Sunday, December 29, 2024

स्मरण

 साहित्य सुधा मंच को नमस्ते वणक्कम्।

 यादें।

 यादें नहीं तो

 मानव में  प्रगति नहीं।

 मानव में वर्तमान योजना नहीं।

परीक्षा में अंक नहीं।

परीक्षा में उत्तीर्णता नहीं।

नौकरी में सदनाम नहीं।

 नौकरी में  तरक्की नहीं।

सुखद यादें अच्छी।

दुखद यादें बुरी।

 सद्इच्छा  स्मरणीय ।

 बद्इच्छा विस्मरणीय।

संत कवि तिरुवळ्ळुवर का कहना है,

 कृतज्ञ  विस्मरण अच्छा नहीं,

जो अच्छा नहीं, उसका तुरंत,

  विस्मरण  ही अच्छा है।

 एस. अनंत कृष्णन, चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक द्वारा स्वरचित भावाभिव्यक्ति रचना

Saturday, December 28, 2024

बचपन

 नमस्कार। वणक्कम।

29-12-2020

बचपन शीर्षक।


सब बचपन का 

यशोगान ही करते हैं।

मैं अपने बचपन की नहीं,

फुटपाथ के बच्चों की

बात करता हूँ,

जिनके वोट से सांसद विधायक।।

35%से40% वोट नहीं देते।

वे हैं अमीर स्नातक स्नातकोत्तर।।

अंग्रेज़ चले गए, अंग्रेज़ी नहीं गई।।

 नेता में अधिकांश आजादी के समय

 विदेशी   वकील अंग्रेज़ी पारंगत।।

भारतीय भाषाओं को 

नालायक ही मानते।

कई करोड़ रुपए,

हिंदी के विकास में,

प्रांतीय भाषाओं के विकास में।

 शिक्षा अधिकारी , राजनीतिज्ञ

 अंग्रेज़ी स्कूल धन लूटने खोलने तैयार।।

 बचपन में तीन साल के बच्चे को

मातृभाषा भूलने  -भुलाने 

नेताओं द्वारा अंग्रैजी स्कूल।।

 बचपन में ही मातृभाषा महत्वहीन।।

यही है गरीब बच्चों की दयनीय दशा।

 भारत के विरुद्ध शिक्षा नीति।।

 बचपन में ही शुरू आत।।

स्वरचित स्वचिंतक एस.अनंतकृष्णन, चेन्नई।

Friday, December 27, 2024

सनातन वेद

 3701. ज्ञानी समाज से भ्रष्ट  होते समय समाज ज्ञान न पाएगा।  लेकिन यथार्थ ज्ञानी कर्मयोग में भीउनको

अज्ञान  समाज के साथ रहकर,   अज्ञानी समाज को उनके विश्वास ओर संकल्प ईश्वरीय भक्ति को, निष्कलंक  करके,
अज्ञानियों के साथ अज्ञानी -सा व्यवहार करके , उनको आत्मबोध का एहसास कराएँगे। कुछ  ज्ञानी  चमत्कार दिखाकर
उनको निस्वार्थ सेवा करके आत्मबोध को उद्धार करेंगे। वैसे ज्ञानी नित्य संतुष्ट रहेंगे।वे दूसरों से याचना न करेंगे।जिस समाज में  ज्ञानी  ऐसा क्रियावान होते हैं, उस समाज में ही शांति और आनंद होगा।इसलिए दुखी सामाजिक जीवियों  को चाहिए कि  ज्ञानियों को समाज से भ्रष्ट होने नहीं देना।  तभी सभी दुखों से विमोचन पाकर आनंद का अनुभव कर सकते हैं।जिस समाज के लोग ज्ञानियों को समाज से भ्रष्ट  करना सिखाते हैं या समाज ज्ञानियों से दूर हो जाता है, वह समाज दुख का पात्र बनता है। 

3702.  अपनी निजि आत्मा से   प्यार करनेवाले से  बढकर  कोई बुद्धिमान  विश्व में नहीं है। उसको किसी भी जेल में डाल नहींं सकता।  कारण जेल जैसा भी हो, वह सर्वस्वतंत्र ही रहेगा। अर्थात्   उसने पंचभूत पिंजडे के जेल से बाहर आने की चाल सीखी है। अर्थात वह जानता-समझता है सब के कारणकर्ता परमात्मा स्वयं ही है। शरीर से बडा जेल और कोई नहीं है। वही एकांत का महत्व जानता है। कारण  वह परमानंद को उसके स्वभाव समझकर भोगकर आनंदित होता है।

3703.आत्म तत्व अधिक जानने पर भी आत्मबोध दृढ न बनने के कारण वासनाओं की गाँठ ही है। तीनों कालों में रहित प्रपंच को जब  सत्य मानकर उस पर विश्वास करने लगता है,तब से आज तक के संकल्प- विकल्प की वासनाओं की गाँठ
ही उसके कारण होते हैं।अर्थात् भगवान ही भगवान की अनुभूति कर सकता है। सृष्टि नहीं समझ सकता है कि अपनी सृष्टि उसने की है। सीमित को असीमित का एहसास नहीं कर सकता। स्वयंभू मात्र कभी न  मिटेगा। जिसको स्वयं स्वयंभू  का एहसास होता है, उसीको अखंडबोध स्वभाव का परमानंद स्वयं निरुपाधिक रूप में  भोगकर आनंद का अनुभव करके वैसा ही बन सकते हैं।

3704. साधारणतः एक राज्य में प्रजाओं पर शासन करनेवाले को ही राजा कहते हैं।  लेकिन यथार्थ राजा वही है जो राजा राजा के देखरेख के संसार,  संसार के जीव  आदि पर शसन करनेवाली आत्मा बने अखंडबोध ही है। जो कोई इस शरीर और संसार के परम कारण बने अखंडबोध स्वयं ही है को जान-समझकर राजा बनकर वह अपने समस्त प्रजाओं को  एक ही दृष्टि देखेगा। वैसे राजा को ही प्रजाओं पर समदर्शन होगा। वैसे राजा से शासित राज्य ही शांति और आनंदित रहेगा। उसी समय आत्मबोध रहित अहंकार से भेद बुद्धि, राग-द्वेष, होड-ईर्ष्या, काम-क्रोध से राजशासन करते समय कलह  और अराजकता ही होगा। वह देश के लिए कल्याण नहीं करेगा।इसलिए राजा हो या प्रजा समदर्शन आत्मज्ञान को सीखने की रीति से ही शिक्षा ज्ञान की प्रणाली को राज्य मेे बनाना चाहिए। तभी संसार का माया स्वरूप आत्मा की अनश्वरता के बारे में एहसास करके दुख विमोचन कर सकता है।

3705.यथार्थ में कर्मयोग का मतलब है कर्म करके फल को त्यागना नहीं है। स्वयं को जो निष्क्रिय परमात्मा ही समझ लेता है,वह जो भी करें,उसको कर्मबंधन न होगा। कारण  निश्चलन आत्मा रूपी अपने को चलन स्वभाव का कर्म हो नहीं सकता। कारण तीनों कालों में कर्म नहीं है। उसे समझकर कर्म करते समय ही कर्म बंधन बिलकुल नहीं होता। शास्त्र सत्य यही है कि निश्चलन में चलन कभी नहीं होगा। कर्म चलन होने से वह बोध में लगनेवाला भ्रम ही है। वह भ्रम एक मृगमरीचिका के समान ही है। इस सत्य को जो मानने से इनकार करता है ,वह दुख ही भोगेगा। दुख विमोचन चाहनेवाले शास्त्र सत्य को एहसास करके स्वआत्मा के आनंद भोगेंगे।

3706. चलन को ही मन कहते हैं।चलन रहित मन नहीं कह सकते। फिर  भी चलन रहित मनोदशा होती है। मन चलन रहित होने पर उसे आत्मा ही कहते हैं। उस स्थिति में जिसे भी सोचे, जिसे भी चाहे,तुरंत वैसा ही बनते हैं। कारण चलन रहित मन सत्य ही  होता है।  प्राण दृढ बनना ही मन होता है। मन दृढ बनना ही वस्तु होती है। मन द्वारा कोई संकल्प न करें तो उसमें किसी भी प्रकार की वासना नही होगी। वह वासना रहित मन को ही सम दशा पर ला सकते हैं। जो मन को सम दशा पर लाता है, वही प्रपंच विजयी होता है। उसको प्रपंच ही सेवा करेगा। मन को सम दशा पर  लाने का मार्ग आत्मविचार मात्र ही है।  आत्मविचार करते समय उस ज्ञानाग्नि में  सभी माया प्रपंच रूप जलकर भस्म हो जाएगा। यह समस्त प्रपंच मन में ही है। मन से सारे परम कारण  बनी आत्मा को स्मरण करते समय  मन आत्मा में विलीन हो जाएगा।  चलन मन  निश्चल आत्मा रूपी ब्रह्म के निकट जा नहीं सकता। उसी  समय जिसका मन निकट जाना चाहता है, वह मन मिट जाएगा।अर्थात् मन चंचल होता है। साथ ही   शरीर और संसार को कोई स्थिति न रहेगी। कारण मन ही शरीर और संसार बना रहता है। मन को विनाश करनेवाला ही आत्मा है। आत्मा ही ब्रह्मा होती है। ब्रह्मा ही “मैं होता है। जो इसका एहसास करता है, वही अहं ब्रह्मास्मी का साक्षात्कार करता है।
3707.जो शादी करना नहीं चाहते, उनको जान लेना चाहिए कि पहली रात को दोनों जितना मुख्यत्व देते हैं, उतना ही मुख्यत्व जिंदगी भर देने को जो ज्ञान चाहिए, उस ज्ञान को सीख लेना चाहिए। वह आत्मज्ञान ही है।पति-पत्नी का रिश्ता टूट जाने का कारण पुरुष की चाह के अनुसार खाना और सुख  पतनी से न मिलना ही है।  उसकी आमदनी भोजनालय और दूसरों को जाना ही है। पत्नी पति के निकट जाते समय वस्त्र, वचन और  शरीर से सुगंधित और मधुर रहना चाहिए। उसी समय पुरुष के निकट जाते समय  रसोई का सुगंध, बच्चे के विसर्जन का गंध होने पर पुरुष अपने सुख के लिए समीप आते समय  सुख के बदले दुख ही होगा। पुरुष भी वैसा ही है।  कांचीपुर रेशमी साड़ी मंदिर  के मेले के लिए पहनना चाहिए। वह रेशमी साड़ी की सुंदरता पति सुख  के लिए निकट आते समय शोभा नहीं देती। उससे आनंद न होगा। बाह्य जगत ही रशमी साड़ी के आनंद  का अनुभव करेगा।  ये सब जागृति  न होने से ही दंपतियों में होता है। ऐसा जीना है तो पति को ईश्वरीय स्थिति तक जाने के लिए पत्नी सहयोग करके पति को प्रत्यक्ष  देवता मानना चाहिए।

3708. मौन  स्मरण करनेवाले मुनि  एहसास करते हैं कि शरीर और संसार का कोई स्थायित्व नहीं है। शरीर और संसार नश्वर है। और जड है।  इसलिए उनके वचन और कार्य बाह्य जगत की ओर न जाकर उत्पत्ति स्थान में ही नियंत्रित होने से मौन उनके लिए सहज हो जाता है। वे ही यथार्थ मुनि होते हैं।

3709. जिनको पूर्व जन्म का पुण्याधिक्य  होता है, वह  इस जन्म में आत्मबोध के साथ  जीवन चला सकता है।वही लघु सुख से  परमानंद सुख तक पहुँच  सकता है। नवग्रह उनके अनुकूल रहेंगे। जिनको पूर्व जन्म पुण्य नहीं है,
वे ही आत्म बोध रहित कल्पना जगत नें सुधबुध खोकर नवग्रहों का गुलाम बनकर जीते हैं। उनका जीवन ही दुखमय होता है।
अबोध में रहनेवालों के लिए दुख ही  सहज होता है।  आत्म स्मरण के साथ कार्य रनेवालों को सुख सहज ही होता है।

3710. मनुष्य सत्कर्म करके जीने पर भी  जीवन दुखमय बन जाने का कारण वह जिनको सत्कर्म समझता है,उसको विवेक से यथार्थ धर्म अर्थों को विभाजित करके नहीं देखता। अर्थात् यथार्थ धर्म  कर्‌म स्वयं को और समस्त जीवों को सुख देता है।
स्वार्थ के लिए  अन्यों की भलाई  मिटाने का कर्म  ही अधर्म बन जाता है। अर्थात् आत्मोन्मुख होना धर्म ,मायोन्मुख होना अधर्म होता है। कारण जगत जीवन को सुखमय सोचना रेगिस्तान की मृगमरीचिका के समान निराशा बनकर दुखप्रद हो जाा है। आत्मोन्मुख जीवन में जीवन के परिवर्तन होेने से नित्य सुख की ओर ले चलता है।

3711. यह निश्चित रूप से कह नहीं सकते कि  कोई कार्य होगा या न होगा । इसलिए वचन,बुद्धि हमेशा अतीत को देखकर स्तंभित रहता है। इसलिए विवेकी वचन और बुद्धि के अतीत खडे रहनेवाली आत्मा  को प्राथमिका दिये बिना कोई कर्म न करेंगे।

3712.  असाध्य को साध्य,साध्य को  असाध्य बनने  बनाने  की सिद्धि विशेषता  प्रकृति नियति को होती है।
अहंकार से आज्ञा देनेवाला अहंकारी यह नहीं जानता।

3713.  है तो दे सकते हैं। आत्मा में सब कुछ है। आत्मा ही हर जीव का यथार्थ स्वरूप होती है।  वह स्नेह स्वरूपी है.
वह सर्व स्वतंत्र है, वह शांति स्वरूप है।  वह  सत्य,नित्य ,शुद्ध , परमानंद होती है।परमानंद रहित सब माया होती है।परमानंद सब आनंद अनुभवों  का आधार होता है। आत्म स्वभाव दुख रहित परमानंद होता है।दुख सा लगने के कारण आत्मा को देह जैसे,देह को आत्मा के जैसे देखना ही है।
 
3714. अहंकारी के दो व्यक्ति आपस में प्यार करते समय भेदबुद्धि, राग द्वेष उनसे होनेाले दुख,साथ ही स्वप्न जैसे अल्प सुख भी मिलेगा। कारण वे बिना तोडे दो नारियल मिलकर रखने के जैसे रहेंगे। दो नारियल रखने से पानी न मिलेगा।दोनों नारियल को तोडने पर ही पानी मिलेगा। अहंकार नारियल के समान ही है। अहंकार टूटे बिना स्नेह रूपी पानी पी नहीं सकता।दोनों शरीरों को भूलकर प्राण एक होना चाहिए। जो प्राण बोध ही स्नेहस्वरूप का एहसास करता है,
उसी को स्नेह का अनुभव होगा। जिसको प्रेम का अनुभव होता है, वही स्नेह बाँट सकता है।

3715. मनुष्य एक मधुमक्खी छत्ता के समान है।  अहंकार रूपी  मधु-क्खी  को आत्मविचार  से परिसमापन करेंगे तो
स्वभाविक आनंद शहद को भोग सकते हैं।

