3651 to 3700
3651. बच्चों की सुरक्षा उस बच्चे की माता ही है। वैसे ही मनुष्य की सुरक्षा उसकी अहमात्मा ही है। जिसका मन आत्मा में न लगता, उसका जीवन मातृहीन बच्चे के समान है। जीवन में संपूर्ण सुरक्षा उसको मिलेगी, जिसका मन आत्मा को लक्ष्य बनाकर सर्व कर्मों को निस्संग निस्वार्थ रूप में करता है। अर्थात सुरक्षा माने जीवात्मा परमात्मा स्थिति को पाने के तक ही है। जो कोई स्वयं आत्मा को साक्षात्कार करता है, अर्थात् जीवात्मा परमात्मा स्थिति को पाता है, अर्थात् खंडबोध अखंडबोध स्थिति को पाता है,उसकी सुरक्षा का वचन नदारद हो जाएगा। कारण मैं रूपी अखंडबोध मात्र ही नित्य सत्य रूप में स्थिर खडा रहता है।
3652. जो कोई आत्म राम के रूप में, ब्रह्म कमल के रूप में संसार के तालाब में खिला है, उनसे खुद अनुभव करनेवाले आनंदामृत शहद चूसने अष्ट दिक से अलियों जैसे आत्म प्यासी उडकर आते हैं।
3653. एक बच्चे को अपने माता के पास जाने न देने से बच्चा तडपेगा। वैसे ही जीव अपने सर्व स्वतंत्रता के लिए ,परमानंद स्वभाव रूपी परमात्म लोक पाने के लिए जाने-अनजाने से ही तडपता रहता है। वैसे मन को उस स्थिति को जाने से रोकने की बाधाएँ हैं सांसारिक वस्तुएँ, रिश्तेदार,कलाएँ, कलाकार, काव्य और कविताएँ। उसे आत्मज्ञान से विवेक से जान-समझकर, इनमें जो प्रेम और लगाव है,उन्हें तजकर आत्म चिंतन करने मन और बुद्धि को जो परिपक्व बनाते हैं,वे ही नित्य शांति निलय जाते हैं।
3654. परमात्म स्वभाव से सीधे विपरीत है माया की मूर्ति अहंकार का है। परमात्मा का स्वभाव है परमानंद। अहंकार का स्वभाव है नित्य दुख।जीव आत्मा को भूलकर अर्थात आत्मबोध रहित आत्माभिमान देनेवाले अहंकार लेकर आत्म शक्ति माया चित्त बनाये शरीर लौकिक विषयों के पीछे चलकर सुधबुध खोकर भेदबुद्धि,रागद्वेष,कामक्रोध उत्पन्न करनेवाली परि्स्थितियों में फँसकर तडपकर आत्मा को भूलकर जो जीवन बिताता है, वह सज्जनों से सहवास न करेंगे और उनकी बात नहीं मानेंगे।
3655. एक मनुष्य के नौ अंगुल उदर के लिए जितना चाहिए उससे अधिक कमाने पर उसके अनुपात पाने के लिए जिनको योग्यता है, उसको मिल जाएगा। वह चोर भी हो,अच्छा हो या बुरा वह जीव जैसा भी हो, वैसा हो सकता है। यही प्रकृति का नियम है। एक,अनंत, अनादी स्वयंभू, सर्वव्यापी, सृष्टि,स्थिति,संहारों का कर्ता बने मैं रूपी अखंडबोध, निश्चल परमात्मा अपनी शक्ति माया के द्वारा स्वयं अपनी स्थिति बदलकर अर्थात् अपने स्वभाविक संपूर्णता निश्चलन,निर्विकार,निष्क्रियत्व परमानंद स्वभाव न बदलकर स्वयं चलनशील बनकर अर्थात माया के रूप में खडे होकर अपने अखंड स्वरूप को अंधकारर स्वरूप मेंं छिपाकर उसमें प्रतिबिंब बदलकर अर्थात परमात्मा जीवात्मा रूप में बदलकर माया बनाये वासनामयी चित्त संकल्प द्वारा बनाये प्रपंच,प्रपंच विषय,जीव उन जीवों में अज्ञानता भरकर जीव अपने स्रष्टा को भूलकर विषयों के पीछे जाकर विषयों में सुधबुध खोकर सुखदुखों को भोगकर पुनः जीव के निज स्वरूप परमात्मा की स्थिति पाने के लिए मन से हुई कमियों को मिटाकर फिर एक बनने का इंद्रजाल खेल का भाग ही सभी प्राकृतिक नियम होते हैं।
