4001. मनुष्य दो तरह के होते हैें। एक संसार को बोध्य करके जीनेवाले, दूसरे ब्रह्म को बोध्य करके जीनेवाले। आत्मा को बोध्य करके जीनेवाले अनश्वर होते हैं, अहंकार को बोध्य करके जीनेवाले नश्वर होते हैं। कारण जो पैदा होते हैं,वह सोच नहीं सकता कि दृश्य वस्तुएँ सब नहीं हैं। इसलिए वे अपने पंचेंद्रियों से जाननेवाली सब वस्तुओं को सत्य मानकर ही जीते हैं।
यह विचार उसमें होगा कि वस्तुएँ हैं सोचकर जीने पर ही निरंतर सुख का अनुभव कर सकते हैं। कालांतर में उसको मालूम होगा कि सुख देनेवाली विषय वस्तुएँ परिवर्तनशील और नश्वर होती हैं और वे अन्योन्याश्रित होकर ही चमकती हैं।
कालांतर में उन विषय वस्तुओं के खोने के बाद ही विषय सुख चाहक एहसास कर सकता है।
जो जीव सांसारिक विषय नश्वर जान समझ लेता है, वही अनश्वर वस्तुओं की खोज के विचार होंगे।
जिसका मन वैसे विषयों से विरक्ति होकर वैराग्य से अनश्वर वस्तु आत्मा को सीख लेता है.उसमें से अविद्या माया हट जाएगी और विद्या माया उसकी सहायता के लिए आ जाएगी। वैसे ही सत्य की खोज करनेवाला आत्मज्ञानी गुरु के पास जा सकता है। वही अनिर्वचनीय शांति,आनंद अपनी सहज स्वभाव से अनुभव कर सकता है. जो गुरु के वचन के द्वारा,शास्त्र वचन के द्वारा, आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हमारे पूर्वजों के जीवन के अनुभवों को बुद्धि में रखकर युक्ति, विवेक और भावना से ऊहापोह से स्वयं शरीर नहीं है, संसार नहीं है, मैं है का आत्मबोध मात्र बुद्धि में दृढ हो जाता है वैसा न करके दुखों के आने के बाद भी सत्य की खोज न करके, नश्वर विषय सुखों की चाह में लघु सुख काम सुख को विरक्ति के बिना अनुभव करने वाले अविवेकी मूर्ख जन केवल इस जन्म में ही नहीं,अगले जन्म में भी नित्य दुख को भोगकर माया चक्र भँवर में भटकते रहते हैं ।
4002. आत्मा में रमनेवाला कोई अपने सुख के लिए दूसरा कोई उपाधी या स्त्री की आवश्यक्ता नहीं कहते समय स्त्री यह कहती हुई निकट आएगी, स्त्री तुमको आवश्यक्ता नहीं है,पर पुरुष मुझे चाहिए। जो ब्रह्म को लक्ष्य बनाकर जी रहा है,
उसको चाहकर प्रकृतीश्वरी के प्रतिबिंब स्त्रियाँ आएँगी। कारण सभी संकल्पों को तजकर मन को प्राण को सम स्थिति बनाये ब्रह्मचर्य का वीर्य अर्थात् ऊर्जा उसमें ऊर्द्धव मुख से ही संचरण करेगा। वैसे लोगों को ही श्रेयस और प्रेयस रक्षा करेगा।
4003. कोई किसी को जितना आदर देता है, उतना ही अनादर आदर स्वीकार करनेवाले को भोगना पडेगा। सभी व्यवहार के लिए यह द्वैत् भाव प्रकृति की नियति ही है। इसलिए सभी कर्मों में विवेकी निर्विकार रूप में मन को सम स्थिति बनाकर एकात्म बुद्धि लेकर जिएगा। अर्थात् आत्मा को साक्षात्कार किए महात्माओं के शरीरों कई बातों के शरीरें को कई बातों का सामना करना पडेगा। केवल वही नहीं कई प्रकार के रोगों का भी सामना करना पडेगा। उनके शरीर और देखनेवाला शरीर उनको रस्सी में देखनेवाले साँप जैसे अनुभव ही होगा। अर्थात् रस्सी में साँप जैसे तीनों कालों में रहित है, वैसे ही अखंड बोध रूपी अपने में दीख पडनेवाले अपने शरीर और संसार के लिए है का अनुभव ही होगा। यह शास्त्र सत्य सही रूप में एहसास करनेवाले ही एहसास कर सकते हैं। उसे न समझनेवाले अविवेकी ही मन में वेदनाओं के साथ समाधिि बन जाती है। उसे जानना है तो शास्त्र सत्य को जानना चाहिए। शास्त्र सत्य जानना यथार्थ में कष्ट नहीं है। वह अति सरल है। कारण वह कई हजार सालों के पहले ऋषियों के आविष्कार वेदांत सार ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या ही है। वही शास्त्र सत्य है। उस शास्त्र सत्य को उसी अर्थ में लेते समय ही, एहसास कर सकते हैं कि सर्वत्र ब्रह्म होते हैं, उसका स्वभाव परमानंद है। जगत जड है,वह त्रिकालों में रहित है। सर्वत्र व्यापित मैं रूपी ब्रह्म से दूसरा एक जग या शरीर नहीं हो सकता। इसलिए शरीर या जग विषय
जिसमें ब्रह्म बोध है,उसपर असर नहीं डालता। ब्रह्म रूपी स्वयं को जन्म-मृत्यु नहीं होता। वह स्वयंभू है,स्वयं है। वही पूर्ण वस्तु है। पूर्ण वस्तु का स्वभाव ही परमानंद होता है। वैसे अपने स्वरूप ही परमानंद होते समय मन और शरीर न होने से दूसरा एक स्मरण कभी नहीं होगा। एक रूपी मैं रूपी अखंडबोध ब्रह्म मात्र ही नित्य सत्य आनंद रूप में होता है।
4004. समुद्र का पानी जैसे खारा होता है,फूल में जैसे सुगंध होता है, वैसे ही ब्रह्म में चलन शक्ति रूप में माया होती है। अर्थात् ब्रह्म का सर्वव्यापकत्व, निश्चलनत्व, निर्विकार अपरिवर्तनशील निश्चल ब्रह्म चलन शक्ति रूप में ही बाहर आता है। वह चलन शक्ति बनाकर दिखानेवाले लीला विलास ही यह शरीर सहित चौदह लोक होते हैं। उदाहरण स्वरूप रस्सी का साँप रस्सी से भिन्न नहीं है। जिसने साँप में रस्सी नहीं देखा, उसी को साँप मात्र वहाँ है। लेकिन साँप तीन कालों में रहित ही है।
अर्थात् शरीर और संसार रस्सी में साँप जैसे तीनों कालों में रहित ही है। रस्सी का साँप रस्सी जैसे तीनों कालों में रहित है। इसलिए शरीर और संसार ब्रह्म ही है। शरीर और संसार में जिसने ब्रह्म के दर्शन नहीं किए उसी को शरीर और संसार साँप ही लगता है। ब्रह्म में दीख पडनेवाले शरीर और संसार ब्रह्म ही है। ब्रह्म से भिन्न दूसरा एक संसार या शरीर किसी भी काल में नहीं है। ब्रह्म मात्र ही है। सभी विवेकी को मालूम है कि ब्रह्म सर्वत्र विद्यमान है। यह भी मालूम है कि ईश्वर से जुडे बिना दूसरा एक न बनेगा। वही बुद्धि जीवी शरीर और संसार को शाश्वत कहना माया ही है। जो कोई आभूषणों की दूकान में केवल स्वर्ण है का एहसास करता है .वह आभूषणों के नानात्व पर ध्यान न देगा। वह परेशान में न पडेगा। जो कोई स्वर्ण की दूकान में स्वर्ण को न देखकर आभूषणों में नानात्व को देखता है, उसको सोचकर समाप्त करने में कष्ट होगा। वैसे ही जो एहसास करता है कि शरीर और संसार को पूर्ण रूप से ईश्वर ही है, उसको आनंद मात्र ही होगा और परेशानी न होगी।
उसी समय शरीर और संसार में नानत्व देखनेवालों को सत्य न जानने से दुख ही होगा। अर्थात् दो देखनेवालों को दुख होंगे। एक ही देखनेवालों को सुख होगा। सत्य की खोज करनेवाले अपने से ही आरंभ करना चाहिए। स्वयं नहीं तो कुछ भी नहीं है। अपने संकल्प में ही संसार होता है। स्वयं संकल्प न करें तो संसार नहीं है। ऐसा एहसास करनेवाला ही धीर है,ब्रह्मज्ञानी है।वही ब्रह्म है।
4005. जो कोई ईश्वर के स्मरण से सांसारिक जीवन की ओर आ नहीं सकता, सांसारिक बंधन -स्नेह बंधन में जी नहीं सकता, वही भक्त है। वही ज्ञानी है, वही योगी है। वही ब्रह्मचारी है। ब्रह्म स्मरण से न हटकर जो दृढ रहता है,वही ब्रह्मचारी है। वैसे ब्रह्मचारी ही ब्रह्म स्थिति को पा सकते हैं। जिसने ब्रह्म स्थिति प्राप्त किया है,वही परमानंद रूप में रहनेवाला है।
4006. गलत करना प्रकृतीश्वरी की प्रतिबिंब स्त्री ही है। जो कहते हैं कि पुरुष गलत नहीं करेगा,उनको समझना चाहिए कि पुरुष शब्द का अर्थ आत्मा है। सर्वव्यापी आत्मा के सिवा दूसरा एक न होने से स्त्री गलत नहीं कर सकती। अर्थात् नामरूपात्मक चींटी से ब्रह्मा तक सभी रूप, रूपों को देखनेवाला संसार,ईश्वरीय शक्ति माया दिखानेवाले इंद्रजाल दृश्यों के सिवा शाश्वत है। परिवर्तन शील शाश्वत नहीं हो सकता। इसलिए वह माया ही है। अर्थात प्रपंच मिथ्या होने से ही ठीक और गलत करने कोई नहीं है। अर्थात् मैं रूपी आत्मा और अखंडबोध मात्र है। उसका स्वभाव ही परमानंद है। वह आनंद मौन गण अमृत सागर होता है।
4007. सहोदर और सहोदरी का स्नेह साथ जन्म लेना मात्र नहीं है, जाति और मत भेद के बिना सब के साथ एक जैसा होना चाहिए। वैसा व्यवहार वे ही कर सकते हैं, जो आत्म तत्व को जानते हैं और समझते हैं कि सब जीवों में एक ही आत्मा है। कारण सभी पंचभूत एक ही समान ही गतिशील है। जैसे एक ही बिजली सभी बल्बों को जलाती है, वैसे ही एक ही परमात्मा सभी जीवों में आत्मा के रूप में दीख पडता है। शारीरक उपाधियाँ लेकर ही एक रूप आत्मा विभिन्न आत्मा के रूप में दीख पडता है। उपाधि परिवर्तन के साथ परमात्मा एक ही है का एहसास कर सकते हैं। जो नहीं है,वह है सा लगने से ही रूप रहित आत्मा स्वयं को आकार शरीर है सा लगता है। इसलिए है सा लगनेवाले शरीर को विवेक से देखते समय ईश्वरीय शक्ति माया चलन रूपी प्राण ही पंचभूत पिंजडे के शरीर-सा लगता है। इसलिए स्वयं बने निश्चलन आत्मा में कोई चलन किसी भी काल में हो नहीं सकता। यह ज्ञान बुद्धि में दृढ बनते ही शरीक संसार माया भ्रम उपाधि बदलता है।
4008. अनश्वर धर्म शास्त्रों को पालन करनेवालों के संग के द्वारा ही लौकिक मनुष्यों के अधर्म मार्ग पर न जाने से रोककर धर्म के मार्ग पर ले जाकर जीव और संसार में शांति और आनंद के बीज बो सकते हैं। उसी समय अधर्म मार्ग के पालन करनेवाले संगों के जीवों को और संसार को भला नहीं कर सकते। अर्थात् अनश्वर धर्मशास्त्र अद्वैत रूपी आत्मज्ञान ही है। जिनमें भेद दर्शन है, वे सीख नहीं सकते। उसको पाने पर भी कार्यान्वित नहीं कर सकते। कारण वह पूर्णतः पवित्र है। वह पूर्ण वस्तु से बना है। संपूर्ण वस्तु का स्वभाव ही परमानंद और अनिर्वचनीय शांति है। आत्मज्ञान पूर्ण रूप में अद्वैत होता है। अद्वैत् ज्ञान की महिमा और शांति ही संसार के देशों को भारत की ओर ले आता है । अद्वैत् ज्ञान का आत्मज्ञान भारत माता का खजाना है। वह खजाना ही सनातन वेद है। सनातन वेद बोधाभिन्न जगत का ज्ञान ही देता है।वह ज्ञान ही सभी दुखों से सभी जीवों को मुक्त करेगा।
4009. रिश्तेदारों के आसक्ति तजकर सांसारिक प्रेम से जीवों के लिए परिश्रम करनेनालों को शासक बनाना चाहिए। तभी देश को और गृह को शांति पूर्ण जीवन मिलेगा। कुछ लोगों के त्याग से ही अनेक करोड लोगों को और देश को कल्याण होगा। शासन में अधर्म बढते समय धर्मानुयायी शासक होना प्रकृति की योजना है। धर्म-अधर्म, भला-बुरा, ज्ञान-अज्ञान, माया और आत्मा आदि में सफल और असफल का संघर्ष अनादी काल से चलते रहते हैं। भारतीय तत्व चिंतन के अनुसार,अर्थात् वेदांत तत्व के अनुसार अद्वैत ब्रह्म एक मात्र ही नित्य सत्य रूप में है। वही स्वयं की अनुभूति होती है। इसलिए है या नहीं है-नहीं का वाद-विवाद अद्वैत् में नहीं है। कारण मैं है के अनुभव की वस्तु मात्र ही सत्य है। वही अहंकार है। अहं मात्र ही है। इस अद्वैत् बोध स्थिति के अनुसार यह प्रपंच घास-लता के समान निस्सार है। क्योंकि स्वयं के संकल्प के बिना एक ब्रह्मांड नहीं बनेगा। संकल्प करने,संकल्प न करने की क्षमता बोध को है। बोध संकल्प न करने के साथ ब्रह्मांड मिट जाता है। मैं रूपी अखंडबोध मात्र सर्व व्यापी परमानंद नित्य सत्य रूप में स्थिर खडा रहेगा।
4010. मनुष्य के जन्म लेते ही अपने को असहाय एहसास करता है। जीवन यात्रा करने निर्बंधित् होने से उसको बंधन में लाने दूसरी शक्ति जो भी हो , उसकी स्तुति करने मात्र से कुशल रहेगा। इस बात को जान-समझकर दृढता से कर्म करना चाहिए। अर्थात् मनुष्य को नियंत्रण में लाने की शक्ति मैं रूपी आत्मा रूपी अखंड बोध ही है। इस बात के अनभिज्ञ लोग अविवेकी जीवात्माएँ ही इस बात पर विश्वास रखकर जी रहे हैं कि मैं शरीर से बना हूँ। मेरे अपने कर्तव्य होते हैं।शादी करके वंशवृद्धि करके जीवन बिताना ही यथार्थ जीवन है।लेकिन विश्व का इतिहास यही है कि जब यह संसार बना है,तब से सांसारिक पारीवारिक जीवन बितानेवाले सभी जीात्माएँ असंख्य दुख और कष्टों को झेलकर कर्म बंधनों में फँसकर तडपकर चल बसे।उसके कारण यही है कि नश्वर शरीर और नश्वर जग को अनश्वर मानना और सोचना ही है। यथार्थ में शरीर और संसार ईश्वरीय शक्ति अर्थात् मै रूपी अखंडबोध शक्ति बनानेवाले एक इंद्रजाल मात्र ही है। लेकिन किसी एक काल में कोई एक जीव ही सत्य को जानने की कोशिश करेगा। वैसे अनेक हज़ार लोगों में कोई एक ही संपूर्ण रूप में जानने की कोशिश करेगा। औरों से परमात्मा को जान नहीं सकता। जो कोई परमत्मा को पूर्ण रूप से साक्षात्कार करता है, वही परमात्मा होता है। आत्मा ही आत्मा को जान सकता है। अर्थात् परमात्मा एक ही है। वह परमात्मा सर्वव्यापी होने से दूसरा कोई सर्वव्यापी हो नहीं सकता। जो कोई स्वयं परमात्मा ही है को संपूर्ण रूप में साक्षात्कार करता है, उस परमात्मा में ही परमात्मा शक्ति माया देवी प्रपंच रूपी नाम रूप दृश्यों को बनाकर दर्शाता है। वे तीनों कालों में रहित ही है। कारण जो है,वह नाश नहीं होगा। जो नहीं है, वह बन नहीं सकता। आत्मज्ञानी ही इसकी यथार्थ स्थिति को समझ सकता है।
4011. लौकिक विषय भोगों को भोगकर सांसारिक जीवन चलानेववालों को शरीर को गतिशील बनानेवाले जीवों के बारे में मालूम नहीं है। इसीलिए संसार में जीकर प्राण की ओर यात्रा करनेवालों के जीवन की रीतियों को देखकर संसार को लक्ष्य बनाकर जीनेवाले हँसी उडाते हैं। इसलिए संसार को मुख्यत्व देनेवाले जीव के बारे में जीव को मुख्यत्व देनेवाले संसार के बारे में जो ज्ञान है, उनको ढंग से सीखने पर सब लोग समरस सन्मार्ग जीवन बिता सकते हैं। तभी परस्पर दुख रहित रहेंगे। इसलिए सांसारिक जीवन जीनेवालों को जानना -समझना चाहिए कि इस ब्रह्मांड बनने के बारे में अर्थात उत्पत्ति के बारे में इस संसार में कोई जान नहीं सकता। इस संसार के लिए कोई युक्ति नहीं हो सकती। वह नहीं के बराबर है। इसलिए
संसार की ओर यात्रा करनेवाले सब के सब दुख से मुक्ति पा नहीं सकते। कारण जड संसार को स्वत्व नहीं है। वह स्वयं ही नहीं है। इसलिए उसमें मन रखनेवाले को दुख ही देता है। उसी समय पूर्णत्व की एक वस्तु आत्मा मात्र ही है।पूर्ण वस्तु का स्वभाव मात्र ही परमानंद है। वह किसी से आश्रित नहीं है। वह स्वयं ही स्थिर ही है। इसीलिए जीव की ओर यात्रा करनेवालों को सदा आनंद होता है। जो दुख विमोचन की इच्छा रखते हैं, उनको आत्मा क्या है ? की खोज करके जानना और समझना चाहिए। आत्मा क्या है को जानने को शुरु करते ही वह जीवन दुख से मात्र ही नहीं, सभी दुखों से बाहर आ सकते हैं। आत्मा को पूर्ण रूप से साक्षात्कार करनेवाला ही भगवान है। अर्थात् एक रूप समुद्र में अनेक हज़ार बुलबुले होने के जैसे ही सर्वव्यापी एकात्मा परमात्मा में से अनेक जीव उत्पन्न होने के जैसे लगते हैं। अर्थात् एक एक बुलबुल टूटते समय समु्र एक रूप में ही होता है। कोई इस बात को प्रमाणित नहीं कर सकते हैं कि समुद्र से बने बुलबुल समुद्र के किस स्थान से आये हैं.
और किस स्थान में मिट जाते हैं। इसलिए बुलबुल होने की युक्ति को खोजकर जाने पर जीवन बेकार ही जाएगा। बुलबुला नाम रूप का निवासस्थान को देख नहीं सकते। वैसे ही संसार के सभी जीव के शरीर अखंडबोध ब्रह्म से बनकर स्थिर रहकर स्वत्व रहित मिट जाते हैं। अर्थात् समुद्र में बने बुलबुले नाम रूप स्वत्व न होने से नाम रूप माया ही है। वैसे ही हमें जानने की कोई युक्ति नहीं है कि यह शरीर और संसार कब बना है। कब और कैसे मिटेगा? जिसमें युक्ति नही है,वे सब नश्वर नहीं है। जो इस बात का एहसास करते हैं, उनको मैं रूपी आत्मबोध के स्वभाविक परमानंद और शांति स्वतः मिलेगा। तब शांति और परमानंद भोगकर वैसा ही हो सकता है।
4012. परिपूर्ण आत्मज्ञान स्थिति को प्राप्त एक गुरु, ज्ञान वैराग्य के लिए आये शिष्य को आत्मज्ञान उपदेश देते समय कालांतर में शिष्य का जीव भाव पूर्ण रूप से मिटने के साथ ही, गुरु रूपी अखंडबोध मात्र स्थिर खडा रहेगा। गुरु सशरीर रहने पर भी गुरु और शरीर के बीच आपस में कोई संबंध नहीं है। अर्थात् अखंडबोध परमात्मा माया शरीर स्वीकार करके अपनी सृष्टि के जीवों को समझाने के लिए ही गुरु के रूप में आते हैं। अर्थात् वास्तव में अखंडबोध परमात्मा ब्रह्म ,सृष्टि नहीं कर सकता। सृष्टि, सृष्टि में जीव, गुरु-शिष्य सब अपनी शक्ति माया बनाकर दिखानेवाले एक इंद्रजाल नाटक ही है। अर्थात्
मैं रूपी अखंडबोध ही एक मात्र परमानंद के साथ स्थिर खडा रहता है। यही सत्य है।
4013. भगवद्गीता में श्रीकृष्ण भगवान ने शरीर को क्षेत्र और आत्मा को क्षेत्रज्ञ कहा हैं। अर्थात् क्षेत्रज्ञ रूपी और आत्मा रूपी मैं जन्म मृत्यु रहित परमात्मा हूँ। परमात्मा रूपी मैं नित्य,शाश्वत, निश्चल हूँ। केवल वही नहीं,परमात्मा रूपी अपने को उत्पत्ति,सच्चाई, विकास, परिवर्तन,जय-पराजय न होगा। वह परमात्मा स्वयं ही सभी जीवों में जीवात्मा के रूप में है। अर्जुन जीवात्मा है। श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा है कि मेरी माया ने ही इस संसार को और जीवों की सृष्टि की है। इस माया को जीतना अति कठिन कार्य है। यह भी कहा गया है कि श्रीकृष्ण भगवान को मात्र सोचकर और किसी विषय के संग में न रहकर जो शरणागति तत्व को अपनाता है ,वह मैं ही हूँ, मुझे तजकर वह नहीं. उसे छोडकर मै नहीं है। अर्थात् अर्जुन रूपी जीव, जिस दिन कृष्ण परमात्मा को मात्र सोचता है, साथ ही जीव भाव ओझल हो जाता है। जीव भाव के छिपते ही अर्जुन या कृष्ण के भेदभाव भी मिट जाता है। परमात्मा मात्र ही नित्य सत्य रूप में शाश्वत खडा रहता है। अर्थात् उसका जीवभाव आत्मविचार अग्नि में जलने के साथ ही जीवात्मा -परमत्मा भेद रहित हो जाता है। वास्तव में परमात्मा जीवात्मा या जीवात्मा परमात्मा के रूप में न बना सकते। सर्वव्यापी परमात्म सागर में स्वयं उमडकर दीखनेवाले नाम रूप ही चींटी से लेकर ब्रह्मा तक के सभी नाम रूप होते हैं। परमात्मा को छोडकर नामरूप एक नयी वस्तु को बनाते नहीं है। नामरूप नश्वर और माया होते हैं। परमात्मा रूपी मैं, मैं रूपी अखंडबोध मात्र नित्य सत्य रूप में होते है। जो जीव अपनी आत्मा को पूर्ण रूप से साक्षात करता है,वही कृष्ण है। उस परमात्मा का स्वभाव ही परमानंद है। वह नित्य आनंद है।
4014. ‘मैं” ही सभी समस्याओं के कारण रूप होता है।मैं नहीं है तो कोई भी समस्या न होगी। अहंकार रूपी मैं है,वही समस्या है। जब अहंकार रूपी मैं कौन है की खोज करते समय एहसास कर सकते हैं कि है के अनुभव को बनानेवाले आत्मा रूपी अखंडबोध ही यथार्थ मैं होता है। मैं रूपी अखंडबोध का स्वभाव ही परमानंद है। परमानंद स्वरूपी अपने को अकारण ही अपनी शक्ति शुद्ध शून्य रूप में दीखनेवाले आकाश से आकर अपने को छिपा देने से उस छिपे आकाश से त्रिपुटी उदय होकर आता है। त्रिपुटि का अर्थ है कि ज्ञाता,ज्ञेय और ज्ञान के एक साथ प्रकट होनेवाले ज्ञानोदय। उस त्रिपुटी के गुना ही इस ब्रह्मांड के रूप में बदल गया है। अर्थात् अपनी शक्ति माया अपने को छिपाने के लिए रोज़ नये नये रूपों को बनाकर ही इन ब्रह्मांडों को बनाया है। सब में दृष्टा,दृश्य और दृष्टि होते हैं। अर्थात् देखनेवाला, देखने की वस्तु, देखने की क्षमता आदि। जो देखता -जानता है, उससे भिन्न नहीं है दृश्य और दृष्टि। अर्थात् बुद्धि के बिना कुछ भी नहीं है।इस त्रिटी में दो मायाएँ हैं। 1. अज्ञान माया 2. ज्ञान माया। अज्ञान माया जीव को अनेक रूप दृश्यों से भ्रमित करती है। ज्ञान माया यह बुद्धि देती है कि कोई भी अनेक नहीं है, सब कुछ एक ही है। जो कोई सत्य साक्षात्कार के लिए मन से चाहता है, तब उनके संकल्प स्वयं मिट जाएँगे। जब संकल्प मिट जाते हैं, तब मन सम दशा पाएगा। जिसके मन समदशा पर पहुँचता है, वह अनिर्वचनीय शांति का अनुभव करेगा। पूर्णिमा चंद्र के समान शीतल सुख का अनुभव करने लगेगा। उसकी उच्चतम स्थति ही परमानंद है।
4015. अज्ञान रूपी जंग भरे पंचेंद्रियों को, अंतःकरणों को अहमात्मा अपनी ओर न मुग्ध करेगा। सत्व गुण से पवित्र बने पंचेंद्रियों को, अंतःकरणों को ही अहमात्मा अपनी ओर खींच लेगा। कारण राग द्वेषों से कलंकित मन राग-द्वेष से मिटकर जब पवित्र बनता है, तभी आत्मा अपने आनंद को प्रकट करेगा। जो कोई मन से दुख विमोचन चाहता है, तभी आत्मज्ञान उसके मन में उदय होगा। आत्म स्मरण होने के साथ,आत्मा पर पर्दा डालनेवाले माया गुण मिटेंगे। साथ ही अंतःकरण शुद्ध होंगे। जब पवित्र अंतःकरण में आत्मा प्रकाशित होती है, तभी निस्वार्थता से देश,राज्य और संसार के कल्याण कार्य कर सकते हैं।
4016. वैद्य,चिकित्सक ने वचन दिया है कि उसको कोई रोग नहीं है,स्वस्थ है, पर डाक्टर के वचन के विपरीत वह अचानक मर जाता है। तभी मानव को विवश होकर विश्वास करना पडेगा कि मनुष्य और डाक्टर के ऊपर एक अमानुष्य शक्ति है। वह शक्ति ही मैं रूपी अखंड बोध होती है। इस मैं रूपी अखंड बोध को अपनी शक्ति माया के छिपाने से ही प्रतिबिंब बोध जीवात्मा बनती है। उस जीव को ही जो शरीर और संसार नहीं है, वह है सा लगता है। वैसा लगना वासना में बदलकर ही शारीरिक अभिमान का अधिकार दृढ बनता है। वह अहंकार अज्ञानांधकार होने से सत्य को न पहचानकर जीव दुख झेलता है। जो जीव गहरे दिल से प्रकृतीश्वरी से प्रार्थना करता है कि सिवा प्रकृतीश्वरी के और कोई शक्ति मुझे दुख से विमोचन नहीं कर सकती,उसको महामाया देवी सत्य का द्वार खोल देगी। जो जीव वैसे सत्य द्वार खुला पाता है, वही अपने यथार्थ स्वरूप मैं रूपी बोध रूप परमात्मा के दर्शन और साक्षात्कार पुनःप्राप्त होगा। तभी अपने स्वभाव अर्थात् परमात्म स्वभाव परमानंद को निरुपाधिक रूप में भोगकर वैसा ही रह सकता है।
4017.बिजली से आश्रित होकर ही बल्ब जलता है। बिजली रहित बल्ब जहाँ रहता है, वह स्थान रात में अंधकार मय रहेगा। वहाँ बल्ब होने पर भी कोई प्रयोजन नहीं है। वैसे ही जीवन रूपी अंधकार में आत्मबोध रहित शरीर अभिमान और अहंकार से भरे जीव अज्ञान अंधकार में रहकर मार्ग न जानकर जीवन में फँसकर तडपते हैं। वैसे लोग ही स्वात्मा के प्रकाश न जानकर अर्थात् आत्मबोध रहित जीवन को व्यर्थ बनाकर सत्य न जानकर पुनर्जन्म के लिए बीज बोकर मर जाते हैं।इसलिए जीवन में आजीवन मन स्वयं प्रकाश स्वरूप आत्मा से मिलकर अर्थात् आत्म बोध के साथ कर्म करनेवालों को कोई दुख न होगा। कारण वह जहाँ भी जाता है,वहाँ आत्मा के प्रकाश होने से मार्ग पर कोई बाधा न होगी। इसलिए वह श्रेष्ठ जीवन बिता सकता है। अर्थात् पूर्व पुण्य या इस जन्म का पुण्य या गुरुपदेश या सत्य की खोज करनेवालों को ही आत्मबोध के साथ जीवन बिता सकता है। जो वैसा नहीं है, वे अहं बोध में ही जीवन बिताते हैं। अहं बोध में जीवन बितानेवालों को दुख ही होगा। आत्मबोध में जीवन बितानेवालों को दुख नहीं होगा। वे सब में शांत ही रहेंगे। जैसे भी जीवन जीने पर भी अनश्वर में मन रखनेवालों को ही आनंद होगा।
4018. अपने इच्छुक लोगों के साथ जीने से अपने को चाहनेवालों के साथ जीनेवालों का जीवन ही श्रेष्ठ रहेगा। स्वयं प्यार करनेवालों के साथ जीने से अपने से प्यार करनेवालों के साथ जीने की इच्छा होनी चाहिए, उसके लिए विवेक और बुद्धि होनी चाहिए। नहीं तो मन की इच्छा के अनुसार अपने से प्यार करनेवालों को छोडकर जिससे मन प्यार करते हैं,उनके इनकार करने पर जवानी चली जाएगी। इसलिए वही सुखी जीवन बिता सकता है, जो स्वस्थ रहते समय बुद्धि और विवेक से कार्य करता है। जो मन का आदर नहीं करता, वह आत्मा का आदर करता है। जो आत्मा का आदर करके जीता है, वही आत्मबोध प्राप्त व्यक्ति है। जिसमें आत्मबोध है, वह जानता है कि सुख का स्थान आत्मा है। जो मनमाना जीते हैं, वे शारीरिक अहंकार में ही चलेंगे। अहंकार अंधकारमय होता है। अहंकारी को आत्मप्रकाश न होने से किसी भी कार्य में मार्ग न जानकर तडपते रहेंगे। पुरुष को आत्मबोध के साथ जीना है तो अपने से प्यार करनेवालों के साथ जीना चाहिए। जो वैसा नहीं है,उनको आत्मबोध के साथ जीने में बाधा ही होगी। आत्मबोध रहित स्त्री -पुरुष मिलकर जीते समय उनका जीवन घोर अंधकार हो जाएगा। ऐसे दंपति ही हर एक परिवार को नरक तुल्य बनाते हैं। इसलिए जो जिंदगी आनंद पूर्वक जीना चाहते हैं, उन सबको आत्मप्रकाश देनेवाले आत्मज्ञान को पहलै सीखना चाहिए। तभी जीवन को आनंद बना सकते हैं। कारण आत्मा का स्वभाव आनंद मात्र है। केवल वही नहीं आत्मा ही स्वयं प्रकाश स्वरूप है।
4019. शरीर और संसार को मैं रूपी अखंडबोध ब्रह्म से अन्य रूप में न देखकर,
सर्वस्व बोध ब्रह्म के केंद्र से अन्य रूप में न देखकर सबको बोध ब्रह्म केंद्र के ज्ञान की दृढता प्राप्त मनुष्य के वचन और कार्य एक जैसे कार्यान्वित करने से उसका शरीर, मन और प्राण समस्थिति में आएँगी। इसलिए प्राण कोप,मन क्षोभ और गलत शारीरिक मनोभावना आदि न होंगी। मन,प्राण और पचेंद्रियों में सम स्थिति रहित स्थिति न होंगी। वैसे सम स्थिति प्राप्त आदमी ही आनंद से जिएगा। भेद बुद्धि सहित वचन, कर्म एक जैसे न चलनेवालों को ही सभी दुख होंगे। उनके लिए जीवन शांति और आनंद एक स्वप्न जैसा होगा।
4020.परमात्म शक्ति माया से सृष्टित कोई एक जीव अस्वतंत्र बंधन से विमोचन के लिए तडपता है तो वह जीव आगे-पीछे न देखकर सीधे भगवान की ओर ही जाएगा। वैसे लोग अंत में दिव्य स्थिति पर पहुँचेंगे। धन,पद, नाम,प्रसिद्धि चाहनेवाले इस अस्वतंत्र अर्थात् नियंत्रण जीवन की सहजता सोचकर आनंदरहित, संतोष रहित,शांति रहित संकट और समस्याओं में फँसकर भाग्य की प्रतीक्षा में सुख-दुख पूर्ण जीवन को ही सहज मानकर जी रहे हैं। उनके लिए आनंद स्वभाव की आत्मा बहुत दूर हो जाती है। इसलिए नित्यानंद प्राप्त करने मन को जिसमें स्थिर लगाना है,उसी नें लगाना चाहिए। वही परमानंद स्वरूप के परमात्मा होते हैं। वह परमात्मा ही जीव रूपी अपने यथार्थ स्वरूप है। इसका एहसास करके माया लोक में कार्य करते समय ही माया में भी अपने को दर्शन कर सकते हैं। उसका अंत ही आत्मसाक्षात्कार अर्थात् स्वआत्मसाक्षात्कार होता है।
4021. जब तक बोध में उत्पन्न लगनेवाले चराचर प्रपंच बोधा भिन्न है का जीव एहसास नहीं करता, तब तक माया में फँसकर तडपनेवाले काल को ही जीवन कहते हैं। अर्थात जीवन नरक तुल्य होता है। कारण लोकयुक्त सुखभोग सब प्राणियों के होते हैं।लेकिन जिस जीव को मनुष्य शरीर मिला है, वही स्वयं ब्रह्मा है या ईश्वर है का महसूस कर सकता है। उसकी बाधा है, जो नाम रूप ही भेद बुद्धि और रागद्वेष से बने हैं। उस बाधा को मिटाने के लिए मैं ब्रह्म हूँ, मैं अखंड बोध हूँ, मैं भगवान हूँ, मैं परमात्मा हूँ की भावना तैलधारा के जैसे बनता रहा करना चाहिए। जो इस भावना को कष्ट समझते हैं, वे अविवेकी होते हैं।
उनको समझ लेना चाहिए कि जो भोग विषय नहीं है, उसके लिए भावना करने लोरी गाने जीवन को बेकार करनेवाले ज्यादा लोग होते हैं। उसी समय जो अनश्वर शाश्वत है, उसकी भावना करने पर वह सत्य हो जाएगा। उसका नाश नहीं होगा। उसकी भावना के लिए ही विवेक का उपयोग करना चाहिए। और किसी का उपयोग करने पर शांति और आनंद कभी न मिलेगा। इसलिए जो शांति,आनंद,स्वतंत्र,सत्य और प्रेम चाहते हैं, उनको स्वयं ब्रह्म है का दृढ बना लेना चाहिए। साथ ही ब्रह्मानंद भोगकर ब्रह्म ही हो सकते हैं। मैं रूपी अखंडबोध बने ब्रह्म मात्र ही परमानंद स्वभाव के साथ नित्य सत्य रूप मे स्थिर खडा रह सकते हैं।
4022. जिसमें ब्रह्म अवबोध है,उनको अपमान करनेवाले अहंकार जिसमें है,उनको समझना चाहिए कि अपने को कर्म फल ही बना लेते है। क्योंकि ब्रह्म से आश्रित होकर ही अहंकार को स्थायित्व है। नहीं तो अहंकार को स्वत्व नहीं है। आत्मा से अनाश्रित अहंकार बिजली रहित बल्ब के जैसे होता है। जो आत्मबोध रहित अहंबोध मात्र लेकर जीते हैं, उनको शारीरिक दुख होगा। उस शारीरक दुख को ही रोग कहते हैं। वह मानसिक दुख भी देगा। वह मानसिक दुख भी देगा। उस मानसिक दुख को ही आदी कहते हैं। इस आदी और व्याधि के कारण अज्ञान ही है। अज्ञान के बढने पर वह अज्ञानताही इच्छाओं के रूप में बदलता है। वे इच्छाएँ अंत रहित एक के बाद एक आती रहेंगी। आशाएँ निराशा होने पर दुख के कारण बनते हैं। जो आशाएँ पूरी नहीं होती,तब परेशानी होती है। इस मानसिक परेशानियों के कारण जिंदगी दुख पूर्ण होती है। वही आदी है। आदी व्याधि होने के कारण आत्मज्ञान न होना ही है। आत्मज्ञान होने से संदेह दूर होगा। साथ ही नाम रूप प्रपंच जो नहीं है उसको हटाकर आत्मा मैं ही है को एहसास करके उस आत्मा का स्वभाव परमानंद का अनुभव करेगा।
4023. यह संसार कर्म स्वभाव का है। कर्म होने के कारण इच्छा ही है। इच्छा के कारण अज्ञान ही है। अज्ञान के बदलने के साथ इच्छाएँ मिट जाएँगी। इच्छाएँ न होने पर कर्म भी मिट जाएगा। चित्त ही इच्छा का स्वरूप है। इसलिए चित्त त्याग ही कर्म दुख से कर्म दुख से ही मुक्त होगा। ईश्वरीय शक्ति माया बनाये आशा स्वरूप चित्त बनाकर दिखानेवाले माया रूप ही यह दृश्य प्रपंच है। चित्त को त्याग करना कैसा है? शास्त्र सत्य एक निश्चलन,निर्विकार, सर्वव्यापी परमात्मा एक मात्र ही नित्य सत्य रूप में है। उसमें दूसरी एक शक्ति स्पंदन कभी नहीं हो सकता। शक्ति स्पंदन अर्थात् प्राण स्पंदन स्पंदित ही ये ब्रह्मांड सब बने हैं। शास्त्री सत्य यही है कि एक स्पंदन भी परमात्मा में नहीं हो सकता।
