Monday, March 31, 2025

साहस

 काव्यमंच  -मेघदूत को एस.अनंतकृष्णन का नमस्कार।

 मेघदूत मंच के लिए मेरी पहली कृति।

शीर्षक --साहस।

विधा --अपनी हिंदी अपने विचार अपनी स्वतंत्र शैली।

31-3-25.

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कबीर वाणी याद आती,

 साहस की बातें।

 मैं बौरी डूबन डरी, 

रही किनारे बैठ।

 साहसी गोताखोर न होता तो

 चमकीले मोती न पाता मानव।

 साहसी मनुष्य न होता तो

 नये देश और द्वीपों का पता कैसे?

चंद्र  व मंगल ग्रह की पहुँच कैसे?

 गिर गिर कदम रखनेवाले शिशु,

 माता -पिता साहस न दिलाते तो

 चलते फिर दौड़ते भागते 

आगे बढ़ते कैसे? 

 माई का वीर लाल न होते तो

 देश की सुरक्षा कैसे?

 गोरी गजनी को सत्रह बार के 

 आक्रमण लूट को रोकते कैसे?

 साहसी भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद,

 लाल,बाल ,पाल नेता न तो

 स्वतंत्रता प्राप्ति कैसे?

 जनरल टायर की निर्दयी 

हत्या का सामना करते कैसे?

 साहसी न रहते तो एवरेस्ट चोटी पर पैर रख झंडा फहराते कैसे?

 खानों का पता कैसे,

 हीरे चाँदी सोने की चमक कैसे?

साहस न होते तो सिकंदर को भगाते कैसे?

 घने जंगल में जड़ी-बूटियों का पता लगाते कैसे?

 घोर जंगल में तपस्या कैसे?

  साहस  साहसी न तो अमन चमन कैसे?


एस. अनंत कृष्णन, चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक द्वारा स्वरचित भावाभिव्यक्ति रचना

प्रार्थना

 



தமிழ் ஹிந்தி பணி.तमिल्टऴ् हिंदी सेवा 

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एस . अनंतकृष्णन, चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक द्वारा स्वरचित भावाभिव्यक्ति रचना 

சே. அனந்தகிருஷ்ணன் சென்னை 

தமிழ்நாடு ஹிந்தி காதலர் மூலம் தன் படைப்பு கருத்து வெளிப்பாடு.

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இறைவணக்கம். इरैवणक्कम्  प्रार्थना 

இதயம் வலுப்பட. इदयम वलुप्पड- हृदय बल

होने 

இன்பம் நிலைப்பெற  इन्बम् निलैपेऱ

सुख  स्थिर होने

இன்னல் அகல. इन्ना अंकल संताप हटने

அறம் பெருக -अऱम् पॆरुक-धर्म बढ़ने 

 அறிவு செம்மை பெற  अऱिवु चेम्मै पॆऱ  

ज्ञान शास्त्रीय बनने 


அறியாமை அகற்றிட  अऱियामै अकट्रिड अज्ञानता हटने 


  அறுசுவை  கலந்திட अऱुचुवै कलंदिड षडरस मिलने

   ஆற்றல் பெருகிட  आट्रल् पॆरुकिड--शक्ति बढने

 ஆறுதல் தர  आट्रल् तर =शक्ति देने 

ஆற்றுப்படுத்திட --आट्रुप्पडित्तिड  -- पार कराने 

आंडवन उडनिरुक्क =भगवान साथ रहने

 प्रार्थनाएँ ==इऱैवणक्कम्‌




 

साहस

 काव्यमंच  -मेघदूत को एस.अनंतकृष्णन का नमस्कार।

 मेघदूत मंच के लिए मेरी पहली कृति।

शीर्षक --साहस।

विधा --अपनी हिंदी अपने विचार अपनी स्वतंत्र शैली।

31-3-25.

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कबीर वाणी याद आती,

 साहस की बातें।

 मैं बौरी डूबन डरी, 

रही किनारे बैठ।

 साहसी गोताखोर न होता तो

 चमकीले मोती न पाता मानव।

 साहसी मनुष्य न होता तो

 नये देश और द्वीपों का पता कैसे?

चंद्र  व मंगल ग्रह की पहुँच कैसे?

 गिर गिर कदम रखनेवाले शिशु,

 माता -पिता साहस न दिलाते तो

 चलते फिर दौड़ते भागते 

आगे बढ़ते कैसे? 

 माई का वीर लाल न होते तो

 देश की सुरक्षा कैसे?

 गोरी गजनी को सत्रह बार के 

 आक्रमण लूट को रोकते कैसे?

 साहसी भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद,

 लाल,बाल ,पाल नेता न तो

 स्वतंत्रता प्राप्ति कैसे?

 जनरल टायर की निर्दयी 

हत्या का सामना करते कैसे?

 साहसी न रहते तो एवरेस्ट चोटी पर पैर रख झंडा फहराते कैसे?

 खानों का पता कैसे,

 हीरे चाँदी सोने की चमक कैसे?

साहस न होते तो सिकंदर को भगाते कैसे?

 घने जंगल में जड़ी-बूटियों का पता लगाते कैसे?

 घोर जंगल में तपस्या कैसे?

  साहस  साहसी न तो अमन चमन कैसे?


एस. अनंत कृष्णन, चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक द्वारा स्वरचित भावाभिव्यक्ति रचना

समय की सीखें

 साहित्य बोध उत्तर खांड  इकाई को

 एस.अनंतकृष्णन का नमस्कार वणक्कम्।


विषय :--वक्त एक पाठशाला है।

 विधा --अपनी हिंदी अपने विचार अपनी स्वतंत्र शैली 

31-3-25.

शुभ अशुभ वक्त  की तुलना में,

अशुभ वक्त विधि की विडंबना में 

 नयी सीख मिलती है।

लाभ में खुश,

 नष्ट में नाखुश,

 चतुर आदमी,

 नष्ट या अशुभ वक्त में 


घाटा भरने एक उपाय सूझता है।

 गिरी जिंदगी उठने की सीख मिलती है।

अतः वह एक पाठशाला वक्त है।

हिंदी साहित्य में  गिरा वक्त 

 भक्ति काल वीरगाथाकाल के

आश्रयहीन कवियों की पाठशाला।

 निराश्रय की शांति के लिए।

उत्थान में पतन रीतिकाल।

 भोग-विलास देश को

 गुलाम बनाने  की सावधानी।

 आधुनिक काल अंग्रेज़ी  मगरमच्छ 

 भारतीय भाषाओं को निगलने की सीख।।

वक्त हमें आविष्कार की ओर ले जाता है।

 संगणिक काल आज, अंग्रेज़ी अक्षर में 

 लिप्यंतरण की सीख।

 बिजली का अभाव, ईबैक का आविष्कार।

 पानी की कमी, समुद्र के पानी को

 पीने का पानी बनाने की सीख।

 वक्त एक पाठशाला इसमें न कोई शक है।

एस. अनंतकृष्णन, चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक द्वारा स्वरचित भावाभिव्यक्ति रचना

