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Wednesday, February 19, 2025

जगदीश्वर सनातन धर्म

 3901. आत्म बोध से न ऊबे हुए मन के दखलों को अच्छे -बुरे,रात-दिन,काल-देश,पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म,कुछ भी नहीं है। कारण आत्मा सदा एक और सर्वव्यापी होती है।जो स्वआत्मा को भूलकर शारीरिक बोध में जीनेवालों को ही ये सब होने सा लगता है। उन झांकियों को बनानेवाली ईश्वरीय शक्ति महामाया देवी का लीला विनोद ही यह प्रपंच होता है।


3902. जिसमें  ईश्वरीय प्रेम है,उसको इस विश्व में जैसे भी  नियम हो,कोई बाधा नहीं हो सकता। कारण  उसके विरुद्ध आनेवाले सब में स्वयं रूपी आत्मा ही भरा रहता है। इसलिए उसमें आत्मा का स्वभाव आनंद और शांति का अनुभव करता रहेगा। इसलिए इस शरीर पर अनासक्ति हो जाती है। आत्मा से अन्य कोई दूसरी वस्तु न होेने से आत्मा सर्वस्वतंत्र ही रहेगा। उस सर्व स्वतंत्रता में सभी प्रकार के आनंद निर्भर है। इसलिए शारीरिक और सांसारिक नियम उसपर प्रभाव न डालेगा।इसलिए वह एक बच्चे की तरह सबमें निस्संग ही रहेगा।

3903. सत्य से प्रेमकरनेवाले मंत्री  ही सांसारिक लोगों के लिए जी सकता है। कारण फल की प्रतीक्षा में जीनेवालों को सत्य से प्रेम नहीं कर सकता। इसलिए सत्यवानों को मंत्री बनाने   के विवेक की शिक्षा देनी चाहिए।बुद्धि की बुद्धि  रूपी आत्मज्ञान को छुटपन से ही शिक्षा में  देना चाहिए। तभी सभी जीवों को परस्पर करुणा,परस्पर स्नेह होगा। उनको देश प्रेम,भ्रातृत्व प्रेम, राज्य प्रेम होंगे। देश की समृद्धि होगी। शांति होगी। प्रशासनिक अधिकारियों को सनातन सत्य रूपी आत्मज्ञान देनेवाले ग्रंथ भगवद्गीता,उपनिषध आदि सीखने के लिए अनिवार्य आदेश देना चाहिए। आत्मज्ञान की शिक्षा न देने के कारण से ही चींटी से ब्रह्मा तक केे जीव सब केे सबब संघर्ष में लग जाते हैं।जो आत्मज्ञान को सही रूप में जान लेते हैं, उनको मानसिक तनाव, बुद्धि भ्रम, शारीरिक उपद्रव आदि न होंगे।होने पर भी कोई असर न पडेगा।कारण वे एहसास कर चुके हैं कि वे शरीर नहीं है, स्वयं  प्राण है। इसलिए सब के सब आत्मज्ञानी सदा आनंद चित्त से रहते हैं।

3904. आत्मज्ञानी कमल और कीचड को एक समान प्यार करनेवाला है। आत्मज्ञानी किसी से भेद दर्शन नहीं करेगा। कमल को मात्र तोडकर उसको मात्र प्यार करनेवाले को उसकी सुंदरता  अधिक देर भोग नहीं सकता। वैसे ही मनुष्य को भेद बुद्धि के साथ पांडित्य को कहनेवाले पंडित को उस पांडित्य से आनंद या शांति न मिलेगा। अर्थात् कमल के मूल को जो खोजता नहीं है, उसको आनंद नहीं मिलेगा। कारण ज्ञान का मूल आत्मा ही है। आत्मा के स्वभाव ही परमानंद और परम शांति। जो मूल को नहीं खोजते,वे आँखें देखे
विषयों को मात्र सत्य मानकर उसके भ्रम में रहते हैं। जिसमें विषय भ्रम बदलता है, वही अदृश्य मूल की खोज करेगा। उस मूल की खोज करना पूर्व वासना के विवेक और अविवेक पर निर्भर है।

