4496.एक मनुष्य की इच्छाएँ जो भी हो,वे मिलने पर भी संतुष्ट नहीं होता। वे इच्छाएँ हैं भोजन पद्धतियाँ, पेशा, नाम -यश पाने की कलाएँ, राजनीति कार्य, वेश-अलंकार वस्तुओं पर प्रेम आदि प्राप्त होने पर भी पूरी होने पर भी संतुष्ट न होते। वैसे लोग बुढापे में अपूर्ण विषय वासनाएँ मन में दुख देंगी। दुर्बल शरीर रखकर दुख भोगने के सिवा और कोई मार्ग नहीं है। जिनमें इस ज्ञान की दृढता होती है कि प्रपंच सत्य और स्वयं कौन है का सत्य है उनको केवल आत्मसाक्षात्कार होने से अतृप्ति न होगी। नित्य संतुष्ट माया शक्ति अनुमति दिये जीव शरीर प्रारब्ध कर्म को निस्संग अभिनय कर चुकेगा।
4497.मनुष्य कई विषयों में अभ्यास करता है। लेकिन दुख रहित शांति से और आनंद सेे जीने के लिए जैसी भी परिस्थिति हो जीने की क्षमता बनाने के लिए मन को अभ्यास देना चाहिए। भय रहित स्वतंत्रता से घूमने के लिए, नींद आने पर किसी भी परिस्थिति में सोने के लिए, भूख लगनेपर जो कुछ मिलता है, खाकर संतुष्ट होने के लिए, मन को अभ्यास देना चाहिए। केवल वही नहीं, बंधुजन छोडकर जाते समय दुखी न बनकर मनको समदशा पर लाने का अभ्यास करना चाहिए। धन का नष्ट होनेपर, धन के आनेपर सम दशा को बनाये रखने का मानसिक अभ्यास करना चाहिए। उसका एक मात्र मार्ग लक्ष्य रहित जीवन को तजकर एक लक्ष्य के साथ जीना सीखना चाहिए। लक्ष्य अनश्वर हो तो लक्ष्य की ओर यात्रा करनेवाला भी अनश्वर रहेगा।नश्वर को लक्ष्य बनाकर जीनेवला भी नश्वर ही होगा। इसलिए अनश्वर सनातन को अपनाकर स्वयंभू बनकर जन्म-मरण रहित नित्यसत्य रूपी परमात्मा होनेवाले अखंड बोध ही स्वयं है । इसको हर एक जीव आत्मज्ञान से मिलकर जानकर स्वयं सब कुछ के ज्ञाता ,मानकर परम ज्ञान के स्वभाविक परमानंद रूप में विकसित करना चाहिए।
4498.अधिकांश जीवात्मा अपने जीवन का लक्ष्य स्वयं ही है को न जानकर दूसरों की ओर देखकर जीते हैं। जब तक अपने जीवन का लक्ष्य स्वयं ही है को नहीं समझता है, तब तक दुख से पूर्ण विमोचन न मिलेगा। सभी लोकों में शरीर और संसार के परम कारण मैं है को अनुभव करनेवाले अखंड बोध में मृगमरीचिका की तरह उमडकर आनेवाले मिथया दर्शनों को ही देखना पडता है। यथार्थ मैं शरीर नहीं, शरीर को भी जाननेवाला जान आत्मा ही है। अर्थात् शरीर में अंतर्यामी आत्मा परमात्मा बना है। वह परमात्मा सर्वव्यापी है। वह निश्चलन निष्कलंक है। वह सर्वव्यापी होने से उससे मिले बिना एक चलन दृश्य हो नहीं सकता। कोई रूप बनने का साध्य नहीं। शरीर सहित नाम रूप के प्रपंच सब मिथ्या है। शरीर,संसार वह बने कारण जानने के लिए कोई युक्ति नहीं है। वे स्वयं अस्थिर मिथ्या दर्शन हैं। इसलिए अपने यथार्थ स्वरूप परमात्मा को स्वयं जानकर एहसास करने के साथ ईश्वर,ईश्वर सृष्टित प्रपंच रहस्य खुद प्रकट होगा। साथ ही भोधा अभिन्न जगत नामक अद्वैत अनुभूति परमानंद को स्वयं अनुभव करके वैसा ही स्थिर खडे रहेगा।