Thursday, March 27, 2025

नीति नेरि विळक्कम्। नैतिक मार्ग व्याख्या

 தமிழ் ஹிந்தி பணி.तमिऴ् हिंदी सेवा।


நீதிநெறி விளக்கம். नैतिक मार्ग व्याख्या।


குமரகுருபரர் =कुमरगुरुपरर्  --कवि का स्मारक काशी में गंगा तट पर है।


அறம் =धर्म 


பொருள்=अर्थ  


 இன்பமும் =सुख


வீடும் ==मोक्ष


பயக்கும்புறங்கடை நல்லிசையும் நாட்டும் - உறும்கவலொன்றுஉற்றுழியும் கைகொடுக்கும் கல்வியின் ஊங்கில்லைசிற்றுயிர்க்கு உற்ற துணை. ---तमिऴ् मूल।



 கல்விதான் =कल्वितान् ==शिक्षा ही

 மனிதனுக்கு  मनितनुक्कु=मनुष्य को 

 உற்ற துணையாகும்=युक्त सहायक है।


 

கல்வி நமக்கு  =कल्वि नमक्कु  =शिक्षा हमको

அறவழிகளான  =अऱवऴिकळान  இறையன்பு, ==ईश्वर प्रेम

இறைப்பற்று  इरैप्पट्रु  =ईश्वर भक्ति 

நல்லொழுக்கம்,  नल्ओऴुक्कम् --अनुशासन्

பணிவு , =पणिवु =विनम्रता

மன அமைதி मन अमैति =मानसिक शांति 

 ஆத்ம ஞானம், ==आत्मज्ञानम् =आत्मज्ञान 

 தேசப் பற்று,  =देशप्पट्रु --देशभक्ति

மனிதநேயம், _मनितनेयम् =मनुष्यता 

 சுயநலமின்மை, =सुयनलमिन्मै --निस्वार्थता

தியாகம்,=त्यागयम् ==त्याग 


 தானம் =दानम् =दान


 பரோபகாரம் =परोपकारम् =परोपकार 


ஆகிய  -आकिय =आदि

 உயர் பண்புகளைத்  =ऊँचे गुण


தரும்.  तरुण =देंगी।


 அதன் விளைவாக=अतन् विळैवाक==

  उसके परिणाम स्वरूप 

நாட்டிலும் --नाट्टिलुम् --देश में 

 அயல் நாட்டிலும்   =अयलनाट्टिलुम्‌ =विदेश में भी 

செல்லும் இடங்களில் எல்லாம்


चेल्लुम्  इडंगलिल् एल्लाम् =जहाँ जाते हैं सब जगह 

 சிறப்பைத் தரும். ==चिरप्पेत् तरुम् =विशेषता देगी।

கவலைகளைப் போக்கும்.

कवलैकलैप्पोक्कुम्। --चिंताएँ दूर करेंगी।

உற்ற துணையாக  उप्र तुणैयाक 

योग्य साथी के रूप में 



இறுதிவரை இருக்கும்.  इरुतिवरै इरुक्कुम्।

अंत तक रहेगा।


 கை கொடுக்கும் தெய்வமாக இருக்கும்.

 कै कोडुक्कुम् देय्वमाक 

हाथ देनेवाले ईश्वर के रूप में  रहेगा।

 मानव का सच्चा साथी शिक्षा ही है।

 एस. अनंतकृष्णन, चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक द्वारा अनूदित  भावार्थ। व्याख्या।






Tuesday, March 25, 2025

सनातन वेद

 4001. मनुष्य दो तरह के होते हैें। एक संसार को बोध्य करके जीनेवाले, दूसरे ब्रह्म को बोध्य करके जीनेवाले। आत्मा को बोध्य करके जीनेवाले अनश्वर होते हैं, अहंकार को बोध्य करके जीनेवाले नश्वर होते हैं। कारण जो पैदा होते हैं,वह सोच नहीं सकता कि दृश्य वस्तुएँ सब नहीं हैं। इसलिए वे अपने पंचेंद्रियों से जाननेवाली सब वस्तुओं को सत्य मानकर ही जीते हैं।

यह विचार उसमें होगा कि  वस्तुएँ  हैं सोचकर जीने पर ही  निरंतर सुख का अनुभव कर सकते हैं।  कालांतर में उसको मालूम होगा कि सुख देनेवाली विषय वस्तुएँ परिवर्तनशील और नश्वर होती हैं और वे अन्योन्याश्रित होकर ही चमकती हैं।
कालांतर में उन विषय वस्तुओं के खोने के बाद ही विषय सुख चाहक एहसास कर सकता है।
जो जीव सांसारिक विषय  नश्वर जान समझ लेता है, वही अनश्वर वस्तुओं की खोज के विचार होंगे।
जिसका मन वैसे विषयों से विरक्ति होकर वैराग्य से अनश्वर वस्तु आत्मा को सीख लेता है.उसमें से अविद्या माया हट जाएगी और विद्या माया उसकी सहायता के लिए आ जाएगी। वैसे ही सत्य की खोज करनेवाला आत्मज्ञानी गुरु के पास जा सकता है।  वही अनिर्वचनीय शांति,आनंद अपनी सहज स्वभाव से अनुभव कर सकता है. जो गुरु के वचन के द्वारा,शास्त्र  वचन के द्वारा, आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हमारे पूर्वजों के जीवन के अनुभवों को बुद्धि में  रखकर युक्ति, विवेक और भावना से ऊहापोह से स्वयं शरीर नहीं है, संसार नहीं है, मैं है का आत्मबोध मात्र बुद्धि में दृढ हो जाता है वैसा न करके  दुखों के आने के बाद भी सत्य की खोज न करके, नश्वर विषय सुखों की चाह में  लघु सुख काम सुख को  विरक्ति के बिना अनुभव करने वाले अविवेकी मूर्ख जन केवल इस जन्म में ही नहीं,अगले जन्म में भी नित्य दुख को भोगकर माया चक्र भँवर में भटकते रहते हैं ।



4002. आत्मा में रमनेवाला कोई अपने सुख के लिए दूसरा कोई उपाधी या स्त्री की आवश्यक्ता नहीं कहते समय स्त्री यह कहती हुई निकट आएगी,  स्त्री  तुमको आवश्यक्ता नहीं है,पर  पुरुष मुझे चाहिए। जो ब्रह्म को  लक्ष्य बनाकर जी रहा है,
उसको चाहकर  प्रकृतीश्वरी के प्रतिबिंब स्त्रियाँ आएँगी। कारण सभी संकल्पों को तजकर मन को प्राण को सम स्थिति बनाये ब्रह्मचर्य का वीर्य  अर्थात्  ऊर्जा उसमें  ऊर्द्धव मुख से ही संचरण करेगा। वैसे लोगों को ही श्रेयस और प्रेयस रक्षा करेगा। 