3656. जनक पुत्री सीता के स्वयंवर मेंं उनसे शादी करने के लिए कई वीर ,क्षमतावान राजा आये।कैलाश को हाथ में उठाकर खेलनेवाले रावण भी आये। लेकिन शिकारी जैसे आये श्री रामचंद्र ही सीता को पसंद आया। ऐसे ही जन्मांत्र रिश्तों को आमने-सामने देखते समय बिना प्रयत्न के अपनेे पसंद की बातें पूरी होंगी। यह सृष्टि स्थिति संहार अनादी काल से आवर्तन के रूप में चलता रहता है। चिरंजीवि काकभुजुंडर महर्षि जैसे सर्व ज्ञानी सिद्धपुरुषों ही इन आवर्तनों के प्रपंचों के बारे में, प्रपंच सृष्टियों के बारे में ,अवतारों के बारे में जान-समझ सकते हैं। अखंड बोध स्वरूप होने पर भी स्वयं परमानंद को विस्मरण कराकर एक प्रपंच के जीवन को एक गंदर्व द्वारा बनाया गया नगर जीवन ही है।
3657. सत्य सत्यवादी के लिए अमृत है। असत्यवादी को सत्यय स्पर्श करतेे समय शेर के पूँछ पकडने का अनुभव होगा। पूँछ के छोडने पर शेर काटेगा। सत्य को छोडने पर असत्य काटेगा। अर्थात् अज्ञान विविध प्रकार के दुख देगा। उदाहरण के लिए अधर्मवादी दुर्योधन की मित्रता के कारण दुर्योधन की रक्षा के लिए क्षत्रिय कर्ण ब्राह्मण बनकर झूठा बना।
परिणाम स्वरूप आचार्य के शाप के कारण ब्रह्मास्त्र प्रयोग करना भूल जाने से कर्ण को युद्ध क्षेत्र में मरना पडा।
3658.संन्यासी सत्यवान बना। वह असत्यवादी लोगों को असत्य संसार को सही करने के प्रयत्न में दुख सागर में डूबने से महसूस कर चुके हैं सत्य का महत्व और असत्य का गौरव। इसलिए संसार और लोगों को सीधा करने के प्रयत्न छोडकर सत्य ही उनकी रक्षा करेगा। यह सोचकर सत्य सत्य को दृढ बनाकर सत्य के स्वभाव के आनंद को अनुभव करके वैसा ही स्थिर खडा रहेगा।
3659.साधारणतः स्वार्थ रहित संन्यासी परिवार और समाज को त्याग करके वनों में सत्य के साक्षात्कार करने के लिए गुफाओं में जाकर तपस्या करेंगे। गृहस्थ लोग नाते-रिश्तों के साथ संसार में जुडकर रहते हैं। कलियुग में संन्यासी परिवार के लोगों के साथ संसार में जुडकर रहते हैं। गृहस्थ लोग धन की सुरक्षा के लिए अडोस-पडोस के लोगों से न मिलकर न परिचय पाकर संन्यासी के जैसे स्वार्थी बनकर धन और परिवार के पहरेदार जैेसे जीते हैं। अर्थात् गृहस्थ संन्यासी के जैसे, संन्यासी गृहस्थ जैसे जीते हैं। अर्थात् संन्यासी सत्य को प्रयोग करके यश पाने के लिए और धन के लिए संसार से प्रेम करते हैं। गृहस्थ संसार और सत्य को प्रयोग करके अहंकारी बनकर जीते हैं। लेकिन सत्य अब भी सोता रहता है। सत्य को एहसास करके सब जीव सोते रहेंगे। शास्त्र सत्य यही है कि एक ही सत्य मात्र नित्य परमानंद रूप में स्थिर खडा रहता है।
3660. छोटे बच्चे सब के सब साधारणतः निष्कलंक ही रहेंगे।
जब बच्चे बढते हैं, तब कुछ लोगों का मन पवित्र रहेंगे और कुछ के मन अपवित्र रहेंगे। पवित्र मन के युवक आत्मा के स्वभाव परमानंद को भोगकर मनुष्य जन्म को सबल और सफल बनाएगा। उसी समय असत्य में मन रखकर मनुष्य आत्मा के महत्व न जानकर अहंकार में जीवन को बेकार बनाकर भ्रम मय जीवन नरक तुल्य जीवन गुजारा करते हैं। स्वर्ग की खोज की इच्छा, आनंद, परमानंद, सब सत्य में ही है अर्थात आत्मा में है।इस ज्ञान की प्राप्ति ही उसको सत्य में जीने देता है।
अज्ञानी लोग नहीं जानते कि सभी नरकमय जीवन अपने अहंकार के कारण ही है।दुख विमोचन ही स्वर्ग है। दुख ही नरक है।
