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Monday, December 8, 2025

मैं पैसा बोलता हूँ

 पैसा बोलता है।

एस.अनंतकृष्णन, तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक द्वारा स्वरचित भावाभिव्यक्ति रचना 

9-12-25

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 मैं पैसा हूँ।

 मैं ही बोलता हूँ।

 अधिक कोई बोले,

 भले ही सत्य हो,

भले ही ईमानदारी बातें हो

 मैं उनके जेब में न तो

 उसकी बातें न सुनता कोई।

पांडेय बेचन शर्मा उग्र 

 मेरे बारे में मेरे ही मुख से 

 सुनाया है बहुत।

 मैं रुपया हूँ।

 मेरी मधुरिमा मेरे झनझनाहट के सामने

 शिव का डमरू, सरस्वती की वीणा, मुरलीधर का बाँसरी,  सब मधुर ध्वनियाँ बेकार।

आजकल चुनाव में 

 विधायक, सांसद 

 सैकडों रूपयों के खर्च करें,

 वोट के लिए नोट दें तो

 मतदाता न देखते

 पात्र कुपात्र के विचार।

 भ्रष्टाचारी नेता भ्रष्टाचार रूपयों से अदालत में 

 जाने पर नामी वकीलों का तांता इसके पक्ष में।

 अध्यापक , पुलिस, डाक्टर सब मेरे बेगार।

 गरीब अपराधी को 

 पकड़ते ही लाठी का मार।

 अमीर अपराधी का सम्मान।

 वहाँ पैसा मैं ही बोलता हूँ।

 आराम की विमान यात्रा,

 पाँच नक्षत्र होटल में ठहरना,

 पैसे मेरा कारण।

 मेरी आत्मकथा में 

 पांडेय बेचन शर्मा उग्र ने

लिखा है,

 संक्षेप में मेरी महिमा,

 लड़कियों की इज्ज़त लूटो,

 साथ खून करो,

साफ़ साफ़ बच जाओगे।

धर्मों को त्याग दो,

 रूपये के शरणार्थी बनो।


सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥

अर्थ: सभी धर्मों (कर्तव्यों/उपायों) को त्याग कर, केवल मेरी (भगवान की) शरण में आओ। मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूँगा, शोक मत करो।

मैं पैसा हूँ। मैं रूपया हूँ।

Sunday, December 7, 2025

क्रोध

 क्रोध।

एस.अनंतकृष्णन, चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक द्वारा स्वरचित भावाभिव्यक्ति रचना।

8-12-25.


क्रोध   चाहिए 

 क्रोध न करना।

 अन्याय के  विरोध में 

 क्रोध दिखाना चाहिए।

 वह क्रोध भी तभी  

तभी दिखाना जब 

 क्रोध  का पता लगें कि

 न्याय पूर्ण हो।

विदेशियों का आक्रमण।

 मंदिरों का तोड़ मरोड़।

 आज़ादी के बाद 

धर्म निरपेक्षता के नाम 

 दो हज़ार साल पुराना मंदिर।

मुगलों के आने के पहले मंदिर।

न्यायधीश के इंसाफ के बाद भी।

 तमिल राष्ट्र कवि भारतियार ने कहा

 रौद्र का अभ्यास कर लो।

 जग भलाई के लिए 

 अत्याचार की चरम 

  सीमा पर  भगवान 

 जन्म लेते हैं।

  क्रोध न सीखने पर

 अन्याय चरम सीमा पर 

 पहु़ँचता।

 आज़ादी अहिंसा से नहीं,

 भारतीय लाठी का मार सहते रहे।

 दूसरी ओर  देशभक्त 

 गर्म दल अंग्रेज़ी 

 के तार खंभ, थाना

 मार्ग जिला देश 

 सब को चूर्ण कर रहे थे।

   पर बिना सोचे विचारे 

 बांग्लादेश,  लोभ वश 

 ईर्ष्या वश क्रोध 

 सही नहीं।।  

 क्रोध तो एक क्षण मैं 

 खूनी बना देता है।

पियक्कड़ों का क्रोध 

 निंदनीय है।

 माता पिता गुरु का क्रोध

 जीवन प्रगति के लिए।। आजकल की  ताज़ी खबरें 

 माता ने  सिनेमा जाने,

पैसे न दिए माता की हत्या।

अध्यापिका ने गाली दी,

 अध्यापिका की हत्या।।

 ऐसे क्रोध मूर्खता दंडनीय।

 क्रोध बिना 

सोचे विचारे होने पर 

 जिंदगी भर पछताना होगा।।

Saturday, December 6, 2025

अंतिम परीक्षा

 अंतिम परीक्षा 

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एस.अनंतकृष्णन, चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक द्वारा स्वरचित भावाभिव्यक्ति रचना 

