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Sunday, September 14, 2025

सनातन धर्म अनंत जगदीश्वर रमेश्वर

 4506. जो कोई अपने को ,देखनेवाले दृश्य को, जानने के ज्ञान को सबको ब्रह्म के रूप में देखना है तो पहले जानना चाहिए कि सबके परमकारण मैं नामक बोध ही है। कारण बोध नहीं तो कुछ भी नहीं है। इसलिए परम कारण रूपी अखंडबोध को ही ईश्वर जानना चाहिए।  साथ ही इस बात को समझना चाहिए कि  प्रपंच कार्य कोई भी मै के बोध से भिन्न नहीं है। उसको

आत्मज्ञान से ही जान सकते हैं। एक मृत शरीर से आसानी से समझ सकते हैं कि यह शरीर नहीं है, आत्म बोध है।मृत शरीर में तब तक मैं,मैं जो कह रहा थावह शरीर नहीं था,आत्मा थी। शास्त्रपरम आत्मा के बारे में अध्ययन करते समय समझ सकते हैं कि आतमा को रूप नहीं है,आत्मा सर्वव्यापी है। तब यह प्रश्न उठेगा कि शरीर ,संसार, और नाम रूप कैेसेबने हैं? उसका एक मात्र उत्तर है। स्वप्न और सवप्न लोक जैसे है, वैसे शरीर और संसार बोध से बना है। जागृत अनुभवों को स्वप्न
रूप में देखने साधारण मनुष्य के लिए बहुत कष्ट मात्र नहीं, असंभव कार्य है। लेकिन जागृत और स्वप्न दोनों में कोई फ़रक़ नहीं है। दोनों स्वप्न ही है।

4507. अद्वैत वेदांत में  सत्य शास्त्र कहते हैं कि जगत मिथ्या ब्रह्म सत्यं। लेकिन निराकार ब्रह्म में आकार कैसे आया के परस्पर विरोध प्रश्न के सवाल के जवाब यही है कि इस प्रपंच दृश्य कैसे बना?इसका कोई उत्तर नहीं और युक्ति नहीं है।
अर्थात्  मैं नामक निश्चलन अखंडबोध से एक चलन किसी भी कारण से हो नहीं सकता। लेकिन उसमें चलनशील वायु को एहसास कर सकते हैं। चलनशील वायु में आकाश रहित स्थान नहीं है। इस परस्पर विरोध होते समय अनश्वर सत्य को एहसास करके स्वीकार करके नश्वर असत्य को समझकर उसे अपरिहार्य करना चाहिए। तभी असत्य से होनेवाले दुख से विमोचन होकर सत्य स्वभाव आनंद को स्वयं अनुभव कर सकते हैं। कोई सोते समय स्वप्न को बनाता नहीं है। वह निश्चलन से सोता है।वैसे  ही सर्वव्यापी सर्वेश्वर प्रपंच रूपी स्वप्न को बनाया नहीं है। लेकिन लगता है कि प्रपंच को ईश्वर ने बनाया है। रेगिसतान मृगमरीचिका को बनाया नहीं है। लेकिन मृगमरीचिका की झाँकी को एक जीव देखता है। वैसे ही भगवान से जिसने साक्षात्कर  नहीं किया है, उसको शरीर और संसार के स्वप्न दृश्य सत्य जानने तक होता रहेगा।  जो इस तत्व का एहसास करता है, वह कहीं भी रहे घर में,या देशमें या शासक के आसन में तनिक भी दुख न आएगा। भगवान का स्वभाव परमानंद है, वैसे भगवान अपने से अन्य नहीं है, स्वयं ही है का महसूस  करके दृढ बनानेवाले के जीवन में आनंद के सिवा और कुछ अनुभव नहीं कर सकता।

4508. एक रूप रेगिस्तान को मृगमरीचिका द्वैत दिखाने के जैसे एकरूप भगवान को माया प्रपंच अनेक रूप में दिखाता है।
जो कोई रेगिस्तान को पूर्ण रूप से जानता है,उसको रेगिस्तान एक ही दीख पडेगा। उसको मृगमरीचका का स्मरण न रहेगा। वैसे व्यक्ति रेगिस्तान से बाहर आकर देखनेपर मृगमरीचिका दीख पडेगा। लेकिन वह मृगमरीचिका पर विश्वास न करेगा। वह प्रपंच में सवयं बने ब्रह्म को ही देखेगा। मरुभूमि  में जैसे मृगमरीचका की झाँकी होते रहते हैं, वैसे शाश्वत ब्रह्म में प्रपंच की झाँकी अनादी काल से होते रहते हैं। वह ब्रह्म का स्वभाव ही है। निश्चलन अखंड बोध ब्रह्म प्रकट होनेवले ब्रह्मशक्ति लीला नाटक ही यह ब्रह्मांड  है। जैसे फूल और सुगंध को अलग नहीं कर सकते वैसे ही निश्चलन अखंड बोध ब्रह्म, ब्रह्म शक्ति प्रकट करनेवाला प्रपंच दृश्य भी। मैं नामक अखंडबोध प्रकाश ही जीव और जीव देखनेवाले लोक के माया भ्रम दृश्य है। ऐसे अपने से अन्य दूसरे एक दृश्य को न देखकर निर्विकर,निश्चलन,अखंडबोध बनकर रहनेवाले को ही अकारण स्वयं के बोध में उमडकर देखनेवाले विकरप्रपच को अन्य रहित वह मैं ही को एहसस करके स्वयं मात्र है का एहसास कर सकते हैं। साथ ही स्वयं आनंद स्वरूप में स्थिर खडा रहेगा।