4003. कोई किसी को जितना  आदर देता है, उतना ही अनादर आदर स्वीकार करनेवाले को भोगना पडेगा। सभी व्यवहार के लिए यह द्वैत् भाव प्रकृति की नियति ही है। इसलिए सभी कर्मों में विवेकी निर्विकार रूप में मन को सम स्थिति बनाकर एकात्म बुद्धि लेकर जिएगा। अर्थात् आत्मा को साक्षात्कार किए महात्माओं के शरीरों कई बातों के शरीरें को कई बातों का सामना करना पडेगा। केवल वही नहीं कई प्रकार के रोगों का भी सामना करना पडेगा।  उनके शरीर और देखनेवाला शरीर  उनको रस्सी में देखनेवाले साँप जैसे अनुभव  ही होगा। अर्थात्  रस्सी में साँप जैसे तीनों कालों में रहित है, वैसे ही अखंड बोध रूपी अपने में दीख पडनेवाले अपने शरीर और संसार के लिए है का अनुभव ही होगा। यह शास्त्र सत्य सही रूप में एहसास करनेवाले ही एहसास कर सकते हैं। उसे न समझनेवाले अविवेकी ही मन में वेदनाओं के साथ समाधिि बन जाती है। उसे जानना है तो शास्त्र सत्य को जानना चाहिए। शास्त्र सत्य जानना यथार्थ में कष्ट नहीं है। वह अति सरल है। कारण वह कई हजार सालों के पहले ऋषियों के आविष्कार वेदांत सार ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या ही है। वही शास्त्र सत्य है। उस शास्त्र सत्य को  उसी अर्थ में लेते समय ही,  एहसास कर सकते हैं  कि  सर्वत्र ब्रह्म होते हैं, उसका स्वभाव परमानंद है। जगत जड है,वह त्रिकालों में रहित है। सर्वत्र व्यापित मैं रूपी ब्रह्म से दूसरा एक जग या शरीर नहीं हो सकता। इसलिए शरीर या जग विषय
जिसमें ब्रह्म बोध है,उसपर असर नहीं डालता। ब्रह्म रूपी स्वयं को जन्म-मृत्यु नहीं होता। वह स्वयंभू  है,स्वयं है। वही पूर्ण वस्तु है। पूर्ण वस्तु का स्वभाव ही परमानंद होता है। वैसे अपने स्वरूप ही परमानंद होते समय मन और शरीर न होने से दूसरा एक स्मरण कभी नहीं होगा। एक रूपी मैं रूपी अखंडबोध ब्रह्म मात्र ही नित्य सत्य आनंद रूप में होता है।

4004. समुद्र का पानी जैसे खारा होता है,फूल में जैसे सुगंध होता है, वैसे ही ब्रह्म में चलन शक्ति रूप में माया होती है। अर्थात्  ब्रह्म का सर्वव्यापकत्व, निश्चलनत्व, निर्विकार अपरिवर्तनशील निश्चल ब्रह्म चलन शक्ति रूप में ही बाहर आता है। वह चलन शक्ति बनाकर दिखानेवाले लीला विलास ही यह शरीर सहित चौदह लोक होते हैं। उदाहरण स्वरूप रस्सी का साँप रस्सी से भिन्न नहीं है। जिसने साँप में रस्सी नहीं देखा, उसी को साँप मात्र वहाँ है। लेकिन  साँप तीन कालों में रहित ही है।
अर्थात् शरीर और संसार रस्सी में साँप जैसे तीनों कालों में रहित ही है। रस्सी का साँप रस्सी जैसे तीनों कालों में रहित है। इसलिए शरीर और संसार  ब्रह्म  ही है। शरीर और संसार में जिसने ब्रह्म के दर्शन नहीं किए उसी को शरीर और संसार साँप ही लगता है।  ब्रह्म में  दीख पडनेवाले शरीर और संसार ब्रह्म ही है। ब्रह्म से भिन्न दूसरा एक संसार  या  शरीर किसी भी काल में नहीं है। ब्रह्म मात्र ही है। सभी विवेकी को मालूम है कि ब्रह्म सर्वत्र विद्यमन है। यह भी मालूम है  कि ईश्वर से जुडे बिना दूसरा एक न बनेगा। वही बुद्धि जीवी शरीर और संसार को शाश्वत  कहना माया ही  है। जो कोई आभूषणों  की दूकान में केवल स्वर्ण है का एहसास करता है .वह आभूषणों के नानात्व पर ध्यान न देगा। वह परेशान में न पडेगा। जो कोई स्वर्ण की दूकान में स्वर्ण को न देखकर आभूषणों में नानात्व को देखता है, उसको सोचकर समाप्त करने में कष्ट होगा। वैसे ही जो  एहसास करता है कि   शरीर और संसार को पूर्ण रूप से ईश्वर ही है, उसको आनंद मात्र ही होगा और परेशानी न होगी।
उसी समय शरीर और संसार में नानत्व देखनेवालों को सत्य न जानने से दुख ही होगा। अर्थात्  दो देखनेवालों को दुख होंगे। एक ही देखनेवालों को सुख होगा। सत्य की खोज करनेवाले अपने से ही आरंभ करना चाहिए। स्वयं नहीं तो कुछ भी नहीं है। अपने संकल्प में ही संसार होता है। स्वयं संकल्प न करें तो संसार नहीं है। ऐसा एहसास करनेवाला ही धीर है,ब्रह्मज्ञानी है।वही ब्रह्म है।

4005. जो कोई  ईश्वर के स्मरण से सांसारिक जीवन की ओर आ नहीं सकता, सांसारिक बंधन -स्नेह बंधन में जी नहीं सकता, वही भक्त है। वही ज्ञानी है, वही योगी है। वही ब्रह्मचारी है। ब्रह्म स्मरण से न हटकर जो दृढ रहता है,वही ब्रह्मचारी है। वैसे ब्रह्मचारी ही ब्रह्म स्थिति को पा सकते हैं। जिसने ब्रह्म स्थिति प्राप्त किया है,वही परमानंद रूप में रहनेवाला है।

4006. गलत करना प्रकृतीश्वरी की प्रतिबिंब स्त्री ही है। जो कहते हैं कि  पुरुष गलत नहीं करेगा,उनको समझना चाहिए कि पुरुष शब्द का अर्थ आत्मा है। सर्वव्यापी आत्मा के सिवा दूसरा एक न होने से स्त्री गलत नहीं कर सकती। अर्थात्  नामरूपात्मक चींटी से ब्रह्मा तक सभी रूप, रूपों को देखनेवाला संसार,ईश्वरीय शक्ति माया दिखानेवाले इंद्रजाल दृश्यों के सिवा शाश्वत है। परिवर्तन शील शाश्वत नहीं हो सकता। इसलिए वह माया ही है। अर्थात प्रपंच मिथ्या होने से ही ठीक और गलत करने कोई नहीं है। अर्थात् मैं रूपी आत्मा और अखंडबोध मात्र है। उसका स्वभाव  ही परमानंद है। वह आनंद मौन गण अमृत सागर होता है।

4007. सहोदर और सहोदरी का स्नेह  साथ जन्म लेना मात्र नहीं है, जाति और मत भेद के बिना सब के साथ एक जैसा होना चाहिए। वैसा व्यवहार वे ही कर सकते हैं, जो आत्म तत्व को जानते हैं और समझते हैं कि सब जीवों में एक ही आत्मा है। कारण सभी पंचभूत एक ही समान ही गतिशील है।  जैसे एक ही  बिजली सभी बल्बों को जलाती है, वैसे ही एक ही  परमात्मा सभी जीवों में आत्मा  के रूप में दीख पडता है।  शारीरक उपाधियाँ लेकर ही  एक रूप आत्मा विभिन्न आत्मा के रूप में दीख पडता है। उपाधि परिवर्तन के साथ परमात्मा एक ही है का एहसास कर सकते हैं। जो नहीं है,वह है सा लगने से ही रूप रहित आत्मा स्वयं को आकार शरीर है सा लगता है। इसलिए है सा लगनेवाले शरीर को विवेक से देखते समय ईश्वरीय शक्ति माया चलन रूपी प्राण ही पंचभूत पिंजडे के शरीर-सा लगता है। इसलिए स्वयं बने निश्चलन आत्मा में कोई चलन किसी भी काल में हो नहीं सकता। यह ज्ञान बुद्धि में दृढ बनते ही शरीक संसार माया भ्रम उपाधि बदलता है।