3716. भूमि की आत्मा रूपी भारत भौतिक प्रगति से आत्मज्ञान  अमृत की खेती है। इसीलिए
विदेशी लोग आध्यात्मिकता की खोज में भारत आते हैं। इसलिए भौतिक प्रगति की सामग्रियाँ भारत में न होने से ही
भौतिकवादी  विदेश जाते हैं। अधिकांश देश सांसारिक जीवन को मात्र मुख्यत्व देनेवाले ही है।
उनसे भारतीय भौतिक चिंतनवाले  आध्यात्मिक चित्तवाले होते हैं। इसीलिए विदेशी विजयों के पीछे एक भारतीय होता है।
कारण भारत की मिट्टी में पैदा हुए सबके खून में जन्म से ही आध्यात्मिक भावनाएँ भरी रहती हैं। इसलिए भारतीय लोग
सदा आध्यात्मिक अभिमान रखनेवाले हैं। इसीलिए भारत विश्व  का केंद्र है।

3717. इस विश्व में मनुष्य की सभी समस्याओं के कारण उसका मन ही है। मन रूपी तत्व वास्तव में नहीं है।सोचों से ही लगता है कि मन होता है। लेकिन एक भी सोच सत्य नहीं होगा। सब कुछ असत्य है तो असत्य विचारों का आधार मन भी सत्य नहीं है,असत्य ही है। एक व्यक्ति अपने  स्वप्न में मर जाता है। उस मृत्यु के कारण मन ही है। लेकिन वह मृत्यु साध्य नहीं है। इस संसार के बंधन से, दुख से मुक्त होेने के मार्ग हैं तीन कार्य। जो मन नहीं है,
उसे बिलकुल मिटाना, जो प्राण चलन है, उसे निश्चलन  बनाना, आत्मबोध से न हटना आदि।अर्थात् “मैं” परम कारण रूपी अखंडबोध ब्रह्म है, अपने से अन्य दूसरा एक  किसी भी काल में हो नहीं सकता। जिसको इस ज्ञान की दृढता हो जाती है, उसके लिए किसी भी  प्रकार के प्रयत्न की ज़रूरत नहीं है। माया प्रयत्न है। आत्मबोध की दृढता किसी भी प्रकार के प्रयत्न के बिना होना ही माया मुक्ति होती है।

3718.  रात  को एक जीव सोते समय होनेवाले स्वप्न में शरीर,अंतःकरण, काल-देश, कुटिल महल,समुद्र,आकाश,सूर्य,चंद्र, नक्षत्र, वाहन,जहाज,नाव,ये सब न होने पर भी सब कुछ स्वप्न में जीव भोगता है। स्वप्न के टूटते ही कुछ भी नहीं होते। स्वप्न में जो कुछ भोगा है, वे सब माया है। स्वप्न में शरीर से पंचेंद्रिय से जो कुछ भोगना है, भोगते हैं। यह एक सृष्टि  रहस्य ही है। स्वप्न  में जीव रहित,वस्तुएँ रहित जैसे भोगे, वैसे ही जागृत अवस्था में भी  मिथ्या जीव  मिथ्या संसार
को वास्तव मानकर  अनुभव  करते हैं। वह स्थाई बने “मै” रूपी अखंडबोध में उमडकर नदारद होता है।अर्थात रूप रहित चित्रकार खींचे रूप सहित चित्र ही यह प्रपंच है। ये चित्र ही उन चित्रों का रस लेता है। बिना सोये देखनेवाला एक स्वप्न है।
यह जगत पानी के बुलबुले की तरह बनते हैं,नष्ट होते हैं। लेकिन वह  एक भ्रम है। जो भ्रम है, वह नहीं के बराबर है।
वह स्वप्नों की धारावाहिक कहानी है। जिस वस्तु में यह भ्रम लगता है,उस वस्तु के नाश होते तक भ्रम भी बनते रहते हैं। 

आत्मा नित्य है, भ्रम अस्तित्वहीन है। रेगिस्तान है,पर मृगमरीचिका नहीं है।  लेकिन जब तक रेगिस्तान है,तब तक मृगमरीचिका का रूप रहेगा।  रेगिस्तान की मृगमरीचिका उसका सहज रूप है। वैसे ही स्वयंभू  मैं का
अखंडबोध का स्वभाव ही यह प्रपंच है। इस संसार का जीवन एक मनोराज्य है। जो नहीं है, उसको मन से बनाकर
बनाकर है-सा सोचकर अनुभव करता है।

3719.  जो सत्य को समझते हैं, वे किसी  पर संकल्प न करेंगे, किसी को न चाहेंगे। अपने से खुद आकर
मिलने के साथ निस्संग काम करेंगे। कारण वह नित्य संतुष्ट बनेगा।  केवल वही नहीं है, वह सत्यका स्वभाव परमानंद को
वह निरुपाधिक रूप में भोग रहा है।
 
3720. परमानंद निरुपाधिक रूप में भोगने का स्थान अपनी अहमात्मा ही है। अर्थात् आत्मा रूपी स्वयं बने
  अखंडबोध ही है। उस अखंड बोध स्थिति को पाने के लिए शारीरिक बोध नदारद होना चाहिए।
  शरीर जड कर्म चलन होने से वह तीनों कालों में रहित ही है। यह ज्ञान देना चाहिए  कि निश्चलन बोध में किसी भी काल में चलन न होगा। इस ज्ञान के द्वारा शारीरिक बोध को मिटा देना चाहिए। तभी स्वयं अखंडबोध है का ज्ञान दृढ होगा और  मैं रूपी अखंड बोध का स्वभाव परमानंद को निरुपाधिक रूप में सहज ही अनुभव कर सकते हैं। जो इस परमार्थता को जानने से इनकार करते हैं, वे मन रूपी भूत का गुलाम बनकर नित्य दुख का अनुभव करेंगे। उनकी रक्षा शास्त्र,
या रिश्ता या गुरु  कर नहीं सकता। वैसे लोग ही माया कर्म चक्र में फँसकर दुख झेलते रहेंगे।

3721.  इस प्रपंच में जहाँ समतल नहीं है, वहाँ समतल  लाना, समतल जहाँ है. वहाँ असमतल लाना
प्रकृति का रहस्य अनादी है। वह काल यम भी है, काल समय भी है। वह चक्र स्वयं ही घूमता रहेगा।
वह चक्र ही महा सुदर्शन चक्र है। उस चक्र में ही तीस तीन करोड देव, सपतर्षि , अठारह सिद्ध  पुरुष, तिरिमूर्तियाँ,
अर्थात्  सभी चराचर होते हैं।  उसकी नाभि ही बोध रूपी आत्मा है। उस बोध को छिपाकर ही आदी शक्ति के बीज बने मैं रूपी अहं होता है। वह महा  सुदर्शन चक्र ही  आदी अंत रहित पमात्मा बने मैं रूपी अखंडबोध होता है। उसका स्वभाव ही अनिर्वचनीय शांति और परमानंद है।
3722.  जो भी माँगे,देनेवाली आत्मा बनी कामधेनु सर्वांतर्यामि ही है। अर्थात् सभी जीवों के हृदय में स्थिर खडा रहता है।
जिसमें विवेकी किसी भी प्रकार की कमी के बिना रहने के लिए अंतर्मुखी रहकर जो भगवान हृदय में है, उनसे अपनी आवश्यक्ता को माँगकर लेता रहेगा। इस ब्रह्मांड को असंख्य बार माँगने पर भी देनेवाला अक्षय पात्र है। वह हृदयेश्वर ही मैं रूपी अखंडबोध समझकर जो संपूर्ण शांति का पात्र बनता है, उसके निकट मृत्यु नहीं आती। वह अनिर्वचनीय शांति के साथ सदा परमानंद के साथ नित्य सत्य रूप में रहेगा।

3723. जिसके पास कुछ भी नहीं, उनसे माँगने पर चिंता ही होगी।जिस के पास सब कुछ है, उससे माँगने पर कुछ मिलेगा ही। माँगने पर देने  के लिए जिसकको  मन है, लोभ नहीं है, देता रहेगा वही भगवान हर एक के हृदय में आत्मा के रूप में स्थाई रूप में बसता है। अर्थात्  जिसके पास नहीं  है, वह अहंकारी है। जिसके पास सर्व संपन्न है,वह आत्मा है।

3724.  चुपचाप कर्म में लगनेवाले के जीवन  से पता चलेगा कि कोई काम न करके बोलते रहनेवाले का जीवन व्यर्थ है। बोलनेवाला प्रकृति से नियंत्रित  व्यक्ति होता है, जो मौन रहता है, वह आत्मनियंत्रित व्यक्ति होता है। प्रकृति दुखी है,
आत्मा सुखी है।

3725. हम जो विश्वप्रकृति/प्रपंच/माया देवी को देखते हैं, वह शांत गंभीर लगते हैं, पर उसके विपरीत कठोर मुख भी उसको होता है। लेकिन जिस पृषपृष्ठभूमि से इन दोनों मुखों को लेकर यह प्रकृतीश्वरी कार्य करती है, वही इस प्रपंच के आकार की सूक्ष्म वस्तु होती है। वह वस्तु  ही मैं है के अनुभव को बनानेवाला अखंड बोध/परमात्मा/ब्रह्म होती है। उसके अनुसरण  करके जीनेवालों को ही प्रकृति के कठोर मुख से स्वयं को बचा सकते हैं। उसका स्वभाव ही अनिर्वचनीय शांति और परमानंद होता है।
3726.  हृदय में जो ब्रह्म होते हैं,उनसे अपनी आवश्यक्ता को मनुष्य माँगना नहीं जानता,उसपर विश्वास नहींं करता, इसके कारण उसको जब स्मरण हुआ,तब से वह अपने शरीर को ही देखता है, जानता है। आत्मा को न देखता है,न जानता है। केवल वही नहीं शरीर और  मन में असहाय दुख की स्थिति को ही हर एक भोगता है। इससे मुक्ति  मिलने के लिए शरीर और प्राण को विवेक से जानकर आत्मज्ञान को किसी भी मूल्य देकर दृढता से सीखकर, उसे बुद्धि में पक्का बना लेना चाहिए। तब तक आत्मा रूपी बोध भगवान पर संपूर्ण विश्वास न होगा। दुख विमोचन भी न होगा। दुख विमोन की चाबी आत्मज्ञान होता है।

3727.अच्छा- बुरा, धर्म-अधर्म, नियंत्रण- अनियंत्रण, आदि किसी भी प्रकार के चिंतन के बिना काम-क्रोध,रग-द्वेष,पुण्य-पाप न जानकर रोज स्वयं आनेवाले कर्म को करना ही महा कर्तृत्व होता है। किसी की खोज में न जाकर जो कुछ आते हैं, उसे न तजकर, किसी प्रकार के चिंतन, उद्वेग, सुख भाव आदि में विचार किये बिना जो कुछ कर्म आते हैं, उसी को उसी समय कर चुकनवाले ही महा कर्ता, निस्वार्थ कर्ता,निस्वार्थ कर्म होते हैं। अच्छा या बुरा, सुख या दुख,जो भी हो अपने आत्मसंतोष की बाधा के बिना जो कोई अपने आप आनेवाले को मात्र भोगता है, वही महा भोक्ता अर्थात् निस्वार्थ भोगी होता है।महा त्यागी के लक्षण है —वह किसी का चाहक भी नहीं है, किसी से घृणा भी नहीं कर्ता । किसी को स्वीकार -अस्वीकार नहीं करता।
ऐसे लोग ही  सांसारिक  दुखों से मुक्त होकर नित्य संतोष के साथ परमानंद के साथ जीते हैं।

3728. सबको जीवन ही समस्या ही है। समस्या यही है कि वह अपनी अहमात्मा को एक पल भी सोचता नहीं है। वहीं से समस्या शुरु होती है।

3729. स्वयंभू, एक,एकरस रूपी मैं रूपी अखंड बोध शक्ति रूपी माया से बनी अहंकार संकल्प दृश्य रूपों में स्वयं भ्रमित अहंकार संकल्प दृश्य रूपों में स्वयं भ्रमित अहंकार अथ्वा जीव निजी बल को संकल्प दृश्यों में ढूँढने की क्रिया ही कर्म  के रूप में  विकसित होते हैं।

3730. एक मृत्यु शरीर और जीवित शरीर दोनों में अंतर यही है कि मृत्यु शरीर अपने को पहचानते नहीं है। मृत्यु शरीर में आत्मा नहीं है। उसको बोध नहीं है।  उसी समय  जीवित शरीर अपने को पहचानता है। उसमें आत्मा है। उसको बोध है। जीवित शरीर और मृत शरीर दोनों में भेद बोध मात्र है। आत्मा और ज्ञान मात्र है। जो कोई अपने में अपरिहार्य अपरिवर्तनशील
बोध बने सत्य को मैं ही है का एहसास करता है  अर्थात्  इस शरीर और संसार को परम कारण है मैं रूपी सत्य ही है।
अर्थात्  मैं रूपी सत्य रूपी बोध नहीं है तो मैं रूपी  बोध  से ही शरीर और संसार का अस्तित्व है। मैं इसको न जानने पर
अर्थात् न संकल्प करें तो यह शरीर भी नहीं है और संसार भी नहीं है। अर्थात्  मैं रूपी बोध ही सब में
भरा है। बोध के बिना किसी भी रूप को स्थिरता नहीं है। क्योंकि बोध मात्र ही सब कुछ है। उसका स्वभाव ही परमानंद और परम शांति है।

3731.  अपने में भगवान है का एहसास होने तक वह शरीर को ही आत्मा सोचता है। शरीर में आत्मा है. जो शरीर को जानता है, वही यथार्थ मैं रूपी सत्य है। जो इसका एहसास करता है, वही आत्म बोध के साथ नित्य अनित्य को विवेक से जानकर जीता है। वही अनित्य शरीर और संसार को त्यागकर शाश्वत आत्मा में मन लगा देता है। जो आत्मा में मन नहीं रखता,वह मन जड में ही है। चैतन्य में मन रखनेवाला चैतन्य है, जड में मन रखनेवाला जड में बदलता है। चैतन्य रूपी आत्मा में मन रखनेवाले को जन्म-मरण नहीं होता। उसको  मृत्यु नहीं है। वह मृत्यु को नहीं जानता।  जड में मन रखनेवालों को जन्म-मरण होता है। इसलिए उसको दुख भी है। अनंतर जन्म भी है। वह संकल्प कर्म चक्र में घूमता रहेगा।

3732.  जो सौ प्रतिशत ईमानदारी से जीता है, वह दुखों को भी सुख में बदल सकता है। कारण सुख ईमानदारी का स्वभाव ही है। मनःसाक्षी के नियंत्रण में जीना ही ईमानदारी है।  सत्य में जीना है। सत्य जीवन बिताना है। वह सत्यानुभव
पूर्ण संतुष्ट है, निरंतर शांतिप्रद है। आनंद स्वभाव का है।  वह सर्व स्वतंत्र है। अर्थात एक सत्य के बोलते ही सुख नहीं मिलेगा। दुख ही होगा। यथार्थ  सत्य को कह नहीं सकते। कारण सब मिथ्या ही है। कारण कहनेवाले सत्य वचन ,ध्वनी नाद शक्ति ही है। नाद शक्ति चलनशील है। चलन निश्चल सत्य में ही है। इसलिए सत्य कहनेवाले को समझना चाहिए कि स्वयं बने सत्य एकात्मक है, एक रूप सत्य से अन्य कोई दूसरा कभी न होगा।  जो बनकर दृष्टिगोचर होता है, वे सब मृगमरीचिका के समान मिथ्या पानी है, यह समझकर सत्य कहना और सत्य जीवन जीना चाहिए। तभी सत्य का स्वभाव परमानंद निरुपाधिक नित्य अपने स्वभाविक अनुभव हो सकता है।

