Monday, September 16, 2013

बुढापा

बुढ़ापा  है तन का शिथिल;मनका चंचल;
हमारे शान -मान में कमी का महसूस;
सादर बोलने पर भी अनादर ध्वनी सा लगता;
निरादार की दृष्टि ही बूढों पर पड़ता;लगता हमें
हमारी दुनिया अलग;सब हैं नयी दुनिया में;
खाने का स्वाद बदल गया;अब जो खाते उसमें हैं नया स्वाद;
वहीं रोटी सब्जी,पर वह सुगंध नहीं,वही फल वह मिठास नहीं;
बस जीना हैं जी रहे हैं;जवानी की सार्थकता बुढापे में हो गया निरर्थक;
रस युक्त जीवन ,माया-मोह में फँसे जीवन हो गया रसहीन.
३०० रूपये का मजेदार श्री गणेश   जीवन,पहली तारीख की प्रतीक्षा;
अब बीस हज़ार पेंशन में नहीं वह आनंद;बुढापा है भार रूप;
बच्चों के व्यवाहर में नहीं कमी;
वे रोटी,कपडा,दवा में हमें संतुष्ट रखना चाहते;
हम देना चाहते अपनी सलाह;
वे भी मानना चाहते;पता चलता है उसे परिवर्तित परिस्थिति के नाहीं अनुकूल;
वास्तविक बातें हैं जो हमें भाती नहीं;
बच्चों का जिद बुढापे में;यह तो उचित नहीं;



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