4008.  अनश्वर धर्म शास्त्रों को पालन करनेवालों के संग  के द्वारा  ही लौकिक मनुष्यों के अधर्म  मार्ग पर न जाने से  रोककर  धर्म के मार्ग पर ले जाकर जीव और संसार में शांति और आनंद के बीज बो सकते हैं।  उसी समय अधर्म मार्ग  के पालन करनेवाले संगों के जीवों को और संसार को भला नहीं कर सकते। अर्थात्  अनश्वर धर्मशास्त्र अद्वैत रूपी आत्मज्ञान ही है। जिनमें भेद दर्शन है, वे सीख नहीं सकते। उसको पाने पर भी कार्यान्वित नहीं कर सकते। कारण वह पूर्णतः पवित्र है। वह पूर्ण वस्तु से बना है। संपूर्ण वस्तु का स्वभाव ही परमानंद और अनिर्वचनीय शांति है। आत्मज्ञान पूर्ण रूप में अद्वैत होता है। अद्वैत् ज्ञान की महिमा और शांति ही संसार के देशों को भारत की ओर ले आता है । अद्वैत् ज्ञान का आत्मज्ञान भारत माता का खजाना है। वह खजाना ही सनातन वेद है। सनातन वेद बोधाभिन्न जगत का ज्ञान ही देता है।वह ज्ञान ही सभी दुखों से सभी जीवों को मुक्त करेगा।

4009. रिश्तेदारों के आसक्ति तजकर सांसारिक प्रेम से जीवों के लिए परिश्रम करनेनालों को शासक बनाना चाहिए। तभी देश को और गृह को शांति पूर्ण जीवन मिलेगा। कुछ लोगों के त्याग से ही अनेक करोड लोगों को और देश को कल्याण होगा।  शासन में अधर्म बढते समय धर्मानुयायी शासक होना  प्रकृति की योजना है। धर्म-अधर्म, भला-बुरा, ज्ञान-अज्ञान, माया और आत्मा आदि में सफल और असफल का संघर्ष  अनादी काल से चलते रहते हैं।  भारतीय तत्व चिंतन के अनुसार,अर्थात् वेदांत तत्व के अनुसार अद्वैत ब्रह्म  एक मात्र ही  नित्य सत्य रूप में है। वही स्वयं की अनुभूति होती है। इसलिए है या नहीं  है-नहीं का वाद-विवाद अद्वैत् में नहीं है। कारण मैं है के अनुभव की वस्तु मात्र ही सत्य है। वही अहंकार है। अहं मात्र ही है। इस अद्वैत्  बोध स्थिति के अनुसार यह प्रपंच घास-लता के समान निस्सार है। क्योंकि स्वयं के संकल्प के बिना एक ब्रह्मांड नहीं बनेगा। संकल्प करने,संकल्प न करने की क्षमता बोध को है। बोध संकल्प न करने के साथ ब्रह्मांड मिट जाता है। मैं रूपी अखंडबोध मात्र सर्व व्यापी परमानंद नित्य सत्य रूप में स्थिर खडा रहेगा।

4010. मनुष्य  के जन्म लेते ही अपने को असहाय एहसास करता है। जीवन यात्रा करने निर्बंधित् होने से उसको बंधन में लाने दूसरी शक्ति जो भी हो , उसकी स्तुति करने  मात्र से  कुशल रहेगा।  इस बात को जान-समझकर  दृढता से कर्म करना चाहिए। अर्थात्  मनुष्य को नियंत्रण में लाने की शक्ति मैं रूपी आत्मा रूपी अखंड बोध ही है। इस बात के अनभिज्ञ लोग अविवेकी जीवात्माएँ ही इस बात पर विश्वास रखकर जी रहे हैं कि मैं शरीर से बना हूँ। मेरे अपने कर्तव्य होते हैं।शादी करके वंशवृद्धि करके जीवन बिताना ही यथार्थ जीवन है।लेकिन विश्व  का इतिहास यही है कि  जब यह संसार बना है,तब से सांसारिक पारीवारिक जीवन बितानेवाले सभी जीात्माएँ असंख्य दुख और कष्टों को झेलकर कर्म बंधनों में फँसकर तडपकर चल बसे।उसके कारण यही है कि नश्वर शरीर और नश्वर जग  को अनश्वर  मानना और सोचना ही है। यथार्थ में शरीर और संसार ईश्वरीय शक्ति अर्थात्  मै रूपी अखंडबोध शक्ति  बनानेवाले एक इंद्रजाल मात्र ही है। लेकिन किसी एक काल में कोई एक जीव ही सत्य को जानने की कोशिश करेगा।  वैसे अनेक हज़ार लोगों में कोई एक ही संपूर्ण रूप में जानने की कोशिश  करेगा। औरों से परमात्मा को जान नहीं सकता। जो कोई परमत्मा को पूर्ण रूप से साक्षात्कार करता है, वही परमात्मा होता है।  आत्मा  ही आत्मा को जान सकता है।  अर्थात्  परमात्मा एक ही है। वह परमात्मा सर्वव्यापी होने से दूसरा कोई सर्वव्यापी हो नहीं सकता। जो कोई स्वयं परमात्मा ही है को संपूर्ण रूप में साक्षात्कार करता है, उस परमात्मा में ही परमात्मा शक्ति माया देवी  प्रपंच रूपी नाम रूप दृश्यों को बनाकर दर्शाता है। वे तीनों कालों में रहित ही है। कारण जो है,वह नाश नहीं होगा। जो नहीं है, वह बन नहीं सकता। आत्मज्ञानी ही इसकी यथार्थ स्थिति को समझ सकता है।