3661. हम अपने रिश्तेदारोंं के नाश में दुखी होने के कारण उनकेे साथ दीर्घ काल निरंतर रहा करते हैं। अन्यों से गहरा संबंध न होने से अन्यों के नाश में दुखी नहीं होते। अपना हो या अन्य संबंध नहीं है तो दुख नहीं होता। अतः दुख से बाहर आने के लिए नाते-रिश्ते हो या अन्य उनसे अधिक प्यार या संबंध नहीं रखना चाहिए। संबंध रहेंगे तो दुख मन को समदशा पर रहने नहीं देंगे। वह आत्मबल को मिटा देगा ।अर्थात निरंतर संकल्प रहित आत्मबोध ही सभी प्रकार के बल और फल देंगे।
3662. मनुष्य अपने हृदय में जो आत्मा है,वह कह रहा है, “मैं,मैं”।जो आत्मा को नहीं जानते, वे आत्मा को न जानकर बाहरी दृश्यों के प्रपंच रूप विषयों के भ्रम में पडकर दुखों के पात्र बनते हैं। रेगिस्तान की मृगमरीचिका को देखकर हिरन पानी के लिए दौड दौडकर पानी के बिना मर जाता है। वैसे ही मनुष्य विषय सुख के पीछे चलकर सुख की खोज करके सुख न पाकर मर जाता है। जो ज्ञान के अंत देख सकता है, उनके सामने विविध दर्शन नहीं होते। वह सत्य को जान चुका है। वही परमात्मा के स्वभाविक परमानंद भोगकर वैसा ही रह सकता है। सिवा आत्मा के सभी विषय विषमय ही है
3663. एक सद्गुरु के सामने नाना प्रकार की मनःस्थिति के शिष्य आशीर्वाद लेने जाते समय अहंकारी शिष्य दोनों हाथों से प्रणाम न करके एक हाथ से प्रणाम करता है। जिनमें अहंकार कम है,वे दोनों हाथों को जोडकर प्रणाम करते हैं। उसी समय जिनमें अहंकार नहीं है, वे गुरु के चरणकमलों में साषसाष्टांग प्रणाम करते हैं। लेकिन गुरु पक्षपात के बिना सबको आशीर्वाद करतेे हैं। लेकिन अनुग्रह मिलनेवालों को फल मिलने में अंतर होगा ही। गुरु के ज्ञानप्रकाश में अनुग्रह अहंकार रहित लोगों को ही मिलेगा। अहंकार ज्ञान पर पर्दा डालेगा। अहंकार की मात्रा के अनुसार ही उसमें ज्ञान की चमक होगी। परम रूपी ज्ञान ही परमानंद है।
3464.समुद्र में उमडकर आनेवाले बुलबुलेे समुद्र में छिपकर पुनः आकर नहीं कहता कि मैं बुलबुला नहीं,समुद्र हूँ। वैसे ही जीव परमात्मा स्थिति की प्राप्ति के बाद मन वापस न आएगा। जीवात्मा खुद परमात्मा बना हैै का एहसास होते ही चलनशील जीव भाव मिट जाता है। मनोनाश होता है। समुद्र से बुलबुले होना,वह समुद्र से मिटकर समुद्र होना ,वह समुद्र ही है।. वैसे ही एक रूप निश्चल ब्रह्म अनेक बने प्रपंच दृश्यों को प्रकट करते समय ब्रह्म में कोई परिवर्तन नहीं है। केवल ऐसा लगता है। लगना कारण रहित नाम रूप ही है। स्वप्न के दृश्य निद्रा के भंग होते ही मिथ्या बन जाते हैं।जो यथार्थ में है, वह मिटेगा नहीं, जो मिटते हैं,वह यथार्थ नहीं है।
3665. ज्ञानी इसलिए भगवान की खोज में भटकनेवालों को समझ लेना चाहिए कि ज्ञान के विकास के अनुसार ही आनंद भी असीमित हो जाता है। ज्ञान के विकास होना अहंकार का नाश होना ही है। वास्तव में ज्ञान का विकास नहीं होता। अहंकार रहित होना चाहिए। ज्ञान हमेशा एक रस ही है। अहंकार का पर्दा बिलकुल मिटने के बाद ही नित्य आनंद सहज होगा।चाहिए कि ज्ञान के विकास के अनुसार ही आनंद भी असीमित हो जाता है। ज्ञान के विकास होना अहंकार का नाश होना ही है। वास्तव में ज्ञान का विकास नहीं होता। अहंकार रहित होना चाहिए। ज्ञान हमेशा एक रस ही है। अहंकार का पर्दा बिलकुल मिटने के बाद ही नित्य आनंद सहज होगा।
3666.