4509. सभी जीवों से करुणा है,पर मदद करने के लिए मन नहीं। वैसे लोगों की मदद करने ईश्वर को भी मन न रहेगा। मदद करनेवालेे को समझना चाहिए कि मदद पानेवाले का मन उसको अनजाने में ही ईश्वर के पास जाने की मदद करता है। अर्थात उसके मन को उसके अंतरात्मा को उनके अनजाने में ही ईश्वर के निकट पहुँचाता है। इसीलिए ही मदद मिलते ही हे ईश्वर बोलते हैं।  वे महसूस करते हैं कि ईश्वर ने ही  मनुषय के रूप में आकर मदद की है। इसका एहसास करके असहाय लोगों को ईश्वर की सेवा जैसे मदद करनेवाला ही यथार्थ धर्मवान है।

4510. बडे ज्ञानी पंडित हो, लक्ष्य भगवान नहीं है तो अमृत रूपी ब्रह्म रहस्य उससे कहने पर भी वह उसका ग्रहण करने की क्षमता न रहेगी। जो ब्रहम रहस्य नहीं जानता वे मृत्यु के पात्र बनते हैं। ब्रह्म ज्ञान के लिए मात्र जीवन को त्याग करनेवाले मात्र ब्रह्म ज्ञानी बनेंगे। ब्रहमज्ञानी और ब्रह्म दो नहीं,एक ही होते हैं। जिसमें ब्र्हम बोध है वह दोनों में एक नहीं जानता। दूसरे एक को अनजान ज्ञान दशा को ही महाभारत के वेदव्यास के पुत्र श्री शुक को भागवत में परीक्षित महाराजा को नाग रूप में आये मृत्यु भय से मोक्ष देकर पूर्ण  ब्रह्म स्थिति का पात्र बनाते हैं। इसीलिए परीक्षित महाराजा ब्रह्म स्वभाव परमानंद में डूबकर संसार,अपने को मारने आये दक्षक नाग पर उसका ध्यान न रहा।

4511. शून्य आकाश में रहित वस्तुओं को रहित दृश्यों को मौज़ूद सा एक जादूगर दिखाता है।वह  मन संकल्प से,वस्तुओं से हस्त तेज़ी से, संभाषण से दर्शकों की आँखों पर पर्दा डालते हैं। लेकिन वस्तु रहित, संकल्प रहित,मंच रहित,रूप रहित ब्रह्म शक्ति दिखानेवाला इंद्रजाल है यह प्रपंच। सुनार स्वर्ण से विविध आभूषण बनाते हैं। वैसे ही एक रूप ब्रह्म अर्थात् अखंडबोध अर्थात्  परमात्मा अर्थात अपरिवर्तनशील सत्य विविध ब्रह्मांड बनाकर दिखाता है। रस्सी में साँप के भ्रम जैसे ही ब्रह्म में दीखनेवाला ब्रह्मांड है। प्रपंच दृश्य को बनाकर दिखाने का स्वभाव निश्चलन,निर्विकार सर्वव्यापी अपरिवरतनशील अखंडबोध ब्रहम को सहज रूप में है। ब्रह्म प्रपंच की सृष्टि  नहीं करता।  मरुभूमि का स्वभाव है मृगमरीचिका बनाकर दिखाना। मरुभूमि मृगमरीचिका नहीं बनाता। वैसे होने पर भी रेगिस्तान देखनेवाले को रेगिस्तान में पानी की  लहरों का दृश्य दीखेगा। वैसे ही ब्रहम को छिपाेवाली ब्रह्म शक्ति माया चित्त में प्रतिबिंबित प्रतिबिंब जीवात्माओं को ही ब्रह्म में प्रपंच का दृश्य बनकर दिखाई पडता है। जीवात् परमात्मा को पूर्ण रूप से साक्षात्कार करने के साथ प्रपंच दृश्य पर्ण रूप में िट जाएगा।

4512. बच्चे हो या युवक हो या बूढे हो या रोगी या पंगु या शय्याशायी या असहाय स्थिति में रहनेवाले को समझना चाहिए कि प्रपंच नीति कहती हैं कि  अपना नाटक पर्याप्त है। उसी समय मनमें आत्मस्मरण तैलधारा जैसे आ रहे तो सीमित शरीर से जीवबोध असीमित बोध स्थिति को साक्षात्कार करने के साथ शरीर के बारे में स्मरण मिटकर बोध स्वभाव परमानंद भोगेगा। उसी समय मन आत्मा को छोडकर अर्थात् आत्म स्मरण रहित अन्य विषयों में घम फ़िरकर रहेंतो नरक वेदना अनुभव करके प्रपंच के नीति के अनुसार प्राण छोडना पडेगा। इसलिए वह मन इच्छाओं की पूर्ति के लिए माया संकल्प कर्म चक्र में अगले शरीर मिलने के लिए भटकता रहेगा। ब्रहम शक्ति माया चित्त ब्रह्म सानिध्य में बनानेवाले प्रपंच दृश्य ,उसके नाम रूप ब्रह्म अभिन्न रूप में जो दर्शन नहीं करता उनको मात्र दुख का अनुभव होगा। कारण ब्रह्म सर्वव्यापी बनकर निश्चलन होने से दूसरी एक वस्तु कभी  कहीं नहीं होगा।  ब्रह्म मात्र ही है। एक मनुषय जन्म में आत्मज्ञान को जीवको जानना चाहिए। आत्म ज्ञान से अनुभव करना चाहिए। आत्मा को पूरण रूप से साक्षात्कार करना चाहिए।

