3601. सुख एक ही है। वह सदा आनंदप्रद है। वह स्थाई है। तैलधारा जैसे है। वह नित्य है। वह एकरस है ।वह निरुपाधिक सुख है। वह सब सुखों से श्रेष्ठ सुख है। सब सुखों में से बडा सुख वही है। वही ब्रह्म है। वही सर्वव्यापी परमात्मा है।वही परम ज्ञानस्वरूप है। वही काम रहित यथार्थ प्रेम है। वही अनिर्वचनीय शांति स्वरूप है। वही मैं रूपी अखंडबोध है।वह अखंडबोध रूपी परमानंद स्वरूप के बदले जीव सदा दुख ही भोगते हैं। दुख भोगने के कारण यही है कि वह स्वयं आत्मा है का ज्ञान न होना ही है। सर्वव्यापी बननेवाले अपने को पंचभूत के पिंजड़े बने मन,शरीर और प्राण सोचकर संकुचित शारीरिक अभिमान और अहंकार के साथ जीने से ही अहंकार के स्वभाव राग द्वेष, काम-क्रोध आदि से पूर्ण पवित्र आत्मा को छिपाकर दुखों का गुलाम बनकर नरक जीवन जीते हैं।
3602. नाटक के अभिनेता के अभिनय देखकर दर्शक खुश होते हैं। पर अभिनेताओं को केवल काल्पनिक आनंद होंगे। उनको यथार्थ आत्मा के स्वभाविक स्थाई आनंद न होंगे। नृत्य कला में रुचि होने पर भी,कला को ईश्वरीय मानने पर भी, मनोरंजन के लिए होने पर भी मानसिक और शारीरिक दुख होगा। उसका कौशल नृत्य क्षमता निर्देशक और दर्शकों को समझाने के विचार से ही होगा। तब उसका अहंकार लोगों को संतोष करने के लिए,नाम और धन कमाने के लिए लगातार अभिनय करने विवश कर देगा। उनको आत्मज्ञान सीखने के लिए ,आत्मबोध के साथ कर्म करने को समय न मिलेगा। अतः अंतरात्मा की स्वभाविक शांति और आनंद का अनुभव नहीं कर सकते। वैसे ही आत्मबोध रहित जीवन चलानेवालों की सब की स्थिति होती है। उनमें कुछ लोग संसार को ,कुछ लोग परिवार के लिए और कुछ लोग कुछ लोगों को संतुष्ट करने-कराने मज़बूर होते हैं। पहाड के ढेर-सा धन कमाने पर भी उनको भोगने के लिए, उसको समय न रहेगा या मन न रहेगा। न तो शरीर साथ न देगा। वह नाचना,अभिनय करना और अपना धंधा छोडकर यथार्थ स्थिति जब समझने लगता है,तब पिछले समय की विषय वासनाएँ उसको न छोडेंगी। या अगला जन्म लेने का बीज बोकर मरेगा। कारण मनुष्य की आयु कम ही है।उनमें विवेकशीलल आदमी सत्य की खोज करने की कोशिश करेगा,पर वह सत्य को जान न सकेगा। जो मनुष्य आत्मा का महत्व जानता है,उसी को शांति और आनंद मिलेगा। दूसरों को स्वप्न में भी शांति नहीं मिलेगी। कला जो भी हो ,नृत्य हो, नाटक हो,संगीत हो वे संसार और शरीर के परम कारक बोध भगवान को संतुष्ट करने के लिए हो तो वास्तविक आनंद मिलेगा। अर्थात् संकल्प अवतार देव-देवी मंदिर के सामने भक्तों के लिए भगवद् कीर्तन,भगवद्नाट्य, सत्य की और भक्ति की भावना जगानेवाले कलाकारों को ही आत्मा शांति और आनंद मिलेगा। आत्मबोध के बिना जड वस्तुओं के लिए जीवन व्यर्थ करनेवालों को नित्य दुख ही मिलेगा। केवल आत्मा मात्र आनंद देगा।
3603. आत्मबोध रहित,सत्य की खोज रहित, स्वयं अज्ञानी बनकर औरोंको भी अज्ञानी बनाने का कार्य ही लौकिक जीवन है। इसके विपरीत इनसे परिवर्तित जीवन जीना,अपने आपको पहचानना अर्थात् शरीर और संसार को विवेक से जानकर शरीर और संसार मैं नहीं ,इस शरीर और संसार के परम कारण रूप अखंडबोध ही है। इस बात को अपनी बुद्धि में दृढ बनाकर शारीरिक याद और सांसारिक याद और शारीरिक और सांसारिक कर्म बंधनों से और दुख से विमोचन पाकर, शरीर और संसार को भूलकर, किसी भी प्रकार के संकल्प के बिना एक मिनट भी अपने अखंड बोध स्थिति से न हटकर रहना चाहिए ।जो व्यक्ति कमल के पत्ते और पानी के जैसे माया भरी संसार में निस्संग जीकर विदेह मुक्त बनता है,वही बोध स्वभाव के परमानंद स्थिति को पाकर वैसे ही स्थिर रहता है।
3604. अहंकार और अधर्म के प्रतिबिंब रामायण में रावण, महाभारत में दुर्योधन और उनके अनुयायी आत्मा का महत्व न जानकर ,आत्मा का महत्व न जानकर दुखी होकर संसार से चल बसे। उनके जैसे न बनना चाहें तो रामायण में परमात्मा का प्रतिबिंब राम को और महाभारत में परमात्मा का प्रतिबिंब कृष्ण को प्रार्थना करके उनके शुभ-वचनों को स्वीकार करके व्यवहार मेंं लाये उनके साथ मिलकर उनके जैसे ही बदलनेवाले मनुष्य ही मनुष्य आत्मा के महत्व का एहसास करनेवाले होते हैं।उनको सारा संसार नफ़रत करने पर भी सदा आनंदवान होते हैं।
उनको जेल में डालने पर भी वे सर्व तंत्र स्वतंत्र ही रहेगा। उनसे प्यार न करने पर भी प्यार के स्वरूप ही रहेगा। वे कुछ भी न करने पर भी सब कुछ होनेवाले के जैसे ही जीवन होता है।
3605. ब्रह्म शक्ति महामाया रूपी प्रकृतीश्वरी के प्रतिबिंब स्त्री एक पुरुष की ओर कठोर शब्द कहते समय वह अपने यथार्थ स्वरूप परमार्थ स्वरूप तत्व समझाने के लिए सहायिका सोचकर सब्रता से स्वयं को महसूस न करके
जो पुरुष स्त्री की जोर शोर सुनकर क्रोधित होकर अपने अहंकार को प्रकट करने
की कोशिश करता हैं, वह संसार और शरीर के बीच के परम कारण सत्य को पहचानने में असमर्थ हो जाता है। साथ ही माया कर्म चक्र जेल में फँसकर तडपेगा। उससे मुक्त हो जाना है तो संसार के सभी स्त्रियों को पराशक्ति का अंश मानकर सत्य जानने के लिए उनको आराधना करके याचना करनी चाहिए।
तभी महामाया अपने यथार्थ स्वरूप अखंडबोध में अटल रहने की मदद करेगी। नहीं तो महामाया आत्मबोध में रहने कभी नहीं देगा। कोई भीअपने को अग्नी ज्वाला स्त्री से बचा नहीं जा सकता। अर्थात क्या वास्तव में ब्रह्मशक्ति माया ब्रह्म से अन्य एक स्थान से आया है?अन्य? नहीं। अर्थात् निश्चल ब्रह्म अपनी निश्चलनता और सर्वव्यापकत्व के परिवर्तन के बिना अपनी अलौकिक शक्ति लेकर अर्थात् अपने स्वभाविक योग माया को लेकर अपने आपको ही स्वयं चलनशील रूप में बदलकर एक रूपी अनेक रूप में परिवर्तन होने के साथ ही परमात्मा से अन्य कोई पराशक्ति नहीं है। एक ही ब्रह्म मात्र है। उसी को मैं रूपी अखंड बोध ही है। उस अखंडबोध रूपी अपने स्वभाविक परमानंद ही है।
3606. इस संसार में एक साधारण आदमी मैं, मेरा के अभिमान से एक जीवात्मा से सांसारिक व्यवहार करते समय अपने से बढकर एक शक्ति अर्थात् भगवान है की याद होगी। उसी समय संसार को अपने को आत्मआत्मज्ञान से
विवेक से देखते समय भगवान ही अपने अहमात्मा और स्वयं रहकर इस शरीर को लेकर सभी कर्म करने को महसूस कर सकते हैं। अर्थात एक जीवात्मा मनुष्य में अकारण अपने आप कई संकल्प उमडकर आते हैं। उनको अपने आप नियंत्रण न करें तो उनके द्वारा होेनेवाले दुख के कारण स्वयं के सिवा दूसरी एक शक्ति कारण न बनेगी।कारण दूसरी कोई शक्ति को अपने में मिले बिना अस्तित्व नहीं है। जो स्थाई रूप में दुख निवृत्ति,आनंद और शांति स्थाई रूप में चाहते हैं,