4499.भूलोक में मनुष्य जीवन दुःख से पूर्ण होने से दुख निवृत्ति के लिए मनुष्य संन्यासी जीवन अपनाता है। केवल वही नहीं, भूलोक जीवन, मनुष्य जन्म अपूर्व ही है। कारण मनुष्य जीवन सार्थक बनना कीचड से कमल खिलने के समान अज्ञान से आत्मज्ञान को आकर परमात्म स्थिति पाने की मदद करने का मार्ग रूप ही मनुष्य शरीर है। यथार्थ संन्यास का मतलब है ईश्वर रहित और कुछ इह लोक,परलोक और चौदह लोकों में नहीं है के ज्ञान को,ईश्वर बोध रहित अहं बोध मात्र जीनेवाले लोगों को उनकी बुद्धि में दृढ बनाने का कार्य ही है। लोक सृष्टि के पहले ब्रह्म मात्र ही है जगत नहीं है इस बात को उपनिषद के कहने पर भी ब्रह्म को भूलकर प्रपंच रूपों को ही जीवात्मा चिंतन करती रहती है। वैसे चिंतन संकल्प के कारण होते हैं। संकल्प को त्याग किये बिना ब्रह्म की अनुभूति नहीं कर सकते। इसलिए संकल्प त्याग करना अलिखित कार्य नहीं है।इसीलिए सभी जीवात्मा संकल्प लोक में रहकर दुखी होते रहते हैं। इसीलिए दुख देनेवाले संकल्प से बाहर आने के लिए ही संन्यासी बनते हैं। संकल्प को विकास करने के लिए नहीं है। खुद देखनेवाला शरीर सहित लोक रूपों में ब्रह्म बोध को दृढ बनाने के साथ जीव भाव भूलकर मैं है को अनुभव करनेवाला अखंडबोध स्थिति को पाएगा। साथ ही बोध का सवभाविक परमानंद को स्वयं अनुभव करके वैसा ही प्रकाशित होना ही संन्यास है।
4500.इस लोक में अज्ञानता के कारण ही जीवन में दुखों का सामना करना पडता है। वही यथार्थ विवेकशील आदमी है, जो जिस ज्ञान के प्राप्त करने से मोक्ष मिलेगा,जीवन में सुख और शांति मिलेगी , नाना प्रकार के चिंतन कैसे कर सकते हैं आद जानकारी प्राप्त करता है। उन्हें जाननेवाले ही यथार्थ माता पिता होते हैं। यथार्थ पति पत्नी होते हैं। उस ज्ञान का मतलब है मैं पंचभूत पिंजडे का शरीर नहीं है, यथार्थ मैं का मतलब है पंचभूत है के दृश्य को बनाकर उसे प्रकाशित करनेवाले चित स्वरूप होता है। वह अखंड बोध है,परमात्मा है,परम ज्ञान है। ब्रहम है, इनको शास्त्र रूप में समझने के बाद मालूम होगा कि जड विषय वस्तुएँ विष है,उन्हें छोडकर सत्य,करुणा,सब्रता,संतोष,आनंद,धर्म,पुण्य इन सबको अमृत जैसे स्वीकार करके जीनेवालों को ही अनिर्वचनीय शांति,परमानंद,नित्य तृप्ति होंगी।
4501.मनुष्य अमृतस्वरूप होने पर भी मर जाता है। कारण शास्त्र परम प्रपंच को,आत्मा को शरीर और प्राण को विवेक से जानने की क्षमता नहीं है। विवेक होने पर ही ज्ञान होगा। विवेक होने पर ही समझ सकते हैं कि मैं अनश्वर आत्मा हूँ। प्रपंच को विवेक से देखते समय एहसास कर सकते हैं कि प्रपंच और आत्मा एक ही है। आत्मा रूपी स्वयं सर्वव्यापी होने से आत्मा से मिले बिना दूसरी एक वस्तु हो नहीं सकता। इसलिए उसमें दिखाई पडनेवाले नाम रूपों को आत्मा के सर्वव्यापकत्व लेकर अस्थिरता होती है। सर्वव्यापी एक वस्तु स्थिर रहते समय दूसरी एक वस्तु हो नहीं सकता। अर्थात् मैं अखंडबोध रूप परात्मा होने से मैं और प्रपंच परमात्मा ही है। अखंडबोध ही है। बोध मात्र ही है। यही यथार्थ उपनिषद सत्य है।