4513. मनुष्य प्रपंच भर में परस्पर विरोधों को ही देखता है। इसीलिए भला-बुरा,धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य, गलत-सही, नीति-अनीति, सब देखते हैं। भगवान अपनी निश्चलन शीलता, सर्वव्यापकता, निर्विकारता, सर्व स्वतंत्रता में बिना परिवर्तन के अपनी शक्ति माया को उपयोग करके दिखानेवाला एक इंद्रजाल प्रतिभासीत प्रभव प्रलय लीला नाटक माया कर्म चक्र अनादी काल सेै घूमताा रहता है। उस चक्र से बाहर आने के लिए सत्य -असत्य, नित्य-अनित्य को विवेक से जानना चाहिए। जो मिट जाता है, वह असत्य है। उदाहरण रूप में रस्सीी में साँप काा भ्रम, परस्पर विरोधाभाष है। पूर्ण प्रकाश में सत्य कोो मात्र जानकर महसूस करने से असत्य मिट जाता है। जोो जन्म लेता है,वह मरेगा ही। जन्म लेकर मरनेवाले को परमकारण न रहेंगे। कारण परम कारण मृत्यु वस्तु होने पर मरनेवाले जीव की उत्पत्ति के लिए आधार खडे दूसरी वस्तु को दिखा नहीं सकते। इसलिए परम कारण जन्म मरण रहित  नित्य वस्तु होना चाहिए। इसलिए परमकारण नित्य,सर्वव्यापी,शाश्वत, अपरिवर्तनशील ,निश्चल होना चाहिए। अर्थात् शरीर और संसार जिसमें होकर जिसमें स्थिर खडे होकर जिसमें मिट जाता है,वही परम कारण है। वह अपने में अपरिहार्य मैं है को अनुभव करनेवाला  परमानंद स्वभाव से मिले अखंडबोध मात्र ही है।

4514. भ्रम दृश्य शरीर और संसार को सत्य विश्वास करनेवाले पशु बुद्धि के मनुष्य को उनके अनुभव करनवाले दुख के कारण खोजने के लिए बुद्धि या विवेक नहीं होता। दुख के कारण जानने से ही समझ सकते हैं कि आगे आनेवाले दुख को मिटा सकते हैं। साथ ही दुख रहित जीवन होगा। दुख के कारण न खोजकर चलनेवाले सुख की प्रतीक्षा करते ही जीते हैं। वह सुख के निवास स्थान की खोज नहीं करता। पशु बुद्धि का मतलब है, असत्य को सत्य सोचकर यथार्थ सत्य न जानकर जीनेवाला है। सामान्यतः  बहुत अधिक लोग उसी नःस्थिति में ही जीते हैं। दुख के कारण की खोज करनेवाले ही शास्त्र सत्य को कार्यान्वित करके भग सते हैं। शास्त्र का मत लब है सत्य शास्त्र। वह सतय ही ववध रूप लकर वह सत्य बरह्म रचित वेद को अर्थात् ब्रह्म ज्ञान को श्रुति के द्वारा, स्मृति के द्वारा , विविध सूत्र के शब्द द्वारा वेद उपनिषद भगवद् गीता ब्रह्म सूत्र से प्रारंभ होकर अनेक सत्य शास्त्र ,पुराण कहानियाँ रची हुई हैं। इनका सार दुख निवृत्ति के याचक ही ग्रहण कर सकता है। वह पशु बुद्धि रहित अर्थात् सत्य को ग्रहण करने की क्षमता रखनेवालों से ही सत्यदर्शी ज्ञान संवाद करेंगे। पशु बुद्धिवालों से सत्यदर्शी संवाद न करेंगे। सत्यदर्शी अज्ञात सत्य को ग्रहण करने का पात्र बनाएँगे। वही प्रकृति की नियति है।
4515. निजी आत्मा को लक्ष्य बनाकर यात्रा करनेवाले एक जीव को इस सांसारिक भौतिक जीवन को  अलंकृत करने का पद मोह न रहेगा। कारण इस ब्रह्मांड के रम कारण स्वरूप परमात्मा ही है। वह परम कारण परमात्म सागर में अकारण उमडकर दीखाई पडनेवाले सब के सब जीव रूप समुद्र मेंउमडकर मिटनेवले बुलबुलों के समन ही है। परमात्म शक्ति माया चित्त में प्रतिफलित प्रतिबिंब बोध ही जीव है। अखंडबोध शरीर से संकुचित दशा में ही हर एक जीव जिंदगी बिता रहे हैं। वैसे जीव को समझ लेना चाहिए कि अपने पंचेंद्रिय से अनुभव करनेवाला आनंद जो भी हो मन से संकल्पित आनंद जो भी हो,वेसब मैं है को अनुभव करनेवाले अखंडबोध रूप भगवान का स्वभाव ही है। अखंडबोध के अपने स्वभाव ही परमानंद है। वैसे आनंद को निरुपाधिक रूप  में स्वयं अनुभव न करने के कारण नाम रूप से बननेवाले चिंतन मन को अखंड बोध स्थिति को जाने न ेकर नमरूप शरीर से संकुचित बनाकर बोध को सीमित बना देते हैं। चिंतन स्मरण रहित स्थिति को जाते समय ही खंड बोध अखंड बोध स्थिति को पाएगा। तभी नितय शांति ,नित्य आनंद, पूरण स्नेह, सर्व स्वतंत्रता को स्वभाविक रप में भोग सकता है। किसी भी प्रकार की चाह के बिना रहने पर याद रहित स्थिति को जा सकते हैं। याद रहित स्थिति को जाना चाहिए तो किसी भी प्रकार की चाह न होनी चाहिए।  चाह रहित जीवन जीने के लिए परमानंद स्वभावकेे साथत मिले अखंडबोध मैं नामक ज्ञान की दृढता बुद्धि मेंं पक्का बनाकर आवर्तन करते रहना चाहिए ।