उनको अपने में उमडकर आनेवाले संकल्प नाटकों को माया विलास सोचकर किसी भी मूल्य पर नियंत्रण करके या उसके लिए जीवन को त्याग करके अपने यथार्थ स्वरूप अखंड बोध को पुनर्जीवित करके स्वयं साक्षात्कार करना चाहिए। तभी अपने स्वभाविक परमानंद को स्वयं भोगकर वैसे ही स्थिर रह सकते हैं।
3607.एक मनुष्य को जाति, मत,भाषा, विश्वास आदि मुख्य नहीं है।पीने के लिए पानी, साँस लेने के लिए हवा,भूख मिटाने के लिए खाना,ठहरने के लिए स्थान आदि ही प्रधान होते हैं। वे सब के सब मिलने पर भी उनमें अहमात्मा के स्वभाविक आनंद,स्वतंत्र,शांति की प्रार्थना करता है और खोज करता रहता है।वैसे ही सभी जीव खोजते रहते हैं। उनमें जिस जीव को आत्मज्ञान सीखने का ज्ञान मिलता है, वही सत्य का महसूस कर सकता है। अर्थात् “मैं” के केंद्र से ही सब कुछ चलता है। कारण मैं रूपी अखंड बोध केंद्र नहीं तो संसार और शरीर नहीं होते। अपनी शक्ति माया मन अपने हित के अनुसार संकल्पों को बढाकर स्थूल सूक्ष्म शरीरों को,उसके आवश्यक अंतःकरणों को बनाकर ही अपने बनाये जग में अपने द्वारा सृष्टित शरीर की सहायता से व्यवहार करता रहता है।उनसे बाहर आना न आना जीव के अपने वश में ही है।जीव का अपना अपराध और दोष ही है। अतः अपनी कमियों के लिए दूसरों पर,भगवान पर दोषारोपण करना सही नहीं होता। इस बात को एहसास करना चाहिए कि जीवों के अपने दुख और नरक वेदना भोगने के मूलकारण स्वयं ही है। अतः विवेक पूर्वक पता लगाना चाहिए कि हमारे सभी सोच-विचार के परम कारण शक्ति कौन-सी शक्ति है,वह क्या है? उस परम कारण का पता लगाना ही सभी समस्याओं का प्रायश्चित्त होगा।कयोंकि वह परम कारण ही सब कुछ होता है। वही अखंडबोध है। उसका स्वभाव ही परमानंद और अनिर्वचनीय शांति होते हैं,जो इनका एहसास करता है,वही भाग्यवान होता है, जो नहीं समझता,वह दुर्भाग्यवान होता है।
3608. कमल के जन्म के मार्ग की खोज करते समय पता लगता है कि उसको स्थिर खडा रहने के लिए कीचड अनिवार्य होता है। जो कीचड से स्नेह नहीं करते,वे उसको तोडकर उसकी सुंदरता के आनंद को अनुभव नहीं कर सकते। अर्थात् कमल सूखते समय वह फिर कीचड में बदल जाता है। कीचड ही कमल बनता है। बीज और पेड का आधार मिट्टी ही है। बीज और पेड दोनों को मिट्टी में डालने से दोनों मिट्टी बन जाते हैं। उसी मिट्टी में ही पेड उगते हैं।पेड से ही बीज बनते हैं। स्वप्न में आम के पेड से आम तोडकर खाते समय वह सत्य ही लगा।
उस स्वप्न के आम किस पेड के हैं के सवाल यही कहेगा कि वह तो केवल स्वप्न है। वैसे ही इस जागृत अवस्था में जो कुछ दीख पडते हैं,वे सब एक स्वप्न है और कोई युक्ति नहीं है। वैसे ही एक महान की मित्रता के लिए उस महान के दोस्तों से प्यार करना चाहिए।वैसे ही गुरुओं की मित्रता के लिए उनके शिष्यों से भी प्यार करना चाहिए। अर्थात् ज्ञान-अज्ञान में जिसमें समदर्शन है,उसी को ही शांति और आनंद स्थाई रूप में मिलेगा। अर्थात दिन में अंधकार को टालनेवाले रात में सोने के लिए प्रकाश को टालते हैं। अर्थात् एक एक के लिए पूरक है। वैसे ही असीमित अखंडबोध भगवान मात्र है।यह कहने के लिए सीमित एक शरीर की आवश्यक्ता है। बोध अखंड है,वैसे ही माया शक्ति भी अखंड है। रेगिस्तान में मृगमरीचिका होती है. स्फटिक शिला दबाई जमीन पर पानी का झलक होगा। इसलिए ब्रह्म शक्ति रूपी माया का दृश्य ब्रह्म का स्वभाव ही रहेगा। ब्रह्म रूप में दृश्य नहीं है। दृश्य रूप में ब्रह्म नहीं है। सदा एक ही विद्यमान है। जो इस रहस्य को जानता है, वही ज्ञानी है। उसको दुख कभी नहीं होगा। अर्थात बोध में ही प्रपंच दृश्य होता है। वह बोध में ही स्थिर रहता है। उसका मिट जाना भी बोध में ही है। लेकिन बोध नहीं है, कहनेवाला भी बोध ही है। बोध मात्र है।
3609. भारत में वाल्मीकि लिखित रामायण कहानी में ,परमात्मा के प्रतीक श्री राम की पत्नी पराशक्ति का प्रतिबिंब सीता, मन को मोह के प्रतिबिंब स्वर्ण हिरन पर हुई इच्छा के कारण, उनको जीवन भर दुख हुआ। इसलिए लालची मनुष्य को होनेवाले महा दुख को ही रामायण में वाल्मीकि बताते हैं। अर्थात सीता राम के साथ रहते समय परमानंद स्वरूप में था। सीता अपनी इच्छा के कारण ही दुखी रही। वैसे ही मन में जब इच्छा होती है,तब दुख भी आ जाता है। आत्मा रूपी श्रीराम को भूल जाने से ही सभी प्रकार के दुख आ जाते हैं।अतः जो कोई दुख से विमोचन पाना चाहते हैं, उसका मन आत्मा रूपी राम से मिलकर एक क्षण भी बिना हटे रहना चाहिए। तभी परमानंद को भोगकर परमानंद स्वरूपी हो सकते हैं।
3610. जो अविवेकी सबके परम कारण बने आत्मा रूपी अपने में अपने मन को प्रतिष्ठा नहीं कर सकते ,वे ही संकल्प-विकल्प बंधन के जेल से मुक्त न होकर तडपते रहते हैं। लेकिन रूप की सच्चाई जानकर जिन के मन में इच्छा नहीं है,उनका मन ही आत्मा से जुडकर आत्मा बन सकता है। उनके कालातीत ही शांति नामक स्वर्ग है। रूप सच्चाई को कैसे एहसास कर सकते हैं? 10 किलो स्वर्ण लेकर एक आभूषण दूकानदार दस हज़ार आभूषण बनाता है। चंद साल के बाद उन दस हजार स्वर्ण आभूषणों को पुनः सोने का डला बनाता है। आभूषण केवल नाम मात्र है। स्वर्ण को भूलनेवाले ही चूडियाँ, अंगूठी,हार कहते हैं। सचमुच हार, अंगूठी, स्वर्ण है।दूसरी कोई वस्तु कहीं नहीं है। स्वर्ण मात्र है।इस प्रकार ही निराकार मैं,रूपी अखंडबोध प्रपंच मे बदलने पर भी दूसरी एक वस्तु प्रपंच में नहीं है। पुनः प्रपंच अखंड बोध में बदलते समय बोध मात्र ही है।स्वर्ण नहीं तो आभूषण नहीं है। वैसे ही बोध नहीं तो प्रपंच को देख नहीं सकते।
3611. जिन्होंने आत्मज्ञान में पूर्णत्व पाया है,वे ही यथार्थ गुरु होते हैं। गुरु को ही उपदेश देने की योग्यता होती है। सत्यवान को और सत्य के चाहकों को ही गुरु उपदेश देंगे।रामायण में रावण,महाभारत में दुर्योधन जैसे अहंकारियों को गुरु ज्ञान का उपदेश न देंगे। उन पर दया करके उनको उपदेश देने पर भी वे उपदेश को स्वीकार न करेंगे,उपदेश देनेवालों को अपमानित करेंगे।