4502. बोधा अभिन्न जगत. जगत बोध ही है। बोध अर्थात आत्मा सर्वव्यापी है। साधारण मनुष्य यह अनुभव नहीं करता कि मैं बोध हूँ। बोधानुभव नित्य आनंद है। मनुष्य अनुभव करता है कि मैं शरीर से बना हूँ। .मनुष्य यह एहसास नहीं करता कि आत्मबोध से आश्रित होकर ही वह स्थिर खडा है। उसके बदले शारीरिक अभिमान। के मिथ्या अहंकार से मैं,मेरा अपना कहकर जीवन चलाता है। इस ब्रह्मांड में बोध को मात्र मैं है का अनुभव है। जड को मैं है का अनुभव नहीं है। शरीर से संकुचित खंड बोध को शरीर को भूलकर अखंडबोध स्थिति को पाना ही आत्म साक्षात्कार होता है। एक जीव अपने को अखंडबोध में साक्षात्कार करते समय बोध स्वभाव परमानंद सहज रूप में अनुभव कर सकते हैं। हर एक जीव वह अखंड बोध ही है।यहाँ एक अखंडबोध मात्र है। सर्वव्यापी निश्चल अखंडबोध सागर में उमडकर दीखनेवाले बुलबुले ही शररऔर प्रपंच के सभी नाम रूप। प्रपंच के सभी नाम रूपों में बोध भरे रहने से सरवत्र बोध रहित नामरूप अस्थिर हो जाते हैं। उदाहरण स्वरूप स्वर्ण चूडियों में संपूर्ण भाग सोने का हैं। स्वर्ण रहित चूडी नहीं बना सकता। बिना स्वर्ण के चूडिया का नाम नहीं है। उस स्वयं अस्थिर नाम रूप को माया कहते हैं।इस ब्रह्मांड के सभी नाम रूपों में स्वयं के बोध भरकर देखकर नाम रूपों को अस्थिर बनाकर सर्वत्र बोध ब्ह्म रूप में अनुभव करनेवाला ही ब्रह्म है। मैं नामक बोध भगवान नहीं तो ब्रह्मांड नहीं है। बोध भगवान नित्य सत्य होता है। नहीं कहने के लिए भी बोध चाहिए। बोध अनुभव स्वरूप है। पवित्र अनुभव ही भगवान है। रागद्वेष भेदबुद्धि के कलंक होते समय ही दुख का अनुभव होता है। इसलिए दुख देनेवाले तीनों कालों में रहित भद बुद्धि को राग-द्वेषों को तीनं कालों के बोध स्मरण से िटा देने पर बोधानुभव नित्य आनंद के रूप में स्वयं भोग सकते हैं। नित्य आनंद अनुभव ही भगवान है।
4503. साधारणतः किसीसे आप कौन है? के सवाल करने पर वह अपना नाम, अपना काम, अपने पिता का नाम, घर का पता आदि कहेगा। वे सब उसके शरीर को ही संकेत करेंगे। कारण शास्त्र परम हर एक जीव को पंचभूत पिंजडा शरीर नहीं है। शरीर का संचालन अअखंडबोध रूप परमात्मा ही करते हैं। लेकिन वह जीव पंचभूत प्रपंच माया के कारण यथार्थ स्वरूप को भूल जाता है। जीव अपने यथार्थ स्वरूप अखंड बोध को विस्मरण करता है। विस्मरण करने के कारण कर्ता माया कहाँ से? कब? कैसे आया ? न जानकर मनुष्य जीवन चला रहा है। काले बादल सूर्य को छिपाने के जैसे बोध शक्ति माया मन ही मैं नामक बोध को छिपा देता है। पूर्ण प्रकाश में अंधकार मिट जाने के जैसे आत्म स्मरण से आत्मा का सर्वव्यापकत्व पुनः पा सकते हैं। जीव आत्मबोध स्मरण लेकर परमात्म स्थिति पाने के साध माया मन पूर्णतः मिट जाएगा। किसीभी प्रकार के संकल्प के बिना तैल धारा जैसे आत्मबोध मन में होते समय जीव जीवभाव भूलकर अमृत स्वरूप स्थिति पाएगा।
