Thursday, February 12, 2015

हाथी के दांत

  हम मनुष्य   है,नासमझ; 


 पर  चलते  हैं  या चलना पड़ता है ,

समझधारी  में अति मेधावी;

जीना  है  तो  सत्य का साथ देकर ही जीना है;

मरना है तो वैसे ही ;
पर यह तो केवल सैद्धांतिक .

सत्य  के  साथ चलना व्यवहार में चलना,

 कंटीले ,कंकरीले और पत्थरीला मार्ग;

अवश्य घाटा उठाना पड़ेगा;

साथी खोना पड़ेगा;

बंधन तोडना पड़ेगा ;

सत्य तो एक परीक्षा ;

कितने लोग उत्तीर्ण हुए पता नहीं;

लेते  हैं केवल   हरिश्चंद्र   का   नाम;

पर उनका जीवन चरित्र पालन तो 

भगवान कृष्ण भी न कर सके  पालन;
सत्य का साथ देना तो अति दूर,

धर्म युद्ध तो केवल मात्र कहने ;

अधर्म की छाया में तो   पांडवों  की  गर्मी मिटी;

यही मिथ्या जगत ,धन की महीमा;

निर्धनी ही केवल धन की महीमा ,

गा -गाकर  जगत बचाते;

लुटेरा  रत्नाकर ,बना वाल्मीकी  तो 

स्त्री लोलुप   तुलसी बना   तुलसी दास ;

जन्म से कलंकित ,

द्विधर्म ज्ञानी  कबीर   बना कबीरदास ;

उनके पूर्व -भाग तो  व्यवहारिक;

दास   बनने के बाद का जीवन तो

 केवल सैद्धांतिक;

जग चलता हैं यो ही 

सैद्धांतिक और व्यवहारिक दोनों को लेकर  जैसे 

हाथी के दांत  खाने के और ,और दिखाने के और;

अब विदित हो गया होगा ,

 खाने  के  दांत  ही व्यवहारिक ;

जीने के दांत तो सैद्धांतिक ;

यों ही चलती हैं राजनीति ,धर्म -नीति ,अर्थ नीति.















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