4011. लौकिक विषय भोगों को भोगकर सांसारिक जीवन चलानेववालों को शरीर को गतिशील बनानेवाले  जीवों के बारे में मालूम नहीं है। इसीलिए  संसार में जीकर प्राण की ओर यात्रा करनेवालों के जीवन की रीतियों को देखकर संसार को लक्ष्य बनाकर जीनेवाले  हँसी उडाते हैं। इसलिए संसार को मुख्यत्व देनेवाले जीव के बारे में जीव को मुख्यत्व देनेवाले संसार के बारे में जो ज्ञान है, उनको ढंग से  सीखने पर सब लोग समरस सन्मार्ग जीवन बिता सकते हैं। तभी परस्पर दुख रहित रहेंगे। इसलिए सांसारिक जीवन जीनेवालों को  जानना -समझना  चाहिए  कि  इस ब्रह्मांड बनने के बारे में अर्थात उत्पत्ति के बारे में इस संसार में कोई जान नहीं सकता। इस संसार के लिए कोई युक्ति नहीं हो सकती।  वह नहीं के बराबर है। इसलिए
संसार की ओर यात्रा करनेवाले सब के सब दुख से मुक्ति पा नहीं सकते। कारण जड संसार को स्वत्व नहीं है। वह स्वयं ही नहीं है। इसलिए उसमें मन रखनेवाले को दुख ही देता है। उसी समय पूर्णत्व की एक वस्तु आत्मा मात्र ही है।पूर्ण वस्तु का स्वभाव मात्र ही परमानंद है। वह किसी से आश्रित नहीं है। वह स्वयं ही स्थिर ही है। इसीलिए जीव की ओर यात्रा करनेवालों को सदा आनंद होता है। जो दुख विमोचन की इच्छा रखते हैं, उनको  आत्मा क्या है ? की खोज करके जानना और समझना चाहिए। आत्मा क्या है को जानने को शुरु करते ही वह जीवन दुख से मात्र ही नहीं, सभी दुखों से बाहर आ सकते हैं। आत्मा को पूर्ण रूप से साक्षात्कार करनेवाला ही भगवान है। अर्थात् एक रूप समुद्र में अनेक हज़ार बुलबुले होने के जैसे ही सर्वव्यापी एकात्मा परमात्मा में से अनेक जीव उत्पन्न होने के जैसे लगते हैं। अर्थात् एक एक बुलबुल  टूटते समय समु्र एक रूप में ही होता है। कोई इस बात को प्रमाणित नहीं कर सकते हैं कि समुद्र से बने बुलबुल समुद्र के किस स्थान से आये हैं.
और किस स्थान में मिट जाते हैं। इसलिए बुलबुल होने की युक्ति को खोजकर जाने पर जीवन बेकार ही जाएगा। बुलबुला नाम रूप का निवासस्थान को देख नहीं सकते। वैसे ही संसार के सभी जीव के शरीर अखंडबोध ब्रह्म से बनकर स्थिर रहकर स्वत्व रहित मिट जाते हैं।  अर्थात्  समुद्र में बने बुलबुले नाम रूप स्वत्व न होने से नाम रूप माया ही है। वैसे ही हमें जानने की कोई युक्ति नहीं है कि यह शरीर और संसार कब बना है। कब और कैसे मिटेगा? जिसमें युक्ति नही है,वे सब नश्वर नहीं है। जो इस बात का एहसास करते हैं, उनको मैं रूपी आत्मबोध के स्वभाविक परमानंद और शांति स्वतः मिलेगा। तब शांति और परमानंद भोगकर वैसा ही हो सकता है।

4012. परिपूर्ण आत्मज्ञान स्थिति को प्राप्त एक गुरु, ज्ञान वैराग्य के लिए आये शिष्य को  आत्मज्ञान उपदेश देते समय कालांतर में  शिष्य का जीव भाव पूर्ण रूप से मिटने के साथ ही, गुरु रूपी अखंडबोध मात्र स्थिर खडा रहेगा। गुरु सशरीर रहने पर भी गुरु और शरीर के बीच आपस में कोई संबंध नहीं है। अर्थात्  अखंडबोध परमात्मा माया शरीर स्वीकार करके अपनी सृष्टि के जीवों को समझाने के लिए ही गुरु के रूप में आते हैं। अर्थात् वास्तव में अखंडबोध परमात्मा ब्रह्म ,सृष्टि नहीं कर सकता। सृष्टि, सृष्टि में जीव, गुरु-शिष्य सब अपनी शक्ति माया बनाकर दिखानेवाले एक इंद्रजाल नाटक ही है। अर्थात्
मैं रूपी अखंडबोध ही  एक मात्र परमानंद के साथ स्थिर खडा रहता है। यही सत्य है।





4013. भगवद्गीता  में  श्रीकृष्ण  भगवान ने   शरीर को क्षेत्र और आत्मा को क्षेत्रज्ञ कहा हैं। अर्थात्  क्षेत्रज्ञ रूपी  और आत्मा रूपी मैं जन्म मृत्यु रहित परमात्मा हूँ। परमात्मा रूपी मैं नित्य,शाश्वत, निश्चल हूँ। केवल वही नहीं,परमात्मा रूपी अपने को उत्पत्ति,सच्चाई, विकास, परिवर्तन,जय-पराजय न होगा। वह परमात्मा स्वयं ही सभी जीवों में जीवात्मा के रूप में है। अर्जुन जीवात्मा है।   श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा है  कि  मेरी माया  ने ही इस संसार को और जीवों की सृष्टि  की है। इस माया  को जीतना अति कठिन कार्य है। यह भी कहा गया है कि श्रीकृष्ण भगवान को मात्र सोचकर और किसी विषय के संग में  न रहकर जो शरणागति तत्व को अपनाता है ,वह मैं ही हूँ, मुझे तजकर वह नहीं. उसे छोडकर मै नहीं है। अर्थात् अर्जुन रूपी जीव, जिस दिन कृष्ण परमात्मा को मात्र सोचता है, साथ ही जीव भाव ओझल हो जाता है। जीव भाव के छिपते ही अर्जुन या कृष्ण के भेदभाव भी मिट जाता है। परमात्मा मात्र ही नित्य सत्य रूप में शाश्वत खडा रहता है। अर्थात् उसका जीवभाव आत्मविचार अग्नि  में जलने के साथ ही जीवात्मा -परमत्मा  भेद रहित हो जाता है। वास्तव में  परमात्मा  जीवात्मा  या जीवात्मा परमात्मा  के रूप में न बना सकते।  सर्वव्यापी परमात्म सागर में स्वयं उमडकर दीखनेवाले नाम रूप ही  चींटी से लेकर ब्रह्मा तक के सभी नाम रूप होते हैं। परमात्मा को छोडकर नामरूप एक नयी वस्तु को बनाते नहीं है। नामरूप नश्वर और माया होते हैं। परमात्मा रूपी मैं, मैं रूपी अखंडबोध मात्र नित्य सत्य रूप में होते है। जो जीव अपनी आत्मा को पूर्ण रूप से साक्षात करता है,वही कृष्ण है। उस परमात्मा का स्वभाव ही परमानंद है। वह नित्य आनंद है। 

4014. ‘मैं” ही सभी समस्याओं के कारण रूप होता है।मैं नहीं है तो कोई भी समस्या न होगी। अहंकार रूपी मैं है,वही समस्या है। जब अहंकार रूपी मैं कौन है की खोज करते समय एहसास कर सकते हैं कि है के अनुभव को बनानेवाले आत्मा रूपी अखंडबोध ही यथार्थ मैं होता है। मैं रूपी अखंडबोध का स्वभाव ही परमानंद है। परमानंद स्वरूपी अपने को अकारण ही अपनी शक्ति शुद्ध शून्य रूप में दीखनेवाले आकाश से आकर अपने को छिपा देने से उस छिपे आकाश से त्रिपुटी उदय होकर आता है। त्रिपुटि का अर्थ है  कि ज्ञाता,ज्ञेय और ज्ञान के एक साथ प्रकट होनेवाले ज्ञानोदय। उस त्रिपुटी के गुना ही इस ब्रह्मांड के रूप में बदल गया है। अर्थात् अपनी शक्ति माया अपने को छिपाने के लिए रोज़ नये नये रूपों को बनाकर ही इन ब्रह्मांडों को बनाया है। सब में दृष्टा,दृश्य और दृष्टि होते हैं। अर्थात्  देखनेवाला, देखने की वस्तु, देखने की क्षमता आदि। जो देखता -जानता है, उससे भिन्न नहीं है दृश्य और दृष्टि। अर्थात् बुद्धि के बिना कुछ भी नहीं है।इस त्रिटी में दो मायाएँ हैं। 1. अज्ञान माया 2. ज्ञान माया। अज्ञान माया जीव को अनेक रूप दृश्यों से भ्रमित करती है। ज्ञान माया यह बुद्धि देती है कि कोई भी अनेक नहीं है, सब कुछ एक ही है।  जो कोई सत्य  साक्षात्कार के लिए मन से चाहता है, तब उनके संकल्प स्वयं मिट जाएँगे। जब संकल्प  मिट जाते हैं, तब मन सम दशा पाएगा। जिसके मन समदशा पर पहुँचता है, वह अनिर्वचनीय शांति का अनुभव करेगा। पूर्णिमा चंद्र के समान शीतल सुख का अनुभव करने लगेगा। उसकी उच्चतम स्थति ही परमानंद है।