3905. साधारणतः पुरुष से स्त्रियों को ही अधिक इच्छा होती है। इसका कारण है अपने अस्तित्व आत्मा पर स्त्री पुरुष के जैसे मन लगा नहीं सकते। स्त्रियों को पुरुषों से शारीरिक बोध ज़्यादा  होता है, पुरुषों के लिए शारीरिक बोध कम होता है।इसीलिए पुरुषों की तुलना में स्त्रियों को इच्छा ज्यादा है।अर्थात् स्त्रियों को पुरुष पर इच्छा होते समय वह उसको निराश कर देगी। उसको मालूम नहीं है कि स्त्री एक अग्नि  गोल है। लेकिन इच्छा रूपी दूसरे किनारे को आज तक किसीने नहीं  देखा है।जवानी और स्वास्थ्य के नष्ट होने के बाद संपत्ति से कोई लाभ नहीं होता। यौवनावस्था में स्त्री हो या पुरुष जीवन को आत्मबोध के साथ आनंद से न रहें  तो स्त्री और पुरुष आपस में घृणा से रहेंगे।  मानसिक और शारीरिक शिथिलता प्राप्त  बूढे पति को पत्नी नहीं चाहेगी,बूढी पत्नी को पति नहीं चाहेगा। पुरुष में ब्रह्मचर्य न होने से ही पुरुष स्त्री के नफरत का पात्र बनता है। ब्रह्मचर्य पुरुष को जितना भी उम्र बढें, स्त्री उसके वश में ही रहेगी। वैसे ही पतिव्रता स्त्री के वश में पुरुष रहेंगे। एक ब्रहमचारी ही स्वयं ही आत्मा का एहसास करेगा। और आत्मा के स्वभाविक आनंद का अनुभव करेगा। इसलिए उसको सुख के लिए बाहर की स्त्री या अन्य भोग विषयों की उपाधियों की जरूरत नहीं है। उसी प्रकार पतिव्रता नारी को सुख भोग के लिए  बाह्य पुरुष और भोग विषयों की किसी भी उपाधि की ज़रूरत नहीं है। लेकिन साधारण मनुष्य संभोग करते समय स्वास्थ्य और धन का बरबाद होता है। उसके कारण मानसिक दुख,शारीरिक दुख और कर्जाा के कारणम दुख सांसारिक दुख आदि केे कारण पुनर्जन्म के लिए बीज बोकर मर जाता है।

3906. स्त्री के चिंतन से पुरुष नष्ट करने का समय ही स्त्री का जीवन है। जैसा भी बंधन हो, पुरुष स्त्रियों को चिंतन करने का समय मात्र ही स्त्रियाँ जीवन बिताती है। जिस पुरुष की बुद्धि में एक स्त्री जीती नहीं है, उसको लौकिक चिंतन या शारीरिक चिंतन आवश्यक्ता से ज़यादा नहीं रहेगा। नामरूपात्मक प्रकृतीश्वरी के प्रतिबिंब रूप स्त्री को त्यागनेवाला संसार को त्यागने के समान है। अर्थात् अपने स्वरूप यथार्थ में बोध ही है। वह बोध रूपी स्वयं इस संसार को न जानता तो यह संसार नहीं है। बोध के बिना किसी भी वस्तु को जान नहीं सकते। बोध के बिना इस शरीर को या संसार को अस्तित्व नहीं है। ज्ञान की एक सीमा है या नहीं है कहनेवाला भी बोध ही है। अर्थात् उसे जानने का परम ज्ञान ही परमात्मा है। वह अखंड बोध ही मैं अस्थित्व का अनुभव है।समुद्र को जानने उससे ही भिन्न लहर जान नहीं सकती। लहर समुद्र से संगमित होकर ही समुद् बनती है। वैसे ही बोध से  भिन्न होकर परमात्म बरह्म बोध जान नहीं सकते। सीमित ज्ञान  असीमित  ज्ञान बनना ही मुक्ति होती है। अर्थात समुद्र ही लहरों के रूप में है।वैसे ही निश्चल ब्रह्म परम बोध परमात्मा  अपनी निश्चल  स्थिति से भिन्न न होकर अपनी शक्ति माया के द्वारा चलनात्मक प्रपंच को बनाता है । वह प्रपंच को दिखाता है। ज्ञान के बिना रूप को देख नहीं सकते। एक ही बोध ही नित्य सत्य रूप में होता है। उसका स्वभाव ही परमानंद होता है।जो जीव सत्य को भूल जााता है, उसको किसी भी वस्तु से आनंद न मिेलेगा। दुख ही मिलेगा,यही सत्य है।