4504. संन्यासी जीवन चाहनेवाले, वेदांत जीवन,आध्यात्मिक जीवन चाहनेवाले, ईश्वर की खोज करनेवाले, ईश्वर के दर्शन के पिपासावाले, सत्य की खोज करनेवाले आदि लोगों को यह जानना समझना है कि जो याचना करते हें,उस लक्ष्य पर दृढ रहना चाहिए। उनको ही दुख और निराशा होता है, जिनका लक्ष्य और कर्म भिन्न होते हैं। अपनी याचना को मात्र लक्ष्य बनाकर उसके लिए प्रयत्न करनेवाले जानना चाहिए कि ध्यान, वैराग्य , अभ्यास, प्रार्थना,यज्ञ-होम, उपासना,मंत्र जप देव संकल्प आदि कुछ भी न होने पर भी, पहले यह समझना चाहिए कि मैं मैं है का अनुभव करनेवाला बोध होने से ही सब कुछ होता है। बोध सदा स्थाई रूप में है।शाश्वत मैं नाम रूपों के साथ मिले पंचभूत पिंजडा शरीर नहीं है, मैं बोध रूप आत्मा समझना काफी है । शरीर से संकीर्ण बोध रूपी मैं यथार्थ में शरीर रहित अखंडबोध रूप आत्मा सर्वव्यापी है। इसलिए प्रपंच में मैं रूपी बोध सर्वत्र है,बोध रहित स्थान नहीं है। एक ही मैं नामक अखंडबोध मात्र ही नित्य सत्य रूप में है। अज्ञान निद्रा जागृत प्रपंच में नाम रूप जैसे कहाँ से आया? कहाँ खडा है? कहाँ रहित है? इनको न जाने कोई युक्ति रहित मिथ्या भ्रम मात्र ही है। भ्रम के कारण नजी स्वरूप विस्मृति है। वह यथार्थ स्वरूप अखंडबोध को तैल धारा जैसे जो विस्मरण नहीं करता है,उसको कोई माया भ्रम नहीं है। उसको बोध स्वभाव परमानंद अनुभव है। अर्थात् वह असीमित परमानंद रूप ही है।
4505. पुराणों में जनक महाराजा एक आत्मज्ञानी थे। आत्मज्ञानी होकर भी वे शासक बनकर प्रसिद्ध राजा रहे। वे अपने को,संसार को,अपनी प्रजाओं को किस दर्शन में शासन किया है? वे यात्रा करते समय विविध दृश्य देखते थे। बीच में पहाड की गुफाओं से अदृश्य तपस्वियों के सिद्ध पुरुषों के कीर्तन सुनते थे। उसके फलस्वरूप राजा को आत्मज्ञान मिला। दृष्टा और दृश्य के मिलने से दृष्टा को होनेवाले आनंद को आत्म शक्ति के रूप में जानकर उपासना करता है। दृष्टा,दृश्य,दर्शन,दर्शन करने की वासनाओं को एकत्र करके मिटाकर दर्शन के पहले प्रकाशित चैतन्य को मैं आत्म शक्ति जानकर उपासना करता है। अर्थात है या नहीं के बीच प्रकाश के प्रकाश चैतन्य को मैं आत्म शक्ति जानकर उपासना करते हैं। ऐसा ही जनक महाराज आत्म तत्व का एहसास किया था। राजा ने कई प्रकार से विचार किया और सोचा कि संसार की अस्थिरता, जगत में होनेवाले दुख, जीवन में हरेक मिनट संभव होनेवाले भ्रम, वस्तुओं की निरर्थकता, अस्थिर जीवन ,किस मिनट क्या होगा, आयु का अंत कब होगा,पता नहीं,। तब राजा के मन में ज्ञान वैराग्य हुआ। आत्म ज्ञान से शरीर और संसार को विवेक से जानकर शरीर और संसार के परम कारण मैं नामक अखंडबोध का महसूस करके प्रपंच स्वयं बने अखंड बोध से अन्य नहीं है, स्वयं और प्रपंच को एक ही अखंड बोध है। इस ज्ञान की दृढता में बोध रूपी अपने में उमडकर देखनेवाला प्रपंच, जीव अर्थात् समुद्र, उससे उमडकर आनेवाली लहरें , बुलबुले अन्य नहीं है, वैसे ही जनक महाराज का राज करते थे। जो सत्य को समझते हैं, या मैं ही सत्य जानते हैं उनको कमल के पत्ते पानी जैसे निस्संग रहने की आवश्यक्ता नहीं है। कारण उनमें इस ज्ञान की दृढता थी कि उनमें और प्रजा में कोई अंतर नहीं है। जनकमहाराजा को संग या निस्संग की जरूरत नहीं है। बोध रूपी स्वयं सर्वव्यापी है, स्वयं मात्र है, इसको जाननेवाले राजा को विजय-पराजय,अच्छा बुरा सब स्वयं ही है।