हिंदी दिवस

 हिंदी दिवस 

एस. अनंत कृष्णन चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक।

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 एक सप्ताह एक दिन हिंदी दिवस।

जैसे दादा दादी के मृत्यु के दिन  साल में एक दिन मनाते हैं।

फिर अगले साल याद करते हैं।

 यों ही हर साल एक दिन 

१४ सितौबर हिंदी दिवस।

 क्या ७८ साल से मना रहे हैं।

सचमुच हिंदी के विकास और प्रगति अद्भुत चमत्कार।१२५ साल का हिंदी इतिहास।

 तुलसी, सूर जोड़ते हैं 

 वास्तव में अवधि और व्रज भाषा।

 भारतेंदु काल से ही हिंदी खड़ी बोली का भाषा स्वरूप।

१९००से।

गद्य शैली, नाटक एकांकी उपन्यास, कहानियां।

 उर्दू शब्दों से भरा प्रेमचंद्र उपन्यास सम्राट।

 संस्कृत तद्भव तत्सम का 

जयशंकर प्रसाद।

पंत,निराला की कविताएं।

 साकेत को  समझ सकते हैं 

 तुलसी रामायण समझना मुश्किल।

अतः हिंदी का इतिहास १२५ साल का।

एक दिन दिवस सही नहीं,

 दिन दिन हिंदी का दिवस मनाना है।

आज़ादी के ७८ साल में 

 अंग्रेज़ी माध्यम की लोक प्रियता हिंदी को नहीं।

 कारण पितृ दिवस जैसे हिंदी दिवस मनाया जाता है।

  इसकी प्रशंसा कैसे?