3612. झोंपडी से लेकर बंगला तक पद जो भी हो पद पर रहनेवालों के नीचे जो हैं,उनकी सहायता के बिना पद पर रहनेवले चैन से रह नहीं सकते। वैसे ही एक भगवान की सृष्टि में मिलकर अनेक में बदलते समय अपने योग माया के द्वारा जीवों में प्राण भय उत्पन्न करते हैं। मन में समता न होने से ही भय होता है। अनेकता में सम दशा न होगी। मन समदशा न होने पर अनेकता न रहेगी।यथार्थ पद का मतलब है मन में सम स्थिति प्राप्त करना। इसी कारण से देवलोक,भू लोक, परिवार,समाज और राज्य में रहनेवाले समता लाने में अप्रत्यक्ष रूप में अस्वीकार करते हैं। जो पद चाहते हैं, वे सम दशा पर रह नहीं सकते। ईश्वरीय शक्ति माया को लेकर भगवान अपनी लीला करने के लिए निश्चल परमात्मा रूपी अपने अखंड बोध को अपनी शक्ति माया अज्ञान रूपी अंधकार को ढककर एकाकार को अनेकाकार बनाकर अनेकता को बना बनाकर खेलते रहते हैं।वह माया भरी क्रीडा ही यह ब्रह्मांड होता है। सत्य में मैं रूपी अखंडबोध ही नित्य सत्यपरमानंद स्वभाव से स्थिर खडा रहता है।
3613.विवेक और क्षमता रहनेवाले को बकरी को गधा बनाने के जैसे कायर न बनाकर अराजकत्व चाहनेवाले आत्मबोध रहित आत्मज्ञान रहित अविवेकी राजा राज्य का शासन नहीं कर सकता। वे सोच रहे हैं कि सर्वांतर्यामी परमात्माा सूर्य को अपनी उँगलियों से छिपा सकते हैं। इसीलिए उनको बहुत बडा पतन होता है। संसार और शरीर के परम कारण अखंडबोध ही है। जो राजा इस ज्ञान को समझकर दृढ बनाकर शासन करता है, उनके शासन में लोग शांति और संतुष्ट रहेंगे। कारण सभी प्रजाओं में जो आत्मा अर्थात् बोध स्वयं बने अखंडबोध के भाग ही समझने से राजा अपने जैसे प्रजाओं से भी प्यार करेंगे।
3614. एक विवाह करनेवाले युवक को समझना चाहिए कि जो पत्नी आनेवाली है वह उसके सभी संकल्पों के अनुकरण नहीं करेंगी। कारण पत्नी कहनेवाली एक मानव मन है। मन प्रकृति है।प्रकृति को स्थिरता नहीं रहेगी। वह तो परिवर्तन शील होती है। वह संदेह का आकार है। उसके कारण वह अज्ञान का अंधकार होती है। आत्मा का स्वभाव प्रकृति के विपरीत होता है। इस आत्मा और प्रकृति से बने तत्व ही अर्द्धनारीश्वर का तत्व है।वह ईश्वरीय शक्ति ही पत्नी के रूप में आती है। वही शिवशक्ति है।अर्थात् प्रकृति पुरुष संगम ही यह प्रपंच और उसमंअंतर्यामी परमात्मा है। अर्थात् सभी जीवों में चलनेवाला प्रणय अर्थात् प्यार। जब इसका एहसास करते हैं ,तभी पारिवारिक जीवन आनंद होगा।
3615. जो अपने शरीर और संसार को सत्य मानते हैं, वे शास्त्र सत्य को न जानते हैं, वे अज्ञानी होते हैं। उन अज्ञानियों में ही जाति,मत,वर्ण,आदि भेद होते हैं। उन भेदों के कारण ही राग,द्वेष, काम,क्रोध, सुख-दुख आदि होते हैं। अर्थात् शास्त्र सत्य के ज्ञाता आत्मबोध के एक व्यक्ति उसकेे शांतिपूर्ण मन को इस अज्ञान विषयों में ले जाकर अशांति का पात्र न बनेंगे। इस संसार में स्त्री-पुरुष होते हैं। उनमें जाति-कुल आदि पर ध्यान न देखकर कुछ लोग विवाह कर लेते हैं।काल,देश,जाति,कुल,संप्रदाय न देखकर प्रेम भी कर लेते हैं। इसके कारण है कि उनमें जो आत्मा है,वह एक ही है। इसीलिए दो देखनेवाले मन में एक होने की प्रेरणा होती है।अर्थात् उनके शरीर प्रकृतीश्वरीरूपी महामाया शक्ति होते हैं।
आत्मा शिव होता है।अर्थात् प्रेम की उच्चतम अवस्था में दोनों रूप विस्मरण में एक ही स्थिति में आत्मा सर्वव्यापी बनकर सर्वत्र विद्यमान हो जाने से दूसरा एक जड-कर्म चलन रूप हो ही नहीं सकता। कारण चलन बनी माया में भी आत्मा भरी रहने से अखंड परमात्म बोध में दूसरी एक शक्ति अर्थात् चलन कभी नहीं होगा। वही ब्रह्म स्थिति होती है। अर्थात् जिसमें ब्रह्म बोध होता है,उनको ही मैं ब्रह्म हूँ का ज्ञान दृढ हो जाता है,वे ही परमानंद और अनिर्वचनीय शांति का अनुभव करते हैं। जिनमें द्वित्व है,वे दुख से बाहर नहीं आ सकते। यही परम रूप शास्त्र सत्य है।
3616. इस प्रपंच भर में निराकार ईश्वर दीवार रहित चित्र ही है। इस प्रपंच का ईश्वर सुंदर है। इसलिए ईश्वर को देखनेवाले ईश्वर की सुंदरता को देख सकते हैं। लेकिन जिसको सुंदरता पर मोह है, वे ईश्वर को देख नहीं सकते।कुछ मंदिरों में बडे पत्थर पर बने देव-देवियों को ही आराधना करते हैं। भक्त पत्थर को भूलकर ही देव-देवी से प्रार्थना करते हैं। लेकिन वहाँ पत्थर मात्र है। देव-देवी उनके संकल्प में होते हैं। वैसे ही स्वयं बनेे अखंड बोध में उमडकर आये रूप ही यह प्रपंच होता है। प्रपंच को देखनेवालेे बोध को भूल जाते हैं।. बोध नहीं तो प्रपंच नहीं है। पत्थर नहीं तो देव-देवी संकल्प नहीं होते। इसलिए बोध मात्र सत्य स्वरूप होता है। प्रपंच संकल्प है। संकल्प माया है। माया सृष्टित सब के सब मिट जाते हैं। इसलिए माया द्वारा सृष्टित वस्तुओं को सत्य माननेवाले रूप नाश के कारण दुख का पात्र बनते हैं। संकल्प के कारण बने मन को बोध में विलीन करके दृढ बनाते समय चलन रूपी मन सर्वव्यापी निश्चल बोध के सामने अस्थिर हो जाता है। साथ ही संकल्प का नाश होता है। संकल्प के नाश होते ही सभी प्रकार के दुख नाश हो जाते हैं। अर्थात दृश्यों के मिटते ही दृष्टा मात्र सत्य रूप में स्थिर खडा रहता है। जो कोई प्रपंच दृश्यों में बोध स्वरूप आत्मा को अपने में भरकर देखता है,वह ब्रह्म के बिना दूसरी एक वस्तु को कहीं नहीं देख सकता। अर्थात बोधाभिन्न जगत। अर्थात ब्रहम मात्र है। अन्य दृष्टित अमीबा से ब्रह्मा तक के नाम रूप भगवान के सिवा और कोई नहीं हो सकता। वह सत्य है।वैसे हर एक जीव अपने को भगवान की अनुभूति होने तक जीव को दुखों से विमोचन न होगा। कारण जब तक रेगिस्तान होता है, तब तक मृगमरीचिका दीख ही पडेगी। वैसे। ही ब्रहम नित्य होने से प्रपंच दृश्य भी नित्य होगा ही। कारण ब्रह्म रूप के बिना दूसरा एक किसी भीी काल में दूसरी एक वस्तु बना ही नहीं है।
3617. अपने शरीर और अपने अंग,प्रत्यंग,उपांगों को अपने से अन्य नहीं सोचते। वैसे ही स्वयं बने अखंड बोध में उमडकर देखनेवाले सभी प्रपंच रूप बोध रहित दूसरा बन नहीं सकता। अर्थात बोध मात्र सत्य रूप है।बोध को भूलकर बोध में उमडकर दीखनेवाले शरीर में अभिमान होकर बने अहंकार ही शरीर बना है। वैसे लोगों को ही यह संसार अन्य लगेगा। अन्य चिंतन से बननेवाली भेदबुद्धि,राग-द्वेष, काम क्रोध उनके द्वारा सभी प्रकार के दुख होते हैं। कारण अहंकार नहीं जानता कि अहंकार बोध से आश्रित होकर ही स्थिर खडा है। इसलिए जो कोई अहंकार को मिथ्या,मैं अखंड बोध है का एहसास करता है,केवल वही परमानंद को अनुभव करके वैसा ही बन सकता है।