अर्थात् निश्चलन में एक चलन भी नहीं हो सकता। वह हजारों साल के पहले ऋषियों के द्वारा साक्षात्कार किया हुआ सत्य है। आज तक जितने महात्माओं ने सत्य का साक्षात्कार किया है,उन्होंने भी यही कहा है कि जगत मिथ्या और ब्रह्म सत्य है। वास्तव में जगत मिथ्या और ब्रह्म सत्य ही है। इसलिए वास्तव में प्रपंच तीनों कालों में रहित ही है। इस प्रपंच की सृष्टि के पहले अखंडबोध स्वरूप निश्चल परमात्मा मात्र स्थिर था। उससे पहले मैं रूपी शब्द के साथ अहंकार बना। इस प्रकार संसार में पैदा हुए सभी जीव एक एक शब्द लेकर जन्मे थे। उस शब्द की अभिव्यक्ति के द्वारा ही उसके अस्तित्व को अनय जीवों को वह जीवन समझता है। शब्द के रुकते ही सपंदन ब्रह्म स्थिति पाएगा। ये सब एक नाटक है। नाटक में कथा पात्र कोई नहीं है। जो कथा पात्र नही है,उनको बनाकर जीवन रूपी नाटक चलाकर वेश को बदलना ही माया की लीला होती है। माया की लीला ही यह प्रपंच है। अभिनय कराना माया है तो नट आत्मा होती है।इसलिए समझना चाहिए कि नाम और रूप जहाँ भी हो,वह जड होता है। कारण सत्य का रूप नहीं है। इसलिए सत्य शाश्वत है।सत्य में परिवर्तन नहींं है। जड बोध है। वे नाम रूप के हैं। नाम रूप जड कर्म चलनशील होने से निश्चल ब्रह्म में किसी भी काल में कोई चलन न होगा। सोने की चूडियों में स्वर्ण को मात्र देखना है, चूडियों को मिटा सकते हैं। वैसे ही प्रपंच रूपों में स्वयं बने बोध क मात्र देखकर नाम रूपों को तजना चाहिए। तब नाम रूप माया का अस्त होगा। बोध मात्र नित्य शांत रूप में स्थिर खडा रहेगा।
4024. उपासनाओं में प्रपंच नाद जो किसी से उदय न हुआ है, वह अनागत नाद श्रवण होता है। वही यथार्थ ओंकार नाद श्रवण है। क्योंकि वह ब्रह्म का नाम होता है। जो ओंकार की उपासना करते हैं, उसके मनो दोष सब स्वतः मिटकर वह परिशुद्ध हो जाएगा। यह ओंकार परब्रह्म और अपब्रह्म होगा। जो ओंकर की उपासना करताहै,उसकी चाहें स्वतः पूर्ति हो जाएँगी।ओंकार की उपासना करनेवाले को ब्रह्मलोक आराधना करेगा। हम जो कुछ देखते हैं, वे सब ओंकार ही है,ओंकार की व्याख्या यही होती है। अर्थात् भविष्य और वर्तमान ओंकार ही है। भूत,भविष्य और वर्तमान में जो कुछ हुआ, होगा और होता है, वे सब ओंकार ही हैं। कालातीत जो है, वह भी ओंकार ही है। इस ओंकार को प्रणव कहते हैं। मनो संकल्पित इस संसार में दिल के विचारों को समझाने के लिए प्रयोग करनेवाली भाषा के मूल शब्द ओंकार ही है। नाभी से बाहर आनेवाले वायु शब्द और अक्षर का रूप बनना कंठ से ओंठ तक के विविध स्थानों को स्पर्श करते समय ही है। ओम् के उच्चारण करते समय अकार स्थान कंठ में टकराकर होनेवाली ध्वनी सभी स्थानों को पार करके मकार स्थान ओंठ में टकराकर अंत होता है।
4025. एक व्यक्ति के ईश्वर ज्ञान का परिमाण जितना होता है, उतना ईश्वरत्व उसमें चमकेगा। अर्थात् ईश्वरत्व अपरिवर्तनशील ज्ञान होता है। अर्थात् अपरिवर्तनशील ज्ञान,अपरिवर्तन शील स्वतंत्र,अपरिवर्तनशील स्नेह, अपरिवर्तनशील स्वयं प्रकाश, अपरिवर्तन शील प्रेम,अपरिवर्तनशील सत्य, अपरिवर्तनशील शांति, अपरिवर्तनशील पवित्रता, अपरिवर्तनशील आत्मा, अपरिवर्तनशील मैं हूँ का अनुभव आदि सब मैं रूपी अखंडबोध ब्रह्म भगवान का स्वभाव होते हैं। जिस दिन जीव भगवान के ईश्वरीय स्वभाव की अनुभूति करता है, उसमें ईश्वरीय स्वभाव का परमानंद प्रकट होगा। स्वयं संकल्पित बनाया संसार अपने से भिन्न महसूस कर सकते है। वह स्वयं ही है। मैं नहीं का संकल्प नहीं कर सकते। मैं है,मैं मात्र ही है। अपने में अपने को दीखनेवाले कार्य रहित दूसरा एक अपने स्वभाविक शांति और आनंद को बिगडते नहीं है। अर्थात् अपने से अन्य जो भी लगें,वह अपने आनंद को बिगाड देगा। अर्थात् जो कोई किसी भी प्रकार के संकल्प के बिना रहता है, तब पर्दा हटकर अपने स्वभाविक आनंद और शांति के साथ स्वयं प्रकाशित होगा।
4026. संपूर्ण ब्रह्मचर्य ही संपन्न व्यक्ति है। संपूर्ण पतिव्रता स्त्री ही सभी ऐश्वर्यों का अड्डा है।
4027.असत्य रूपी लोक से सत्य संपन्न लोगों को नाश नहीं कर सकता। कारण जो सत्य को नाश करने का प्रयत्न करता है,उसीका नाश होगा।
4028.जिस मिनट में संकल्पित करते हैं, उस मिनट में संसार बनता है। इस संकल्प को लेकर वह स्थिर खडा रहता है। संकल्प के बिना बनने से वह आसान से मिट जाएगा। यह वास्तविक स्थिति न जानने से ही स्वयं संकल्पित संसार से डरने के कारण होते हैं। इसलिए ही यह संसार दुखमय लगता है। किसी भी प्रकार के संकल्प किये बिना बहुत जल्दी ही आकाश कालेबादल मिटे आकाश जैसे चित्त निर्मल होगा। यह एहसास कर सकते हैं कि चित्त निर्मल होने के साथ स्वयं शरीर नहीं है, स्वयं है का अनुभव करनेवाले आत्मबोध है। साथ ही सांसारिक दुख का अस्त होगा। वास्तव में सकल शक्ति के निश्चल परमात्मा ही अपने निश्चल,सर्वव्यापकत्व बदले बिना अपनी माया शक्ति मायादेवी प्रकट होनेवाले यह वर्ण प्रपंच नाटक के पीछे जाकर नाचते हैं।
4029.एक मनुष्य को दूसरों से होनेवाला प्रेम, शारीरिक अभिमान से होनेवाला दुर्राभिमान तजकर अधिकांश लोग उनको मिलनेवाले उनको मिलनेवाले गुणों को और आनंद को और शांति को नष्ट करते हैं। कारण यह अज्ञानता ही है कि स्वयं शरीर नहीं है,आत्मा है। तभी दुराभिमान बनता है। इसलिए विवेक के साथ पूर्वजों के द्वारा प्राप्त बंधुत्व और दुराभिमान का अनुकरण नहीं करना चाहिए। आत्मसुख के लिए ही किसी एक के प्रति प्रेम होता है। आत्मसुख न देनेवाले किसीसे प्रेम न होगा। आत्मसुख मिलना प्रेम की वस्तु से या प्रैमी से नहीं। जब एक व्यक्ति एहसास करता है कि यथार्थ आत्मा का अपना स्वभाव शांति और आनंद है, तब उसका सारा दुराभिमान और अहंकार मिट जाएगा। तभी आत्मा रूपी अपना स्वभाव परमानंद को निरुपाधिक रूप में स्वयं भोगकर वैसा ही रह सकते हैं।
4030. ईश्वर को जानना चाहिए तो ईश्वरीयज्ञान जिनमें है,उनके पास जाना चाहिए। संपूर्ण ईश्वरीय ज्ञान सिवा ईश्वर के और किसी को मालूम नहीं है। अर्थात् अपने से मिले बिना एक ईश्वर को चौदह लोक में खोजने पर भी न मिलेगा। कस्तूरी हिरन अपने में जो कस्तूरी है, उसको ढूँढ-ढूँढकर मर जाता है। उसको कस्तूरी न मिलेगा। वैसे ही ईश्वर की खोज करके जानेवाले खुद ईश्वर है के समझने के काल तक ईश्वर को देख नहीं सकते और दर्शन तक कर नहीं सकते। जिसने ईश्वर के दर्शन किये है,वे सब अपने संकल्प देव को ही देखते हैं। अर्थात् स्वयं बनी आत्मा रूपी अखंडबोध माया रूप ही ईश्वरीय दर्शन ही उन्होंने किया है। अर्थात् जो देखता है, देखनेवाले भगवान के रूप में वह देखता है। जब किसी को श्री कृष्ण के दर्शन होते समय उसको एहसास करना चाहिए कि उसकी अंतरात्मा ही श्री कृष्ण रूप में दर्शन दिये हैं। वैेसे ही सभी दर्शन होते हैं। अर्थात् अखंडबोध मात्र ही नित्य सत्य शास्त्रीय रूप का ईश्वर है। चींटी से लेकर ब्रह्मा तक के सभी शारीरिक रूप जड ही होते हैं। जड कर्मचलन होता है। इसलिए सभी जड रूप तीनों कालों में रहित हैं। अर्थात् मृगमरीचिका को देखनेवाले रेगिस्तान देख नहीं सकते।रेगिस्तान को देखनेवाले मृगमरीचिका देख नहीं सकते। स्वर्ण को मात्र देखनेवाले आभूषण नहीं देख सकते। आभूषण देखनेवाले स्वर्ण देख सकते। वैसे ही नामरूपों के प्रपंच मात्र देखनेवाले को बोध दर्शन नहीं होगा। बोध दर्शन जिसको हुआ, वह नाम रूप प्रपंच को दर्शन नहीं कर सकता। अखंड बोध मात्र ही स्थिर होता है। जो उस अखंडबोध भगवान स्वयं ही है का एहसास करता है वही प्रपंच का केंद्र है। अर्थात् यह प्रपंच रूपी कार्य के कारण ही मैं रूपी अखंडबोध ही है। कार्य और कारण दो नहीं है, एक ही है।
4031.मैं है का अनुभव करनेवाला मैं रूपी बोध रूप परमात्मा अपनी शक्ति माया मन माया बनाई वासनामयी चित्त बनाकर दिखानेवाला मोह विषय वस्तुओं के पीछे जाकर उसको मोहित करके भेद बुद्धि से स्वस्वरूप को खोकर आत्म छाया बने अहंकार को आत्म रूप बने स्वरूप खोकर आत्म छाया रूपी अहंकार को गलत से आत्मा सोचकर अहंकार घमंड से विषय भोग वस्तुओं में सुधबुध खोकर उनमें नियंत्रित होकर अहंकार के स्वभाव काम,क्रोध,लोभ,मोह,आदि विकारों में मन फँसकर पराधीन होकर दुख पूर्ण हालत ही आत्मज्ञान पाने तक हर एक मनुष्य की होती है। इसलिए ब्रह्म में से उत्पन्न माया मन को ड स्वरूप शरीर में न लगाकर आत्मा से लगाने से ही पुर्जन्म से बच सकते हैं। शरीर से लगनेवाले चित्त काल से शरीर मिटने के साथ अपनी इच्छाओं और वासनाओं का भार ढोकर अति सूक्ष्म शरीर छोडकर अपनी इच्छाओं को पूर्ण करने के लिए अगले जन्म के शरीर के लिए खुले मैदान को जाएँगे।
4032. शांति पूर्ण मन की समदशा को मिटाने के लिए प्रकृति अपने अस्तित्व के लिए मनपूर्वक कई परिस्थितियों को मनुष्य जीवन में उत्पन्न करेगी। उससे भी पार करके सहनशीलता के साथ रहने अपने अहमात्मा से बढकर श्रेष्ठ खजाना ब्रह्मांड में और कोई नहीं है और इस ज्ञान की दृढता से कार्य करके जीनेवाले मनुष्य में ही परमानंद प्राप्ति की अर्हता होती है। ये सब परमात्म शक्ति मामाया अकारण उत्पन्न करके दिखानेवाले इंद्रजाल नाटक ही है। एक जादूगर मंच पर एक जीव को टुकडे टुकडे करके फिर उसको एक बनाता है। उसे देखनेवालों को संकट, आश्चर्य,चमत्कार अद्भुत देखकर आनंदित होता है। जादूगारी सीखते समय इसका पता चलेगा। वैसे ही भगवान रूपी जादूगर इस संसार की सृष्टि करके उसमें सुख-दुख देकर अंत में आनंद देता है। वास्तव में जादूगर किसी एक जीव को टुकडे टुकडे नहीं करता। फिर जोडता भी नहीं है। जादूगरी सीखते समय ही उस सूक्ष्मता कोो समझ सकते हैं। तभी एहसास कर सकते हैं कि जादूई चमत्कार, अद्भुत, संकट आदि निस्सार होते हैं। वैज्ञानिक ढंग से चिंतन करने पर भी वेदांत प्रकार से चिंतन करने पर भी इस सांसारिक रूपों को कोई बल नहीं है। अर्थात स्वत्व नहीं है।अर्थात् साधारण कण लेकर विवेक से देखते समय वह आकाशमय में बदलेगा। वैसे ही इस संसार के सभी रूप कण मन से देखते समय सब आकाशमय परिवर्तन होगा। आसानी से समझने के लिए एक टुकडे बरफ़ की खोज़ करते समय वह पानी बनकर भाप बनकर तन्मात्राओं में आकाश में बदलेगा। संसार के सभी आकार छिप जाने पर भी आकाश में कोई उतार-चढाव न होगा। अर्थात् ये आकार आकाश में होना न होना बराबर ही है।आकाश की कोई कमी न होती। दूसरा एक उदाहरण देखिए,बिजली वज्रघात होते समय आकाश में भिन्न रूप दीखने पर भी आकाश में कोई संभव नहीं होता। आकाश तो शुद्ध शून्य ही रहेगा। वह आकाश भी एक सूक्ष्म जड ही होता है। वह आकाश अति सूक्ष्म रूपी जड ही है। वह सर्वव्यापी आकाश का आधार अखंडबोध मैं ही है का एहसास करना चाहिए। अर्थात् मैं रूपी अखंडबोध में एक एक प्राण चलन या आकाश या वायु या अग्नि या भूमि नहीं है। सब मैं रूपी अखंडबोध में उत्पन्न होकर दीख पडनेवाले एक दृश्य मात्र है। अर्थात् इस शरीर को स्थूल सूक्ष्म कारण शरीर होते हैं। इस स्थूल सूक्ष्म कारण आदि तीनों रहित स्थान ही मैं रूपी अखंडबोध होताा है। वह मैं रूपी अखंडबोध तत्व अनुभव को कहने के लिए ही पहले मैं रूपी अहं नाद के साथ माया छिपे आकाश के साथ बाहर आती है। उसमें से ही बुद्धि और मन आदि अंतःकरण सब शारीरिक रूप में बदलते हैं। उनमें समष्टि रूप ईश्वर के और व्यष्टि रूप जीव के होते हैं। ईश्वर और जी माया में ही है। जीव और ईश्वर के परम कारण बने मैं रूपी अखंडबोध मात्र सत्य है। जड रूप सब असत्य है। जो बोध है,उसको उत्पन्न होने की ज़रूरत नहीं है। जो जड नहीं है, वह नहीं है। वह नहीं हो सकता।
4033. मनुष्य समाज द्वारा बनायेे सहीऔर गल्तियों
को मनुष्य यथार्थ सही और गल्तियों की खोज किये बिना हर एक जीव स्वीकार करके उनकी अधीनता स्वीकार करके गल्तियाँ किया करता है। जो मन गल्तियाँ करती है, वह भयभीत रहता है। मन के भय के कारण शारीरक अंग दुर्बल होतेहैं। उस भय से छुटकारा पाने के लिए यथार्थ में समझना चाहिए कि गलत क्या है? सही क्या है? ईश्वर को भूलकर जीना यथार्थ गलत है।यह सोचकर जीना यथार्थ सही है कि ईश्वर मात्र ही है।इस शरीर के अहं में जो आत्मा है,वही भगवान है। उस ईश्वर के नियंत्रण में जीना यथार्थ सही है। मनःसाक्षी के नियंत्रण में जीना ही यथार्थ सही है।मनःसाक्षी के विरुद्ध चलना ही यथार्थ गलती है। गलत काम सुख भी देगा और दुख भी। मनःसाक्षी के अनुकूल कोई कार्य करते समय उसका मन अपरिवर्तनशील आत्मा में लीन होने से जीवन सुखमय बन जाता है। कारण आत्मस्वभाव ही आनंद होता है। उसी समय कोई गलत करते समय मन मनःसाक्षी के बिना अहंकार के साथ जड विषयों की ओर जाएगा। जड का स्वभाव दुख होने से ही गलत करनेवालों को दुख होता है। अर्थात् जड परिवर्तनशील है, नश्वर है, जो नहीं है,उसे है सा दिखाता है।इसीलिए जड दुख के कारण बनता है। अपरिवर्तनशील एक पूर्ण वस्तु ही आनंद दे सकती है। वह जीवात्मा,परमात्मा,प्रपंच रूप में सर्वव्यापी, आकार रहित बोध रूप मैं नामक परमात्मा ही है।उस परमात्म स्वरूप ही सभी आनंद का केंद्र बन सकता है। जो इसका एहसास करता है, वही परमानंद का अनुभव करेगा। इसलिए हर एक जीव को स्वयं परमात्मा है की भावना को धैर्य पूर्वक बढाना चाहिए। जिनको वह हिम्मत नहीं है, उनको खोज करके देखना चाहिए कि मैं नहीं तो संसार और ब्रह्म रहेगा क्या। मैं न होने पर भी अन्य है को सोचने के लिए मैं की आवश्यक्ता है। मैं नहीं है तो कुछ भी नहीं है का एहसास करके सत्य की खोज करनी चाहिए। सत्य नहीं है तो धैर्य न होगा। आनंद न होगा,शांति न होगी। दुख मात्र होगा। सत्य की खोज करनेवाले का मन सत्य से न हटने से सत्य स्वभाव का आनंद उसमें होता रहेगा।
4034. मन का प्रतिवास तीनों कालों में रहित ही है। कारण मन का स्थिर रहना स्मरण के कारण से ही। लेकिन स्मरण में कोई स्मरण सत्य नहीं है। सभी यादें असत्य होने से उन असत्य यादों का मन भी असत्य ही रहेगा। इसलिए मन में उत्पन्न होनेवाले स्वर्ग-नरक,पाप-पुण्य, बंधन-बंधु आदि सब असत्य ही है। उदाहरण के लिए एक व्यक्ति स्वप्न में देखता है कि एक हाथी खरीद लिया है। स्वप्न के छूटते ही मालूम होगा कि अपना खरीदा हाथी असत्य है। उस हाथी खरीदने के असत्य का कारण मन ही है। अतः मन भी असत्य है। इसलिए जो मन नहीं है, उस मन को नाश करना ही मोक्ष प्राप्त करने का अभ्यास ही है। उसके अलावा दूसरा दूसरा एक अभ्यास ही प्राण चलनों का निश्चलन बनाना। मन जिस स्थान में दबता है, उस स्थान में प्राण भी दबेगा। प्राण और मन दो तत्व होने पर भी वे दोनों परस्पर ऐक्य ही है। इसलिए एक को नियंत्रित करने पर,दूसरा स्वयं नियंत्रण में आएगा। साथ ही परमात्म स्मरण करते रहना चाहिए। कालांतर में आत्मा अपनी पूर्णता में चमकेगा। जो मन नहीं है,उसे मिटाने के लिए आत्मबोध से न हटकर किसी प्रकार के संकल्प किये बिना रहना ही पर्याप्त है। साथ ही एहसास कर सकते हैं कि जो प्राण और मन नहीं है, वे दोनों बनते नहीं है।
4035. एक मनुष्य जितना भी अमीर हो,स्वर्णाभूषण का ढेर हो,स्वर्ग सम सुविधा हो,उसका शरीर और मन उसके अनुकूल नहीं है तो वह स्वर्ग सब नरक हो जाएगा। अर्थात् उसके आवश्यक दुखी काल सब अर्थ शून्य हो जाता है। कुछ भी न होने पर भी मन और शरीर अपने अनुकूल होने पर ही स्वर्ण आभूषण से बढकर अपने लिए राजमहल बन जाएगा। वैसे मन अनुकूल होना है तो कोई संसार में जो कुछ भी करें, आत्मबोध को विस्मरण न करके कार्य करना चाहिए। वही मनुष्य जन्म के लिए मणिमंत्र है। मैं नामक अखंडबोध मणिमंत्र में यह ब्रह्मांड है। मैं नामक अखंडबोध के सिवा दूसरी एक वस्तु कहीं भी नहीं है। अर्थात् अपने को ही सभी में दर्शन करते समय ही निश्चलन परमानंद सागर रूप में ही स्थिर खडा रहता है।
4036.जन्मांत्र कर्मगति के अनुसरण से ही शरीर, मन,प्रकृति आदि एक व्यक्ति के अनुकूल होता है। इसलिए कर्म शुद्धि जीवन के लिए प्रधान है। कर्म शुद्धि का मतलब एकात्म दर्शन ही है। अर्थात् सबको स्व आत्मा के रूप में दर्शन करना ही है। वह केवल आत्मज्ञान से ही हो सकता है।वैसे जीवन चलानेवाला जहाँ भी रहें, जैसी भी परिस्थिति में रहें उसको सिवा आनंद के दुख एक बूंद बराबर भी न आएगा। कारण आत्मा का स्वभाव ही आनंद है। पहले समझ लेना चाहिए कि एकात्म दर्शन होना धर्म-कर्म चलन के साथ ही होगा। यह भी जानना चाहिए कि चलन जहाँ होता है, वहाँ जड होता है। जड आनंद नहीं दे सकता। चैतन्य ही आनंद दे सकता है। निश्चलन में एक चलन न हो सकता। इस ज्ञान की दृढता से ही सभी चलनों में निश्चल आत्मा के दर्शन कर सकते हैं। मृगमरीचिका में रेगिस्तान के दर्शन करना चाहें तो रेगिस्तान के बारे में संपूर्ण ज्ञान चाहिए। अर्थात् जिसने रेगिस्तान का अनुभव किया है, वही मृगमरीचिका में रेगिस्तान को देख सकता है। वैसे ही ब्रह्म प्राप्त होकर दृढ रहनेवाले को ही सभी प्रपंचों में ब्रह्म को मात्र दर्शन कर सकते हैं। कारण ब्रह्म के बिना दूसरी एक वस्तु कहीं कभी हो नहीं सकता। इस तत्व बुद्धि में दृढ रहनवाले एक को ही मृगमरीचिका के समान प्रपंच को देखकर सभी प्रपंच में ब्रह्म दर्शन करके ब्रह्म स्वभाव रूपी परमानंद को स्वयं भोगकर आनंदित होकर वैसा ही रह सकता है।
4037. अहंकारी को और किसी जीव को आनंद में रहना देखकर संकट ही देगा। क्योंकि अहंकार का स्वभाव आनंद को मिटाना ही है। अहंकार का स्वभाव दुख पूर्ण है। आत्मा का स्वभाव आनंद ही है। अहंकार और आत्मा के गुण एक दूसरे का विपरीत है। इसलिए विवेकी अहंकारी से सहवास न रखते। केवल वही नहीं अहंकार ज्ञान को छिपाएगा। ज्ञान आनंद स्वरूप है। ज्ञान के बिना कुछ भी नहीं है। सब कुछ ज्ञान ही है।
4038. अहंकार का स्वभाव ही अपने से दुर्बल लोगों को झुकाना ही है। लेकिन आत्मा को अन्य जीव नहीं है। कारण अहंकार को स्वअस्तित्व नहीं है। आत्मा को मात्र ही स्व अस्तित्व है। अहंकार माया रूप है। मायाा रूपी आत्मा को छिपाकर ही स्थिर रहने की झांकी दिखाता है। वास्तव में अहंकार एक भ्रम होता है। भ्रम स्थाई नहीं है। आत्मा मात्र स्थाई होती है। आत्मा अनश्वर होती है। उसका जन्म-मरण नहीं है। वह स्वयंभू है। जो अपने को स्वयंभू का एहसास करता है, उसको मृत्यु भय नहीं होगा। वह शांति और आनंद के लिए कहीं याचना नहीं करेगा। इसलिए सत्य को सत्य, मिथ्या को मिथ्या समझना चाहिए। तभी दुख का विमोचन होगा। अर्थात् निराकार सुख स्वरूप आत्मा शरीर को स्वीकार करने से ही दुख होता है। जिस दिन जीव एहसास करेगा कि शारीरिक बंधन माया बंधन है, उस दिन प्राण रूपी सोचे शरीर को भूलकर यथार्थ प्राण आत्मा ही है का एहसास कर सकते हैं। तभी शरीर से संकुचित बोध सीमा पारकर असीमित होता है। साथ ही एहसास कर सकते हैं कि असीमित बोध स्वरूप परमात्मा ही है। उस स्थिति में ही आत्मा का स्वभाव ही परमानंद को दिन जैसे अनुभव कर सकते हैं।
4039.देव सर्वांतर्यामी परमेश्वर को विस्मरण करके स्वर्ग सुखों में डूब गये। देवों को परमेश्वर स्मृति होने के लिए देवों के शत्रु असुरों को उनके मन चाहे और माँगे वर देकर देवों के घमंड को चकनाचूर करके फिर उनको दव लोक में बिठाने की लीलाएँ अनादी काल से होती रहती है। वही इस भूमि पर राजसी जीवन, राज्यों के राजनैतिक जीवन , सामाजिक , पारिवारिक और जीवन में चलता रहता है।लेकिन कोई भी शाश्वत आनंद और शांति का अनुभव नहीं करते। सदा डरते डरते जीवन बिताते रहते हैं। भय रहित पूर्ण धैर्य होना चाहें तो मैं ब्रह्मा हूँ का ब्रह्मात्मक बोध दृढ होना चाहिए। जिसमें मैं ब्रह्म हूँ का ज्ञान दृढ हो जाता है, उसको युद्ध क्षेत्र में भी कोई हानि न होगी। क्योंकि उसको शरीर होने पर भी शरीर का स्मरण नहीं होगा। ब्रह्म रूपी अपने को कोई मिटा नहीं सकता। शरीर हो या न हो, वह अपने पर प्रभाव न डालेगा। वह सदा आनंदमय रहेगा। वे माया शरीर स्वीकार और त्याग सकते हैं। उनको उपयोग करके देवगण यद्ध जीतने का इतिहास है। ये सब ब्रह्म शक्ति बनाकर दिखानेवाले एक इंद्रजाल है ,इसमें कोई सच्चाई नहीं है। सच्चा रहना मैं रूपी अखंडबोध मात्र है। वही परमानंद रूप में नित्य सत्य रूप में शाश्वत रूप में है।
4040. सभी उपाधियों में एकात्मक है मैं रूपी अखंडबोध। उस बोध में ही यह प्रपंच मिटता है और उत्पन्न होता है। अर्थात् प्रभव और प्रलय होता है। वह अखंडबोध ही सभी का नियंत्रण करता है। वही अखंडबोध ही ज्ञानियों को मोक्ष मार्ग को दिखाता है। भक्तों को उनकी अभिषटों को पूरा कर देता है। उस अखंडबोध को ही वेद प्रशंसा करते हैं और स्तुति करते हैं। वह अखंडबोध ही स्वयं प्रकाश स्वरूप है। मैं है के अनुभव उत्पन्न करनेवाले परमात्म स्वरूप है। जो जीव इसका एहसास करता है, वही स्वंभू है। उसका एहसास करके अपने स्वभाव परमानंद को भोगकर वैसा ही स्थिर खडा रह सकता है।
3041.आदी पराशक्ति महामाया के त्रिशूल के आक्रमण से ही संकल्प ग्रंथी बने शारीरिक अभिमान का अहंकार टूटकर छिन्न-भिन्न हो जाएगा। वैसे शारीरिक अभिमान रूपी अहंकार मिटे जीव मात्र ही चाह रहित अभयदान के लिए शरणागति के लिए आत्मा की ओर यात्रा करेगा। अर्थात् शक्ति की सजा हमेशा शक्त में चलकर शक्त बनाने के लिए ही है।
3042. इस ब्रह्मांड में धन कमानेवाले धनी से, शास्त्र और लोकापुध शास्त्रों के अध्ययन से,संसार के नामी और विख्यात पुरुषों से संसार के आदी आरंभ काल से आत्मज्ञानी को ही अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं। स्वर्ग में देवों के बीच इंद्र के सामने ही पहले पहल ब्रह्म विद्या देवी रूप में प्रत्यक्ष प्रकट हुई हैं,आत्म ज्ञान को भी प्रकट किया है। अर्थात् ब्रह्मज्ञान अर्थात् आत्मज्ञान पहले पहल देवेंद्र को ही मिला था। इसीलिए देवेंद्र श्रेष्ठ है। इंद्र के बाद द्वितीय अवसर ब्रह्म से बोलने के लिए अग्निदेव और वायु देव को ही मिला,अतः वे दोनों ही श्रेष्ठ है। इसलिए उनके द्वारा बताये ज्ञान मात्र देवों को मिला था। अंतःकरणों में रखकर मुख्य रूप में हैं वचन,प्राण और मन। इनको ही वायु,अग्नि और इंद्र कहते हैं। इन अंतःकरणों को ही वायु,अग्नि और इंद्र कहते हैं। इन अंतःकरणों को आत्मोनमुख रूप में कार्यान्वित करते समय ही आत्मज्ञान होगा।प्राण से,वचन से मन ही प्रधान होता है। उसी जीव को आत्मज्ञान मिलेगा, जिसके मन में असुर गुण होते हैं,अहंकार होता है, उन्हें मिटाकर आत्मा में मन विलीन होता है। उस जीव को ही आत्मज्ञान मिलेगा। मन विषय वासनाओं के पीछे पडता है तो उस जीव को ब्रह्मज्ञान न मिलेगा। ब्रह्म मात्र ही सुख स्वरूप होता है। जो कोई सदा आनंद स्वरूपी होता है, वही स्थित प्रज्ञ होता है। इसलिए वे भी दूसरों से श्रेष्ठ होता है। बाकी देवों को उन बताये ज्ञान ही मालूम होता है। अंतःकरणों में वचन,प्राण और मन ही प्रधान होते हैं। उनको ही वायु,अग्नि और इंद्र कहते हैं।
4043.विस्मरित स्वस्वरूप परमानंद को पुनःप्राप्त करने की खोज खोज में लगने पर ही कल्पनाएँ होती हैं। कल्पना रहित बोध को ही आत्मा कहते हैं। कल्पनाएँ होते समय अखंड बोध खंडबोध होता है। कल्पना रहित दशा में खंडबोध अखंड बोध होता है। उस स्थिति में खंड और अखंड दोनों को अभिन्न एहसास कर सकते हैं।अर्थात् एहसास कर सकते हैं कि जीवात्मा और परमात्मा अभिन्न है।
4044.इस जन्म में महसूस करनेवाले सांसारिक यादें,शारीरिक यादें जन्म लेते समय पूर्व जन्म से संचित साथ लायी कल्पनाएँ उसकी भावना देनेवाले माता-पिता से शुरुआत् कल्पनाएँ,बढते समय स्वयं बनानेवाली कल्पनाएँ बंधनों के कारण होते हैं।
उन बंधनों से छूटने के लिए कल्पनाओं को नाश करना चाहिए। कल्पना रहित जीवात्मा बोध ही परमात्म बोध पाने का सकारात्मक पक्ष है। उसके लिए विषय सुख खोजने का भ्रम बदलना चाहिए। भ्रम के कारण ब्रह्म स्वभाव आनंदविस्मृति ही है। भ्रम बदलने के लिए किसी भी प्रकार के संकल्प किये बिना तैलधारा के जैसे ब्रह्म की भावना करनी चाहिए। वह ब्रह्म भावना ही ब्रह्म ज्ञान को पूर्ण करना चाहिए। वह ब्रह्म भावना ही ब्रह्म ज्ञान को पूर्ण करना चाहिए। उस ब्रह्म ज्ञान की पूर्णता से ही अपना मन पसंद स्नेह, स्वतंत्रता, सत्य, शांति,प्रेम,आनंद,स्वयं बने ब्रह्म का स्वभाव है। इसका एहसास करके उनका अनुभव करके वैसा ही हो सकता है। उस स्थिति में ही वह एहसास कर सकता है कि स्वयं स्नेह स्वरूप है, स्वयंही सत्य स्वरूप है,स्वयं ही ज्ञान स्वरूप है और स्वयं ही परमानंद स्वरूप है। ये सब आत्मज्ञान से ही एहास कर सकते हैं। उस आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए आत्मा को संपूर्ण रूप में साक्षात्कार किये एक गुरु से ही हो सकता है। उस स्थान में ही गुरु के महत्व को समझ सकते हैं। जो अंतिम जन्म लेता है वही स्वयं ही आत्मज्ञान का एहसास कर सकता है। जो वैसा नहीं है, उसके लिए आत्मज्ञान के लिए एक गुरु की अत्यंत आवश्यक्ता है।
4045. अपने हृदय को तडपाना,साँस खींचना, रक्त संचार करना, यादों का उदित करना, बुद्धि में विवेक देना, दृष्टि देना, श्रवण शक्ति देना, भूख लगाना, सुलाना,महसूस कराना,मलमूत्र निकालना आदि जो कराता है, वही सभी क्रियाएँ करते हैं , जो जीव इसका एहसास करता है। उसका अहंकार काम न करेगा। जब अहंकार का कोई काम नहीं होता, तब जीव भाव न रहेगा। जब जीव भाव नहीं होता,
तब प्रतिबिंब जीव बोध, जीव भाव छोडकर बिंब रूप अखंड बोध स्थिति पाकर अखंड बोध स्थिति के स्वभाव परमानंद को स्वयं भोगकर आनंदित होकर वैसा ही रह सकता है।
4046.जो कोई जिसको अधिक चाहता है,जिसकी याचना करता है, उससे संबंधित सब वस्तुएँ उसके पास आती रहेंगी। जिस वस्तु की याचना करता है,वह पर्याप्त मिलने पर भी जब तक चाहें होती हैं, तब तक चाहें पीछा करती रहती हैं। वह तभी चाह रहित रहेगा जब उसकी इच्छाएँ कठोर दुख और क्रूर कष्ट देने लगेंगी।जिस दिन वह पूर्ण रूप में अनासक्त रहेगा, उस दिन में उसका मन समदशा पर रहेगा। सम दशा प्राप्त मन आत्मा ही है। तभी वह एहसास कर सकता है कि अपनी इच्छित वस्तु आनंद नहीं दे सकती,आत्मा का स्वभाव ही आनंद देनेवाला है।
4047. अहं,अपना जब मिटने लगता है, तभी एहसास कर सकता है कि स्वयं शरीर नहीं है,संसार नहीं है, शरीर और संसार के कारण बने आत्मा ही यथार्थ मैं है। तभी स्वात्मा निश्चित रूप में बनता है। मैं आत्मा हूँ का भाव दृढ होता है। तभी आत्मा का स्वभाव आनंद को स्वयं भोग सकते हैं। जो उस स्थिति तक नहीं पहुँचे,उनका नाश निश्चित है। जो अपने नाश देखकर डरते हैं, उनको आत्मतत्व के बारे में जानने की कोशिश करनी चाहिए। तभी मरण रहित महान जीवन जी सकते हैं। मरण रहित महा जीवन की स्थिति है कि स्वयं बोध स्वरूप परमात्मा है, परमात्मा को जन्म मरण नहीं है, वह सर्वव्यापी है, वह निराकार है, परमानंद स्वभाव का है। इनको एहसास करने की स्थिति है। उस अनुभूति में दूसरा एक न होने से मृत्यु भय न रहेगा। वह नित्य है का एहसास होगा। वही अहं ब्र्मास्मी है।
4048. इस संसार सागर में कर्म बंधन में सब सदा दुख का अनुभव करते रहते हैं। उस दुख से मुक्त होने के लिए शास्त्र -पुराण सीखना,सुनना, प्रवचन देना,मंदिर में जाकर प्रार्थना करना,प्रायश्चित्त करना व्यर्थ ही है। दुख से छुटकारा पाना असंभव है। लड्डु के खाने से ही मिठास का अनुभव होगा। उसके वर्णन सुनने से नहीं होगा। वैसे ही जीवन का अनुभव मधुर होना है तो समझना चाहिए कि कैसे जीना चाहिए। आत्मज्ञान में ही जीवन का रहस्य होता है। कारण संसारिक व्यवहार करनेवाले शरीर, पंचेंद्रिय, करचरण अवयव,कर्म करने की प्रार्थी होना उनके पृष्ठभूमि में आत्मबोध होने से ही है। उसकी स्पष्टता यही है कि बोध नहीं है तो शरीर और संसार नहीं है।इस ज्ञान को गहराई से खोज करके बुद्धि में रखकर बाद में व्याख्या करनी चाहिए। मुख्य रूप में जानना चाहिए कि बोध स्वभाव सुख स्वरूप होता है।
शरीर और संसार जड स्वरूप होते हैं। वे सुख नहीं दे सकते। तभी मन शरीर और संसार को छोडकर बोध से मिलकर कार्यों को कार्यान्वित कर सकता है। जो बोध,शरीर,और संसार को विवेक से जान समझकर जीवन नहीं बिताता, वह सदा दुख देनेवाले माया संसार में बोध सुख अनुभव करके जी नहीं सकता।