स्वप्न में देखनेवाले रूप,जीव,काल-देश,कार्यकारण,नीति-नियम, नाते-रिश्ते, बंधु, देश-काल, कुटी ,सब मिथ्या है। स्वप्न पुरुष स्वप्न में दर्शन नहीं देते। स्वप्न पुरुष और दृश्य अनुभव चित्त ने बनाकर दिखाया था। वास्तव में कुछ नहीं है। जैसे वह निद्रा के टूटते ही गायब हो जाते वैसे ही जागृत अवस्था में अज्ञान निद्रा में आत्मज्ञान से आत्मा को साक्षात्कार करते समय जीव,जीव बनाये नियम, जीव भोगे सुख-दुख,धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य, पारिवारिक बंधन,रिश्ते,नियंत्रण,कर्तव्य, उत्तरदायित्व,स्वर्ग-नरक, ईश्वरीय संकल्प सब के सब मृगमरीचिका जैसे नदारद हो जाएगा। अखंडबोध मात्र नित्य सत्य रूप में खडा रहेगा। इसको भूलकर साधारण मनुष्य नश्वर शरीर और नश्वर जगत को सत्य मानकर जीने के कारण वह जीव के ध्यान की कमी है।ईश्वरीय आनंद स्थिति पाने कोई नियम नहीं है। सभी स्थानोंमें बोध भगवान विद्यमान होतेहैं। जित देखो तित लाल,यही लक्ष्य है।
3667. ब्रह्म स्वयंभू होने से आत्मा सर्वव्यापी,पूर्ण,नित्यतृप्त होने से उसमें से अन्य होने का न्याय नहीं है। जो कुछ बनीबनाई दीखते हैं,वे सब बोध की माया भ्रम के सिवा और कोई नहीं है। माया से उत्पन्न दृश्य जगत स्थिर लगने के कारण भेदबुद्धि और कर्मवासनाएँ हैं। इनसे जीतने के लिए मार्ग जो भी हो उसे अपनाना चाहिए। इनपर विजय प्राप्ति के बिना
सत्य की खोज करनेवालों को इस संसार के दुखों से निवृत्ति,मोक्ष प्राप्ति न होगी। भावना रहित वैराग्य लेकर संकल्प और कर्म वासना आदि बाधाएँ रहित सम दशा पाकर नित्य सुख प्राप्त कर सकते हैं।
3668.स्त्री सहज स्वभाव पुरुष को आत्मविचार करने नहीं देता। पिछली घटनाओं को याद दिलाता रहेगा। लेकिन यथार्थ पुरुष पिछले काल की यादों को आत्मविचार करके विस्मरण करता रहेगा। जो पुरुष आत्मतत्व नहीं जानते,उनमें स्त्री को बुद्धि में प्रतिष्ठा करते रहेंगे। वैसे पुरुषों को ही स्त्री का स्वभाव रहेगा। उनके स्वभाव में पुरुषत्व के बदले स्त्रीत्व ही ज्यादा रहेगा। पुरुष तत्व ग्रहित यथार्थ पुरुष की बुद्धि में स्त्रीत्व न रहेगा। इसलिए उसको लौकिक चिंतन न रहेगा। उसकी बुद्धि सदा आत्माा पर दृढ रहेगी।इसलिए वह आत्म स्वभाव का आनंद निरंतर अनुभव कर सकता है।अर्थात स्त्री स्मरण का प्रति बिंब होती है, पुरुष विस्मरण का प्रतिबिंब होता है।
3669.यह प्रपंच “मैं” हूँ के अनुभव उत्पन्न करनेवाले अखंड बोध सेे ही बना है, स्थिर खडा है, नश्वर भी लगता है। अर्थात् अखंड बोध को अपनी शक्ति माया अंधकार रूप में पर्दा डालने से ही उसमें प्रतिबिंबित लगकर अखंडबोध खंड बनकर प्रतिबिंब बोध बन गया है। उस प्रतिबिंब जीव से संकल्पित हुआ है इस ब्रह्मांड का जन्म। जो जीव इन संकल्प विषयों के पीछे न जाकर, अपने निज स्वरूप अखंडबोध का एहसास करता है, उसका खंड जीव बोध अखंडबोध स्थिति को पाएगा। पुनः अखंड बोध स्थिति को अपनी शक्ति माया खंड बनाकर खंड को अखंड में परिवर्तन करने की लीला अनादी काल से जारी रहता है। उस बोध भगवान की लीला विनोद पूर्ण है। वास्तव में एक ही अखंडबोध मात्र है। उसका स्वभाव ही परमानंद है।