3618. इस बात को सोचना सिवा मूर्खता के और कुछ नहीं है कि एक मनुष्य शरीर में होनेवाले सभी चलन क्रियाएँ मनुष्य के अनजान में ही जो चलाता है, उसको इस जीव के लिए जो कुछ आवश्यकता है उन्हें वह नहीं जानता। हर एक जीव में भगवान रहकर ही इस शरीर को उपयोग करके सभी कार्य कर रहे हैं, पर अहंकारी मानव भगवान को भूलकर इस संसार को अपने अधीन लाने को सोच रहा है। लेकिन आज तक कोई भी राजनीतिज्ञ संसार को सीधा बनाने को सोचता नहीं है।महान भी सोचकर व्यवहार नही्ं करते। कारण यह संसार नहीं है।इसी कारण से इस संसार को सीधा नहीं कर सकते। इसीको एक हद तक वैज्ञानिक भी मानते हैं। उदाहरण स्वरूप एक स्कूल के विज्ञान के अध्यापक एक मेज़ को देखकर यही सिखाते हैं कि इसमें प्रोटान और एलक्ट्रान है। पर यह नहीं सिखाते है। कि इनका उत्पत्ती स्थान मैं रूपी अखंडबोध है। वेदांत ही यह सिखाता है।
3619.जो अपने संसार को अपने से अन्य रूप में देखने के जैसे अपने शरीर को,मन को बुद्धि को,प्राण को अपने से अन्य रूप में देख सकता है, वही मैं शरीर से बना है के विचार से यह महसूस कर सकता है कि संसार और शरीर का परम कारण बने अखंडबोध स्वयं ही है। उस स्थिति को जब पाते हैं, तभी एहसास होगा कि मैं रूपी अखंड बोध जन्म मरण रहित स्वयंभू है, वह अपरिवर्तनशील है, वह स्वयं प्रकाश रूप है, वह अनंत है, वह अनादि है।तभी यह शरीर और संसार मैं बने अखंडबोध में अपनी शक्ति माया दिखानेवाले एक इंद्रजाल मात्र है। वह बोध का एक भ्रम है, उस भ्रम में भी मैं रूपी अखंड बोध भरे रहने से स्वयं का अखंडबोध मात्र ही स्थिर रहता है। इस बात को एहसास करके अपने स्वभाविक परमानंद को भोगकर वैसा ही रह सकता है।
3620. पंचपांडव रूपी पंचेंद्रियों को दुर्योधन रूपी अहंकार नियंत्रित घमंडी दुःशासन के द्वारा पांचाली के मन को कलंकित करते समय पांचाली वस्त्र तजकर दोनाें हाथों को जोडकर ऊपर उठाकर परमात्मा कृष्ण से अभय की माँग की है। जब मन परमात्मा में ही लग जाता है, तभी सभी दुखों से विमोचन मिलेगा। तब तक जीव का मन चित्त विकार काम-क्रोधका गुलाम बनकर अहंकार के हाथ में फँसकर दुखी होगा।
3621. साधारण मनुष्य जो अपनाा है,उससे संतुष्ट न होकर अपना जो नहीं है,
उन सबको अपनाने की इच्छा रखताा है,यह मानव स्वभाव है। इसी कारण से पति और पत्नी दोनों शादी के बाद एक दूसरे को न चाहकर दूसरे स्थान में सुख के लिए भटकते हैं। अर्थात् जो कुछ वे ढूँढते हैं, वे सब आत्मा में अर्थात् अखंडबोध में है। यह आत्मज्ञान न होने से ही अभिलाषाएँ होती है। इसलिए शरीर और संसार को विवेक से जान-समझकर अनित्य विवेक द्वारा शरीर अनित्य है, आत्मा सत्य है के ज्ञान के होते ही असत्यय शरीर पर इच्छा न रखकर आत्मा से प्यार होगा। वैसे आत्मा से प्यार होने के बाद ही आत्मा का स्वभाव परमानंद को निरुपाधिक रूप में स्वयं अनुभवव करके आनंद होकर वैसा ही बन सकते हैं।
3622.एक कूडेदान में एक हीरे की अंगूठी है तो वह कूडों के बीच चमकेगी। उसकी प्रकाश की किरणें देखकर जो उसे लेना चाहता है,उसको पहले कूडों को उठाकर हटाना है। जो कूडों को निकाल नहीं सकता, वह अंगूठी प्राप्त नहीं कर सकता। वैसे ही अपना शरीर एक कूडेदान है। उसमें से ही आत्मा रूपी हीरा पंचेंद्रियों में मिलकर चमक रही है। जो कोई आत्मा रूपी हीरा पाना चाहता है तब उसको आत्मा को छिपानेवाले मन,बुद्धि प्राण और शरीर के कूडोंं को पहले मिटाना चाहिए। मन के कूडे को कैसे निकालना चाहिए? यह चिंतन करना चाहिए कि मैं मन,बुद्धि, प्राण नहीं है,मैं इन सब के साक्षी स्वरूप आत्मा हूँ। इन ज्ञान की भावनाओं को मन में दृढ बना लेना चाहिए कि मन में,बुद्धि में प्राण में शरीर में रहनेवाली सर्वव्यापी आत्मा ही भरी रहती है। वैसे आत्मा सकल चराचरों में भरी रहती है कि भावना बढाते समय नाम रूप खुद छिप जाएगा।
साथ ही स्वयं आत्मा बने अखंड बोध का ज्ञान दृढ होगा। साथ ही आत्मा के परमानंद को स्वयं भोग सकते हैं। वैसा ही रह सकते है। अर्थात् अपनी शक्ति माया अखंडबोध है। अपने को अकारण बंद करने से ही स्वरूप विस्मृति होती है। उस स्वरूप विस्मृति से स्वरूप स्मृति आने के मार्गों को ही सृष्टि के आरंभ में ब्रह्म से उमडकर आये वेद और उपनिषद बताते हैं। ब्रह्म ही ऋषि बनकर ढंग से लिखकर रखा है।
3623. जो कोई इस जन्म में मनुष्य आत्मा को मुख्यत्व देकर जिंदगी को अर्पण करता है, वह अनेक जन्मों में माया के बंधन में जीवन बिताकर आत्म प्यास के साथ चल बसा होगा। वही स्वयं गुरु हो सकता है। एक आत्म उपासक को अमीबा से ब्रह्मा तक किसी भी रूप को बुद्धि में रखना नहीं चाहिए। जिस रूप को सोचकर जीव मरताा है,उसी रूप लोक को ही जीव जाएगा। इसलिए देव-देवी के दर्शन देने पर भी ,सद्गुरु के लाभ होने पर भी शरीर रूप में मन लगाना नहीं चाहिए। कारण शरीर रूप सब जड कर्म चलन माया ही है। इसलिए रूप रहित अखंडबोध ही स्वयं है को दृढ बनाकर सब में अपने को ही दर्शन करके बोध स्वरूप आत्मा का स्वभाव परमानंद और अनिर्वचनीय शांति का अनुभव करना चाहिए। वैसे स्थितप्रज्ञ और ब्रह्म दर्शन भी मनुष्य की अज्ञानता मिटाकर ज्ञानमार्ग को स्पष्ट करेगा। लेकिन अपने आप को ही एहसास करके बोध से ज्ञान की दृृढताा होने पर ही स्वयं को साक्षात्कार कर सकते हैं। गुरु के मार्ग दर्शन मिलने पर भी अपने आपको महसूस करना चाहिए। अपनी रक्षा खुद करनी चाहिए। वैसे करने से सत्य से स्वयं न हटकर चित्त खुद मिट जाएगा।मैं रूपी सत्य मात्र नित्ययानंद के रूप में स्थिर खडा रहेगा।
3624.रामाययण, महाभारत,भागवत्, वेद आदि के रचयिता कौन है? कब लिखा है? कहाँ लिखा है? इनकी खोज करके प्रपंच के मूल की खोज में जाना निरर्थक होता है। कारण प्रपंच तीन कालों में नहीं रहता।लेकिन ईश्वरीय शक्ति माया के द्वारा सृष्टि, स्थिति और संहार चलते रहते हैं। वैसे ही वेद सृष्टि के आरंभ में ही रचित है। क्योंकि ब्रह्म ही वेद रूप में,अक्षर रूप में आते हैं। अर्थात् वह ब्रह्म ही माया शरीर को स्वीकार करके ऋषियों के रूप में नियमानुसार वेद और उपनिषदों को बनाया है। वह अज्ञानी जीवों को ज्ञानी बनाने के लिए ही है। लेकिन एक रूप अनेक रूप में दीख पडना निश्चल ब्रह्म अपनी स्थिति से परिवर्तन न होकर स्वयं ही चलन शक्ति के रूप में रहकर बनाये गंधर्व नगर ही यह प्रपंच, प्रपंच की भूमि और सभी ग्रह, जीव और उनके जीवन होते हैं।उदाहरण स्वरूप रेगिस्तान की मृगमरीचिका देखकर उसको पानी समझकर हिरन दौडते रहते हैं। दौड-दौडकर मर जाते हैं। हिरन का प्यास कभी बुझा नहीं है। वैसे सत्य के अज्ञात, आत्मबोध रहित अविवेक मनुष्य अधिक होते हैं। जो है,उसका नाश नहीं होता। जो नाश होता है,उसका अस्तित्व नहीं होता। जो है, उसको बनने की आवश्यक्ता नहीं है।