4049. किसी एक के स्वप्न में चित्त रहित संसार को गुना करके देखने के जैसे समुद्र में बुलबुले अकारण उमडकर आने के जैसे, सृष्टि में,परमात्मा में,अखंड बोध में असंख्य जीव पैदा होते रहते हैं। लेकिन सभी जीव माया कर्मबंधन में अपने निज स्वरूप न जानकर दुखी रहते हैं। बोध से उत्पन्न सब बोध के बिना और नहीं बन सकता। इसीलिए हर एक जीव अपने निज स्वरूप के लिए जाने अनजाने कोशिश करते रहते हैं। कारण जीव को बोध का स्वभाव परमानंद नष्ट हुआ है। उस आनंद को ही जीव अपने सभी विषयों में ढूँढ रहा है। उस खोज में जीव को भूख और प्यास रहता है। भूख मिटे बिना जीव क अपनी सृष्टि की खोज नहीं कर सकता। लेकिन भूख और विषय सुखों में मिलकर ही अपने अस्तित्व के लिए माया जीवात्माओं को नियंत्रण में रखती है। मनुष्य में जो जीव विषय वस्तुओं और खाद्य वस्तुओं पर की चाहों को तजकर जीने के लिए मात्र वस्तुओं को कमाकर बाकी समय अपने निज स्वरूप को पुनःप्राप्त करने की कोशिश करता है,वैसे जीव को ही ब्रह्म अर्थात् सत्य अर्थात उनकी अंतरात्मा सदा सर्वकाल ईश्वरीय स्थिति में जीने के लिए संदर्भ परिस्थितियों को बनाकर सत्यमार्ग को दिखाता है।
4050. सत्य त्यागकर बोलने बोलने पर भी सत्य विश्वासी भी भरोसा नहीं करेंगे। वही सत्य का रहस्य है। इसीलिए सत्य समझनेवाला मन मौन रहता है। अर्थात् सत्य बोल नहीं सकते।कारण सत्य से अन्य कोई नहीं है। वैसे ही विश्वास रखने की आवश्यक्ता नहीं है। कारण सत्य अनुभव है। अनुभव के लिए विश्वास की ज़रूरत नहीं है।
4051. स्त्री जो गलत करती है, उसे प्रकृति पुरुष को त्यागकर बोलने की अनुमति न देगी। क्योंकि प्रकृति का प्रतिबिंब रूपी स्त्री सत्य को छिपाकर रखने का प्रयत्न करेगी। कारण सत्य को छिपाकर ही प्रकृति स्थिर खडी रहती है। प्रकृति का स्वभाव ही साधारणतः सब स्त्रियों में है। इसीलिए स्त्रियाँ पुरुष को आत्मोन्मुख होने न देकर बहिर्मुख के लिए कोशिश करती है। अर्थात् पुरुष की बुद्धि,प्राण,मन,शरीर को आत्मा के निकट न जाने देने में प्रकृतीश्वरी सदा सन्नद्ध रहती है। लेकिन विवेकी पुरुष प्रकतीश्वरी रूपी सत्य मार्ग को त्यागकर देनेवाली विद्या माया को उपयोग करके मनको आत्मा से लीन करके पुनर्जन्म रहित मुक्ति स्थिति पाएगा। उसी समय अविवेकी सत्यमार्ग को बंद करनेवाली अविद्या माया में रहने से मन को शरीर से जुडकर मृत्यु प्राप्त करके अनंतर जन्म का पात्र बनता है। अर्थात् ईश्वरीय स्मरण दिलानेवाली माया सब विद्या माया है, ईश्वर को अविस्मरण कराने की माया अविद्या माया है। लेकिन इस बात का एहसास करना चाहिए कि सत्य रूपी आत्मा को पूर्ण रूप से साक्षात्कार करने के साथ ही विद्या माया और अविद्या माया तीनों कालों में रहित है,परमात्मा मात्र ही सर्वव्यापी है।वह परमात्मा ही परमात्मा का स्वभाव ही परमानंद को अनुभव करके वैसा ही हो सकता है।
4052.साधारणतः एक मनुष्य, उसके शारीरिक अभिमान से इच्छा शक्ति,क्रिया शक्ति,ज्ञान शक्ति को एहसास नहीं कर सकता। इसलिए ब्रह्म से ही सृष्टि स्थिति की संहार मूर्तियाँ उत्पन्न होती हैं। लेकिन जो कोई इस शरीर और संसार को तजकर
सत्य रूपी आत्मबोध में लग सकते हैं। वैसे जो कोई खंडबोध रूपी जीव भाव को आत्मविचार से मिटाता है तो खंडबोध सीमा तजकर अखंडबोध स्थिति को पाता है। उस अखंडबोध स्थिति में ही अपनी शक्ति माया,इच्छा,ज्ञान ,क्रिया आदि रूप में अपने में प्रकट होते रहने को एहसास कर सकते हैं। उस स्थिति में संकल्प लेकर ही इस प्रपंच का अस्तित्व है। एहसास कर सकते हैं कि संकल्पनाश लेकर उसे मिटा सकते हैं। अर्थात् स्वसंकल्प के बिना कुछ भी इस संसार में दर्शन नहीं कर सकते। संकल्प ही संसार है। संकल्प न हो तो यह संसार मिट जाएगा। संकल्प करनेवाला मात्र स्थिर खडा रहेगा। वही मैं रूपी अखंडबोध है।
4053. पंचेंद्रियों को लेकर जो कुछ जानते हैं,वे सब द्वैत बोध में ही है। लेकिन असीमित है उसके आधार में खडे मैं है के अनुभव करनेवाला अखंडबोध ही है। उस स्थान को इंद्रिय,मन,बुद्धि आदि जा नहीं सकता। कारण इंद्रिय,मन,बुद्धि सीमित बोध में बोध शक्ति बनाकर देखरेख करने से वह तीनों कालों में रहित ही है। कारण असीमित मैं नामक अखंडबोध में एक प्राण चलन किसी भी स्थान में हो नहीं सकता। कारण बोध निश्चलन परमात्मा है। वह सर्वव्यापी है। वह सर्वत्र विद्यमान है। बोध रहित स्थान कहीं नहीं है। इसलिए उससे कोई चलन कभी नहीं होगा। चलन होने से लगना भ्रम ही है। भ्रम माया से बनाया स्वरूप विस्मृति ही है। अर्थात् माया के द्वारा स्वरूप को विस्मरण करते समय माया बदलकर स्वरूप को स्मरण करते समय स्वरूप में कोई परिवर्तन न होगा। इसलिए इस भ्रम में भी ब्रह्म को दर्शन करनेवालों पर माया कोई प्रभाव नहीं डाल सकता। अर्थात रेगिसतान से पूर्ण जानकारी प्राप्त मनुष्य के सामने मृगमरीचिका कोई असर नहीं डाल सकता। वैसे ही भ्रम वस्तु में भी ब्रह्म को जो देखता है,ब्रह्मबोध नष्ट नहीं होता। इस संसार में दृष्टा,दृश्य,दृष्टि आदि तीनों भावों में ही इस प्रपंच में सब कुछ निहित है। लेकिन दृष्टा को छोडकर दृश्य, दृष्टा और दृश्य को छोडकर ज्ञा न होगा। दृष्टा के बिना दृश्य, दृगदृश्य ज्ञान न होगा। अर्थात दृष्टा रूपी बोध ही दृश्य और ज्ञान के रूप में होते हैं। काण बोध अखंड है। निाकार अखंडबोध में कोई दृश्य नहीं हो सकता। दृश्य न होने से दृश्य ज्ञान नहीं हो सकता। होने से लगना भ्रम ही है। भ्रम के कारण माया ही है। माया को विवेक से जान नहीं सकते। कारण माया रहित है। माया पटल जीवन को बेकार करेगा। युक्ति रहित नाम ही माया है। सवा अपने के किसी में युक्ति न रहेगी। स्वयं ही सब कुछ है। वह बोध रूप में ही है। वह मैं है का अनुभव है।
4054.इस संसार में कोई भी अपने से अन्य एक वस्तु या जीव का अनुभव नहीं करते। ज्ञानियों को मालूम है कि वे ही सर्वेसर्वा होते हैं। वही सत्य है। केवल वही नहीं मैं नामक अखंडबोध निर्विकार होता है। कारण बोध बननेवाले ब्रह्म से अन्य दूसरी वस्तु न हो सकने से ब्रह्म विकार नहीं हो सकता।इसलिए ब्रह्म निर्वीकार है। केवल वही नहीं,जगत मिथ्या,ब्रह्म सत्यम् के वेदांत सत्य के अनुसार यह शरीर,संसार आदि तीनों कालों में रहित है। बोध रूपी स्वयं मात्र अखंड है। माया के द्वारा छिपे ब्रह्म प्रतिबिंब बोध बननेवाले जीव को द्वैत्व बोध होता है। जीव को ही लगता है कि दूसरे एक को अनुभव करते हैं।माया के परिवर्तन के समय ही स्वयं है का बोध होता है। अर्थात् सभी द्वैत् विकार माया में ही है। माया तीेनों कालों में रहित होने से ये विकार तीनों कालों में रहित ही है। मैं नामक अखंडबोध एक मात्र ही नित्य सत्य रूप में है। ब्रह्म सुख स्वरूप है। जो कोई अपने को ब्रह्म का एहसास करता है, उसको ब्रह्म के जैसे सुख भी नित्य रहेगा।
4055. ब्रह्म से प्यार करनेवाले आकार से प्यार नहीं कर सकते। आकार से प्रेम करनेवाले ईश्वर से प्रेम नहीं कर सकते। अर्थात् निराकार ईश्वर से प्रेम करनेवाले को ही निराकार ब्रह्म बन सकता है। आकार ईश्वर से प्यार करनेवाले आकार ईश्वर लोक को ही जा सकते हैं। आकार सब माया पूर्ण है। अर्थात् जहाँ चलन होता है,वहाँ सब जड होते हैं। जड कर्म है,कर्म चलनशील है। चलन निश्चलन में अस्थिर है। इसलिए आकार ईश्वर, आकार देवलोक , आकार भक्त निराकार परमेश्वर बनने तक अर्थात् परमात्मा बनने तक माया बंधन न छूटेगा। सर्वस्व बदलता रहेगा।परिवर्तन में अपरिवर्तन का सुख न मिलेगा। अपरिवर्तनशील नित्य सुख निराकार परमात्मा का ही स्वभाव है।
4056.इस संसार के दुख रोग का महौषध केवल आत्मज्ञान मात्र ही है। जो कोई आत्मज्ञान सीखना चाहता है,उसको पहले अपने मन को भोग्य विषय वस्तुओं से मुक्त करके पंचेंद्रियों को नियंत्रण में रखकर आत्मविचार में लीन होना चाहिए। अर्थात् शास्त्रविहित कर्मों को निष्काम रूप में चित्त शुद्ध के साथ करना चाहिए। चित्त पवित्र नहीं तो गुरु के उपदेश मिलने पर भी,शास्त्रों के अध्ययन करने पर भी आत्मज्ञान न चमकेगा। वह सूक्ष्म ज्ञान ग्राह्य नहीं कर सकता। उसकी बाधाएँ हैं, उसमें बसे अहंकार, काम-क्रोध,भेद बुद्धि,राग-द्वेष आदि चित्त मल होते हैं। इसलिए पहले मन को पवित्र करना है। वह तैलधारा जैसे रहनेवाले आत्मविचार से ही साध्य होता है।तभी आत्मतत्व ग्राह्य होगा,जब परिशुद्ध मन से वेद,उपनिषद,भगवद्गीता आदि
पवित्र ग्रंथों को विधिवत् पढते समय आत्मतत्व ग्राह्य होगा। आत्मज्ञान ग्रहण करते समय अपने अहमात्मा नामक जीवात्मा को पूर्ण रूप से साक्षात्कार कर सकते हैं। साथ ही शरीर,संसार विस्मृति और ब्रह्म स्मृति होगी। तभी अपने में परमानंद भोगकर
वैसा ही रह सकते हैं। उस स्थिति में मैं नामक आत्मबोध शांत गंभीर रूप में रहेगा, मौन गण रूप में रहेगा, अमृत सागर रूप में रहेगा।
4057.परस्पर विरोध रहने वाले इस प्रपंच दृश्य में सर्वांतर्यामी परमात्मा ही अपने हृदय में अहमात्मा के रूप में बसते हैं।अर्थात अपने अहमात्मा रूपी बोध ही सारे प्रपंच में व्याप्त रहता है। अर्थात् मैं नामक अखंडबोध बने ब्रह्म की शक्ति ही माया है। इन माया शक्तियों के द्वारा इस संसार को ब्रह्म अपने से अर्थात् निश्चलन से न बदलकर निस्संग रूप में सृष्टि करना,रक्षा करना,संहार करना आदि करते हैं। लेकिन वह माया देवी लोक को जितना मोह करता है, जीवों को घूमकर घुमाकर फँसाकर तडपाती है, उतना अपने नाथ को ब्रह्म को मोहित नहीं करता। एक साँप का विष साँप पर असर नहीं डालता। वैसे ही ब्रह्म शक्ति माया सांसारिक जीव पर असर डालने पर भी, ब्रह्म पर प्रभाव नहीं डालता। इस संसार को बनाकर इंद्रजाल दिखानेवाली माया की उत्पत्ति स्थान को जाननेवाला माया मुक्त हो जाएगा।
उसको जन्म या मृत्यु नहीं है। सूर्य प्रकाश में जो कुछ भी करें, वह सूर्य पर प्रभाव न डालेगा।वैसे ही माया के द्वारा प्रतिबिंबित ब्रह्म प्रतिबिंब बने जीव संकल्प करके बनानेवाला प्रपंच का कोई दुख बिंब रूपी परमात्मा अर्थात् ब्रह्म पर कोई असर न डालता। जो कोई एहसास करता है कि इस संसार और शरीर के परमकारण अखंडबोध मात्र है, वह अपनी शक्ति बनाकर दिखानेवाली माया का इंद्रजाल जो भी हो,वह असर नहीं डाल सकता। अर्थात उसको स्वरूप विस्मृति न होगी। इसलिए स्वरूप विस्मृति लेकर जीव के रूप में दुखित जीवात्माओं को पहले जानना चाहिए कि नाम रूप की चींटी से ब्रह्मा तक के स्थूल और सूक्ष्म के सभी शारीरिक रूप तीनों कालों में रहित है। मैं नामक अखंडबोध मात्र ही नित्य और सत्य है। परमानंद है।इस बात को बुद्धि में दृढ बनाकर स्वयं साक्षात्कार करना चाहिए।
4058.ईश्वर के स्मरण आते ही ये स्मरण मिट जाएगा कि भगवान सर्वव्यापी,सर्वस्व होने से ईश्वर ऊपर हैै,नीचे हैंं,बाये हैं,दाये हैं,भीतर है.बाहर हैं।
उस स्मरण के साक्षी स्वरूप शरीर के स्मरण रहित निरंतर नित्य शाश्वत मैं रूपी परमात्मा बने अखंडबोध मात्र है। इस बात को सोच समझकर एहसास करके बोध स्वभाव शांति को निरुपाधिक नित्य रूप में अनुभव कर सकते हैं। तब शरीर और शरीर देखनेवाला प्रपंच बोध में ओझल हो जाएगा। मैं नामक अखंड बोध मात्र परमानंद स्वरूप में खडा रहेगा। दुखी जीवों को एहसास करना चाहिए कि भगवान एक ही रूप में हटकर दूर खडा रह नहीं सकते। हम अपनी आँखों से जो कुछ देखते हैं, वे सब ईश्वर ही है। ईश्वर ही उन रूपों में आकर उचित सज़ा और पुरस्कार देते हैं। जगत का भला बुरा पंचतत्वों पर निर्भर है। घास,कीडे-मकोडे,पौधे- पेड,चंद्र सूर्य
के रूप में ईश्वर के रूप में आते हैं। हर मिनट हमें ईश्वर के दर्शन होते हैं। उस ईश्वर के निज स्वरूप माया माया पर्दा को हटाकर ईश्वर को दिखा देगा। ईश्वर की तलाश करनेवाला ही ईश्वर होता है। इसे वह एहसास कर सकता है।
4059. एक और एक रस के ईश्वर को अपनी शक्ति माया अनेक रसवाला,बहुरंगीवाले रूप को बनाकर दिखाता है।ब्रह्म सदा एक रस,एकन, निराकार, सर्वव्यापी ही है।वही नहीं माया ये सब उत्पत्ति करके दिखाता है कि ईश्वरीय गुण रहित स्वभाव को, सत्य विकास को परिवर्तन करके जय और नाश भगवान में है का एक दृश्य बनाकर दिखाता है। उत्पन्न करना,सत्य,विकास,परिवर्तन, जय और नाश माया का स्वभाव है।अर्थात् माया स्वभाव को ईश्वर में आरोप लगाकर ही माया देवी प्रकृतीश्वरी स्थिर खडी रहती है। सत्य की खोज करनेवाले को समझ लेना चाहिए कि असत्य को कोई अस्तित्व नहीं है। शरीर और संसार ही असत्य है। समझ लेना चाहिए कि यह स्थाई सत्य आत्मा स्वयं ही है। दीखनेवाले सभी रूपों में निराकार अपने को ही दर्शन करना चाहिए।
स्वयं नहीं है की भावना को मिटाना चाहिए। तभी अपने स्वभाविक परमानंद को पूर्णरूप में साक्षात्कार करना चाहिए।
4060. किसी एक जमाने में विज्ञान के द्वारा मनुष्य जिसे असाध्य समझ रहा था, वह दूसरे जमाने में साध्य हो जाता है।कारण सबको साध्य होने के कारण मनुष्य में सब को साध्य बनाने का सामार्थ्य होता है। अर्थात् कोई एक क्षण मन बुद्धि अधिक बोध को स्पर्श करने पर ही साध्य होता है।
4061. जो कोई भक्त किस किस देवता को तैलधारा के जैसे उपासना करता है,उनके मन में उस देवता का रूप स्थान पाएगा। इसलिए उनके दुश्मन उनको देनेवाले दुखों को देवता के शस्त्र जवाब देंगे। वैसे ही सत् चिंतन से देवता भक्तों को सुरक्षा करेगा।
4062. जो रत्न का मूल्य जानता है,रत्न कीचड में रहने पर भी उसको किसी न किसी प्रकार से अपनाना चाहेगा। वैसे ही आत्मज्ञान को विवेकी सविनय जाति-धर्म वर्ण भेद रहित स्वीकार करेंगे। हीरे की परख जौहरी जानता है। कपडे के व्यापारी नहीं जानता। वैसे ही आत्म ज्ञान की महिमा जिसमें आत्मबोध है वही जानता है।अहंकारी को मालूम नहीं है।
4063. देहाभिमान के अहंकार में जड पकडते समय मन अधर्म करना चाहेगा।
कारण अधर्म अहंकार का स्वभाव होता है। वैसे ही मन आत्मा में जड पकडते समय
मन धर्मकर्म करना चाहेगा। मन आत्मा की ओर न जाने पर अहंकार प्रकृति के दंड से विनाश होगा। शरीर से आत्मा की ओर गया मन मुक्त होगा। साधारणतः संसार में सब असत्य पर विश्वास करके ही जी रहे हैं। सत्य ज्ञान के परिमाण के अनुसार ही विमोचन होगा।जैसे पूर्ण प्रकाश में अंधकार नहीं रह सकता,वैसे ही पूर्ण ज्ञान में दुख देनेवाले शरीर और संसार नहीं रहता।
4064. इस संसार में जो कोई ब्रह्मात्म बोध में अर्थात आत्मा रूपी स्वयं ही ब्रह्मा का एहसास करके ब्रह्म स्थिति पर रहता है,वह ब्रह्म का स्वभाव परमानंद में रहेगा।
उसी समय जो कोई ब्रह्म बोध रहनेवाले पर उसकी अपनी बुरी सोच से तीर चलाना चाहता है, वह ब्रह्म बोध रहनेवालों के निकट जाने के पहले ही कई गुना बढकर
जिसने तीर चलाया,उसके पास वापस आएगा। वही वह सोच ही उसकी सजा होती है। कारण जिसमें ब्रह्म बोध होता है, उसको शरीर और सांसारिक सोच न रहेगा।
इसीलिए शत्रुओं के बुरे चिंता शर ब्रह्म निष्ठ तक न जाकर शून्य में ठकराकर जिसने तीर चलाया,उसी के पास वापस आएगा। जो तीर चलाता है,वह वापस आकर उसपर असर डालने से ही बुरा मनुष्य अच्छा हो जाता है। वैसे प्रकृति के हर कार्य खाली स्थान भरने के समान ही है। जहाँ दो देखते हैं, वहाँ दुख आरंभ होगा। जहाँ एक ही है का एहसास करते हैं, वहाँ सुख शुरु होगा।
4065.जो मन पत्नी,बच्चे,संपत्ति,सुख आदि पर आसक्त रहता है, वह मन निराकार परमात्मा तक जाने की कोशिश करते समय एक क्षण भी आत्मा को सोचकर उसमें स्थिर खडा रहना दुर्लभ हो जाता है। केवल वही नहीं,मन तुरत किसी एक रूप की खोज में वापस आ जाएगा। कारण मन किसी नाम रूप से आश्रित रहे बिना स्थिर नहीं रह सकता। जो कोई रूप की मिथ्या स्थिति को जीव रूपी मन को समझाता है,उसको समझे मन को पीछे विषयों में लगने की वासना न रहेगी।विषय सब मिथ्या है के ज्ञान में अर्थात ज्ञानाग्नि में विषयों के आकार सब नाश होने से मन इच्छा रहित विषयों को छोडकर अपने निराकार वासस्थान ब्रह्म में वापस आकर उसमें ऐक्य हो जाएगा। जो संपूर्ण आत्मज्ञान सीखना चाहता है, उनको सब को अपना ही समझना चाहिए, चाहें वह अपना परिवार हो या समाज हो या राज्य हो सब में अपने को ही देखने का अभ्यास करना चाहिए। रूप सब बल्ब है तो सब में एक ही बिजली जैसे आत्मा है की भावना को विकसित करना चाहिए।तब
कालांतर में एहसास कर सकते हैं कि रूप मिटनेवाले हैं, एक रूप बोध ही परमात्मा है,बाकी सब रूप बनकर मिटनेवाली माया है। साथ ही बोध के स्वभाविक परमानंद को भोगकर स्वयं अनुभव करके आनंदित रह सकते हैं।
4066. यह शरीर संसार के उत्पन्न होेने के पहले ही एक बोध रूप भगवान ही रहा था। उस परमात्मा को पराशक्ति बनी महामाया अकारण आकाश रूप में
ढककर छिपा देने से स्वरूप को भूलकर शुद्ध शून्य आकाश बन गया। आनंद नाश का बोध माया बनाये चित्त में प्रतिबिंबित होकर जीव बनकर जीव देखनेवाले शरीर और संसार वासनमयी चित्त अपने को ही भूलने के लिए बनाते रहने के रूप ही अब हम देखनेवाले शरीर और प्रपंच होते हैं। नाश हुए आनंद को प्राप्त करने के लिए ही
इस माया भरे संसार में सभी जीव प्रयत्न कर रहे हैं। परमात्मा रूपी भगवान,अपनी चलनशक्ति माया को प्रयोग करके अन्य जीवों को सृजन करके उनको उनकी वास्तविकता को अनजान रखकर अंतःकरणों को बनाकर उनके संकल्प लोक में वे जीकर धीरे धीरे ईश्वर की ओर पहुँचने के लीला विनोद देखकर रसिक होना ही इस सृष्टि का रहस्य होता है। परमात्मा स्वयं स्वस्वरूप विस्मृति से बनकर देखनेवाले दृश्य ही यह शरीर और संसार है। शरीर और संसार तीनों कालों में रहित ही है। यह शरीर और प्रपंच चलनात्मक होने से माया है। कारण निश्चलन अखंडबोध में कोई चलन हो नहीं सकता।
4067. राज्य को शासन करनेवाले एकाधिपति या राष्ट्रपति को विविध प्रकार की बाधाओं का सामना करना पडेगा। जो राजा अपनी इच्छा के अनुसार
शासन करना चाहता है, उनको समझना चाहिए कि अपनी प्रजाएँ शिलाएँ नहीं हैं।
उनको एहसास करना चाहिए कि मन-बुद्धि, विवेक-अविवेक,धर्म-अधर्म,राग-द्वेष, काम-क्रोध, विकारों से भरे हर एक प्रतिभास है। कौन सी जीव किस मिनट क्या होगा ?किसी को मालूम नहीं है। केवल वही नहीं, यह शरीर और यह संसार माया कल्पित है,तीनों कालों में रहित एक गंदर्व नगर में ही राज्य शासन करता है। इस संसार में किसी को भी एक युक्ति नहींं है। जिसमें युक्ति नहीं है, वह रहित ही है। राज्य नहीं है, प्रजाएँ नहीं है राजा नहीं है,इस ज्ञान दृढता के बाद ही राज्य का शासन करना चाहिए।अर्थात् इस शरीर और संसार के परम कारण मैं नामक अखंडबोध एक मात्र ही शाश्वत सत्य है। इसको समझकर संसार में न प्रजा,न राजा ,न शासन यों सोचने से ही पूर्ण धैर्य के साथ राज्य का शासन कर सकते हैं। वैसे ही जनक महाराज शासन करते थे।
4068. हमेशा सकल चराचरों को अपने प्राण जैसे स्नेह करने की मनोभावना पैदा करना ही आदर्श है। वैसे सिद्धांतों को धन के लिए, पद के लिए,यश के लिए बली देनेवालों को मनुष्य नहीं कह सकते। मनुष्य जन्म लेकर मनुष्यत्व नहीं है ,मनुष्य आत्मा का महत्व न जानकर जीनेवालों को कीडा भी कह नहीं सकते। वैसे लोगों को जानना चाहिए कि मनुष्य का जीना उसके खोये नित्य आनंद और शांति को पुनःप्राप्त करना। पुनःप्राप्त करने के लिए मार्ग सत्य,धर्म,कारुण्य ,ब्रह्म चिंतन के उपदेश देनेवाले सत्संग को समझकर कर्म करना चाहिए। नहीं तो जीवन के दुखों में तडप तडपकर मरना पडेगा। कारण शरीर संसार के जड के लिए जीनेवालों को स्वप्न में भी शांति और आनंद न मिलेगा। यह शरीर और सांसारिक विषय भोग नरक ही देंगे।.इन बातों को बच्चा सोने के लिए नानी कहने की कहानी की प्राचीन कहानी जैसे एहसास करके शास्त्र सत्य रूपी मैं नामक अखंड बोध परमात्मा के लिए जीनेवाले को ही परमात्मा के स्वभाव अवर्णनीय शांति असीमित आनंद निरंतर रूप में नित्य अनुभव करके वैसे ही हो सकते हैं। मैं नामक अखंडबोध मात्र ही सत्य है। अर्थात् यहाँ बोध रूप परमात्मा मात्र है। बाकी सब माया है और भ्रम है।
4069. राज्य नियम, समुदाय नियम,पारीवारिक नियम , सांसारिक नियम आदि और हर एक जीव और शारीरिक नियम भारत की रामायण पुराण के राम-रावण संघर्ष ही है। आत्मा और अहंकार दोनों हमारा संघर्ष है। परमात्मा और प्रकृति में संघर्ष है। केवल सत्य में कोई संघर्ष नहीं है। ईश्वरीय शक्ति महामायादेवी अखंड और एक रूपी मैं नामक अखंडबोध को विविध बनाकर दिखानेवाले इंद्रजाल नाटक ही शरीर और सांसारिक प्रपंच दृश्य और अनुभव ही है।
4070. किसी एक मनुष्य को संदेह आते समय मन के मार्ग पर जाने पर विविध प्रकार की झंझटें होंगी। केवल वही नहीं, सही उत्तर न मिलेगा। मन में जो प्रश्न
आते हैं,उसे बुद्धि के द्वारा हृदय में रहनेवाले आत्मा को देकर आत्मा से आनेवाल उत्तर ही संदेह को दूर करेगा। कारण मन,बुद्धि और शरीर अंधकार पूर्ण है। आत्मा
प्रकाशमय है। कारण मन,बुद्धि और शरीर ब्रह्म बनी आत्मा के उपकरण मात्र है। इस शरीर को आत्मा ही क्रियाशील बनाती है। एक गायक गाते समय बोध ही गाता है,आदमी नहीं। कारण बोध नहीं है तो शरीर हिलेगा नहीं।
एक कवि कविता लिखते समय बुद्धि और शरीर नहीं, बुद्धि उपाधि मात्र है, बोध ही लिखता है। वैसे ही एक सुंदरी की विशेष सु्ंदरता होने के कारण शरीर नहीं है।
उस शरीर में मिलकर चमकती है आत्मबोध ही। कारण बोध नहीं है तो सुंदरता नहीं है। वैसे ही फ़ुटबाल विजेता की विजय उसकी क्षमता नहीं है।उसके शरीर का बोध ही खेलता है। क्योंकि बोध नहीं है तो शरीर खेल नहीं सकता। वैसे ही सभी जीवों की क्षमताएँ शरीर का नहीं है,प्राण की है। अर्थात् एक एलक्ट्रिकल मोटार चलते समय पानी आता है।वैसे रात में बल्ब जलते समय बल्ब की रोशनी ,प्रकाश बल्ब नहीं , पानी लाना मोटार नहीं, बिजली ही है।क्योंकि बिजली नहीं है तो मोटर,बल्ब चालू नहीं होगा। वे केवल जड ही हैं। वैसे ही नाम रूपात्मक से मिलनेवाले गुण
जड नहीं देते,परमात्मा रूपी अखंडबोध ही देते। जब जीव इन बातों का एहसास करता है, तब शारीरिक अभिमान अहंकार असहाय स्थिति पर आएगी। अहंकार असहाय स्थिति पर न आएगा तो आत्मा का आनंद अनुभव नहीं कर सकते। कारण आनंद को छिपानेवाला अहंकार ही है। अर्थात आत्मा के महत्व को एहसास
करके अहंकार की निस्सारता प्रकट होते समय ही जीवन में आनंद और शांति होगी।
4071. निष्कलंक हृदयवाले को कलंकित आदमी है का आरोप लगानेवाला ब्रह्महत्या पाप का पात्र बनेगा। क्योंकि जो ब्रह्म बोध में रहता है, उसको उस स्थिति से उसके मन को माया बंधन की ओर खींचकर लाने से ही पाप का पात्र बनेगा। जो ब्रह्म बोध में रहनेवाले को द्रोह करता है,उसपर प्रकृति से दंड मिलेंगे।
वैसे जो दंड अनुभव करते हैं,वे भावी जीवन में सज्जनों से मिलकर सत्य को सीखकर सत्य ही बन जाता है। इस प्रकृति का नियम आदीकाल से आवर्तन करता रहता है। मन को कोई परिवर्तन नहीं है। वह मैं नामक अखंडबोध ही है। जो परिवर्तनशील है, वह है ही नहीं है। जो अपरिवर्तन है, वह परिवर्तन होने की झाँकी ही आवर्तन होता रहना है। अर्थात् जो है,उसे नहीं ,जो नहीं, उसे है का एहसास करना चाहिए। तभी दुख का विमोचन होगा। उसी समय जो नहीं है, उसपर विश्वास करके जीने से ही निरंतर दुख होता रहता है। इसलिए अविवेकशील मनुष्य को दुखी देखकर दुखी होना निरर्थक ही है। कारण अपने दुख का कारण खुद ही है।
4072.आत्मबोध रहित एक व्यक्ति स्त्री की बातें सुनकर विवेक रहित दूसरों से टकराते समय उसको मालूम नहीं है कि वह अपने जीवन को नरकमय बनाने का पहला सोपान है। कारण स्त्रियों का स्वभाव समस्याओं को हल करने के बदले समस्याओं को बनाने की भूमिका बनेगी। अर्थात् प्रकृति शांति के विरुद्ध ही कार्य करेगा। अर्थात् प्रकृतीश्वरी चलन शील शक्ति की है। परमातमा निश्चलन सत्य होता है। निश्चलन सत्य में चलन शक्ति को काम नहीं है। जो नहीं है,उसे बनाकर दिखाना ही प्रकृतीश्वरी का काम है। प्रकृतीश्वरी के दो चेहरे हैं विद्या और अविद्या।विद्या जीव को निश्चलन सत्य कीओर ले जाएगा। अविद्या एकरूपी परमात्मा को अनेक रूप में दिखाकर जीव को मोहित करके दुख देगा। जिसको सबमें समदर्शन है, उसको स्वर्ग द्वार खुलेगा। अर्थात परमानंद की चाबी मिलेगी।
4073. आत्मबोध रहित पुरुष गलत सोचता है कि बंधन जो भी हो, कार्य साधना के लिए स्त्री पुरुष को उपयोग करते समय वह आत्मार्थ प्रेम है। कुछ परिस्थितियों मे स्त्री की कुछ चाहों को पुरुष पूरा नहीं कर सकता। स्त्री पुरुष की की गई मदद को भूलकर निस्सार बनाकर स्त्री पुरुष को मन से या शरीर से दूर रखेगी। उसके द्वारा उसको स्त्री के प्रति के स्नेह बंधन को छोड न सकने से दुख होगा। चिंता के कारण व्याधि,मानसिक परेशानियाँ आदि के कारण विवेक हीन शारीरिक शिथिलता के कारण आयु व्यर्थ होगा। स्त्री से आनेवाला सत्य और स्नेह स्वप्न ही होगा। साधारण पुरुष को समझ में नहीं आता कि साधारणतः स्त्रियों की मनोगति कार्य साध्य में ही रहेगी। जैसे प्रकृति अस्थिर है, वैसे ही स्त्रियों के मन भी।
ये सब अज्ञान रूपी अविद्या माया की करतूत ही है। जिस दिन कोई विद्या माया के अनुग्रह से एहसास करता है कि शरीर और संसार जड है, जड सुख नहीं दे सकते, आत्मा का स्वभाव ही सभी आनंद है, वह आत्मा ही स्वयं है, तभी उसके सामने वह धैर्य,धीर और स्वस्थ रह सकता है, शांति और आनंद के साथ सर्वस्वतंत्रता के साथ इस माया संसार के भ्रम में न पडकर कमल के पत्ते पर के पानी जैसे निस्संग जीवन जीकर दिखा सकते हैं।
4074. पति पर दोषारोपन करके उसकी शांति को बिगाडने स्त्री ज़रा भी संकोच नहीं करती। कारण उसमें से ही वह स्थिर खडा रहती है। प्रकृति रूपी स्त्री रूपी मन चलन शक्ति निश्चलन के निकट जाते समय जीव अपना जन्म तजेगा। मन रूपी जीव अस्थिर हो जाएगा। कारण सर्वव्यापी और निश्चलबोध रूप परमत्मा में कोई चलन नहीं हो सकता।वह शास्त्र सत्य है।इसीलिए आत्मबोध रहित स्त्री,पुरुष प्रकृति के आराधक सब निश्चल सत्य के विरोध करते हैं। अर्थात् वास्तव में निश्चल सत्य में अर्थात् अखंडबोध मेंं ,परमात्मा मेंं कोई चलन नहीं हो सकता। किसी को मालूम नहीं है कि मनोमाया कहाँ से आयी, कहाँ खडी है? कहाँ जाती है? केवल वही नहीं,मन के कार्यों को कोई युक्ति नहीं है। अर्थात् ब्रह्म में उत्पन्न होनेवाले सब आत्मबोध रहित माने ब्रह्मबोध रहित शारीरिक अहंबोध से देखते समय शरीर और संसार को स्वप्न जैसे भोगते समय ही सच सा लगेगा।
वास्तव में वह नहीं है। जैसे जीव को स्वप्न लोक मिथ्या है, वैसे ही ब्रह्म बोध के एहसास करते ही अहं बोध तजकर शरीर और संसार मिट जाएँगे। कारण ब्रह्म सर्वव्यापी होने से मनोमाया बोध को वहाँ स्थान नहीं है। जो मन नहीं है,वह बनाकर दिखानेवाले शरीर और संसार है सा लगते हैं। उसके कारण यही है कि काल देश निमित्त को सोनेवाले के स्वप्न में मायाचित्त बनाकर दिखाता है। अर्थात् स्वप्न जीवन उसको अनुभव करते रहते हैं। स्वप्न में हाथी आते समय वह स्वप्न का हाथी समझकर बिना भागे नहीं रहते। स्वप्न देखते समय स्वप्न का एहसास नहीं होता।एहसास होने पर हाथी का भय नहीं रहते। वे नहीं भागते।लेकिन स्वप्न के छूटते ही काल देश निमित्त स्वप्न जीव कोई भी नहीं है। अतः हम अनुभव से जो संसार देखते हैं, वह सच नहीं है। उसके नाश से ही सच और झूठ को समझना पडता है। कारण सत्य अनश्वर है। जो नश्वर है, वह सत्य नहीं है।सत्य रहित दृश्य सब माया भ्रम ही है। अर्थात् समुद्र में बुलबुले,जाग ,लहरें आदि अलग अलग होने पर भी सब समुद्र का पानी ही है। दूसरी एक वस्तु बनता नहीं है। अंधेरे में रस्सी साँप-सा लगने पर भी साँप अंधकार में तीनों कालों में रहित ही है। वैसे ही मैं नामक अखंडबोध में एक प्राण स्पंदन बन नहीं सकता। प्राण स्पंदन न होने से प्राण रूपी शरीर और प्रपंच रहित ही है। प्राण चलन ही यह प्रपंच और शरीर होते हैं।चलन है का दृश्य प्रकाश में अंधकार है कहने के जैसे ही है। वैसे ही अखंडबोध में अंधकार आकार का एक प्राण चलन कभी नहीं होगा। निश्चलन में चलन असंभव ही है। पूर्ण प्रकाश में अंधकार टिक नहीं सकता। वैसे ही खंडबोध खंड रूपी जीव बोध अखंड स्थिति पाने के साथ शरीर और संसार छिप जाएगा। अर्थात् स्वयं प्रकाशित अखंडबोध पूर्ण प्रकाश में शरीर और संसार का अंधकार अस्त हो जाएगा।