7-12-25

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माता पिता कहते थे,

 बारहवीं कक्षा जीवन 

 मोड़ की अंतिम परीक्षा।

उच्च शिक्षा भर्ती का बुनियाद।

 स्नातकोत्तर तक 

खूब पढ़ना।

  फिर नौकरी।

परीक्षा खत्म।

 आगे ही परीक्षा ही परीक्षा।।

 अंतिम परीक्षा अंतिम साँस तक।

 योग्य पति या पत्नी,

 प्रेमी या प्रेमिका 

 चुनने की कठोर परीक्षा।

सुपुत्र   को शिक्षा देने की परीक्षा।

 कुपुत्र को दूख लेख की परीक्षा।

 बहु या दामाद चुनने की परीक्षा।

 उद्योग धंधों में 

 पदोन्नति की परीक्षा।

 व्यापारी को  ग्राहक की परीक्षा।

 बीमार पड़ने पर

 खून, एकस्रे,स्केन की परीक्षा।

   अंतिम परीक्षा कहाँ तक।

 बहू की परीक्षा,

 दामाद की परीक्षा।

 अंतिम परीक्षा अंतिम साँस तक।।

 चुनाव की परीक्षा।

योग्य प्रतिनिधि चुनने की परीक्षा।

 नेता के भाषण और वादा

 को जानने की परीक्षा।

 कदम कदम पर 

चोर, डाकू, उचक्कों की परीक्षा।

 नकली साधु संतों की परीक्षा।

 नकली अंगहीन भिखारी की परीक्षा।

 अंतर्जाल ठगों की परीक्षा 

 अंतिम साँस तक

 परीक्षा ही परीक्षा ।

 अंतिम परीक्षा लेने

 आत्मा नहीं रहती जहाँ में।




 

 

 

 


 

 

 

 

 

 



 मन

Friday, December 5, 2025

वेद-सनातन धरम--अनंत जगदीश्वर

 4816.  चींटी से ब्रहमा तक के सभी जीवात्माएँ  कहते हैं कि मन का नियंत्रण अत्यधिक कष्ट है। जिसके मन में कोई इच्छा नहीं है, वह शून्य आकाश में  अकारण उमडकर दीखनेवाले माया के बनाये नाम रूप प्रपंच दृश्यों में किसी में किसी कारण से व्यवहार न करेगा। कारण प्रपंच में दीखनेवाले नामरूप सब आकाश मात्र है का वाद रहित विषय है। पूर्णरूप से समझ सकते हैं कि  जड रूप में दीखनेवले नाम रूपों में  जिसके कण लेकर जाँच करने पर उसमे आकाश रहित अणु कहनेवाले नामरूप स्थिर खडा नहीं रहता।  जिसमें  सत्य की खोज की बुद्धि नहीं है,  वे ही आकाश को भूलकर परपंच रूप में बदलनेवाले के जैसे भ्रमित करनेवाले नाम रूप बने प्रपंच को सत्य मानकर  विश्वास करके उसके बीच परमानंद स्वरूप अपने की खोज कर रहा है। उसी समय  प्रपंच असत्य  जाननेवाले विवकी का मन किसी भी प्रयत्न के बिना दब जएगा। कारण जिसमें भेदबुद्धि नहीं है, उसको मन ही नहीं है। जो सत्य जानने का प्रयत्न नहीं करता वह दुखी रहेगा। उस दुखसे बचने का एक मात्र मार्ग है, सत्य जानने का प्रयत्न करना। जो मन नहीं है, उसको नियंत्रण में लाने का अभ्यास बुद्धि शून्य और अर्थ शून्य है। वैसे लोगों को दुख भोगने में कोई आश्चर्य नहीं है। कारण वे सब स्वप्न में देखे स्त्री या पुरुष को शादी न करने का दुख जैसा है,वैसा ही है।  कुछ लोग स्वप्न में देखे प्राकृतिक क्रोध में नाश हुए घर को सोचकर जैसे दुख होते हैं,वैसे ही है। अर्थात् आकाश के जैसे,