4015. अज्ञान रूपी जंग भरे पंचेंद्रियों को, अंतःकरणों को अहमात्मा अपनी ओर न मुग्ध करेगा। सत्व गुण से पवित्र बने पंचेंद्रियों को, अंतःकरणों को ही अहमात्मा अपनी ओर खींच लेगा। कारण राग द्वेषों से कलंकित मन राग-द्वेष से मिटकर जब पवित्र बनता है, तभी आत्मा अपने आनंद को प्रकट करेगा। जो कोई मन से दुख विमोचन चाहता है, तभी आत्मज्ञान उसके मन में उदय होगा। आत्म स्मरण होने के साथ,आत्मा पर पर्दा डालनेवाले माया गुण मिटेंगे। साथ ही अंतःकरण शुद्ध होंगे। जब पवित्र अंतःकरण में आत्मा प्रकाशित होती है, तभी निस्वार्थता से देश,राज्य और संसार के कल्याण कार्य कर सकते हैं।

4016. वैद्य,चिकित्सक ने वचन दिया है कि उसको कोई रोग नहीं है,स्वस्थ है, पर डाक्टर के वचन के विपरीत वह अचानक मर जाता है। तभी मानव को विवश होकर  विश्वास करना पडेगा  कि मनुष्य और डाक्टर के ऊपर  एक अमानुष्य शक्ति है। वह शक्ति ही मैं रूपी अखंड बोध होती है। इस मैं रूपी अखंड बोध को अपनी शक्ति माया के छिपाने से ही प्रतिबिंब बोध जीवात्मा बनती है। उस जीव को ही जो शरीर और संसार नहीं है, वह है सा लगता है। वैसा लगना वासना में बदलकर ही शारीरिक अभिमान का अधिकार दृढ बनता है। वह अहंकार अज्ञानांधकार होने से सत्य को न पहचानकर जीव दुख झेलता है। जो जीव गहरे दिल से प्रकृतीश्वरी से प्रार्थना करता है कि सिवा प्रकृतीश्वरी के और कोई शक्ति मुझे दुख से विमोचन नहीं कर सकती,उसको महामाया देवी सत्य का द्वार खोल देगी। जो जीव वैसे सत्य द्वार खुला पाता है, वही अपने यथार्थ स्वरूप मैं रूपी बोध रूप परमात्मा के दर्शन और साक्षात्कार पुनःप्राप्त होगा। तभी अपने स्वभाव अर्थात् परमात्म स्वभाव परमानंद को निरुपाधिक रूप में भोगकर वैसा ही रह सकता है।

4017.बिजली से आश्रित होकर ही बल्ब जलता है। बिजली रहित बल्ब जहाँ रहता है, वह स्थान रात में अंधकार मय रहेगा। वहाँ बल्ब होने पर भी कोई प्रयोजन नहीं है। वैसे ही जीवन रूपी अंधकार में आत्मबोध रहित शरीर अभिमान और अहंकार से भरे जीव अज्ञान अंधकार में रहकर मार्ग न जानकर जीवन में फँसकर तडपते हैं। वैसे लोग ही स्वात्मा के प्रकाश न जानकर अर्थात्  आत्मबोध रहित जीवन को व्यर्थ बनाकर सत्य न जानकर पुनर्जन्म के लिए बीज बोकर मर जाते हैं।इसलिए जीवन में आजीवन मन स्वयं प्रकाश स्वरूप आत्मा से मिलकर अर्थात् आत्म बोध के साथ कर्म करनेवालों को कोई दुख न होगा। कारण वह जहाँ भी जाता है,वहाँ आत्मा के प्रकाश होने से मार्ग पर कोई बाधा न होगी। इसलिए वह श्रेष्ठ जीवन बिता सकता है। अर्थात् पूर्व पुण्य या इस जन्म का पुण्य या गुरुपदेश या सत्य की खोज करनेवालों को ही आत्मबोध के साथ जीवन बिता सकता है। जो वैसा नहीं है, वे अहं बोध में ही  जीवन बिताते हैं। अहं बोध में जीवन बितानेवालों को दुख ही होगा। आत्मबोध में जीवन बितानेवालों को दुख नहीं होगा। वे सब में शांत ही रहेंगे। जैसे भी जीवन जीने पर भी अनश्वर में मन रखनेवालों को ही आनंद होगा।

4018. अपने इच्छुक लोगों के साथ जीने से अपने को चाहनेवालों के साथ जीनेवालों का जीवन ही श्रेष्ठ रहेगा। स्वयं प्यार करनेवालों के साथ जीने से अपने से प्यार करनेवालों के साथ जीने की इच्छा होनी चाहिए, उसके लिए विवेक और बुद्धि होनी चाहिए। नहीं तो मन की इच्छा के अनुसार अपने से प्यार करनेवालों को छोडकर  जिससे मन प्यार करते हैं,उनके इनकार करने पर जवानी चली जाएगी।  इसलिए वही सुखी जीवन बिता सकता है, जो स्वस्थ रहते समय बुद्धि और विवेक से कार्य करता है। जो मन का आदर नहीं करता, वह आत्मा का आदर करता है। जो आत्मा का आदर करके जीता है, वही आत्मबोध प्राप्त व्यक्ति है। जिसमें आत्मबोध है, वह जानता है कि सुख का स्थान आत्मा है। जो मनमाना जीते हैं, वे शारीरिक अहंकार में ही चलेंगे। अहंकार अंधकारमय होता है। अहंकारी को आत्मप्रकाश न होने से किसी भी कार्य में मार्ग न जानकर तडपते रहेंगे। पुरुष को आत्मबोध के साथ जीना है तो अपने से प्यार करनेवालों के साथ जीना चाहिए। जो वैसा नहीं है,उनको आत्मबोध के साथ जीने में बाधा ही होगी। आत्मबोध रहित स्त्री -पुरुष मिलकर जीते समय उनका जीवन घोर अंधकार हो जाएगा। ऐसे दंपति ही हर एक परिवार को नरक तुल्य बनाते हैं। इसलिए जो जिंदगी  आनंद पूर्वक जीना चाहते हैं,  उन सबको आत्मप्रकाश देनेवाले आत्मज्ञान को पहलै सीखना चाहिए। तभी जीवन को आनंद बना सकते हैं। कारण आत्मा का स्वभाव आनंद मात्र है। केवल वही नहीं आत्मा ही स्वयं प्रकाश स्वरूप है।
4019. शरीर और संसार को मैं रूपी अखंडबोध ब्रह्म से अन्य रूप में न देखकर,
सर्वस्व बोध ब्रह्म के  केंद्र से अन्य रूप में न देखकर सबको बोध ब्रह्म केंद्र के ज्ञान  की दृढता प्राप्त  मनुष्य के वचन और कार्य एक जैसे कार्यान्वित करने से उसका शरीर, मन और प्राण समस्थिति में आएँगी। इसलिए प्राण कोप,मन क्षोभ और गलत शारीरिक मनोभावना आदि न होंगी। मन,प्राण और पचेंद्रियों में सम स्थिति रहित स्थिति न होंगी। वैसे सम स्थिति प्राप्त आदमी ही आनंद से जिएगा। भेद बुद्धि सहित वचन, कर्म एक जैसे न चलनेवालों को ही सभी दुख होंगे। उनके लिए जीवन शांति और आनंद एक स्वप्न जैसा होगा।