3733.  जितने जन्म लेने पर भी, बिलकुल परमानंद स्थिति को एहसास किये गुरु गुरु /अखंड बोध स्थिति को देखकर गुरु के कर्म देखकर, गुरु के वचन सुनकर शिष्य को गुरु के अखंडबोध स्थिति को ग्रहण नहीं कर सकता। गुरु अपने  सामने  के शिष्यों को उपदेश देते समय गुरु से अन्य शिष्य है को सोचकर उपदेश नहीं देते। वशिष्ट महर्षी श्री रामचंद्र को उपदेश देते समय श्री रामचंद्र परमात्मा है, वह परमात्मा ही वशिष्ट गुरु बनकर परमात्मा परमात्मा को उपदेश देने की रीति से ही वशिष्ट महर्षि श्री रामचंद्रन को उपदेश देते हैं। वैसे ही गुरु शिष्य को उपदेश देते समय उनको ऐसा लगेगा कि अपने आपको उपदेश दे रहे हैं। कारण एकात्मक गुरु मात्र होते हैं। जो बाकी है सा लगता है,वे दृश्य और कर्म गुरु के लिए एक खेल मात्र है।रण क्षेत्र में भगवान श्री कृष्ण सबको स्वयं सोचकर ही सभी कर्म करते हैं। यह एक अद्वैत स्थिति ही है। इस स्थिति को जो शिष्य सत्य का एहसास नहीं करता, वह अपनी सीमित बुद्धि से समझ नहीं सकता। उसके लिए शिष्य का शारीरिक अभिमान
जीवबोध अर्थात् शारीरिक खंड बोध को गुरु के सामने  संपूर्ण रूप से समर्पण करना चाहिए। तब गुरु और शिष्य एक ही अखंडबोध बनकर परमानंद रूप में स्थिर खडे रहेंगे।

3734.मैं  सच हूँ या झूठ विवेक से जानते समय सच के सामने झूठा शरीर है,झूठा मैं है को अपरिहार्य बोध के द्वारा एहसास कर सकते हैं। अर्थात्  यथार्थ स्वयं बने बोध की शक्ति स्वयं आकर अपने को अंधकार रूप में छिपाने से उसमें स्वयं प्रतिबिंबित-सा लगकर अपनी शक्ति बनाये चित्त बनाकर दीखनेवाले संकलप शरीर सांसारिक रूप माया दृश्यों के पीछे प्रतिबिंब जीव रूप में जाकर फँसकर तडपनेवाला मन नित्य दुखों को भोगने से दुख से बाहर आने के प्रयत्न के फलस्वरूप वापस आकर अहम् जाकर अपने को नष्ट हुए अपने यथार्थ स्वरूप बध को पुनर्जीवित करने के लिए हरेक जीव जानकर अनजाने  बनकर  तरसकर पमदुखप्रयत्न करने की दशा ही जीवन है।

3735. सर्वव्यापी और निश्चलन परमात्मा सृष्टि लीला चलाने के लिए चलन स्वभाव के साथ पराशक्ति रूप में बदलकर सृष्टि करके दिखानेवाले इंद्रजाल के भाग ही यह शरीर,संसार और संसार के  जीव अर्थात सभी चराचर होते हैं। नाम रूपात्मक रूप में और प्रपंच रूप में आये सूक्ष्म से सूक्ष्म निश्चलन वस्तु ही यह ब्रह्म है। वह ब्रह्म निश्चलन अवस्था में परमात्मा के रूप में , चलन अवस्था में पराशक्ति रूप में चमकते रहते हैं। वे  हर एक जीव में शरीर  व प्राण के रूप में होते हैं।  वे व्यष्टि  और समष्टि के रूप में होते हैं। अर्थात् एकात्मक और अनेकात्मक होते हैं। एकं परमानंद होता है, अनेकात्मक  परमदुख होता है। अनेक अस्थिर होता है। एकं स्थिर होता है। अस्थिर मृगमरीचिका स्थिर रेगिस्तान में  स्थिर-सा लगता है। वह रेगिस्तान का स्वभाव  ही  है। वैसे ही अस्थिर महामाया स्थिर ब्रह्म में अर्थात् अखंड बोध में स्थिर रूप-सा दीख पडता है। इसका एहसास करनेवाले को परमानंद है, इसको एहसास न  करनेवालों को नित्य दुख होता है।

3736. समुद्र में बनकर छिपनेवाले सभी बुलबुलों को एक  ही आधार समुद्र ही है। वैसे ही देखनेवाला शरीर सहित सभी चराचर प्रपंच का आधार है मैं रूपी अखंडबोध। जो जीव अपने शरीर बननेवाले पंचभूत पिंजरे को तैलधारा जैसे आत्मविचार  द्वारा विस्मरण करता है, उसके साथ जीवभाव छिपकर खंडित प्रतिबिंब बोध  अखंडबोध स्थिति को पाएगा। समुद्र में कितने बुलबुले बनकर मिटने पर भी समुद्र पर कोई असर न पडेगा। वैसे ही अखंडबोध में अनेक प्रपंच उत्पन्न होने पर भी,न होने पर भी बोध पर कोई प्रभाव न पडेगा। एक बुलबला मिटकर मैं समुद्र बन गया कहने के लिए वापस नहीं आएगा। वैसे ही एक जीव ब्रह्म स्थिति पाते ही वापस आकर न कहेगा कि मैंने ब्रह्म स्थिति पायी है। क्योंकि जीव तीनों कालों में नहीं होते। बनकर मिटना एक भ्रम मात्र है। उस  भ्रम का नाम ही माया है। अखंड से अन्य कोई स्थान न होने से माया रूप किसी भी काल में बन नहीं सकता। ब्रह्म की उपमा के लिए  सीमित समुद्र का उपयोग नहीं करना चाहिए। कारण भूमि नहीं तो समुद्र भी न रहेगा। वैसे ही अखंडबोध सभी कालों में रहेगा। वह स्वयंभू है। समुद्र स्वयंभू नहीं है। समुद्र तीनों कालों में नहीं है।जो बना है, वह मिट जाएगा। जो मिट जाता है, वह नहीं है। माया सब स्थानों में से बन नहीं सकती। कारण ब्रह्मा सर्वत्र विदयमान है। लेकिन सत्य को न जाननेवाले जीव को ही माया उपस्थित-सा लगता है।

3737. मनुष्य के अवयवों में एक भाग में चोट लगने पर सारे शरीर में दर्द होता है। वैसे ही ईश्वर सृष्टित इस संसार में एक जीव दुखी होने पर  भी भगवान दुखी होंगे। क्योंकि सभी जीव ईश्वर से अन्य नहीं है। तीनों कालों में रहित हैंं कि चींटी से ब्रह्मा तक के जीव जो दिव्य शक्ति माया द्वारा सृष्टित दृश्य इंद्रजाल मात्र है। इसके एहसास की स्थिति ही साक्षात्कार की दशा है। अर्थात् मैं रूपी अखंडबोध मात्र ही परमानंद स्थिति ही नित्य सत्य रूप में चमक रहा है।

3738.लोक व्यापार अर्थात्  लोकयुक्त जीवन में मात्र डूबकर सांसारिक जीवन बितानेवालों का मन बहुत शीघ्र सत्य के समीप जा नहीं सकता। कारण आत्मबोध रहित मन अहंकार को छूकर अधर्म करके व्यापार करते समय  अधर्म कर्म का फल तुरंत  मिलता है। उसके कारण वे मंदिर में जाकर भगवान के सामने खडे होते समय उसके मन में व्यापार स्थल और धन की चिंता मात्र ही होगा। अर्थात् हृदय गुफा में होनेवाला अहमात्मा बने भगवान पर  उसका मन कभी न लगेगा। उसका भगवान उसकी आवश्यक्ताओं को पूर्ति करनेवाले उनसे अन्य बने संकल्प देवताएँ ही हैं। संकल्प देव में निस्वार्थ भक्ति रखनेवाला,  मृत्यु के बाद संकल्प देव लोक जाता है। उसी समय संकल्प देव को स्वार्थ के लिए उपयोग करनेवाले मृत्यु के बाद नित्य दुख के नगर जाएगा। अर्थात्  संकल्प कर्म चक्र में दुखी होकर घूमता रहेगा। ये सब सत्य को न जाननेवाले ज्ञानी-अज्ञानियों को भी
यही स्थिति होती है। ज्ञान-अज्ञान को पार करके ही यथार्थ सत्य  होता है।
वह सत्य ही मैं रूपी अखंडबोध होता है। वही सब के परमकारण होता है। वह स्वयं ही है का एहसास करनेवाला ही भाग्यवान होता है।

3739. मन से नियंत्रित  मनुष्य चिंतन करते समय  वह एहसास नहीं करेगा कि  वह घूमनेवाले भूमि में ही है। इस दृश्य को मंगल ग्रह में या चंद्रही  में जो जाते हैं वे  ही देखकर  रस ले सकते हैं। चंद्र से देखते समय अनंतकोटी नक्षत्रों के बीच आकाश में एक  बूंद सा भूमि  दीख पडेगा। इन दृश्यों को आत्मज्ञान सीखकर जो अखंडबोध  स्थिति को प्राप्त किया है, वे कहीं न जाकर आँखें बंद करके सुषुमना में अपने में देख सकता है। ऐसे चिंतन एक मनुष्य को उसके संकीर्ण शारीरिक स्वार्थ चिंतन से उन्नत स्थिति की ओर ले जाएगा। जो ऐसे चिंतन नहीं करते, वे ही पशुओं के समान परस्मर भिडकर श्रेष्ठ मनुष्य जन्म को व्यर्थ करके कई नीच योनियों से मिलकर कई स्वप्न जन्मों की खोज में जाते हैं।
3740. धन हो या न हो आत्मार्थ रूप में देने का मन जिसमें है,उनके लिए मन अक्षय पात्र बनेगा। कारण इनसे मिलकर ही प्रकृति महामाया जीवों को  परस्पर पूर्ण बनाता है। जिसका मन मनःसाक्षी के नियंत्रण में है, उसकी दृष्टि में सभी जीव उसके जैसे ही रहेगा।मनःसाक्षी आत्मा ही है। वह आत्मा ही यथार्थ सवयं बनी परमात्मा होती है। वह परमात्मा ही कामधेनु होती है। जो अपने को ही कामधेनु का महसूस करता है, वह ब्रह्मांड को ही त्याग कर सकता है। कारण इस ब्रह्मांड का सृष्टि कर्ता वही है।

3741. मनुष्य और जानवर में परस्पर नुख्य भेद यही है कि स्वयं जानने की बुद्धि और विवेक ही है। वह मनुष्य मात्र में है। लेकिन मनुष्य में विवेकी और अविवेकी होते हैं। विवेकी अनिश्चित आयु को बेकार न करके हर एक क्षण को जागृति के साथ अर्थात् आत्मबोध में स्थिर खडे होकर किसी  भी प्रकार के संकल्प न करके
वर्तमान जीवन बिताकर बोध का स्वभाव शांति और आनंद को भोगता है।उसी समय अविवेकी  भूल से अपने शरीर को आत्मा समझकर अहंकार के स्वभाव राग-द्वेष, भेदबुद्धि,काम क्रोध आदि में फँसकर तडपकर, दुखी होकर कल्पना जगत में जीवन बिताकर मर जाता है  और अपनी अधूरी अभिलाषा पूरी  करने पुनर्जन्म लेता है।

3742.  प्रपंच के शासक, प्रपंच रूप के असीमित परमात्मा अपनी शक्ति माया से सीमित जीवबोध  होकर शरीर अंतर्यामी बनकर जीव के हृदय में रहता है। विवेक  के विवेकी पुण्यात्मा ही शरीर और संसार को विवेक से जानकर परमात्मा रहनेवाले हृदय को ब्रह्मांड से बढिया कोष के रूप में रक्षा करके आत्मबोध प्राप्त करके भारत में जीता है। चौदह संसार में बढिया है भूमि और भूमि की आत्मा है भारत। उसे समझनेवाले ही भारतवासी है। कारण आत्मज्ञान सीखने के सभी संदर्भ परिस्थितियाँ भूमि में हैं।  भूतकाल की घटनाएँ, वर्तमान में होनेवाली घटनाएँ और भविष्य में होनेवाली बातें सब के सब व्यासर रचित पुण्य
ग्रंथ महाभारत में है। लेकिन महाभारत में धर्म कर्मों को ही मुख्यत्व दिया गया है।
उसे कार्यान्वित करने के लिए ही आरंभ से अंत तक धर्म और कर्म से परे निष्क्रिय, निर्विकार ब्रह्म को, ब्रह्म के महत्व के बारे में बोधित करने के लिए भगवद्गीता की रचना हुई है। उसके बाद ही वेदव्यास को शांति  मिली और आनंद  मिला। क्योंकि श्री कृष्ण गीता में अर्जुन से उपदेश देते हैं कि सभी प्रकार के धर्म -अधर्म को छोडकर आत्मा रूपी अपने चरणों में शरणागति लेना है।अर्थात्  सभी धर्म कर्म के अंतर्गत होने से धर्म सब दुख होते हैं। कर्म विमोचन ही दुख विमोचन होता है। वह दुख विमोचन ही आत्मविचार होता है। आत्मविचार अर्थात् आत्मबोध एक ही मोक्ष देगा। कारण आनंद आत्मा का स्वभाव मात्र है।

3743. अपनी परछाई देखकर भागनेवाले बच्चे के जैसे ही अज्ञानी और आत्मबोध रहित सत्य से अनभिज्ञ अविवेकी ही सत्य की छाया प्रपंच में माया बनाकर दिखानेवाले प्रकृति प्रकोप, महामारी को देखकर मृत्यु भय से दुख झेलता रहता है। लेकिन वेद -शास्त्र   आत्मज्ञान प्राप्त विवेकी वह असल नहीं.स्वयं अस्थिर छाया है, को विवेक से जानकर निर्भय संकल्प भूत को आत्मज्ञान अग्नि में जलाकर मन को सम स्थिति में लाकर आत्म का स्वभाव आनंद को भोगकर कमल के पत्ते और पानी जैसे निस्संग रूप में मिथ्या जगत में जिएगा। भूलोक में मनुष्य जन्म का एक मात्र लक्ष्य यही है। इसलिए मन रूपी भूत को समझने के लिए यह मन क्या है? को समझना चाहिए। वह जैसे भी,कहीं से भी, किस रूप में भी आए, हमें सोचना चाहिए कि मन को कैसे नाश करना चाहिए। कारण मन ही सभी दुखों को उत्पन्न कर रहा है। उसके लिए एक ही मार्ग है, आत्मज्ञान को सीखकर तैलधारा जैसे आत्मविचार में, मुक्ति चिंतन में  विचार मग्न रहना चाहिए। कारण जब तक मन स्थिर खडा रहता है,तब तक सांसारिक दृश्यों का अंत न रहेगा। क्योंकि मन सदा नयी नयी कल्पनाओं को बनाकर, फिर फिर अधिकाधिक दुखों को उत्पन्न करता रहेगा। वही मन का स्वभाव होता है। इसलिए आत्मबोध से न हटकर जो कोई संकल्प नहीं करता,
वही मन को मिटा सकता है। जो मन को नाश न करके मनोनुकूल चलता है, वह जिंदगी भर दुख का अनुभव करके स्वर्ग में, भूमि में,  विविध प्रकार के  योनियों में
जन्म लेकर, जीकर, दुख भोगते रहेंगे। इसलिए जो भी दाम हो, उसे चुकाकर संकल्प रहित करके नित्य मुक्त होना चाहिए।

