Thursday, January 30, 2025

सनातन वेद जगदीश्वर

 3888. साधारणतः आत्मीक मार्ग में संचरण करनेवाले ज्ञानियों को कुछ अविवेकी निंदा करें या दोषारोपण करें या यशोगान करें ,उनपर ज्ञानी ध्यान नहीं देंगे। वे प्रशंसा से संतोष, अप्रशंसा से असंतोष नहीं होंगे। वे सब अविवेक के कार्य हैं। इसलिए वे सब में निस्संग ही रहेंगे। वैसे होने पर भी कुछ संदर्भ परिस्थितियों में दोषारोपण करनेवालों को ज्ञानोपदेश देने के उदार मनवाले ज्ञानी होते हैं। वे जो कुछ करना है, उनहे करते रहने से उनको जो कुछ मिलना है,वे मिलते रहेंगे। उसके बारे में परादि चिंतन नहीं होता। कारण उनको इस संसार से कुछ मिलनेवाला नहीं है, उनको करने के लिए कुछ भी नहीं है। क्योंकि वे आत्म अवबोध होने से अर्थात् स्वयं आत्मा है की अनुभूति होने से वे इस संसार को ही अपने शरीर सोचते हैं। उन लोगो का मन सब में सम स्थिति पर रहेगा। इसलिए उनको शांति के लिए आनंद के लिए कहीं ढूँढकर जाने की आवश्यक्ता नहीं होती। क्योंकि समस्थिति प्राप्त मन आत्मा ही है। आत्मा का स्वभाव ही अनिर्वचनीय शांति और परमानंद है।

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