र न ईमानदारी भ्रष्टाचारी अपराधी ३०% सांसद विधायक। २०% विपक्षी दल,१०% गिरगिट दल २०%प्रधान दल मतदाता में ३०% मत नहीं देते७०% में पैसे लेकर खोट देने वाले। अपने दल के नेता अपराध करें फिर भु समर्थन। देश की चिंता सच्चे सेवक है ईश्वरीय शक्ति है पर पुरानों में आसुरी शक्तियों के शासन। देशद्रोही इधर उधर फिर देशोन्नति। इस आध्यात्मिक शक्ति ईश्वर की सूक्ष्म लीला। साहित्य में भी सुधार दोहा कबीर की भाषा तुलसी अवधि , सूर व्रज विद्यापति मैथिली। आज खड़ी है खड़ी बोली। स्वतंत्रता से लिखने देना तभी भाषा का विकास। न मैं गिनता मात्राएँ अपने मनका भाव अभिव्यक्ति। इसको भी चाहती जनता। एस.अनंतकृष्णन, चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक।

Saturday, March 23, 2024

सनातनवेद

2601.सब के प्रिय के पात्र बनने के लिए निश्चय ही अनेक हजार जन्मों का पुण्य करना चाहिए । मन आत्मा को अस्पर्शित लोगों को जानवर भी न चाहेगा।उसी समय जिंदगी भर एक क्षण भी त्रिकालों में स्व रूप आत्मा को जो नहीं भूलता, उसको सभी जीव ,पौधे,लताएँ आदि भी प्रणाम करेंगे। यह जीवन सबके पसंद का जीवन ही है ।उसके लिए एक मात्र मार्ग अद्वैत ज्ञान मार्ग का अनुकरण करके भगवान के स्मरण में जीना ।वही नहीं भगवान के लिए जीकर सबको ईश्वर के रूप में देखकर ईश्वर के बिना संसार में कुछ भी नहीं है की ज्ञान दृढता पाना।जिस देश में,जिस कुटुंब में, ऐसी ज्ञान की दृढता को व्यवहार में लाते हैं,वहीं परमानंद का वासस्थान अनिर्वचनीय शांति की खेती होगी। 2602.आत्मज्ञानी अज्ञानियों को उनके कल्वाण के लिए अपमनित करने पर उनको अज्ञानी पर क्रोध होगा। अज्ञानी विषय लाभ उठाकर स्वल्प संतोष पाने पर भी उस संतोष के कारण होनेवाले दुख से मानसिक पीडा होने के कारण विषय विरक्ति होकर आत्मज्ञान प्राप्त करने के प्रयत्न में लगेंगे। विषय दुख के आने के बाद ही ज्ञानियों का महत्व मालूम होगा।वे ज्ञानियों को सम्मानित करके उनको अनुकरण करने का प्रयत्न करेंगे। 2603 . जो सोचते हैं कि दूसरों के गुणों की प्रशंसा करने से अपना नाम बिगड जाएगा, उनको यह मालूम नहीं है कि वे अपने महत्व को अपने आप घटा रहे हैं। कारण उनमें आत्म ज्ञान नहीं है। आत्मज्ञान के बारे सही जानकारी न होने से लोग सोचते हैं कि आत्मज्ञान एक आश्चर्य की वस्तु है,उसको सीख नहीं सकते।वह तो बुजुर्गों के लिए है।जवानी में इच्छाओं को बढाकर जीना चाहिए।हर एक जीव को उनकी अपनी निजी सुखों को,सभी स्वतंत्रता, सब प्रकार की शांति ,स्नेह-प्यार .यह आत्मा का स्वभाव मात्र नहीं,वह अपनी अहमात्मा ही है। यह अहमात्मा ही मैं का बोध है।वह बोध के कारण ही सब कुछ होते हैं।उस बोध के कारण इस अखंड प्रपंच को देखते हैं। अखंडबोध ही ज्ञान की दृढता बनाती है।उससे बढकर धर्म इहलोक और परलोक में और कोई नहीं है। 2604.अनंत,अनादि,स्वयं अनुभव आनंद आत्म स्वरूप ब्रह्म अपने आप प्रकट होकर आना ही मोक्ष है। उनके आने से रोकने के लिए राग-द्वेष,काम-क्रोध आदि विविध विषय-वासनाओं को लेकर स्वच्छ मन को मलीन करके भेद-बुद्धियों को बनाकर संकल्पों को माया अपने सहज स्वभाव के कारण बढाते ही रहेंगी। उस चित्त को परमात्मा का प्रतिबिंब बोध जीव रूपी मन को अपने विवेक से चित्त गति का अनुसरण न करके सत्य-असत्य,असल-नकल के अंतरों को जान-पहचानकर प्रतिबिंब बोध रूपी जीव मैं को ही यथार्थ स्वरूपी अखंड को भूलकर इस पंचभूत के तंग पिंजरे में अज्ञानी के रूप में ही रहते हैं। उस नकल जीवन से मुक्त होकर जीव भाव भूलकर नित्य निष्कलंक परमात्मा ही अपने यथार्थ स्वरूप की बात को मन में स्थिर रखकर ,मन के मलों को आत्म बोध द्वारा निर्मल बनाकर सत् ,चित् ,आनंद अर्थात सच्चिदानंद के रूप में जीना चाहिए। 2605.इस ब्रह्मांड का आधार स्तंभ बोध ही है। अर्थात मैं के अखंड बोध के बिना और कोई ब्रह्मांड नहीं है। मानव के मन में इस अखंड बोध के उदय होते ही उस जीव को विवेकपूर्ण रूप से कार्यान्वित करके जीने पर जीव का भाग्योदय होगा।