 ३६५दिन हिंदी दिवस मनाना है।

 हिंदी के खर्च अनुवाद गोदाम में।

 कारण एल.के.जी से डाक्टरेट तक अंग्रेज़ी माध्यम।

संस्कृत नाम मात्र की भाषा।

अंक पाने ६०% अंग्रेज़ी 

 ४०% संस्कृत।

बस यह भी एक नाटक।

 अंग्रेज़ी में थीसिस संस्कृत का डाक्ट्रेट।

बुनियाद ठीक नहीं है,

 हिंदी इमारत की कल्पना दिवस ७८ साल से।

 नारा तो ठीक है एक दिन 

 एक सप्ताह।जय हिन्द ! जय हिन्दी।

 वास्तव में राज्य सरकार 

 केंद्र सरकार अंग्रेज़ी के विकास में 

 अंग्रेज़ी माध्यम खोलने की अनुमति।

 एक तमिल माध्यम स्कूल बंद।

वहाँ दो अंग्रेज़ी स्कूल 

 एक प्रांत का दूसरा केंद्र का।

 बातों में जय हिन्दी।

सोचिए।

 मुझपर दोष मत लगाना।

 जनता के दिल में 

 अंग्रेज़ी बस गयी।

 हिंदी में तीस अंक ही तीसमारखाँ।

दसवीं के बाद हिंदी नहीं।

 जय हिन्दी।

Saturday, September 13, 2025

इन्सान

 इंसान कुछ पहचान।

एस. अनंत कृष्णन, चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक 

++++++++++++++

 इंसान इंसान हैं इंसानियत के कारण।

मनुष्य की तुलना जानवरों से

 जानवरों की तुलना मनुष्य जैसे नहीं।

 सिंह जैसी गंभीरता 

सियार जैसी चालाकी

मीनलोचनी,  

क्योंकि मनुष्य में सब गुण है।

वह शाकाहारी हैं

वह माँसाहारी है।

आदमखोर है।

वह गिरगिट है।

वह नेता बदलनेवाला है।

वह साधु-संत है।

वह नकली साधु हैं।

 मधुर भाषी पर ठगी विधायक।

 बाहर एक अंदर एक बोलनेवाला है।

वह दानवीर है।

 वह लोभी है।

 वह अहंकारी हैं

 वह स्वार्थी हैं।

 वह निस्वार्थी है।

वह त्यागी है,

 वह भोगी है।

चुनाव में विधायक चुनने में इंसान की पहचान मुश्किल है।

 चुनाव के महीने में 

 उनकी विनयशीलता 

 उसकी असलियत पहचानने में असमर्थ हैं मतदाता।

कलियुग

 जब मैं सब बच्चा था,

 लौ शब्द अंग्रेज़ी का

 एक अश्लील शब्द था।

पिताजी की आँखों से लौ निकलता।

अध्यापक आगबबूला हो जाते।

छड़ी का मार।

 पिताजी कहते

 अध्यापक का मार

फूलों का हार।।


अब बातें उल्टी हो गई।

अध्यापक ज़ोर से बोलने पर उनको  डराने धमकाने 

तैयार  है,

 सरकार और अभिभावक।

लौ अंग्रेज़ी शब्द 

 एल केजी से शुरू।

 बार फ़्रंड गेल फ्रंड 

 लौ किस।

अंग्रेज़ी प्रभाव।

 कलियुग की बात।

 तीन साल की बच्ची से

 चुट्टि टी।वी में अण्णाच्ची

 पूछते हैं कालेज जाकर क्या करोगी।

 बच्ची फ़ौरन जवाब देती

 कालेज जाकर प्रेम करूँगा।

 दर्शक, बच्ची की माँ बाप दादा दादी सब खुशी से बजाते हैं ताली।

 विनाशकाले विपरीत बुद्धि।।

वरिष्ठ लोगों को यह संस्कृति असहनीय है।


एस. अनंत कृष्णन, चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक।

Friday, September 12, 2025

इन्सान

 इंसान कुछ पहचान।

एस. अनंत कृष्णन, चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक 

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 इंसान इंसान हैं इंसानियत के कारण।

मनुष्य की तुलना जानवरों से

 जानवरों की तुलना मनुष्य जैसे नहीं।

 सिंह जैसी गंभीरता 

सियार जैसी चालाकी

मीनलोचनी,  

क्योंकि मनुष्य में सब गुण है।

वह शाकाहारी हैं

वह माँसाहारी है।

आदमखोर है।

वह गिरगिट है।

वह नेता बदलनेवाला है।

वह साधु-संत है।

वह नकली साधु हैं।

 मधुर भाषी पर ठगी विधायक।

 बाहर एक अंदर एक बोलनेवाला है।

वह दानवीर है।

 वह लोभी है।

 वह अहंकारी हैं

 वह स्वार्थी हैं।

 वह निस्वार्थी है।

वह त्यागी है,

 वह भोगी है।

चुनाव में विधायक चुनने में इंसान की पहचान मुश्किल है।

 चुनाव के महीने में 

 उनकी विनयशीलता 

 उसकी असलियत पहचानने में असमर्थ हैं मतदाता।इ

सनातन वेद अनंत जगदीश्वर

 4496.एक मनुष्य की इच्छाएँ जो भी हो,वे मिलने पर भी संतुष्ट नहीं होता। वे इच्छाएँ हैं भोजन पद्धतियाँ, पेशा, नाम -यश पाने की कलाएँ, राजनीति कार्य, वेश-अलंकार वस्तुओं पर प्रेम आदि प्राप्त होने पर भी पूरी होने पर भी संतुष्ट न होते। वैसे लोग बुढापे में अपूर्ण विषय वासनाएँ मन में दुख देंगी। दुर्बल शरीर रखकर दुख भोगने  के सिवा और कोई मार्ग नहीं है। जिनमें इस ज्ञान की दृढता होती है कि प्रपंच सत्य और स्वयं  कौन है का सत्य है उनको केवल आत्मसाक्षात्कार होने से अतृप्ति न होगी। नित्य संतुष्ट माया शक्ति अनुमति दिये जीव शरीर प्रारब्ध कर्म को निस्संग अभिनय कर चुकेगा।


4497.मनुष्य कई विषयों में अभ्यास करता है। लेकिन दुख रहित शांति से और आनंद सेे जीने के लिए जैसी भी परिस्थिति हो जीने की क्षमता बनाने के लिए मन को अभ्यास देना चाहिए। भय रहित स्वतंत्रता से घूमने के लिए, नींद आने पर किसी भी परिस्थिति में सोने के लिए, भूख लगनेपर जो कुछ मिलता है, खाकर संतुष्ट होने के लिए, मन को अभ्यास देना चाहिए। केवल वही नहीं, बंधुजन छोडकर जाते समय दुखी न बनकर मनको समदशा पर लाने का अभ्यास करना चाहिए। धन का नष्ट होनेपर, धन के आनेपर सम दशा को बनाये रखने का मानसिक अभ्यास करना चाहिए। उसका एक मात्र मार्ग लक्ष्य रहित जीवन को तजकर एक लक्ष्य के साथ जीना सीखना  चाहिए। लक्ष्य अनश्वर हो तो लक्ष्य की ओर यात्रा करनेवाला भी अनश्वर रहेगा।नश्वर को लक्ष्य बनाकर जीनेवला भी नश्वर ही होगा। इसलिए अनश्वर सनातन को अपनाकर स्वयंभू बनकर जन्म-मरण रहित नित्यसत्य रूपी परमात्मा होनेवाले अखंड बोध ही स्वयं है । इसको हर एक जीव आत्मज्ञान से मिलकर जानकर स्वयं  सब कुछ के ज्ञाता ,मानकर परम ज्ञान के स्वभाविक परमानंद रूप में विकसित करना चाहिए।