आत्मबोध में ही आकाश भूत ,उससे होनेवाले वायु , वायु से होनेवाले अग्नि, अग्नि से होनेवाले पानी,पानी से होनेवाली भूमि है सा लगता है। आकाश में रहनेवाले नाम रूप जैसे आकाश मात्र है, आकाश वैसे ही अखंड बोध आकाश में लगनेवाले आकाश सहित के पंचभूत बोध मात्र है। कारण बोध से न मिले पंचभूत के एक बूंद भी स्थिर खडा नहीं रहेगा। बोध मात्र ही स्थिर खडा रहता है। उस अखंडबोध का अपना स्वभाव ही एक जीव चाहनेवाले  सभी आनंद है।

4817. सर्वव्यापी,निश्चलन,निर्विकार,अखंडबोध रूपी मैं है के अनुभव के साथ रहनेवाले परमात्मा से न मिले दूसरा दृश्य जड चलन नहीं है। इसको शास्त्र परम रूप में, युक्तियों के साथ,विवेक के साथ जानकर प्रज्ञा अर्थात् बोध को दृश्यों में न लगनेवाले  दृश्यों को छोडकर प्रज्ञा अपने में मात्र नियंत्रित रहने के साथ स्वयं मात्र ही नित्य, सत्य रूप में स्थिर खडा रहते हैं को जानकर परम ज्ञान में अर्थात्  परमात्मा में रहते समय परमात्म स्वभाव के आनंद को दिन के जैसे अनुभव कर सकते हैं।

4818. सत्य से अपरिचित  जीव के चारों ओर मृत्यु देव नशा में रहेगा। वह एक परछाई जैसा है। कोई चलें तो वैसा लगेगा  कि छाया भी साथ चलेगा।  हाथ उठाने पर छाया भी हाथ उठाएगी। वैसे ही मनुष्य जिस रीति में कर्म करता है, जिस चिंतन से कर्म करता है,जिस लक्ष्य की ओर कर्म करता है, अर्थात कुछ लोग आत्मबोध के साथ कर्म करते हैं तो कुछ लोग अहं बोध के साथ कर्म करते हैं। मैं,मेरा के भाव से कर्म करते समय उसके अनुसार ही देव की प्रतिक्रियाएँ होंगी। इसलिए देवों को संतुष्ट करना है तो विश्व भर को शुद्ध करने की क्षमता भरे दिवय कार्यों को करना चाहिए। अनुष्ठान और ध्यान करके यशोगान करना चाहिए। इन सबको ही  जीवन बनाकर परिवर्तन करना चाहिए। वैसे सत्यबोध को आत्मसात् करने साध्य होनेवाला मनुष्य बडा पापी होने पर भी वह परम पवित्र बनेगा। इसलिए उपनिषद सार सर्वस्व बने भागवद भगवद्  गीता , आदि सत्य शास्त्रों को  विश्व भर की पाठशालाओं में पाठ्यक्रम में जोडने पर भेदबुद्धि, रागद्वेश रहित एक भक्त समूह बना सकते हैं।
विश्व भर में भारत देश ही इसका उदाहरण है।