3907. जो कोई अपने अहमात्मा सत्य से फिसल जाता है, उसी मिनट अहंकार उसको निगल देगा। वैसे लोगों को उपयोग करने के लिए ही माया राह देखती रहती है। माया उसको आकर्षित करके भेद बुद्धि और राग द्वेष देकर लघु सुख काम वासना पिंजड़े में फँसाकर यमोह भंग दुख देती रहती है। उस दुख को विवेक से जानकर असत्य को त्यागकर सत्य का पालन न करेंगे तो काम वासना बढती रहेंगी।
वह जलनेवाले आग में  तेल डालने के जैसे होता है। उसके द्वारा होनेवाले सुख-दुख, उनसे आश्रित जीवों के सुख-दुख, उनको देखनेाले और सुननेवाले सुख-दुख,विकसित होते रहते हैं। उनसे बाहर आना साधारण मनुष्य के लिए असंभव है। जिनमें कामवासना बस गई, उनको समझ लेना चाहिए कि वह सुख नरक का मार्ग है। जो सत्य धर्म विनम्रता के मार्ग नहीं अपनाता,उसकी गति ताड के  पेड की ऊँचाई से हाथ फ़िसलकर नीचे गिरे व्यक्ति की गति जैसी होगी।

3908.  जिस ज्ञान को प्राप्त करने से सभी ज्ञानों को जान सकते हैं,वह ज्ञान है आत्मज्ञान। उसे सीखने के बाद शरीर और संसार को देखते समय शहर के सभी बल्ब एक ही करंट से जलते हैं। वैसे ही आत्मा एक ही प्रपंच के सभी रूपों के अंदर रहकर उसको प्रकाशित करता है।इस परम सत्य रूपी एकात्म दर्शन को अनुभव करनेवाले ज्ञानी के सामने जैेसे करंट रहित बल्ब जड होते हैं, वैसे ही प्रपंच के सभी रूप आत्मा रूपी स्वयं का बोध नहीं है तो जड प्रपंच तीनों कालों में रहित ही है। अर्थात् वह जड तीनों कालों में रहित ही है। अर्थात् ज्ञानी के सामने यह संसार नहीं है। कारण जड कर्म चलन होता है।   निश्चलन ब्रह्म में चलन तीनों कालों में रहित ही है।अर्थात् स्वयं बने अखंडबोध में भ्रम रूपी कर्म चलन बनाकर मिटनेवाला ही यह प्रपंच है। अज्ञानियों को यह मालूम नहीं है कि यथार्थ लगनेवाले इस प्रपंच के साक्षी रूप  होता है स्वयं रूपी बोध। इसलिए वे सुख की खोज में इस कर्म प्रपंच में कर्म करके दुख में ही रहते हैं। सुख की इच्छा होने से कर्म की इच्छा उन्हें छोडकर नहीं जाती।वे किसी से
संतुष्ट नहीं होते। सत्य की खोज करनेवाले ही इस प्रपंच के लिए एक  ही साक्षी मैं रूपी बोध ही है। उसका एहसास करने से निरंतर शांति और आनंद भोगते रहेंगे। जहाँ दो का उदय होता है, वहीं से सांसारिक दुख आरंभ होता है। एक आत्मज्ञानी को भेदबुद्धि न होगी। उसका मन आत्मा के निकट आते ही शक्कर पानी में गलने के समान
आत्मा में मिल जाएगा। मन मिट जाएगा। सत्य में मन नहीं है। मन आत्मा के निकट जाते तक ही वह एक भ्रम है।भ्रम के हटते ही मन कोई नहीं है। इसलिए मन में उत्पन्न संसार भी रहित है। 