4498.अधिकांश  जीवात्मा अपने जीवन का लक्ष्य स्वयं ही है को न जानकर दूसरों की ओर देखकर जीते हैं। जब तक  अपने जीवन का लक्ष्य स्वयं ही है को नहीं  समझता है, तब तक दुख से पूर्ण विमोचन न मिलेगा। सभी लोकों में शरीर और संसार के परम कारण मैं है को अनुभव करनेवाले अखंड बोध में मृगमरीचिका की तरह उमडकर आनेवाले मिथया दर्शनों को ही देखना पडता है। यथार्थ मैं शरीर नहीं, शरीर को भी जाननेवाला जान आत्मा ही है। अर्थात्  शरीर में अंतर्यामी आत्मा    परमात्मा बना है। वह परमात्मा सर्वव्यापी है। वह निश्चलन निष्कलंक है। वह सर्वव्यापी होने से उससे मिले बिना एक चलन दृश्य हो नहीं सकता। कोई रूप बनने का साध्य नहीं। शरीर  सहित नाम रूप के प्रपंच सब मिथ्या है। शरीर,संसार वह बने कारण जानने के लिए कोई युक्ति नहीं है। वे  स्वयं अस्थिर मिथ्या दर्शन हैं। इसलिए अपने यथार्थ स्वरूप परमात्मा को स्वयं जानकर एहसास करने के साथ ईश्वर,ईश्वर सृष्टित प्रपंच रहस्य खुद प्रकट होगा। साथ ही भोधा अभिन्न जगत नामक अद्वैत अनुभूति परमानंद को स्वयं अनुभव करके वैसा ही स्थिर खडे रहेगा।

4499.भूलोक में मनुष्य जीवन दुःख से पूर्ण होने से दुख निवृत्ति के लिए मनुष्य संन्यासी जीवन अपनाता है। केवल वही नहीं, भूलोक जीवन, मनुष्य जन्म अपूर्व ही है। कारण मनुष्य जीवन सार्थक बनना कीचड से कमल खिलने के समान अज्ञान से आत्मज्ञान को आकर परमात्म स्थिति पाने की मदद  करने का मार्ग रूप ही मनुष्य शरीर है। यथार्थ संन्यास का मतलब है ईश्वर रहित और कुछ इह लोक,परलोक और चौदह लोकों में नहीं है के ज्ञान को,ईश्वर बोध रहित अहं बोध मात्र जीनेवाले लोगों को उनकी बुद्धि में दृढ बनाने का कार्य ही है। लोक सृष्टि के पहले ब्रह्म मात्र ही है जगत नहीं है इस बात को उपनिषद के कहने पर भी ब्रह्म को भूलकर प्रपंच रूपों को ही जीवात्मा चिंतन करती रहती है। वैसे चिंतन संकल्प के कारण होते हैं। संकल्प को त्याग किये बिना ब्रह्म की अनुभूति नहीं कर सकते। इसलिए संकल्प त्याग करना अलिखित कार्य नहीं है।इसीलिए सभी जीवात्मा संकल्प लोक में रहकर दुखी होते रहते हैं। इसीलिए दुख देनेवाले संकल्प से बाहर आने के लिए ही संन्यासी बनते हैं। संकल्प को विकास करने के लिए नहीं है। खुद देखनेवाला शरीर सहित लोक रूपों में ब्रह्म बोध को दृढ बनाने के साथ जीव भाव भूलकर मैं है को अनुभव करनेवाला अखंडबोध स्थिति को पाएगा। साथ ही बोध का सवभाविक परमानंद को स्वयं अनुभव करके वैसा ही प्रकाशित होना ही संन्यास है।

4500.इस लोक में अज्ञानता के कारण ही जीवन में दुखों का सामना करना पडता है। वही यथार्थ विवेकशील आदमी है, जो जिस ज्ञान के प्राप्त करने से मोक्ष मिलेगा,जीवन में सुख और शांति मिलेगी , नाना प्रकार के चिंतन कैसे  कर सकते हैं आद जानकारी प्राप्त करता है। उन्हें जाननेवाले ही यथार्थ माता पिता होते हैं। यथार्थ पति पत्नी होते हैं। उस ज्ञान का मतलब है मैं पंचभूत पिंजडे का शरीर नहीं है, यथार्थ मैं का मतलब है पंचभूत है के दृश्य को बनाकर उसे प्रकाशित करनेवाले चित स्वरूप होता है।  वह अखंड बोध है,परमात्मा है,परम ज्ञान है। ब्रहम है, इनको शास्त्र रूप में समझने के बाद मालूम होगा कि जड विषय वस्तुएँ विष है,उन्हें छोडकर सत्य,करुणा,सब्रता,संतोष,आनंद,धर्म,पुण्य इन सबको अमृत जैसे स्वीकार करके जीनेवालों को ही अनिर्वचनीय शांति,परमानंद,नित्य तृप्ति होंगी।

4501.मनुष्य अमृतस्वरूप होने पर भी मर जाता है। कारण शास्त्र परम प्रपंच को,आत्मा को शरीर और प्राण को विवेक से जानने की क्षमता नहीं है। विवेक होने पर ही ज्ञान होगा। विवेक होने पर ही समझ सकते हैं कि मैं अनश्वर आत्मा हूँ। प्रपंच को विवेक से देखते समय एहसास कर सकते हैं कि प्रपंच और आत्मा एक ही है। आत्मा रूपी स्वयं सर्वव्यापी होने से आत्मा से मिले बिना दूसरी एक वस्तु हो नहीं सकता। इसलिए उसमें दिखाई पडनेवाले नाम रूपों को आत्मा के सर्वव्यापकत्व लेकर अस्थिरता होती है। सर्वव्यापी एक वस्तु स्थिर रहते समय दूसरी एक वस्तु हो नहीं सकता। अर्थात् मैं अखंडबोध रूप परात्मा होने से मैं और प्रपंच परमात्मा ही है। अखंडबोध ही है। बोध मात्र ही है। यही यथार्थ उपनिषद सत्य है।