4020.परमात्म शक्ति माया से सृष्टित कोई एक जीव अस्वतंत्र बंधन से विमोचन के लिए तडपता है तो वह जीव आगे-पीछे न देखकर सीधे भगवान की ओर ही जाएगा। वैसे लोग अंत में दिव्य स्थिति पर पहुँचेंगे। धन,पद, नाम,प्रसिद्धि चाहनेवाले इस अस्वतंत्र अर्थात् नियंत्रण जीवन की सहजता सोचकर आनंदरहित, संतोष रहित,शांति रहित संकट और समस्याओं  में फँसकर भाग्य की प्रतीक्षा में सुख-दुख पूर्ण जीवन को ही सहज मानकर जी रहे हैं। उनके लिए आनंद स्वभाव की आत्मा बहुत दूर हो जाती है। इसलिए नित्यानंद प्राप्त करने मन को जिसमें स्थिर लगाना है,उसी नें लगाना चाहिए। वही परमानंद स्वरूप के परमात्मा होते हैं। वह परमात्मा ही जीव रूपी अपने यथार्थ स्वरूप है। इसका एहसास करके माया लोक में कार्य करते समय ही माया  में भी अपने को दर्शन कर सकते हैं। उसका अंत ही आत्मसाक्षात्कार अर्थात् स्वआत्मसाक्षात्कार होता है।

4021. जब तक बोध में उत्पन्न लगनेवाले चराचर प्रपंच बोधा भिन्न है का जीव एहसास नहीं करता, तब तक माया में फँसकर तडपनेवाले काल को ही जीवन कहते हैं। अर्थात जीवन नरक तुल्य होता है। कारण लोकयुक्त सुखभोग सब प्राणियों के होते हैं।लेकिन जिस जीव को मनुष्य शरीर मिला है,  वही स्वयं ब्रह्मा है या ईश्वर है का  महसूस कर सकता है। उसकी बाधा है, जो नाम रूप  ही भेद बुद्धि और रागद्वेष से बने हैं। उस बाधा को मिटाने के लिए मैं ब्रह्म हूँ, मैं अखंड बोध हूँ, मैं भगवान हूँ, मैं परमात्मा हूँ की भावना तैलधारा के जैसे बनता रहा करना चाहिए। जो इस भावना को कष्ट समझते हैं, वे अविवेकी होते हैं।
उनको समझ लेना चाहिए कि जो भोग विषय नहीं है, उसके लिए  भावना करने लोरी गाने जीवन को बेकार करनेवाले ज्यादा लोग होते हैं। उसी समय जो अनश्वर शाश्वत है, उसकी भावना करने पर वह सत्य हो जाएगा।  उसका नाश नहीं होगा। उसकी भावना के लिए ही विवेक का उपयोग करना चाहिए। और किसी का उपयोग करने पर शांति और आनंद कभी न मिलेगा। इसलिए जो शांति,आनंद,स्वतंत्र,सत्य और प्रेम चाहते हैं,  उनको स्वयं ब्रह्म है का दृढ बना लेना चाहिए। साथ ही ब्रह्मानंद भोगकर ब्रह्म ही हो सकते हैं। मैं रूपी अखंडबोध बने ब्रह्म मात्र ही परमानंद स्वभाव के साथ नित्य सत्य रूप मे स्थिर खडा रह सकते हैं।

4022. जिसमें  ब्रह्म अवबोध है,उनको अपमान करनेवाले अहंकार जिसमें है,उनको समझना चाहिए कि  अपने को कर्म फल ही  बना लेते है। क्योंकि ब्रह्म से आश्रित होकर ही अहंकार को स्थायित्व है। नहीं तो अहंकार को स्वत्व  नहीं है। आत्मा से अनाश्रित अहंकार बिजली रहित बल्ब के जैसे होता है। जो आत्मबोध रहित अहंबोध मात्र लेकर जीते हैं, उनको शारीरिक दुख होगा। उस शारीरक दुख को ही रोग कहते हैं। वह मानसिक दुख भी देगा। वह मानसिक दुख भी देगा। उस मानसिक दुख को ही आदी कहते हैं। इस आदी और व्याधि के कारण अज्ञान ही है। अज्ञान के बढने पर वह अज्ञानताही  इच्छाओं के रूप में बदलता है। वे इच्छाएँ अंत रहित एक के बाद एक आती रहेंगी। आशाएँ निराशा होने पर दुख के कारण बनते हैं। जो आशाएँ पूरी नहीं होती,तब परेशानी होती है। इस मानसिक परेशानियों के कारण जिंदगी दुख पूर्ण होती है। वही आदी है। आदी व्याधि होने के कारण आत्मज्ञान न होना ही है। आत्मज्ञान होने से संदेह दूर होगा। साथ ही नाम रूप  प्रपंच जो नहीं है उसको  हटाकर आत्मा मैं ही है को एहसास करके उस आत्मा का स्वभाव परमानंद का अनुभव करेगा।