3909.धर्म और सत्य को ही अपनाकर जीवन बितानेवाला मनुष्य जहाँ भी रहता हैं,वहाँ भगवान उनके रूप में ही  अपने सांसारिक क्रियाओं को कार्यान्वित करता है। वास्तव में भगवान कुछ नहीं करते। भगवान कुछ नहीं कर सकते। क्योंकि भगवान एक ही बोध रूप परमात्मा मात्र होते हैं। वे निश्चलन सर्वव्यापी परमानंद स्वभाव के साथ स्थिर खडा रहता है।उनसे दूसरी एक  वस्तु किसी भी काल में न होगी। जो कुछ हुई सी लगती है,वह केवल भ्रम के सिवा और कुछ नहीं है।जो सत्य को  ग्रहण करना चाहते हैं,उनको पहले समझना चाहिए दो बातों को। 1.बोध 2.जड. बोध आत्मा ही है। वह सर्वव्यापी होता है। 2. बोध में दीखनेवाले शरीर और प्रपंच जड ही है। इसलिए  इस बात को मन में गाँठ बाँधकर रख लेना चाहिए कि जड रूपी कर्म चलन तीनों कालों में रहित है। कारण निश्चलन में किसी भी काल में कोई चलन हो नहीं सकता। वही शास्त्र सत्य है। अर्थात इस बात का एहसास कर लेना चाहिए कि  मैं हूँ के अस्तित्व का अखंडबोध मात्र ही नित्य सत्य रूप में है। किसी को यह विश्वास नहीं होगा कि  प्रपंच और शरीर रहित है और भ्रम है। इस भावना  को तैल धारा के समान समझाता रहना चाहिए कि सर्वस्व ब्रह्म ही है। जो आत्म स्थिति को प्राप्त करना चाहते हैं,वे ही तैलधारा के समान इस भावना में ही रहेंगे। अर्थात उस ब्रह्म भावना के फलस्वरूप शारीरिक बोध और सांसारिक बोध की विचार शक्ति स्वयं कम होती रहेगी।कालांतर जिसकी भावना होती रहेगी, वह वैसी लगेगी।साथ ही उसका एहसास होता रहेगा। वैसी भावना करते करते भविष्य को सही रूप में दृढ बना लेना चाहिए। तभी दुख विमोचन होगा।

3910. यह संदेह अनादी काल से सभी जीवों में होता रहता है कि यह प्रपंच है कि नहीं। कुछ लोग प्रत्यक्ष संसार को भोगते रहने से प्रत्यक्ष देखनेवाले सब  को अर्थात्  पंचेंद्रिय  देनेवाले उपदेश सब को सत्य ही समझते हैं। वे वैसा ही विश्वास करते हैं। लेकिन प्रत्यक्ष देखनेवाले सब सत्य नहीं है। पंचेंद्रिय सब पाँच अलग अलग  अनुभव ही देते हैं।                                                                                                                                                                                                                               लेकिन आत्मा एक रस, निर्विकार,निश्चलन,एकन,परमानंद रूप है। अर्थात् इंद्रियों द्वारा ,मन द्वारा  बुद्धि द्वारा आत्मा को जान नहीं सकतेे। असीमित को सीमित से ग्रहण नहीं कर सकते। आँखों से आँखों को देख नहीं सकते।वैसे ही कोशिश करनेवाले को खोजने पर न मिलेगा। जो कुछ खोजते हैं,वह स्वयं को ही खोजते है। कुछ लोग कहते हैं कि ईश्वर की इच्छा शक्ति ही इस जगत  उत्पत्ति के कारण   होती है।
एक मिट्टी की शिला बनाने के संकल्प और इच्छा शक्ति के कारण ही शिला बनती है।  कुछ लोग कहते हैं कि  ईश्वर के संकलप से ही यह प्रपंच बना है। और कुछ लोग कहते हैं  कि सब कुछ के लिए समय  काल ही कारण है। लेकिन सोचते हैं कि काल का परिणाम स्वरूप ही है। और कुछ लोग कहते हैं कि यह सृष्टि ईश्वर की लीला है। ईश्वर भोगने के लिए हैं। और कुछ लोग कहते हैं कि वास्तव में ये सब ईश्वर का स्वभाव ही है। अर्थात्  पूर्ण संतुष्ट भगवान के लिए कोई प्रत्येक इच्छाएँ न होंगी। परस्पर वृत्त यह प्रपंच भगवान के आनंद के लिए नहीं है। भगवान के स्वभाव ही परमानंद है। ईश्वर इस प्रपंच की सृष्टि नहीं करते। वह मृगमरीचिका के समान भ्रम दृश्य ही है। मृगमरीचिका को देखनेवाला  रेगिस्तान को ही देखना चाहेगाा, न मृगमरीचिका को। मृगमरचिका को पारकर जानेवाले को  रेगिस्तान में एक बूंद पानी तक न मिलेगा। कभी वहाँ मृगमरीचिका बनी नहीं है। वैसे ही नामरूपात्मक प्रपंच को विवेक से जानता है,वह खूब एहसास कर सकता है कि प्राणन के कई रूपों में विकसित बना है यह प्रपंच। अर्थात् यह शरीर और संसार प्राण से बना है।प्राण चलनशील है। इस प्राणन की उत्पत्ति अखंड बोध से बनी है दूसरी से बन नहीं सकता।  मैं रूपी अखंडबोध निश्चलन होने से उसमें कोई चलन नहीं होगा।वह युक्ति से न मिलेगाऔर असत्य होगा। प्रपंच तीनों कालों में नहीं है,यही शास्त्र सत्य है। जो नहीं है,वह बन नहीं सकता। है सा लगना जीव का भ्रम ही है। जीव अपने को ही पहचानते समय प्रतिबिंब बोध स्वयं और देखनेवाला सभी प्रपंच रूप रस्सी के साँप जैसे अर्थ शून्य होगा। एक ही मैं रूपी अखंडबोध मात्र ही परमानंद स्वभाव के साथ नितय सत्य रूप से अनिर्वचनीय शांति के साथ स्थिर खडा रहेगा।