4502. बोधा अभिन्न जगत. जगत बोध ही है। बोध अर्थात आत्मा  सर्वव्यापी है। साधारण मनुष्य यह अनुभव नहीं करता कि मैं बोध हूँ। बोधानुभव नित्य आनंद है। मनुष्य अनुभव करता है कि मैं शरीर से बना हूँ। .मनुष्य यह एहसास नहीं करता कि आत्मबोध से आश्रित होकर ही वह  स्थिर खडा है। उसके बदले शारीरिक अभिमान। के मिथ्या अहंकार से मैं,मेरा  अपना कहकर  जीवन चलाता है। इस ब्रह्मांड में बोध को मात्र मैं है का अनुभव है। जड को मैं है का अनुभव नहीं है। शरीर से संकुचित खंड बोध को शरीर को भूलकर अखंडबोध स्थिति को पाना ही आत्म साक्षात्कार होता है। एक जीव अपने को अखंडबोध में साक्षात्कार करते समय बोध स्वभाव परमानंद सहज रूप में अनुभव कर सकते हैं। हर एक जीव वह अखंड बोध ही है।यहाँ एक अखंडबोध मात्र है। सर्वव्यापी निश्चल अखंडबोध सागर में उमडकर दीखनेवाले बुलबुले ही शररऔर प्रपंच के सभी नाम रूप। प्रपंच के सभी नाम रूपों में बोध भरे रहने से सरवत्र बोध रहित नामरूप अस्थिर हो जाते हैं। उदाहरण स्वरूप स्वर्ण चूडियों में संपूर्ण भाग सोने का हैं। स्वर्ण रहित चूडी नहीं बना सकता। बिना स्वर्ण के चूडिया का नाम नहीं है। उस स्वयं अस्थिर नाम रूप को माया कहते हैं।इस ब्रह्मांड के सभी नाम रूपों में स्वयं के बोध भरकर देखकर नाम रूपों को अस्थिर बनाकर सर्वत्र बोध ब्ह्म रूप में अनुभव करनेवाला ही ब्रह्म है। मैं नामक बोध भगवान नहीं तो ब्रह्मांड नहीं है। बोध भगवान नित्य सत्य होता है। नहीं कहने के लिए भी बोध चाहिए। बोध अनुभव स्वरूप है। पवित्र अनुभव ही भगवान है। रागद्वेष भेदबुद्धि के कलंक होते समय ही दुख का अनुभव होता है। इसलिए दुख देनेवाले तीनों कालों में रहित भद बुद्धि को राग-द्वेषों को तीनं कालों के बोध स्मरण से िटा देने पर बोधानुभव नित्य आनंद के रूप में स्वयं भोग सकते हैं। नित्य आनंद अनुभव ही भगवान है।

4503. साधारणतः किसीसे आप कौन है? के सवाल करने पर वह अपना नाम, अपना काम, अपने पिता का नाम, घर का पता आदि कहेगा। वे सब उसके शरीर को ही संकेत करेंगे। कारण शास्त्र परम हर एक जीव को पंचभूत पिंजडा शरीर नहीं है। शरीर का संचालन अअखंडबोध रूप परमात्मा ही करते हैं। लेकिन वह जीव पंचभूत प्रपंच माया के कारण यथार्थ स्वरूप को भूल जाता है। जीव अपने यथार्थ स्वरूप अखंड बोध को विस्मरण करता है। विस्मरण करने के कारण कर्ता माया कहाँ से? कब? कैसे आया ? न जानकर मनुष्य जीवन चला रहा है। काले बादल सूर्य को छिपाने के जैसे बोध शक्ति माया मन ही मैं नामक बोध को छिपा देता है। पूर्ण प्रकाश में अंधकार मिट जाने के जैसे आत्म स्मरण से आत्मा का सर्वव्यापकत्व पुनः पा सकते हैं। जीव आत्मबोध स्मरण लेकर परमात्म स्थिति पाने के साध माया मन पूर्णतः मिट जाएगा। किसीभी प्रकार के संकल्प के बिना तैल धारा जैसे आत्मबोध मन में होते समय जीव जीवभाव भूलकर अमृत स्वरूप स्थिति पाएगा।