सिवा इसके स्थान,कुल,के जन्म के अनुसार भाग्योदय न होगा। कारण जीव की सभी इच्छाएँ अखंड बोध के स्वभाव मात्र ही है। 2606. भूमि से कई गुना बडे सूर्य को एक छोटा-सा काला बादल छिपा देता है।वैसे ही आदी-अंत रहित ब्रह्म को यह शरीर छिपा देता है।सर्वव्यापी परमात्मा अनंत और अज्ञात है अतः उसे छिपाने के लिए दूसरा कोई अनंत न बनेगा। वह अपनी शक्ति माया दिखाती इंद्रजाल को देखने का भ्रम ही है। उस भ्रम को बदलकर मैं ही ब्रह्म की अनुभूति करना ही मोक्ष होता है।उसके लिए ब्रह्म ज्ञान ही मार्ग है। 2607. एक माता अपने बच्चे को किसी भी हालत में नहीं कहेगी कि बच्चा अपना नहीं है,भले ही वह अति क्रूर हो, बच्चे को मारती पीटती हो।वैसे ही उससे बढकर आत्मज्ञानी गुरु अपने शिष्य के साथ रखता है।हर एक जीव के शारीरिक रूप में परमात्मा ही है।अखंड बोध अपनी शक्ति माया का भाग ही है वह। केवल वही नहीं अखंड बोध के प्रतिबिंब बनकर ही उस जीव में मैं का बोध होता है।वैसे ही प्रपंच के सभी रूपों में अपनी शक्ति माया का वैभव ही है।उसको प्रकाशित करनेवाला मैं बननेवाला अखंडबोध प्रकाश ही है।इस ब्रह्मज्ञान की अनुभूति लेकर ही सद्गुरु रहते हैं।इसीलिए हर एक जीव अपने माता-पिता से सद्गुरु को श्रेष्ठ मानकर निस्संगता से प्यार करते हैं। 2608. मानव किसी एक महारोग से पीडित हो जाता तो उसकी अपनी सारी इच्छाएँ अस्त हो जाएँगी।उस रोग से मुक्ति होने की चिंता के अतिरिक्त और कोई चिंता के लिए मन में स्थान न रहेगा। और कोई चिंता बल न पकडेगी। जो इस बात को जानते हैं, वे ईश्वर को प्रधानता देते हैं। उनमें शरीर से प्राण बिछुड जाने को जानने की कला ज्ञान की खोज करने का उद्वेग होता है। 2609. रूप हीन पवित्र मन रूपवान पंचेंद्रिय विषयों में लगने पर अपवित्र हो जाएगा।उसका नाश सत्य है का सोच न होना ही दुखों के कारण बनते हैं। मन आत्मा में लगने पर बलशाली बनेगा।मन बाहर भटकेगा तो दुर्बल हो जाएगा। मन नाम रूपों के कारण बल रहित होने पर दासत्व बन जाएगा। दासत्व पराधीन बना देगा । इसलिए स्वतंत्रता से,शक्ति से सांसारिक जीवन बिताने के लिए मन को आत्मबोध से एक क्षण भी न हटाकर सभी कर्मों को निस्संग करना चाहिए। 2610. सर्वव्यापी ,निर्गुण ही आत्म का स्वभाव होगा। आत्मा एक रस होकर निरूपाधिक रहने पर आत्मा परमानंदित रहेगा। वह माया के कारण शोभाधिक के कारण अनेक विषयों के आनंद को भोगें तो उसको विषयानंद कहते हैं। 2611. जब सच बोलते हैं, तब भगवान की आशीषें मिलेंगी। झूठ बोलते समय मिली आशीषें भी नष्ट हो जाएँगी।उसका कारण सत्य बोलते समय मन आत्मा की ओर ,झूठ बोलते समय मन अहंकार की ओर जाता है। कहाँ शांति है? कहाँ अशांति है? वहाँ जाने का पता मानव जानता नहीं है । यही मानव के दुखों का मूल कारण होता है। मानव को पता लगाना चाहिए कि जहाँ जाने से शांति मिलेगी? वहाँ जाकर जीवन चलाना चाहिए। सही स्थान का पता न लगाकर दूसरों पर मीन मेख लगाने से जिंदगी भर दुख सहना ही पडेगा। 2612. जो सर्वस्व संसार को,संसार की सृष्टियों को ब्रह्म के रूप में देखता है,उस के लिए सत्य-असत्य कोई भी नहीं है। ब्रह्म दर्शन में स्वयम् ब्रह्म के रूप में रहने से दूसरा कोई दृश्य न होने से भेद बुद्धि न रहेगी। भेद बुद्धि न होने से मन निर्विचार निश्चिंत ही रहेगा।इसीलिए किसी को विभाजित करके देखने की आवश्यक्ता न होगी।इस स्थिति में ही ब्रह्म के सहज स्वभाव का परमानंद सहज ही मिल जाता है। 2613. एक जीव अनेक हजार जन्मों को पार करके इस माया सागर से बचकर किनारे पर लगाने का एक नाव ही यह मानव शरीर। वैसे ही अनेक मनुष्य शरीर का जन्म लेकर ,जिन दुखों को भोगना है ,उन सबको भोगकर अंत में ही यथार्थ स्वरूप ,इस शरीर के , इस प्रपंच का मूल आधार स्थंभ अखंड बोध ही है की अनुभूति होती है।उस स्थिति में अखंड बोध की भावना करके सुदृढ बनाने के लिए इस रूपात्मक प्रपंच के हर एक रूप को देखते समय आकाशमय ही दीखेगा। उस प्रकार ही सभी रूपात्मक प्रपंच को आकाशमय देखकर आकाश से भी सूक्ष्म चिताकाश स्वरूपी अखंड बोधात्मा की अनुभूति करनी चाहिए। 