3911.सर्वव्यापी आत्मा बन नहीं सकती। केवल वही नहीं,उससे दूसरा कभी  हो नहीं सकता। दूसरा एक होने से ही बंधन होगा। इसलिए आत्मा के लिए दूसरा एक न होने से कोई एक बंधन नहीं है। बंधन न होने से उसको बंधन विमोचन की जरूरत नहीं है। जो बना सा लगता है, आत्मा आत्मा नहीं है, माया से प्रतिबिंबित- सा लगनेवाले प्रतिबिंब जीव को ही है।प्रतिबिंब बने जीव स्वयं प्रतिबिंबित न हो सकनेवाले प्रतिबिंब-सा बदलेगा।जो कुछ बोध से बना -सा लगता है, वे सब मिट जाएगा।अर्थात् सर्वव्यापी परमत्मा प्रतिबिंबित हो नहीं सकता। उदाहरण के लिए आकाश सर्वव्यापी ही है। सर्वव्यापित  आकाश प्रतिबिंबित हो नहीं सकता। लेकिन तालाब और तडाग में आकाश प्रतिबिंबित-सा लगता है। वह सूर्य के प्रकाश के कारण पानी और प्रतिबिंब मिट जाएँगे।आकाश का प्रतिबिंब मात्र स्थिर रहेगा। ऐसे ही सर्वव्यापी परमात्मा अपनी शक्ति माया के द्वारा प्रतिबिंब जीव रूप में बदलता है। जीव आत्मविचार करने से आत्मज्ञानाग्नि द्वारा जीव भाव का अंत होगा। साथ ही परमात्मा मात्र स्वयं एक रूप में परमानंद रूप में स्थित रहेगा।

3912. मनुष्य को जिस दिन अपने शारीरिक स्मरण आया, उसको अपनी निज अवस्था आत्मबोध के बारे में कहने में असमर्थ होते हैं, वह स्वयं भी जान नहीं सकता। इसी कारण से  वह इस संसार में छोटे मनुष्य जीव के रूप में जीता है। उसमें  सत्य और असत्य जानने का अवकाश नहीं है। अतः वह भ्रमित रहता है। विषय उसको जहर के समान दुख देते समय ही उसको विषयों की इच्छा अंत होगी। मनुष्य को यह बात मालूम नहीं होती कि  आत्मा या ईश्वर की खोज करते समय ही मन सत्य के निकट जाएगा। उस समीपता से ही सत्य का स्वभाव निरंतर शांति, निरंतर आनंद, निरंतर स्नेह भोग सकते हैं।
सत्य ही भगवान है। ईश्वर का स्वभाव सदा आनंद है।जो कोई सदा आनंद के साथ रहना चाहता है, उसको सर्वत्र भगवान का ही एहसास करना चाहिए। पंचेंद्रियों से जो कुछ अनुभव करते हैं,उन सब में भगवान का स्मरण होना चाहिए। शरीर से करनेवाले सब कर्मों में ईश्वरीय पूजा का एहसास करना चाहिए। सबमें ईश्वर का पहचान नहीं है तो आनंद नहीं देगा। वही अविद्या माया है। जो माया रूप ब्रह्म साक्षात्कार की मदद करता है, वे रूप विद्या माया के रूप ही हैं। जो रूप ब्रह्म के पास जाने से रोकते हैं, वे सब अविद्या माया के रूप ही हैं। इसलिए  विद्या हो या अविद्या नामरूप सब के सब जड ही है। वे दुख ही देंगे। वास्तव में वे तीनों कालों में रहित ही है। इस बात को जान समझकर सत्य रूपी आत्मा अर्थात् बोध की परिपूर्णता समझकर मैं रूपी अखंड बोध मात्र ही नित्य सत्य है। यह एहसास करके जीनेवालों को मात्र ही नित्य सत्य शांति ,नित्य आनंद होगा। नहीं तो नित्य दुख ही होगा।

