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Friday, December 5, 2025

वेद-सनातन धरम--अनंत जगदीश्वर

 4816.  चींटी से ब्रहमा तक के सभी जीवात्माएँ  कहते हैं कि मन का नियंत्रण अत्यधिक कष्ट है। जिसके मन में कोई इच्छा नहीं है, वह शून्य आकाश में  अकारण उमडकर दीखनेवाले माया के बनाये नाम रूप प्रपंच दृश्यों में किसी में किसी कारण से व्यवहार न करेगा। कारण प्रपंच में दीखनेवाले नामरूप सब आकाश मात्र है का वाद रहित विषय है। पूर्णरूप से समझ सकते हैं कि  जड रूप में दीखनेवले नाम रूपों में  जिसके कण लेकर जाँच करने पर उसमे आकाश रहित अणु कहनेवाले नामरूप स्थिर खडा नहीं रहता।  जिसमें  सत्य की खोज की बुद्धि नहीं है,  वे ही आकाश को भूलकर परपंच रूप में बदलनेवाले के जैसे भ्रमित करनेवाले नाम रूप बने प्रपंच को सत्य मानकर  विश्वास करके उसके बीच परमानंद स्वरूप अपने की खोज कर रहा है। उसी समय  प्रपंच असत्य  जाननेवाले विवकी का मन किसी भी प्रयत्न के बिना दब जएगा। कारण जिसमें भेदबुद्धि नहीं है, उसको मन ही नहीं है। जो सत्य जानने का प्रयत्न नहीं करता वह दुखी रहेगा। उस दुखसे बचने का एक मात्र मार्ग है, सत्य जानने का प्रयत्न करना। जो मन नहीं है, उसको नियंत्रण में लाने का अभ्यास बुद्धि शून्य और अर्थ शून्य है। वैसे लोगों को दुख भोगने में कोई आश्चर्य नहीं है। कारण वे सब स्वप्न में देखे स्त्री या पुरुष को शादी न करने का दुख जैसा है,वैसा ही है।  कुछ लोग स्वप्न में देखे प्राकृतिक क्रोध में नाश हुए घर को सोचकर जैसे दुख होते हैं,वैसे ही है। अर्थात् आकाश के जैसे,

आत्मबोध में ही आकाश भूत ,उससे होनेवाले वायु , वायु से होनेवाले अग्नि, अग्नि से होनेवाले पानी,पानी से होनेवाली भूमि है सा लगता है। आकाश में रहनेवाले नाम रूप जैसे आकाश मात्र है, आकाश वैसे ही अखंड बोध आकाश में लगनेवाले आकाश सहित के पंचभूत बोध मात्र है। कारण बोध से न मिले पंचभूत के एक बूंद भी स्थिर खडा नहीं रहेगा। बोध मात्र ही स्थिर खडा रहता है। उस अखंडबोध का अपना स्वभाव ही एक जीव चाहनेवाले  सभी आनंद है।

4817. सर्वव्यापी,निश्चलन,निर्विकार,अखंडबोध रूपी मैं है के अनुभव के साथ रहनेवाले परमात्मा से न मिले दूसरा दृश्य जड चलन नहीं है। इसको शास्त्र परम रूप में, युक्तियों के साथ,विवेक के साथ जानकर प्रज्ञा अर्थात् बोध को दृश्यों में न लगनेवाले  दृश्यों को छोडकर प्रज्ञा अपने में मात्र नियंत्रित रहने के साथ स्वयं मात्र ही नित्य, सत्य रूप में स्थिर खडा रहते हैं को जानकर परम ज्ञान में अर्थात्  परमात्मा में रहते समय परमात्म स्वभाव के आनंद को दिन के जैसे अनुभव कर सकते हैं।

4818. सत्य से अपरिचित  जीव के चारों ओर मृत्यु देव नशा में रहेगा। वह एक परछाई जैसा है। कोई चलें तो वैसा लगेगा  कि छाया भी साथ चलेगा।  हाथ उठाने पर छाया भी हाथ उठाएगी। वैसे ही मनुष्य जिस रीति में कर्म करता है, जिस चिंतन से कर्म करता है,जिस लक्ष्य की ओर कर्म करता है, अर्थात कुछ लोग आत्मबोध के साथ कर्म करते हैं तो कुछ लोग अहं बोध के साथ कर्म करते हैं। मैं,मेरा के भाव से कर्म करते समय उसके अनुसार ही देव की प्रतिक्रियाएँ होंगी। इसलिए देवों को संतुष्ट करना है तो विश्व भर को शुद्ध करने की क्षमता भरे दिवय कार्यों को करना चाहिए। अनुष्ठान और ध्यान करके यशोगान करना चाहिए। इन सबको ही  जीवन बनाकर परिवर्तन करना चाहिए। वैसे सत्यबोध को आत्मसात् करने साध्य होनेवाला मनुष्य बडा पापी होने पर भी वह परम पवित्र बनेगा। इसलिए उपनिषद सार सर्वस्व बने भागवद भगवद्  गीता , आदि सत्य शास्त्रों को  विश्व भर की पाठशालाओं में पाठ्यक्रम में जोडने पर भेदबुद्धि, रागद्वेश रहित एक भक्त समूह बना सकते हैं।
विश्व भर में भारत देश ही इसका उदाहरण है।