2614. वह स्त्री पतिव्रता है,जो अन्य पुरुष को अपने निकट आने नहीं देती। अपनी पतिव्रता धर्म को समझाने का प्रयत्न ही अन्य पुरुष को अपने निकट आने न देना।पतिव्रता का मन केवल भगवान पर केंद्रित रहता है। संग करने से मन में राग-द्वेष होते हैं।भेद बुद्धि बनती है।माया के संकल्प से अपनी सुरक्षा के लिए ही अन्यों के संग को वह इनकार करती है।वैसी औरत जो कुछ देखें या सुने,अपने पति बने अहमात्मा से एक पल भी न हटकर मन निश्चल होकर सभी कार्यों में मन लगाती है। जो पतिव्रता है उसके लिए असाध्य काम कोई नहीं है।वह अपने पैरों से खडे होकर ही उसे समझाती है।वह खुद आदी पराशक्ति ही है। 2615. स्त्री आत्मज्ञान सीखकर आत्मा रूपी पुरुष बनने के प्रयत्न में लगते समय ही पुरुष का अनुसरण करने लगेगी।यथार्थ पुरुष आत्म ज्ञानी ही है।वैसे आत्म ज्ञानी रूपी स्वात्मा निश्चित पुरुष का अनसरण न करनेवली स्त्री के रहते उसका लक्ष्य ज्ञान नहीं ,अज्ञान ही है। अज्ञान का मतलब है ,अरूपी अखंड बोधात्मा में उदय होकर अस्त होनेवाला माया संकल्प रूपी नाम रूप विषय रूप ही है। उन लौकिक रूप विषयों के भ्रम में जो रहते हैं,आत्मा का स्वभाव शांति और नित्यानंद को भोग नहीं सकते। 2616. कोई एक व्यक्ति अभ्यास और वैराग्य से आत्मज्ञान सीखकर आत्म उपासना करने लगते समय उसमें मन रहता है। मन हमेशा किसी एक रूप में मिलकर ही रहेगा।कोई न कोई रूप के बिना मन स्थित नहीं रह सकता।इतनी जानकारी से ही एक आत्म साधक को रूप रहित आत्म स्थिति को पाने में बाधा डालनेवाले मन को अति सरलता से मिटा सकते हैं।कारण रूप अस्थिर होता है। वह शास्त्र सत्य है। यह शास्त्र सत्य बुद्धि में स्थिर होने के साथ ही उसका मन रूप की चाह में न जाएगा। स्थाई आत्मा सर्वव्यापी होने से दूसरी कोई वस्तु बन नहीं सकती। दूसरी कोई एक वस्तु न होने से माया मन संकल्प नहीं कर सकता।अर्थात प्राणन चल न सकने से मन मन दबने के स्थान में बोध अपने एकांत में चमकेगा। अकारण ही बोध शक्ति बोध को छिपा देने से ही मन, मानसिक कल्पना रूपी प्रपंच है सा लगेगा। बोध भ्रम में पड जाएगा।इसलिए विवेक द्वारा बोध को बिना तजे रहना ही मोक्ष होता है 2617. सर्व व्यापी आत्मा शरीर को स्वीकार करते समय शरीर में जो ज्ञान है,वह सीमित जीवात्मा के रूप में परिवर्तित हो जाता है। तभी जीव को भेद बुद्धि के कारण “मैं”,”मेरा अपना” “तुम,तुम्हारा” जैसे हम जिस दुनिया को देखते हैं,वह दुनिया होगी। आत्मज्ञान द्वारा जीव शारीरिक बोध रहित होने पर आत्मबोध में जाने पर सीमित “मैं” असीमित हो जाएगा। तभी ”मैं” सर्वव्यापी का अनुभव होगा।तब तक मैं,तुम और संसार रहा।जब “मैं” सर्वव्यापी का अनुभव होता है,तब सीमित जीव का प्रतिबिंब जीव बोध छोडकर असीमित अखंड बोध अनुभव के आते ही जीव रूपी “ मैं”, जीव देखनेवाला “तुम” और “संसार” अखंड बोध में मिट जाएगा। 2618. भ्रम छूटने पर “मैं”ब्रह्म हूँ । भ्रम मन को ही है।जब तक मन रहेगा,तब तक मृत्यु रहेगी। मन के मरते ही मृत्यु भी मरेगी। मृत्यु होने की दशा ही मोक्ष है| 2619. अपने से अन्य रूप में देखनेवाले सबके सब असत्य है। जो इस बात का महसूस करता है,वही सत्य है। उसको मालूम है कि केवल वही है। 2620. कोई एक आदमी किसी एक आदमी से प्यार करते समय अन्य स्त्रियों की याद न रहेगी। वैसे आने पर वह प्यार नहीं है। वैसे ही एक भक्त को भगवान से प्यार करते समय अन्य विषयों की यादें आने पर वह भक्ति नही है। लेकिन अन्य यादों में भी भगवान के दर्शन होने पर ही भक्ति पूर्ण होती है। अर्थात शारीरिक याद रहें तो अन्य यादें होगी। यथार्थ प्रेमी में काम वासना न रहेगी। इसलिए अन्य यादें भी न रहेंगीं। 