4819.  अनंत को अनंत रहित एक के द्वारा ही उदाहरण के साथ समझकर एहसास कर सकते हैं। कारण दो अनंत नहीं है। जन्म-मरण के बारे में सही रूप में सीखे बिना मृत्यु भय से विमोचन नहीं है।उदाहरणों को ठीक रीतियों से समझना चाहिए।
पहले प्रपंच का परम कारण मैं है को अनुभव करनेवाला अखंडबोध है, उस बोध से दूसरी एक नयी वस्तु न बनेगी। इस बात को बुद्धि में दृढ बनाना चाहिए। वैसे सर्वव्यापी बोध को एक समुद्र के रूप में संकल्प  करना चाहिए। समुद्र के समुद्र पानी ही अकारण अनेक बुलबुले के रूप में उमडकर  नीचे होने से जान पडता है। उसमें एक बुलबुला उमडने उमडने को ही एक जीव का जन्म है, वह बुलबुला टूटने को ही मृत्यु कहते हैं। इस प्रकार एक बुलबुला उमडकर छिपना ही एक जीव का जन्म मरण है। समुद्र का पानी ही बुलबुले हैं। बुलबुलों का मिटना भी समुद्र का पानी है। एक बुलबुले उमडना कम होना आदि और समुद्र का कोई संभव  नहीं है। वैसे ही  मैं नामक अखंडबोध रूपी समुद्र उमडना और मिटने के बुलबुले जैसे ही स्वयं देखनेवाले प्रपंच रूप है। समुद्र  चलन से बुलबुले बदलने के जैसे नहीं है, आदि-अंत रहित बोध में नाम रूप प्रपंच होगा। वह रस्सी को देखकर साँप के भ्रम होने के जैसे बोध के अपूर्णता में बोध को ही माया के द्वारा प्रपंचरूप में देखते हैं। अर्थात् हल्की रोशनी में रस्सी को साँप के रूप में देखते हैं। रस्सी सत्य में साँप न बनाती है।  वैसे ही बोध को ही प्रपंच के रूप मे देखते  हैं। बोध ने प्रपंच की सृष्टि नहीं की है। सदा दुख देनेवाले साँप रूपी प्रपंच, उसमें जीव के नाम रूप बोधाभिन्न एक नयी वस्तु को बनायी नहीं है। वही नहीं वे नाम रूपी माया स्वयं अस्थिर मिथ्या दर्शन मात्र है। इसको न पहचानकर शरीर और संसार को सत्य मानकर विश्वास करने पर वह दुख मात्र दे सकता है। मैं नामक अखंडबोध मात्र ही परमानंद स्वरूप में, सनातन रूप में होता है। इसलिए तैलधारा के जैसे रहनेवाले सत्य स्मरण ही दुख निवृत्ति का एक मात्र मर्ग है। अर्थात् मन जहाँ भी जाएँ व बोध है,जो कुछ देखते हैं, वे सब ब्ह्म स्वरूप मात्र है।

4620. श्री कृष्ण ने भगवद् गीता में इस विश्व के बडे प्रपंच रहस्य को ही अर्जुन से कहा है। प्रपंच के दुखों को बिलकुल यह रहस्य मिटा देता है। जो नहीं है,वह बन नहीं सकता। इस बात को छोटा बच्चा भी समझ सकता है। लेकिन संसार के बहुत बडे ज्ञानियों को भी यह अज्ञात विषय है। अर्थात्  यह संसार रहित है। वह है तो नाशवान न होना चाहिए। जो भी नश्वर है,वह सत्य नहीं है।    सत्य अजर अमर है। भारत के ऋषि-मुनि इसको स्पष्ट रूप से जानते समझते हैं। फिर भी संसार के लोग श्री कृष्ण के उपदेश पर विश्वास नहीं रखते। उसकी सत्यता का एहसास नहीं करते ।इसलिए श्री कृष्ण कहते हैं कि अपनी माया का पार करना मुश्किल है,मेरे केवल मेरे शरणार्थी बननेवाले मात्र माया पार कर सकते हैं। जो है,वह आत्मा है। वह आत्मा जीव रूपी मैं है। मैं है का अनुभव आत्मा रूपी बोध है।वह अनश्वर है। वह बन नहीं सकता और रहित नहीं हो सकता। वैसी आत्मा ही अर्जुन तुम हो। यों कृष्ण कहते समय जीव के प्रतिबिंब रूपी अर्जुन रूपी देह पंचभूत के भाग होने से वह तीनों कालों में बनते नहीं है। बुद्धि में इस बात की दृढता होने पर भी बाकी जो है, वह सर्वव्यापी परमात्मा मात्र है।  परमात्म सर्वत्र सर्वव्यापी होने से वह रहित स्थान नहीं है। वह निःचलन,निर्विकार,निष्क्रिय है। वैसे परमात्मा हत्या करता भी नहीं है, हत्या कराता भी नहीं है। इसलिए जन्म -मरण का संभव नहीं होता। सत्य से अज्ञात माया जीव  की माया के भ्रम मात्र ही यह ब्रह्मांड भर में  है।  

Thursday, December 4, 2025

ज्ञान और शिक्षा

 ज्ञान और शिक्षा।

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एस. अनंतकृष्णन, चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक द्वारा स्वरचित भावाभिव्यक्ति रचना 

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5-12-25.