4819.  अनंत को अनंत रहित एक के द्वारा ही उदाहरण के साथ समझकर एहसास कर सकते हैं। कारण दो अनंत नहीं है। जन्म-मरण के बारे में सही रूप में सीखे बिना मृत्यु भय से विमोचन नहीं है।उदाहरणों को ठीक रीतियों से समझना चाहिए।
पहले प्रपंच का परम कारण मैं है को अनुभव करनेवाला अखंडबोध है, उस बोध से दूसरी एक नयी वस्तु न बनेगी। इस बात को बुद्धि में दृढ बनाना चाहिए। वैसे सर्वव्यापी बोध को एक समुद्र के रूप में संकल्प  करना चाहिए। समुद्र के समुद्र पानी ही अकारण अनेक बुलबुले के रूप में उमडकर  नीचे होने से जान पडता है। उसमें एक बुलबुला उमडने उमडने को ही एक जीव का जन्म है, वह बुलबुला टूटने को ही मृत्यु कहते हैं। इस प्रकार एक बुलबुला उमडकर छिपना ही एक जीव का जन्म मरण है। समुद्र का पानी ही बुलबुले हैं। बुलबुलों का मिटना भी समुद्र का पानी है। एक बुलबुले उमडना कम होना आदि और समुद्र का कोई संभव  नहीं है। वैसे ही  मैं नामक अखंडबोध रूपी समुद्र उमडना और मिटने के बुलबुले जैसे ही स्वयं देखनेवाले प्रपंच रूप है। समुद्र  चलन से बुलबुले बदलने के जैसे नहीं है, आदि-अंत रहित बोध में नाम रूप प्रपंच होगा। वह रस्सी को देखकर साँप के भ्रम होने के जैसे बोध के अपूर्णता में बोध को ही माया के द्वारा प्रपंचरूप में देखते हैं। अर्थात् हल्की रोशनी में रस्सी को साँप के रूप में देखते हैं। रस्सी सत्य में साँप न बनाती है।  वैसे ही बोध को ही प्रपंच के रूप मे देखते  हैं। बोध ने प्रपंच की सृष्टि नहीं की है। सदा दुख देनेवाले साँप रूपी प्रपंच, उसमें जीव के नाम रूप बोधाभिन्न एक नयी वस्तु को बनायी नहीं है। वही नहीं वे नाम रूपी माया स्वयं अस्थिर मिथ्या दर्शन मात्र है। इसको न पहचानकर शरीर और संसार को सत्य मानकर विश्वास करने पर वह दुख मात्र दे सकता है। मैं नामक अखंडबोध मात्र ही परमानंद स्वरूप में, सनातन रूप में होता है। इसलिए तैलधारा के जैसे रहनेवाले सत्य स्मरण ही दुख निवृत्ति का एक मात्र मर्ग है। अर्थात् मन जहाँ भी जाएँ व बोध है,जो कुछ देखते हैं, वे सब ब्ह्म स्वरूप मात्र है।

4620. श्री कृष्ण ने भगवद् गीता में इस विश्व के बडे प्रपंच रहस्य को ही अर्जुन से कहा है। प्रपंच के दुखों को बिलकुल यह रहस्य मिटा देता है। जो नहीं है,वह बन नहीं सकता। इस बात को छोटा बच्चा भी समझ सकता है। लेकिन संसार के बहुत बडे ज्ञानियों को भी यह अज्ञात विषय है। अर्थात्  यह संसार रहित है। वह है तो नाशवान न होना चाहिए। जो भी नश्वर है,वह सत्य नहीं है।    सत्य अजर अमर है। भारत के ऋषि-मुनि इसको स्पष्ट रूप से जानते समझते हैं। फिर भी संसार के लोग श्री कृष्ण के उपदेश पर विश्वास नहीं रखते। उसकी सत्यता का एहसास नहीं करते ।इसलिए श्री कृष्ण कहते हैं कि अपनी माया का पार करना मुश्किल है,मेरे केवल मेरे शरणार्थी बननेवाले मात्र माया पार कर सकते हैं। जो है,वह आत्मा है। वह आत्मा जीव रूपी मैं है। मैं है का अनुभव आत्मा रूपी बोध है।वह अनश्वर है। वह बन नहीं सकता और रहित नहीं हो सकता। वैसी आत्मा ही अर्जुन तुम हो। यों कृष्ण कहते समय जीव के प्रतिबिंब रूपी अर्जुन रूपी देह पंचभूत के भाग होने से वह तीनों कालों में बनते नहीं है। बुद्धि में इस बात की दृढता होने पर भी बाकी जो है, वह सर्वव्यापी परमात्मा मात्र है।  परमात्म सर्वत्र सर्वव्यापी होने से वह रहित स्थान नहीं है। वह निःचलन,निर्विकार,निष्क्रिय है। वैसे परमात्मा हत्या करता भी नहीं है, हत्या कराता भी नहीं है। इसलिए जन्म -मरण का संभव नहीं होता। सत्य से अज्ञात माया जीव  की माया के भ्रम मात्र ही यह ब्रह्मांड भर में  है।  

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