4504. संन्यासी जीवन चाहनेवाले, वेदांत जीवन,आध्यात्मिक जीवन चाहनेवाले, ईश्वर की खोज करनेवाले, ईश्वर के दर्शन के पिपासावाले, सत्य की खोज करनेवाले आदि लोगों को यह जानना समझना है कि जो याचना करते हें,उस लक्ष्य पर दृढ रहना चाहिए। उनको ही दुख और निराशा होता है, जिनका लक्ष्य और कर्म भिन्न होते हैं। अपनी याचना को मात्र लक्ष्य बनाकर उसके लिए प्रयत्न करनेवाले जानना चाहिए कि ध्यान, वैराग्य , अभ्यास, प्रार्थना,यज्ञ-होम, उपासना,मंत्र जप देव संकल्प आदि कुछ भी न होने पर भी, पहले यह समझना चाहिए कि मैं मैं है का अनुभव करनेवाला बोध होने से ही सब कुछ होता है। बोध सदा स्थाई रूप में है।शाश्वत मैं नाम रूपों के साथ मिले पंचभूत पिंजडा शरीर नहीं है, मैं बोध रूप आत्मा समझना काफी है । शरीर से संकीर्ण बोध रूपी मैं यथार्थ में शरीर रहित अखंडबोध रूप आत्मा सर्वव्यापी है। इसलिए प्रपंच में मैं रूपी बोध सर्वत्र है,बोध रहित स्थान नहीं है। एक ही मैं नामक अखंडबोध मात्र ही नित्य सत्य रूप में है। अज्ञान निद्रा जागृत प्रपंच में नाम रूप जैसे कहाँ से आया? कहाँ खडा है? कहाँ रहित है? इनको न जाने कोई युक्ति रहित मिथ्या भ्रम मात्र ही है। भ्रम के कारण नजी स्वरूप विस्मृति है। वह यथार्थ स्वरूप अखंडबोध को तैल धारा जैसे जो विस्मरण नहीं करता है,उसको कोई माया भ्रम नहीं है। उसको बोध स्वभाव परमानंद अनुभव है। अर्थात् वह असीमित परमानंद रूप ही है।

4505. पुराणों में  जनक महाराजा एक आत्मज्ञानी थे। आत्मज्ञानी होकर भी वे शासक बनकर प्रसिद्ध राजा रहे। वे अपने को,संसार को,अपनी प्रजाओं को किस दर्शन में शासन किया है? वे यात्रा करते समय विविध दृश्य देखते थे। बीच में पहाड की गुफाओं से अदृश्य तपस्वियों के सिद्ध पुरुषों के कीर्तन सुनते थे। उसके फलस्वरूप  राजा को आत्मज्ञान मिला। दृष्टा और दृश्य के मिलने से दृष्टा को होनेवाले आनंद को आत्म शक्ति के रूप में जानकर उपासना करता है। दृष्टा,दृश्य,दर्शन,दर्शन करने की वासनाओं को एकत्र करके मिटाकर दर्शन के पहले प्रकाशित चैतन्य को मैं आत्म शक्ति जानकर उपासना करता है। अर्थात है या नहीं के बीच प्रकाश के प्रकाश चैतन्य को मैं आत्म शक्ति जानकर उपासना करते हैं। ऐसा ही जनक महाराज आत्म तत्व का एहसास किया था। राजा ने कई प्रकार से विचार किया और सोचा कि संसार की अस्थिरता, जगत में होनेवाले दुख, जीवन में हरेक मिनट संभव होनेवाले भ्रम, वस्तुओं की निरर्थकता, अस्थिर जीवन ,किस मिनट क्या होगा, आयु का अंत कब होगा,पता नहीं,। तब राजा के मन में ज्ञान वैराग्य हुआ। आत्म ज्ञान से शरीर और संसार को विवेक से जानकर शरीर और संसार के परम कारण मैं नामक अखंडबोध का महसूस करके प्रपंच स्वयं बने अखंड बोध से अन्य नहीं है, स्वयं और प्रपंच को एक ही अखंड बोध है। इस ज्ञान की दृढता में बोध रूपी अपने में उमडकर देखनेवाला प्रपंच, जीव अर्थात् समुद्र, उससे उमडकर आनेवाली लहरें , बुलबुले अन्य नहीं है, वैसे ही जनक महाराज का राज करते थे। जो सत्य को समझते हैं, या मैं ही सत्य जानते हैं उनको कमल के पत्ते पानी जैसे निस्संग रहने की आवश्यक्ता नहीं है। कारण उनमें इस ज्ञान की दृढता थी कि उनमें और प्रजा में कोई अंतर नहीं है। जनकमहाराजा को संग या निस्संग की जरूरत नहीं है। बोध रूपी स्वयं सर्वव्यापी है, स्वयं मात्र है, इसको जाननेवाले राजा को विजय-पराजय,अच्छा बुरा सब स्वयं ही है।

Wednesday, September 10, 2025

खिताब

 किताबी शिक्षा 

खिताबी शिक्षा 

सब अति सीमित।

 आत्मज्ञान और आत्मबोध से

अनुभव से शिक्षा 

 व्यवहारिक शिक्षा ही श्रैष्ठ।

जो काम करते हैं,अपने आप को समझकर 

अपने बुद्धि बल , शारीरिक बल धनबल

 जानकर ही कार्य में लगना है।

 अधपके ज्ञान से

 कोई कार्य करने पर

 सफलता असंभव।

 समाज के अध्ययन है

 पता चलता है कि

 केंपस साक्षात्कार में 

 जीतनेवाले अंत तक नौकरी करता है।

उनके सहपाठी स्नातकोत्तर नहीं 

पर कंपनी का मालिक बनता है।

खिताबी से गैर खिताबी

 विश्वविद्यालय की स्थापना,

शासक मंत्री बनता है।

जिला देश उनका सलाम करता है।

 तब पता चलता है

 भागय का फल।

अध्यापक ने जिसको नालायक बताया,

वह अध्यापक के बेटे का

 मालिक बन गया।

 यह सूक्ष्मता न जानने का फल

सबहीं नचावत राम गोसाईं।

अपना अपना भाग्य।