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ज्ञान और शिक्षा 

 शिक्षा सब लोगों की

 निरक्षरता मिटाकर

 साक्षरता के लिए।

 नौकरी प्राप्त करने।

 स्नातक स्नातकोत्तर बनने के लिए।

 शिक्षित वकील

 धन के लिए अपराधी के पक्ष में न्याय 

 दिला सकता है।

 अधिकारियों 

 पुलिस अधिकारी 

 मनःसाक्षी के विरुद्ध 

काम कर सकता है।

 शिक्षा जीविकोपार्जन प्रधान।

 ज्ञान स्वयंभू है,

 विश्वविद्यालय की 

उपाधियाँ लौकिक 

जीवन से संबंधित।

 ज्ञान है पूर्व जन्म ज्ञान 

 आत्म ज्ञान, ब्रह्म ज्ञान 

 ज्ञान के ग्रंथों को 

 शिक्षित  लोग 

 आलोचना,समालोचना,

खोज ग्रंथ, डाक्टरेट

 नौकरी बस ।

 डाक्टरेट की संख्या बढ़ती हैं,

उनके वेतन स्तर 

बढ़ता है,

 उनसे कोई नये ग्रंथ 

 नयी क्रांति असंभव।

 आत्मज्ञानी, ब्रह्मज्ञानी,

 सरस्वती पुत्र हैं,

 वर कवि कालिदास।

 भक्त त्याग राज 

 उपनिषद, वेद , 

 आध्यात्मिक ग्रंथ 

 भगवद्गीता  आदि के

 रचनाकार,

 ज्ञानी, ब्रह्म ज्ञानी 

 उनके ग्रंथों की

 आलोचना, समालोचना,

 प्रवचनकर्ता, शोध ग्रंथकार, धन कमानेवाले,

सब किताबी कीड़े

 शिक्षित वर्ग।

 ज्ञानी तो सिद्धार्थ राजकुमार नहीं,

 बुद्ध बने ज्ञानी।। 

उज्जैन का राजा भर्तृहरि नहीं,

 अपने पत्नी के गलत संबंध जान संन्यासी बनकर जो ग्रंथ लिखे 

 वह ज्ञान ग्रंथ है।

अत्याचार निर्दयी 

 अशोक 

 बुद्ध धर्म 

अपनाने के बाद 

 विश्वप्रसिद्ध सम्राट अशोक।

 आदि शंकराचार्य 

 बचपन से ज्ञानी थै।। शिक्षित और ज्ञानी में 

 शिक्षित संकुचित दायरै में 

 नामी व्यक्ति।

 ज्ञानी विश्वविख्यात 

 सर्वप्रिय, विश्व हितैषी 

 मार्गदर्शी, ज्ञान अपने आप

 जैसे महर्षि रमण,

 अपनी जगह से न हटकर 

 विश्व भर के शिष्यों को

 अपने यहाँ खीँच लाये।

 भारत के ऋषि मुनि ज्ञानी।

 शिक्षा और ज्ञान में आकाश बादल का अंतर।।

ज्ञान व्यापक असीमित।

 शिक्षा संकुचित सीमित।

 तमिल कवयित्री औवैयार  ने

 लिखा है जो सीखा है ,

वह मुट्ठी बराबर,

 जो न सीखा है वह

 ब्रह्मांड बराबर।

भारत ज्ञानियों के भंडार घर।

 एक नहीं,एक ईसाई

 भारत में ही   ज्ञानियों से 

 प्राप्त आध्यात्मिक ज्ञान।

 अद्वैत, द्वैत, विशिष्टाद्वैत।

  आकार, निराकार  ब्रह्म रुप।

 वसुधैव कुटुंबकम् की भावना

 यही ज्ञान, सर्वव्यापी ब्रह्म विचार।


 


 


 

 

 








Wednesday, December 3, 2025

न्याय का तराजू

 न्याय का तराजू 

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एस.अनंतकृष्णन, चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक द्वारा स्वरचित भावाभिव्यक्ति रचना 