3670.सभी प्रकार की इच्छाओं और वासनाओं को तजकर,मन आत्मा को लक्ष्य बनाकर, आत्मा में रमकर,आत्मराम बनकर किसी भी प्रकार के संकल्प के बिना आत्मबोध के साथ जीनेवालों को दूसरे लोग देखते समय सत्वगुणी लोगों में अवर्णनीय शांति स्वयं ही मिलेगा। उसी समय तमोगुणी, रजोगुणी लोग उनको देखकर कमियाँ कहने की कोशिश करने पर भी उनका मन अनुमति नहीं देगा। कारण सभी जीवों में आत्मा एक होने से जिसमें आत्मबोध है, वे सब जीवों में अपने को ही दर्शन करेंगे।
इसीलिए आत्मबोध रहित सबको उनकी कमी कहने को सोचने पर भी कमी कह नहीं सकते।
3671. ज्ञात नवग्रह जैसे अज्ञात नवग्रह भी हैं। वे समुद्र में बनकर छिपनेवाले बुलबुलों की संख्या की तरह आकाश में अनेक हज़ार नक्षत्र बनकर छिपते रहते हैं। वैसे ही असंख्य आकाश गंगा, नक्षत्र आदि होते हैं। लेकिन सब के सब रेगिस्तान की मृगमरीचिका जैसे ही है। कारण ये सब प्राण शक्ति के विविध रूप और भाव ही है। ईश्वर शक्ति माया सृष्टित प्रथम जड प्राण ही है। इस विश्व प्राण गाँठ से ही विश्व मन बनता है। इस विश्व मन की गाँठ ने ही यह ब्रह्मांड को बनाया है। वह संकल्पों के अनुसार बढेगा। विश्व प्राण का भाग ही हर एक भाग में मन के रूप में रहता है। वैसा ही विश्व पंचभूतों का भाग ही हर एक जीव का शरीर बना है। समुद्र ,लहरे,बुलबुले आि समुद्र पानी की सतह होने के जैसेे यहह प्रपंच, उसके जीव,मन,प्राण सब बोधाभिन्न ही है।अर्थात् इस प्रपंच और शरीर के परम कारण रूप मैं रूपी अखंडबोध ही है। इस बोध में ही सृष्टि, स्थिति और संहार सब चलते हैं।. वह रेगिस्तान की मृगमरीचिका जैसेे मिथ्या दृश्य ही है। वास्तव में एक ही अखंडबोध है। वह निश्चल,निर्विकार, निर्मल,नित्य आनंद बनकर स्थिर खडे रहता है। जो अखंडबोध का एहसास करते हैं, उसी को आनंद और शांति मिलेगा। बाकी लोगों को दुख ही मिलेगा। यही भगवद्लीला है।
3672. वह खुद न्यायाधीश बनता है, जो कहता है कि पत्नी और बच्चे हो गये,उतना ही जिंदगी है।वह स्वयं फैसला सुनाता है कि लघु सुख (काम सुख) की इच्छा से हट नहीं सकते।यह अहंकार का कर्म है। आध्यात्मिकता उनके लिए नहीं है। भगवान की खोजकरनेवालों के लिए और ज्ञानपिपासा लोगों के लिए है आध्यात्मिकता। वे जब तक अपने अहंकार रहित सत्य का महसूस नहीं करते तब तक वकील ही रहते। वे सत्य को जानने और समझने तक ही खुद का न्यायाधीश रहते। जो सत्य की खोज नहीं करते उन अहंकारियों को आत्म खोज के लिए कई जन्म लेना पडेगा।
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