Wednesday, January 1, 2025

सनातन धर्म

 प3801.  अहंकारी से एक रुपया लेने पर, लेनेवाले को दास सोचकर जानवरों के जैसे गुलाम बनाने की कोशिश करेंगे। अभिमानी लोग मरने की अवस्था में भी अहंकारी से कोई मदद  न माँगेंगे। आत्माभिमानियों को मालूम है कि आत्मा सर्वाभिष्टदात्री है। अर्थात्  वे एहसास करते हैं कि अपने अहमात्मा रूपी ब्रह्म ही सभी जीवों में है, किसी न किसी रूप में भगवान ही अपनी सहायता के लिए आएँगे। वे एहसास कर चुके हैं कि अहंकार और अहंकार के गुण काम-क्रोध,राग-द्वेष तीनों कालों में नहीं होते,आत्मा ही सभी आनंदों का, ऐश्वर्यों का वासस्थल होती है। वह आत्मा ही मैं रूपी अखंडबोध है। उस अखंडबोध का अपना सहज स्वभाव ही परमानंद होता है।


3802.परमात्मा ही काल(समय) और काल(यम) होते हैं। कालचक्र बने ब्रह्म नियति निश्चलन और समत्व बने हैं। असमत्व जहाँ भी हो,समत्व लाना ही प्रकृति का स्वभाव ही है। असमत्व होना अहंकार से ही है। उस अहंकार को मिटाकर समत्व को पुनर्जीवित करने अर्थात् चलनों को निश्चलन करने ,निश्चलन को चलन करने, एकत्व को नानात्व करने, नानात्व को एकत्व करने का कार्य अनादी काल से होता रहता है। यही परमात्मा का स्वभाव है। अर्थात रेगिस्तान में मृगमरीचिका का दृश्य देखना सहजता है। वैसे ही ब्रह्म का स्वभाव अपने द्वारा सृष्टित प्रपंच की प्रदर्शनी देखना।जो इसका एहसास करता है, वह शरीर और संसार को देखकर भ्रम मेें नहीं पडेगा। स्वयं को ही सब मानकर वर्धित होते हैं। जिस पल वह भावना दृढ होती है, उस पल से अपने स्वभाविक परमानंद का अनुभव प्रकट होगा। ब्रह्म एक है के ज्ञान की दृढता में ही ब्रह्मानंद प्रकट होगा।

3803.  आत्मज्ञान की दृढता प्राप्त ज्ञानी को सांसारिक दुख के कारण के जन्म आगे नहीं होंगे। वह सर्वभूतों की आत्मा के रूप में बदल जाएगा। वैसे व्यक्ति सब का प्रिय बनेगा।आत्मानंद अनुभव से संतुष्ट उसको दूसरे सुख की आवश्यक्ता नहीं है। केवल वही नहीं है,दुख निवृत्ति होने की कोशिश की आवश्यक्ता भी नहीं है। अंतःकरण सब के सब नियंत्रण में होने से शांत रहते हैं।इस उपनिषद सत्य को ज्ञानी जानता है कि  मैं रूपी अखंड बोध मात्र ही परमानंद स्वभाव के साथ नित्य शाश्वत है। इस सत्य को जानने से इस संसार की आडंबर वस्तुओं से  किसी भी प्रकार की इच्छा, चाह, कार्मिक इच्छा उनको नहीं होगी।अर्थात् माया भ्रम छूट गया। वह जो प्रपंच देखता है,वह बोधाभिन्न होने से जहाँ भी देखता है, वहाँ  स्वयं बने बोध को ही दर्शन करता है। इस प्रपंच को ही वह अपने शरीर के रूप में ही देखता है। इसलिए उस आत्मज्ञानी के पंचभूत शरीर में प्रारब्ध वासनाएँ नहीं रहेंगी। इसलिए उसमें इस सांसारिक दुख के लिए आवश्यक बीज नहीं रहेगा अर्थात् जन्म रहित हो जाएगा।

3804.पीरिवारिक जीवन में लगनेवाले, न लगनेवाले जो भी हो जड रूपी संसार में विषय वस्तुओं को लक्ष्य बनाकर जीवन चलानेवाले सद्मार्ग  से लड़खड़ानेवाले  नासमझनेवालों से संसर्ग करनेवाले ही, जीवन को सार्थक न बनाकर बेकार करते हैं। अर्थात् अनश्वर को लक्ष्य बनाकर अनश्वर के लिए जीनेवालों को ही प्रकृति सभी मार्गों को खोलेगा। केवल वही नहीं शांति और आनंद निरुपाधिक रूप में स्वआत्मा को सहज रूप में अनुभव कर सकते हैं। वैसे लोग स्वात्मानुभूति ब्रह्म निष्ठ से एक क्षण भी न हटेगा। स्व आत्म विस्मृति ही उनपर निर्भर है। वे सोचते हैं कि उसकी मृत्यु है। इसीलिए वे आत्म स्मृति रूपी अमृतत्व से एक क्षण भी न हटे रहेंगे।

3805. समुद्र के पानी में एक बूंद पानी का स्वाद लेने पर पूरे पानी का खारापन मालूम होगा। एक स्त्री को समझनेवाले पुरुष को महामाया पराशक्ति तक की सभी स्त्रियों को समझ सकते हैं। अर्थात्  बिजली की उत्पत्ति बाँध से लेकर एक घर के ज़ीरो वाट्स बल्ब तक बिजली को छूने पर धक्का लगेगा। इसलिए सत्य की खोज करनेवाले जितना पवित्र रहता है, उतनाही अधिक निकट भगवान के पास जा सकता है। पूर्ण पवित्रता से रहनेवाले को ब्रह्मांड में होनेवाले सभी घटनाओं को अपनी आँखों के सामने उसकी सुषुमना नाडी में वह देख सकता है।
जो कोई अपने को ही विवेक से पहचानता है, वही अपने में नित्यता और अनित्यता को जान सकता है। वैसे ही  विवेक से जानते समय उसको  मालूम हो जाएगा कि शरीर जड है, वह तीनों कालों में नहीं है, शरीर और संसार के परम कारण बने जन्म और मृत्यु रहित स्वयंभू बने अखंडबोध ही यथार्थ है। यह शरीर और संसार सहित यह ब्रह्मांड स्वयं बने अखंडबोध में उमडकर देखनेवाले अपने भ्रम में डालनेवाला इंद्रजाल नाटक है। इस बात को जानने के बाद स्वभाविक परमानंद को निरूपाधिक रूप मे  भोगकर वैसा ही बन सकते हैं। जो वैसे अखंडबोध ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते वे सांसारिक कर्म चक्र में घूमते रहेंगे।

3806. जो कोई जीव किसी भी प्रकार के संकल्प के बिना अखंड आत्मबोध के साथ अर्थात् पू्र्ण पवित्रता के साथ रहते हैं,उनको चींटी से ब्रह्मा तक सब जीव और विश्व माया भी नमस्कार करेगी। कारण सभी ब्रह्मांड के लिए परम कारण “मैं” है का अनुभव करनेवाला अखंडबोध ही है। वह अखंडबोध ही ब्रह्म है। ब्रह्म और आत्मा एक ही है। इसे समझकर ब्रह्म स्थिति में रहना ही स्थित प्रज्ञ स्थिति  है। वैसे उस स्थित प्रज्ञ स्थिति में रहनेवालों को ही एकत्व दर्शन साध्य होगा। वह एकत्व दर्शन ही साध्य होगा। वह एक रूपी आत्मा ही सर्वस्व है।


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