ब्रह्म स्वयंभू है। इसलिए उसका नाश नहीं होता। लेकिन ब्रह्म में यह प्रपंच दृश्य बनाया -सा लगता है। अतः वह नश्वर होता है। वास्तव में वह तीनों कालों में नहीं रहता। लेकिन है सा लगता है। वह बोध का भ्रम है। अपनी शक्ति माया ही इसका कारण है। ब्रह्म एक है,अनेक नहीं है।कारण ब्रह्म अपरिवर्तनशील है। जो सोया है,वह अपने स्थान से हटता नहीं है। लेकिन वह स्वप्नन में एक ब्रहमांड को बनाकर उसमें व्यवहार करके सुख-दुखों का अनुभव करके नींद के टूटते ही कुछ नहीं रहता। उसके स्वप्न लोक में भी वह नहीं है। लेकिन यथार्थ-सा अनुभव होता है। वैसे ही ब्रह्म न हिलकर चलायमान प्रपंच की सृष्टि करके अपनी लीला रचता है। अर्थात् यह प्रपंच एक स्वप्न ही है। जो इस शास्त्र सत्य को मिथ्या सोचता है,वह दुखी रहेगा। जो सत्य जानता है, उसको आनंद मिलेगा।इसलिए मैं यह शरीर और संसार नहीं है,इनके परम कारण मैं रूपी अखंडबोध ही है। इस ज्ञान को जो भी 3625.सभी यज्ञों से ब्रह्म यज्ञ ही बढिया है। ब्रह्म यज्ञ के लिए धन,वस्तु और मनुष्य की ज़रूरत नहीं है। उसके लिए स्थान की भी ज़रूरत नहीं है। जो ब्रह्म यज्ञ करना चाहता है, उनको पहले इस शरीर और संसार को जानना समझना चाहिए। तब सत्य और असत्य का पहचान होगा। नश्वर और अनश्वर का पता चलेगा। उनमें शरीर और संसार नश्वर होता है। बोध ही अनश्वर है, जो नश्वर का कारण है। मैं का अनुभव बोध नहीं है तो यह शरीर और संसार नहीं रहेगा। शरीर और संसार न होने पर भी मैं रूपी बोध सत्व अनश्वर होकर स्थिर रहता है। इस बोध के लिए अमुक स्थान या काल नहीं है। वह सर्वव्यापी सर्वकाल स्थित मैं रूपी अनुभव ही है। बोध सर्वव्यापी होने से दूसरी एक वस्तु हो नहीं सकता। प्रपंच ही दूसरी वस्तु होने के जैसा लगता है। यह परस्पर विरोध है। क्योंकि प्रकाश से अंधकार और अंधकार से प्रकाश नहीं हो सकता। लेकिन अंधकार होने सा लगता है।प्रकाश की पूर्णता में अंधकार मिट जाता है। वैसे ही अखंडबोध में प्रपंच रूप अस्थिर हो जाते हैं। रूपप जो भी हो, उसमें बोध ही भरा रहता है। बोध को मात्र देखनेवाली आँखों में प्रपंच नहीं होगा। जो जीव स्वयं को अखंड बोध जानकर ,दृश्य जगत में स्वयं बने बोध को मात्र अर्थात् ब्रह्म को मात्र देखता है, वह दर्शन तैलधारा जैसे बनना बनाना ही ब्रह्म यज्ञ है। वैसे ब्रह्म यज्ञ करनेवाला ब्रह्म ही है।
मूल्य हो देकर खोजकर जान-समझकर बुद्धि में दृढ बनाकर मैं रूपी अखंड बोध के स्वभाविक परमानंद को अनिर्वचनीय शांति को अनुभव करके वैसा ही बनना चाहिए।
गलत को विवेक से जान सकते हैं। वैसे ही विवेक से असत्य को छोडकर सकते।कारण मन को बुद्धि नहीं है। जब तक अज्ञानता है तब तक मन समस्याओं को बढाता रहेगा और समस्या से बाहर आने की कोशिश न करेंगे। वह उसका3626.जब एक व्यक्ति दूसरों को गुलाम बनाकर चोरी करता है, उस चोरी के द्वारा उसको भय होगा। उस भय से बाहर आने के लिए साधारणतः वह सामाजिक नेता बनता है। लेकिन उसका मन उसके कर्म को समझाता रहेगा।वही उसको प्राकृतिक सजा होती है। प्रकृति अनेक रूपों से उसकी शांति को भंग करती रहेगी। जिस दिन में एक व्यक्ति को महसूस होगा कि अपना सुरक्षा दल समाज, राजनीति,न्यायालय, थाना,रिश्तेदार आदि नहीं है,और रक्षक भगवान ही है। वह भगवान अपनी अहमात्मा है,उस दिन में ही आत्मज्ञान की अग्नि में ही उसके अपने पाप-कर्म जलकर भस्म हो जाएँगे। उस दिन से ही उसको सही और सत्य में दृढ रहने से जो आनंद चोरी करने से मिलता है,वही आनंद मिलेगा। वह स्वयंभू आत्मा का स्वभाव है को जान-समझ कर अनुभव कर सकते हैं।तभी सभी दुखों से निवृत्ति पाकर आत्मा बनकर स्वयं परमानंद को भोगकर जिंदगी को सार्थक बना सकते हैं।स्वज्ञान के बिना दंड देकर मन को सुधार नहीं कर स्वभाव होता है।
3627. वृद्ध माता-पिता के हाथ-पैरों को बल कम होगा। वृद्धावस्था में अपनी सुरक्षा की इच्छा से ही बच्चों को पैदा करते हैं। जो अपने बच्चों को माता-पिता के महत्व समझाते नहीं, वे ही बुढापे में असहाय होेते हैं। जो पारिवारिक जीवन जीना चाहते हैं, उनको आत्मज्ञान सीखना चाहिए। अपने बच्चों को भी सिखाना चाहिए। तभी ईश्वर से दिए गए उम्र के अंत होने के पहले होनेवाले सुख-दुख में बच्चे उनकी रक्षा करेंगे। कारण आत्मज्ञान होने के साथ यह भावना होती है कि
सब के सब भगवान है। साथ ही भेदबुद्धि रागद्वेष और उसके होनेवाले दुख भी मिट जाएँगे।
3628. मन को अनासक्त बनाना है तो आत्मज्ञान सीखकर प्रिय-अप्रिय को सम दशा में लाकर आत्मा के महत्व को बुद्धि में दृढ बना लेना चाहिए। तभी आत्मज्ञान बुद्धि स्थिर स्थायी रहेगी। साथ ही मन विषयों के ग्रहण में शक्ति रहित होगा। अर्थात् जो आत्मज्ञान नहीं जानते और अज्ञानियों के मन ही विषयों के पीछे पडेंगे। जिसमें आत्मज्ञान है, वे एहसास कर सकते हैं कि आत्मज्ञान होने से विषयों से मिलनेवाला सुख आत्म सुख स्वभाविक है। उस ज्ञान की दृढता के कारण मन विषयों के ग्रहण में शक्ति रहित हो जाता है। तब मन अपने उत्पत्ति स्थान को जाएगा। तब चंचल मन निश्चल आत्मा में विलीन हो जाएगा।कारण निःचलन में चलन किसी भी काल में स्थिर खडा नहीं हो सकता। जब तक मन स्थिर खडा रहता है,तब तक मृत्य का भय रहेगा। मनोनाश के होते ही भय अभय हो जाएगा और भय का अस्त होगा। कारण जो बाकी वह आत्मा मात्र है। वह आत्मा जन्म-मरण रहित है। वह सर्वव्यापी है। जो वह आत्मा स्वयं ही को पक्का बना लेता है, वह परमानंद और अनिर्वचनीय शांति को स्वभाविक रूप से अनुभवव कर वैसे ही बनन सकतेे हैं।
3629. किसी एक के हृदव में सुई चुभने के स्थान में भी कोई रिश्ता होता तो उसके हृदय में भगवान नहीं बसते। वहाँ माया ही बसती। भगवान हृदय में रहने पर सुख ही होगा। दुख कभी नहीं होगा।कारण भगवान का स्वभाव परमानंद है। उसको बिना अनुभव किये दुखी होने के कारण ईश्वरानुभूति न होना ही है। अर्थात हृदय में जो भगवान बसता है, उसे मन रूपी महामाया छिपा देने से ही आनंद का अनुभव नहीं कर सकते। मनोमाया को मिटाने पर ही अहंब्रह्मास्मी का एहसास होगा। मन को मिटाना वायु का नियंत्रण के प्रयत्न के जैसे ही है। जो आत्मा को मात्र मानकर अन्य विषयों में मन न लगाकर आत्मा को मात्र सोचने से ही ज्ञान की दृढता होगी ,तब मन को आसानी से वश में रख सकते हैं। नियंत्रित मन आत्मा ही है।