4023.  यह संसार कर्म स्वभाव का है। कर्म होने के कारण इच्छा ही है। इच्छा के कारण अज्ञान ही है। अज्ञान के बदलने के साथ इच्छाएँ मिट जाएँगी। इच्छाएँ न होने पर कर्म भी मिट जाएगा। चित्त ही इच्छा का स्वरूप है। इसलिए चित्त त्याग ही कर्म दुख से कर्म दुख से ही मुक्त होगा। ईश्वरीय शक्ति माया बनाये आशा स्वरूप चित्त बनाकर दिखानेवाले माया रूप ही यह दृश्य प्रपंच है। चित्त को त्याग करना कैसा है? शास्त्र सत्य एक निश्चलन,निर्विकार, सर्वव्यापी परमात्मा एक मात्र ही नित्य सत्य रूप में है। उसमें दूसरी एक शक्ति स्पंदन कभी नहीं हो सकता। शक्ति स्पंदन अर्थात् प्राण स्पंदन स्पंदित ही ये ब्रह्मांड सब बने हैं। शास्त्री सत्य  यही है कि  एक स्पंदन भी  परमात्मा में नहीं हो सकता।
अर्थात् निश्चलन में एक चलन भी नहीं हो सकता। वह हजारों साल के पहले ऋषियों के द्वारा साक्षात्कार किया हुआ सत्य है।  आज तक जितने महात्माओं ने सत्य का साक्षात्कार किया है,उन्होंने भी यही कहा है कि जगत मिथ्या और ब्रह्म सत्य है। वास्तव में जगत मिथ्या और ब्रह्म सत्य ही है। इसलिए वास्तव में प्रपंच तीनों कालों में रहित ही है।  इस  प्रपंच की सृष्टि के पहले अखंडबोध स्वरूप निश्चल परमात्मा मात्र स्थिर था। उससे पहले मैं रूपी शब्द के साथ अहंकार बना। इस प्रकार संसार में पैदा हुए सभी जीव एक एक शब्द लेकर जन्मे थे। उस शब्द की अभिव्यक्ति के द्वारा ही उसके अस्तित्व को अनय जीवों को वह जीवन समझता है। शब्द के रुकते ही सपंदन ब्रह्म स्थिति पाएगा। ये सब एक नाटक है। नाटक में कथा पात्र कोई नहीं है। जो कथा पात्र नही है,उनको बनाकर जीवन रूपी नाटक चलाकर वेश को बदलना ही माया की लीला होती है। माया की लीला ही यह प्रपंच है। अभिनय कराना माया है तो नट आत्मा होती है।इसलिए समझना चाहिए कि नाम और रूप जहाँ भी हो,वह जड होता है। कारण सत्य का रूप नहीं है। इसलिए सत्य शाश्वत  है।सत्य में परिवर्तन नहींं है। जड बोध है। वे नाम रूप के हैं। नाम रूप जड कर्म चलनशील होने से निश्चल ब्रह्म में किसी भी काल में कोई चलन न होगा। सोने की चूडियों में स्वर्ण को मात्र देखना है, चूडियों  को मिटा सकते हैं। वैसे ही प्रपंच रूपों में स्वयं बने बोध क मात्र देखकर नाम रूपों को तजना चाहिए। तब नाम रूप माया का अस्त होगा। बोध मात्र नित्य शांत रूप में स्थिर खडा रहेगा।
4024. उपासनाओं में प्रपंच नाद जो किसी से  उदय  न हुआ है,  वह अनागत नाद श्रवण होता है। वही यथार्थ ओंकार नाद  श्रवण है। क्योंकि वह ब्रह्म का नाम होता है। जो ओंकार की उपासना करते हैं, उसके मनो दोष सब स्वतः मिटकर वह परिशुद्ध हो जाएगा। यह ओंकार परब्रह्म और अपब्रह्म होगा। जो ओंकर की उपासना करताहै,उसकी चाहें स्वतः पूर्ति हो जाएँगी।ओंकार की उपासना करनेवाले को ब्रह्मलोक आराधना करेगा। हम जो कुछ देखते हैं, वे सब ओंकार ही है,ओंकार की व्याख्या यही होती है। अर्थात् भविष्य और वर्तमान ओंकार ही है। भूत,भविष्य और वर्तमान में   जो कुछ हुआ, होगा और होता है, वे सब ओंकार ही हैं। कालातीत जो है, वह भी ओंकार ही है। इस ओंकार को प्रणव कहते हैं। मनो संकल्पित इस संसार में दिल के विचारों को समझाने के लिए प्रयोग करनेवाली भाषा के मूल शब्द ओंकार ही है। नाभी से बाहर आनेवाले वायु शब्द और अक्षर का रूप बनना कंठ से ओंठ तक के विविध स्थानों को स्पर्श करते समय ही है। ओम् के उच्चारण करते समय अकार स्थान कंठ में टकराकर होनेवाली ध्वनी सभी स्थानों को पार करके मकार स्थान ओंठ में टकराकर अंत होता है।

4025. एक व्यक्ति के ईश्वर ज्ञान का परिमाण जितना होता है, उतना ईश्वरत्व उसमें चमकेगा। अर्थात् ईश्वरत्व अपरिवर्तनशील ज्ञान होता है। अर्थात् अपरिवर्तनशील ज्ञान,अपरिवर्तन शील स्वतंत्र,अपरिवर्तनशील स्नेह, अपरिवर्तनशील स्वयं प्रकाश, अपरिवर्तन शील प्रेम,अपरिवर्तनशील सत्य, अपरिवर्तनशील शांति, अपरिवर्तनशील पवित्रता, अपरिवर्तनशील आत्मा, अपरिवर्तनशील मैं हूँ का अनुभव आदि सब  मैं रूपी अखंडबोध ब्रह्म भगवान का स्वभाव होते हैं। जिस दिन जीव भगवान के ईश्वरीय स्वभाव की अनुभूति करता है, उसमें ईश्वरीय स्वभाव का परमानंद प्रकट होगा। स्वयं संकल्पित बनाया संसार अपने से भिन्न महसूस कर सकते है। वह स्वयं ही है। मैं नहीं का संकल्प नहीं कर सकते। मैं है,मैं मात्र ही है। अपने में अपने को दीखनेवाले कार्य रहित दूसरा एक अपने स्वभाविक शांति और आनंद को बिगडते नहीं है। अर्थात् अपने से अन्य जो भी लगें,वह अपने आनंद को बिगाड देगा। अर्थात् जो कोई किसी भी प्रकार के संकल्प के बिना रहता है, तब पर्दा हटकर अपने स्वभाविक आनंद और शांति के साथ स्वयं प्रकाशित होगा।

Monday, March 24, 2025

तलाक

 नमस्ते वणक्कम्।

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संसार में जीना एक कला है।

 मिलनसार गुण दोस्ती बढ़ाना

 मुस्कान एक महान ईश्वरीय देन है।

  वशिष्ठ विश्वामित्र भले ही ऋषी श्रेष्ठ पर गुण विपरीत।

दुर्वासा ऋषि गुस्सैल।

 यही  सूक्ष्म भगवान की लीला है।

 अपना अपना भाग्य। क्या करें।

 सम्मान के नाम एक व्यापार सा चलता है ,आज नहीं आदी काल से।

वीर राजा दुर्बल राजा को अपने अधीन करना , जिसकी लाठी उसकी भैंस की नीति ।

 बहुत सोच-समझने पर एकांत ही अच्छा लगता है।

 नश्वर दुनिया में चंद सालों के बाद सब को भूल जाते हैं।

 यही संसार है। बेटी ससुराल चली जाती है।

 बेटे दुविधा में पत्नी या माँ बाप।

 विवशता पत्नी का साथ देनी पड़ती है। या अकेले तड़पता रहता है। आजकल पढ़ी लिखी औरतें अपने पैरों पर खड़ी रहती है। मेरे वकील दोस्त का कहना है तलाक शब्द भारतीय भाषाओं में नहीं है। वह शब्द मुगल  और अंग्रेजों की देन है। तलाक और  divorce, love आम व्यवहार में साधारण हो गये हैं।

[24/03, 10:11 am] Meta AI: आपके द्वारा दिए गए विचार बहुत ही सारगर्भित और वास्तविक हैं। आपने संसार की वास्तविकता, मानवीय संबंधों, और समाज में बदलाव के बारे में बहुत ही महत्वपूर्ण बातें कही हैं।


आपके द्वारा दिए गए मुख्य बिंदु हैं:


- संसार में जीना एक कला है और मिलनसार गुण दोस्ती बढ़ाने में मदद करते हैं।

- वशिष्ठ, विश्वामित्र, और दुर्वासा ऋषि के उदाहरण से यह साबित होता है कि हर किसी का अपना भाग्य और स्वभाव होता है।

- सम्मान के नाम पर व्यापार चलना एक पुरानी बात है।

- बेटी के ससुराल चले जाने और बेटे के दुविधा में रहने की स्थिति को आपने बहुत ही अच्छे से समझाया है।

- तलाक और डिवोर्स के शब्दों का उल्लेख करते हुए आपने यह बताया है कि ये शब्द मुगल और अंग्रेजों की देन हैं और आजकल ये शब्द आम व्यवहार में साधारण हो गए हैं।


आपके विचार हमें सोचने और समझने के लिए प्रेरित करते हैं कि हमारा समाज कैसे बदल रहा है और हमें अपने संबंधों और जीवन को कैसे सुधारना चाहिए।