2621. अध्यापक हो या आचार्य हो माता-पिता हो या समुदाय ,मजहब हो या राजनीति या विज्ञान दैनिक जीवन के सुख-दुख से मुक्त होकर शांति प्राप्ति की शिक्षा को बचमन से ही देे से ही हम,हमारा परिवार ,देश,संसार आदि शांति उगाने की खेती बनेगी। उसके लिए एक मात्र मार्ग वेद, उपनिषद,पुराण ,विज्ञान आदि को बचपन से ही सिखानेवाले गुरु कुल संप्रदाय की शिक्षा व्यवस्था के लिए देश भर के प्रशासकों को, सरकार को नियम बनाना चाहिए। ऐसे नियम बनाना चाहिए कि शासक बदलने पर भी नियम न बदलना चाहिए। कारण पुराणों और शास्त्रों में युक्ति से न जुडे कहानियाँ और संभव है । उन सबको सत्य को समझाने के लिए ही महात्माओं ने बनाकर लिखा है। इस बात को समझकर सनातन सत्य उपनिषद के महा वाक्यों को बचपन से ही सिखाना चाहिए। बच्चों की बुद्धि में दृढ रूप में मुख्यत्व देने के लिए देश के शासकों को भी पालन करना चाहिए। क्योंकि उनके विपरीत ही ब्रह्म शक्ति महामाया देवी अनादी काल से कार्य कर रही है। इस शास्त्र सत्य जब समझ में आता है, तभी माया के द्वारा बनाये दुखों को सहकर सत्य को महसूस करके निस्संग स्वात्मा के सहज स्वभाव आनंद को भोगकर सब जीवन बिता सकते हैं। असत्य का पालन करनेवाले देश और प्रजा दरिद्रता का,अशांति का,दुख का ही भोग सकते हैं। वे शांति और आनंद को स्वप्न में भीभोग नहीं सकते।यही शास्त्र सत्य है। 2622. संकीर्ण मन लेकर आत्म विचार करते समय मन का विकास होगा।मन के विकास होते समय रूपरहित अखंडबोध होगा।वह अखंड आत्मबोध ही “मैं” बनता है।यह अनुभूति ही उसके सहज स्वभाव परमानंद का अनुभव करेगा। 2623. पुरुष हो या स्त्री जो भी हो, वे परस्पर स्थाई प्रेम को ही चाहते हैं। लेकिन प्रेम स्थाई आत्म स्वरूप ही है। वह हर जीव में सर्वव्यापी ही है। जिस दिन में एक जीव महसूस करता है कि प्रेम लेन-देन की वस्तु नहीं है,तभी वह प्रेम को नहीं चाहेगा,दूसरों से प्रेम की प्रतीक्षा न करेगा। चाहकर मिलना प्रेम नहीं,स्नेह ही है। वह सीमित है,नश्वर है। लेकिन प्यार अनश्वर है।यथार्थ प्यार आत्मा बने भगवान ही है।वह सब में एकरस, एक बनकर ही रहेगा।इसीलिए ही कहते हैं कि भगवान प्रेम है। 2624. संभोग के बाद घृणा और दुख के आने के कारण,सुख का स्थान गलत होना ही है। सत्य में सुख का स्त्रोत आत्म बोध ही है। जननेंद्रिय पाप कार्य नहीं करते।शरीर और इंद्रियों को सत्य सोचना ही पाप होता है। इंद्रिय सुख, शरीर,शारीरिक इंद्रिय त्रिकालों में नहीं रहते। पर है का अनुभव होगा ही। ये सब केवल दृश्य मात्र ही होगा। दोनों शरीरों का आधार ,संसार के लिए सत्य परम कारण स्वरूप अखंड बोध ही है। वही सत्य है,नित्य है,परमानंद स्वरूप है।इसे जानन-समझकर महसूस करके पारिवारक जीवन चलाने पर ही दंपतियों का जीवन शांति और आनंदपूर्ण होगा। २६२५.2625 अपने से अन्य किसी वस्तु को सोचने पर ही मैं शून्य बन जाता है। अपने से अन्य किसी को न देखने से ही मैं नेता बनता है। शून्य माया है। नेता ही भगवान है।. 2626 संसार में तीन स्तर के लोग जी रहे हैे।एक तरह के लोग है जो अनुसंधान कर्ता हैं, वे प्रत्यक्ष बातों पर ही विश्वास रखते हैं। वे हर एक वस्तुओं की खोज करके उसके मूल उत्पत्ति स्थान का पता न लगाने से उसकी खोज करने में जागृत रहते हैं।प्रपंच और प्रपंच को अनुसंधान करने का परम कारण अखंड बोध आत्मा ही है। उस बोध के बिना कोई अनुसंधान नहीं कर सकता। यही सत्य है। उस बोध में ही प्रपंच उभरते लगनेवाला ऊर्जा शक्ति का उत्पत्ति स्थान है।इसे बताने के लिए शोध कर्ता हिचकते हैं। लेकिन वेदांती ही इस बात को दृढ रूप में कहते हैं कि इस प्रपंच के बीच, जीवों के बीच परम कारण मैं रूपी अखंड बोध ही है। यह स्थाई सत्य है। उस बोध में दीख पडनेवाली माया दिखानेवाला यह प्रपंच ही इंद्रजाल है। दूसरे स्तर के लोग इस संसार की और जीव की सृष्टि कर्ता भगवान को मानते हैं।उनको दृढ विश्वास है कि हित करनेवालों को स्वर्ग और अहित करनेवालों को नरक मिलेगा। वे किसी प्रकार की खोज नहीं करते।अपने सभी जिम्मेदारियों को भगवान के हाथ सौंपकर दुखी जीवन बिताते हैं। ये ही भौतिकवादी होते हैं।उसी समय आध्यात्मिक लोग नित्य अनित्य को पहचानकर जगत मिथ्या,ब्रह्म सत्य ,वह ब्रह्म मात्र सत्य ,वह ब्रह्म मैं ही सत्य है का अद्वैत बुद्धि में ब्रह्म का स्वभाव परमानंद की अनुभूति करके स्वयं आत्मा का साक्षात्कार करते हैं। 