3744. जो है, वही है को कहते समय वह हथेली में  परिहार्य नहीं है। उसे कहनेवाला एक अनादी से स्थिर खडा रहेगा ही। कारण अनादी अनंत असीमित एक के बारे में कहने के लिए सीमित एक स्थिर खडा रहना ही चाहिए। उसकी असीमित बल सीमित में है। क्योंकि बिजली जानने के लिए बल्ब होना चाहिए।
अर्थात् प्राण रूपी अहंकार ही महा अहंकार होता है।जो जीव अपने मन को एकाग्र चित्त बनाता है, उसके साथ उसका प्राणन चमकने लगेगा। वह  प्रकाश
शरीर  में ही दूर नहीं रह सकता। वह प्रकाश शरीर के सभी द्वारों में मिलकर प्रकट होगा ही। तब इस संसार के सभी रूप प्राण केंद्र में बदलकर सभी रूपों में प्राण रूप महा अहंकार में आकर मिट जाता है। तभी कह सकते हैं कि यह ब्रह्मांड
ही अपने में है। अर्थात् यह सारा प्रपंच प्राणमय है। अहंकार भी प्राणमय है। अहंकार प्राण रूप ही है। अर्थात् एक बरफ़ गरम होकर पिघलते समय वह बाढ बनकर आकाश में भाप के रूप में आकाश बनने के जैसे यह प्रपंचरूप उसके सूक्ष्म दल में आकर अहंकार में लय हो जाएगा। अर्थात् विश्व प्राण प्रकाश का मतलब है कि कई हज़ार करोड सूर्य एक साथ आनेवाले प्रकाश जैसे है। वैसे ही अणुबम्  विस्फोट  होते समय वैसे प्रकाश को देख सकते हैं।वैसे प्रकाश रूप में ही कृष्ण अर्जुन को प्रदान किये दिव्य नेत्रों से अर्जुन कृष्ण को देखा है। लेकिन वह महा अलंकार प्रकाश -सा लगने के कारण उसके पीछे रहनेवाले स्वयं प्रकाश स्वरूप मैं रूपी अखंडबोध ही है।वैसे बोध से आश्रित होकर ही यह प्राण,अहंकार, प्रपंंच आदि प्रकाशित लगता है। लेकिन ये सब बोध में लगनेवाली मृगमरीचिका के जैसे रहनेवाली माया दर्शन ही है। कारण जो बनते हैं, वे सब मिटजाते हैं। अनश्वर चिरस्थाई अखंडबोध ही है। अनश्वर सब स्थाई नहीं हो सकता। यही सत्य है। अर्थात्  प्राण प्रकाश होते समय प्राण के पीछे रहनेवाला मैं बनाम अखंडबोध ही है।  प्राण के उपासक प्राण के प्राण अखंडबोध स्थिति को पाने के लिए ही प्राण की उपासना करते हैं। वे ही ज्ञानी होते हैं, जो प्राण,मन,शरीर आदि सोच-विचार के बिना खुद को अखंडबोध समझते हैं और एहसास करते हैं। बोध ही परम कारण होता है। ज्ञान की उच्च दशा  स्वयं को ही बोध जानना- समझना 
और एहसास करना ही है।

3745. विश्व से बढकर प्राण को मुख्यत्व देनेवाला ही  महान है।जो प्राण को मुख्यत्व  नहीं देते ,वे उन महानों का शिष्य बनते हैं। जिनके रहने से सब रहते हैं, वही श्रेष्ठ है। वही बोध होता है। वह बोध बना नहीं है। वह स्वयंभू है।  इसलिए वह मिटता नहीं है। अनश्वर को जाननेवाला ही बडा होता है। यह शरीर और संसार परिवर्तन शील होते हैं। बनकर बिगडते हैं। इसलिए वे नशवर होते हैं। जो जड वस्तुएँ नहीं है, उन पर मनोकामना रखनेवाला दुखी रहेगा। जो स्थाई बोध की कामना करता है, वह सुखी है। इसलिए जड को सोचकर जो दुखी होते हैं, वे नित्य चैतन्य स्वभाव रूपी बोध को एहसास करके सुख अनुभव करनेवाले का शिष्य बनते हैं।

3746.इस संसार में सभी जीव आनंद की खोज में ही भटकते हैं। सुख ही चाहते हैं। समस्या यही है कि  वह आनंद आत्मा का अपना स्वभाव न जानना ही है। वह आत्मा स्वयं ही है। वह आत्मा अपने से भिन्न नहीं है। वह स्वयं ही है। इसलिए आत्मज्ञान के लिए इस संसार में कहीं खोजकर जाने की आवश्यक्ता नहीं है। सब को स्वयं कहने पर अपने शरीर ही स्मरण आता है।उनको जानना चाहिए कि यंत्र वाहन चलाने के लिए चालक चाहिए। पहले यह एहसास कर लेना चाहिए कि अपना शरीर एक यंत्र है, उस यंत्र को चलानेवाला चालक स्वयं ही है। तभी समझ सकते हैं कि  मैं (स्वयं)  और शरीर भिन्न-भिन्न है। यंत्र जड ही है।वह अनात्मा है। यंत्र स्वयं नहीं जानता।  उसको नहीं मालूम है  कि  स्वयं मैं है। केवल वही नहीं वह कर्म चलन स्वभाव का है। चलन बोध भ्रम के सिवा सच नहीं हो सकता। कारण बोध सर्वव्यापी और निश्चलन है। उस निश्चलन में कोई चलन  किसी भी काल में न होगा। वह बोध रूपी रेगिस्तान में प्रपंच रूपी मृगमरीचिका ही है। अर्थात् आनंद स्वरूप स्वयं आत्मा  अर्थात् बोध को इस प्रपंच रूपी जड विषयों में खोजने पर,अत्यंत प्रयत्न करने पर भी,होम यज्ञ करने पर भी अधिक प्रयत्न करने पर भी नहीं मिलेगा। कारण खुद जिसे खोजता है, 
वह खोजनेवाली वस्तु स्वयं ही है। अपने को ही खोजनेवाले को विवेकी नहीं कह सकते। इसलिए स्वयं खोजने की वस्तु स्वयं ही समझकर खोजने को छोडकर स्वस्वरूप को स्मरण करके संकल्प के लिए अपने से अन्य कोई यहाँ नहीं है। इसका एहसास करके किसी भी संकल्प किये बिना रहना चाहिए। तभी आत्मा रूपी अपने सहज स्वभाव आनंद और शांति खुद अनुभव से मिलता है। अर्थात्  एक रूप के समुद्र खुद लहरों और बुलबुलों के जैसे बदलने के समान ही निश्चल आत्मा रूपी मैं ह अपनी शक्ति माया से इस चलन रूपी प्रपंच दृश्यों में बदलता है को एहसास करके अन्य चिंतन उदय न होने की दशा में स्वात्म रीति में डूबकर जीवात्मा रूपी अपनी परमात्म दशा में पाकर परमानंद को अनुभव करके वैसा ही बनना चाहिए। एक देने से 100 मिेलेगा वह जो भी दें, सौ में वापस आएगा। इसलिए जो बढिया है, उसे ही देना चाहिए। वह श्रेष्ठ भिखारी से लेकर राजा तक एक जैसा हैं। वही अहमात्मा है। वह अहमात्मा ही स्नेह का रूप है। उसका एहसास करके उसके स्वभाव आनंद को एहसास करनेवाले को ही उसे दे सकते हैं। उनके पास ही वह अनेक हज़ार के रूप में वापस आएगा।

3747. वही जीवन को सही मार्ग पर ले जा सकता है, जो जिंदगी के संदर्भ में और परिस्थिति में बने दुख में फँसकर मुक्त हुआ है। वैसे समझे जीव ही बीज बोने के योग्य परिपक्व उजाऊ भूमि है। उसमें आतमज्ञान के बीज बोते समय ही भूमि को अनेक महात्माएँ संसार और जीवों की भलाई के लिए मिलेंगे। वैसी महात्माएँ भूमि पर होने से ही अज्ञान जीव दुख होते समय दुख निवृत्ति  के लिए  उनकी शरणागति प्राप्त कर सकते हैं। कुछ न कुछ त्याग किये बिना कुछ भी न मिलेगा। इसलिए इन चौदह लोकों में से श्रेष्ठ आत्मज्ञान मिलने के लिए प्रपंच को ही त्याग करना चाहिए। प्रपंच एक के मन में ही है। इसलिए वह मन को ही त्याग करना चाहिए। मन को त्याग करनेवाले से से भगवान मिलेगा। वो ईश्वरीय स्थिति पाएँगे।

3748. जो कोई विष्णु की स्थिति में है, उसमें ही महालक्ष्मी बसेगी। विष्णु स्थिति, विष्णु स्थिति जिसमें नहीं है, उसको लक्ष्मी मिलने पर भी लक्ष्मी को उपयोग नहीं कर सकता। विष्णु स्थिति जिसमें नहीं है,वह लक्ष्मी को उपयोग करने को सोचने पर भी दुख के पटाखे फटता रहेगा।
3749. मन आत्मा के निकट आते समय कर्म मिटता रहेगा। कारण मन ही कर्म स्वभाव का है। एक रूप से आश्रित होकर ही मन स्थिर खडा रह सकता है। निराकार सर्वव्यापी निश्चल आत्मा की ओर मन लगते समय मनकी चंचलता मिट जाएगी। अर्थात् मन की चलनशीलता और निश्चलनता के कारण विषय वासनाएँ ही होती हैं। उन विषय वासनाओं को तजकर मन को सम दशा लाने के लिए समुद्र और बुलबुलों को लहरों को देखने पर तीनों एक ही समु्द्र है। वैसे ही ब्रह्म में जीव और निर्जीव, नाम रूप जितने देखते हैं,वे ब्रह्म रहित दूसरा एक बन नहीं सकता। लेकिन ब्रह्म शक्ति महा माया देवी ब्रह्म बोध को छिपाकर बनाये प्रतिबिंब जीव माया चित्त बनाकर दिखाने वाले प्रपंच विषय वस्तुओं को देखकर यथार्थ स्वरूप को भूलकर विषयों के पीछे जाकर उनको सच सोचता है। वे ही वासना के रूप में प्रकट होकर अनश्वर खडा रहता है। अर्थात् वासना के आरंभ रहित संसार ही है। भेद बुदधि से ही वासनाएँ आरंभ होती है। रस्सी के साँप के दर्शन करना सत्य न जानने से ही। वैसे ही वासनाएँ हैं।रस्सी को साँप समझना हल्की रोशनी ही है। हल्की रोशनी के कारण प्रकाश की अपूर्णता ही है। इसलिए पूर्ण प्रकाश होने के लिए पूर्ण प्रकाश के बोध को छिपानेवाले मन को तैलधारा के जैसे आत्मविचार से जलाना चाहिए। तभी चित्त का नाश होगा। चित्त नाश ही भेदबुद्धि को मिटा देगा। साथ ही साँप रूपी प्रपंच रस्सी रूपी आत्मा में कभी नहीं दीखेगा। वैसे ही समुद्र में कितनी लहरें, बुलबुले देखने पर भी पानी रूपी वस्तु को देखते समय ही नाम रूपी लहरें बुलबुले  छिप जाएँगे। वैसे ही ब्रह्म में उत्पन्न होकर दृष्टिगत प्रपंच में ब्रह्म वस्तु को मात्र देखते समय नाम रूप के प्रपंच नश्वर हो जाएगा।   मिट्टी से बनी  दो मूर्तियाँ एक देवी की,दूसरी भूत की। दोनों  एक ही मिट्टी के ही हैं। अर्थात मिट्टी रूपी वस्तु को भूलकर देवी,भूत नाम रूपों को भेद
बुद्धि में देखनेवाले अज्ञानियों को ही रागद्वेष और उनके कारण दुख होगा। उसी समय भूत और देवी में मिट्टी को मात्र देखनेवालों को राग-द्वेष न होगा। इसलिए
उसको दुख नहीं होगा। सुख मात्र होगा। जब यह ज्ञान बुद्धि में दृढ होता है, तब वासनाएँ मिट जाएँगी। तब मन सम स्थिति में आएगा। समदशा का  मन ब्रह्म ही है। ब्रह्म का स्वभाव परमानंद ही है। वह स्वयं ही है। वही ज्ञान है।

3750. सर्वव्यापी परमात्मा स्वस्वरूप को भूलकर संकल्प शरीर को स्वीकार करते समय अखंडबोध खंड बन जाता है।  खंडबोध से अखंडबोध में बदलने के बीच के काल ही जीवन है। उनमें कुछ लोग आत्मबोध प्राप्त करके जीवन बिताएँगे। जो कोई आत्मबोध के साथ  सांसारिक जीवन चलाते हैं, उसका कर्म स्वयं ही मिट जाएगा। साथ ही जीव बोध को भूलकर खंडित जीवबोध अखंडबोध स्थिति को पाएगा। आकाश जैसे  मन में रूपों को फँसाकर जीव की आत्मशक्ति को घटाकर जड बोध का विकास करना ही प्रकृति की योजना होती है। वैसे लोग ही आत्मबोध रहित अहंकार के साथ लौकिक जीवन बिताकर अहंकार के स्वभाव भेदबुद्धि, रागद्वेष, कामक्रोध के कारण होनेवाले दुख में फँसकर तडपकर अगले जन्म के लिए बीज बोकर मर जाते हैं।

3751.  पक्के दो दोस्त एक ही चित्र पट में  परस्पर शत्रु नायक-खलनायक के अभिनय देखकर  दर्शक  कथानायक को अच्छा मानते हैं, खलनायक को बुरा मानते हैं। जो जानते हैं कि दोनों दोस्त हैं, चित्रपट में मात्र दुश्मन है। वे लोग उन दोनों में फर्क नहीं जानते।जो नहीं जानते, वे ही भेद देखते हैं। दुख देनेवाले भेद बुद्धि के कारण जानने की बुद्धि में ही दुख निवृत्ति होगी। अर्थात ज्ञान ही मुख्य है। एक मेले में विभिन्न रंगों के बल्ब जलते हैं। उस मेले के उम्मेदवार अपने-अपने रंग को लेकर परस्पर भिडते हैं कि अपने रंग के बल्ब ही बढिया है, पर वे नहीं जानते-समझते हैं कि बिजली के बिना कोई बल्ब न जलेगा। एक ही बिजली ही सब को जलाती है। वह बिजली न तो कोई प्रकाश न होगा। बिजली को मात्र देखनेवाले को सभी रंगों के बल्ब  जड ही है। बिजली को भूलनेवाले को ही भेद बुद्धि-राग-द्वेष सब होगा। वही  दुख के कारण होेते हैं। वैसे ही इस संसार में एक ही बोध रूपी आत्मा मात्र ही सभी जीवों में  एक ही बोध मात्र ही है। जो इस बात को जानते है, उनमें स्पर्धा, ईर्ष्या,राग,द्वेष,और उनके द्वारा होनेवाले दुख भी न होंगे। बोध को भूलकर रंगों को देखनेवालों को ही भेद बुद्धि होगी। उनके कारण दुख ही होंगे। बोध रहित सब जड और माया ही है। दुख निवृत्ति चाहनेवाले जड को तजकर आत्मबोध को ही एहसास करना चाहिए।

