नदी का दुख
एस.अनंतकृष्णन, चेन्नई
17-12-25.
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नदी न संचै नीर।
नदी हूँ मैं,
अपने लिए कोई बचत नहीं करती।
मेरे बिना जीना दुश्वार।
पशु-पक्षी, वनस्पति जगत
मानव समाज का प्यास बुझाती हूँ ,
मेरे रूप विविध।
शांत कल कल बहती हूँ,
वर्षा काल में बाढ तेज।
बर्फ़ से पिघलकर जीव नदी के रूप में बहती हूँ।
फिर भी मानव,
अति स्वार्थ
मेरी स्वतंत्रता में बाधा डालते हैं।
बाँध बाँधकर रोक देते हैं।
बिजली की उत्पत्ति करते हैं
हरे भरे खेत, घने जंगल
जंगल के बरसाती बाढ़।
अति खतरा ,निर्दयी बनती हूँ।
नंदी के किनारे,
सभ्यता का विकास।
आज मानव
कारखाना बनाकर
उसके अवशेष पानी को
विषैले पानी को
मुझ पर छोड़ देते हैं।
परिणाम विविध
रोगों के कारण बन जाती हूँ।
यह मेरे लिए अत्यंत सदमा है।
इतने पानी प्रदूषित है,
गंगा का पानी कलंकित।
खेद की बातें वर्णनातीत हैं,
पानी के बहने पर भी
गंगा के किनारे,
प्यासा आदमी,
मिनरल वाटर बोतल
खरीदकर पीता है।
कहीं कहीं मेरी चौड़ाई
कम कर इमारतें बनाते हैं।
मैं नदी हूँ, मैं दुखी हूँ
मानव की स्वार्थता से
प्रदूषित हूँ,
रेत के लूट के कारण,
कीचड से भरी बहती हूँ।
पशू पक्षी भी बीमारी में
तड़पते हैं।
दुखी हूँ ,
मेरे प्रकोप के कारण
बाढ के कारण किसानों के मेहनत कभी कभी
नष्ट हो जाती है।
ज्ञान चक्षु प्राप्त मानव के
धन लोभ, नगर विस्तार,
नदी मैं परोपकारी
दुखी हूँ,
परिणाम दुष्परिणाम।
दुख झेलना ही पड़ेगा।
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