4075. अब मुझे रूप है। इसलिए भगवान को भी रूप होगा। मैं अपने को विवेक से जानते समय मेरा अहंकार मैं रूपी शरीर रूप के साथ दिव्य रूप भी बोध में छिपकर निरंतर मैं नामक अखंड बोध स्थिति को पाएगा। अब मुझे शरीर रूप है।इसलिए सोच सकते हैं कि इस शरीर के सृजनहार को भी रूप होगा। लेकिन मैं अपने को विवेक से जानते समय एहसास होगा कि शरीर और संसार नहीं, शरीर और संसार के साक्षी रूप यथार्थ मैं ही है। तब यह भी एहसास होगा कि शरीर,संसार,मन,संकल्प स्थूल सूक्ष्म जड है,जड कर्म है,कर्म चलन स्वभाव का है। चलन-निश्चलन अखंडबोध में स्थिर खडा रह नहीं सकता। अपने शरीर,संसार, स्वयं संकल्पित ब्रह्म रूप तीनों कालों में रहित है। मैं नामक बोध स्वरूप निराकार परमात्मा मात्र ही नित्य सत्य है,वह परमात्मा का स्वभाव परमानंद है। स्वयं अनुभव करे वैसा ही हो सकता है।
4076. वे ही ब्रह्म है, जो सभी जीव को अपने प्राण के रूप में, सभी जीवों को अपना शरीर मानता है।
4077.अपने से अन्य एक प्राण और दृश्य है का स्मरण रहते तक ही अपने बारे में पूर्ण रूप में जानते नहीं है। वैसे ही अपने से अन्य एक चींटी को भी द्रोह करने से या सोचने से भेद बुद्धि और राग द्वेष भी अपने को छोडकर न जाएगा। जब तक भेदबुद्धि राग -द्वेष होते हैं, तब तक अपने से दुख दूर नहीं होगा।साधारण मनुष्य को भेदबुद्धि राग द्वेष के बिना जी नहीं सकता। उनको यह बात समझने की खोज करनी चाहिए कि बोध को छोडकर एक प्राण,संसार, संसार के सूर्य-चंद्र है कि नहीं। वैसे खोज करते समय ही एहसास कर सकते हैं कि मैं नामक अखंडबोध उसमें दीखनेवाले अनेक नाम रूप मात्र ही हैं। बोध ही नाम रूप में है। बोध की पूर्णता में नाम रूपों का अस्त हो जाएगा। भेदबुद्धि और रागद्वेष ही संसार के सभी दुखों के, अशांति के अहमात्मात्मज्ञान ही भेद भावों
भेदबुद्धि को मिटा सकता है।इसलिए इस आत्मज्ञान को झोंपडी से लेकर बंगला तक, प्रारंभिक पाठशाला से लेकर विश्वविद्यालय तक प्रधान विषय के जैसे सिखाना चाहिए। तभी भेदभाव और रागद्वेष मिट जाएँगे।दुख भी दूर हो जाएँगे। आत्मज्ञान न सिखाएँगे तो हर एक जीव दुख में ही मर जाएगा। एहसास करना चाहिए कि मनुष्य खोजकरनेवाले सुख का निवास स्थान् अपने अहमात्मा का स्वभाव ही है। यही सत्य है। इस सत्य को त्यागनेवाले सबको दुख ही मिलेगा। सुख स्वप्न में भी न मिलेगा। मैं नामक अखंडबोध मात्र स्वयं अहमात्माा है। उस बोध का स्वभाव परमानंद को छिपानेवाली माया काा पर्दा ही यह शरीर,संसार और सब नाम रूप होते हैं।. जो बोध के अखंड को एहसास कर लेता है,उसके सामने नामम रूप न रहेगा। मैं नामक बोध ब्रह्मम मात्र ही नित्य सत्य है।
4078. मन में जिसने कुछ नहीं सोचा, उससे कोई कहता है कि तुम जैसे सोचते हो, वैसा मैं नहीं हूँ। वैसे कहनेवाला एक मूर्ख हैं, जो अपने बारे में भी नहीं जानता,उसके बारे में भी नहीं जानता। उससे बोलकर समय को बरबाद करनेवाला
जीवन को व्यर्थ करनेवाला है। कारण जिसमें आत्मबोध नहीं है, उनसे मित्रता रखना ,बोलना माया दृश्य को पक्का कर देगा,मुक्ति के लिए साथ नहीं देगा।
4079. सत्य के अनुकूल न रहनेवाला छोटी सी सोच या कल्पना या भावना होने पर वह अपने सत्यबोध साक्षात्कार करने की बाधा होती हैं। कारण सत्य से आश्रित जीवन बिताते समय ही जीवन का मार्ग खुला रहेगा। अर्थात् पंचेंद्रियों और संसार पर विश्वास करके जीने पर जीवन के आधार सत्य वस्तु के बारे में सही ज्ञान के बदले गलत ज्ञान की जानकारी ही मिलेगी। इसलिए शरीर और संसार को मिथ्या समझकर सत्य रूपी ज्ञान आत्मज्ञान को ग्रहण करना चाहिए। आत्म ज्ञान का मतलब है आत्मा का ज्ञान ही है। अर्थात् आत्मा को जन्म-मरण नहीं है। उसका कोई रूप नहीं है। वह सर्वव्यापी है। वह स्वयं प्रकाश ही है। वह स्वयं आनंद स्वरूप होता है। उसके होने से ही बाकी सब होने सा लगता है। जिसको जानने से बाकी सब को जान सकते हैं,वह मैं रूपी अखंडबोध स्वरूप ही है। इसलिए मैं नामक अखंड बोध के सिवा उसमें दृष्टिगोचर होनेवाले सब तीनों कालों में रहित ही है। एहसास करना चाहिए कि वह माया दिखानेवाला भ्रम ही है। लेकिन जो बोध के अखंड को विस्मरण नहीं करते, उसके सामने माया नहीं आएगी। उतना ही नहीं, उन्हींको मात्र माया सत्य दर्शन के पर्दा को बदलकर देगी। जो सत्यबोध से बिना हटे दृढ रहता है, उसके सामने से माया नदारद हो जाएगी।
4080, सदा परिवर्तन शील दुख मात्र देनेवाले शरीर और लौकिक विषय भोग वस्तुओं की माया कार्यों का मात्र मुख्यत्व देकर आत्मबोध को नष्ट करके जीनेवालों का जीवन में आनंद मरता रहेगा। आत्मबोध को दृढ बनाकर माया कार्यों को नष्ट करनेवालों के जीवन में आनंद बढता रहेगा। कारण आत्म स्वभाव आनंद है, जड स्वभाव दुख है।
4081.जिसका मन आत्मा में मात्र रमता रहता है, उसकी कुंडलिनी शक्ति रूपी प्राण स्वभाविक रूप में मूलाधार पार करके स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनागत,विशुद्धि आज्ञा से छे आधारों को पार करके ब्रह्म द्वार अर्थात् परम पद द्वार सातवाँ चक्र ब्रह्म रंध्र भेदकर चिताकाश जाकर परम स्थिति को पाएगा। तब होनेवाले अनिर्वचनीय आत्मानुभूति का प्रतीक ही सहस्रार में विस्तृत होते सहस्रदल पद्म रूप में योगी विस्तृत करते हैं। अर्थात् जीवात्मा परमात्मा। का साक्षात्कार स्थिति प्राप्त करने तक शरीर को स्वस्थता और पवित्रता से सुरक्षित रखते समय मन और प्राण स्वभाविक रूप में सम स्थिति की ओर जाएँगे। सम स्थिति प्राप्त मन और प्राण ही अखंडबोध रूप परमात्मा को अपने एकांत में प्रकाश के लिए पर्दा हटाएगी। अर्थात् अखंडबोध संपूर्ण आत्म स्वरूप स्थिति में मन और प्राण का अस्त होगा। उसका लक्ष्य अखंडबोध का साक्षात करना होना चाहिए। अर्थात् लक्ष्य ब्रह्म बनना चाहिए। वैसे लोगों को ही महामायाा देवी शरीर और शरीर जीनेवाले वातावरनों को उसके अनुकूल बनाएगी।
4082. इस बात का एहसास करके सत्यदर्शी को कार्य करना चाहिए कि असत्य प्रेमियों को निकटतम लाकर सत्य पर पर्दा डालने असत्य सन्नद्ध है। ज्ञानी जैसे भी हो सत्य बोध से नीचे लाकर माया में फँसाने महामाया देवी विद्या माया रूप में तैयार रहता है। कारण जो आत्मज्ञान में अधपक्के ज्ञानी हैं, उनमें ज्ञान अहंकार देकर उसके द्वारा नाम और यश का मोह उत्पन्न करके फँसाएगी। इसलिए चित्त को त्याग करनेवाले आत्मज्ञानी को मात्र ह महामायादेवी मोह मुक्त करेगी।
4083.सत्यदर्शी कोई भी गलत न करने पर भी उसको दुख देकर ही प्रकृति उसको संपूर्ण बनाती है। कारण लौकिक विषय जहरीला है। इसका एहसास करके बुद्धि में दृढ बनाने का प्रकृति का कार्य ही है। सत्य को साक्षात्कार करते समय ही एहसास कर सकते हैं कि प्रकृति,दुख, दुख विमोचन आदि कुछ भी नहीं है,ये सब केवल भ्रम है।
4084. माता-पिता आत्मा में आँखें खोलकर रखने से ही संतानों को नाश बोेवाला अहंकार न होगा। नहीं तो दुर्योधन को उसके माता-पिता में जो अनुभव था, वही होगा। अर्थात् कृष्णपरमात्मा नामक अखंडबोध को माया चित्त अंधकार रूप में आकर पर्दा डाल देने का प्रतिबिंब ही दु्योधन के अंधे पिता धृतराष्ट्र है। माया रूपी अंधकार से ही अहंकारी दुर्योधन का जन्म होता है। पंचपांडव पंचेंद्रियहै तो पांचाली मन है। आत्मा ही कृष्ण है। आत्माा रूपी श्री कृष्ण से न पूछकर अहंकारी दुर्योधन के साथ पंचेंद्रिय रूपी पांडव जुआ खेलने से ही सभी दुरित हुआ है। अज्ञानी शकुनी ही उसका छाता ताना। .ये सब हर मनुष्य जीव में दिन दिन होनेवाला संघर्ष ही है। उसी का जीवन ऐश्वर्य से भरपूर रहेगा, जो कोई अपने मन और पंचेंद्रियों को अंतर्मुखी बनाकर अहंकार तजकर आत्मा को मात्र स्मरण करके सब में आत्मा का दर्शन करके आत्मा के लिए जीता है।अर्थात् आत्म स्मरण के साथ करनेवाले सब कार्यों में कामयाबी मिलेगी। कृष्णन के साथ रहते कृष्ण को साथ न मिलाने का फल ही पंचपांडवों के दुखों के कारण हैं। हर एक हृदय में आत्मा के रूप में कृष्ण रहते हैं। जो आनंद और शांति चाहते हैं, उनके तैलधारा के समान आत्म स्मरण के साथ सभी कार्यों को करना चाहिए। आत्मा के रूप में कार्य करना चाहिए। तभी जीवन आनंद पूर्ण होगा। कारण आत्मा का स्वभाव ही आनंद होता है।
4085. खींचकर दिखानेवले नक्शे की तरह जीवन चलानेवाले का जीवन सफल होगा। वैसा न होकर खींचे हुए नक्शे की तरह जीने की कोशिश करनेवाले का जीव पानी में खींचे रंगोली के समान अर्थ शून्य होगा।
4086. जो कोई अपने जीवन में सबसे मिलनेवाली मदद सबको ईश्वर की देन मानता है,ईश्वर की देन का एहसास करके जिंदगी भर जीवन चलाता है,उसको ईश्वर ही उसमें बसकर उनके अज्ञान के पर्दे को हटाकर ब्रह्म ज्ञान की अनुभूति देगा। ब्रह्म ज्ञान आतमज्ञान के मिलने के साथ ही अद्वैत ज्ञान बोध होगा कि अहमात्मा ब्रह्म स्वयं ही है, अपने से अन्य कोई दृश्य न होगा, जो कुछ दृश्य है,वे सब स्वयं ही है। उस स्थिति में आत्म रूपी अपने स्वभाविक परमानंद को निरुपादिक रूप में स्वयं भोगकर वैसे ही स्वयं स्थिर खडा रह सकते हैं।
4087.अपनी स्वीकृति के बिना अपने में उदय होनेवाले सोच को भगवान शारीरिक बोध स्वयं बने अहंकार केंद्र नहीं है। अहंकार का आधार जो आत्मबोध है का एहसास करता है,उसके जीवन में मार्ग गलत न होगा। वैसे आत्मबोध के साथ जो सभी कार्य करता है, वह माया कर्म बंधनों से आसान से मुक्ति पाएगा। सााथ ही शरीर से संकुचित जीव बने आत्मा उसके पूर्ण स्वरूप परमात्म स्थिति को साक्षात्कार करेगा। जब उस परमात्म स्थिति को प्राप्त करते हैं, तभी एहसास कर सकते हैं कि स्वयं सर्वज्ञ है और अपने से ही सभी वेद शास्त्र उत्पन्न हुए हैं।अर्थात् इस संसार के कार्य दीखने के कारण मैं रूपी परमात्म स्वरूप ही है। केवल वही नहीं, लौकिक विषयों को अनुभव करनेवाले सभी सुखों का स्थान स्वयं ही है का एहसास कर सकते हैं। अर्थात् इस कार्य में रहनेवाला सब के सब कारण से अन्य रह नहीं सकता। यह परम कारण रहने के परमात्मा का स्वभाव ही परमानंद है। यही अद्वैत स्थिति है। इस अद्वैत स्थिति को वर्तित करते समय माया की छाया भी वहाँ नहीं रहेगा।
4088. हर मिनट दूसरों को दुख देकर रस लेनेवाला भय भीत होकर मार्ग न जानकर अज्ञान अंधकार में लडखडा रहे हैं। लेकिन उनके दुष्कर्म सज्जनों को ज्ञान पाठ सिखाएँगे। जैसे कमल के अस्तित्व के लिए कीचड मुख्य होता हैं, वैसे ही सज्जनों के ज्ञान विकास के लिए अज्ञानियों की क्रियाएँ प्रधान रहेगा। कमल तोडकर मिट्टी में डालने पर मिट्टी हो जाएगा। मिट्टी को देखते समय वह आकाश में बदलेगा। आकाश को देखते समय समझ में आएगा कि वह माया रूप है। माया रूप को विवेक से देखते समय समझ में आएगा कि ईश्वरीय शक्ति है। ईश्वरीय शक्ति ब्रह्म से अभिन्न है। मृगमरीचिका दृश्य रेगिस्तान का सहज रूप होता है। वास्तव में मृगमरीचिका नहीं है। लेकिन जो नहीं है,उसे है के रूप में बनाकर दिखाने की क्षमता रेगिस्तान को है। रेगिस्तान बदलकर मृगमरीचिका नहीं बनती।रेगिस्तान अपरिवर्तन शील रहकर ही मृगपरिचिका का रूप दिखाता है। वैसे ही मैं नामक अखंडबोध ब्रह्म मात्र ही नित्य सत्य परमानंद स्वरूप में स्थिर खडा रहता है।
4089. जो कहता है कि यह ठीक नहीं है, वह ठीक नहीं है, वह इसकी खोज भी करनी चाहिए कि उसके आविष्कारक कैसा है। वैसे आविष्कारक की खोज करते समय एहसास होगा कि आविष्कारक अपने से अन्य नहीं है। वह स्वयं ही है।
कारण मैं के बोध होने से ही यह संसार है सा लगता है। मैं नामक बोध नहीं है तो कुछ नहीं रहेगा।बोध नहीं है,सोचना भी बोध है। वह बना नहीं है, वह नित्य है, वह स्वयंभू ही मैं नामक सत्य है।
4090.धन,पद, यश, सुंदर,स्पर्धा, ईर्ष्या और अहंकार आदि से जो तांडव कर रहे थे, वे कालांतर में ये धन,पद,यश,सुंदरता आदि मिटकर दरिद्रता के वेश में अपने घर को अतिथि के रूप में आएँगे। तभी यथार्थ मैं मैं की खोज करने लगेगा। तब एहसास होगा कि अनश्वर आत्मा रूपी अपने को गलत से नश्वर शरीर समझकर नश्वर शरीर को स्थिर रखने की कोशिश ही जीवन है। इसलिए शरीर को स्थिर रखने की कोशिश करनेवाले अज्ञानियों को एहसास करना चाहिए कि यथार्थ में मैं शरीर नहीं हूँ, संसार नहीं हूँ, यह शरीर और संसार तीनों कालों में रहित है,स्वयं यह शरीर और संसार का आधार आत्मा है, वह आत्मा ही स्वयं जन्म-मरण रहित स्वयंभू है, वह स्वयंभू रूपी स्वयं ही परमानंद स्वभाव से मिलकर नित्य सत्य रूप में स्थिर खडा रहता है।
4091. जो कोई आत्मानुरागी या आत्मा में रमता रहता है, उसमें आत्मा का स्वभाव आनंद उसके मुख और वचन में चकेगा। वह जहाँ भी जाए,जहाँ भी रहें उसके चारों ओर एक चुंबकीय शक्ति बनती रहेगी। आत्म तेजस उसमें से प्रकट होता रहेगा। वैसे लोगों के दर्शन करना,स्पर्श करना,उनसे आशीषें लेन आदि आत्मानंद को बनाएगा। कोई एक आत्मविचार तैलधारा जैसे चाहता है तो उसमें विषय वासनाएँ नहीं होनी चाहिए। जिसमें विषय वासनाएँ होती हैं, वह आत्मविचार कर नहीं सकता। जो विषय सुखों से आत्मा को महत्वपूर्ण एहसास करता है,वही आत्मविचार कर सकता है।
4092. हनुमान का स्वास ही श्रीराम हैं। अर्थात् जैसे स्वास के बिना जी नहीं सकते,वैसे ही राम के बिना हनुमान जी नहीं सकता। अर्थात् हनुमान के अंदर और बाहर रोम रोम में श्रीराम रहते हैं। संक्षेप में कहें तो राम ही हनुमान हैं। इसी को भगवद् गीता में श्री कृष्ण कहते हैं कि जो कोई अन्य चिंतन न करके अपने को मात्र सोचकर और किसी को न सोचकर मुझसे रम जाते हैं, सिवा मेरे और किसी और के चिंतनन न करते हैं, उसके सभी योगक्षेम को मैं देख लेता हूँ। मुझे छोडकर वह, उसे छोडकर वह रह नहीं सकता है।अर्थात् वही मैं हूँ, मैं ही वह है। यही उच्च कोटी की भक्ति है।
4093. जैसा सोच-विचार है,वैसा ही जीवन है यों कहते समय संकल्प अपनी सहमति के बिना अपने में उमडकर आना एक जीव के लिए सही है। उसी समय स्वात्म निश्चित जीव अर्थात् जिसमें स्वयं आत्मा है का दृढ निश्चय होता है, उसको उसकी सहमति के बिना कोई संकल्प उदय नहीं होगा।आत्मबोध रहित संकल्प लोक में जीनेवालों को ही भावनाएँ होंगी। वह निश्चित रूप में नहीं जानता कि वह शरीर नहीं है,आत्मा है। जो संकल्प लोक में है, उसी को ही भविष्य के संकल्प होंगे। वे सोचते हैं कि उनका जीवन उनकी कोशिश से बना है। वे नहीं जानते हैं कि उनका शरीर और संसार तीनों कालों में नहीं रहता और वे असत्य है। जो शरीर और संसार नहीं है, उन्हें वे सत्य मानकर जीते हैं।उनका संकल्प और संकल्प सत्य
संकल्प रहित यथार्थ सत्य नहीं है। कारण आत्मा मात्र सत्य है। आत्मा को संकल्प नहीं होता। कारण आत्मा सर्वेसर्वा और सर्वव्यापी है। इसलिए भावना के अनुसार मानना जीव पर निर्भर है। जीव का आधार परमात्मा पर निर्भर नहीं है। जो आत्मा को सत्य रूप में साक्षात्कार करता है,वही सुखस्वरूप है। वह उसका एहसास करके भोग सकता है। जो स्वयं आत्मा है का नहीं जानता, शारीरिक अभिमान से जीता है,
वे जो शरीर और संसार नहीं है,संकल्प नहीं है,वैसा ही जी रहे हैं। आत्मबोध रहित जीवात्माओं को निरंतर दुख ही होगा।
4095. मैं नामक अहंकार तभी मिटेगा,जब यह जान-समझ लेगा कि हृदय का
धडकन,स्वास,श्रवण,पाचनक्रिया,मल-मूत्रनिकलना,देखना,सुलाना,भाव,मनोविकार,रक्त संचार,हाथ-पैर चलन आदि शारीरिक अभिमान अहंकार नहीं है, वे सब शरीर का आधार बोध ही है,शरीर और शारीरिक अंगों को स्व सत्ता नहीं है।. वे जड हैं।आत्मबोध नामक सान्निध्य से ही शारीरिक अंग,प्रत्यंग,उपांग आदि काम करते हैं। जहाँ अहंकार नहीं है,वही बोध का प्रकाश होगा।जब संसार में इस भाव से काम करते हैं कि मैं शरीर नहीं है,आत्मबोध है,तब कर्तृत्व और भोकतृत्व नहीं होंगे। अर्थात् मैं कर्ता हूँ,भोक्ता हूँ का अभिमान न होगा। जो कोई शारीरिक अभिमान मिटाकर आत्माभिमान को विकसित करते हैं,केवल उसीको ही आत्मा का सवभाव परमानंद का अनुभव कर सकते हैं।
4096. हजार खाली घडाएँ आकाश में यात्रा करने पर भी घडा ही यात्रा करते हैं,न आकाश।वैसे ही हर एक जीवात्माएँ यात्रा करने पर भी, जीवात्मा का बोध अर्थात् आत्मा यात्रा नहीं करती। बोध नामक आत्मा निश्चलन,निर्विकार,अपरिवर्तनशील है। जो है का अनुभव है, अखंडबोध मात्र है। अर्थात् किसी एक का बोध जिस स्थान में जाकर सत्य का दृढ होता है, उसी स्थान में मैं है का अनुभव होगा। मैं है के अनुभव वस्तु जो है,उसका स्वभाव मात्र ही आनंद है। वह मैं रूपी अखंडबोध ही है। जिसमें इस ज्ञान की दृढता होती है,उसका शरीर हो या न हो बोध पर असर न डालेगा। इसलिए जो जीव दुख विमोचन चाहते हैं, उनको मैं हूँ के अनुभव से हटना नहीं चाहिए। तभी माया शरीर जीवात्मा अनुभव करनेवाले दुख जो भी हो, परमात्मा रूपी अपने को अर्थात् मैं रूपी अखंड बोध पर कोई प्रभाव डाल नहीं सकते दुख मार्ग रहित अवस्था ही मुक्ति है।
4097. इस ब्रह्मांड में सभी जीवों में विरुद्ध लिंग से जुडनेे की इच्छा सहजवासना शरीर से जो उत्पन्न करता है,वह शक्ति ही मैं नामक अखंडबोध होता है। अर्थात् बोध रूप परमात्मा है।उस परमात्मा का केंद्र ही मैं नामक बोध है। इस मैं नामक बोध नहींं तो ब्रह्मांड नहीं है। मैं नामक बोध होने से ही सब कुछ है सा लगता है।
अर्थात् मैं नामक बोध को ही मैं हैै का अनुभव होता है। मैं है के अनुभव की वस्तु ही सुख स्वरूप है। इसीलिए सभी जीव सुख की खोज में भटकते हैं। वह स्वस्वरूप विस्मृति से स्वरूप स्मरण में यात्रा की है। उस यात्रा का नाम ही जीवन है।
4098. अहमात्मा को हृदय में साक्षात्कार करने के लिए ओंकार उपासना के जैसे दूसरी उपासनाओंं से नहीं हो सकता। कारण ब्रह्म का नाम ही ओम् हैl शरीर के सभी अवयवों को कार्यान्वित चैतन्य हृदय से ही होता हैl यह चैतन्य नाडियों से मिलकर ही आता है। सभी नाडियों का केंद्र हृदय ही है। यह हृदय ही मैं नामक केंद्र है। प्रणवोपासक ओंकार को उच्चारण करते समय इस संसार के अज्ञान पर्दाएँ एक एक करके बदल जाएँगी। सांसारिक रूप होने के पहले एक ब्रह्म मात्र ही था। निश्चलन ब्रह्म से चलन शक्ति माया नाद शक्ति पहले आयी।वही ओम् .इसलिए ओंकार उपासना करते समय वह नाद कम होने के स्थान को ब्रह्म केंद्र का एहसाल कर सकते हैं। ओंकर में अकार,उकार,मकार अमात्रा ये चार पादओंकार में होते हैं। “अ”स्थूल, “उ”सूक्ष्म, “म” कारण,”अमात्रा” त्रिकालातीत अवस्था से बना है। जीव को जागृत,स्वप्न और सुसुप्ति आदि तीन अवस्थाएँ होती हैं। उसीको स्थूल,सूक्ष्म,और कारण कहते हैं। जो ज्ञानी सत्यऔर असत्य को विवेक से जानते हैं,वे इन तीन अवस्थाओं को तजकर उसके साक्षी स्वरूप बोध स्वरूप को मात्र स्मरण करते रहेंगे। क्योंकि ब्रह्म स्थूल,सूक्ष्म,कारण,सत्व,तमो,रजो गुण, जागृत,स्वप्न,सुसुप्ति के अपार होते हैं। केवल वही नहीं,मैं नामक अखंड बोध में जो है लगता है, वह शरीर,और संसार माया दृष्टित इंद्रजाल के भाग ही हैं। यह शरीर और संसार सत्य नहीं है। वह स्वयं अस्थिर है, आत्मा से आश्रित मात्र है। वह एक माया वस्तु है। वह एक भ्रम मात्र है।
4099. जो ज्ञान मार्ग पर यात्रा करते हैं, वे हर मिनट अपने में से उदय होकर मुख से निकलने वाले वचनों के नित्य-अनित्य को विवेक से जानते समय निस्संदेह मालूम होगा कि सब अनित्य हैं। उसमें अनित्य को छोडकर नित्य को स्वीकार करते समय चित्त सम स्थिति पाएगा। साथ ही आत्मा के स्वभाविक परमानंद को निरूपादिक रूप में अनुभव कर सकते हैं।
4100. अपना अस्तित्व का मतलब है इस शरीर और अंतःकरणों का आधार,अपने में से अपरिहार्य बोध रुप आत्मा ही है। वह आत्मा रूपी अपने को स्थिर खडा रखने की आवश्यक्ता नहीं है। वह स्वयं ही स्थिर खडा रहता है। उसको आदी-अंत नहीं है। इसलिए उसका जन्म मरण नहीं है। यह ज्ञान सुदृढ होने पर स्वात्मा निश्चय होगा। स्वयं आत्मा है का निश्चय होगा। केवल वही नहीं उस आत्मा रूपी अखंडबोध में उदय होकर अस्त होनेवाली माया भ्रम है,दृश्य शरीर और दृश्य जगत भ्रम है। तब आत्मा का स्वभाविक परमानंद को निूपादिक सहजता से अनुभव कर सकते हैं।
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4101.हमारे पूर्वज पेशों के आधार पर बनाई जाति भेदों में मनुष्य शूद्र स्वभाव से वैश्य स्वभाव को, उसमें से क्षत्रिय स्वभाव को,क्षत्रिय से ब्राह्मण स्वभाव को परिवर्तन करने से ही एक मनुष्य ब्रह्म ज्ञान प्राप्त कर सकता है। वही ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मण है, जो यथार्थ जीवन में संपूर्ण रूप में अपने माता-पिता, नाते-रिश्ते,कुटुंब,समाज,देश,राज्य,विश्व,आकाश,पृथ्वी,नक्षत्र,ग्रह,देव,मनुष्य,ऋषि,अर्थात् शरीर,लोक,लोक के नित्य अनित्य विवेक के साथ एहसास करता है कि स्वयं कौन है? पूर्व जन्म पुण्य होने पर जाति जो भी इस स्थिति को आ सकता है। शास्त्र सत्य जानने तक ही जन्म,जन्मांतर, नियम,जाति, जाति-मत मतांतर सब मानते हैं। जब सत्य को जानते हैं, वे एहसास करते हैं कि सब माया का इंद्रजाल मात्र हैं। इंद्रजाल का मतलब है शून्य आकाश में जो नहीं है, उसको बनाकर दिखाने का चमत्कार है। उसको वस्तुओं की आवश्यक्ता नहीं है। संकल्प शक्ति से ही वे सब हो सकता है। जो भी मन को एकाग्र बना सकता है, वह जादू दिखा सकता है। अर्थात ईश्वर का इंद्रजाल ही यह प्रपंच होता है। जो एहसास करता है कि
ब्रह्म अपने से अन्य नहीं है,उसके सभी संदेह मिट जाएँगे। उसका एहसास कराता है आत्मज्ञान।
4102. मनुष्य जीवन में पूर्वजन्म पुण्य से या इस जन्म संदर्भ परिस्थिति में जीवन,माता-पिता,नाता-रिश्ता आदि से बढकर मन जाने-अनजाने ईश्वर की खोज में यात्रा करते समय उसके मन को सांसारिक व्यवहार के लिए रिश्तेदार के द्वारा आत्मविचार से ईश्वरीय चिंतन से नीचे धकेलते समय ईश्वरीय स्मरण प्रबल होने पर बंधन जैसा भी हो,मिलनशील हो,बंधन तोडकर अनासक्त रहने परिस्थितियों को बनाना प्रकृति का धर्म है। वैसे बंधनों को तजकर अनासक्त होने पर ही ईश्वर को अपनी आत्मा में दर्शन कर सकते हैं।
4103. शारीरिक अभिमान रूपी अहंकार प्रतिबिंब जीवबोध रहित शरीर रहित संसार को सोचकर जीने निर्बंध का पात्र बनाता है। वैसे यह जीव इस संसार पर विश्वास करके जीते समय स्वयं चाहनेवाले स्वतंत्र और सुख, शांति संसार में न मिलने से दुखी होकर स्वयं को अपने दृश्य जगत को विवेक से देखते समय शरीर और संसार माया बिंब हैं, शरीर और संसार के परम कारण मैं नामक बोध अर्थात्
आत्मा ही सत्य है। सत्य रूपी आत्मबोध को जन्म और मृत्यु नहीं है। वह स्वयंभू है,उसका स्वभाव ही परमानंद और अनिर्वचनीय शांति है। इस बात को आत्मज्ञान से जानते समय ज्ञात होगा कि सांसारिक केंद्र मैं नामक अखंडबोध है। उस अखंडबोध में माया दिखानेवाले मिथ्या दृश्य ही शरीर और संसार होते हैं। इसके एहसास होते समय ज्ञात होगा कि मैं नामक अखंडबोध में अन्य कोई दूसरी वस्तु नहीं है, मैं मात्र है, जब यह ज्ञान बुद्धि में दृढ हो जाता है,तब मैं रूपी अखंडबोध के स्वभाव परमानंद और परम शांति को अपनै स्वभाव से अनुभव करके वैसा ही रह सकते हैं।
4104.मैं नामक बोध रूपी परमात्मा अनादी काल से एकात्मक रहकर इस प्रपंच और प्रपंच में जीवों की सृष्टि करके सभी सृष्टि जालों में सब चमकते रहते हैं। केवल वही नहीं उस परमात्मा से ही सभी प्रपंच संहार कर देता है। अर्थात् माया सृष्टि सबको नियंत्रण भी परमात्मा ही करते हैं। केवल वही नहीं उस माया को भी
वही आत्मतत्व नियंत्रण में रखता है। भक्तों की उपासना मार्ग की सभी बाधाओं को मिटाकर उनको अपने में आत्म तत्व ही जोडता है।वैसे मैं नामक बोध रूपी भगवान भगवान को ही सभी वेद स्तुति करते हैं। अर्थात् इस शास्त्र सत्य ज्ञान को हर एक जीव स्वयं साक्षात्कार करते समय ही परमात्मा का स्वभाव परमानंद और परमशांति को निरुपाधिक नित्य स्वयं अनुभव करके आनंद होकर वैसा ही रह सकते हैं। अर्थात ब्रह्म को स्वात्मा के रूप में साक्षात्कार कर सकते हैं। इस स्थिति को ही जनन-मरणम रहित महा जीवन कहते हैं।
4105.जैसे बिना प्रयत्न के,अस्पष्ट रूप से झूठ बोलते हैं,वैसे प्रयत्न हीन,अस्पष्ट सत्य बोल नहीं सकते। अर्थात् इस संसार में सभी शक्तियाँ,सभी प्रकार के धैर्य,सभी प्रकार की सफलताएँ,सभी प्रकार के स्वतंत्र,सभी प्रकार की शांति और प्रेम सत्य में ही निर्भर है। जो उस सत्य को स्वयं ही का एहसास करता है, वही ब्रह्मज्ञानी है। ब्रह्म ज्ञानी ही ब्रह्म है। ब्रह्म से मिले बिना,जुडे बिना कुछ भी न रहेगा,न होगा। सबकुछ ईश्वर ही है। इसका एहसास करनेवाले हर जीव ईश्वर ही है।
4106. ईश्वरीय शक्ति स्वरूपी महा मायादेवी सृष्टि करके दिखानेवाले विचित्र वर्ण प्रपंच में मन को न फँसाकर, आकाश जैसे कमल के पत्ते पर के पानी जैसे जीने की क्षमता जिसमें है, वही स्वआत्म निश्चित व्यक्ति है। अर्थात् स्वयं आत्मा है का निश्चित रूप में जान समझ लेता है। वैसा व्यक्ति ही एहसास कर लेता है कि यह शरीर और संसार मिथ्या है। इसलिए मैं नामक अखंडबोध के सिवा दूसरी एक वस्तु या एक चलन एक दृश्य उसपर असर न डालेगा। इसलिए जो दुख विमोचन करना चाहते हैं, वे अपनी खोज करते समय ज्ञान बोध आएगा कि अपने सिवा और कुछ नहीं है। अर्थात् जो दो नहीं देखता है,उसीको शाश्वत शांति और आनंद मिलेगा। विविध विषयों को देखनेवालों को दुख ही मिलेगा। यही अद्वैत रहस्य है।
4107. हर एक जीव को जब शारीरिक याद आयी,तब से बुद्धि में यह विश्वास आया करता है कि मिथ्या शरीर और मिथ्या संसार सत्य है । वही एक जीवन में शरीर और संसार की वासना के रूप में बदलता है। जब तक वह शरीर और संसार रहेंगे, तब तक जीव यथार्थ स्वरूप परमानंद स्वभाव के साथ परमात्मबोध अर्थात
मैं नामक अखंडबोध अपने पहलू में चमक नहीं सकता।उसे पुनः प्राप्ति के लिए हर एक जीव जाने अनजाने ही जीवन में लगकर जीवन बिताते हैं। लेकिन कोई एहसास नहीं करता कि स्वस्वरूप स्मृति अर्थात स्वयं बोध रूप के परमात्मा है।
उस भगवान को जानने भगवान के सिवा दूसरा कोई है। जैसे समुद्र के अनेक बुलबुले होकर उसी में ही छिपकर एक हो जाते हैं वैसे ही मैं नामक अखंडोध में अनेक जीव और अनेक संसार होकर छिप जाने के जैसे लगते हैं। अर्थात् चींटी से ब्रह्मा तक की माया शरीर स्वीकृत अखंडबोध अपरिवर्तनशील निर्विकार निश्चलन सर्वव्यापी स्थिर खडा रहता है। जो जीव जिस जीव शरीर में अपनी अहमात्मा को अपने पूर्ण स्वरूप को साक्षात्कार करता है, वही ईश्वर का अवतार होता है। उनसे ही भगवद्कार्य प्रकट होगा। प्रकट होनेवाले ईश्वरीय कार्य पंचेंद्रिय से मनुष्य जीवात्माओं को ग्रहण नहीं कर सकता। वह उनकी बुद्धि,युक्ति के पार रहेगा। केवल वही नहीं बु्द्धि और युक्ति,शरीर और संसार एक भ्रम के सिवा सत्य नहीं है। सर्वव्यापी भगवान अवतार नहीं ले सकता। कारण अवतार लेना चाहिए तो उसके आवश्यक के लिए उपाधि या स्थान चाहिए। ईश्वर रहित उपाधि या स्थान नहीं हो सकता। कारण ईश्वर सर्वव्यापी होते हैं। अर्थात् संसार के सभी रूप और जीव ईश्वरीय अवतार ही है। इसका एहसास करनेवाला ही भगवान होता है।
4108. साधारण स्त्रियों में आत्मज्ञान के लिए काम नहीं है। वह सदा सत्य रूपी परम ज्ञान को अर्थात आत्मज्ञान को भूलनवली है। कारण आत्मज्ञान अपरिवर्तन शील है। लेकिन स्त्री स्वभाव अर्थात् प्रकृति का स्वभाव या माया मन का स्वभाव सदा बदलता ही रहता है। अर्थात् यथार्थ पतिव्रता रहित अन्य साधारण स्त्रियाँ
शाश्वत आनंद देनेवाले सत्य ज्ञान से बढकर लघु सुख कामांधता देनेवाले मिथ्या ज्ञान को प्रधानता देंगी। जिस दिन स्त्री एक पुरुष को सदा अनुसरण करके सत्य मात्र कहती है,उस दिन में उसका स्त्री जन्म मिट जएगा। साथ ही वह परम पुरुष परमात्मा बनेगी। कारण मन की सम स्थिति ही ब्रह्म स्वरूप होता है। मन को सम स्थिति लाने में स्त्री और स्त्रियों को सोचनेवाले पुरुष मुख फेरकर चलनेवाले हैं।
वे विविध विषयों को सोचते रहेंगे। एक रूपी आत्मा को नहीं सोचेंगे। एक स्त्री अत्यधिक ज्ञान की बातें बोलने पर भी उसके अज्ञात एकत्व से ननात्व के लिए प्रकृति स्वभाव उतरकर आएगा। निराकार आत्मा की बातों से आकार देव देवी के संकल्पों को मुख्यत्व देनेवाली है। परमात्मा से भिन्न कोई देवी देवता नहीं है। आकार देव-देवी देनेवाले ऐश्वर्य सब के सब उनको परमात्मा ही देते हैं। उसको जानने पर भी संकल्प देव-देवी को छोडकर साधारण भक्त रह नहीं सकता। वे इस जन्म में भगवद्लोक जाने तैयार रहती है। वैसे लोगों को समझना चाहिए कि देव-देवी के देवलोक में जाकर उनसे मिलकर रहने पर भी पुण्य के नाश होते समय पुनः दूसरा जन्म लेकर भूमि में आकर स्व आत्मा को साक्षात्कार करने तक सर्व तंत्र स्वतंत्र ,नित्यशांति और आनंद न मिलेगा। स्व आत्मा से साक्षातत्कार करनेवाले का स्वभाव ही परमानंद होता है । यथार्थ में मैं नामक आनंदसागर मात्र ही होता है। अमृत आनंद सागर गाँठ ही ब्रह्म होता है। अर्थात् भ्रम बदलते समय ही ब्रह्म स्मृति होगी।
4109.