3752. इस संसार में पुण्यात्माओं को ही आध्यात्मिक शास्त्र को पढने के लिए उद्वेग होगा। आध्यात्मिक शास्त्र रहित जो भी शास्त्र सीखें, उनके निजी स्वरूप रूपी आत्मा का स्वभाव आनंद को भोग नहीं सकते। यही नित्य सत्य है। क्योंकि आध्यात्मिक शास्त्र न सीखनेवाले अपने जीवन के समय को बेकार नहीं करते। वैसे लोगों को जीवन किसके लिए ? नहीं जानते। उनको  नहीं  मालूम है  कि जीवन में साध्या क्या करना चाहिए। सब में एक रूपी भगवान अर्थात् आत्मा भरा रहता है। उस आत्मा रूपी बोध को अकारण आयी दिव्य शक्ति माया के छिपाने से ही आत्मा के बदले भूल से शरीर को आत्मा सोचकर शारीरिक अभिमान से अहंकार रूपी जीव विषयों के पीछे जाकर मार्ग न सूझकर फँसकर तडपते हैं। उसके कारण आत्मा स्वयं प्रकाशित है। अहंकारी को स्वयं प्रकाश नहीं है। इसीलिए अहंकारी को  सीधे मार्ग न जानने से कई दुखों का सामना करना पडता है। इसलिए अहंकार रूपी अंधकार से बाहर आने के लिए प्रकाश रूपी आत्मा को छिपाये मन रूपी पर्दे को हटाना चाहिए। उसका एक मात्र मार्ग है, 

संकीर्ण पथ पर न जाकर सही मार्ग पर संचरण करने के लिए सद्मार्ग को बनानेवाले आत्मविचार करना चाहिए। जो वैसा करता है, उसकी आत्मा मात्र चमकेगी। अविद्या विषयों में मग्न होनेवाली बुद्धि में आध्यात्मक रूप में कुछ करने न सूझेगा। वैसे अज्ञानियों को विपत्तियों के बिना अज्ञानियों को अच्छे कार्य कुछ भी न होंगे। वैसे लोग ही इस संसार को स्थिर खडा रखते हैं।

3753. पंचेंद्रियों से, मन से,बुद्धि से जाननेवाले सभी ब्रह्मांड अर्थात् स्वयं के संकल्प करके बनाये सभी ब्रह्मांड आत्मा बने बोध अभिन्न ही हैं। उसको उससे अन्य कोई ऊपर भी नहीं,नीचे भी नहीं, बायें भी नहीं, दायें भी नहीं। इस बोध से निकलकर मिटने के जैसे लगनेवाले यह शरीर सहित सभी रूप सूक्ष्म में बोध आकाश के बिना अथवा ब्रह्म के बिना और कोई नहीं है। भ्रम से बोध रूपी आत्मा को ही यह विश्व देखता है। स्वयं रूप रहित अखंडबोध मात्र है के ज्ञान की दृढता से नाम रूप छिप जाते हैं। यह ज्ञान दृष्टि ही आत्मज्ञान को पूर्ण करता है। अर्थात वही आत्मसाक्षात्कार होता है।
3754.कोई दूसरी आत्मा से स्नेह करते समय ही  स्नेह आनंद बनता है। कारण आत्म स्वभाव आनंदपूर्ण है। उस आत्मा को ही स्नेह कहते हैं।जो कोई स्वात्मा को मन से प्यार करता है, वह आत्म प्रकाश में मन छिपकर उसके आत्मस्वरूप में बदलेगा। अर्थात् स्नेह स्वरूप के रूप में बदलेगा। अर्थात् अपने को ही स्नेह स्वरूप के रूप में एहसास करना चाहिए। तभी दूसरे से प्रतिफल की प्रतीक्षा के बिना स्नेह कर सकते हैं, निष्काम कर्म कर सकते हैं। वैसे संपूर्ण प्रपंच को प्यार करते समय स्नेह दीप्त होगा।असीमित आनंद होगा। वह दूसरे स्थान से मिलनेवाला नहीं है। वह अपना स्वभाव ही है। अर्थात् स्वयं ही सत्य स्वरूप है,परमात्म स्वरूप है,अखंडबोध है,वही ब्रह्म है। अर्थात् अपने स्वभाव ही परमानंद है।

3755. सत्य से हटे बिना जीवन चलानेवाले का विकास ब्रह्मांड रूप में बढेगा। असत्य को पूर्ण रूप से पालन करनेवाले का विकास प्रलय पतन ही होगा। मरण का मतलब है सत्य विस्मरण ही है। “मैं” है का अनुभव ही सत्य है। वही सत्य में निष्ठा  रखता है,जो एक क्षण भी आत्मबोध को विस्मरण किये बिना रहता है। अर्थात् वह स्वयं  ही सत्य जानता है। उस सत्य का स्वभाव ही परमानंद है। वह परमानंद सत्य ही शक्ति है। आत्मा के संकल्प  शक्ति रूपी मन माया के रूप में छिपा देने से उसमें प्रतिबिंबित लगे प्रतिबिंब बोध जीव रूपी पंचभूत पिंजड़े के शरीर के अभिमान से अभिमानित स्वस्वरूप को अर्थात् परमानंद को भूलकर जीने से ही अब परमानंद को अनुभव नहीं कर सकता। उसी का मन माया प्रबंध को जीत सकता है जो कोई मन को सम दशा लाने में बाधा डालनेवाले रागद्वेष से मुक्त होकर सम दशा में ले आता है। वही मरण रहित श्रेष्ठ जीवन स्थिति पाएगा।

3756. हर एक जीवात्मा अपने  मन को आत्मा में संपूर्ण समर्पण करके जीव मुक्ति पाना है। कैसे जीव मुक्ति पाना है?  मन आत्मा से तब विलीन होगा,जब शारीरिक अभिमान और अहंकार के पीछे मन माने मार्ग पर जाकर विश्व वासनाओं को अनुभव करके विषय नाश और विषय देनेवाले दुख को असहाय स्थिति में अनुभव करके अहंकार का नाश होता है। आत्मा रूपी सत्य को दृढ रूप में पकडनेवाले को ही सत्य की और बोध की अखंडस्थिति को पा सकते है।वैसे अखंड स्थिति को प्राप्त जीव की सहायता के लिए बोध भगवान उसके सामने कई रूपों में दर्शन देंगे। जो कोई अन्य सोच-विचार के बिना बोध में मात्र होता है,
उसके सभी क्षेमों को बोध भगवान स्वयं पूरा करेंगे। वही बोध की नियति है। वह उसका स्वभाव ही है। वह ज्ञान की दृढता के लिए सब दुख के देनेवाली कल्पना 
लोक में जन्म मरण के चक्र में घूमता रहेगा। सत्य को दृढ रूप में पकडकर रखनेवाले ही उसके सभी व्यवहारों में सफलता पा सकते हैं। जो वैसा नहीं रह सकता, उसका जीवन बेकार ही है।

3757. गलत और सही दोनों मानसिक कल्पना ही है। यथार्थ में सत्य न जानना ही गलत है।सत्य अपरिवर्तनशील है। असत्य परिवर्तनशील और माया  है। भूल करना मनुष्य के लिए सहज बात है। क्योंकि उसका मन, बुद्धि, अहंकार परिवर्तन शील है। उसमें अपरिवर्तन शील आत्मा ही उसका अस्तित्व है। इसलिए किसी भी काल में अपरिवर्तन शील आत्मा रूपी मनःसाक्षी के नियंत्रण में जीनेवाला ही गल्तियाँ सुधरकर जी सकते हैं। धर्म-अधर्मों को विवेक से जानकर धर्म के मार्ग पर स्वयं सुधरकर जीनेवाले को नेता बनाने से ही दल अच्छी दिशा पर यात्रा करेगा। दल अच्छे हैं तो देश भी अच्छा होगा। देश के विकास होने पर नेता का महत्व विश्व जानता है। तभी उस देश को विदेशी चाह से आएँगे। जिस देश में पुण्य आत्माएँ जीती हैं,वह देश ही समृद्धि संपन्न  पुण्य देश होता है।

3758.कुलदेवता दोष,दृष्टिदोष आदि कहनेवालों को स्वयं सोचना चाहिए कि शास्त्र सत्य देवता सर्वत्र विद्यमान है। भगवान सर्वव्यापी होने से दोष होने के लिए स्थान नहीं है। ईश्वरीय चिंतन -स्मरण न होने को ही यथार्थ में दोष कहते हैं। इसीलिए सभी प्रायश्चित्त ईश्वरीय चिंतनकी ओर ज़ोर देते हैं। सभी चराचर ईश्वर से भिन्न नहीं है। स्वयं के बोध से अन्य न होकर यह जगत है। अर्थात बोधाभिन्न जगत । वह बोध बने आत्मा ही सभी कुल देवी,देवताओं को शक्ति बाँटकर देता है। इसे जान-समझकर कार्य करते समय सभी देवी-देवता हमारे अनुकूल होंगे।  अर्थात् निरंतर आत्म स्वरूप स्मृति दोष निवृत्ति,निरंतर आत्म विस्मृति दोष होंगे।

3759. स्नातक बनकर नौकरी प्राप्त करके विवाह करके गृह बनाकर जीना जीवन नहीं है। वे सब संकट का आरंभ  ही है।  किसी भी प्रकार की प्रतीक्षा के बिना ईश्वर में मात्र मन लगाने में जिस दिन  आरंभ  करते हैं, उस दिन में जीवन आनंद पूर्ण होता है। कारण सामान्य बुद्धि को प्रयोग करके देखने पर साधारण मनुष्य समझ सकता है। अर्थात्  इस संसार में कोई भी वस्तु स्वयं सृष्टित नहीं है। अपने शरीर के बारे में, शरीर देखनेवाले इस संसार के बारे में हमें  कुछ भी नहीं मालूम है। अपने देहाभिमान से देखते समय समझ में आएगा कि मैं असहाय हूँ, मैं ईश्वर का एक औजार हूँ।उस ईश्वर से मन लगाकर निकट जाते समय ही ईश्वरीय ज्ञान होता है।हर एक जीव भी यह संसार कहना हर एक मनुष्य की मानसिक कल्पना ही  है। यथार्थता यही है कि मन के संकल्प के बिना कुछ भी देख नहीं सकता, अनुभव नहीं कर सकता। वह काल्पनिक संसार महा दुखप्रद है। इस महा दुख से बाहर आने की कोशिश करके आनंद स्वभाव के अपने को छिपाये माया मन को  उसके विकार के राग द्वेषों को अपने आत्मविचार से मिटाकर वासना रहित मन बनाना चाहिए। साथ ही स्वयं देखते रहेनामरूप प्रपंच एक रूप में दर्शन करने लगेगा। तब चलनशील मन  निश्चल बनेगा। तब जीवबोध सब मिटकर प्रतिबिंब जीवात्मा परमात्म स्थिति पाएगा। खंडबोध  अखंडबोध स्थिति को पाएगा। उस ज्ञान की दृढता में ही दुख निवृत्ति होगी। सत्य को ग्रहण न करने वाले को कभी किसी भी काल में शांति और आनंद न होंगे।

2760. जिसमें ईश्वरीय ज्ञान है, वही किसी भी प्रकार की प्रतीक्षा के बिना ईश्वर से प्यार कर सकता है। कारण वह अपने नाते-रिश्तों को, वह  देखनेवाले संसार को, सभी जीवों को मात्र नहीं, सभी चराचरों को भगवान के रूप में ही देखेगा। वैसे लोग स्वर्ण आभूषणों में स्वर्ण को ही देखेगा। स्वर्ण आभूषणों को न देखेगा। कारण आभूषणों को नामरूपों में वह स्वर्ण को देखने से नामरूपों में अस्थिरता होती है। उसको नानात्व बुद्धि रहित एकत्व बुद्धि होगी। वह आत्मज्ञान से ही अनेकों को एक रूप से देखता है।केवल आत्मज्ञानी ही सभी में आत्मा रूपी अपने को भरकर देख सकते हैं। वह जो कुछ करता है,जो कुछ देखता है, जो कुछ सुनता है, जो कुछ अनुभव करता है,सब को आत्मा ही देखता है,आत्मा ही करता है का एहसास करता है। वैसे व्यक्ति  आत्मस्वभाव का आनंद ही होगा। वह न जानेगा कि दुख क्या है? कारण परमात्मा एक ही है। इसलिए कोई किसीको मारते नहीं है। कोई जन्म नहीं लेते और मरते नहीं है। अर्थात् एक रूपी एक परमात्मा मात्र अखंडबोध मात्र नित्य, निरंतर स्थिर खडा रहता है। एक को देखनेवाला  ही  आनंद और शांति  को पा सकता है। दो देखनेवाले आनंद और शांति से रह  नहीं सकते और दुख का ही अनुभव करते। यह ईश्वर हीअपनी ईश्वरीय शक्ति द्वारा दिखानेवाले  इंद्रजाल है। बोध में दीखनेवाले दृश्य प्रपंच रूपी नानात्व दर्शन को नहीं है। कारण शास्त्रीय सत्य एक ही है। वह भगवान ही है।वह भगवान अपने से अन्य नहीं है। स्वयं ही सब कुछ है। यही अद्वैत है।

3761. जो कोई पंचेंद्रियों से अनुभव करनेवाले सबको ईश्वर रूपी आत्मा अनुभव सा सदा एहसास करता है, उसको चौदह लोक में ईश्वर के लिए मात्र जीनेवाले  सबकी पूर्ण सहायता सदा मिलता रहेगा। वे समझते हैं  कि  ईश्वर के स्मरण के बिना बाकी सब स्मरण मिथ्या है।

3762. जिंदगी में स्थाई सुख किसी में भी नहीं है। कारण जिंदगी को त्याग करते समय ही स्थाई सुख स्थिति पाते हैं। अर्थात जीवन जीवात्मा के लिए है।जीवात्मा माया से बंधित होने से परिवर्तनशील होते हैं। जीवात्मा में भेदबुद्धि  न होने पर जीवभाव छिपकर एकात्मक परमात्म स्थिति पाएँगे। जीव त्याग का अर्थ चित्त त्याग ही है। वह स्वस्वरूप बनी परमात्मा स्वरूप की स्मृति,                                  विस्मृति ही है। अर्थात स्वस्वरूप को विस्मरण करते समय ही चित्त उदय होता है। चित्त ही जीव है। चित्त त्याग से जीव भाव मिटेगा। साथ ही स्व- स्मृति होगी। वही
मोक्ष है। स्वरूप विस्मरण बंधन है, स्वरूप स्मरण मोक्ष है। दोनों चित्त के लिए है।
आत्मा हमेशा एक है,एकरस है,नित्य है।

3763.आत्मज्ञान रहित व्यक्ति को शक्ति न हो सकता। शक्ति आत्मा रूपी बोध से आश्रित है। अहंकार को शक्ति होना बोध से आश्रित रहने से ही है। सचमुच शक्ति आत्मबोध में ही  है,अहं बोध में नहीं है। कारण अहंकार नश्वर है। बोध मात्र ही अनश्वर और शाश्वत है। साहसी लोग ही उच्च शिखर पर पहुँचेंगे। कारण वे दूसरों से आश्रित नहीं रहते। वे आत्मा से आश्रित ही जीते हैं। कारण एक दूसरे से आश्रित नहीं रहते। वे आत्मा से आश्रित होकर जीते हैं। कारण आत्मा रहित दूसरे की सहायता खोजते समय स्वशक्ति बाहर लाने में दूसरी शक्ति बाधा बनेगी।

3764.  अपने  को दुर्बल करनेवाले वचन,जीव,रूप, सिद्धांत, कर्म जो भी हो तुरंत न तजे तो वह अपने मन को विकास न करने देगा,संकुचित कर देगा। वह जीव को परमात्मा की स्थिति को ले जाने में भी रुकावटें होंगी।अर्थात् मन निश्चल होने तक दुख होगा।उसके कारण मृत्यु भी होगी। मन रूप रहित आकाश जैसे की स्थिति को जाते समय चलनशील मन निश्चल स्थिति को जाएगा। उसके लिए रूप रहित आत्मा को विचार करना चाहिए। तभी विचार करनेवाले मन रूप को छोडकर रूप हीन आत्मा में मिलकर नाश हो जाएगा। आत्म स्वभाव रूपी परमानंद निरूपाधिक  रूप में अनुभव करके नित्य रूप में स्थिर खडा रहेगा।