2627 ब्रह्म स्वरूपी भगवान मात्र ही शाश्वत है। बाकी सब उनसे उत्पन्न होकर उसी मे स्थिर रहकर उसी में विलीन हो जाते हैं।वह अपने आप से आश्रित रहता है।मैं उससे आश्रित नहीं रहता। अर्थात भगवान ही इस प्रपंच रूप में परिवर्तित होते हैं। रूप हीन अखंड रूपी भगवान अपने को ही तोड-तोडकर इस प्रपंच को बनाते नहीं है। अपनी शक्ति माया के द्वारा संकल्प करके ही सृष्टि करते हैं। पुराण में विश्वामित्र त्रिशंख नामक राजा की इच्छा पूर्ति के लिए राजा को सशरीर अपनी तपःशक्ति के द्वारा स्वर्ग भेजा था। लेकिन मनुष्य रूप में सशरीर स्वर्ग आये राजा को नीचे धकेल दिया। राजा ने फिर विश्वामित्र से विनती की तो विश्वमित्र ने उन के लिए एक अलग स्वर्ग को ही बना दिया। वही त्रि शंख स्वर्ग है। उस स्वर्ग के लिए आवश्यक सभी सुविधाओं को अपनी संकल्प शक्ति द्वारा बना दिया।एक योगी को ही इतनी शक्ति है तो इस ब्रह्मांड को,इस विश्वामित्र को,सभी सृष्टियों को सृष्टित अखंड बोध ब्रह्म जितनी होगी,यह तो सोच के पार की अति सूक्ष्म बात है। भगवान तो एक पल में एक बहुत बडे ब्रह्मांड की सृष्टि कर सकते हैं। यही भगवान की,भगवान की शक्ति माया देवी की आपसी लीला होती है। भगवान और भगवद्शक्ति मायादेवी अखंड बोध अपने से अन्य नहीं है।यह अनुभूति ही अद्वैत ज्ञान है। यह अद्वैत ज्ञान ही सभी दुखों का अंत करता है। 2628. इस माया को वही जीत सकता है,जो दुख विमोचन की मुक्ति पाने के लिए लोक युक्त ज्ञान,आराधना,स्वतंत्र रहित मतांतर के पीछे न जाकर ऋषि-मुनियों के द्वारा रचित वेद -उपनिषदों में मन लगाकर अपने आपको विवेकशील बनाकर स्व आत्म निश्चय के साथ जागृतियाँ पाकर इस संसार और जीवों के बीच परम कारण रूप अखंड बोध में बदलनेवाले मु्क्त बनता है। अर्थात अखंड बोध मैं ही के ज्ञान में दृढ व्यक्ति ही माया के दुख रहित परमानंद में मग्न रह सकता है। 2631. अपने आप को जानना-समझना ही आध्यात्मिकता है।आत्म तत्व का अर्थ है “मैं”ही की अनुभूति होना।उसके निर्णय के बिना देहाभ्यास करना, शारीरिक यादें रखना आदि में नहीं है।आत्म भावना को दृढ बनाने के लिए ही यादों का प्रयोग करना चाहिए। हमारे संपूर्ण स्मरण सर्वव्यापी अरूप परमात्मा ही “मैं” की अनुभूति के लिए रखना चाहिए।कारण परमानंद स्वभाव अखंड बोध अपने को भूलकर संकल्पों को बनाकर दुखों का पात्र बनाना नामरूपी माया ही है।अपने अखंड को विस्मरण कराकर वह माया रूप खंड बनाकर दुख का पात्र बनाएगा। इस सत्य को स्वीकार करें या न करें सत्य सत्य ही रहेगा।जो स्वीकार करते हैं,उन के लिए सुख होगा।जोअस्वीकार करते हैं, उन के लिए दुख होगा। 2630 मनुष्य जीवन केवल दुख से भरा जीवन है।पर दुख से मुक्ति के लिए कैसे काम करना चाहिए? इसका उत्तर यही है कि मानसिक पीडा एक संकल्प मात्र ही है। इसकी जानकारी मिलते तक कष्ट भोगना ही पडेगा। उस मानसिक रोग को दूर करने के लिए विवेक का उपयोग करना चाहिए। “मैं” मन,बुद्धि,प्राणन,शरीर,संसार,अहंकार,पंचेंद्रिय,अंतःकरणआदि सब कुछ नहीं है। “मैं”, इन सब के गवाह के रूप है, इन सबको जानने का ज्ञान रूपी आत्मबोध ही है के ज्ञान को बुद्धि में दृढ बनाकर,आत्मा के सर्वव्यापकत्व की भावना करके आत्माग्नि द्वारा मन छिपने के साथ मन की कल्पना के दुख का रोग मिट जाएगा। अर्थात मन बोध के संकल्प शक्ति बन जाती है। सुख-दुख के अपार ही परमानंद है।वहाँ द्वैत्व नहीं है। अद्वैत के सत्य मात्र ही है। 2631. सभी प्रश्न और संदेह अपने से ही बनते हैं। सभी प्रश्नों के उत्तर सुनकर संतुष्ट होनेवाला भी मैं ही है।यह “मैं हूँ” का अनुभव ही है। बुद्धि रूपी बोधात्मा पहले पंचभूत रूपी पिंजडे को प्रयोग करके ही सब कुछ जानते हैं। इस पंचरूप के पिंजडों के बीच में ही बहिर्मुखी और अंतर्मुखी रूप में घडी के लोलक जैसे बोध की संकल्प शक्ति की मनोमाया स्पंदन करते रहते हैं।