3913. धन को धर्म के मार्ग पर उपयोग न करने पर जो धनलक्ष्मी श्रीदेवी के रूप में आयी थी,वह ज्येष्ठा देवी बन जाएगी। अर्थात् ईश्वर के लिए जीनेवाला धन मात्र ही धर्म कार्यों के लिए उपयोग होगा।जड विषयों के लिए मात्र जीनेवालों का धन अधर्म कार्यों के लिए ही काम में आएगा। जहाँ धर्म है,वहाँ सुख रहेगा। अधर्म के यहाँ दुख ही रहेगा। सुख-दुखों  का अनुभव करके ही अधर्म -धर्म कार्यों का एहसास कर सकते हैं। जो निरंतर शांति और आनंद चाहते हैं, उनको समझ लेना चाहिए कि  एक देश के व्यवहारिक  धर्म दूसरे देश में व्यवहार में न रहेगा। हर एक देश के धर्म-अधर्म भिन्न होते हैं। हर एक जाति के हर एक कुल के आचार व्यवहार होते हैं। हर एक देश में वैसा ही है। इसलिए धर्म के बारे में,अधर्म के बारे में निर्णय नहीं कर सकते। वैसे ही मजहबी आचार,जाति आचार सब में अंतर होने से कौन सी सही और कौन-सी गलत आदि का निर्णय नहीं कर सकते। वैसे ही ब्रह्म के विश्वास भी अनेक तरह के होते हैं। इसलिए सब को स्वीकार्य धर्म-अधर्म को समझना चाहिए तो सबको आवश्यक है परमानंद,निरंतर शांति अनश्वर प्रेम और सर्वस्वतंत्र ही है।इसलिए इस अनश्वर प्रेम,शांति,आनंद और स्वतंत्रता की उत्पत्ति स्थान को पहले खोज करकेज समझना चाहिए। तभी एहसास हो सकता है कि शरीर के, संसार के परम कारण को समझ सकते हैं।
उन्हें शास्त्रीय रूप में सीखते समय  वे सब परमात्मा के स्वभाव होते हैं। अर्थात् मैं रूपी अखंडबोध का स्वभाव ही है। इस अखंडबोध  को ही हर एक मज़हबी/मत विश्वासी उनको भगवान के रूप में भगवान के द्वारा देखते हैं। अर्थात इस मैं रूपी अखंड बोध भगवान से भिन्न एक भगवान को कहीं नहीं देख सकते। अर्थात् बोध नहीं तो कुछ भी नहीं है।यही उसकी स्पष्टता है।जो विवेक से इन सब की खोज नहीं करते, उनको कुछ भी समझ में नहीं आएगा। उनको नित्य दुख से विमोचन नहीं मिलेगा। यह नहीं कह सकते हैं कि एक जीव को बोध नहीं है। इसे कहने के लिए भी बोध ही आवश्यक्ता है।जो सत्य की खोज नहीं  करते, वे सत्य की खोज करके पाप ही सोचते हैं। लेकिन उनका दुख न बदलेगा। दुख निवृत्ति किससे होता है, उससे ही सत्य-असत्य का पहचान  हो सकता है। अद्वैत दर्शन के बिना विविध दृश्यों को देखनेवालों को इस जन्म में इस शरीर से निरंतर शांति,निरंतर आनंद,निरंतर प्रेम न मिलेगा। यही प्रमाण और शास्त्र सत्य है। इसलिए  नित्य शांति,नित्य आनंद,नित्य स्वतंत्र, नित्य स्नेह चाहनेवाले मैं रूपी अनुभव देनेवाले अखंडबोध मात्र ही ,उसका स्वभाव ही नित्य शांति नित्य आनंद,नित्य स्नेह ,नित्य स्वतंत्र है, उस बोध में लगनेवाले नाम रूप प्रपंच सब के सब मृगमरीचिका के समान है।इस ज्ञान को बुद्धि में दृढ बनाकर अपने स्वभाविक नित्य शांति, आनंद स्वतंत्र स्नेह को भोगकर नित्य संतुष्ट रहना चाहिए।