3765.जो कोई अपने आप को न पहचानकर ,वह जो कुछ देखता है, उन विविध विषयवासनाओं में लगकर ,अपने को और दीखनेवाले संसार को विवेक से न जान-समझकर , मन की इच्छा के अनुसार जाकर,  मृगमरीचिका जैसे विषय सुखों के भ्रम में पडकर,  प्यास न बुझकर,  दुखी होकर,  अंदर और बाहर भगवान पर आरोप लगाकर ,अपने दुखों के कारण कर्ता दूसरे लोग समझकर, उनसे राग-द्वेष दिखाकर,  मन की शांति खोकर,  दिशा न जानकर भागते रहते हैं। उनको समझना चाहिए कि इस संसार में वस्तु जो भी हो, जीव जो भी हो, उन सबको स्थाई सुरक्षा नहीं है। सत्य रहित जो भी विकास होता है, उसे सत्य ही नाश करेगा। सत्य को सत्य ही जीत सकता है। और मार्ग नहीं है। और कोई जीत नहीं सकता। सत्य रहित जीने पर आश्रय जो भी दें नित्य दुख ही होगा। दुख निवृत्ति के लिए एक ही मार्ग है सत्य जीवन बिताना। सत्याश्रित जीवन बितानेवाला सत्य स्वरूपी है। वह सत्य ही भगवान है।

3766. जब अटल लक्ष्य ईश्वर बनता है, तब प्रकृति बाधाएँ मिटाकर मार्ग परिवर्तन देता है। ईश्वर का रूप जो भी हो,एक ही रूप में अटल भक्ति होनी चाहिए। तभी विविधता दिखानेवाले मन एकाग्र चित्त होगा। एकाग्र चित्त से मन को ईश्वर से लगाने पर जीवन धन्य बनता है। ईश्वर भजन के साथ का जीवन ही धन्य बना है। ईश्वर भजन रहित जीवन धन्य रहित जीवन है। अर्थात् मैं रूपी सत्य रहित जीवन अर्थ शून्य है। अर्थात्  आत्मबोध रहित जीवन निरर्थक है। मैं रूपी अखंडबोध सत्य ही सभी प्रकार के आनंद ,शांति,प्रेम का वासस्थल है।

3767. संतोषियों को देखकर असंतोषी  ईर्ष्या होने का कारण ईर्ष्या करनेवाले उनको विवेक से न जानना ही है। इसलिए उनको विवेक से जानने पर ही एहसास होगा कि  अपने में एक अक्ष्य पात्र है। वह अक्षय पात्र ही कामधेनु है। वही मैं रूपी आत्मा बने अखंडबोध ही है। उसकी अनुभूति होते ही इस सांसारिक दुख से सदा के लिए मुक्ति पा सकते हैं। कारण बोध स्वभाव ही परमानंद है।

3768.जीवित शरीर और मृतशरीर में अंतर बोध ही है। अर्थात्  वह बोध अखंड ही है। अर्थात् जड में चित्त  सान्निध्य होते समय  ही जीव प्रकट होगा। अर्थात् बोध सब चराचरों में भरा रहता है। हर पएक मिट्टी कण में जीव और जड होते हैं। चित्त सान्निध्य प्रकट न होने से ही जीव प्रकट न होते। जड बोध में कर्म चलनशील ही है। कर्म चलन निश्चलन कभी नहीं होगा। इसलिए कर्मचलन
एक दृश्य मात्र है। बोध मात्र ही सर्वव्यापी है।बोध का जन्म नहीं हुआ।अतः बोध न मरेगा। जन्म और मरण सब भ्रम ही है। बोध का विस्मरण ही मृत्यु है। इस अखंडबोध ब्रह्म के सभी कार्य एक जीव मुक्त  सही रूप से देख सकता है। अर्थात् स्वयं बने अखंडबोध ही इस प्रपंच रूप में है।इस बोध को ही प्रपंच रूप में  बोध देखता है।

3769.अपने से अन्य रूप में देखनेवाले प्रपंच का एक आधार ही यह संसार है। आत्मविचार के महामंत्र का प्रयोग करके ही माया के द्वारा छिपे संकुचित  प्रतिबिंब बोध  जीव स्थिति से जीव भाव को त्यागकर सब कुछ जाननेवाले अखंडबोध को पुनःप्राप्त कर सकते है। वैसे आत्मविचार करते समय आत्मविचार रूपी ज्ञानाग्नी में जीव रूपी मन जलकर नाश हो जाएगा। साथ ही स्वयं बने अखंडबोध परमात्मा को छिपाकर रखी मनोमाया पर्दा हटकर स्वस्वरूप अपने स्वभाव परमानंद में प्रकाश देता रहेगा।

3770.जिसको अपने में सर्वशक्तिमान ईश्वर है की सही अनुभूति होती है, उसको प्राकृतिक प्रकोप हो या नाते- रिश्तों का नाश हो, किसी भी स्थिति में दुखी न होगा। क्योंकि अपनी अहमात्मा बोध रूप में ही है। वह बोध होने से ही सब कुछ है। बोध नहीं है तो कुछ भी नहीं है। वह स्वयं बने बोध को कोई भी मार नहीं सकता। कारण उसका जन्म ही नहीं हुआ। अतः उसको मृत्यु नहीं है। उसको तलवार से,अग्नि से,हवा से,पानी से किसी से नाश नहीं कर सकते। इसीलिए वह निर्भय रहता है। अर्थात् बोध संकल्पित बनाये संसार में यह जीव जीता है। उसे एहसास करनेवाले को अहंकार नहीं होगा। अर्थात् बुद्धि में कर्तृत्व,भोगतृत्व नहीं होगा। अर्थात् मैं कर्ता हूँ, मैं भोक्ता हूँ की बुद्धि नहीं रहेगी। वह सबको ब्रह्ममय देखेगा। उस ब्रह्म के जन्म न होने से उसको मृत्यु नहीं है। वह सर्वमुखी होने से मरने के लिए यहाँ कोई नहीं है। यह शरीर और संसार जड होने से उसको मरने की आवश्यक्ता नहीं है। वह पहले ही मर गया है। वह भी एक दृश्य ही है। मैं रूपी अखंडबोध मात्र नित्य सत्य रूप में परमानंद रूप में शाश्वत खडा रहता है।यही शास्त्र सत्य है।

3771. मनुष्य इस वर्ण प्रपंच को पंचेंद्रियों से रस लेते समय रसिक से ही आनंद बनता है। विषयों के रस लेनेवाले रसिक को यह बात न जानने से इस अज्ञान जग के लोग भौतिक प्रगति बनाकर जीते हैं। वेदशास्त्रों की बातें, सत्य के अनुभवी ऋषि , सत्य की खोज करनेवाले आत्मज्ञानी आदि जानेवाले स्थान मैं है को अनुभव करनेवाले बोध में ही है। अर्थात् इस शरीर और संसार के परम कारण बने मैं नाम का बोध ही है। वह बोध अखंड है। सर्वव्यापी है, निश्चलन है।वह निश्चलन बोध से कोई प्राण चलन किसी भी काल में न होगा। इसलिए प्राणन बनानेवाले अनेक रूप भेद ही पंचभूतात्मा के सभी प्रपंच रूप। वह एक दृश्य मात्र है। वह माया अर्थात् मृगमरीचिका ही है। वह  रहित जीव,  रहित संकल्प ही है। संकल्प एक सूक्ष्म कर्म है।संकल्प सूक्ष्म चलन है। वह चलन निश्चलन बोध में कभी नहीं होगा। संकल्प न होने से संकल्पित संसार और शरीर नहीं है। ये सब एक भ्रम है। आत्म विचार लेकर भ्रम बदलते समय भ्रम में उत्पन्न दुख ब्रह्मानंद होगा।
3772. एक बुरा आदमी अच्छा आदमी होने पर संसार को डरने की आवश्यक्ता नहीं है। लेकिन एक अच्छा आदमी बुरा आदमी होने पर संसार को डरना ही चाहिए। इस संसार में जीवन जैसा भी हो, इस पंच भूत पिंजडे में फँसे  जीव को नित्य दुख ही है। इस संसार सागर दुख से बाहर आने के लिए अंतरात्मा भगवान से सांसारिक दुख के प्रभाव से बचने के लिए अहमात्मा से हार्दिक प्रार्थना करते रहना चाहिए। अर्थात् स्वयं बने अखंड बोध स्थिति को पाने तक  मन से प्रार्थना करनी चाहिए कि अपने आत्मविचार तैलधारा के समान होना चाहिए। तभी आत्मज्ञान से ज्ञान मिलेगा कि यह शरीर और संसार मिथ्या है। एहसास कर सकते हैं कि नाम रूपात्मक पंचभूत प्रपंच प्रकृति तीनों कालों में नहीं है ,वह  बोध में उदय होकर छिपनेवाले एक दृश्य मात्र है। साथ ही सीमित प्रतिबिंब बोध रूपी जीव आत्मविचार लेकर जीवभाव को भूलकर असीमित अखंडबोध स्थिति को पाएगा। तभी दुखी जीव दुख विमोचन पाकर परमानंद को अनुभव करके वैसा ही स्थिर खडा रहेगा।

3773. धनियों का दरिद्र सत्य ही है। धनी को जितना भी धन दो, और अधिक धन का लोभ बढता रहेगा। लोभी असंतुष्ट ही रहता है। वह असंतोषी धनी दरिद्र ही है। वह एक कस्तूरी हिरन के जैसे ही रहेगा। अर्थात् कस्तूरी हिरन मृत्यु तक  नहीं जानता कि अपने में ही कस्तूरी सुगंध है।अपने सुगंध को न जानकर ही मर जाता है। वैसे ही धनी यह न जानकर  ही मर जाता है  कि अपने में कामधेनु ब्रह्म है। उसी समय सत्यवान का दरिद्र मिथ्या ही है। सत्यवान का बाह्य रूप ऐसा ही लगेगा कि उसके पास संपत्ति नहीं है। सत्यवान जो भी चाहे देने के लिए  त्रिदेव
और देवता लोग तैयार रहेंगे। इसलिए उसको किसी भी प्रकार का कष्ट न होगा।
इसलिए वह कुबेरन से बडा धनी है।

3774.  स्वयं को जाननेवाला स्रष्टा है। स्वयं  को न जाननेवाली सब वस्तुएँ सृष्टियाँ हैं। स्रष्टा है, सृष्टि नहीं है। कारण स्रष्टा  सृष्टि कर नहीं कर सकता।
क्योंकि सृष्टा सर्वव्यापी है और पूर्ण है। पूर्ण से एक अपूर्ण किसी काल में नहीं होगा। अर्थात्  अपूर्ण कोई नहीं है। जहाँ एक पूर्ण वस्तु है, वहाँ एक दूसरी वस्तु नहीं रह सकती। इसीलिए उपनिषद कहते हैं  कि पूर्ण से पूर्ण लेने पर पूर्ण ही बाकी रहेगा। यथार्थ में एक ही पूर्ण वस्तु होती है। वही ब्रह्म है। अखंड बोध स्वयं रहता है। मैं का बोध नहीं तो कुछ भी नहीं है। सब कुछ बोध ही है। बोध का स्वभाव ही परमानंद है। वह नित्य है, शुदध है,बुद्ध है और मुक्त है। इसलिए यह उपनिषद का सत्य है कि  उसे बंधित करने, छिपाने दूसरी एक वस्तु कहीं भी कभी नहीं है। यह ज्ञान सत्य रूपी वस्तु को मात्र जाननेवाले के समझ में ही आएगा और दूसरे कोई  समझ नहीं सकते।

3775.आत्मा के स्वभाव आनंद को छिपानेवाले मन ही माया है। उस पर्दे को हटाने के लिए आनंद के स्वभाव आत्मा को मात्र सोचना है, समझना है,स्तुति करना है, ध्यान करना है। यही एक मात्र मार्ग है। किसी भी कर्म से उसे जान नहीं सकते। कारण सभी कर्म अज्ञान है, नहीं है। वह कभी ज्ञान न देगा। सत्य वस्तु मैं है के अनुभव देनेवाला बोध ही है। तैल धारा के जैसे किसी भी प्रकार के संकल्प के बिना बोध में रहते समय ही मनोमाया मिटेगी। मन जड है,जड कर्म चलन है। वह कर्म मिटे बिना सत्य नहीं चमकेगा। जीव के कर्म बंधन बदलने के लिए काम बंधन को नाश करना चाहिए। काम के कारण ही कर्म बनता है। काम उत्पन्न होना स्वरूप विस्मृति ही है। इसलिए स्वरूप अखंड बोध से बिना हटे रहना चाहिए। वही साक्षात्कार है।

3776. जिसमें आत्मबोध है,वह मन की चाह के मार्ग पर न जाएगा। आत्मा सर्वव्यापी और सर्ववस्व होने से यात्रा का स्मरण उसको न रहेगा।आत्मबोध रहित
शारीरिक अभिमान के जीवबोध के अहंकार ही मन के अनुसार यात्रा करेगा। सारे दुख जिनमें आत्मबोध नहीं है,उनको ही होगा। अर्थात्  कर्म और ब्रह्म को कोई बंधन नहीं है। वह रेगिस्तान और मृगमरीचिका के बंधन जैसे ही है। रेगिस्तान और मृगतृष्णा दोनों को कोई संबंध नहीं है। कर्म एक मृगमरीचिका ही है। कर्म मुक्ति के बिना कोई मुक्ति पा नहीं सकता। उसके लिए कर्म के बारे मे,ब्रह्म के बारे में संपूर्ण ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। अर्थात् इस दुनिया में दो ही वस्तुएँ होती हैं। एक ब्रह्म या आत्मा या बोध। दूसरा जड या कर्म या चलन। ब्रह्म का मतलब है मैं रूपी बोध। जड कर्म ही है। ब्रह्म को जड छिपा देता है। बोध को कर्म छिपाता है। विवेक से आत्मज्ञान से कर्म रहित बोध को या ब्रह्म को भोगना ही ब्रह्म सिद्धि है। अर्थात् जो कर्म के बारे में चिंतन न करके किसी भी इच्छा के बिना स्वयं बने ब्रह्म कामधेनु है को बुद्धि में दृढ बनाकर,स्वयं ब्रह्म है को पक्का करके मैं स्वयं ब्रह्म हूँ के ज्ञान  की दृढता में इच्छा और संकल्प रहित रहनेवालों की आवश्यक्ताओं को वह ब्रह्म ही आकर देगा।वही एक  सत्यदर्शी का पूर्ण विश्वास है। लेकिन वह सत्य दर्शी नित्य संतोषी ही रहेगा।