मन पंचेंद्रियों में मिलकर बाह्य जगत को देखते समय उसमें नाम रूप, उनमें भरी अनुभूतियाँ, उन अनुभूतियों में भरे न्यूट्रान,एलक्ट्रान,प्रोटान ही हैं। इनके चलनों के अनेक प्रकार के पहलू ही जड रूपी इस ब्रह्मांड भर में किसी की बुद्धि की समझ में पहुँच नहीं सकते।उसी के कारण ही विवेक से सभी जड पदार्थों को बुद्धि से जान- समझकर देखते समय चलन शक्ति बननेवाले प्राण तक ही बुद्धि की पहुँच तक ही जा सकता है।इस चलन को जानने के लिए चलन रहित एक स्थान चाहिए। वह स्थान ही “मैं”नामक आत्मबोध होता है। उस बोध को मिले बिना शरीर,मन,बुद्धि प्राणन आदि स्थिर नहीं रह सकते। बोध अपनी शक्ति माया मन को उपयोग करके संकल्प न करें तो यह ब्रह्मांड नहीं रहेगा। इस ब्रह्मांड भर में बोध से अन्य माया के द्वारा दीखनेवाले सभी प्रपंच घटनाएँ,शारीरिक अंग,बोध से स्वयं स्थिर न खडे रहनेवाले सब स्वप्न चित्र ही है।चित्रपट में चित्र समाप्त होते ही पट मात्र ही स्थाई रहेगा। चित्रपट के दृश्य जैसे बिजली के रुकते ही सभी अद्भुत दृश्य दीख नहीं पडते।वैसे ही खंडबोध आत्मज्ञान द्वारा अखंड बन जाने के साथ ही सभी प्रपंच के अतिषय ओझल हो जाएगा। अखंड बोध मात्र स्थाई रहेगा। वह अखंड बोध ही “मैं” नामक सत्य है। 2632. हर एक दिन एक आदमी अपराध करता ही रहता है। अपराध या कसर का कारण उसमें आत्मबोध नहीं है।अर्थात अपनी अनुभूति के बिना कल्पना लोक में रहता है। इन कल्पनाओं के कारण जब वह दुखों को भोगता है, तब वह नहीं जानता कि कल्पनाएँ ही दुखों के कारण होती हैं। दुख के कारण न जानना ही अज्ञानता है। इसलिए दुख विमोचन करनेवाला मोक्ष पाना जो चाहता है,उसको आत्मज्ञान सीखना चाहिए।उस आत्म ज्ञान की अग्नि में ही दुख देनेवाली कल्पनाएँ जलकर भस्म हो जाएँगीं। 2633. खोज में ही बडी खोज शरीर और प्राण में कोई संबंध नहीं की खोज का प्रयत्न ही है। कारण इस संसार में दो मुख्य बातों को जानना काफ़ी है। एक जड है। दूसरा बोध है। ये दोनों प्रकाश और अंधेरे के समान है।प्रकाश से अंधेरा न होगा।अंधेरे से प्रकाश नहीं होगा। अंधेरे का स्थित रहना प्रकाश की कमी के कारण है। प्रकाश की कमी के कारण जड ही है। जड को विवेकता से देखते समय मालूम होगा कि जड कर्म है,कर्म चलनशील है,चलन अखंड बोध से कभी नहीं होगा।निश्चलन बोध में कोई चलन न होगा। वैसे ही अखंडबोध बने परमात्मा के पूर्ण प्रकाश में जड रूपी अंधकार का कोई स्थान न होगा।अखंड बोध बने पूर्ण प्रकाश ही नित्य सत्य परमानंद स्वयं अनुभव आनंद से मिलकर रहते हैं। 2634 वस्तुओं के ज्ञान बढाने की साधना से बढकर विज्ञान विभाग के बढिया अनुसधान मे और कुछ नहीं है। उसी समय आत्मीक रूप में समझना चाहिए कि स्वर्ग और नरक की रचना उनका मानसिक संकल्प ही है। इसलिए मन को वस्तुओं से भिन्न स्थिति को लाने के प्रयत्न के सिवा रूप वस्तुओं में मन को लगाना नहीं चाहिए। मनके संकल्प का बंधन ही यह प्रपंच है।वही दुखों के कारण बनते हैं। इसलिए इस प्रपंच के दृश्य से बोध को मुक्त करने के लिए संकल्प बनानेवाले मन के बोध को अखंड बोध से मिटा देना चाहिए। बिना बोध के दूसरा कोई चलन न होगा। 2635. जवन में मनुष्यों की आवश्यक्ताएँ जैसे भूख-प्यास,गरीबी दूर करने के धंधे ,कृषी,राजनीति,पंचभूतों की सुविधाएँ,सब के लिए आवश्यक ज्ञान,धन की सुविधाएँ,आदि बनाने का लक्ष्य ही शासकों को होना चाहिए। यही एक देश के राजा कर रहे हैं।लेकिन मनुष्य अपने शारीरिक सुख प्राप्त करके संतुष्ट होनेवाला नहीं है। उसको मानसिक शांति चाहिए। बिना शांति के शारीरिक सुख आनंद नहीं देगा। 2636. संसार में जिसको शासन करने की योग्यता नहीं है,उनके ज्ञान शास्त्र के उपदेश लोग नहीं सुनेंगे।उनको कार्यान्वित करने तक मनुष्य की आयु समाप्त हो जाएगी।इसलिए शासकों और मंत्रियों को शास्त्रों का ज्ञान -विज्ञान का ज्ञान होना चाहिए। उस के लिए निस्वार्थ जीवन बितानेवाले प्रतिनिधियों को चुनना चाहिए। जिन शासकों में कुटुंब,जाति-धर्म-मज़हब,संप्रदाय का प्रेम भरा है,उनके राज्य में प्रजा सुखी और साआनंद नहीं रहेंगे।तटस्थ अभेद रहित शासक ही संपूर्ण प्रजा के लिए शासन करेंगे।