अपने अहमात्मा को प्रेम करते समय मन में जाति,मत,वर्णभेद, काल-देश,स्त्री-पुरुष लिंग भेद, बंध-बंधन किसीको स्थान नहीं है। कारण बदलकर छिपनेवाले यह शरीर और संसार सब अपरिवर्तन आत्मा अपने से उत्पन्न होने से लगना केवल दृश्य मात्र है। अर्थात् माया या अविद्या या अज्ञान बदलते समय रात-दिन,सच-झूठ, ऊपर-नीचे, दाये-बाये, मैं-तुम आदि भेद अनुभव न होगा। वह प्रकाश का प्रकाश होता है। परमात्मा रूपी अपने से ही सभी वेद पहले पहल बने हैं। यथार्थ में मैं नामक परमात्मा मात्र ही परमानंद स्वरूप नित्य सत्य रूप में स्थिर खडा रहता है। वह कभी नाश नहीं होगा। इस स्थिति में आत्मा से प्यार करके एहसास करते समय ही जन्म अर्थ पूर्ण होता है।
4110. सांसारिक जीवन का द्वार खोलने की चाबी ही अनीति है। आत्मलोक की चाबी नीति है। नीति आत्मा से जुडेगी। अनीति अहंकार से जुडेगी। अर्थात् यथार्थ नीति और अनीति का मतलब है,स्व आत्म स्मरण से न हटकर करनेवाले सभी कार्य नीति ही है। आत्म बोध रहित अहंकार बढानेवाले सब कार्य अनीति ही है।मिथ्या को अर्थात् तीनों कालों में जो नहीं है,उसे है सोचना ही अनीति है। सत्य को सत्य एहसास करना ही यथार्थ नीति होती है। विविधता देखनेवाले सब अनीति में हीहै। एक को मात्र दर्शन करनेवाला ही नीति में है।
4111. अहंकार बंधनों को बढाता रहेगा। वे सब बंधन होते समय उससे बाहर आने की कोशिश करने के पहले आयु का अंत हुआ होगा। इसलिए जानवर और मनुष्यों के अंतर को समझकर मनुष्य जन्म और मनुष्य आत्मा के महत्व को एहसास करके आयु को व्यर्थ न करके जीवन को आत्मसाक्षात्कार करने का प्रयत्न करना चाहिए। कारण मनुष्य जो कुछ खोज करता है,सब कुछ आत्मा में ही है। जो माया के मोह में रहता है, वह समझ नहीं सकता। इसलिए विश्वास नहीं होगा। इसलिए जब निरंतर दुख आते हैं, तब शास्त्र अनुभव को जोडकर बोध से आत्मा पर विश्वास करके आत्मा का स्वभाव परमानंद को अनुभव करके वैसा ही बदलना चाहिए।
4112. अहंकार की ओर चलनेवाली नीति, नीति के बारे में बोलते समय अहंकार से नीति को हमेशा आँसू ही बहेंगे। इसलिए धर्म और नीति के लिए जीवन बितानेवालों को धर्म और नीति की इज़्ज़त करनेवाले सत्य विश्वासियों के अधीन ही काम करना चाहिए। नहीं तो आँसू ही बचेगा। अहंकार के सामने कभी नीति न मिलेगी। कारण अहंकार अधर्म का मार्ग है। अहंकार अधर्मि को ही होगा। धर्म की चाह करनेवाली आत्मा को अभिमान होगा। इसलिए सभी धर्मों को छोडकर आत्मा को मात्र जो शरणागति प्राप्त एक को और कोई जीत नहीं सकता। अर्थात् सभी धर्म सब कर्म के अंतर्गत होने से अथवा आत्मा के सिवा और दीखनेवाले सभी चलन वास्तव में नहीं है। लेकिन आत्मा के सिवा और किसी के आश्रय में जीने पर दुख ही होगा। दुख उस पर प्रभाव डालेगा जो ईश्वर का स्मरण नहीं करता और ईश्वर की खोज नहीं करता।
4113.लौकिक विषयों को मन से त्याग किये बिना ज्ञान,धर्म,नीति,कारुण्य,पुण्य आदि आपको नहीं चाहेंगे। ये सब जब आपको चाहकर आएँगे,तब सत्य का मार्ग खुलेगा। मन से विषय वासनाएँ दूर न होने के कारण यह विश्वास है कि सुख विषयों में ही है। विषय वासनाएँ उस दिन मिटेंगी,जिस दिन जीव एहसास करता है कि विषय विषमय है, आत्मा सुख स्वरूप है। मन की वासनाएँ जब मिटेंगी, तब यह बोध होगा कि यह शरीर नहीं है, आत्मा का बोध है। वैसे आत्मबोध के साथ,जीवन चलाते समय शांति और आनंद अपने को छोडकर नहीं जाएगा।
4114. चिंतन जब तक अपने को नियंत्रण करने के काल तक अपने सर्वस्वतंत्र को अनुभव नहीं कर सकते। कारण स्मरण रहित दशा ही आत्मसवरूप होती है।
आत्मा का स्वभाव ही सर्वस्वतंत्र है। जो स्वतंत्र है, वही आनंदस्वरूप है।
इसलिए चिंतन अनियंत्रण रहने के लिए चिंतन को मिटाने वाले आत्मज्ञान को सीखना चाहिए।
4115. सत्यदर्शियों के चारों ओर एक बिजली काएक घेरा बना रहेगा। इसको न जानकर सत्यदर्शियो से जो टकराते हैं, उसको बिजली का धक्का लगेगा।
4116.स्वयं चाहनेवाली स्त्री के लिए दूसरा कोई बाधा डालते समय वह अपने दुश्मन नहीं है। अपने को सुरक्षा करनेवाला पहरेदार है। कारण सर्वदोषों के कारण
प्रकृति रूप की स्त्री ही है। अर्थात् प्रकृति माया है,आत्मा सत्य है।
4117. जिसमें भेदबुद्धि नहीं है, उसके सभी कार्य केवल ईश्वर लीला विलास के दर्शन के लिए होगा। कारण वे ईश्वरीय स्थिति प्राप्त व्यक्ति है। उनके कार्यों में धर्म और नीतियाँ होंगी। जिनमें ईश्वरत्व नहीं है,उनके कार्य अधर्म और अनीति के होंगे। कारण वे अहंकारी होते हैं। अहंकार माया से बंधित है। जहाँ अहंकार होता है,वहाँ भेदबुद्धि ,राग-द्वेष,काम-क्रोध होंगे।
4118.ईश्वरीय दर्शन से ही एक का अहंकार पूर्ण रूप से मिट जाएगा। इसीलिए विद्वान विनय संपन्न कहते हैं। कारण उसको मालूम है कि अहंकार ही अपने अमृत आत्मबोध को छिपाता है। इसलिए वह अहंकार को तिनका भर भी अपने में स्थान नहीं देगा। सब देव जिस देव की आराधना करते हैं, वेदों में जिस देव के यशोगान होते हैं, उस देव को अर्थात् आत्मा बने मैं नामक अखंडबोध को स्वयं एहसास नहीं करता तो नहीं पहचानता तो वेद पारायण करने पर भी कोई लाभ नहीं होगा।कारण नामरूपात्मक और कर्म से नियंत्रित जो भी चलन हो,वह तीनों कालों में रहित ही है। कारण ब्रह्म अर्थात परमात्मा अर्थात् मैं नामक अखंडबोध अर्थात् परमज्ञान निश्चलन स्वभाव के होने से दूसरे कोई चलन को कहीं एक स्थान न होगा। इसलिए कर्म को जो माया के रूप में जानता है,वही कर्म करने पर भी कर्ममुक्त होता है। वही बिना कोई कर्म के शांति का वासस्थान हो सकता है।
4119. आचारों से नहीं,समस्याओं से बाहर आने केलिए जीवन के बारे में ज्ञान चाहिए। उसके लिए आत्मज्ञान प्रदान करनेवाला ज्ञान चाहिए। संसार के दुखों की निवृत्ति की महा औषधि आत्मज्ञान मात्र है। कारण मनुष्य खोजनेवाले सब कुछ आत्मज्ञान में ही है। अर्थात् आत्मज्ञान एक कामधेनु होती है।
4120. जब भगवान की महिमा को जानते हैं,तब आश्चर्य,अद्भुत,आनंद होकर मनुष्य जन्म में अज्ञान के कारण गँवाये आयु को सोचकर जो आँसू बहाते हैं,वही आनंदाश्रु होते हैं। वही यथार्थ भक्ति होती है। अल्प सुख के लिए पत्नी,संतान,संपत्ति, पद आदि नष्ट कष्टों को सोचकर आँसू बहाना भक्ति नहीं है।
4121. वही आत्मज्ञानी है, जो अपनी मानसिक समदशा को न छोडकर अपने आवश्यक कार्यों को करता है। कारण समदशा प्राप्त मन ईश्वर को ही है। इसलिए समदशा प्राप्त मन जिसमें है,उसको सदा आनंद और शांति होते रहेंगे।
4122. यथार्थ भक्त को जानना चाहिए कि भगवान के लिए जीनेवालों को ही भगवान उसके लिए जिएगा। भगवान के लिए जीना कैसा है? भक्त को यह एहसास करना चाहिए कि ईश्वर के बिना कुछ नहीं है। वैसे सब कुछ ईश्वर ही मानकर जीनवाला भक्त भगवद् माया के कारण चंद मिनट ईश्वर को भूलने पर भी भगवान उसको संकेत करेगा कि ईश्वर को भूल जाने की वस्तु कौन-सी है। साथ ही भक्त मन को उस विषय से मुक्ति मिलेगी। केवल वही नहीं है, जो भक्त जिस देवता की उपासना करता है,उस देवता को मात्र स्मरण करने की बुद्धि को वह देवता उसको देगा। वही उसकी नियती है।
4123.शरीर और संसार को विवेक से जानकर शरीर से अपरिहार्य बोध सत्य ही मैं का एहसास करनेवाला ही आत्मज्ञानी है। वैसे एहसास करनेवाला ही लोक के शासक बन सकता है। सत्य को एहसास करनेवाले ज्ञानी को दूसरा एक लोक नहीं है। वैसा दूसरा एक लोक नहीं है, जानकर भी यह माया शरीर लेकर इस माया लोक को शासन करते समय यह क्रीडा है, संसार को शासन करने में कोई अर्थ नहीं है। कारण जगत मिथ्या,ब्रह्म सत्य है। यही शास्त्र सत्य है।
4124. दूसरों से देनेवाला बडप्पन सब स्वयं बने शारीरिक अहंकार के योग्य नहीं है। आत्मा के लिए है। कारण आत्मा से आश्रित ही अहंकार स्थिर खडा रहता है।
अहंकार को स्वत्व नहीं है। वह जड ही है। वह जड आत्मा का एक उपकरण मात्र है। उपकरण पर अभिमान रखनेवाला ही अहंकारी होता है।इसीलिए अहंकारी मार्ग न जानकर दुख में फँसकर तडपते हैं। कारण अहंकार अंधकारमय है। आत्मा मात्र स्वयं प्रकाशमान है। जो वह आत्मा स्वयं ही है का एहसास करता है,वही भाग्यवान है।
4125.जो कोई भगवान की पूजा, ध्यान, यज्ञ, आदि आचारों को जीवन भर आवर्तन करता रहता है, उसको उसके बारे में ज्ञान आने तक वह करता रहेगा। लेकिन दुख में कोई परिवर्तन न रहेगा। जिस आनंद के लिए ये सब करते हैं, उस आनंद की प्राप्ति के लिए मन को नश्वर वस्तुओं से हटाकर अनश्वर वस्तु परमात्मा पर मन को विलीन कर लेना चाहिए। परमात्मा का स्वभाव ही परमानंद है।नहीं तो पुण्य-पाप के अनंतर संकल्प लोक जन्मों के पात्र बनेंगे। अर्थात् साधारण मनुष्य मन आकार वस्तुओं में ही स्थिर रहता है। मन निराकार वस्तुओं को नहीं जानता। कारण मन निराकार वस्तुओं को स्मरण करने से ही मन रहित हो जाएगा। वास्तव में मन नामक प्रतिवास नहीं है। जो मन नहीं है, जो संसार नहीं है,उन्हींको जीव देख रहे हैं। विवेक हीन मनुष्य ही नित्य दुख को अनुभव कर रहा है। विवेकशील बनने के लिए ही मनुष्य को ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए। वास्तव में आनंद बहुत ही सरल है।क्योंकि ब्रह्म को ब्रह्म के रूप में ही देखना है। लेकिन भगवान साधारण मनुष्य केे सोचने के जैसे ही संकल्प के रूपों में ही बंधित नहीं रहते। पंचेंद्रियों से अनुभव करनेवाला और अनुभव भगवान ही है। अर्थार आकार हो या निराकार ईश्वर से मिले बिना किसी भी वस्तु को कहीं अस्तित्व नहींहै। ईश्वर बोध रूप के हैं। बोध के बिना किसी वस्तु को भोग नहीं सकते। इस बात का एहसास करने तक ही मनुष्य सगुण देवों को अर्थात् संकल्प देवों की पूजा करनी चाहिए। मृत्यु तक इस बात का एहसास न करने पर अपनी पूजा और प्रार्थना सब अर्थ शून्य होगा। जो जीव नहीं है,जो संकल्प नहीं है वह कार्य केवल संकल्प मात्र होगा। लेकिन आत्मबोध के साथ करनेवाले सब कार्य पूजा,ध्यान,यज्ञ आदि अर्थशून्य न होंगे। भगवान आनंद स्वरूप होते हैं। वह आनंद स्वरूप ब्रह्म मैं नामक अखंडबोध ही है। जहाँ आनंद नहीं है, वहाँ ईश्वरीय स्मरण न रहेगा। वही माया है। वह माया ही दुख होता है। वह नाम रूप का है।
4126. एक मनुष्य को तब तक दुख भोगना पडेगा,जब तक सर्वव्यापी परमात्मा स्वयं ही है के ज्ञान का एहसास नहीं होता। लेकिन यह स्मरण रखना चाहिए कि अविस्मरणीय वस्तु सर्वव्यापी परमात्मा को स्मरण में रखना चाहिए। सोचनेवाले के बिना स्मरण नहीं है। उसका एहसास करने के साथ स्मरण मिट जाएगा। स्मण रहित परमात्मा का स्वभाव ही परमानंद और परमशांति है। अर्थात् मैं है के अनुभव को बनानेवाले स्वयंभू मैं ही अनिर्वचनीय परमानंद स्वरूप, परमशांति स्वरूप, अनंत अनादी नित्य सत्य स्वयं चमकते रहते हैं। मैं मात्र ही है। यही शास्त्र सत्य है।
4127.माता-पिता अपनी संतानों के सानंद जीवन देखकर आनंद ही होता है।लेकिन कालांतर में लोग संपत्ति के लिए माता-पिता को मिटाने की कोशिश की तो अभिभावक भी संतानों को मिटाने की कोशिश की। वैसे ही सृष्टि को संहार करनेवाला सृष्टा होता है। सत्य में सृष्टा और सृष्टि एक संकल्प मात्र है। सृष्टा ब्रह्म को ही कहते हैं। यथार्थ ब्रह्म को जन्म-मृत्यु नहीं है। वह सर्वत्र व्याप्त परमात्मा ही है। अर्थात् जो ब्रह्म जन्म लेता नहीं है, वह सृष्टि नहीं कर सकता। अर्थात् भगवान सृष्टि नहीं करता। सृष्टि नहीं कर सकता। क्योंकि सर्वस्व भगवान ही है। लेकिन हमें लगता है कि ईश्वर ने सृष्टि की है। वही यह जीव और संसार है। ईश्वर का सर्वव्यापकत्व बदले बिना ईश्वरीय शक्ति दिखानेवाला इंद्रजाल ही है। शास्त्र सत्य का भगवान मैं नामक परमात्मा बने अखंडबोध ही है। अर्थात् शास्त्र जितना भी कहें, स्वयं के बिना कुछ भी नहीं है। स्वयं ही केंद्र है।
4128. इस ब्रह्मांड के जीवराशियों में केवल मनुष्य ही प्रपंच सत्य और अपनी उत्पत्ति की खोज करते हैं। उसके लिए अधिक मार्ग होते हैं। सगणोपासना, ओंकार उपासना, आत्मोपासना,अपने अपने जाति वर्ण भेदों के अनुसरण में, उनके धंधों को ईश्वर बनाकर कर्मयोग करनेवाले,ज्ञानयोग,भक्तियोग,राजयोग आदि योगमार्ग,इन मार्गों में साक्षातकार का प्रयत्न करते रहते हैं। साधारणतः मनुष्य मन आत्मोपासना अर्थात् निर्गुणोपासना को नहीं चाहता। वैसे लोग उनके संकल्प देवों की उपासना करते समय उनका संकल्प देव ही उनको ज्ञान मार्ग दिखाएगा। सत्य खोज के मार्ग जो भी हो, ज्ञान मार्ग प्रधान है। कारण सभी अज्ञान और विषयवासनाएँ आत्मस्मरण करते समय आतमज्ञानाग्नि में जलकर भस्म हो जाएगा। जितने जन्मों के दोषों के होने पर भी आत्मज्ञान से एक मिनट में वह मुक्त हो जाएगा। केवल वही नहीं पापियों से बडे पापी होने पर भी आत्मज्ञान सीखने पर पाप मुक्त हो जाएगा। वही नहीं ज्ञान के कोई नियम नहीं है। लिंग भेद और ज्ञाभेद नहीं है। ईश्वर तक पहुँचने का तीव्र वैराग्य और उद्वेग होना चाहिए। वैसे लोगों को संकल्प नाश होते समय बिना पढे एहसास होगा। अर्थात् स्वयं आत्मा में स्थिर खडे रहकर सभी ज्ञान उमडकर आएगा।
4129. ईश्वर की कमी कहनेवालों को जानना चाहिए कि जीवन को संतोष पूर्ण करने के लिए यथार्थ में कोई कष्ट नहीं है। इस संसार में सब के सब जन्म लेते समय ही जानते हैं कि दूसरों को हित करने पर हित होगा। अहित करने पर अहित होगा। यह जानकर भी, भले कार्य जानने पर भी करने में असमर्थ होते हैं। वैसे ही
बुरा जानकर भी बुराई कर नहीं सकते। इससे जान लेना चाहिए कि मन और बुदधि जड है। उसका अपना निजी अस्तित्व नहीं है। इस जड को उपयोग करके आत्मा बने बोध ही सब कुछ करता है। लेकिन आत्मा कुछ भी नहीं करती। कारण आत्मा सर्वव्यापी और निष्क्रिय होती है। अर्थात् महाभारत में कृष्ण अर्जुन से कहा कि तुम्हारे सामने खडे भीष्म, द्रोण, दुर्योधन आदि सबको पहले ही मैं मार चुका । तुम को नाम मात्र के लिए उनको मारना चाहिए। उससे जान-समझ सकते हैं कि पंचपांडव या कौरव यहाँ कुछ भी नहीं करते। ये सब परमात्मा स्वरूप श्री कृष्ण भगवान अपने योग माया बनाकर दिखानेवाले मायाजाल ही है। सत्य में एक युद्ध क्षेत्र, पंचपांडव और कौरव कोई वहाँ नहीं है। श्री कृष्ण का कहना है कि अधर्म बढते समय कृष्णपरमात्मा अवतार लेते रहेंगे। इसका मतलब है कि चींटी से ब्रह्मा तक सभी नाम रूप जड और माया रूप ही है। वे तीनों कालों में रहित ही है। लगता है कि माया लेकर ही कृष्ण का जन्म हुआ है। कारण कृष्ण गीता में कहते हैं कि मैं जन्म- मृत्यु रहित सर्वांतर्यामी हूँ।जो जन्म नहीं लेते, वे अवतार ले नहीं सकते। कारण कृष्ण परमात्मा सर्वव्यापी है। सर्वव्यापी जन्म नहीं ले सकते। कृष्ण धर्म-अधर्म के अपार ब्रह्म स्वरूप होते हैं।मन नश्वर नहीं है। शाश्वत परमात्मा होनेवाले ब्रह्म ही है। जो नहीं है, वह बनता नहीं है। अर्थात् जो कुछ है सा लगता है, वे सब जीव और संसार परमात्मा शक्ति माया लेकर बनाकर दिखानेवाले एक इंद्रजाल के बिना वास्तव में कहीं कभी कुछ नहीं है। परमात्मा बने अखंडबोध भगवान एक मात्र ही है। यह सत्य न जाननेवाले जीवात्माएँ संकल्प लोक में अर्थात् स्वप्न लोक में सत्य जानने तक भटकते रहेंगे। जो जीव मैं ही सत्य है का एहसास करता है, वह जीव ही आत्मा को पूर्ण रूप से साक्षात्कार करता है। श्री कृष्ण स्व आत्मा को पूर्ण रूप से साक्षात्कार करने से ही यह इंद्रजाल स्वशक्ति माया लेकर दिखा सकता है। विश्वामित्र महर्षी ने संकल्प करके एक स्वर्ग को ही बनाया है। वशिष्ट ने भी अपने आश्रम में कामधेनु रखी थी,जो उनकी हर माँग की पूर्ण करती थी। ये सब परमात्मा भगवान की माया लीलाएँ ही हैं। मैं नामक अखंडबोध सत्य मात्र ही नित्य सत्य है। कारण मैं नामक बोध ही नहीं है तो कुछ नहीं है। मैं नामक अखंडबोध में मात्र ही सब कुछ कहते हैं। यह शास्त्र सत्य है। शास्त्र प्रकार कके भगवान मैं नामक अखंडबोध मात्र है। यह शास्त्र सत्य है।
4130.जिसको खोलकर दिखाने की इच्छा नहीं है, उसे छिपाकर रखते नहीं है।
4131. हम से हटकर जानेवालों को, निकट आनेवालोंं को हटानेे की कोशिश करनी नहीं चाहिए। आत्मज्ञानी उसको न करेंगे। कारण निकट आने और हटाने की कोशिश करने पर भी विपरीत परिणाम ही मिलेगा। अर्थात् पूर्व जन्म कोशिश के परिणाम स्वरूप निकट आने को भोगकर उसमें जो नित्य-अनित्य है उनको विवेक से पहचानकर अनित्य को तजना चाहिए। नहीं तो वह बढता रहेगा। पुनः पुनः संकल्प संसार में जन्म लेते रहेंगे। उसी समय जन्म लेते समय स्वयं साथ आनेवाले जो भी हो या प्राण हो या वस्तु हो या पद हो या यश हो विवेक से जानकर उसके अल्पत्व को जानकर इस जन्म के नाते-रिश्ते, वस्तु,पद, को न चाहकर रहने पर ही आत्मज्ञान सीख सकते हैं। वैसे आत्मज्ञान अप्राप्त जीव अपने को स्वयं आत्मा है का एहसास नहीं कर सकते। वैसे आत्म का जो एहसास नहीं कर सकता. उसको आत्मा का स्वभाविक प्रेम,ज्ञान और सत्य, शांति और आनंद नहीं मिलेगा। लेकिन स्वात्मा निश्चित एक आदमी इन सबको अपने स्वभाव से अनुभव करके परमानंद स्थिति पाकर वैसा ही रह सकता है।
4132. रंगमंच पर भाषण देनेवाला विषय प्रिय -अप्रिय के होंगे। कारण वक्ता अपने भाषण के विषयों का मूल नहीं जानता। अर्थात् वक्ता और प्रश्नकर्ता बदलकर मिटनेवाले अहं बोध से सीमित विषयों को सीमित बुद्धि से जो विषय नहीं है,उसके बारे में विवाद करने से ही विषयों में प्रिय अप्रिय होने के कारण बनते हैं। आत्मबोध के साथ जो भी विषय बोले उसमें अमृतरस होगा। अर्थात उनके भाषण के विरुद्ध विचार न उठायेंगे। क्योंकि अपरिवर्तनशील आत्मा से आनेवाले सब विषयों को बदल नहीं सकते। वे ही सत्यवचन होते हैं। उसी समय अहंबोध के साथ सांसारिक और शारीरिक विषयों के बारे में बोलते समय ही भिन्न अभिप्राय होते हैं। कारण वक्ता और श्रोता दोनों सत्य नहीं जानते।
4133.मैं है को अनुभव करनेवाला अर्थात् परम ज्ञान परमात्मा रूपी परमात्मा ही अपनी स्थिति न बदलकर अर्थात् अपने निश्चल अखंडबोध तत्व से न बदलकर स्वयं चलन शक्ति माया मोहिनी रूप में बदलकर जो संसार और शरीर नहीं है,उस ब्रह्मांड को बनाकर दिखाकर सबकै मिटाने का स्वभाव ही स्वयंभू परमात्मा का है।
लेकिन इस परमात्मा रूपी मैं नामक अखंड बोध सत्य को महामाया अकारण आकर अपने स्वरूप को अहंकार से,मन से,बुद्धि से, छिपा देने से अपने अखंड को भूलकर खंड जीव बन गया है। जिस दिन आत्म स्मरण से अहंकार को मिटा देता है,
अर्थात् आत्मज्ञान अग्नि से जला देता है, तब मन,बुद्धि,प्राण आदि रूप की महामाया का पर्दा हट जाएगी। साथ ही स्वस्वरूप अखंडबोध स्वभाव के परमानंद को स्वयं स्वभाविक रूप में अनुभव करके वैसा ही स्थिर खडा रहेगा।
4134. जिसको जीवन में ईश्वर को सोचने का समय नहीं रहता, उसको अपने जीवन भर ईश्वर के स्मरण के लिए समय न रहेगा। कारण ईश्वर काल रूप में ही है। काल को विस्मरण करके अर्थात् हर एक मिनट का आना ईश्वर ही है। इसका एहसास करके जो कोई वर्तमान में जीता है, अर्थात् बोध के रूप में हो या आत्मा हो अर्थात् शारीरिक सांसारिक एहसास के बिना रहता है, वह कालातीत स्वात्मा को पूर्ण रूप में साक्षात्कार करेगा। वैसे लोगों को कितना दुख आने पर भी श्री कृष्ण के समान जिंदगी भर मुस्कुराते मुस्कुराते जी सकते हैं।
4135. प्रकृतीश्वरी का दान ही पुरुष का शरीर होता है। इसीलिए स्त्री पुरुष के
शरीर को अपनाना चाहती है। लेकिन स्त्री-पुरुष शरीर का आधार आत्मा निस्संग होती है। परमात्मा की शक्ति बनी पराशक्ति महामाया देवी को उपयोग करके ही चींटी से लेकर ब्रह्मा तक के जीव रूप माया शरीर को स्वीकार करके परमात्मा ही इस प्रपंच रूप में, प्रपंच जीव के रूप में जन्म लेते हैं। लेकिन साधारणतः जीव शारीरिक अभिमान से ब्रह्म नामक एकात्मकता को एहसास नहीं करता। वैसे आत्मा को पूर्ण रूप में त्रिमूर्ति, ऋषि और देवों ने साक्षात्कर किया है। अर्थात् सभी शारीरिक रूप माया ही है। सभी जीवों में आत्मा एक रूप में ही चमकती है। वैसे ही शारीरिक रूप की दुनिया एक माया ही है। इसीलिए पुरुष के शरीर पर प्रकृति का प्रतिबिंब स्त्री अधिकार जमाती है। स्त्री से पुरुष मात्र ही स्वआत्मा का साक्षात्कार कर सकता है। आत्मा को लिंग भेद नहीं है। सभी शरीर रूप रहित माया ही है। अखंड बोध आत्मा एक मात्र ही मैं है के अनुभव को बनाते रहनेवाला मैं नामक सत्य है।
4136. जो सत्य खोज में अपने आपको खोजकर देखता है, तभी समझ सकता है मैं बोध रूप आत्मा है। इस शरीर और प्रपंच की सृष्टि स्थिति लय के परम कारण है मैं नामक अखंडबोध ही है। बोध स्वरूप अनुभव पूर्ण है। इस संसार को अनुभव नहीं है। यह सृष्टि है को अनुभव करते समय ही वह है सा लगता है। वैसे ही स्थिति और लय हैं। स्वयं है के अनुभव वस्तु मात्र को ही दूसरा एक वस्तु होने से लगेगा। आत्मा ही स्वयं है की वस्तु है। इसलिए ब्रह्मा की सृष्टि,विष्णु की सुरक्षा शिव के संहार के कारण मैं नामक बोध मात्र है। मैं नामक आत्मा के बोध संकल्प से होनेवाले एक भ्रम ही यह संसार है। संकल्प नहीं है तो संसार नहीं है। बाकी बोध मात्र स्थिर रहेगा। अर्थात् यह जड संसार बोध का संकल्प है। यह जड संसार बोध के संकल्प भ्रम ही है। वैसे ही प्राण ओर शरीर है। उनसे आश्रित देह-धर्म भेद जाति-मत के संकल्प से होनेवाला भ्रम ही है। भ्रम के बदलने से अर्थात् संकल्प रहित होने के साथ आत्मबोध के स्वभाविक परमानंद उसके अकेलेपन में चमकेगा। अर्थात् पर्दा हटने के साथ स्वस्वरूप स्मरण और स्वरूप का स्वभाविक परमानंद अनुभव करके वैसा ही रह सकता है।
4137.पूर्व जन्म पुण्य से हुए वासना के कारण,दिव्य शास्त्र अध्ययन से प्राप्त ज्ञान से जो कोई जन्म से ईश्वर भक्त बनता है, वह केवल ईश्वर के स्मरण में ही रहेगा। पंचेंद्रियों के अनुभव में भी ईश्वरीय स्मरण ही आएगा। दूसरे कोई चिंतन उसमें नहीं होगा। उसीको ही आत्मज्ञान होगा। आत्मज्ञान से कालांतर में उसका न आत्मा में मिलकर आत्मस्थिति पाकर आत्मा के रूप में ही स्थिर खडा रहेगा। अर्थात् परमात्मा का स्वभाव परमनंद को कैसे अनुभव करना चाहिए। अपने से अन्य विषय भोगों को देखकर उन विषयों से बदलकर अनुभव करने के जैे अनुभव करना नहीं चाहिए। वह अपने माया के पर्दा हटाकर स्वस्वरूप को स्वयं अनुभव करना ही चाहिए।
4138. धन को लक्ष्य बनाकर आध्यात्मिक सिखानेवालों की बातें सुनने के लिए अनेक लोग आएँगे। उनके उपदेश वचन बुद्धि को सुधबुध खोने देंगे, पर किसी के हृदय को न छूते। लेकिन आत्मलाभ के लिए आध्यात्मिक सिखानेवालों के वचन हृदय में तीर जैसे छेदकर उनके हृदय कमल को खिलाएँगे।
4139.