3777. निश्चल समुद्र की सुंदरता को  छिपा देता है उसकी लहरें,बुलबुलें,जाग,चंचलता आदि। वैसे ही मैं रूपी अखंडबोध सागर को छिपाने बोध शक्ति मायचित्त बनाकर दीखनेवाली लहरों की माला,बुलबुलें, जाग,चंचलता आदि इस प्रपंच के नाम रूप होते हैं। पूर्ण वस्तु अखंडबोध ही है को समझ लेना चाहिए। पूर्ण से दूसरी एक वस्तु किसी भी काल में न होगा। बनकर दीखनेवाले दृष्य सब माया ही है। इसीलिए वह दुख स्वरूप होता है। पूर्ण वस्तु के बारे में जो ज्ञान है,वह  सुख  ही  देगा। अपूर्ण वस्तु का ज्ञान  निरंतर सुख     नहीं देगा। दुख ही होगा। समुद्र को उदाहरण रूप में लेने पर भी ब्रह्म समुद्र के जैसे नहीं है। ब्रह्म निश्चलन, अपरिवर्तनशील,असीमित, सर्वव्यापी है। वह ब्रह्म ज्ञान  ही आनंद देगा। उनसे बने प्रपंच दृश्य दुख ही देगा। कारण वह तीनों कालों में नहीं है। वह रस्सी में दीखनेवाले साँप के जैसे तीनों कालों में नहीं है।

3778. आदी-अंत रहित, जन्म-मरण रहित सर्वव्यापी परम कारण रूपी परमार्थ स्वरूप अखंडबोध अपनी स्थिति को अपरिवर्तित दिखानेवाली अपनी शक्ति माया चित्त के चलन स्वभाव का प्रकट भाव ही संकल्प के बीज के रूप में है। निराकार निश्चल चैतन्य एक रूप स्थिति को आना ही संकल्प है। निराकार  को आकार दीखने संकल्प रहित दूसरा एक कारण नहीं है। रूप रहित चैतन्य रूप स्थिति के रूप में बदलते समय दृश्य में बदलता है। स्वयं ही दृश्य रूप में बदलता है। वैसे दृश्य में बदलते समय वह दृश्य अपने से अन्य है का एक दृश्य होता है। वह द्वैत भाव कई विकारों के और कई भावों के कारण बनते हैं। ये सब मिलकर बना है यह संसार। देखनेवाला ,जिसको देखना है की भेद बुद्धि ही संकल्प के विकास के कारण होता है। संकल्प के विकास होते होते कर्म और दुख बढते रहेंगे।  संकल्प जैसा भी हो दुख के सिवा और कुछ भी नहीं मिलता।साधारण मनुष्य  जानता है कि मनुष्य को संकल्प से दुख होगा। दुख निवृत्ति के लिए  संकल्प रहित जीवन जीना है। पर संकल्प करके जीना मनुष्य का सहज स्वभाव है। वैसे लोग सही ढंग से सत्य मार्ग का अनुकरण न करके दुख निवृत्ति के लिए संसार के चरण प्राप्ति के लिए दुख बढता रहेगा। वही अविवेकियों का स्वभाव है। लेकिन विवेकी सत्य-असत्य को जान समझकर अर्थात् आनंद के वासस्थल,दुख के वासस्थल को जान-समझकर दुख के स्थान शरीर और संसार को तजकर आनंद के निवासस्थान आत्म बने अखंडबोध की ओर मन को ले जाएगा। तब मन बोध को पकड लेगा। अस्थिर मन स्थिर हो जाएगा। मन समदशा को आएगा। सम दशा पर आते ही मन बोध में विलीन होकर बोध हो जाएगा। तभी बोध की प्रकृति   स्वभाव परमानंद का अनुभव करेगा।

3779. कोई भगवान से प्यार नहीं करता क्योंकि गलत मिथ्या डर से ही है कि स्वयं का अस्तित्व मिट जाएगा। डरनेवाले को एहसास करना चाहिए कि यथार्थ अस्तित्व और स्थायित्व  भगवान से प्यार करते समय ही होता है। उनको समझना चाहिए कि नाम रूपात्मक सूर्य,चंद्र,भूमि से शुरुआत सभी ब्रह्मांड रूप और प्राण चलन विविध स्थितियों में रूपांतरित ही है। चलनशील स्वभाव का एक प्राणन है तो उसे समझने केलिए एक निश्चल वस्तु उसके पीछे होना चाहिए। निश्चल  वह वस्तु  अखंड बोध ही है। अखंडबोध निश्चल,निर्विकार,निष्क्रिय और सर्वव्यापी है।उसमें एक प्राण स्पंदन कभी नहीं हो सकता। पूर्ण वस्तु में दूसरी एक वस्तु हो नहीं सकता। जो बनकर दीख पडता है वह स्वप्न मात्र है। अपने शरीर और संसार को भूलकर सोते समय स्वप्न में एक जीव बनकर,वह स्वप्न जीव नये काल-देश को बनाकर ,नयी जनताओं को उत्पन्न करके, नये आकाश,समुद्र, वाहन,इमारतें बनाकर, जंगल-खेत और कर्म बनाकर,कई मिनट,कई साल जीवन जीने के अनुभवों को बनाकर भोगकर स्वप्न से बाहर आते समय अनुभव होगा कि जो कुछ स्वप्न में अनुभव किया वे सब मिथ्या दृश्य है, वास्तविकता नहीं है। वैसे ही जागृत अवस्था में अज्ञान रूपी निद्रा में उत्पन्न जीव स्वयं संकल्पित बनाये संसार में जी रहा है। जिस दिन इस अज्ञान से शरीर और संसार को भूलकर आतमबोध का एहसास करता है, तभी यह शरीर, संसार,तीनों कालों में स्थित नहीं है का एहसास कर सकते हैं। मतलब है कि स्वप्न अनुभव और जागृत अनुभव में कोई अंतर नहीं है। जो कोई वैसे महसूस करता है, वही इस सांसारिक मिथ्या भ्रम से बाहर आ सकता है। जो इस संसार को सत्य और शाश्वत मानता है,देखता है,वह इस सांसारिक दुख से बाहर नहीं आ सकता। सब कुछ मिथ्या है। केवल एक अखंडबोध मात्र नित्य सत्य रूप में चमकता रहता है। वह अखंडबोध मात्र ही मैं है का अनुभव बनाता है। जो शाश्वत है,वही सत्य है। स्वयंभू अखंडबोध के सिवा और जडों को मैं है का अनुभव न होगा। इसका एहसास करते समय ही दुख निवृत्ति होगी। जडों को आश्रित जीने पर दुख से बाहर आ नहीं सकते।

2780. जो धन के लोभी है, अहंकार से जीता है, वह अपनी संपत्ति बढाता रहेगा।वह एक रूपया भी दान न देगा। वह सोचेगा कि उसको अपनी संपत्ति से
धन घट जाएगा। उन सबको सोच-विचार करना चाहिए और खोज करना चाहिए कि राजवंशों का उत्थान-पतन और अंत कैसे हुआ है।वैसे ही राज्य शासक मंत्रियों और संसार के कोटीश्वरों का अंत कैसे हुआ। ये सब महादुख के पात्र बनकर पद,धन आदि  भोगने की आयु के बिना अल्पावस्था में ही अश्रु बहाते हुए चल बसे। वही नहीं भगवान के स्मरण के बिना घमंड से मरे सबकी स्थिति ऐसी ही है। क्योंकि उनमें कोई भी इस संसार के बारे में,ब्रह्म के बारे में सही रीति से खोजकर नित्य अनित्य को जाना-पहचाना नहीं है। जानने पर भी उनमें ज्ञान की दृढता नहीं रहेगी। जनक महाराज जैसे लोगों ने ही कमल के पत्ते और पानी के जैसे निस्संग रूप में आनंद से राज्य शासन किया था। अंत में आनंद से शरीर छोडने के लिए धन जमा करनेवाले सब को सत्य का भी पालन करना चाहिए।
नहीं तो आँसू बहाते हुए मरना पडेगा। उसी समय संसार और जीव को समझनेवाले ज्ञानी अपने को शरीर और संसार न मानकर अपने को ही परमात्मा कामधेनु मानने से जितना भी धन कमाये  स्वार्थ रहित सबको अपने जैसे समझकर दान दिया करते हैं।

3781.कोई एक व्यक्ति इस जन्म में कोई भी अपराध न करके जागृति के साथ उसके सभी कार्यों में लगते समय प्रतीक्षा करने का विषय यह है कि इस जन्म में बोध पूर्व गलत न करने की दृढता न होने पर भी अप्रत्याशित प्राकृतिक प्रकोप,पूर्व जन्म के पाप कर्मफल आदि दुखों को जागकर विवेक से सामना करना चाहिए। विवेक का प्रयोग करें या न करें सत्य रक्षा करेगा। कारण सत्य दर्शी और सत्य दोनों अलग नहीं है। सत्य ही है।

3782. इस संसार में सभी जीव शिव पार्वती ही है। अर्थात् आत्मा शिव,शरीर पार्वती है। प्राण रूपी शिव निश्चलन,निर्विकार और निष्क्रिय है। शरीर रूपी पार्वती चलन शील है,विकार है, क्रियाशील है,वही मायादेवी है। रेगिस्तान  और उसमें मृगमरीचिका जैेसे ही यह प्रपंच रहस्य है। अर्थात शरीर और संसार के परम कारण बने मैं रूपी अखंडबोध ही ब्रह्म है। उसमें दीखनेवाले शरीर और संसार माया है। वही ब्रह्म माया है।रेगिस्तान ब्रह्म है, मृगमरीचिका प्रपंच रूपी माया है।
अर्थात् कार्य सब कारण से भिन्न नहीं है।यह दर्शन ही शांति और आनंद देगा। प्यास बुझानेवाले मृगमरीचिका की ओर जाने पर जो गति होगी, वही गति ही
जीव रूपी आत्मा को भूलकर शरीर और संसार को लक्ष्य बनाकर यात्रा करनेवालों की गति होगी।

3783. बोलना अच्छा रहेगा कि गृहस्थ से मुक्ति पाना चाहिए। उसे व्यवहार में लाने के लिए 1. उस जीव का जन्म अंतिम जन्म होना चाहिए। 2.कुछ लक्ष्यों के लिए देव,देवता ,ऋषि भूलोक में मनुष्य जन्म लेकर आना चाहिए। वैसा न होकर  गृहस्थ जीवन से मुक्ति पाना बहुत कष्ट है। कारण माया बहुत शक्तिशालिनी है।
वह महा ज्ञानियों को, देवों को,ऋषियों को कर्म चक्र में फँसाकर घूमती रहेगी। लेकिन ऐेसे लोग  भूलोक में आते समय मिनटों में सत्य,असत्य को विवेक से जान- समझ लेंगे कि वे जिस संसार को देखते हैं, वह स्वयं नहीं है, वह देखनेवाले अपने से अन्य है। स्वयं देखने का दृश्य अपने से अन्य नहीं है। अर्थात्  स्वयं देखने का दृश्य स्वयं बन नहीं सकता। केवल वही नहीं, उनको मालूम है कि  यह संसार जड है, स्वयं चैतन्य है। ऐसी समझ के आते ही  उनका मन लौकिक विषयों में नहीं लगेगा। केवल वही नहीं, इस शरीर को उत्पत्ति स्थिति लय,जयवृत्ति, बाल्य,कौमार,यौवन,वृद्धावस्था आदि सब कुछ है। ये सब स्वयं बनी आत्मा में नहीं हो सकता। केवल यही नहीं, यह शरीर जड है।लेकिन आत्मा रूपी स्वयं जड नहीं है। यह शरीर भी दृश्य ही है। मैं ही उन सब के लिए दृष्टा है। यह पक्की है कि मैं शरीर नहीं है। बाकी सब पंचेंद्रियं  से जाननेवाले सब अर्थात्
शब्दादि विषय सब मनोविकार ही है। केवल वही नहीं मन और बुद्धि को भी उदय और अस्त होते हैं। सुसुप्ति में मन और बुद्धि लय होकर मिट जाते हैं। लेकिन आत्मा रूपी मैं सुसुप्ति में होती है। वे सब अपने दृश्य ही होते हैं। ये सब अपने ज्ञान के नियंत्रण में  होने से उनके लिए मै दृष्टा ही है। अर्थात मन बुद्धि से
सब के लिए दृष्टा रूपी आत्मा रूपी अखंडबोध ही मैं ही है।वे आसानी से समझ सकते हैं। साथ ही बोध का स्वभाव आनंद भोगकर कमल के पत्ते पानी के जैसे भूलोक में जीकर लक्ष्य को पूर्ण करके विदेह मुक्त होगा।

3784. ब्रह्म शक्ति माया अंधकार रूप में आकर ही ब्रह्म को छिपा देता है।
वही अव्यक्त है। अर्थात ब्रह्म में होनेवाला पहला दृश्य आकाश ही है। उस आकाश को भी आदी और अंत नहीं है।  वह आकाश निश्चल है। निश्चल आकाश में  चलनशील  वायु के जैसे ही ब्रह्म में चलन प्रपंच दृश्य बनकर दीख पडता है। अर्थात् अनंत कोटी ब्रह्मांड चलन आकाश में ही है। लेकिन यह आकाश चिताकाश है।वह बोधाकाश है।वैसे आकाश को बनाकर पर्यवेक्षण करनेवाले सर्वव्यापी स्वयंभू ब्रह्म बोध से दूसरी एक चलन वस्तु कभी न होगा। क्योंकि ब्रह्म से मिले बिना दूसरी एक वस्तु उत्पन्न होने के लिए सुई चुभने के स्थान भी ब्रह्म में नहीं है।उस ब्रह्म को कोई कर्म करके प्राप्त करने की आवश्यक्ता नहीं है। उसके लिए प्रार्थना,यज्ञ,होम आदि करने की आवश्यक्ता नहीं है। क्योंकि वह ब्रह्म स्वयं ही है। इसलिए स्वयं बननेवाले अखंडबोध ब्रह्म को जन्म-मरण नहीं है। मैं स्वयंभू ही है। कारण ब्रह्म को मात्र ही मैं है का अनुभव होगा। वह अनुभव रहित जड सब मृगमरीचिका के समान तीनों कालों में रहित ही है। इस ब्रह्म को ही प्रपंच के रूप में देखते हैं।यद ब्रह्म ही प्रपंच को बनाकर दिखाते हैं।स्वयं रहित जड को प्रपंच को बनाकर दिखा नहीं सकते।परमकारण रूप ब्रह्म ही है। बिना किसी कारण के कार्य हो नहीं सकता। आभूषणों के कारण स्वर्ण ही है। आभूषण कार्य है। कार्य और कारण रूप स्वर्ण ही है। वैसे ही ब्रह्म ही प्रपंच के नाम रूप होते हैं। ब्रह्म काऱण है,प्रपंच कार्य है। अर्थात् कार्य और कारण एक ही है। स्वर्ण आभूषणों के नामरूप स्वर्ण को छोडकर एक नयी वस्तु को नहीं बना नहीं सकता। वैसे ही प्रपंच के नामरूप ब्रह्म को छोडकर दूसरी एक वस्तु को किसी काल में नहीं होगा। अर्थात् ब्रह्म अभिन्न जगत्।

उ785. एक आम खराब होने पर उसके बीज की सुरक्षा करने पर अनेक हज़ार आम देनेवाले एक बडे आमके वृक्ष को उगा सकते है। वैसे ही मनको अन्य चिंतनों से रक्षा करके सुरक्षित रखकर आत्मा से हटने न देने पर यह एहसास कर सकते हैं कि इस संसार के परम कारण आत्मा रूपी स्वयं ही है।अर्थात् बाहर जानेवाले मन को अंतरमन बनाना है। उसके लिए मैं कौन हूँ का खुद खोज करना चाहिए। वैसे खोज करने पर  एहसास कर सकते हैं कि मैं शरीर नहीं हूँ, आत्मा हूँ। तब जीवात्मा परमात्मा स्थिति को पाने के लिए आत्मविचार करना चाहिए। आत्मविचार करते समय उस आत्मज्ञान से मन और शरीर को भूल सकते हैं। वैसे मन और शरीर को विस्मरण करके शरीर रहित जीव बोध अखंड बोध स्थिति को पाते समय अपनी शक्ति माया मन को प्रयोग करके इस ब्रह्मांड को बना सकते हैं। अर्थात् जो जीव अपनी स्व आत्मा को आत्मा की संपूर्ण स्थिति का साक्षात्कार करता है, वही ब्रह्मा,वही विष्णु और वही शिव और वही ब्रह्म है।