4/-12/-25/

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 न्याय आँखें खोलकर 

 देना है,

 तराजू हाथ में 

 आँखें बंद

 अंग्रेज़ी की नीति

 भारतीय  निरपराध देश भक्तों को पक्षपात 

देकर दंड।

 तराजू का पलड़ा

सब बराबर हैं या नहीं 

 इन्साफ की देरी।

 वायदे पर वायदा।

परिणाम साक्षी की मृत्यु ला पता।

 न्यायधीश का अवकाश प्राप्त।

 नये न्यायाधीश।

 धन के आधार पर,

 अधिकार के आधार पर

 भय दिखाने के कारण 

 गलत फैसला।

 फैसला सुनाने में देरी।

भारतीय भ्रष्टाचार राजनैतिक नेता 

 साफ साफ बच जाता।

 दंड मिलने पर जल्दी छूट जाता।

चुनाव में धन प्रधान।

 जीत जाता।

 न्याय का तराजू के पल्डे

 बराबर है या नहीं,

 आँखों की पट्टी नहीं देखता।

 वोट के लिए नोट

 खुल्लमखुल्ला ।

 नोट न तो बर्तन।

 न्याय का तराजू 

 आँखों में पट्टी।

40%शासक दल।

 उनके विरूद्ध मत दाता

 60%

अल्पसंख्यकों का शासन।

 न्याय का तराजू 

 आँखों में पट्टी ।

 एक मुख्यमंत्री का

 गलत संपत्तिका मुकद्दमा

 एक पियक्कड़ अभिनेता 

 मुकद्दमा बारह साल तक।

न्याय का तराजू 

तोलनेवाले की आँखों में 

 पट्टी,

 न्यायालय जाने धन प्रधान।

 धनियों को वकीलों का तांता।

 न्याय का तराजू 

 आँखों में पट्टी।

 झूठे नकली गवाह 

 देखने में असमर्थ।

  आँखें देखने पर

 सच्चाई मालूम होती।

Face is index of the mind.

 न्याय के तराजू 

 आँखों में पट्टी।

तराजू के पल्डे की बराबरी

 आँखों के देखने से।

 आँखें तो बंद

 उल्टा पुल्टा न्याय।

 अवकाश के बाद 

‌न्यायाधीश का भय।

 इन्साफ  सत्य नहीं 

 अधिकांश मुकद्दमों में।

न्याय के तराजू 

 तोलनेवाले की आँखों में पट्टी।

Monday, December 1, 2025

मेहंदी

 मेहंदी 

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एस.अनंतकृष्णन, चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक द्वारा स्वरचित भावाभिव्यक्ति रचना 

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2-12-25.

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दैनिक चुनौती आजका शीर्षक है मेहंदी।

  मेहंदी  का अपना

   आध्यात्मिक महत्व है।

 मेहरौली का अपना 

  वैज्ञानिक महत्व है।

 आध्यात्मिकता के आधार पर वह महालक्ष्मी का अंश है।

मंगल दायिनी है।

वह कीटनाशिनी है।

 मेहंदी लगाने से

 शारीरिक उष्णता कम होती है।

स्त्रियों के मासिक धर्म

आरामदायक होता है।

वैवाहिक दिन में 

 मरुदानी लगाने से 

 हाथ और उंगलियों की 

 सुंदरता बढ़ती है।

 महालक्ष्मी का अंश

   होने से सर्वश्रेष्ठ है

 मेहंदी लगाना।

 मिस्र देश में,

  अरब देशों में 

 पाकिस्तान में 

 मेहंदी का अलग मेला है।

  सनातन धर्मियों के अनुसार  

 मंगलकारिणी,

 रोग निवारणी,

पैर के टीले मिटानेवाले 

 मेहंदी महीने में 

 दो बार स्त्रयाँ लगाना

 आध्यात्मिक ,

 शारीरिक 

 आर्थिक संपन्नता के लिए 

अति लाभकारी है।

 मेहंदी लगाने का धंधा भी हैं।

 मेहंदी अलंकार के साधन है।

 मेहंदी डिजाइन की पुस्तकें भी प्रकाशित है।

 अतः मेहंदी 

आय का भी साधन है। 

ईश्वरीय वरदान है मेहंदी।


मेहंदी से संबंधित कुछ मुहावरे हैं "पैरों में मेहंदी लगाकर बैठना" जिसका अर्थ है आलस्य या लाचारीवश घर में पड़े रहना, "हाथ में मेहंदी लगी होना" जिसका अर्थ है किसी काम में असमर्थ होना, और "पाँव की मेहंदी छूट जाना" जिसका अर्थ है हर्ज होना या नुकसान होना।