मैं नामक अखंडबोध ही आत्मबोध है,अनंत,अज्ञात्,अनादी,अव्यक्त,अनिर्वचनीय बोध आाकाश केंद्र मैं है के अनुभव बनानेवाले आत्मबोध है। अर्थात् मैं है का अखंडबोध ही है।
4140.इस संसार का जीवन दुखपूर्ण होने के कारण मनुष्य जन्म लेते समय स्थिर बुद्धि के साथ जन्म नहीं लेते। बाल्यावस्था और कौमार के अंत के बाद ही साधारणतः स्वयं चिंतन शील व्यक्ति बनता है। अर्थात् जन्म से ही शिशु के मन एकाग्र चित्त न होने से आत्मज्ञान सिखाने पर भी उसे अनुभव में ला नहीं सकता। अर्थात् आत्मज्ञान बुद्धि में दृढ होने के पहले ही शरीर और सांसारिक व्यवहारिक चिंतन बुद्धि पर असर डालने से सांसारिक विषय चिंतन बुद्धि पर प्रभाव डालने से
दुख स्वभाविक सांसारिक विषय चिंतन के नियंत्रण में आत्मविचार कर न सका। कारण आत्मविचार करते समय सांसारिक विषय उसके लिए बाधा बनाएगी। इसीलिए शरीर नहीं आत्मा है के विचार की ज्ञान दृढता नहीं होती। इस स्थिति में ही अनेक जीवात्माएँ सत्य का महसूस न करके मानसिक परेशानियों का पात्र बनते हैं। उनसे बाहर आने उपनिषद और भगवद्गीता ग्रंथों का शास्त्रीय अध्ययन करना चाहिए। केवल वही नहीं, आत्मज्ञानी गुरु के उपदेश भी उनको सत्य मार्ग दिखाएगा। जीवात्मा जो इन सबको नहीं जानते, ये ही अपने बडों की बात मानकर वैवाहिक जीवन में संतानों की उत्पत्ति करके जिंदगी भर कष्ट भोगते रहते हैं।
4141. वासनाएँ मिटकर सुधबुध खोकर मन मौन होने पर, आत्म स्वरूप स्थिति प्राप्त गुरु पर, एकटक नजर रखनेवाले शिष्य के मन में ,उदय होनेवाले प्रश्न के पहले ही गुरु से शिष्य को जवाब मिलेगा। कालांतर में शिष्य के सभी प्रश्नों के जवाब मिलने पर शिष्य खुद मौन हो जाएगा। शिष्य में जब प्रश्न नहीं उठते, तब मन सम स्थिति पाएगा। मन सम स्थिति पाने पर आत्मा चमकेगी। साथ ही शारीरिक विस्मृति और आत्म स्मृति होगी। तभी एहसास होगा कि गुरु अपने में रहनेवाली आत्मा है,अपनी आत्मा से ही सभी उत्तर आये हैं, बाह्य गुरु और आंतरिक गुरु दो नहीं है।साथ ही यह स्थिति पाएगा कि गुरु-शिष्य रहित एकात्म बोध स्थिति पाएगा। उस एकात्म बोध स्थिति का स्वभाव ही परमानंद है। वह परमानंद ही यथार्थ स्वरूप है। जो जीव पूर्ण रूप में स्वात्मा साक्षात्कार करती है,वह जीव एहसास कर सकता है कि यथार्थ स्वरूप परमानंद है।
4142. कोई एक दान देते समय पात्र जानकर भीख देना चाहिए। इसका अर्थ है कि भीख लेनेवाला ईश्वर के लिए जीनवाला है तो भीख देनेवाले को और भीख लेनेवाले को फल अनुकूल होगा। नहीं तो भीख लेनेवाला उस भीख को गलत रीति से उपयोग करते समय उसका परिणाम दान देनेवालों पर भी बुरा असर डालेगा।
स्वयं जो कुछ देते हैं, उसका फल कई गुना वापस आएगा। इसलिए पुण्य-पाप अनुभव करने आयु नहीं तो पुनः दूसरे जन्म में शरीर लेना पडेगा। इसलिए दान-धर्म करनेवालों को समझना चाहिए कि जो संसार नहीं है, जो जीव नहीं है, उनपर करुणा दिखाकर स्वयं मिट जाना नहीं चाहिए। इसलिए सत्य क्या है? असत्य क्या है? को विवेक से खूब पहचानना चाहिए। जो संसार और जीव को सीधे और नेक बनाने के प्रयत्न में लगते हैं, उनको कभी दुख न होगा। दुख विमोचन ही मोक्ष है। यहाँ दो विषय मात्र है। एक मैं नामक अखंडबोध है और दूसरा जड है। उनमें मैं नामक अखंड बोध मात्र ही नित्य सत्य रूप में है । मैं नामक अखंडबोध से मिले बिना दूसरा एक है तो वह अपनी शक्ति माया दिखानेवाले शारीरिक सांसारिक दृश्य है। वे ही जड होते हैं। जड कर्म चलन है। निश्चल अखंडबोध में एक चलन नहीं हो सकता। वही मनुष्य जन्म को साक्षात्कार कर सकता है,जो एहसास करता है कि जिस स्थान में चलन को देखने पर वह जड है, वह कर्मचलन है,वह कर्मचलन बोध में तीनों कालों में रहित है, उसे है सा समझना एक भ्रम मात्र है। जो सत्य नहीं जानते, वे सब माया संकल्प लोक में भटकते रहेंगे। अविश्वास का फल दुख ही है। इसलिए सत्य पर विश्वास करके सत्य जीवन बिताकर सत्य ही होना चाहिए।
4143. दैनिक जीवन जीने के लिए जिन विषयों की अत्यंत आवश्क्ताएँ है ,उन विषयों को ही माता-पिता अपने बच्चों को प्रधानता देकर सिखाते हैं।माता-पिता सोचते हैं कि अपने बुढापे में उनकी आवश्यक्ताओं के लिए धन कमा नहीं सकते।
इसीलिए बच्चों के आश्रय में रहने के लिए स्वयं कमाने के जैसे बच्चों को भी धन कमाने के योग्य बनाने के विचार माता-पिता के मन में आते हैं।
इसलिए बचपन से ही सांसारिक लोगों को धन कमाने की इच्छा बढ जाती है।
लेकिन कालांतर में बच्चों की पूर्व जन्म वासनाएँ और इस जन्म की वासनाएँ आपसमें संघर्ष करके पुण्याधिक्य की सफलता के लिए ही कुटुंब मेंं संघर्ष होता है। आत्मज्ञान के अध्ययन से प्राप्त विवेकी मात्र ही आत्मज्ञान के द्वारा पूर्वजन्म और इस जन्म की वासनाओं को मिटाकर इस जन्म में मुक्ति पाते हैं। मुक्ति माने दुख विमोचन । वह तैल धारा के जैसे आत्मविचार लेकर ही साध्य होगा। अर्थात किसी भी प्रकार के संकल्प के बिना आत्मबोध से बिना हटे दृढ रहना चाहिए। साथ ही बोध का स्वभाव परमानंद को सहज रूप में अनुभव करके वैसा ही रह सकते हैं।
4144. विवेकशील पुरुष स्त्री से आत्मार्थ प्रेम न करेगा। लेकिन आराधना करेगा। अज्ञानी ही स्त्री को गहराई से प्रेम करेगा। उसको स्त्री से अपेक्षित स्नेह और सत्य न मिलने से ही अपने में एहसास करता है कि वह स्त्री से आत्मार्थ प्रेम कर नहीं सकता। केवल वही नहीं वह एहसास कर सका कि सत्य और प्रेम की खोज सत्य और प्रेम के स्थान में नहीं की है। इस अनुभव से ही अपने मन को स्त्री से हटाने और अनासक्त रहने का प्रयत्न करता है। जब न हो सका,तब प्राण त्यागने का प्रयत्न करता है। वह नहीं जानता कि नाम रूपों से प्रेम होने पर उससे छूटना कठिन है।
नाम रूप मिटने पर मन रूप आकर्षण से बाहर आने में कठिन होने से लोग निराशा से जीवन व्यर्थ ही गँवाते हैं। इसलिए मनुष्य को अपने से अन्य पर मन लगाते समय सीख लेना चाहिए कि नश्वर क्या है? अनश्वर क्या है? अनश्वर में मन लगाने से ही मन मिटेगा। मन मिटने से ही मन की परेशानी दूर होगी। तभी मन का आधार आत्मा का स्वभाव आनंद सहज रूप से अनुभव कर सकते हैं। परिवर्तनशील वस्तुओं पर मन लगने पर दुख ही होगा। कारण सुख खोजनेवाले का स्वरूप ही सुख स्वरूप होता है। यह जानने तक दुख होता रहेगा। अर्थात् सभी दुखों के कारण आत्मज्ञान का अभाव ही है। आत्मज्ञान का मुख्यत्व यही है कि आत्मज्ञान दो नहीं है,एक ही है। दो देखने के स्थान में ही दुख होते हैं। जो दो देखे बिना रह नहीं सकते हैं, वे दुख भोगने में आश्चर्य नहीं है। जो है,उसे वैसे ही न देखनेवाला विवेकी नहीं है।ब्रह्म मात्र है। जो ईश्वर के सिवा और कुछ है का एहसास करता है, वह दुख और कष्ट भोगने में आश्चर्य नहीं है। कारण ब्रह्म का स्वभाव ही परमानंद है। वह भगवान अपने से अन्य नहीं है। वह ब्रह्म स्वयं ही है। स्वयं से मिेले बिना कुछ नहींं है।वही एक है।
4145. एक मनुष्य स्वप्न दो रीतियों से देखता है। 1.एक स्वप्न सूर्य प्रकाश की कमी से अंधकार में देखनेवाला स्वप्न , यह सूक्ष्म माया है, दूसरा आत्मप्रकाश की कमी से अज्ञान की निद्रा में देखनेवाला स्वप्न,वह जागृत स्वप्न है। यह स्थूल माया है। दोनों स्वप्न ही है। जो कोई स्थूल माया और सूक्ष्म माया दोनों को त्रिकालों में रहित एहसास करता है,वही माया दुख से बाहर आएगा। कारण चित्त संकल्प के बिना दोनों को देख नहीं सकता। चित्त चलनशील है। चलन निश्चलन अखंड बोध से हो नहीं सकता। लेकिन हुआ सा देख सकते हैं। जीव ही देखता है। जीव निजी आत्मा को पूर्ण रूप में साक्षात्कार करने से ही जीव भाव मिटेगा। तभी जीव देखा शरीर और सांसारिक दृश्य को रेगिस्तान की मृगमरीचिकाएँ समझ सकते हैं। वास्तव में रेगिस्तान मात्र है। मृगमरीचिका तीनों कालों में रहित है। वैसे ही मैं नामक अखंडबोध मात्र नित्य सत्य है।बाकी जो शारीरिक और सांसारिक दृश्य हैं,वे तीनों कालों में रहित है।अर्थात् मैं नामक अखंडबोध अपने अखंड और निश्चलन को न बदलकर खुद चलन शक्ति महामाया के रूप में परिवर्तित होकर दिखानेवाले इंद्रजाल नाटक ही यह ब्रह्मांड होता है। इसलिए तीनों कालों में रहित ब्रह्मांड की कमियों और अधिकता सब को बताकर जीवन को व्यर्थ करनेवाले सत्य न जानकर
संकल्प कर्म चक्र में घूमते रहेंगे। इसलिए अनेक को न देखकर अपने को देखकर अपने को साक्षात्कार करनेवाला ही जन्म -मृत्यु रहित परमानंद स्वभाव के साथ अखंडबोध रूप में नित्यानंद रह सकते हैं।अपने को मिले बिना दूसरा एक है या नहीं कह नहीं सकते। स्वयं मात्र ही है।
4146.मैं है को अनुभव करनेवाली आत्मा अखंडबोध स्वरूप ही है। केवल वही नहीं सभी बुद्धि जानने का महान ज्ञान ही है।इस ज्ञान रूपी मैं ही ईश्वर के रूप में ,जीव के रूप में और प्रकृति के रूप में है । केवल वही नहीं, अनिर्वचनीय आनंदरूप में,सर्व शक्ति के रूप में, सर्व मुखी ब्रह्म स्वरूप ही है। इसलिए सभी कार्यों में धारा न रुके स्वयं अहमात्मा की ओर स्तुति करके प्रार्थना करके स्मरण करते समय अपने में जीव भाव बिलकुल मिट जाएगा। साथ ही अपने स्वभाविक अनिर्वचनीय शांति और परमानंद सहज रूप में मिलेगा। दुख विमोचन ही मोक्ष है। दुख विमोचन चाहनेवाले ऐसी साधना करके दुख से मुक्त होना चाहिए। वैसा न करके अपने पर ध्यान न देकर अनेक विषयों पर ध्यान देने पर दुख ही होगा।
4147. लघुसुख काम सुख माने उसे भोगकर वह क्या है सोचने के प्रयत्न करनेे के पहले ही छिप जाता है। अर्थात् केवल लघुसुख कामसुख मात्र चाहकर अपने पूर्ण जीवन काल बितानेवाले मनुष्य को वह सुख रहस्य जानने के लिए वह तब तक संदर्भ-परिस्थितियों से बनाये नाते-रिश्तेदार, पत्नी और संतानों के जीवन की प्रतीक्षाओं को सोचकर मन तडपते रहने के सिवा सत्य की ओर जाने के लिए प्रकृति जीव को अनुमति न देंगे। वैसे लोगों का मनुष्य जन्म व्यर्थ ही है। वैसे जीवन को व्यर्थ न होने के लिए आत्म वस्तु सत्य के आधार ज्ञानबोध देनेवाले आत्म ज्ञान को सीखना चाहिए। आत्मज्ञान को सीखते समय ही शरीर शरीर और सांसारिक दुख से बाहर आ सकता है। उपाधी लेकर भोगे काम सुख ,उपाधी रहित परमानंद बनानेवाली विद्या ही आत्म विद्या होती है। कर्म इच्छा रहित स्थिति में ही आत्म विद्या पा सकते हैं।
4148. वर देते समय सोच-समझकर, जाँचकर ही वर देना चाहिए, भले ही माता-पिता हो या गुरु या भगवान। वर पाकर उसका अनुचित प्रयोग करनेवाले अयोग्य को वर देना नहीं चाहिए।नहीं तो अनेक जीवों को दुख झेलना पडेगा। यही पुराणऔर इतिहास की सीख है। उसको भी कार्य-कारण बंधन होंगे। वह तो असीमित माया विलास ही है। माया में भी कुछ नियम होते हैं। इसीलिए अधर्म के बढने पर धर्म की रक्षा के लिए माया शरीर लेकर ईश्वर अवतार लेते हैं। वह ईश्वरीय नियम होता है। शरीर माया ही है, बोध ही ब्रह्म है। बोध से मिले बिना शरीर में कोई नियम न चलेगा। बोध ही सब कुछ करता है। लेकिन बोध कुछ नहीं करता। कारण सब कुछ बोध होने से बोध कुछ नहीं कर सकता। एहसास करना है तो अपने से मिले बिना बोध नहीं है। स्वयं ही बोध है। तैलधारा जैसे आत्मबोध में स्थिर खडे रहते समय सबकुछ बोध केंद्र में बदल जाएगा। बोध को विस्मरण किये बिना दूसरे एक को देख नहीं सकते। अकारण माया आएगी। बोध पर पर्दा डालेगी। बोध पर्दा हटाएगा। इस आँख मिचौनी का खेल अनादी काल से बिना कोई रोकटोक से चलता रहता है। इसीलिए यह प्रपंच विचित्र-सा लगता है।
1149. मन रूपी गुरु के दो स्तर होते हैं। उसमें एक गुरु का मन एक क्षण भी आत्मा से न हटेगा। उस गुरु के शिष्य पंचेंद्रिय ही जिंदगी भर स्वस्थ रहेंगे। कारण वे गुरु का पूर्ण रूप से अनुसरण करनेवाले हैं। उसी समय दूसरे गुरु के मन एक क्षण भी अहंकार से न हटेगा। उस गुरु के पंचेंद्रिय रूपी शिष्य जल्दी ही नष्ट हो जाएँगे।कारण अहंकारी गुरु का अनुसरण शिष्य न करेंगे। जिसका मन अहंकार का अनुसरण करता है, वह पुनर्जन्म का पात्र बनेगा। जो मन आत्मा का अनुसरण करता है, वह मोक्ष को जाएगा। जो जीव ईश्वर के लिए चीखता-चिल्लाता रहता है,उसको ईश्वर अपने साथ जोड लेगा। जो जीव माया के लिए चीखता- चिल्लता रहता है, उसको माया लोक को ले जाएगा।माया लोक नरक है। ईश्वरीय लोक स्वर्ग है। स्वर्ग-नरक सब जीव की वस्तुएँ है। जिस दिन जीव परमात्म स्थिति को पाता है, उस दिन साथ ही स्वर्ग -नरक ओझल हो जाएगा।
4150. धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य रात-दिन, सुख-दुख, सफल-असफल आदि द्वैत भावों में सब समस्थिति को न तजकर, स्वयं आनेवाले भलाई-बुराई में, प्राकृतिक क्रोध में, द्वेष में न नाराज होकर ,आरोप न लगाकर जो रहता है, वही आत्मज्ञान सीखकर आत्मज्ञानी बन सकता है। वैसे आत्मज्ञानी ही मनुष्य से देव, देव से ऋषि
ऋषि से ब्रह्म स्थिति पाएगा। अर्थात् दूध को दही बनाकर दही को मक्खन बनाकर
मक्खन को घी रूप में बदलकर अंत में अपरिवर्तनशील स्थिति पाएगा। वैसे ही ब्रह्म अपरिवर्तन शील स्थिति में है। जो कोई अपने अहमात्मा रूप में रहनेवाले ब्रह्म ही स्वयं है का एहसास करता है,उसका मन निश्चल हो जाएगा। निश्चल मन ही ब्रह्म है। साथ ही मनोनाश होगा। मनोनाश के साथ शरीर और संसार का विस्मरण हो जाएगा। साथ ही मैं नामक ब्रह्म अर्थात् अखंडबोध अपने स्वभाविक परमानंद और अनिर्वचनीय शांति को स्वयं निरुपाधिक रूप में भोगकर वैसा ही स्थिर खडा रहेगा।
4151. इस संसार में जो कोई यह एहसास करके जीता है कि वह स्वयं संसार नहीं है,शरीर नहीं है,अमृत स्वरूप अखंडबोध परमात्मा है,वह परमात्मा माया शरीर स्वीकार करके ही संकुचित जीवबोध में बदलकर ,अब मैं नामक जीव के रूप में संसार में जी रहा है, उसी को एहसास होगा कि यथार्थ मैं बने अखंडबोध परमात्मा अपनी शक्ति माया बनाकर दिखानेवाले इंद्रजाल का भाग ही अपने शरीर और स्वयं देखने का संसार है। इसलिए शरीर और संसार में होनेवाले दुख जैसा भी हो, उसपर कोई प्रभाव न डालेगा। जब कोई इस शास्त्र सत्य का एहसास करेगा कि यह शरीर और संसार जड है,वे तीनों कालों में रहित है तब उसका मन स्वात्मा से न हटेगा। जितना भी कष्ट करें, जितना भी त्याग करें, इस शास्त्र सत्य को समझने के सिवा किसी काम को मुख्यत्व देना नहीं चाहिए। इसीलिए संसार के सभी जीवों को इस शास्त्र सत्य को समझाना है तो स्कूल और विश्वविद्यालयों में वेदांत शिक्षा बहुत मुख्य है। क्योंकि केवल वेदांत मात्र ही सब एक है के बोध को समझाते हैं। तभी भेदबुद्धि और रागद्वेष उनके कारण होनेवाले पारिवारिक और सामाजिक,राष्ट्र और प्रांतीय कलह मिट जाएँगे। उनके सिवा इस संसार में शांति होने और कोई मार्ग नहीं है। जितना भी ज्ञान सीखो,जितना भी शांति सिद्धांतों को अपनाकर मौन रहो,आनेवाले कलहों को रोक नहीं सकते। वे सब ईश्वरीय शक्ति माया उत्पन्न करके दिखानेवाले इंद्रजाल नाटक ही है। माया उत्पन्न करनेवाले दुख को जीतने के लिए आत्मज्ञान से मात्र ही संभव है।
4152. जो ज्ञान क्रियाशील नहीं है,वह ज्ञान नहीं है। शास्त्र सत्य की खोज करके स्वयं साक्षात्कार करके अनुभव करनेवाले लोग कहेंगे कि अद्वैत् परमात्मा रूपी अखंडबोध अनुभव ही ब्रह्म है।
4153.अखंडबोध परमात्मा बने अपने को शरीर के रूप में संकुचित दृष्टि से देखना ही सृष्टि है। वही भेददृष्टि बनाएगी। उसका परिणाम दुख ही है। यह अजान की दशा है। शरीर,संसार और आत्मा को अभिन्न देखना ही अद्वैत है। वही ज्ञान दृष्टि है।उसका बल ही आनंद है। एक अनेक होना, अनेक एक होना,ज्ञान अज्ञान होना,अज्ञान ज्ञान होना, ईश्वरीय माया बनाकर दिखानेवाले मायाजाल है।मैं नामक अखंडबोध परमात्मा को किसी भी काल में किसी भी प्रकार का परिवर्तन संभव नहीं है। अर्थात् मैं रूपी परमात्मा बने अखंडबोध मात्र ही नितय सत्य रूप में सदा प्रकाशित होता रहता है।
4154. ज्ञाता,ज्ञान, जानने की वस्तु यही ज्ञान का त्रय या ज्ञान की त्रिपटी कहते हैं। अर्थात् दृष्टा,दृश्य,दृग दृश्यज्ञान। अर्थात् ज्ञाता, ज्ञान, जानने की वस्तु ये सब परिवर्तनशील है। ज्ञाता मैं नामक बोध न तो जानने की वस्तु .ज्ञान न होगा। ज्ञाता का बोध स्वयं है को जानता है। केवल वही नहीं ज्ञान को,जानने की वस्तु को अस्तित्व के रूप में बदलता है। इसलिए मैं नामक आत्मा रूपी बोध सत्य है।जानने की वस्तु के बारे में जो ज्ञान है,वह असत्य है।आत्मा रूपी मैं इन दोनों को न जाननेपर वह नहीं है। मैं स्वयं जानने के मात्र से ही उसका अस्तित्व है।इस त्रिपुटी स्थिति को ही ज्ञाता, ज्ञान,ज्ञेय आदि तीनों को जिस दिन जानकर एहसास करके अनुभव करके वैसा ही रहता है, उस दिन में ही दुख विमोचन होगा। दुख विमोचन ही मुक्ति है।
4155. मनुष्य सांसारिक जीवन को चाहकर उसमें से अपने अपेक्षित वस्तु न मिलने पर अहं की ओर अहमात्मा के निकट आने का प्रयत्न करेगा। तब देवेंद्र का मन,पंचेंद्रिय के देव पंचभूतों को उपयोग करके कई प्रकार की बाधाएँ जीव को देते रहेंगे। कारण जीव अहमात्मा के निकट जाने से अमृत बने आनंद को प्रापत करने के साथ इंद्रियों और अंतःकरण देवों को स्थिरता न रहेगी। उनकी बाधों को पार करके जो कोई परमात्मा रूपी परमेश्वर को पहुँचता है,उनसे नियंत्रित है ये सभी प्रपंच। इसका एहसास करनेवाला ही यथार्थ भक्त,ज्ञानी और विवेकी है।
वही गुणातीत ब्रह्म पद स्थिति पर पहुँच सकता है, जो गुणों का अतिक्रमण करता है। उसके लिए शास्त्रीय विचार अपरिहार्य होता है। वैसा न करके यज्ञ हवन कर्म कार्यों से ज्ञान न मिलेगा। शरीर,संसार ,सत्य और ब्रह्म के बारे मेंं खोजकर देखना चाहिए। हर एक जीव का आत्मस्वरूप बोध ही है। जब लोक की सृष्टि हुई तब ब्रह्म ने ही वेद और वेद रहस्य अर्थात् यथार्थ सत्य को प्रकट किया है। वही मैं नामक अखंडबोध होता है। इसलिए सत्य के ग्रहण किये गुरु वचनों पर विश्वास रखते समय ही अपनेआप गहण किये ज्ञान दृढ होगा। वैसे ज्ञान की दृढता जिसमें है, वही सत्य बोध उसके स्वभाविक शांति और आनंद प्राप्त करेगा।
4157. आत्मा आदी,ज्योति, अंड,अंड के शासक पंचभूत,स्त्री,पुरुष आदि रूप में
इस सांसारिक चक्र को नियंत्रित करके शासन करती रहती है। वही स्वयं बने अखंडबोध सत्य हैै।अर्थात् मैं है के अनुभव को बनानेवले आत्मा रूप के मैं नामक अखंडबोध है। शास्त्रीय सत्य यही है कि मैं नामक अखंडबोध मात्र ही नित्य सत्य रूप में है। जो इसको पहचानकर एहसास करता है,,केवल वही फरमानंद, अनिर्वचनीय शांति का अनुभव करेगा। जिस में भेदबुद्धि है, उसको शांति नहीं मिलेगी।
4158. काम,क्रोध, लोभ, मोह,मद,मत्सर,रूप,रस,ग्रंथ,स्पर्श आदि दस विकार मन की रचनाएँ हैं अर्थात् मनोविकार होते हैं। ये सब माया कर्मबंधन के कारण होंगे। मन शून्य से आने से मनोसृष्टियाँ सब शून्य है।इसलिए विवेकी आत्मा रूपी बोध सत्य से एक क्षण मिलकर दूसरे कोई स्मरण नहीं होगा। कारण मैं नामक अखंडबोध मात्र ही सर्वव्यापी है। इस ज्ञान की दृढता में ही आत्मज्ञानी सदा स्थिर खडा रहता है। इसीलिए आत्मज्ञानी पूर्ण धैर्यशाली बनेगा।
4159. पूर्ण आत्मज्ञानी ही धैर्यशाली है। मनुष्य बल, अस्त्र-शस्त्र बल ,अधिकार बल,धनबल आदि से होनेवाला धैर्य जीव भय आने तक ही है।आत्मज्ञानी को जीव भय नहीं आएगा। कारण आत्मज्ञानी के सामने दूसरी एक वस्तु नहीं है। द्वैत्व बोध ही भय को बनाता है। आत्मज्ञानी नित्य अद्वैत् ही है।जिनको अद्वैत् बोध दृढ नहीं होता, उन सब को जीव भय होगा। मैं मात्र है का एहसास ही अद्वैतबोध होता है। क्योंकि स्वयं के सिवा कह नहीं सकते कि कुछ है या कुछ नहीं है। केवल वही नहीं,है का अनुभव स्वयं को मात्र है, दृश्य नाम रूपों को नहीं है। बोध को ही मैं है का अनुभव होता है। जहाँ यह अनुभव होता,वहाँ सत्य और बोध सर्वत्र भरा रहता है।
4160. कोई एक अन्य व्यक्ति पर शक को स्थान न देकर विश्वास रखने पर भी किसी एक परिस्थिति में भेदबुद्धि होने के कारण उसको कोई न कोई संदेह आएगा। संदेह न आना है तो संदेह रहित विषयों पर मन लगाना चाहिए। वही सत्यवस्तु मैं नामक आत्मा बने अखंडबोध है। उसपर मन लगानेवालों को ही सभी प्रकार के संदेह मिट जाएँगे। मैं नामक अखंडबोध के सिवा और किसी नामरूप पर मन लगाने पर संदेह निश्चित रूप में आएगा। क्योंकि नामरूपात्मक सारे प्रपंच परिवर्तन के अंतर्गत है। यह परिवर्तन ही संदेह उत्पन्न करता है। अर्थात संदेह अंधकारमय है।
संदेह रहित बोध ही प्रकाश है। संदेह रहित अनुभव मैं है का अनुभव ही है। वही सत्य है। सत्य स्वभाव ही आनंद और शांति है।
4161. अपने को उपद्रव करनेवाले को शाप न देकर,दोषारोपण न करके जीना है तो एहसास करना चाहिए कि अपने शरीर सहित स्वयं देखनेवाले इस सांसारिक दृश्य, जीव अपने मन में ही है और अपने संकल्प से ही यह शरीर और संसार स्थित है। कारण मैं नामक बोध होने से ही शरीर और संसार को देख सकते हैं। मैं नामक बोध न हो तो यह शरीर और संसार न रहेगा। उसे सोचने के लिए भी बोध आवश्यक है। सभी समस्याओं के कारण मन ही है। गहरी नींद में मन न रहेगा। इसलिए कोई समस्या नहीं है। अब मन है, इसीलिए समस्या है। तैलधारा के जैसे आत्मबोध होते समय मनोमाया छिप जाएगा। इसलिए आत्मबोध देनेवाले आत्मज्ञान को पहले सीखना चाहिए। नहीं तो सभी समस्याओं के कारण रूपी मनोमाया उत्पन्न करके दिखानेवाले इंद्रजाल नाटक प्रपंच मोह विषय भोगों में सुधबुध खोकर फँसकर तडपकर जीवन को व्यर्थ करके मर जाएँगे। इसलिए
आत्मज्ञान सीखकर स्वयं आत्मा ही है।स्वयं मात्र ही है। इसका एहसास करके
आत्मा के स्वभाविक आनंद और शांति को अनुभव करके वैसा ही रहना चाहिए।
4162. अब मैं है,मन है। इसलिए समस्याएँ हैं। गहरी नींद में मैं नहीं है।इसलिए मन नहीं है। इसलिए कोई समस्या नहीं है। नींद के टूटते ही मैं और मन दोनों साथ-साथ जुडवे बच्चे के समान आते हैं। साथ ही समस्याएँ भी आती हैं। स्वयं नहीं है तो समस्याएँ भी नहीं है। लेकिन मैं है।वही समस्या है। इन समस्याओं से निपटने
मैं है की खोज करते समय एहसास कर सकते हैं कि इस शरीर और संसार का परम कारण है आत्मा रूपी अखंडबोध। मैं नामक बोध के अखंड में दूसरा एक दृश्य हो ही नहीं सकता। लेकिन दूसरा एक शरीर सांसारिक आकार बोध में हुआ-सा लगता है। लेकिन वह केवल एक भ्रम है। इसे बोध के अखंड के ज्ञान दृढता में समझ सकते हैं। बोध मात्र ही सत्य है। उसका सहज स्वभाव ही परमानंद है। जो इस स्थिति को विवेक से पहचान लेता है,वही सत्यदर्शन के स्वभाव के परमानंद और अनिर्वचनीय शांति का अनुभव कर सकते हैं।
4163. श्रीराम के वनवास के समाचार सुनते ही पिता दशरथ शय्याशायी हो गये। उसके कारण राम के वियोग के कारण पुत्र प्रेम के पुत्रशोक ही है। पुत्र शोक के क्यों होता है? पुत्र शोक मिटाने के लिए सोचना चाहिए कि पुत्र को रूप किसने दिया है? किसने प्राण दिये हैं? किसने क्रियाशील बनाया है? किसने दृष्टि दी है? किसने सुवास दिया है? किसने दिमाग दिया है? किसने रक्त संचार दिया है? इन सब की खोज करने पर आधी चिंता दूर हो जाएगी। उस पुत्र के मन में परमात्मा रूपी भगवान जीवात्मा के रूप में रहकर उसकी कल्पनाओं को पूर्ण करने के लिए
उसके मनसे जो रिश्ता आयी है, वही पुत्र- पिता है,अब एहसास करना है कि यह लाड-प्यार दुख ही होगा। तब बाकी शोक भी मिट जाता है। लेकिन अपने पुत्र का अभिमान कहाँ से आया? अपने में कैसे बना? उसके भी कारण हम नहीं है। पिता-पुत्र दो रूप उसमें बने बंधन, उसको बनाये दुख,आदि मिथ्या है। अर्थात् स्वस्वरूप आत्मवि्मृति लेकर देखनेवाले नमरूप भ्रम ही है। इस शरीर और संसार के परमकारण रहे एकात्मा मात्र ही सत्य है। इसको समझकर एहसास करते समय
निर्पाधिक आनंद को अपने स्वभाविक रूप में अनुभव कर सकते हैं।लेकिन स्वरूप को भूलकर परमात्मा के प्रतिबिंब श्री राम को अपने पुत्र मानने से ही सभी दुखों के कारण बन गये हैं। आत्मज्ञान की कमी के कारण ही इस ब्रह्मांड में दुख होते हैं। चींटी से लेकर ब्रह्मा तक जो भी हो, जिस देवलोक में भी हो, आत्मज्ञान न तो नित्य दुख होगा। आत्मज्ञान रहित घर हो या देश,आनंदपूर्ण नहीं रहेगा। इसलिए देश,परिवार,समाज की खुश हाली के लिए आत्मज्ञान का मेला मनाना चाहिए।
इसके विरुद्ध चिंतन करता है, उसको सुख नही, दुख ही होगा।
4164. अपने में चलनवाले सभी कार्य स्वयं जानकर चलते समय ही स्वयं सृष्टा है। अपने को और अपनी सृष्टि को न जानने पर स्वयं सृष्टि है। सृष्टि सृष्टा को नहीं जानती। सृष्टि को ही दुख है। दुख विमोचन का मोक्ष सृष्टि ही है। सृष्टा मात्र ही रहेगा। सृष्टा की शक्ति बनाकर दिखानेवाला इंद्रजाल ही इस सृष्टि रूपी शरीर और संसार का प्रपंच दृश्य है। मैं नामक बोध से मिले बिना कोई सृष्टि या सृष्टा नहीं है। यह मैं नामक बोध ही सृष्टी और सृष्टा के रूप में भरा है। बोध निराकार है। निराकार अखंडबोध में एक आकार हो नहीं सकता। बनकर दीख पडनेवाले शरीर और सांसारिक दृश्य रेगिस्तान की मृगमरीचिका के जैसे ही मिथ्या है। शास्त्रीय सत्य यही है कि मैं नामक अखंडबोध मात्र ही है। इसको साक्षात्कार करते समय इस शरीर और सांसारिक रूपों के सभी क्रियाओं के ज्ञान होगा। यह बोध स्वभाव ही शांति और आनंद देगा। दूसरे स्थान से शाश्वत आनंद और शांति न मिलेगी।
4165. स्वयं अपने को भूलकर अपने में से अन्य एक ईश्वरीय संकल्प को बनाते समय ही मैं अर्थ शून्य है। उसी समय मैं हूँ, मेरे होने से ही सब कुछ है, अपने संकल्प से ही अपने को एक संकल्प देव होता है। अपने संकलप देव से मिलनेवाली शक्ति ही अपनी है के विवेक से ही जीवात्मा और परमात्मा अपने अंतर को एहसास कर सकते हैं। जीवात्मा स्थिति में ही ईश्वर अपने से अन्य है।
परमात्मा की स्थिति में ईश्वर अपनी सृष्टि है। अर्थात् स्वयं भगवान है। जब जीवात्मा मैं कौन हूँ, भगवान कौन है? सत्य क्या है? आदि सवालों की खोज करके जानने-समझने से ही जीवात्मा को अपने को पूर्ण साक्षात्कार कर सकता है। जिसने ज्ञान विचार नहीं किया है, उसको ज्ञान का बल आनंद आनंद या शांति नहीं मिलेगा। इसलिए जीव को इस विश्वास पर जीना चाहिए कि आत्मा को लक्ष्य बनाकर यात्रा करते समय सभी प्रपंच रहस्यों को आत्मा प्रकट करेगी। तभी मनुष्य आत्मा के महत्व और मनुष्य जन्म के अर्थ को साक्षात्कार कर सकता है।
4166. मनुष्य बाहर के लौकिक विषयों को संकल्प करते समय संकल्प एक वृत्त होने के साथ वह काम सुख लघु सुख की ओर ले जाएगा। वैसे ही अहमात्मा संकल्प करते समय वह संकल्प शक्ति पूर्ण होने के साथ संकल्प नाश हकर परमानंद की ओर ले जाएगा। बिजली विद्युत उपकरणों से मिलकर अपनी शक्ति प्रकट करती है। वैसे ही ब्रह्म शक्ति स्वमाया को स्वीकार करके इस ब्रह्मांड को प्रकट करती है। सभी ब्रह्मांड ,योगग और भोग ही प्रपंच लीला है। भोग शक्ति प्रकट है, योग शक्ति लय है। हर एक जीव का यथार्थ स्वरूप परमानंद है। सूर्य प्रकाश से बने काले बादल सू्र्य को छिपा देता है। वैसे ही परमात्म शक्ति अंधकार के रूप में परमात्मा को छिपाने की लीला विनोद पूर्ण है आत्मा रूपी अपने को छिपानेवाले हैं प्राण, मन,बुद्धि और सभी पंचेंद्रिय हैं। अर्थात् काले बादलों के हटते ही सूर्य अकेले प्रकाश देता हैं।वैसे ही आत्म सूर्य को छिपानेवाले मन की पर्दा हटने के साथ, आत्मा बने स्वयं रूपी ब्रह्म अपने एकांत में परमानंद स्वभाव के साथ प्रकाश देगी। भेदबुदधि और राग द्वेष ही मन पर पर्दा डालते हैं। इसलिए मैं नामक अखंडबोध मात्र ही नित्य-सत्य रूप में है। इस ज्ञान की दृढता से भेद-बुद्धि और राग-द्वेष को मिटाकर मन की पर्दा हटाकर मैं नामक अखंडबोध के परमानंद को स्वयं भोगकर आनंदित होकर वैसा ही रहना चाहिए।
4167. मन का स्वभाव विकार और विचार होने से,जब तक मन रहता है, तब तक आनंद अनुभव नहीं होगा। कारण आनंद में विकार और विचार नहीं रहेगा। वह आनंद विकार और विचार रहित रहना आत्म स्वभाव है। अर्थात् माया रहित मन मिटे बिना नित्य सत्य आत्मानंद सहज नहीं है। उसके लिए ब्रह्म भावना बढाना चाहिए। दृश्य जगत सब मैं नामक अखंडबोध ब्रह्म ही की भावना को दृढ बना लेना चाहिए। केवल वही नहीं,मैं नामक अखंडबोध के बिना, दूसरा एक दृश्य न होगा।इस ज्ञान को बुद्धि दृढ बना लेना चाहिए। वैसे ही युक्ति,बुद्धि और भावना लेकर कालांतर में स्वस्वरूप अपने अपने एकांत में चमकेगा। सत्य ग्रहण के लिए संकीर्ण मार्ग काम न आएगा। 100%पवित्र हृदय में मात्र सत्य चमकेगा। आत्मा को लक्ष्य बनाकर रहें तो 100%पवित्रता स्वयं ही होगी। कारण आत्मविचार आत्माग्नि को बनाएगी। इस आत्माग्नि में भेदबुद्धि और रागद्वेष स्वयं ही मिट जाएगा। इसलिए स्वयं ही आत्मा है को मानकर दृढ बनाकर आत्मा का स्वभाव आनंद और अनिर्वचनीय शांति को भोगकर वैसा ही स्थिर खडा रहना चाहिए।
4168. मन अंतरात्मा के निकट आने के लिए ब्रह्म से भिन्न लिये जितने भी जन्म हो,उतने में जिस जन्म में माया के निस्सारता,नित्यमाया आत्मा का सार का एहसास करता है, उस जन्म में उस जीव का मन आत्मा के निकट जाना चाहेगा। वैसे जीवन को वही चाहेगा, जो सांसारिक जीवन से घृणा कर सकते हैं। जग के अधिकांश लोग आत्मज्ञान रहित अल्प सुख के लिए अनेक दुखों को मोल लेते हैं। जीवन में अनेक दुखोंं को भोगकर भी जीवन से न नफरत होकर आत्मविचार न करके जीनेवाले मनुष्य को मनुष्य नहीं कह सकते। वे अज्ञानी होकर स्नेह बंधन में अंधकार में जी रहे हैं। वैसे लोगों को ज्ञान के प्रकाश होने केे लिए अनेक जन्म लेना पडेगा। ये सब सत्य न जाननेवालों और सत्य न जानने की चाह न होनेवालों को ही है। लेकिन यथार्थ सत्य यही है कि इस ब्रह्मांड में आत्मा एक ही है। आत्मा ही ब्रह्मांड रूप में है। उस आत्मा को न जन्म है, न मृत्यु। आत्मा अजर अमर है। वह स्वयंभू स्वयं अस्तित्व में है। वही मैं है को अनुभव करनेवाला सत्य है। लगता है कि आत्मशक्ति माया लेकर परमात्मा शरीर को स्वीकृत करते हैं। शरीर जड है। जड को स्व सत्ता और अस्तित्व नहीं है। जड कर्म चलन है। अर्थात कर्म मिथ्या है।
कर्मचलन निश्चल सर्वव्यापी परमात्मा में हो नहीं सकता। कर्म का एक अंश भी निश्चल परमात्मा में हो नहीं सकता। कारण सर्वव्यापी में चलन नहीं हो सकता। अर्थात् कर्म मिथ्या है। जो कर्म। नहीं है,उसे सत्य-सा दिखाना ही माया की क्षमता है। इस ब्रह्मांड चलन सब माया की क्षमता से होते हैं। जिसमें यह ज्ञान दृढ होता है कि वह स्वयं परमात्मा परब्रह्म है तो कर्मचलन न होगा। कारण वह सब में आत्मा रूपी अपने को ही देखेगा। वह मैं मात्र है की ज्ञान दृढता प्राप्त व्यक्ति है।उसका सहज स्वभाव ही नित्य आनंद और शांति होती है।