3630. किसी एक का संदेह पूर्ण रूप से बदलते तक गुरु अत्यावश्यक होते हैं।
संदेह पूर्णतः मिटने पर गुरू की ज़रूरत नहीं होती। उदाहरण के लिए एक सुनार
स्वर्ण को आभूषण बनाने तक पीटता रहेगा। आभूषण बनाने के बाद पीटने को बंदकर देगा। वैसे ही गुरु से शिष्य को अनुभव मिलेगा। उसको गुरु से आत्मज्ञान के मिलते ही महसूस होगा कि मैं शरीर नहीं, शरीर के कारण बने अखंडबोध ही है। वह खुद गुरु बनेगा। उस स्थिति में ब्रह्मा,विष्णु शिव आदि त्री मूर्ति वही है। ब्रह्मा कहते समय वह अखंडबोध में दृष्टित एक नामरूप ही है। ब्रह्म बोध में नाम रूप को देखनेवाला ब्रह्म को भूल जाता है। ब्रह्म को जो भूलता है, बोध को जो भूल जाता है, उसको दुख होगा। नाम रूप में भी बोध के दर्शक को आनंद होगा।
स्वयंभू बने अखंडबोध में स्वयं उमडकर आये नाम रूप ही ब्रह्मा होते हैं। वह ब्रह्म संकल्प ही संपर्ण विश्व होता है। यथार्थ में बोध में उमडकर आये ब्रह्म ब्रहमा का अर्थ प्रपंच मन को ही ब्रह्मा कहते हैं। वह विश्व मन ही प्रपंच को विकास किया है। बोध में उत्पन्न प्रपंच रेगिस्तान की मृगमरीचिका ही है। जो इसको एहसास करता है, वही बोध का स्वभाव परमानंद को भोग सकता है। जो वैसा नहीं है,उसको दिनों दिन दुख ही होगा।
3631. जो मनुष्य जानता है कि भला करने पर भला होगा, बुरा करने पर बुरा होगा। जो इस बात को नहीं जानता, वह मनुष्य ही उन्नत पद पाकर बडे बडे अपराध करते हैं, कराते,करवाते हैं। वैसे आदमी ही मायाा भूमी,स्त्री, स्वर्ण ,नाम,यश पद आदि में फँसकर नित्य दुख के पात्र बनते हैं। इस बात पर विश्वास नहीं होता कि भला करनेे पर भलाा होगा।इस अविश्वास के कारण उसमें आत्म विश्वास नहीं होता। उनको जानना-समझना चाहिए कि आत्मा ब्रह्म होती है, जीवात्मा की स्थिति से परमात्मा स्थिति पाकर मनुष्य ब्रह्म बनता है। वास्तव में म भगवान से भिन्न कोई मनुष्य या वस्तु नहीं है। इसलिए जीव अपने पूर्णत्व पाने के लिए अपने प्रयत्न से ही साध्य करेगा, और कोई शक्ति से न होगा।कारण मैं रूपी बोध नहीं तो और कुछ नहीं होगा।
3632. किसी एक का विद्या ज्ञान उसके मन की शांति को भंग करके रिश्तेदार,देश तजकर, न्याालय, थाने में भटकाकर आत्म हत्या तक ले जाता है।
ऐसा शिक्षाज्ञान यथार्थ विद्या नहीं है, वह अविद्या ही है।उसको मूर्ख ही कह सकते हैं, विवेकी नहीं कह सकते। वह केवल भूख मिटाने केे लिए सहायक है, वह मानसिक शांति नहीं देती तो वह विद्या व्यर्थ ही है। जानवरों को आहार देने पर सानंद रहेगा। जानवरों के सुख केवल शरीर तक ही है। पर मनुष्य के लिए केवल शारीरिक सुख पर्याप्त नहीं है। उसको मानसिक शांति भी चाहिए। उस मनुष्य को विवेकी नहीं कह सकते,जो मानसिक शांति और आनंद दे नहीं सकता।आत्मज्ञान ही मानसिक शांति और आनंद दे सकता है। इसलिए जो देश आत्मज्ञान को प्रधानता दे नहीं सकता, वह देश नरक ही होता है। आत्मज्ञानियों का देश ही शांति उत्पदक उपजाऊ भूमि होगी।
3633. जिसको दूसरों की आवश्यक्ता होती है,वह शून्य ही है। जिसको दूसरों की आवश्यक्ता नहीं होती, वह नायक होता है। अर्थात् अहंकारी ज़ीरो होता है, आत्मावाला हीरो होता है। आत्मा एक होता है, अहंकारी अनेक होता है। अनेक झूठ होते हैं, एक सत्य होता है।
3634. विश्व में कोई एक ही एहसास करताा है कि प्रपंच का ब्रह्म आत्मा ही है। उसको कहीं भी किसी भी प्रकार का भय नहीं होगा। एक जीव को जब तक इसका एहसास नहीं होगा, तब तक दुख से छुटकारा नहींं मिलेगा। क्योंकि एक ही ब्रह्म ही स्वयंभू है, नित्य है, परमनंद है, अनिर्वचनीय शांति के रूप में खडा रहता है। इसको एहसास करके ही आत्मज्ञानी अपने को ही सर्वव्यापी मानकर स्वभाविक रूप में संसार में जी रहे हैं। कोई भी उसके विरुद्ध बोल नहीं सकता और कर्म नहीं कर सकता। सांसारिक नीति-नियम कोई भी उसका बाधक नहीं होगा। सभी नीति-नियम को आत्मज्ञानी अतीत रूप में ही क्रियानक्रियान्वित करेगा। उन के लिए सब के सब आनंदमय ही है।
3635. सांसारिक जीवन चलानेवाला, दूसरों के मार्ग का रोडा बनता है। स्वार्थ के कारण उसको नष्ट ,नष्ट से कष्ट होगा। कारण दूसरों के शाप और अपने किये अपराध भावना के कारण शांति भंग होगी।मन की शांति बिगड जाने से भय, भय के कारण बल कम होगा। इसलिए इच्छा शक्ति दुर्बल होकर विपरीत बुद्धि होगी। उसको अविवेकी बनाकर स्वयं नाश की ओर ले जाएगा। आत्म ज्ञान की कमी के कारण ही सांसारिक जीवन चलता है। अपने में जो आत्म निधि है अर्थात् कामधेनु है, उसको उपयोग करके आनंद का अनुभव न करके दुखी होनेवालों को देखकर पश्चात्ताप होने से कोई लाभ नहीं होता। जो भी दृश्य है,वे सब बोध का भ्रम ही है। जो विवेकी है, वह भ्रम में भी आत्मा रूपी अपने को ही दर्शन करके अपने स्वभाविक परमानंद को भोगता रहेगा।
3636. सीधे मार्ग पर जाते समय सत्य और धैर्य होगा।इसलिए इच्छा शक्ति को बल बढेगा।वह उसको सफलता की ओर ले जाएगा। सीधे मार्ग का मतलब है मन के मार्ग पर न जाकर मनःसाक्षी के अनुसार जाना ही सीधा मार्ग है। वैसे लोग ही जीवन के अंत में मैं शरीर नहीं हूँ, आत्माा हूँ , इसका महसूस करके जन्म मरण रहित अमर जीवन पाएगा।
3637. झूठ बोलना, मनःसाक्षी के विरोध कर्म करना उसको भयालू बनेगा। भय संदेह को उत्पन्न करेगा। संदेह अज्ञानता को ,अज्ञान बुद्धि भ्रम को उत्पन्न करेगा। वह भ्रम विवेक को छिपाकर कर्मों की सृष्टि करेगा । वे कर्म नाश की ओर ले जाएगा।
3638. जन्म सिद्ध संगीत,नृत्य,नट आदि कलाओं के कलाकार अपने अहमात्मा कामधेनु रूपी भगवान के लिए ,आत्मज्ञान के लिए कलाओं का इस्तेमाल न करके धन कमाने के लिए कला को बेचते हैं। उनकी हालत उस संन्यासी जैसेे होगी जो चिंतामणी के लिए कई साल तपस्या करके कांच के टुकडे को चिंतामणि समझकर ले आया हो।अर्थात चिंतामणी वह वस्तु है, उससे जो भी माँगो दे सकती है। उस चिंतामणि के लिए तपस्या करने गये तपस्वी को तपस्या के शुरु करते ही स्वर्ग से वह यथार्थ चिंतामणी संन्यासी के सामने गिरी।
लेकिन संन्यासी को उस चिंतामणी पर विश्वास नहीं आया। उसने सेचा कि
लंबी तपस्या के बाद ही चिंतामणी मिलेगी। फिर जंगल में कठोर तपस्या के लिए गया। तब उसको एक काँच का टुकडा मिला। उसे लेकर घर आया। संन्यासी का जीवन बेकार हो गया। उसको न शांति मिली ,न आनंद मिला। दुख ही मिला।