3914. किले के अंदर रखनेवाले प्रकाश किले के बाहर से देखने पर मालूम नहीं होगा।उसे देखने किले के द्वार के द्वारा अंदर जाना चाहिए। वैसे ही अज्ञान अंधकार भरे शरीर के किले में जलनेवाला दीप ही आत्म होती है।जिसका मन उस आत्म प्रकाश की ओर जाता है,उसके मन की वासनाएँ पूर्णतःमिट जाएँगी। वासनाओं के नाश होते ही जीव भाव मिट जाएँगे। साथ ही दुख का विमोचन होगा।तभी मैं का अखंडबोध मात्र नित्य सत्य रूप में स्थिर खडा रहेगा। अर्थात् स्वात्मा से प्रतिष्ठित मैं मात्र हूँ  को ही जीव मुक्त कहते हैं। जीव मुक्त को प्रपंच अनुभव नहीं है।

3915.    कोई एक हत्यारा मंदिर जाकर पाप दूर करने के लिए प्रार्थना करने पर भी पाप दूर न होगा। क्योंकि उसके मन में वह कर्मवासना रूप में मन में रहने से उसके किये अनुभव से उसका मन मुक्त न होगा। इसलिए वैसा एक व्यक्ति एक आत्मज्ञानी गुरु से आत्मज्ञान सीखते समय   एहसास करेगा कि आत्मा को उत्पत्ति सच्चाई,विकास,परिवर्तन,नाश, जय आदि छे विकार कोई नहीं है।ये सब जड को ही है। आत्मा को कोई मार नहीं सकता। दूसरे भी मार नहीं सकते। जो मारता है और मरता है, दोनों जड ही है। जड तीनों कालों में रहित एक भ्रम मात्र ही है।आत्मा साक्षी मात्र ही है।जो सत्य नहीं जानता,उसको ही यह शरीर है सा लगता है। इसलिए उसको लगता है कि उसने दूसरे को मारा है। जो जीव मर गया है,वह प्रतिबिंब बोध है। प्रतिबिंब सत्य नहीं है। प्रतिबिंब जीव और इच्छा पूरा न हुआ मन दोनों मिलकर ही मृत्यु शरीर से बाहर जाता है। इच्छा पूरा होने,नये शरीर मिलने प्रतिबिंब बोध और चित्त खोजते रहेंगे। वह एक संकल्प लोक ही है। ये सब सत्य न समझनेवाले जीवात्मा का संसार ही है।

3916.  अनश्वर आत्मा को नाश करने के लिए ,नश्वर शरीर को शाश्वत स्थाई बनाने की विपरीत बुद्धि,जिज्ञासा मनुष्य को सहज रूप में है। उसी कारण से ही अधिकांश लोग अहंकार की तृप्ति के लिए नाम और यश की तृप्ति के लिए स्वार्थवश कई सेवा प्रवृत्ति में लगते हैं।  वैसे लोग स्वार्थ के बिना दूसरों की कोई मदद न करेंगे। इसीलिए शरीर नश्वर है,आत्मा अजर अमर समझनेवाले निस्वार्थ रूप में परोपकार में लग जाते हैं। वे ही स्वात्मा निश्चित होने से निस्वार्थ रूप में  अपने जैसे दूसरों को मानकर सेवा करते हैं। उनको स्वात्मा निश्चय होने से आत्मा कल्पवृक्ष है, कामधेनु है।इसकामहसूस करके ही संसार की सेवा कर सकते हैं।