तभी देश के नागरिक साआनंद से, चैन से रहेंगे। तभी राजा/शासक में प्रेम और स्नेह बढेगा। 2637. भगवान ने ही माया शरीर लेकर सर्वस्व त्याग किये ऋषि-मुनि बनकर उनके द्वारा ही जीवों में होनेवाले जीवन के चरित्र को कई स्थानों में रचित ऱखा है। दीर्घ दर्शी विवेकी ही जीवन में साक्षी बनकर संसार को केवल प्रदर्शिनी की वस्तु बनाकर निस्संग के रूप में जी रहे हैं।जिन्होंने आत्मा को न समझा,वे ही संघर्षमय जीवन बिताते हँ। अर्थात एक भगवान ही अनेक बनकर अपने योग माया माया शतरंज का खेल खेल रहा है।लेकिन भगवान रूपी अखंड बोध में माया दिखानेवाला प्रपंच जाल वास्तव में नहीं है। सबके कारक अखंड बोध मात्र नित्य है,सत्य है।परमानंद के रूप में शाश्वत है। जहाँ भी दो देखते हैं,वह भ्रम ही है। ब्रह्म एक है। वही सत्य है।वही “मैं” को दृढ बनानेवला कर्म है।मानव धर्म है। बाकी धर्म सब इस के लिए मात्र रहना चाहिए। 2638. जो माया के नशे का दास बन जाता है, उसको मृत्युु तक माया न छोडेगी। जो माया सेे आकर्षितत नहीं होगा, उसकेे पाद की आरधना करने के लिए प्रकृतीश्वरी प्रतीक्षा करेगी। 2639. जितना भी अत्यधिक ज्ञान हो,किसी के प्रारब्ध के अनुसार ही उसका असल स्वभाव प्रकट होगा। लेकिन प्रारब्ध जैसा भी हो आत्मज्ञानी सद्गुरु के निरंतर संसर्ग से कर्म फल को मिटा सकते हैं। उसके लिए भी एक पुण्य कर्म कर चुकना होगा।वह पुण्य इस जन्म में महसूस करते समय ही गुरु दर्शन साध्य होगा। 2640 एक शिष्य के प्रश्न सब, गुरु की आत्म दशा को दृढ बनाता रहेगा। उस गुरु के शिष्य परंपरा ही सांसारिक दुखों के विमोचन के लिए मार्ग दिखाएगा।लेकिन उसकी भी एक सीमा होगी। “मैं” ही गुरु है।”मै” से ही सारे ज्ञान का उदय होता है। “मैं “ही सब कुछ है। वैसी अ्नुभूति होना ईश्वर की खोज की अंतिम स्थिति होती है। 2641. कली खिलने के समान ही अपूर्ण और पूर्ण की प्रकृति की क्रिया होती है। वही प्रकृति की नियती है। वैसे ही माता-पिता बच्चों से, गुरु अपने शिष्यों से सहजता से व्यवहार करते हैं। वैसे ही सभी जीवराशियोंं से व्यवहार करते हैं। जो जीव प्रकृति की योजना देखकर निस्संग,निर्विकल्प,दृष्टा के रूप में होते हैं, वह दृष्टा ही सदाा शिव बनकर मगल रूप में है। 2642. अविश्वास में ही अहं आत्मसूर्य प्रकाश होते समय बाहर रहनेवाले सूर्य पर विश्वास हो या अविशवास हो फिर भी संदेह होना सहज ही है।अहं में आत्म सूर्य ही बाहर के सूर्य को प्रकाशित करने का ज्ञान है के विचार आते ही संदेह दूर नहीं होगा। 2643 बंधन के विमोचन ही मुक्ति है। ब्रह्म के लिए मुक्ति की आवश्यक्ता नहीं है। क्योंकि सर्वव्यापी ब्रह्म को बंधित करने के लिए ब्रह्म से बढकर दूसरी कोई शक्ति नहीं है। प्रतिबिंब जीव को ही मुक्ति चाहिए। कारण जीव अपने अखंड को भूलकर पंचभूत पिंजडे के शरीर के रूप में संकुचित होकर “मैं” शरीर से बना है के विचार पर विश्वास रखकर शारीरिक अभिमान के कारण संसार को अपने से अलग मानकर दुखी बनकर बंधित होकर पराधीन बनकर जीवन बिताने के परिणाम स्वरूप जीव मुक्ति के लिए प्रार्थना करता है। इसलिए प्रतिबिंब रूप जीव का भ्रम बदलने के लिए ब्रह्म भावना को बढाना चाहिए। ” मैं ” ब्रह्म हूँ की भावना को बढाना चाहिए। वह भावना जीव के भावी जीवन का निर्णय करेगा। 2644. एक मनुष्य साधरणतः सबेरे से शाम तक काम करते समय शामको निद्रा देवी अर्थात नींद उनके अनजान में ही सुला देगी। सबेरे अपने अनजान में ही महसूस करता है। रत में जीव जीव को अनजान बनकर ही रहा। अंतःकरण और शरीर जब सोता है,तब साक्षी के रूप में आत्मा नित्यानंद के रूप में ही स्थित रहता है। यथार्थता में जीव का निज स्वरूप अखंड आत्मबोध अपने सहज स्वभाव की अनुभूति करने में शारीरिक अभिमानी जीव बाधा ही बनती है। जो कोई अखंड बोध स्वरूप आत्मा ही “मैं” की अनुभूति करना चाहता है,उसको अपने जीव के जीव भाव को मिटा देना चाहिए। उसके काल के निर्णय करना उसकी इच्छाओं की मात्रा पर निर्भर रहता है। मनुष्य जितना शीघ्र चाह रहित जीने लगता है,उतना शीघ्र उसका मन मिट जाएगा।