3639. पवित्र पद से पैसे कमानेवालों को दूसरों की भूख मिटानी चाहिए।नहीं तो उनके पैसे शव के समान है। सही मार्ग पर पद संभालनेवाला परलोक जाएगा। स्वर्ग उनका है। सभी धर्म अर्थात् दान-धर्म, पुण्य आदि सब कर्म के अंतर्गत होने से वह स्थाई आनंंद नहीं है,निरंतर शांति नहीं है।इसीलिए गीता में श्री कृष्ण ने कहा है कि धर्म-अधर्म को छोडकर मेरे शरण में आ जाओ। कर्म जड और चलन है। चलन और प्राण चलन कई रूपो में ,भावों के शरीर और संसार के रूप में परिवर्तित है।लेकिन प्राण की उत्पत्ति मैं रूपी अखंडबोध से ही है। बोध रहित स्थान से प्राण उत्पत्ति नहीं हो सकता। बोध निश्चलन और अखंड है। वह सर्वव्यापी होने से उससे दूसरी वस्तु नहीं हो सकता। दूसरा चलन, दूसरा दृश्य किसी काल में हो नहीं सकता।यह शास्त्र सत्य है। यह ऋषियों से साक्षातकरित
अनुभव ही है। जो इसका अनुभव नहीं करता, इस प्रपंच युक्ति का पता लगा नहीं सकता। निश्चलन से एक चलन नहीं होगा। इसलिए यह शरीर और संसार तीनों कालों में बना नहीं है। लेकिन उत्पन्न होने सा लगता है। वह रेगिस्तान की मृगमरीचिका जैसे है। साँप -सा लगनेवाली रस्सी जैसी है। सत्य मैं रूपी अखंड बोध ही है।
3640. आत्मा के सान्निध्य से है लगना ही बुद्धि है। उस बुद्धि को स्वयं प्रकाश नहींं है।आत्मा के प्रकाश से ही बुद्धि का प्रकाश -सा लगता है। वह जड और सीमित बुद्धि लेकर असीमित आत्मा को जान नहीं सकते। आत्म को कैसे जान सकते हैं। मन से कोई संकल्प न लेने पर आत्मा से आश्रित बुद्धि,मन,अंतःकरण सब मिट जाएँगे। सीमित चलनशील वस्तुएँ निश्चल आत्मा में स्थिर खडा रह नहीं सकता। बुद्धि और मन के मिटते ही बाकी जो है, वह आत्मा ही है। आत्मबोध को स्थिर करके संकल्प को मिटा देना चाहिए।तभी आत्मा के चलन स्वभाव की शांति और आनंद सहजता से मिलेंगे।
3641. बुद्धि से व्याख्या करनेवालों पर विश्वास करनेवालों को नहींं मालूम हैै कि विश्वास क्याा है। अति तेज से चलनेवाले वाहन के आगे अचानक एक जीव आने पर बुद्धि काम करने के पहले जो ब्रेक दबाता है,वही मनुष्य हमारे हृदय में रहेगा। वही भगवान है। उनपर विश्वास करनेवाला ही विश्वासी है। अर्थात् बोध ही शरीर को उपयोग करके सब कुछ करता है। हाथ,पैर,इंद्रिय नहीं कहते कि मैं ही इसको क्या है।
3642. जो परमेश्वर ,आदी शिव,अर्थात नित्य मंगल स्वरूप परमात्मा,परब्रह्म अर्थात नित्य मंगल स्वरूप बने अखंड बोध स्वरूप में अपने को संपूर्ण रूप में समर्पण करता है, उसपर इस प्रपंच के कोई ग्रह दोष प्रभाव नहीं डाल सकता।
कारण उन तक पहुँचने ग्रह डरेंगे ही। साधारणतः ग्रह मनुष्यों के भला-बुरा देखकर आत्मज्ञाही उन पर प्रभाव डालेगा। ग्रह आसानी से उनपर अपना प्रभाव डालेगा, जिनमें आत्मबोध नहीं रहता, अहंकार होता है, मैं-मेरा की स्वार्थ भेद बुद्धि होती है,रागद्वेष होता है,काम,क्रोध,लोभ,मोह,मद,मत्सर, रूप,रस,गंध,स्पर्श विकार होते हैं। पर जो परमेश्वर की शरणागति में है,उनसे ग्रह डरेंगे। कारण परमेश्वर को छूनेवाला स्वयं ही गायब हो जाएगा। मार्कंडेय पुराण इसका प्रमाण है। अर्थात् मार्कंडेय को मारने आये यम का प्रसंग हो जाएगा,भक्त को नाशस करने आये ग्रहों की दशा। जिसमें पूर्ण रूप में पवित्रता है, उसको इस संसार में कोई भी प्राकृतिक शक्ति तनिक भी हानियाँ नहीं दे सकती। कारण मैं रूपी अखंडबोध ही पूर्ण रूप में पवित्र है। वह अखंड बोध ही सदाशिव, नित्यमंगल स्वरूप,विष्णु ब्रह्मा और सभी जीवों में परिवर्तन होते हैं। जो कोई अपने जीव के प्रतिबिंब बोध की सीमा को आत्माज्ञान से तोडकर अखंडबोध के रूप में विकसित करता है, उसीको एहसास होता है कि सभी ब्रह्मांड अपने से ही उत्पन्न हुए है, अपने में ही स्थिर खडा रहता है, अपने में ही मिट जाता है। उसका स्वभाव ही परमानंद और अनिर्वचनीय शांति है। अर्थात् अखंडबोध माया के कारण जीव के रूप में रहते समय ही अपने में यह खेल होता है। जिस दिन आत्मा को पूर्ण रूप से साक्षचातकरित है, साथ ही भगवान,भक्त, प्रार्थना,तप,ध्यान आदि अस्त हो जाते हैं। एक ही एक निश्चलन अखंडबोध मात्र परमानंद अनुभव लेकर स्थिर खडा रहेगा।
3643. मंदिर दर्शन में हर एक भक्ति का माप उनके अंगलक्षण से जान-समझ सकते हैं। दोनों हाथों को छाती से मिलाकर प्रार्थना करने से जानना चाहिए कि भगवान को वह अपने अनजान में ही महसूस करता है। वैसे ही दोनों हाथों को सिर के ऊपर उठाकर प्रार्थना करनेवाला अपने ऊपर भगवान है को अपने अनजान में ही महसूस करते हैं। वैसे ही दोनों हाथों को कमर के नीचे जोडकर प्रार्थना करनेवाले एक रस्मे के समान समय काटने के लिए लौकिक विषयों को मन में रखकर करते हैं। दोनों हाथों को बाँधकर सिर ऊँचा करके छडी जैसे खडे रहनेवाले अहंकार को न त्यागकर हृदय शून्य होकर खडे रहते हैं। उसी समय भूमी पर लेटकर साष्टांक नमस्कार करनेवाले भूमी के जैसे सहनशील विनम्र अपने को ही ईश्वर के चरणों में संपूर्ण रूप में समर्पण करनेवाले होते हैं। ये सब वे अपने अनजान में ही करते हैं। जो इनको जानते हैं, वे मंदिर को न जाएँगे। क्योंकि ईश्वर सर्वव्यापी और सर्वत्र विद्यमान होते हैं। ईश्वर किसी एक अमुक स्थान में,
अमुक काल में, अमुक मुहूर्त में रहनेवाले नहीं है। भगवान सभी कालों में, सभी मुहूर्त में सभी स्थानों में इत्र-तत्र-सर्वत्र विद्यमान होते हैं। जिनमें आत्मज्ञान है, वे ही समझ सकते हैं। आत्मज्ञानी को जित देखो तितलाल होते हैं। सभी जीवों में रहनेवाले शरीर उनके लिए मंदिर ही है। उनमें जो प्राण है, वे भी देव ही है।
इसलिए उनको भगवान की तलाश में कहीं जाने की आवश्यक्ता नहीं है। वैसे लोग ही आत्मज्ञान के द्वारा अपने को ही ईश्वर की अनुभूति होगी। अर्थात मैं का बोध ही भगवान है। वह अखंडोध होने से उससे दूसरी एक वस्तु या दर्शन किसी भी काल में न होगा।
3644. अनादी, अनंत,अरूप आत्मा के साथ मन विलीन होते समय हृदय में आनंद का स्वभाव आनंद शीतलता का अनुभव होगा। उनसे काम सब मिट जाएँगे। एक नाटक के रंगमंच पर एक गोरे उज्ज्वल बल्ब के सामनेे रंगीले कागज चिपके चक्र घुमाने पर मंच पर खडे अभिनेता अनेक रंगों से दीख पडेंगे। वास्तव में उनको ये रंग नहीं हैं। रंगीले चक्र हटाने पर सब के सब एक ही रंग के होते हैं।