3917. स्वआत्म रति अनुभव करनेवाले को  अन्य जीवों से बोलने के लिए समय न रहेगा। इसीलिए आत्मा से प्रेम करनेवाले गुफाओं में और वनों में रहते हैं। जिन ज्ञानियों को अन्यों की सेवा करने का प्रारब्ध प्राप्त है, वे ही लोगों को उपदेश देते हैं। लोगों के बीच जाकर ज्ञानोपदेश करनेवाले हो या गुफाओं में जाकर आत्मा की उपासना करने के लक्ष्य करनेवाले हो दोनों एक ही स्थिति की ओर जाएँगे।जो आत्मा को लक्ष्य बनाते हैं, उनका मन अन्य चिंतन को स्थान नहीं देगा। इसलिए उनको एकत्व दर्शन होगा। जिनको एकत्व दर्शन होगा, केवल उनको ही परमानंद और अनिर्वचनीय शांति होगी।

3918.किसी एक का जन्म पूर्व जन्म के सत्कर्म और दुष्कर्म की वासनाओं से भरे चित्त बनकर ही जन्म लेते हैं। सत्कर्म अधिक होने पर उनका मन अधिक आसानी से आत्मा के निकट जाएगा। दुष्कर्म होने पर उनका मन आत्मा के निकट जाने कई कोशीशें करनी पडेंगी। मोक्ष को चाहनेवाले विवेकी ही साधारणतः पुण्य-पापों को बाकी न रखकर आत्मविचार से जीवन का अंत कर लेते हैं। इसलिए उनको पुनर्जन्म न होगा। जो पुनर्जन्म न चाहते हैं,वे धर्म कार्य और जन सेवा से हटकर आत्मा के चिंतन में ही जीते हैं। बंधन और मोक्ष धर्म अधर्म सब चित्त संकल्प के बिना सत्य नहीं है। कारण ये सब कर्म के अंतर्गत ही है। कर्म कर्म से किसी भी काल में ज्ञान न मिलेगा।कर्म जड और चलन से बना है। निश्चल ब्रह्म में कोई भी चलन न होगा। इसलिए चलनात्मक सब के सब सत्य से अनभिज्ञ जीव संकल्प मात्र है।जीव और संकल्प तीनों कालों में रहित ही है।मैं रूपी एक अखंड बोध मात्र नित्य सत्य रूप में  परमानंद  के साथ स्थिर खडा रहता है। इस स्थिति को पहुँचने के लिए ही माया कार्यो को उपयोग करना चाहिए। सत्य  को जाननेवाले के सामने माया छिप जाएगी।

3919.एक स्त्री -पुरुष संभोग करते समय परस्पर शारीरिक रूपों में मन न लगाकर  जितना भी भूल करें, वे गल्तियाँ उन पर प्रभाव नहीं डालता। केवल वही नहीं शरीर नाश होते समय परमात्म स्थिति को पाकर उसके स्वभाविक परमानंद का अनुभव करेगा।

3920. इस संसार में जीनेवाले मनुष्य को गुण या दोष दोनों नहीं के बराबर है। क्योंकि दोष माने यथार्थ में गुण-दोष को विभाजित करना ही है।वही पाप है। किसी को विभाजित करके देखना ही पाप होता है। अर्थात् जो शास्त्रीय सत्य नहीं जानते,वैसे मन के लोग ही सबको बाँटकर विभाजित करके देखते हैं। मन जिन्हें बाँटते हैं वे ही  धर्म-अधर्म होते हैं। गुण भी नहीं है,दोष भी नहीं  है।केवल एक ही भगवान है। एक ही अखंडबोध मात्र है। स्वयं मात्र है। बाकी जो कुछ  लगता है, सब के सब असत्य ही है। इस शास्त्र सत्य को जब तक एहसास करते हैं,तब तक दुख विमोचन नहीं होगा।

3921.मन जिसको भी चाहें,वह चिपक जाएगा। लौकिक जीवन बितानेवाले,नहीं जान सके कि जिन पर मन लगाना है। उनका मन माता-पिता, नाते-रिश्तों पर लगकर तडपता रहता है। जिसका मन दुख देने की वस्तुओं से न लगकर अनश्वर सुख देनेवाले आत्मा में मन लगना चाहिए।तभी आत्मा के स्वभाव नित्य स्नेह, सर्व स्वतंत्र,नित्य शांति और नित्य आनंद होगा।

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