चित्तनाश ही मुक्ति होती है। उसके लिए आत्म विचार ही एक मात्र मार्ग होता है। आत्मज्ञान के बिना अज्ञान रूपी विषय वासना की अभिलाषा न छोडेगी। विषय विष को शरीर से पूर्णतः मिटाने अमृत रूपी आत्म विचार के अमृत पानी पीना चाहिए। 2645. अहमात्मा की अनुभूति से “मै” शरीर नहीं, आत्मा है के आते ही आत्मा की दशा में सूर्य-चंद्र नक्षत्रों को प्रकाश नहीं होगा। कारण उनमें “मैं” बनी आत्मा को प्रकशित नहीं कर सकता।” मैं “ बनी आत्मा को ही स्वयं प्रकाश होता है। आत्मा रूपी “ मैं ” का बोध नहीं तो संसार न चमकेगा। स्वयं प्रकाश रूपी, स्वयं शांति रूपी,स्वयं ज्ञान स्वरूपी, स्वयं आनंदस्वरूपी, स्वयं स्वतंत्र, स्वयं सर्वमुखी, स्वयं शाश्वत “मैं” है । वही मैं नामक सत्य ही सब का केंद्र है।उस केंद्र के ऊपर,नीचे,बाये-दाये, कोई आरंभ या अंत नहीं ,जन्म -मरण नहीं होगा। यही शास्त्र सत्य है। 2646. दूसरों के अंगीकार की आवश्यक्ता की चाह रखनेवाले ज्ञानी, खुद आत्मा,आत्मा सब कुछ है का महसूस करनेवाले नहीं है। वैेसे आदमियों के साथ संसर्ग करने से अज्ञानता बढकर सही आत्मानुभूति न मिलेगी।इसलिए नित्य संतुष्ट,इच्छाविहीन सही आत्मज्ञानी से ही ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। 2647. सही आत्म ज्ञानी की दृष्टि,वचन,प्रश्न आदि कर्मों में आत्म दर्शन देख सकते हैं। उसमें आत्म स्नभाव रूपी आनंद रस मिलकर रहेगा। 2648 किसी एक के कर्म में भाव बोध या अपराध भाव होते समय उससे विमोचन चाहिए तो मनःसाक्षी से,भगवान से दुखी होकर तपस्या करके प्रार्थना करते समय उनके नाते रिशतों से, बंधनों से बंधन रहित स्थिति अपने आप आ जाएगी। वही आतमज्ञान को आसानी से जान सकता है।उसको उसकी आत्मा ही समझाएगी। 2649. जैसे सूर्योदय अंधकार को बिलकुल मिटा देगा,वैसे ही आत्मज्ञान सभी प्रकार के अज्ञान अंधकार को जला देगा। 2650.जब तक अपने ऊपर शासन करने की कोई शक्ति है का विचार रहता है,तब तक अपनी इच्छा शक्ति का कोई बल न रहेगा।कारण वे आत्म बोध छोडकर शारीरिक बोध में रहते हैं। शरीर को अपनी कोई निजी शक्ति नहीं रहती। आत्म शक्ति से आश्रित होकर ही लगता है कि शरीर स्थिर रूप मेंं रहेगा।जब आत्म ज्ञान से शारीरिक बोध छिपकर आत्म बोध सुदृढ बनता है,तभी व्यक्ति अपनी इच्छा से कर्म कर सकता है।

Friday, March 22, 2024

ख्वाहिश

नमस्ते.साहित्य बोध दिल्ली इकाई को एस. अनंतकृष्णन का सादर नमस्कार. विषय-ख्वाहिशें मनुष्य को गुलाम बना देती हैं। विधा- अपनी हिंदी,अपने विचार,अपनी शैली, भावाभिव्यक्ति 22-3-24 पूर्वजों के स्वर्ण वचन यकीनन् आनंदप्रद,, स्थाई संतोषप्रद। बुद्ध भगान ने कहा-- सभी दुखों के मूल में इच्छाएँ प्रधान। कबीर न कहा-- चाह गयी चिंता मिटी। मनुआ बेपरवाह। जिन्हें कुछ न चाहिए,वही शाहँशाह। सनातन धर्म कहता है- इच्छा् शक्ति, ज्ञान शक्ति,क्रिया शक्ति तीनों नहीं तो प्रपंच शून्य । ख्वाबें पूरी होने ख्वाहिशों की ज़रूरत । ख्वाहिशें न तो न इश्क,न सृष्टि,न खोज,न आविष्कार। ख्वाहिश है साहित्य बोध में कविता लिखने की, प्रमाण पत्र पाने की। न तो न लिखने की प्रेरणा। ख्वाहिशें दैविक,जन हित हो, शैतानी इच्छाएँ गुलाम बना देती । धन लोलुप्ता,देश द्रोह की बदख्वाहशें जुआ,नशा,वेश्या गमन गुलाम ही नहीं. बेगार भी बना देती। पद, नौकरी,खिताब की ख्वाहिशें अंग्रेजी देती तो दिव्य मातृभाषाएँ गुलाम। एस.अनंतकृष्णन,तमिलनाडु का हिंदी प्रेमी,प्रचारक

Sunday, February 25, 2024

लेइए कैसे लीजिए

 नमस्ते।

अनश्वर दुनिया।
नश्वर चिंतन लहरें।
नित्य परिवर्तित खोजें
परिवर्तित सरकारें।
कल का साथी आज नहीं।
तब की बातें अब नहीं।
फिर भी अहंकार हटता नहीं मिटता नहीं।
आत्मज्ञान नहीं, आत्मबोध नहीं।
लौकिक बातें संताप भरी।
फिर भी मन हठ करता है।
अनश्वर का विचार करता है।
किया या करा यह व्याकरण की दुविधा।
देइए या दीजिए,यह भी सरलतम। नहीं।
जाया या गया यह कैसे आया ? लेइए कैसे लीजिए पता नहीं।