वैसे ही अपने शरीर से बोध रूप आत्मा पंचेंद्रिय से मिलकर संसार को अनुभव करते समय पंच अनुभव होते हैं। लेकिन उन पंच अनुभवों को बोध एकरस के रूप में ही अनुभव करता है। वह एकरस ही परमानंद होता है। उस एक रस के परमानंद को स्थाई रूप में अनुभव करने शरीर ही छिपा रहता है। पर्दे के रूप में जो शरीर है, उसे मिटाने के लिए सब को बोध के रूप में ही देखना चाहिए। बोध से ही शरीर,मन, प्राण आदि की उत्पत्ति हुई है। इसलिए शरीर,मन,प्राण, शरीर देखनेवाला संसार आदि में बोध भरकर देखना चाहिए। तभी सबको अखंड रूप में देख सकते हैं। उस अखंडबोध का स्वभाव ही परमानंद होताा है। वह एक है और एक रस होता है। जो सबको अखंडबोध के रूप में देख सकता है, वही परमानंद की अनुभूति पा सकता है। सबको देखने वाले दुख ही अनुभव कर सकते हैं।
3645. मैं रूपी अखंड बोध ही यह ब्रह्मांड होता है। इस ब्रह्मांड अखंडबोध रूपी अपने से स्वयं के बिना कुछ न होने से लेने-देने छोडने कुछ नहीं होते।
3646. जो मंगल होते हैं, वह शिव है। आत्मा मात्र मंगल है। वह मंगल आत्मा सर्वव्यापी, निश्चल होने से वह किसी भी काल में हिलती नहीं है। लेकिन अपनी शक्ति माया से निश्चल वह चंचल शक्ति माया बनकर एक रूपी अपने को बदलते समय भेद बुद्धि, उनके द्वारा राग दोष,काम-क्रोध होते हैं। वे ही अमंगल होते हैं। वह अमंगल ही प्रपंच है। जो मंगल होते हैं,वे शांति और आनंदप्रद होते हैं। लेकिन यह प्रपंच नित्य दुख ही देता है। कारण वह स्वतंत्र नहीं है, वह परिवर्तनशील होता है। वह बनकर मिट जाने से उस पर विश्वास करके जीनेवालों को नित्य दुख ही दुख होगा। दैनिक दुख देनेवाले प्रपंच रूपी नानात्व को एकत्व रूपी मंगल स्वरूप बनाने का कार्य ही शिवयोग होता है।
3647. परमानंद सागर में एक बूंद पानी ही लघु-सुख (कामानंद)है। जो इसको नहीं जानते,वे ही सागर छोडकर एक बूंद के लिए जीवन को व्यर्थ ही गँवाते हैं। अर्थात मन अहमात्मा को तजकर बाहर देखनेवाले विषयों को भोगते समय होनेवाला सुख ही लघुसुख (विषय कामांध सुख) होता है। उसी समय मन बाह्य सुखों को छोडकर अहं के अहमात्मा को भोगते समय होनेवाला सुख ही परमानंद होता है।
3648. भक्त लोग नवग्रहों में सूर्य-चंद्र को ही शिव-शक्ति ही मानकर आराधना करते हैं। अमावाश्य और पूर्णिमा को विशेष रूप से चंद्र भगवान की आराधना करते हैं। लेकिन वैज्ञानिक राकेट में जाकर चंद्र मंडल में अपने पैर रखकर उसमें से एक मुट्टी मिट्टी लाते हैं। यही वैज्ञानिक और भक्तों के बीच के फरक होते हैं।
लेकिन दोनों में स्थाई आनंद और शांति नहीं है। जो कोई इस शरीर और संसार को विवेक से जान-समझकर सत्य और असत्य को पहचान लेता है, वही प्रपंच के बारे में जीव के बारे में ,प्रपंच और जीव के परम कारण तत्व बोध के बारे में ज्ञान प्राप्त होगा। भक्त हो या वैज्ञानिक उनके कर्म किसकेलिए के प्रश्न के उत्तर स्वरूप यही मिलेगा कि स्वतंत्रता के लिए और आनंद के लिए। लेकिन दोनों को मालूम नहीं होगा कि आनंद और स्वतंत्रता मूल कहाँ है। अर्थात् वह आनंद और स्वतंत्रता के बीच शरीर और संसार के परम कारक मैं के अनुभव को उत्पन्न करनेवाला अखंडबोध ही है। अर्थात बोध स्वरूप परमात्मा का स्वभाव ही परमानंद होता है। जो कोई साक्षात करता है कि मैं शरीर या संसार नहीं ,शरीर और संसार के परम कारक परमात्मा हूँ, वही अनिर्वचनीय शांति,परमानंद और स्वतंत्रता को सहज स्वभाव से भोगकर वैसा ही बनेगा।
3649. इस संसार में सदा मनुष्य संदेह और दुख से ही जी रहा है। उसके सामने यह संसार आश्चर्य और अद्भुत से भरा है। लेकिन उस आनंद को भोगने के लिए उसको माया अपने बंधन में रखकर उसको पराधीन बनाकर भेद बुद्धि, रागद्वेष,काम-क्रोध, उनमें बनाकर यथार्थ प्यार,स्नेह, आनंद ,स्वतंत्रता और सत्य को भोग नहीं सकता। उनके लिए वह सदा तडपता रहता है। भेदबुद्धि,रागद्वेष,संदेह, कर्मबंधन से मुक्ति न मिलने पर स्थाई रूप में आनंद, अनिर्वचनीय शांति प्राप्त नहीं कर सकता। कारण उसकी खोज का मूल नहीं मालूम होना ही है। जो कोई अपने और अपने संसार के बीच के परम कारण जानने के लिए सत्य की खोज करके आत्मज्ञान सीखता है, वही महसूस करता है कि स्वयं परमात्मा है, स्वयं बने परमात्मा ही सर्वव्यापी के रूप में सर्वत्र विद्यमान है। वह परमात्मा ही परमेश्वर है। वह परमेश्वर ही अखंडबोध है। जो कोई अपने को ही अखंडबोध परमेश्वर महसूस करके अपने में शक्ति बनाकर दीखनेवाले संपूर्ण प्रपंच भर स्वयं भरा देखता है, वही परमेश्वर साक्षात्कार होता है। तभी बोध स्वभाव परमानंद भोगकर परमानंद स्वरूप में बन सकता है।
3650. लोकायुक्त ज्ञान को उसकी निस्सारता को तजकर सार रूपी आत्मा के स्थान,व्यवहार , गुण, सुगंध सभी स्वभाव को जो महसूस करता है, वही ज्ञान योगी है। आत्मा के बारे में एक वाक्य में कहना है तो सर्वस्व आत्मा ही है।वह स्वयं ही है। जब मैं स्वयं आत्मा है का एहसास करता है, तभी अपने आत्मस्वभाव आनंद प्रकट होगा। आँखें विविध विषयों को दिखाने पर भी उनपर विश्वास रखना नहीं चाहिए। कारण आँखें उपकरण मात्र हैं। कान विविध ध्वनियाँ सुनती हैं। जीभ षडरसों का स्वाद लेता हैं। नाक नाना प्रकार के सुगंध सूँघता है।चमडा अनेक स्फर्श सुखों को भोगता है। आँख,कान,नाक,जीभ आदि उपकरण मात्र हैं।
इन सब विषयों को भोगनेवाला एक बोध ही है।बोध भोगनेवाले अनुभव सब एक रूप बोध ही है। बोध भोगनेवाले अनुभव सब बोध स्वभाव परमानंद मात्र है।अर्थात् इंद्रिय विषयों के पीछे जाकर गलत अनुभवों को बोध को देते हैं। नीले रंग का चश्मा पहनकर संसार को देखेंगे तो सब के सब नील रंग के ही दीख पडेगा। लेकिन संसार नील रंग का नहीं है। दुर्गंध के स्थान पर वायु दुर्गंध ही लगेगा। सुगंध के स्थान पर सुगंध ही लगेगा। आकाश में वायु, काले बादल,वर्षा की बूंदें ,ग्रह आदि होने पर भी उनसे आकाश पर कोई असर न पडेगा।वैसे ही अखंड बोध स्वरूप भगवान से अन्य लगनेवाला कोई भी बोध पर प्रभाव नहीं डाल सकता। क्योंकि मन जहाँ भी जाता है, वहाँ मैं का बोध भरा रहता है। बोध से मिले बिना एक तन्मात्रा भी स्थिर खडा रह नहीं सकता। उन तन्मात्राओं में भी बोध भरे रहने से तन्मात्रा का भी अस्तित्व नहीं है। इस प्रकार निराकार अपरिवर्तन शील सर्वव्यापी,स्वयं अनुभवी आनंदस्वरूप मिले है,उनमें से कोई अन्य दूसरी वस्तु नहीं हो सकता है। इस अद्वैत ज्ञान को जो महसूस करता है वही अहंब्रह्मास्मी का साक्षातकार करता है।
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