4169.मन को अपनी अहमात्मा में लगाव और आसक्ति होने पर बाहरी विषयों की आसक्ति मिटजाएगी। सभी विषयों का लगाव मिट जाने पर अनासक्त होने पर आत्मज्ञान का उदय होगा। तैल धारा के जैसे आत्मस्मरण होने के साथ आत्मा का स्वभाव परमानंद और परमशांति निरुपाधिक रूप में अपने सहज स्वभाविक रूप में अनुभव करके वैसा ही स्थिर खडा रह सकता है।
4170.अनादी,अनंत,अवाच्य,अवर्णनीय अक्षय,स्वयंभू रूपी एक ब्रह्म मैं नामक अखंडबोध आकाश में स्वशक्ति और स्वस्थिति में अपवर्तित होकर दिखानेवाले एक इंद्रजाल नाटक ही इन शरीर और संसार के नाम रूप दृश्य होते हैं। वे सब रेगिस्तान की मृगमरीचिका के समान अखंडबोध में लगनेवाले एक भ्रम ही है। जो कोई शरीर और संसार को मृग मरीचिका केे समान एक मिथ्या भ्रम दृश्य के रूप में देखकर इसस भ्रम लोक में जी सकताा है, वही भेदबुद्धि- रागद्वेष रहित शांति और आनंद को सहज रूप में अनुभव कर सकताा है।
4171.हज़ारों छात्र पढनेवालेे एक विश्वविद्यालय में जैसे एक प्रेमी और प्रेमिका को सभी छात्र और छात्राओं के मन तज देते हैं, वैसे ही आत्मा से प्रेम करनेाला आत्मज्ञानी इस ब्रह्मांड के सभी नाम रूपों को देखने पर भी उन सब में आत्मा रूपी अपने को ही देखेगा। जिनमें वैसा आत्मदर्शन होते हैं, वे ही जीवात्मा को परमात्मा जैसे साक्षात्कार कर सकते हैं। इसलिए आत्मा से प्रेम करने के लिए आत्मा की महिमा को मन से कहकर उद्बोधित् करते रहना चाहिए।
4172. जो कोई दुख के समय एहसास करता है कि अपने सब कर्म को निकट रहकर देखनेवाला अहमात्मा रूपी भगवान है ,तब उसका मार्ग धर्म मार्ग होता है।
इसलिए उसके चलने के सभी मार्गों पर आत्मप्रकाश होता रहेगा। इसलिए उसके कर्मों में किसी भी प्रकार की बाधा न होगी। इसलिए उसके पास दुख नहीं आ सकता। उसी समय मैं,मैं ही करता,मैं ही भोक्ता सोचकर आत्मबोध रहित अहं बोध में मात्र जो सभी कर्म करता है, उसका मार्ग अधर्म मार्ग होगा। उसके जानेे के सभी मार्ग अंधेरे सेे घेरे अडचनों से भरे रहेंगे। उसके पास सुख नहीं आएगा। उनको सदा दुख ही होगा। इसलिए मनुष्य को अपने विवेक से सत्य और मिथ्या को जान लेना चाहिए। शरीर मिथ्या है और आत्मा सत्य है। मन आत्मा को आश्रित रहने पर सुख रहेगा। शारीरिक अभिमान से जीने पर दुख होगा।
4173. एक चोरर धनन की चोरी के लिए अति मनोहर बंगला में प्रवेशस करतेे समय उसकी दृष्टि उसकेे सुंदर शिल्पोंं पर, जीवों पर, रूपोंं पर नहीं रहेगी।क्योंकि उसकी श्रद्धा और ध्यान धन पर ही रहेगा। धन को लक्ष्य बनाने से सुंदरता का पूर्ण रस ले नहीं सकता। वैसे ही इस वर्ण प्रपंच रूपी सांसारिक बंगला में धन को मात्र प्रेम करनेवाले जीवों को परमात्म सौंदर्य को पूर्ण रूप से अनुभव नहीं कर सकते। अर्थात् धन और जड स्वयं रहित है। उसको स्वअस्तित्व अनुभव नहीं है। वह माया है। वह दुख स्वरूप है। उसी समय आत्मा स्वयं प्रकाशित है। स्वयं अस्तित्व है। सुख स्वरूप है। विवेकी कभी उनके अपने मन को जड विषयों का गुलाम नहीं बनाता। परमानंद स्वभाव के साथ मैं नामक अखंडबोध को छिपानेवाले किसी भी रूप को आत्मज्ञानी का मन स्वीकार नहीं करता।
4174. मनुष्य की सेवा महादेव की सेवा तभी साध्य होगा,जब प्रार्थना करनेवाले स्वयं परमात्मा ही है को समझकर एहसास करके सेवा करता है। लेकिन अहंकार के मिटे बिना वह हो नहीं सकता। क्योंकि अहंकार भेदबुद्धि और रागद्वेष को बनाएगा। वह आत्मबोध को छिपा देगा। इसलिए भेदबुद्धि और रागद्वेष मिटानेवाले आत्मज्ञान को पहले सीखना चाहिए। तभी समझ सकते हैं कि नित्य क्या है? अनित्य क्या है? आत्मा नित्य है ,जड शरीर मिथ्या है। जब जड शरीर इसका एहसास करता है,तब अनित्य पर मन न लगाकर सभी जीवों में आत्मा को मात्र देखकर जीवों की सेवा कर सकते हैं। तभी कालांतर में अद्वैत आत्मबोध बुद्धि में अटल रहेगा। साथ ही कर्म मिट जाएगा। कर्म से बाहर आने के लिए सेवा कर्म अपनाना चाहिए। लेकिन बिना कर्म किये कोई रह नहीं सकता। कर्म की बूंद रहित वस्तु परमात्मा ही है। उस परमात्मा का बोध जब दृढ होता है,तभी सभी कर्मों से बाहर आ सकता है। वह अद्वैत बोध की अनुभूति है।
4175.पंचेंद्रियों द्वारा, मन से, बुद्धि से जिनको जान-पहचान नहीं कर सकते,
वे ही निराकार परमात्मा रूपी भगवान है। लेकिन शरीर के अभिमान से जीनेवाले मनुष्य भक्तों को उनके रूप में मात्र ही ईश्वर का संकल्प कर सकते हैं। इसीलिए ही संकल्प देवी-देवता बनते हैं। एक मनुष्य उसमें मैं मैं नामक अहंकार अर्थात् शारीरिक अभिमान असहाय स्थिति को आते समय ही उसका मन अहं की ओर मुडकर उसकी अहमात्मा की ओर न जाकर बाहर की ओर उसके रूप में ईश्वर का संकल्प करके संकल्प ईश्वर को बनाकर उनपर भरोसा रखकर प्रार्थना शुरु करते है। भक्त के मन में अपने संकल्प ईश्वर ही सर्वस्व है,कहने पर भी उसमें जो भेद बुद्धि और रागद्वेष है वह नहीं मिटेगा। जब तक भेदबुद्धि और रागद्वेष है. तब तक उसके दुख दूर नहीं होगा। प्रार्थना करने पर भी दुख न मिटने पर ही वह खोज करने लगता है कि भगवान कौन है? सत्य क्या है? मैं कौन है? सत्य की खोज करने के साथ मन जड रूपों को छोडकर आत्मा के निकट जाने लगेगा। आत्मा के निकट जाने पर आत्मज्ञान का उदय होगा। तब भक्त महसूस करने लगेगा कि ज्ञान का स्वभाव ही आनंद है। जो कोई आत्मज्ञान को पूर्ण रूप से सीखने की कोशिश करता है, वह आनंद की उच्चतम स्थिति को पहुँचेगा। तभी आनंद अपनी अहमात्मा और आत्मा का स्वभाव है, आत्मा रूपी मैं ही परमात्मा है। स्वयं साक्षात्कार करके अपने स्वभाविक परमानंद को अनिर्वचनीय शांति को निरुपाधिक रूप में स्वयं भोगकर वैसा ही स्थिर खडा रहेगा।
4176. सनातन धर्म में अर्थात् शाश्वत सत्य में कोई भी मक्खी और चींटी को भी द्रोह न करेंगे। कारण वे सत्य दर्शी है। इसलिए वे प्रपंच और उसके प्राण को स्वआत्मा से अन्य के रूप में दर्शन न करेंगे। वे अद्वैत ज्ञान आत्मज्ञान में आनंद अनुभव करेंगे।
4177. यह शरीर और संसार के परम कारण मैं है को अनुभव करनेवाला मैं नामक अखंडबोध बने निश्चलन चिताकाश अपने निश्चलन सर्व व्यापकत्व न बदले अपनी शक्ति चित्त चलन रूप में प्राण रूप में प्राण शक्ति रूप में बदलकर वह प्राण शक्ति रूप में बदलकर वह प्राण शक्ति रूप लेकर उसमैं नामक अहंकार के रूप में पहले दीखता था। उस अहंकार रूपी अपने से ही इच्छा शक्ति, ज्ञानशक्ति, क्रिया शक्ति होती है। इन तीनों शक्तियों के गुना यह शरीर,यह प्रपंच, जीवात्मा के रूप में बदलते हैं। जिस जीव को यह शरीर और जीवन देखनेवाले संसार में संसार के परमकारण को खोजता है, वही इस प्रपंच रहस्य का एहसास कर सकता है। जो विचार नहीं कर सकता, वह सत्य नहीं समझ सकता। सत्य यही है कि मैं नामक अखंडबोध आकाश में कोई चलन नहीं हो सकता। लेकिन अपनी योगा माया वैभव से अपनी शक्ति माया बनाकर दिखानेवाले इंद्रजाल ही यह शरीर और प्रपंच दृश्य होते हैं। इंद्रजाल को कोई सत्य नहीं है। जादूगर मात्र सत्य है। जादूगर मैं नामक अखंडबोध मात्र सत्य है। उसका स्वभाव मात्र ही परमानंद है। इस अखंडबोध में अस्तित्व-सा दीखनेवाले शरीर और संसार इंद्रजाल करनेवाले की योग माया दिखानेवाला माया जाल ही है। उसकी स्पष्टता जब इस संसार की स़ृष्टि हुई तब से शरीर और संसार पर विश्वास करके जीनेवाले सभी जीवात्माओं को शाश्वत आनंद और शांति आज तक न मिला करती है। उसके कारण शास्त्र सत्य न जानना ही है। शास्त्र सत्य यही है कि मैं नामक अखंडबोध मात्र ही सत्य है। बाकी जिनको अस्तित्व समझते हैं,वे सब असत्य ही है।
4178. यह संसार और शरीर सत्य,मिथ्या का संदेह अनादी काल से प्रथम जीवों से होनेवाला संदेह ही है। मनुष्य के जन्म लेते ही उसमें भेद बुद्धि, राग-द्वेष, मैं-तुम, मेरा-तुम्हारा,आदि स्मरण की लहरें उठती रहती हैं। ये सब जीव के मन को उसके शाश्वत अहमात्मा के पास जाने नहीं देते। मन अहमात्मा के निकट जाने से ही आत्मज्ञान होगा। यह प्रतयक्ष बात है कि आत्मज्ञान के बिना संसार में जिये और जीनेवालों का जीवन नरक जीवन ही है। मनुष्य को काम,क्रोध, लोभ, आदि तीन बाधाएँ आत्मज्ञान के पास जाने नहीं देती। इसलिए सांसारिक दुख से जो मुक्त होना चाहते हैं, वे काम,क्रोध और लोभ को त्याग कर देना चाहिए। तभी एक जीव में आत्मसाक्षात्कार करने का प्रयत्न एक जीव में होगा। वैसे लोगों को ही स्व आत्मा को पूर्ण रूप में साक्षात्कार करके उसके स्वभाविक परमानंद और परमशांति का अनुभव कर सकते हैं।वे सब इन शास्त्र विधियों का सम्मान न देकर अपने अहंकार से जीनेवालों उसके अंतःकरण पवित्र न होने से उसको सुख या शांति नहीं मिलेगा। दुख मात्र मिलेगा।
4179.अधर्म का मुख विरूप है। अधर्म धर्म का मुखौटा पहनने पर भी प्रकृति उस मुखौटे को विकृत बना देगा। यही प्रकृति की नियति है। कारण धर्म ही सत्य का मार्ग है।अर्थात् धर्म हो या अधर्म दोनों ही धर्म के नियंत्रण में है। इसलिए कर्म से अज्ञान ही मिलेगा। कर्म विमोचन ही ज्ञानस्वरूप है। ज्ञानस्वरूप ही आनंद है। इसलिए धर्म-अधर्म को छोडकर सत्य को मात्र लक्ष्य बनाकर जीनेवाले को ही दुख न देनेवाले और बंधन देनेवाले सर्व स्वतंत्र,सर्व सुख स्वरूप सत्य स्वरूप स्थिति को पा सकते हैं। सत्य स्वरूप ही परमात्म स्थिति है। वही मैं नामक अखंड बोध है।
4180.नरक के आये दावत ही स्वर्ग जीवन है। अर्थात् नरक स्वर्ग के मुखौटे पहनकर आना ही मनुष्य जीवन है।
4181. सर्वस्वतंत्र परमात्मा रूपी ही अपनी शक्ति माया स्वरूप को भूलकर बने दीखनेवाले प्रतिबिंब बननेवाले शरीर,मन और भावनाओं का दास बनकर अस्वतंत्र बनकर स्वतंत्रता के लिए एक सहायिका के साथ अपने आपको बंधन में फँसाना ही पारिवारिक जीवन है।
4182. अहंकार मनुष्य को मूर्ख बनाता है। अर्थात् ज्ञान को छिपा देता है। अहंकार सभी क्षमता रूपी सर शक्तिवाले परमात्मा रूपी अपने को अपनी शक्तिमाया अंधकार रूप में अपने को छिपाकर उसमें प्रतिबिंबित बोध ही जीव के रूप में परिवर्तन होता है। वह जीवन अपने सर्वव्यापी आत्म स्वरूप को भूलकर प्रतिबिंब शरीर में अभिमान होना ही मैं नामक अहंकार है। यह अहंकार ही विषय भोगों के पीछे जाकर भेदबुद्धि और रागद्वेष से अपनी चाह के आनंद और शींति न पाकर सुख की तलाश में फ़ँसकर तडपकर रहनेवाले जीव को सुख और शांति कभी न मिलेगा। क्योंकि शारीररक अभिमान पर चोट न पाकर बेसहारा स्थिति प्राप्त न करने पर जीव को विवेक न होगा। आज या कल अहंकार टूटकर आत्मा की खोज में आना ही चाहिए। वही जीव का स्वभाव है।
4183.जो राजा स्वप्न में भी करुणा कहाँ है को नहीं जानता, उसको राजा बनाये प्रजाएँ ही भूखी मौत के पाप की जिम्मेदारी हैं। राज्य शासक को सह जीवियों पर करुणा होनी है तो एकात्म तत्व अर्थात् अद्वैत तत्व अर्थात् आत्मज्ञान सीखना चाहिए। क्योंकि अपने प्राण के जैसे अपनी प्रजाओं की देखरेख करने का ज्ञान आत्मज्ञान से ही मिलेगा। वैसे आत्मज्ञानी को राजा बनाने के लिए प्रजाओं को भी आत्मज्ञान होना चाहिए। भेदबुद्धि- रागद्वेष, मिटानेवाले आत्म ज्ञान रूपी ज्ञानबीजारोपण झोंपडी से बंगला तक सभी स्थानों में आत्मज्ञान बोध करानेवाले शास्त्रों को,पुराणों को वेदों को सर्वत्र ज्ञान बीजारोपण करना चाहिए। तभी सब लोग भेदबुद्धि-राग-द्वेष रहित आपस में प्रेम, स्नेह और आनंद से जी सकते हैं। लेकिन साधारणतः विश्वज्ञान को मुख्यत्व देकर ही राज्य शासन करते हैं।उसके कारण शासकों में यह गलत फहमी है कि आत्मज्ञान कर्म प्रगति में बाधा है।अतः वे आत्मज्ञान को प्राथमिकता नहीं देते।लेकिन आत्मज्ञानी कर्म करने के जैसे लौकिक ज्ञानी कर नहीं सकता। क्योंकि आत्मबोध के साथ कर्म करनेवालों को कर्म बंधन शारीरिक शिथिलता न रहेगी। आत्मा नश्वर है। शरीर नश्वर है। जो नश्वर से आश्रित है,वे नश्वर स्थिति को ही जाएँगे।
4184. संघ के लिए मनुष्य को गठबंधन करना चाहिए। वह करुणासागर अमात्यों का संगठन करने के लिए होना चाहिए। वैसा संघ ही अनुकूल शाश्वत रहेगा। जिस में करुणा है, उनके वचन और कर्म ही एक जैसे रहेंगे। वे ही अपने वचन और कर्म को कार्यान्वित कर सकते हैं। वैसे कार्यरत रहने से देश का कल्याण होगा। देश कुशहाल रहेगा तो प्रजाएँ राजा का आदर करेंगी। उसीको ईश्वर की आशीषें मिलेंगी, जो वचन और कर्म को एक समान निभा सकता है। ईश्वर ही वचन के रूप में प्रकट होते हैं। वचन की इज़्ज़त करनेवाला ही ईश्वर की इज़ज़त करता है। प्रथम निकले वचन ही “ओं” शब्द है। सभी वेद उसमें ही निहित है। सत्य के मार्ग पर चलनेवाला ही वचन और कर्म को एक साथ ले जा सकता है। असतसवादी से हो नहीं सकता।
4185. आनंद और शांति के निवास स्थान मैं नामक अखंडबोध को छिपाने की अनुमति न देनी चाहिए। नाम रूपी रिश्ते, संसार, इष्टवस्तुएँ,इष्ट गुण, इष्ट कलाएँ, आदि आत्मबोध रहित अन्य हैं, दीखनेवाले सब बुद्धि में भी आत्मा को छिपा देता है। वही माया है। माया दुख पूर्ण है। बोध आनंद पूर्ण है। इस विवेक में अस्थिर लोग ही आत्म बोध भूलकर सांसारिक रूपों में मोहित होकर जीवन को बेकार करते हैं। दुख विमोचन के चाहकों को सत्य और असत्य के बारे में जान- समझना चाहिए।
4186. एक जादूगर जादू दिखाते समय इंद्रजाल में देखनेवाले सभी वस्तुओं की उत्पत्ति स्थान जादूगर ही है। वैसे ही इस प्रपंच का अर्थात् इस ब्रह्मांड में देखनेवाला अनंत करोड नक्षत्र, सूर्य,चंद्र, नवग्रह, आकाशगंगा,आदि का उत्पत्ति स्थान ओंकार ही है। ऐसे ओंकार स्वरूप,अर्थात् प्रणवस्वरूप परमात्मा को जो कोई अनुभूति करता है, वह आत्मा से ऐक्य हो जाएगा। साथ ही परमात्म स्थिति पाएगा। तभी एहसास कर सकते हैं कि शरीर और संसार मिथ्या है,वे अपनी शक्ति माया बनाकर दिखानेवाला इंद्रजाल है, परमात्मा रूपी मैं मात्र ही नित्य-सत्य है। साथ ही अपने स्वभाविक परमानंद को सहज रूप में अनुभव कर सकते हैं।
4187.एक साधारण मनुष्य का मन साधारणतः सांसारिक व्यवहार में आत्मबोध रहित शारीरिक बोध मेंही व्यवहार करते हैं। इसीलिए सांसारिक व्यवहारिक लोग सोचने के जैसे जीवन चला नहीं सकते। कारण अहंकार अंधकारपूर्ण है। इसलिए जीव जाने का मार्ग न जानकर भटकते रहते हैं।उसी समय शरीर और जान को विवेक से जानकर वह आत्मा का उपकरण जानकर सांसारिक व्यवहार करते समय सभी कार्य विघ्न रहित चलता रहेगा। काऱण बोध प्रकाश स्वरूप होता है। इसलिए जो सांसारिक जीवन को आनंदमय बनाना चाहते हैं, आत्मबोध से न हटकर सभी कार्य करना चाहिए।
4188. जो भी कार्य ,बंधन,व्यवहार, आत्म विचार के बाधक है, वह देहाभिमानी बना देगा। वह देहाभिमानी अहंकार बुद्धि को आत्मा के निकट जाने न देगा। इसलिए वह मूर्ख बनकर दुख भोगे बिना रहने के लिए शरीर और आत्मा के स्वभाव को समझ लेना चाहिए। शरीर जड है, आत्मा चेतन है। जड का स्वभाव दुख है, आत्मा का स्वभाव आनंद है। जड को सोचकर जीनेवाले को दुख होगा, आत्मा को सोचकर जीनेवालों को आनंद होगा।
4189. एक मनुष्य पूर्ण स्नेह, पूर्ण स्वतंत्र,संपूक्ण शांति, परमानंद और सत्य जीवन चाहता है। इसकी कमी जिस जीवन में होती है, वह अहंकार को लक्ष्य बनाकर जीनेवाला है। इसलिए उनका जीवन दुरित पूर्ण होगा। ये सब जिस जीवन में चमकते हैं, वे आत्मा के लिए जीनेवाले हैं। इसलिए वे सदा आनंद से जिएँगे।
4190. संसार में अनेक महान और महती जीते थे। उनके जीवन काल में अनेक जीव जाल हुए हैं, साधारण मनुष्य भी हुए थे। लेकिन वे सब आग में फँसे पतंग जैसे विषय भोगों में मोहित होकर फँसकर दुखी होकर जीवन को व्यर्थ करके मर गये। कारण माया मोह का भ्रम है। अनेक कालों से छिप रहे चींटी से राजा तक सबके रूप परिवर्तन होते समय वे सब अखंडबोध महासमुद्र में आत्मा अभिन्न रहे थे।अर्थात् सदा एक ब्रह्म मात्र ही है। अर्थात् ब्रह्म से उत्पन्न सभी सब के सब ब्रह्म के बिना दूसरा एक बन नहीं सकता। कारण ब्रह्म सर्वत्र सर्वव्यापी हैं। ब्रह्म मात्र है। जो जीव उस ब्रह्म को स्वयं ही है का एहसास करता है, वही स्व आत्मा को साक्षात्कार करनेवाला है।
4191. आत्म बोध के कुएँ से ज्ञान नीर पिये बिना किसी भी प्रकार का प्यास न बुझेगा।
4192. ज्ञान, विवेक,संतोष,प्रकाश,सुख आदि से स्वर्ग बना है। उसी समय नरक अज्ञान, अविवेेक,असंतोष,अंधकार,दुख से बना है। जो कोई नित्य-अनित्य को विविक से पहचान लेता है, वह सत्कर्मों में सद्भावना में,सत्कार्यों में लगकर संतोष से मिलकर आनंद और शांति भोगेगा। वही स्वर्ग है। उसी समय जो कोई जीवन को विवेक से न जानकर अज्ञान अंधकार में अधर्म करके असंतोष के साथ दुख का अनुभव करता है। उस दुख को ही नरक कहते हैं।अर्थात् स्वर्ग-नरक सब मानसिक कलपनाएँ मात्र हैं।मनोनाश होते समय ही स्वर्ग नरक के पार परमात्म स्थिति को पा सकते हैं। साथ ही परमात्म का स्वभाव परमानंद सहज होगा। जिस जीव में वासनारहित मनोनाश होता है, वह जीवात्मा ही स्वआत्मा को पूर्ण रूप में साक्षात्कार करता है। वही मरण रहित महा जीवन जीने लायक है।
4193.जो भगवान के बारे में आरोप लगाते हैं,उनको अपने बारे में सोचने पर अपनी सीमाएँ,कमियाँ मालूम होती हैं। अपना शरीर खुद बनाया नहीं है। उस शरीर से आनेवाले स्मरण और विचार स्वयं बनाये नहीं है। अपने शरीर में चलनेवाली अंतर्क्रियाएँ, रक्त संचार खुद बनाया नहीं है। जो कुछ हम देखते हैं, स्वयं बनाया नहीं है। शरीर और प्राण हमने बनाये नहीं हैं। वह स्वयं अपनी असहाय स्थिति को एहसास कर सकता है। तभी अहं नाश होगा। अहं नाश होते समय ही मैं शरीर नहीं हूँ, संसार नहीं है, शरीर और संसार का परम कारण का बोध हूँ मैं शाश्वत है का ज्ञान बुद्धि में दृढ होने के साथ किसी प्रकार के संकल्प का उदय न होगा। खंडबोध अखंड स्थिति को पाएगा। तभी बोध का स्वभाव परमानंद को सहज रूप में अनुभव कर सकते हैं। अर्थात् सृष्टि और स्रष्टा एक ब्रह्म ही है। वह ब्रह्म ही मैं नामक अखंडबोध है।
4194.तब तक ही पूजा ,आराधना और प्रार्थना है, जब तक सृष्टि और स्रष्टा दोनों एक ही है का ज्ञान होता है। यह जानने के लिए आत्मज्ञान सीखना चाहिए। अर्थात् कारण ही कारण बनता है। सबका परम कारण मैं ही है। अपने से जो अन्य लगता है, सब कार्य ही है। वह कार्य रूपी शरीर और संसार बोधाभिन्न है। कारण बोध नहीं है तो यह संसार और शरीर नहीं है। शरीर और संसार को स्व-अस्तित्व नहीं है। मैं नामक बोध ही शरीर और संसार के रूप में है। बोध अखंड है, सर्वव्यापी है और सर्वत्र विद्यमान है। बोध मात्र ही है। नाम रूप स्वयं अस्तित्वहीन माया होते हैं। नाम रूपों में बोध ही भरा है। बोध रहित नाम रूप कहीं उदय नहीं हो सकता। उस बोध का स्वभाव ही परमानंद और परमशांति है।
4195. मैं है के अनुभव के मैं नामक आत्मा रूपी अखंडबोध रूपी अपने से अन्य जो भी लगता है,वह संदेहास्पद है। संदेह ईश्वर रूपी परमात्मा रूपी अखंडबोध भगवान को न होगा। इसलिए वह संदेह रहित होने के लिए स्वयं कौन है की खोज करते समय प्रश्न और प्रश्न कारक दोनों नदारद हो जाएँगे। जो कोई स्वयं अखंड बोध सत्य की ज्ञान दृढता पाता है, उसको संदेह कभी न होगा। वही जीव मुक्त है। जीव मुक्त को कभी इस शरीर के बारे में,संसार के बारे में कोई संदेह न होगा। तभी मानव जीवन मुक्त होता है,जब यह ज्ञान प्राप्त करता है कि शरीर और संसार नश्वर है, मैं नामक अखंडबोध मातर नित्य सत्य है।
4196. खुद देखनेवाले लोक, अपने में उदय होनेवाले चिंतन, चिंतन को बनानेवाले रूप, इन सबके आधार रूप में स्थित परमकारण में है अपनेमें अपरिहार्य मैं नामक बोध। इस परमकारण मैं नामक अखंडबोध से मिले बिना इनको कोई अलग सत्ता नहीं है। अर्थात् इनको मैं है का अनुभव नहीं है। ये सब जड हैं। बोध से आश्रित मात्र स्थिर खडे अहंकारी जीव संकल्प से बनाये संसार में सुख-दुख जीव पर प्रभाव डालेगा न बोध पर। उदाहरण स्वरूप कोई स्वप्न देखते समय स्वप्न अनुभव स्वप्न जीव जीव और स्वप्न एहसास करनेवाले पर असर नहीं डालता। वैसे ही माया द्वरा स्वस्वरूप विस्मृति लेकर मैं अखंडबोध की विस्मृति लेकर माया चित्त में प्रतिबिंबित प्रतिबिंब जीव संकल्प जीव के सुख-दुख स्वस्वरूप स्मरण के साथ मिट जाएगा।
4197. जब हम कहते हैं कि ईश्वर ने ही अपने की और संसार की सृष्टि की है। तब ईश्वर के पहले ही स्वयं स्थिर खडा रहना ही चाहिए। अर्थात् ईश्वर नामक शब्द अपने से ही उदय होता है। इसलिए ईश्वर की खोज करने के पहले अपने आपकी खोज करनी चाहिए। तभी यह शरीर और संसार स्वयं नहीं है,शरीर और संसार अपने ज्ञान के नियंत्रण में है। अर्थात् यह शरीर और संसार ज्ञात बुद्धि जाननेवाले मैं नामक ज्ञान से अन्य नहीं है। जाननेवाले ज्ञान जाननेवाला ज्ञान मैं नहीं तो जाननेवाले शरीर और संसार मैं नहीं है, तो ज्ञान को स्वयं स्थिर खडा रह नहीं सकता। इस स्थिति में जाननेवाला,जानने की वस्तु उसके बारे में ज्ञान ऐसे जहाँ देखो,वहाँ त्रिपुटी होते रहते हैं। ये सब परस्पर अन्योन्याश्रित है। जाननेवाला शरीर नहीं है, शरीर जाननेवाले का उपकरण है। जाननेवाला बोध होता है। बोध बनाया नहीं जाता। वह स्वयंभू होता है। बोध स्वयं रहता है। यह बोध अखंड है। बोध सर्वव्यापी है। निश्चलन है। अपरिवर्तनशील है। आनंद स्वरूप है। अनश्वर है। स्वयं प्रकाश है। लेकिन अपने से अन्यदेखनेवाले सब कोई भी स्वयं नहीं है। वे सब बनायी है। जो बना है,वह नहीं भी होगा। जो बनता है, उसको रूप भी होगा। जिसका रूप है, वह जड है। जड अंधकारमय है। वह अज्ञानस्वरूप है। वह दुख ही देगा। वह आनंद बना नहीं सकता। वह सदा बदलता रहेगा। इसलिए बोध और जड का अंतर परस्स्पर विपरीत है। प्रकाश से अंधकार न होगा। अपरिवर्तनशील से परिवर्तन न होगा। निश्चलन से चलन न होगा। आनंद से दुख न होगा। चैतन्य से जड न होगा। रूप रहित से रूप न होगा। इसीलिए मैं नामक अखंडबोध से अन्य यह शरीर और संसार मिथ्या है। माया है। नश्वर है।
4198. एक मनुष्य की आँखें खुलते ही सृष्टि शुरु होता है। आँखें बंद होने तक रक्षा होता है। आँखें बंद होते ही नाश होता है। यह सृष्टि,स्थिति और संहार त्रिमूर्तियों के कार्य ही मैं नामक अखंडबोध इस शरीर द्वारा क्रियान्वित करता है। अर्थात् प्रभात में सृष्टि, मध्य में परिपालन और रात में संहार चलते रहते हैं। इन तीन कार्यों के कारण है मैं नामक अखंडबोध ही है। लेकिन मैं नामक बोध सर्वव्यापी और निश्चलन होने से इस अखंडबोध में दूसरा एक दृश्य रूप में आनेाले शरीर और संसार निश्चित रूप में बन नहीं सकते। कारण शरीर और संसार सब कर्म स्वभाव के हैं अर्थात् चलनात्मक है। निश्चलन में चलन होना परस्पर विरोध है। इसलिए शास्त्रपरम सत्य है कि असत्य जो भी हो, स्थिर नहीं हो सकता। जो सत्य है, वह नाश नहीं होगा। सत्य मैं नामक परमात्मा बने अखंडबोध है अर्थात् ब्रह्म है। शरीर और संसार असत्य है। वह तीनों कालों में रहित है। जो नहीं है, वह हो नहीं सकता। जो है,वह होने की ज़रूरत नहीं है। इसको आत्मज्ञानी मात्र एहसास कर सकते हैं। आत्मज्ञान में ही सभी अज्ञान मिट जाएगा।
4199.एक मनुष्य निद्रावस्था में स्वप्न में अनेक मोर के संचरण को देखता है और एक जंगली हाथी उसको भगाते हुए देखता है। स्वप्न में वह यथार्थ अनुभव है।
स्वप्न के टूटते ही एहसास होगा कि स्वप्न अनुभव हाथी,मोर भयभीत होकर भागना ये सब मिथ्या है। आत्मा रूपी बोध शक्ति माया चित्त बनाकर दिखाया मायाजाल है। वैसे ही जागृति में अज्ञान रूपी निद्रा में जीवन का मन संकल्प करके बनाये शरीर और संसार में ही जीवन व्यवहार करता रहता है। आत्मज्ञान से अज्ञान निद्रा से बाहर आते समय यह जागृत और जागृत संसार में जागृत अनुभव, जीवभाव स्वप्न टूटने के समान रहित हो जाएगा। मैं नामक अखंडबोध मात्र नित्य सत्य रूप में स्थिर खडा रहेगा। मनुष्य साधारणतः जागृत,स्वप्न, सुसुप्ति,तुरीय आदि चार अवस्थााओं को अनुभव करता है। सभी प्रकार के दुखों को मिटाने की क्षमता रखनेवाला,अपरिवर्तनशील,सर्वव्यापी,स्वयं प्रकाश स्वरूप,परमात्मा को ही तुरीय कहते हैं। वैसे तुरीय परमात्मा से दूसरा एक हो नहीं सकता। इसलिए बना सा लगे शरीर, संसार,लौकिक अनुभव,अज्ञानता,अज्ञान से होनवाले दुख आदि सब तुरीय स्थिति में ही मिटट जातेे हैं। जागृत अवस्था में जो दुख होता है,वह स्वप्न अवस्था में अनुभव नहीं होता। वैसे ही स्वप्नावस्था का दुख जागृत अवस्था में अनुभव नहीं करते। लेकिन वह दुख पुनः पुनः आते जाते रहेंगे। उसी समय जिसने तुरीय स्थिति पाया है,अर्थात् परमात्म स्थिति को साक्षात्कार किया है, मैं नामक अखंडबोध मात्र नित्य सत्य है की ज्ञान दृढता पायी है, उसको कोई भी दुख किसी भी काल में न होगा। सभी दुख इसमें नष्ट हो जाएगा। कारण वह अपरिवर्तनशील अवस्था ही है।
परिवर्तनशील अवस्थाएँ सब माया की करतूतें हैं। मनुष्य मनुष्य में अति प्रधान ध्यान यही होना चाहिए और एहसास करना चाहिए कि माया तीनों कालों में नहीं है, एहसास करने की कोशिश ,तपस्या,प्रार्थना पूजा आदि ।
4200. एक बीज से ही उस बीज के वृक्ष होता है। अर्थात् वह वृक्ष बीज में अति सूक्ष्म रूप में था। अर्थात् एक पुरुष के शुक्ल से ही एक मनुष्य का रूप बनता है।
मनुष्य शरीर के सभी अंग,उभांग और प्रत्यंग उस अति सूक्ष्म शुक्ल बिंदु से ही बनते हैं। अर्थात् उस मनुष्य शरीर के सभी अंग उस अति सूक्ष्म शुक्लाणु में ही थी। एक सूक्ष्म रूप से ही एक स्थूल रूप बनता है। लेकिन वैसे नहीं निराकार ब्रह्म से आकार प्रपंच बनता है। ब्रह्म निराकार है। इसलिए प्रपंच की एक रूप रेखा वृक्ष की रूप रेखा बीज में रहने के जैसे आत्मा में न रहेगा। कारण आत्मा निराकार,सर्वव्यापी, निश्चलन है। कह नहीं सकते कि उसमें रूप रेखा है। रूप रेखा की आत्मा को सर्वव्यापी नहीं रह सकता। लेकिन आत्मा सर्वव्यापी है। इसलिए उसमें किसी भी काल में कोई एक रूप हो नहीं सकता। वह सदा अपरिवर्तनशील होती है। वह निश्चलन, निर्विकार, निष्कलंक और नित्य है। अर्थात् आत्मा अपरिवर्तनशील है। अपरिवर्तन से परिवर्तन शील में एक प्रपंच नहीं हो सकता। प्रपंच शरीर सांसारिक रूप जड सब शुद्ध शून्य है। उस शून्य से ही यह प्रपंच रूप बना -सा लगता है। इसलिए यह प्रपंच दृश्य तीनों कालों में नहीं हो सकता। कारण शून्य से कुछ नहीं होगा। वही ईश्वरीय शक्ति माया दिखानेवाला इंद्रजाल है। रेगिस्तान में होनेवाली मृगमरीचिका के दृश्य के समान ही ब्रह्म में दीखनेवाला यह प्रपंच दृश्य है। उसको अनुभव करते समय स्वप्न अनुभव जैसे ही लगेगा।
4201.उसी में सत्वगुण भरा रहेगा, जो कोई एहसास करता है कि उसके देखनेवाला सब विश्वसौंदर्य अपने अहमात्मा का है। इसलिए वह इस माया प्रपंच के मोह में न पडेगा। सत्वगुण का मतलब है यथार्थ ज्ञान है। अर्थात् अद्वैत ज्ञान रूपी आत्म वस्तु को दिखानेवाले गुण है। लेकिन रजोगुण का मतलब है, अद्वैत् आत्मा को अनेक वस्तुओं में दिखाएगा। एक रूपी परमात्मा को चित्त में बढाकर अनेक वर्ण दृश्य बढाएगा। इसलिए जो एक को नहीं देख सकता, वह एक को अनेक रूप में देखकर भ्रम में पड जाता है। वैसे अनेक को देखकर मोह में पडनेवाला रजोगुणी माया की क्षमता न जानकर उस अनेक को ही सत्य सोचने लगेगा। इसलिए वह बाहर देखनेवाले विषय वस्तुओं को ही अपने सुख देनेवाले हैं के भ्रम में पडेगा। वह फल की प्रतीक्षा में कर्म करना शुरु करेगा। अर्थात् कर्म की इच्छा उसको होने के साथ भेदबुद्धि और रागद्वेष होने लगेगा। केवल वही नहीं दोस्त दुश्मन आदि भेद ,मैं अपना मेरा आदि भेद के कारण मद मत्सर होने लगेंगे। वैसे कर्म करने की इच्छाएँ बढती रहेंगी। कर्म मार्ग भी बढते रहेंगे। वैसे यह रजोगुण सत्य को जान नहीं सकता, आत्मज्ञान न पाकर जन्म-मरण स्वरूप संकल्प संसार
चक्र में घूमते रहेंगे। यही रजोगुण की स्वभाविक गति होगी। उसी समय तमोगुण
अनेक मोहों को बनाएगा। उसमें भौतिक विवेक न रहेगा। इसलिए वे और कुछ भी नहीं सोचकर छोटी छोटी बातों में मोहित होकर नशीली वस्तुओं और जुआ आदि का गुलम बनकर युक्ति विचार न करके बुद्धिभ्रष्ट हो जाता है। उसको यह विचार न रहेगा कि यह अच्छा है या बुरा है? भविष्य कैसा रहेगा? उसकी चिंतन शक्ति नष्ट होगी। वैसे लोग हीअधर्म मार्ग में धन कमाकर उसके बल पर कलह और संघर्ष करके अनेक विभाजन और शाखाएँ बनाकर अशुभ कार्य करके जीवन को बरबाद करते हैं।
ये सब तमोगुण की गति हैैं। ये सब दुख विमचन का मार्ग नहीं है। जो दुख विमोचन चाहते हैं, उनको ईश्वर से सत्वगुण के लिए और आत्मज्ञान के लिए प्रार्थना करनी चाहिए।तभी त्रिगुणों को जीतनेवाला आत्मज्ञान निलेगा। तभी स्वयं आत्मा का स्वभाविक आनंद भोग सकते हैं। वही अहं ब्रह्मास्मी है।
4202. सर्वव्यापी परमात्मा जन्म ले नहीं सकता। लेकिन परमात्मा अवतार लेता है। उदाहरण रूप में भूमि में एक स्थान पर छोटा-सा गड्ढा खोदकर उसमें से मिट्टी लेते समय एक कमी-सी लगेगी। लेकिन आत्मा का एक सीमित एक स्थान नहीं है। परमात्मा से एक रूप हुए तो वह रूप के कारण कोई कमी वहाँ नहीं रहेगी। कारण आत्मा सर्वव्यापी है। परमात्मा आशुतोष होते हैं।वे निर्दोष सर्वशक्तिमान है। कैसे जन्म हुआ? पता नहीं है। माया से ही इसका जवाब नहीं दे सकते। ईश्वर का जन्म न हुए, कमी के बिना नहीं,माया से जन्म हुए दृश्य सा लगते थे। परमात्मा अपनी शक्ति को उपयोग करके अपने जन्म को संसार को दिखाना एक वस्तु को परिणमित होने के जैसे नहीं है। वह रस्सी में साँप के भ्रम जैसे हैं,रेगिस्तान में मृगमरीचिका जैसे एक माया रूप ही है। भगवान का जन्म हुआ है, तो भगवान का जन्म -मरण नहीं है के वाक्य निरर्थक हो जाएगा। अर्थात् अजन,अमृत और अव्यय है। धर्म और अधर्म माया में ही है।उस अधर्म को नाश करके धर्म की रक्षा के लिए अवतार लिये माया कृष्ण भी उसी माया में ही है। तभी माया में फँसे अज्ञानियों को भगवद् महिमा को देख सकते हैं। भगवान अवतार लेकर आने पर भी मनुष्य उसपर विश्वास नहीं कर सकता। वैसे अविश्वसनीय मनुष्य को हृदय में रहनेवाले अरूपी आत्मा रूपी भगवान पर विश्वास नहीं रख सकता। इसीलिए किसी न किसी प्रकार मनुष्य को विश्वास दिलाने के लिए ही भगवान अवतार लेकर लीला दिखाने अवतार लेते हैं। ये सब शक्ति माया दिखानेवाले इंद्रजाल दिखानेवाले नाटक के सिवा और कुछ सच्चाई नहीं है। अद्वैत् ही सत्य रूप में है। वह मैं नामक परमात्मा रूपी अखंडबोध मात्र ही है। जो इसका एहसास नहीं करता,वही दुखी है। जिसकी अनुभूति होती है,उसको आनंद होगा।