3786. कोई  लोकयुक्त जीवन को मुख्यत्व देकर अहंकार के साथ  जीवन  जीने के संदर्भ परिस्थितियों  के होने से बंधनों और रिश्तेदारों को बिछुडकर  असहाय स्थिति को आते समय मृत्यु को ही शरण लेते हैं। उसी समय आत्मा को मुख्यत्व देकर  घमंड रहित मनःसाक्षी के अनुसार जीनेवाले असहाय स्थिति आते समय भगवान को ही शरण लेते हैं। अहंकार को मुख्यत्व देकर जीनेवाले को दुख ही होगा।आत्मा को मुख्यत्व देकर  जिंदगी बितानेवालों को दुख ही होगा। कारण उनको मैं है   का अनुभव है।यही सत्य है। वह सत्य ही सुख दे सकता है,मैं है के   अनुभव रहित जड शरीर और संसार के आश्रय में जीनेवालों को दुख ही होगा। कारण जड स्वभाव दुख से पूर्ण है। आत्मस्वभाव आनंदपूर्ण है। आनंद के चाहक आत्मबोध के साथ जीते हैं। दुख के चाहक अहं बोध के साथ जीते हैं।

3787. सब के हृदय में भगवान है।  जो इस वास्तविक्ता को जान-समझ लेता है, वह चिंता नहीं करेगा कि जग उसको समझा नहीं है।कारण एकात्मक आत्मा एक ही सभी जीवों में है। लोकायुक्त ज्ञान और शास्त्र ज्ञान सीखकर मन और बुद्धि के विकास होने पर भी राग द्वेष,भेद बुद्धि, अहंकार नहीं गया तो जितना भी विद्या ज्ञान सीखकर भी कोई प्रयोजन नहीं है।संकल्प ही इस माया लोक चक्र का केंद्र है। इसलिए उस माया चक्र को नियंत्रित करके संकल्पों को तजने पर कर्म चक्र से बाहर आ सकता है। नहीं तो भय को बनाकर मन को दुर्बल करके धैर्य देनेवाला  चित्त महा दुख  की ओर ले जाएगा। इसलिए अपनी अहमात्मा कल्पवृक्ष है।  इसका एहसास करके किसी भी प्रकार की इच्छा के बिना आत्मज्ञान से भेदबुद्धि और राग-द्वेष के बिना मन को सम दशा पर लाकर मन को समदशा पर लाकर आत्मज्ञान से भेद बुद्धि और राग-द्वेष रहित मन को सम स्थिति में लाकर अहमात्मा के साथ ऐक्य होना चाहिए। तभी सब दुखों से मुक्त होकर स्वस्वरूप आत्मा का साक्षात्कार करके उसके स्वभाव परमांद को अनुभव कर सकते हैं।

3788.जिसका मन अच्छा नहीं है, वे लाखों दान देने पर भी उसका फल पूज्य ही है। अच्छा मनवाला एक रूप्या देने पर भी करोड फल देंगे। अर्थात् अच्छे विचार ही मुख्य है। दोनों अनुभव रहित  अनुभव बोध ही है। वह बोध ही तत्व है। वही सत्य है। उस बोध के लिए किसी भी प्रकार का भेद नहीं है। लेकिन इस प्रपंच के कई भेद होते हैं। उदाहरण के लिए एक ही आम के बीज से उगनेवाले पेड,पत्ते,कच्चा आम, फूल, फल आदि भेद होंगे।वैसे ही विविध किस्म के पेड उगते समय भेद होंगे। वैसे भेद अनुभव आत्मा या बोध में नहीं है।कोई भेद रहित
अनुभव मैं रूपी अखंड बोध को ही है। दो रूप के अनुभव ही सभी प्रकार के भेदों को बनाते हैं। उदाहरण रूप में विविध प्रकार के बल्बों में बिजली एक ही है। वैसे ही नाम रूपों के प्रपंच में आत्मा अर्थात् बोध एक ही भरा है। एक को देखनेाले को ही शांति और आनंद नित्य मिलेंगे। दो देखनेवालों को निरंतर आनंद और शांति कभी नहीं मिलेगा।

3789.जीवन में अस्वीकार्य और अपरिहार्य मनोपरिस्थितियाँ होने के कारण मिथ्या अभिमान को बलपूर्वक पकडकर रखना ही है। इसलिए आत्माभिमान होने की कोशिश करनी चाहिए। एक आत्माभिमानी संसार का आना,जाना,सांसारिक अपरिहार्यता,सांसारिक विरोध आदि के समय में भी अपनी वीणा बजाता ही रहेगा। कारण उपनिषद सत्य यही है कि एक मात्र अखंड आत्मबोध मात्र ही नित्य सत्य है। वह अखंडोध अपने से अन्य नहीं है। वह स्वयं ही है। उस अखंडबोध की संकल्प शक्ति ही मन होता है। हर एक जीव अपने संकल्पित जग को बनाकर उससे बाहर आने की लीला ही चलती रहती है। परम कारण जानने तक परस्पर आश्रित जीनेवाले अर्थात्  स्थिर खडे रहनेवाले प्रपंच में जितने जन्म जीेने पर यह प्रपंच रहस्य मनुष्य को समझ में नहीं आएगा। अर्थात् काल देश को,देश काल को कई बातों से आश्रित् स्थित खडा रहता है। दूसरों से आश्रित खडा रहनेवालों को अस्तित्व नहीं है। स्वतंत्र निराश्रित शाश्वत अस्तित्व वस्तु  केवल ब्रह्म अखंड बोध ही है। परम कारण जानकर समझनेवाले को ही कैवल्य ज्ञान मिलेगा। दुख विमोचन होगा।

3790. जितना भी धन हो, उच्च पद हो, फिर भी शारीरिक अभिमान में मात्र मन लगानेवाले जहाँ भी देखता है, वहाँ कमियाँ ही देख सकता है। कारण अहंकार कमियों के साथ ही होता है। उसी समय धन और पद न होने पर भी आत्म तत्व ग्रहण करने वाले  पापी में पापी को देखने पर भ उनमें भी वह ईश्वर को देखेगा। आकाश गिरने का दुख आने पर भी सहन शक्ति के साथ धैर्य से आनंद से खडा रह सकता है। क्योंकि उसको पक्का ज्ञान हो गया कि एक ही अखंडबोध है। वह नित्य सत्य है। निरूपाधिक आनंद उसमें अनुभव होते रहेंगे।

3791. रेगिस्तान में जीनेवाले पशु रेगिस्तान मृगमरीचिका को जल कुंड समझकर पानी पीने जाते हैं। कई बार धोखा खाते हैं। निराश होते हैं। फिर भी पानी के लिए दौडते हैं। वैसे ही लोकायुक्त जीवन में विषय सुख के भ्रम में पडकर इच्छा रहित होने पर भी फिर-फिर चाह बढाकर कई जन्म लेते रहते हैं। उसके कारण परम कारण को न जानना ही है। अर्थात सत्य की खोज न करना ही है। निरंतर दुख निवारण के लिए मन से नहीं चाहा था।

3792. पति और पत्नी दोनों को कैसे जीना चाहिए?  स्त्री का शरीर हो या पुरुष का शरीर हो, वह परमात्मा की चलन शक्ति पंचभूत बने महादेवी के भाग ही हैं। वह महा माया देवी  रूपी प्रकृतीश्वरी का प्रतिबिंब  ही सभी स्त्री रूप ही है। अर्थात् प्रकृति पत्नी है,आत्मा पति है। हर एक पुरुष के बाहर भटकनेवाले मन को अहमात्मा की ओर यात्रा करने के लिए जो स्त्री मदद करती है, वही पतिव्रता है। अर्थात् पुरुष आत्मोन्मुखी रहने के लिए स्त्री को बाधा न रहकर मदद करनी चाहिए। हर एक जीव में शरीर स्त्री है, आत्मा पुरुष है। वैसे होने पर भी स्त्रियों में स्त्रीत्व अधिक होने से सीधे आत्मविचार करने उनको असाध्य ही है। इसीलिए वह उसके पति को उसके अहमात्मा को पूर्ण रूप से देखकर अर्थात् भगवान ही देखकर उस भगवान से ही मिलकर एक  हो जाती है।वही शिव शक्ति लय है। वैसे अखंडबोध स्वरूपी पुरुष  ही शिव है। वह बोध ही शिव में मन को समर्पण करनेवाली ही पार्वती है। अर्थात् अखंडबोध रूपी शिव ही विश्व पिता है। उस बोध रूपी शिव में ही मन को समर्पण करनेवाली ही माता पार्वती देवी है। स्त्री अपने में बसे पुरुष से, पुरुष अपने में रहनेवाली स्त्री से मिलने तक ही बाहर रहनेवाले  पुरुष को स्त्री की,बाहर रहनेवाली स्त्री की आवश्यक्ता होती है। जो स्त्री अपने में बसे पुरुष को वह देख सकती है, वही आदी पराशक्ति बनती है, वही पुरुष जो अपने में बसी स्त्री को देख सकता है, वह आदी शिव बनता है।

3793. इस ब्रह्मांड में सभी जीव माया ब्रह्म लोक में ही जीते हैं। कारण वे नानात्व बुद्धि में ही जीते हैं। नानात्व बुद्धि होने से ही गुण,दोष उनमें मिश्रित रहता है। अर्थात् भेद की कल्पनाएँ बुद्धिहीनों को ही होती है। आत्मा के बारे में  अज्ञानता  होने से ही वे देव,मनुष्य, पशु, गुण,दोष आदि भेदों की कल्पनाएँ देखते हैं। अर्थात् एक रूपी आत्म तत्व के अनभिज्ञ अनपढ जीवों में मनुष्य -देव आदि जीवभेद होंगे। वैसे ही मिट्टी पत्थर आदि वस्तु भेद भी होंगे। वे सब माया भ्रम ही होंगे। इस प्रकार के भ्रम होनेवालों को ही सुख-दुख,पाप-पुण्य आदि भेद होंगे। वैसे ही उनको अच्छे कर्म और बुरे कर्म के भेद होंगे। अर्थात् शास्त्र सब अज्ञानियों को ज्ञानी के रूप में परिवर्तन के लिए उपयोग होंगे। लेकिन आत्मा रूपी अद्वैत् वेद सीखे हुए व्यक्ति को किसी भी प्रकार के भेद दर्शन नहीं होंगे। कारण वह भेद में भी आत्मा को ही देखता है। वह ब्रह्मांड में सब में स्वयं रूपी अखंडभेद को ही दर्शन करने से ही बोध के स्वभाव शांति और आनंद नरुपाधिक रूप में स्वयं अपने आप अनुभव करके वैसा ही स्थित खडा रहेगा।

3795. रूप कोई परमात्मा नहीं है। परमात्मा के बिना रूप नहीं है। परमात्मा को रूप नहीं है।
3796. शरीर रूपी कुएँ में आत्मा रूपी पानी को मन रूपी पात्र में लेकर पीनेवाले ही गुरु होते हैं।

3797.पुजारी शिला की पूजा करते समय मन अहमात्मा को छूते समय वह देव पूजा होगी। कारण देव बने परमात्मा ही अहमात्मा है।

3798. काम रहित पुरुष के पास स्त्री रहना अच्छा है। स्त्री न होना उससे अच्छा है। अर्थात् सकल बंधनों के साथ मूल बंधन की स्त्रियों के बंधित रहनेवालों के साथ जो कोई संगम रहित रहें तो संसार जड का मूल जड टूट जाएगा। मूल जड के टूटते ही शाखाएँ,पत्ते आदि झड जाएँगे। अर्थात् स्त्रियों के बंधन नहीं है तो सभी विषय और विषय बंधन  मिट जाएँगे। जो आत्म ज्ञान सीखकर मोक्ष पाना चाहते हैं,उनको स्त्रियों के बंधनों को छोड देना चाहिए। संसार को तजनेवालों को स्वभाविक रूप से आत्म बोध मेें दृढ रहेगा। आत्मबोध  में दृढ रहनेवाला आनंद का  अनुभव करेगा। विषय वासना रहित जीवन कोपरा जैसा है। नारियल के खोल के बरबाद होने पर भी नारियल पर कोई असर न पडेगा। वैसे ही वासना रहित जीव जीव भाव भूलकर अखंडबोध स्थिति में रहेगा। अखंड आत्मबोध स्थिति को प्राप्त जीव मुक्त शरीर का प्रभाव बोध पर न पडेगा।

3799. ईश्वर से भक्तिभाव होते समय भक्त को दूसरे जीवों के बारे में,संसार के बारे में कोई स्मरण दिल में न होगा। क्योंकि  वह एहसास करेगा कि उसका भगवान अंदर और बाहर, शरीर और संसार में व्यापित विराजमान रहेगा। अर्थात् ज्ञानी हो या भक्त, ऋषि हो या सिद्ध पुरुष हो या योगी, काम-क्रोध पर विजय प्राप्त न करेगा तो उनकी अधोगति अंबरिश राजा से महर्षि दुर्वासा की गति जैसी हुई वैसी। ऋषि दुर्वासा के मन से भेद बुद्धि न मिटने के कारण उनको अपने प्राण बचाने के लिए तोनों लोकों में भागना पडा। अर्थात् दूसरी एक सोच आने पर वहाँ दुख आरंभ हो जाता है। जो भी हो,एकात्मक बुद्धि ही सभी प्रकार के आनंद देगी। एकात्म ही है।. जो सत्य नहीं जानते,वे ही दो को देखते हैं। सत्य को जानना अति आसान है। क्योंकि अपनेे से उत्पन्न सब कुछ,सिवा अपने के और कुछ नहीं हो सकता। अपने सेे मिले बिना दूसरे का अस्तित्व न होगा। जब हम अपनेे में ही सब कुछ देखतेे हैं, तब काम,क्रोध,पाप-पुण्य,अच्छे-बुरे आदि जो कुछ देखते हैं,सब स्वयं ही है। वह एक दर्शन,वह एक अनुभव, वह परमानंद ही होगा। एकत्च दर्शन बुद्धि में दृढ संकल्य होने पर ही अपने यथार्थ स्वभाव परमानंद प्रकट होगा।

3800. भगवान गुरु के रूप में ही, ज्ञान के उपदेशों के द्वारा सृष्टि जीवों को दुख से मुक्ति करते हैं। इसलिए जो कोई गुरु उपदेशों को अक्षरसः पालन करता है, वे ही जीवन के सभी दुखों से पूर्ण रूप से बाहर आ सकता है। कारण समस्याओं का परिहार्य  ब्रह्म से ही हो सकता है। भले ही ब्रह्म दर्शन मिलें, गुरु उपदेश मिेलें शास्त्र ज्ञान मिेलें,  वह स्वयं को  अपने अहमात्मा मानकर, अपने अहमात्मा  को ही गुरु के रूप में दर्शन करके वह गुरु स्वयं ही है जान-समझकर   अद्वैत बोध के साथ चौदह संसार में  परमानंद के साथ जी सकता है। क्योंकि उसको मालूम है कि चौदह संसार रूप भी स्वयं ही है।