4203. किसी आदमी को अपने को पसंद नहीं है तो उनको जानना और समझना चाहिए कि उसको अपनी नापसंद विषय है शरीर और मन ही है। उसको आज तक मालूम नहीं है कि वह शारीरिक अभिमान में ही था। अर्थात् शरीर को ही गलत से आत्मा सोचकर जीने का फल ही है। क्योंकि आत्मा का स्वभाव नित्यानंद ही है। आत्मा का स्वभाव नित्य आनंद ही है। शारीरिक स्वभाव नित्य दुख ही है। लेकिन जब यह ज्ञान होता है कि स्वयं शरीर नहीं है,आत्मा ही है तब शरीर और संसार से नफरत होता है। संसार के सब मनुष्यों को अज्ञात विषय यही है। जिस शरीर और संसार का अस्तित्व नहीं है, उनका अस्तित्व मानना, दुख स्वरूप शरीर में आनंद की खोज करना। बचपन से ही यह बुद्धि दृढ रहने पर आत्मा का स्वभाव परमानंद स्वरूप है,परमानंद स्वरूप ही अपना यथार्थ स्वरूप है, तो आत्मज्ञान से न हटेगा। आत्मज्ञान से,आत्म बोध से न हटकर सभी कार्यों को खूबी से करता रहेगा। इसलिए शासकों को चाहिए कि परमानंद स्वभाव के परमात्मा के ज्ञान ग्रंथों को विश्वविद्यालय के पाठ्य क्रम में जोड देना चाहिए। लेकिन ईश्वरीय शक्ति महामायादेवी बनाकर दिखानवाले शरीर और संसार के नाटक को कोई भी ठीक नहीं कर सकता। बडे जीव छोटे जीवों को निगलकर जीते हैं। वैसे ही रईस रंकों को गुलाम बनाकर जीते हैं। वैसे ही ज्ञानी अज्ञानियों को उपयोग करके जीते हैं। संसार में महान और ज्ञानी जन्म लेते हैं। वे संसार को सही करने नये नये सिद्धांत बोलते हैं, पर शरीर और संसार को ठीक बना न सके। कारण यह शरीर और संसार तीनों कालों में नहीं रहते। जो शास्त्र रीति से न सीखते,वह पचा नहीं सकता। जो पचा नहीं सकते ,दुख और दुख विमोचन न होगा। जो दुखविमोचन चाहते हैं, शास्त्रीय ढंग से शरीर और संसार के रूपों के सत्य और असत्य के भेदों को पहचानकर कार्य करना चाहिए। एक रूप सत्य मात्र स्थित रहता है। वह बोध रूप मैं नामक परमात्म मात्र है। उसका स्वभाव ही परमानंद और परमशांति है। जो शास्त्र सत्य को एहसास करता है, वही परमानंद और परमशांति को अनुभव कर सकता है।
4204. इस संसार में मनुष्य डाक्टर,इंजनीयर आदि उच्च परीक्षा पढते हैं। उनको समझना और एहसास करना चाहिए कि अपनी उम्र में आधी आयु पढने के लिए चली जाती है, पर मानसिक शांति और आनंद नहीं मिलती, बाकी आयु में पेशा, पारिवारिक जीवन में उपयोग करने पर यह शांति और आनंद न मिलनेवाला है। क्योंकि शारीरिक और संसारिक ज्ञान कोई भी आनंद और शांति न देगी। कारण वे सब नश्वर वस्तुओं के ज्ञान ही है। अनश्वर वस्तु की आत्मा के बारे में आत्मज्ञान एक के द्वारा ही नित्य आनंद और शांति अनुभव कर सकते हैं , और ज्ञान से नहीं हो सकता। बचपन से ही जो आत्मज्ञान सीखकर उसमें दृढ रहकर सांसारिक जीवन में लगता है, उसकी शांति और आनंद में कोई कमी न रहेगी। मनुष्य कैसे जीता है? वह मुख्य नहीं है। यही मुख्य है कि नित्य आनंद और नित्य शांति मिलती है कि नहीं। जो नित्य संतोष से जीता है,वही भाग्वान है। वह नित्य संतोष ही प्रपंच केंद्र है। वह आत्मज्ञान से ही हो सकता है।
4205. जिसको शारीरिक अहंकार है, कर्तृत्व और भोगतृत्व के विचार तब तक रहेगा,जब तक भेदबुद्धि स्थिर रहती है।जिस दिन वह समझता है कि वह शरीर नहीं है. संसार नहीं है,स्वयं मैं है को भोगनेवाला आत्मा बने अखंड बोध ही को जानकर एहसास करता है, उस दिन में जैसे शरीर और संसार को दृश्य रूप में देखता है, वैसे अपने शरीर को भी दृश्य रूप में देख सकते हैं। तभी सीमित जीवभाव तजकर असीमित परमात्म स्थिति पा सकते हैं। अर्थात् खंडरूपी प्रतिबिंब बोध खंड को छोडकर बंब रूपी अखंड बोध स्थिति पाएगा। अर्थात स्वयं को विस्मरण करके, स्वयं को एहसास करके अनुभवी बनकर जो स्थिर खडा है,वही मैं नामक अखंडबोध होता है। उस अखंडबोध में दीखनेवाले माया भ्रम ही यह शरीर और संसार है। यह शरीर और संसार मिथ्या ही है। मैं नामक अखंडबोध मात्र नित्य सत्य है। इस ज्ञान की दृढता प्राप्त करने के साथ स्वभाविक परमानंद सहज होगा।
4206. नाते-रिश्तों की आवश्यक्ताओं पूर्ण करने के बाद ईश्वर की सेवा के लिए समय देखनेवाला नहीं समझता कि उसकी समस्याओं को पूर्ण करनेवाला भगवान मात्र है। इसीलिए ही संसार के लोग सब परस्पर दुख देकर दुखी रहते हैं। वैसे लोग समुद्र और लहरों को पहली बार देखकर लहरें बंद होने के बाद नहाने के लिए किनारे पर खडे रहनेवालों के जैसे होते हैं। इसलिए उनको विवेकी की बातें सुननी है कि लहरें उठती रहेगी लहरों में ही स्नान करना है। वैसे ही शरीर और संसार को विवेक से जानकर जीना चाहिए। शरीर आनंद नहीं देगा। जीव रूपी आत्मा ही मैं ,वही आत्मा उस आत्मा का स्वभाव ही आनंद और शांति होती है। वे ही जिंदगी को आनंद और शांति से जी सकते हैं जो गुरुओं के बताये शास्त्रों को सीखकर अपनी युक्ति और अनुभव से शास्त्रों को कसौटी पर कसकर सत्य को जान-समझकर जीवन गुजारा करते हैं।
4207. सभी प्रपंच घटों में भीतर और बाहर अनश्वर एक वस्तु को दर्शन करनेवाला सद्गुण ज्ञान ही ब्रह्म ज्ञान है।सत्वगुण सत्य ज्ञान गुण होता है।इसलिए कहते हैं कि सत्वगुण को बढाना चाहिए। सत्वगुणी ही आत्मज्ञान को पूर्ण रूप से एहसास कर सकता है। आत्मज्ञान पाने के बाद कुछ ज्ञानी कर्म करेंगे। लेकिन उस ज्ञानी को कर्म फल की इच्छा तनिक भी न रहेगी। उनको सुख की खोज का प्रयत्न न रहेगा। कारण वे आत्मा के स्वभाव आनंद और शांति को भोगते हुए कर्म करते हैं। इसलिए उनके मन में लाभ-नष्ट, दोस्त-दुश्मन, राग-द्वेष आदि भेद भाव न होंगे। वे जीवन की स्तुति और मरण के दोष न कहेंगे। स्वयं भोगनवाले आनंद और शांति को दूसरे भी भोगना चाहेंगे।
ऐसे ज्ञानी गुरुओं के द्वारा ही दुख विमोचन भक्तों को होगा। वैसे गुरु जन्म से ही संतुष्ट जीवन बिताते हैं। वे सभी दशाओं संतुष्ट रहते हैं।
भाग्यवान शिष्यों को ही ऐसे गुरु मिलते हैं। कारण वह सर्वत्र समदर्शी है।समदर्शन ही उनका स्वभाव होगा।
4208. ज्ञानी और अज्ञानी को कैसे पहचान सकते हैं ? साधारणतः शरीर और संसार को क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ कहते हैं । शरीर और संसार के बारे में निस्संदेह ज्ञान ही सत्यज्ञान है। इसलिए सत्य की खोज करनेवालेे क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ को विवेक से जानकर सत्य और नित्य वस्तु क्षेत्रज्ञ अर्थात् आत्मा नामक क्षेत्र है।
शरीर केवल दृश्य है। शरीर स्वयं अस्तित्वहीन नाम रूप भ्रम दर्शन है। अर्थात् शरीर और आत्मा परस्पर विरोध स्वभाव के हैं। वे अंधकार और प्रकाश जैसे हैं।वे एक दूसरे से उत्पन्न नहीं हो सकता। दोनों मिश्रित नहीं हो सकता। अंधकार से प्रकाश,प्रकाश से अंधकार नहीं हो सकता। लेकिन मिश्रित सा लगेगा। लेकिन वह भ्रम है। पूर्ण प्रकाश में रहित अंधकार को प्रकाश में तम रहित कह नहीं सकते। प्रकाश के अभाव से ही अंधकार होने सा लगता है। प्रकाश के कम होते होते अंधकार बढता रहेगा। पूर्ण प्रकाश में अंधकार कहाँ गया? किसी को पता नहीं है। अंधकार एक दृश्य मात्र है। जहाँ आत्मबोध नहीं है, वहाँ जड पूर्ण रूप में रहता है। अखंडबोध की स्थिति में जड रूपी अंधकार संपूर्ण रूप में मिट जाता है। ये सब ऋषियों के अनुभव ज्ञान है। इसका एहसास कर सकते हैं कि आत्मा की पूर्ण स्थिति परमात्म स्थिति में,अखंडबोध स्थिति में शरीर मृगमरीचिका के समान क्षेत्रज्ञ में दीखनेवाले भ्रमात्मक दृश्य है। यही सत्य ज्ञान है। इसलिए मैं अखंडबोध रूपी परमात्मा की ज्ञान दृढता लेकर शरीर और संसार को विस्मरण करके अपने स्वभाविक परमशांति और परमानंद को पूर्ण रूप से अनुभव करके वैसा ही स्थिर खडा रहना चाहिए।
उस स्थिति के आत्मा रूपी अपने को ही पूर्ण स्नेह स्वरूपी, पूर्ण यथार्थ सत्य सर्व स्वतंत्र परमज्ञान, सर्वशक्तित्व,सर्वज्ञात कहते हैं।
4209.अहंकार का फुफकार भेद बुद्धि के कारण ही है। भेदबुद्धि आत्म ज्ञान की कमी के कारण होती है। आत्मज्ञान अप्राप्ति के कारण माता-पिता,समाज और अध्यापक ही है।वे सब आत्मतत्व न जानने से मार्ग दिखा नहीं सके। जीव को पूर्व जन्म पुण्य न होेेने से आत्मज्ञान न मिला। साधारणतः एक बच्चा महान होना है तो उसको अनेक आत्मसाक्षात्कार प्राप्त महान पूर्वजों की जीवनी और शास्त्रों को सीखकर अपने जीवन से तुलना करके कसौटी पर कस लेना चाहिए। जान- समझ लेना चाहिए कि सत्य क्या है असत्य क्या है? असत्य को तजकर सत्य को बुद्धि पर रखना चाहिए। वैसे आत्मज्ञान की दृढता जिसमें है,वे ही अज्ञान रूपी भेद बुद्धि से बाहर आ सकते हैं। उनके सामने अहंकार रूपी साँप न फुफकारेगा।
4210. आध्यात्मिक जीवन हो या लोकयुक्त जीवन हो, जो धन को लक्ष्य बनाकर जीते हैं, उनको जानना और समझना चाहिए कि मरण निश्चित रहित
मनुष्य जीवन को दिये अहमात्मा के लिए न जीकर जड रूपी धन को लक्ष्य बनाकर जीने से ही धन बनानेवाले भेद बुद्धि और रागद्वेष के कारण हुए दुख से न्यायालय और पुलिस स्टेशन पर भटकता रहना पडता है। इसलिए जड रूपी धन दुख मात्र देगा। जो धन से दुख ही मिलेगा का एहसास करता है, उसका मन ही आत्मा की ओर जाकर आत्मा के स्वभाव आनंद का अनुभव करेगा। जितने दुख आने पर भी धन कमाते रहनेवाले का जीवन नरकमय बनेेगा। नरक द्वार को ही जाएगा।
4211. अहंकार किसीको बनाता नहीं है। इसलिए आत्मबोध रहित अहंकार का पिछलग्गू बनकर जीनेवाले को जीवन में कुछ नहीं मिलेगा। आत्मा ने ही सबको बनाकर प्राण दिये है। इसलिए आत्मा को अनुसरण करके जीनेवालों को अंत में सब कुछ मिलेगा। नश्वर अहंकार के अनुसरण करनेवालों को कुछ न मिलेगा। आत्मा अस्तित्व है, उसका अनुसरण करनेवाला स्थाई रहेगा। बोध ही अस्तित्व का अनुभव करता है। बोध रहित शरीर स्वयं अस्तित्व का अनुभव नहीं करता। अस्तित्व वस्तु का अनुभव ही सुख स्वरूप है। वह आत्मा रूपी बोध ही है। स्वयं अस्तित्व का जड स्वभाव ही दुःखस्वरूप होता है। कारण वह स्वयं रहित है। इसीलिए जड पर विश्वास करके जीनेवाले को दुख होता है।
4212. ब्रह्मांड से महँगी अमूल्य अहमत्मा को छोडकर मानसिक दुख,शारीरिक दुख,आर्थिक दुख,देनेवाले एक निमिष सुख के लिए विषय सुख के लिए याचक बने पुरुष को प्रकृतीश्वरी महामाया देवी की प्रतिबिंब स्त्रियाँ अपमानित दृष्टि से देखेंगी। वैसे ही पतिव्रता स्त्री को चाहनेवाले पराये पुरुष को भी अपमानित करेंगी। सभी स्त्रियों और पुरुषों का समर्थन चाहिए तो पुरुष स्वआत्मा को साक्षात्कार करना चाहिए। जो कोई आत्मा को पूर्णता से साक्षातकार करेगा, उसीको ब्रह्मांड के सभी जीव एक साथ समर्थन करेंगे।
4213 , सत्य के बारे में पूछना असत्य के लिए असुख है। कारण वह नहीं जानता कि सत्य का स्वभाव ही आनंद है। वह आनंद को असत्य में खोजता है।
4214. स्वार्थ रहित, प्रतीक्षा रहित, घमंड रहित, अहंकार रहित पराया आदमी आत्मार्थता से प्यार करते समय उस प्यार को स्पर्श करके अनुभव कर सकते हैं। वह भेद बुद्धि रहित एकात्मबोध के स्वभाविक आनंद और शांति अनिर्वचनीय अनुभूति है। वैसे लोग घृणा करने पर भी वह एक अनश्वर मिठास ही होगा। वह कडुआ नहीं लगेगा। कारण मिठास के बाधक हैं कडुए घमंड,स्वार्थता और अहंकार।
4215. विश्वास करके करके जिन्होंने धोखा खाया है,उनको समझना चाहिए कि मनःसाक्षी के सवा और किसी पर विश्वास नहीं करना चाहिए। क्योंकि अपरिवर्तन शील आत्मा के सिवा बाकी सब परिवर्तन शील है। सबका मन बदलते रहेंगे। मनःसाक्षी के सिवा अन्य व्यक्ति पर विश्वास करना परिवर्तनशील ही है। केवल वही नहीं, सभी कार्यों का करना शरीर नहीं है, प्राण ही है। शरीर को उपयोग करके प्राण ही करता है। जब इसका एहसास करते हैं, तब प्राण पर विश्वास होता है। जिसको प्राण पर विश्वास है, उसका मार्ग गलत नहीं होगा। उसका जीवन सफल रहेगा। प्राण रूपी आत्मा सर्वव्यापी होने से आत्मा निष्क्रिय होती है। आत्मा के सान्निध्य में माया बनाकर दिखानेवाले जीव संकल्प जीवसंकल्प से हुए सुख-दुख सभी भ्रम ही है। जो शरीर और संसार नहीं है, उनपर विश्वास करके जीनेवाली जीवात्माओं के अनुभव ही दुख होते हैं। आत्मा मात्र ही नित्य सत्य जन्म-मरण रहित स्वयंभू है। वही परमानंद स्वभाव के साथ स्थिर खडा रहता है। यथार्थ में यही शास्त्र सत्य है।
4216. दुख विमोचन के लिए विवेक शीलता ही मनुष्य जीवन के लिए प्रधान गुण होती है। विवेकशीलता के लिए समय न बनाने से ही मनुष्य मूर्ख बनकर
विषयय मोह में सुध-बुध खोकर रात-दि कर्म करे दुख में फँसकर तडपता रहता है। अर्थात् मनुष्य के रूप में जन्म लेने पर विवेकशीलता होनी चाहिए।विवेक होने से ही एहसास कर सकते हैं कि यह शरीर नहीं है, आत्मा है। जिसकी बुद्धि में यह ज्ञान की दृढता होती है कि वह आत्मा है तो विषयवासनाएँ सब मिट जाएँगी। जब तक विषयवासनाएँ मिटती नहीं है.तब तक जनन-नरण माया भ्रम जारी रहेगा। जब मैं आत्मा हूँ की ज्ञान दृढता होती है, तब सभी प्रकार का ऐश्वर्य मनुष्य को अपने आप मिल जाएगा। इस ज्ञान को ही परिवार का हर सदस्य सीखना चाहिए।तभी कुटुंब आनंदपूरण रहेगा। वह आत्मज्ञान के द्वारा ही मिलेगा। इसे छोडकर करोडों की संपत्ति जोडने से शांति और आनंत स्वप्न में भी न मिलेगा। कारण विषय सुख सब दुख ही देगा। केवल वही नहीं, परीक्षा करके समझ लेना चाहिए कि सब नाम रूप माया ही है। जो इसे नहीं करते, वे दुख की शरणागति पाते हैं।
4217. एक आत्मज्ञानि गुरु और अध्यापक में अंतर यही है कि गुरु का ज्ञान बेहद होता है। दूसरों से मिलनेवाला ज्ञान सीमित होने से वह सुख के बदले दुख ही देगा।असीमित ज्ञान ही नित्य आनंद देगा। जड ज्ञान सीमित है,चैतन्य ज्ञान असीमित होता है।
4218. साधारणतः मनुष्य उसके अंदर उसकी अनुमति के बिना उदय होनेवाले चिंतन को मृत्युपर्यंत नियंत्रण न करके मर जाता है। यह साधारणतः अज्ञानियों की दशा होती है। उसी समय शरीर और मन को विवेक से जानकर शरीर या मन स्वयं नहीं है, उसका आधार आत्मा ही है। जो विवेकी शरीर और मन का आधार आत्मा ही है का जान-समझता है, वही मन को नियंत्रित करके जीवात्मा रूपी अपने को परमात्मा के रूप में साक्षात्कार करेगा। वैसे लोग मनुष्य जन्म को पवित्र बनानेवाले ही है। वैसे ही अखंडबोध भगवान को अपनी शक्ति माया अकारण आकर छिपाकर जीवात्मा रूप में बदलकर एक को अनेक बनाकर चित्त बढाकर बनायी प्रपंच विषय वस्तुओं में सुधबुध खोकर दुखी रहते हैं। किसी एक जमाने में कोई एक जीव माया बेहोशी को समझकर स्वस्वरूप को साक्षात्कार करने का एक लीला विनोद ब्रह्म निस्संग रूप में अनादी काल से चलाती रहती है। अर्थात् आत्मा ही भगवान है।जो स्वयं शक्तिशाली ब्रह्म स्वयं सर्वशक्तिशाली मानता है,समझता है वही जन्म मरण रहित स्वयंभू ही है।
4220. अकर्म में कर्म को, कर्म में अकर्म को कैसे देखना है? अकर्म आत्मा है,कर्म माया चलन है। अर्थात् निश्चलन सर्वव्यापी मैं नामक परमात्मा में स्वयं के बिना और कोई चलन हो नहीं सकता। इस स्थिति में कर्मचलन माया है, स्वयं निष्क्रिय है। इसको जान समझकर एहसास करके कर्म करना ही निष्काम्य कर्म है। वहाँ किसी प्रकार कर्मबंधन और कर्मफल बंधन न होगा।
4221.सभी भाग्य सत्य का रूप ही है। जो कोई सकल सौभाग्य की प्रतीक्षा करता है, वह जीवन में सत्य के नियंत्रण में रहना ही काफी है। कारण सत्य ही ब्रह्म है। ब्रह्म ही भगवान है।उस भगवान में ही सर्वस्व है। अर्थात् शास्त्र परम भगवान मैं नामक अखंडबोध ही है। कारण मैं नामक बोध नहीं है तो अखंड बोध ही है। वह स्वयं है का अनुभव जहाँ है,वह स्थान ही परमानंद का स्थान है। अनिर्वचनीय शांति का स्थान है,सर्वस्वतंत्रता का स्थान है, पूर्ण स्नेह का स्थान है।
4222. जो कोई उसके सभी कार्य करते समय स्वार्थ के लिए काल और समय देखकर कार्य करता है, उसका फल देने भगवान भी काल और समय देखते रहेंगे। उनको समझना चाहिए कि भगवान काल और समय के नहीं है। भगवान सर्वत्र विद्यमान है, कालातीत नित्य सत्य स्वयं स्थिर रूप में खडा रहता है। वैसे ईश्वर को जो तैलधारा के समान स्मरण करता है, वह ईश्वरत्व पाएगा। केवल वही नहीं वह परमानंद स्थिति ही है। वह परमानंद अहमात्म स्वभाव ही है। अपनी अहमात्मा बसे परमानंद स्वरूप ईश्वर ही स्वयं अपने रूप में होता है। वह स्वयं बने परमानंद को ही अपनी शक्ति माया मनो रूप में शरीर रूप में पर्दा डाल रखती है। इसीलिए जो कोई आत्मज्ञान से शरीर और मन रूपी पर्दी को हटा मिटा लेकर बदल देता है, वह परमानंद रूप में स्थिर रहेगा।
4223. किसी को सत्य में जीना चाहिए तो पहले नित्य-अनित्य विषयों को विवेक से जाननाा चाहिए। नित्य विषयों को पूर्ण रूप से आश्रित रहने पर वह सत्यवान बनेगा। असत्य को पूर्ण रूप से आश्रित रहने पर असत्यवान बनेगा। सत्यवान सुखी रहता है और असत्यवान दुखी रहता है।
4224.जो कोई मन रहित आत्मबोध से बिना हटे रहता है, वही आत्मज्ञानी है।
अर्थात् वह आत्मा ही है। आत्मा को स्वयं साक्षत्कार करनेवाला जीव मुक्त होता है। वैसे लोग जिस मिनट चाहता है,उस मिनट में शरीर तज सकता है। सत्य में शरीर, संसार आदी जीव मुक्त के सामने नाम रूपी एक माया रूप ही है। इसलिए उसे तजने या स्वीकार करने का चिंतन जीव मुक्त में नहीं आएगा। वह तीनों कालों में रहित है। आत्मा का अनुभव ही मौन है। वह तीनों कालों में रहित है।
4225. आत्मा से ही वचन उमडकर आते हैं। वचन सभीआत्मा में जाने के बाद उसमें विलीन हो जाएँगे। इसलिए सभी वचन रहित स्थान ही आत्म अनुभव ही मौन है। इसलिए वचनों से आत्मा को वर्णन नहीं कर सकता। सर्वत्र आत्मा को अनुभव करनेवाला आत्मज्ञानी सदा बोलते रहने पर भी मौनी ही है। अर्थात् सुध बुध स्मरण और मन रहित योगी और ज्ञानियों के लिए यह मौन अनुभव सरल ही है। अर्थात् अनंतानंद स्वरूपी ब्रह्म अनिर्वचनीय है। वैसे ही प्रपंच भी अनिर्वचनीय है। माया भी अनिर्वचनीय है। अति छोटे आनंद को भी वचनों से वर्णन नहीं कर सकता। सब के सब अनुभव स्वरूप है। इसलिए अपने स्वस्वरूप परमात्मा के स्वभाव परमानंद को स्वयं अनुभव करके परमानंद
स्वरूपी रहना चाहिए।
4226. सभी विद्युत साधन होने पर भी विद्युत वितरण पूर्णम रूप से न होने पर उन साधनोंं को उपयोग नहीं कर सकते। वैसे ही स्वार्थ लाभ के लिए ईश्वरीय प्रार्थना करनेवाले अस्पष्ट जीवन बिताकर कष्ट झेलते हैं।इसलिए सुखी जीवन बिताने के लिए जानना-समझना है कि निस्वार्थ बनकर सभी जीवों में अपने को ही दर्शन करनेवालों को मिलनेवाला आनंद और किसी को न मिलेगा। सभी जीवों में अपने दर्शन करनेवाला ही आत्मज्ञानी है। इसलिए सभी आनंद का केंद्र आत्मज्ञान को सीखकर आत्मज्ञानी होने पर एहसास होगा कि सभी जीव अपना है। वैसे समदर्शी होने पर होनेवाले आनंद से बढकर और कोई आनंद और किसी लोक में न मिलेगा। उस आनंद के लिए दस पैसा भी खर्च न होगा। उसके लिए किसी भी प्रकार के प्रयत्न की आवश्यक्ता नहीं है। केवल वही नहीं है, मन से और बुद्धि से कोई दुख नहीं होगा। इसको जानकर एहसास करके अनुभव करनेवालेे परिवार में, समाज में, देश में,राज्य में, लोक में,
नित्य वसंत होगा।
4227.आत्मा रूपी अपने स्वभाव के आनंद को,स्वतंत्र को,स्नेह को,शांति को, सत्य को दृश्य जगत के जड विषयों में प्रयत्न से खोजनेवाला मनुष्य अति मूर्ख ही है। उसके कारण स्वस्वरूप विसमृति ही है। विस्मृति से उत्पन्न लगनेवाले शरीर से दुख मात्र ही मिलेगा। इसलिए मनुष्य को आत्मज्ञान से एहसास करना चाहिए कि जड रूपी शरीर, संसार स्वयं नहीं है, सबको जाननेवाला परम ज्ञान परमात्मा ही है,उस परमात्मा का स्वभाव ही सभी आनंद का केंद्र परमानंद है।तभी स्नेह के लिए,सत्य के लिए, स्वतंत्र के लिए शांति के लिए आनंद के लिए प्रयत्न रहित प्राप्त कर सकता है।
4228. निर्गुण रूपी पर ब्रह्म स्वआत्मा को भूलकर अहंकार के नाटक से,गुणों में सुधबुध खोकर जीने के चाहक वैसे ही भस्म हो जाएँगे, जीवन शून्य होगा, जैसे परमेश्वर की बातें न सुनकर दक्ष की पुत्री मनोमाया रूपी शक्ति दाक्षायिणी अपमानित होकर जलकर मर गयी है।
4229. सूर्य प्रकाश में खेलता रहा बच्चा, अपनी परछाई को देखकर भयभीत होकर रोते हुए भाग रहा है। उसको भय से छुडाने घर के अंदर बुलाना चाहिए।
घर के अंदर न आनेवाला बच्चा हट करके भागते रहेंगे तो नीचे गिरेगा ही,भय से न बचेगा। वैसे ही मनुष्य ब्रह्म की परछाई रूपी प्रपंच को देखकर भयभीत होकर भागते हैं। जो कोई अपने हृदय रूपी पिंजडे में प्रवेश करता है, वही छाया भय से मुक्त होकर आत्मा का स्वभाव पूर्ण धैर्य, पूर्ण शांति,पूर्ण आनंद का अनुभव कर सकते हैं। यथार्थ में सर्वव्यापी ब्रह्म की परछाई न हो सकती।
उसमें ब्रह्म शक्ति चित्त बनाये प्राण के विविध परिणाम के पहलू ही यह प्रपंच होता है। वास्तव में कोई शक्ति चलन सर्वव्यापी परमात्मा में नहीं हो सकता। वे सब एक भ्रम मात्र ही है। पूर्ण रूपी अखंड बोध स्थिति में भ्रम अस्त होगा।
4230. नाम रूप सब मिथ्या स्वरूप है। आकाश जैसे अरूप है आत्मस्वरूप।उस आत्म स्वरूप ही अपना यथार्थ स्वरूप है। उस आत्मा का स्वरूप ही आनंद स्वरूप है। यथार्थ में आनंद ही अपना यथार्थ स्वरूप है। अपने यथार्थ स्वस्वरूप आनंद अनुभव माया के कारण न होने से यह शरीर और संसार है सा लगता है। स्वस्वरूप स्मरण से जब पूर्ण आत्मबोध होता है, तब यह प्रपंच मिट जाएगा। अर्थात् मन और वचन के अपार ही है नित्य शुद्ध और नित्य मुक्त परमात्म स्वरूप होता है। वह अनश्वर परमात्म वस्तु ही यथार्थ मै हूँ। इस अनुभूति स्थिति में ही सभी सांसारिक दुख मिट जाएँगे।
4231. मैं नामक अखंडबोध आकाश में भूमि रूपी तालाब में अज्ञान रूपी कीचड से उत्पन्न कमल की कलियाँ ही सभी जीव रूप होते हैं। ज्ञान सूर्य किरणों के पडते ही सब कलियाँ ज्ञान कमल के रूप में खिलते हैं।
4232.आनंद स्वभाव की आत्मा को माया शरीर स्वीकार करने से दुख होता है। जो भी लोक हो, जो भी स्थान हो, शरीर को स्वीकार करने पर दुख ही होगा। वही आत्मा भले ही करोडपति का जन्म हो, राजा,चक्रवतर्ती का जन्म हो, उनको शरीर बोध होने से वे दुख तज नहीं सकते। कारण उनको शत्रुओं के द्वारा, संपत्ति के नष्ट होने से ,राज्य के शासन करने से, पत्नी संतानों के रिश्तों की मृत्यु से,रोग से दुख होगा ही। लेकिन उसका सुख कहना एक भ्रम मात्र ही है।क्योंकि साधारण मनुष्य दैनिक जीवन में मज़दूरी करके जीते समय उसको कर्म दुख होता है। उस दुख से अनजान रहने के लिए विशेष दिनों में और मेलों में नाच-गान में सुख से जीते हैं।लेकन दुख को ही सुख सोचकर जीते हैं।
4233. भेद-बुद्धि और राग-द्वेष रहित अपने जैसे दूसरों से प्यार करते समय ही स्नेह प्रकट होता है। आत्मज्ञान की दृढता से ही अपने जैसे दूसरों से प्यार कर सकते हैं। कारण आत्मा सर्वव्यापी है। वह आत्मा बल्बों में बिजली जैसे सभी प्राणों मं एक ही है। एक रूपी आत्मा ही इस प्रपंच का परम कारण होता है,वह परम कारण स्वयं ही है। स्वयं के बिना और कुछ नहीं है। इस अनुभूति से जीने की लीला ही स्वयं और स्वयं देखनेवाला प्रपंच है।
4234. बाहरी रूप में ज्ञानी और अज्ञानियों में कोई अंतर नहीं दीख पडेगा। लेकिन मनो व्यापार में अंतर मालूम होगा। आत्मज्ञानी को एहसास होगा कि अपने को आनेवाले दुख सब आत्मा रूपी अपने को नहीं,उस अंतःकरण को ही है। आत्मज्ञानी स्थित प्रज्ञ रहेगा। स्तुति से, अनुभव से,युक्ति से विचार करेगा कि परमानंद के और परमशांति के स्वभाव के परमात्मा रूपी अपने का कोई संबंध तीनों कालों में रहित शरीर और संसार से नहीं है। वे आनंद और शांति अपने सहज स्वभाव से भोग सकते हैं।लेकिन अज्ञानी आत्मा को भूल से शरीर सोचकर शारीरिक धर्म को आत्मधर्म के रूप में,आत्म धर्म को शारीरिक धर्म के रूप में देखता है। शारीरिक धर्म दुखपूर्ण है। उस दुख को नित्यानंद आत्मा में है, यों सोचकर दुखी होते हैं। लेकिन आत्मस्वभाव परमानंद का है। वे नहीं जानते कि आत्मस्वभाव ही यथार्थ स्वभाव है। शारीरिक स्वभाव को आनंद समझकर शरीर से प्रेम करते हैं। अर्थात् शरीर धर्म आत्मा में,आत्म धर्म को शरीर में आरोपित करके अज्ञानी जी रहे हैं। उसके परिणाम स्वरूप जाति के नाम से,कुल-वर्ण के नाम से भेद बुद्धि,राग-द्वेष से दुखी रहते हैं। विवेकी सोचते हैं कि प्रपंच मिथ्या है। वे सभी प्रारब्ध को स्वप्न जैसे तजते हैं। इसलिए वे आनंद से जीते हैं। लेकिन अविवेकी प्रपंच और जीव के सुख-दुखों को सत्य सोचकर रागद्वेष और भेदबुद्धि से दुखी होते हैं। मनुष्य में विवेकी हो या ईश्वरत्व प्राप्त देव हो भेदबुद्धि और रागद्वेष होने पर दुख उनसे चिपककर रहेगा,छोडेगा नहीं। जो सभी प्रकार के दुख से विमोचन पाना चाहते हैं,उनको आत्मज्ञान सीखना चाहिए और अद्वैत बोध में जीना चाहिए। वे ही अपने प्राण जैसे सभी जीवों से प्यार करके भेदबुद्धि रागद्वेष रहित परमानंद से अनिर्वचनीय शांति से इस माया जगत में नित्यता से जी सकता है।
4235. इस संसार में दुखी लोग जीव दुख विमोचन के लिए आत्मज्ञान सीखने का प्रयत्न नहीं करते।. अज्ञानी नहीं जानते कि नित्य क्या है?अनित्य क्या है? अज्ञानी ईश्वर के रूपों में भेद और रागद्वेष बनाकर मानसिक दुखी होते हैं। जो कोई इस शरीर और संसार के परम कारण को आतमज्ञान से खोज करने पर पता चलेगा कि शरीर और संसार के परम कारण स्वरूप है, मैं नामक अखंड बोध। परम कारण भेद रहित अखंडबोध सत्य है। अर्थात् परम कारण का पता न लगाकर इस संसार की निज स्थिति सत्य खोजनेवाले को समझ में न आएगा। परम कारण किसी भी स्थिति में दो नहीं हो सकता। उस परम कारण में अंतरंग-बहिरंग नहीं हो सकता। तभी उसमें कोई भेद न रहेगा। कह नहीं सकते कि उसमें कोई विशेषता है। परम कारण में रंग,वर्ण,जन्म मरण, आदि विकार नहीं हो सकता। वैसे परम कारण ही अखंड बोध रूपी ब्रह्म है। वह ब्रह्म ही सर्वव्यापी परमात्मा है। वही परमज्ञान है। उस परम ज्ञान में परम ज्ञान का स्वभाव परमानंद के सिवा और कोई नहीं हो सकता। इसलिए उसमें किसीभी प्रकार का भेद नहीं होता। परम कारण परमानंद में जीवों को,संसार को, देव-देवियों के रूप को देख नहीं सकते। कारण वह रूप रहित अनुभव स्वरूप होता है। परमनंद में परमानंद के सिवा और कोई हो नहीं सकता। कारण परमानंद सर्वव्यापी निश्चलन अनर्वचनीय शांति और अनुभव होता है। वह संपूर्ण स्नेह स्वरूप है। वह सर्वस्वतंत्र है। उसमें कोई भेद नहीं है। वह हमेशा एक और एक रस का होता है।
4236. आत्मज्ञानी आत्मचिंतन रहित स्त्रियों को, स्त्री चिंतन में जीनेवाले पुरुष पर दोषारोपण नहीं लगाते। कारण वे साधारणतः माया बंधित होने से माया के स्वभाव का अनुसरण करके ही वे कार्य कर सकते हैं। आत्मज्ञानी इसका एहसास कर सकता है। उनको दोष बतानाा अंधे को देखकर अंधा बुलाने के समान ही है।.
4237. पूर्व जन्म पुण्य से बने वासनाओं से या ईश्वरीय दिव्य शास्त्र सीखने के ज्ञान से जो कोई ईश्वर भक्त बनता है, उसके पंचेंद्रियों सेे अनुभव करनेवालेे सब ईश्वरीय चिंतन होंगे सिवा इसके दूसरा कोई चिंतन उसमें न होगा।उसका मन आत्मा की ओर जाकर उसमें विलीन हो जाएगा। तब उसको आत्म बोध होगा। आत्मबोध से न हटने से खंडबोध अखंडबोध स्थिति पाएगी। कर्म की स्थितियाँ तीन रीतियों में हैं। सद्कर्म, दुष्कर्म, सद्कर्म और दुदुष्कर्म मिले मिश्रकर्म है। सद्कर्म करके सद्कर्म के फलस्वरूप मिलनेवाले शरीर ही देवशरीर है। लेकिन दुष्कर्म करके दुष्कर्मों के परिणाम स्वरूप मिलनेवाले शरीर ही जानवर, पक्षी आदि शरीर है। लेकिन सद्कर्म,दुष्कर्म बदल बदलकर करनेे काा फलस्वरूप मिलनेवाले शरीर ही मनुष्य शरीर हैं। मनुष्य ही आत्मा कास महत्व जानकर आत्मा से साक्षात्कार कर सकता है। कारण भूलोक में धारावाहक दुख के आते रहने से मनुष्य को चिंता शक्ति अधिक वेग से मिलेगी। इसलिए वह आसान से समझ सकता है कि नित्य क्या है? अनित्य क्या है? इसलिए वह अनित्य शरीर और संसार को तजकर नित्य आत्मा को आत्मज्ञान से साक्षात्कार करेगा। लेकिन देवलोक में चाहनेवाली वस्तुएँ तुरंत मिलने से चिंतन को स्थान नहीं है। मनुष्य को भूलोक में मन पसंद वस्तुएँ तुरंत न मिलेगी। उस कष्ट के कारण चिंतन के लिए समय मिलता है। इसलिए देव होने पर भी भूलोक में आकर ही आत्मज्ञान सीखकर आत्मा को आसानी से साक्षात्कार करता है। उसकी स्पष्टता ही मनुष्य देव संकल्प करके देव प्रीति बनाकर स्वार्थ को पूर्ती करता है। इसलिए दुखी मनुष्य विवेक को उपयोग करके आत्मा के महत्व को ग्रहण करके अज्ञान के गौरव को समझकर आत्मा को साक्षात्कार करके दुख से बाहर आना चाहिए। अर्थात् देव-असुर मिलकर ही दुग्ध सागर के मंथन से अमृत मिला। वैसे ही मनुष्य को आध्यात्मिक और भौतिक कर्मों में लग जाने से बहुत आसानी से आतमज्ञान मिलेगा। मनुष्य जन्म को आत्मज्ञान से पवित्र बनाना चाहिए। जिसने अमृत पिया है, और उसको कुछ पीने की आवश्यक्ता नहीं है। वह अमृत परमहँस स्थिति में रहनेवाले ही पी सकते हैं।
4238. धन को लक्ष्य बनाकर आध्यात्मिकता सिखानेवाले की बात सुनने कई लोग आएँगे। उनकी बातों से बुद्धि सुध-बुध खो जाती है। किसी के मन को छूती नहीं है। लेकिन आत्म लाभ के लिए आध्यात्मिक सिखानेवालों की बातें सुननेवाले हृदयों में स्वर्ण अक्षरों में दर्ज हो जाएँगी। तीर जैसे छेदकर सहस्रदल पद्म को खिला देगी।
4239. अनंत, अग्नाद अनादी आदि बोध आकाश का केंद्र है। उसको अनुभव करनेवाला मैं ही है। उस मैं नामक बोध से मिले बिना चौदह लोक नहीं है। वह बोध रूपी मैं ही परम सत्य है। परम ज्ञान भी मैं ही है। मैं ही परमात्मा है। मैं रूपी परमात्मा का स्वभाव ही परमानंद है। उस परमानंद को ही परम स्नेही,शांति और सर्वस्वतंत्र है।
4240. मनुष्य जन्म लेते समय ही स्थिर बुद्धि से जन्म नहीं लेता,इसी कारण से सांसारिक जीवन दुख पूर्ण होता है। महत्व पूर्ण बुद्धि वाले बच्चों का जन्म होना
अपूर्व ही है।बाल्य,कौमार्य,यौवन,पार्थक्य आदि चार अवस्थाओं में बाल्य और कौमार्य के बाद ही साधारणतः बच्चे स्वयं चिंतन करते हैं। जन्म लेते ही बच्चों के मन में एकाग्रता नहीं होती। उसको शरीर नहीं है, स्वयं आत्मा है को सिखाने पर भी बुद्धि आत्मा में दृढ होने के पहले ही समाज के कारण सांसारिक व्यवहारिक चिंतन बुद्धि पर प्रभाव डालने से दुख स्वभाव के सांसारिक विषय चिंतन स्वआत्म निश्चय होने अर्थात् मैं नित्य आनंद नामक निश्चय होने को अनुमति न देकर बाधा बनती है। इसीलिए संसार में लोगों का जीवन दुख मय होता है। उसके कारण तीनों कालों में रहित शरीर और संसर को स्थाई मानने का विश्वास ही है। नित्य-अनित्य भेद जाननेवाले विवेकी को ही समझ में आएगा। जो समझता है उसको सुख ही है, जो नहीं समझता है, उसको दुख ही है।
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