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Friday, September 12, 2025

सनातन वेद अनंत जगदीश्वर

 4496.एक मनुष्य की इच्छाएँ जो भी हो,वे मिलने पर भी संतुष्ट नहीं होता। वे इच्छाएँ हैं भोजन पद्धतियाँ, पेशा, नाम -यश पाने की कलाएँ, राजनीति कार्य, वेश-अलंकार वस्तुओं पर प्रेम आदि प्राप्त होने पर भी पूरी होने पर भी संतुष्ट न होते। वैसे लोग बुढापे में अपूर्ण विषय वासनाएँ मन में दुख देंगी। दुर्बल शरीर रखकर दुख भोगने  के सिवा और कोई मार्ग नहीं है। जिनमें इस ज्ञान की दृढता होती है कि प्रपंच सत्य और स्वयं  कौन है का सत्य है उनको केवल आत्मसाक्षात्कार होने से अतृप्ति न होगी। नित्य संतुष्ट माया शक्ति अनुमति दिये जीव शरीर प्रारब्ध कर्म को निस्संग अभिनय कर चुकेगा।


4497.मनुष्य कई विषयों में अभ्यास करता है। लेकिन दुख रहित शांति से और आनंद सेे जीने के लिए जैसी भी परिस्थिति हो जीने की क्षमता बनाने के लिए मन को अभ्यास देना चाहिए। भय रहित स्वतंत्रता से घूमने के लिए, नींद आने पर किसी भी परिस्थिति में सोने के लिए, भूख लगनेपर जो कुछ मिलता है, खाकर संतुष्ट होने के लिए, मन को अभ्यास देना चाहिए। केवल वही नहीं, बंधुजन छोडकर जाते समय दुखी न बनकर मनको समदशा पर लाने का अभ्यास करना चाहिए। धन का नष्ट होनेपर, धन के आनेपर सम दशा को बनाये रखने का मानसिक अभ्यास करना चाहिए। उसका एक मात्र मार्ग लक्ष्य रहित जीवन को तजकर एक लक्ष्य के साथ जीना सीखना  चाहिए। लक्ष्य अनश्वर हो तो लक्ष्य की ओर यात्रा करनेवाला भी अनश्वर रहेगा।नश्वर को लक्ष्य बनाकर जीनेवला भी नश्वर ही होगा। इसलिए अनश्वर सनातन को अपनाकर स्वयंभू बनकर जन्म-मरण रहित नित्यसत्य रूपी परमात्मा होनेवाले अखंड बोध ही स्वयं है । इसको हर एक जीव आत्मज्ञान से मिलकर जानकर स्वयं  सब कुछ के ज्ञाता ,मानकर परम ज्ञान के स्वभाविक परमानंद रूप में विकसित करना चाहिए।

4498.अधिकांश  जीवात्मा अपने जीवन का लक्ष्य स्वयं ही है को न जानकर दूसरों की ओर देखकर जीते हैं। जब तक  अपने जीवन का लक्ष्य स्वयं ही है को नहीं  समझता है, तब तक दुख से पूर्ण विमोचन न मिलेगा। सभी लोकों में शरीर और संसार के परम कारण मैं है को अनुभव करनेवाले अखंड बोध में मृगमरीचिका की तरह उमडकर आनेवाले मिथया दर्शनों को ही देखना पडता है। यथार्थ मैं शरीर नहीं, शरीर को भी जाननेवाला जान आत्मा ही है। अर्थात्  शरीर में अंतर्यामी आत्मा    परमात्मा बना है। वह परमात्मा सर्वव्यापी है। वह निश्चलन निष्कलंक है। वह सर्वव्यापी होने से उससे मिले बिना एक चलन दृश्य हो नहीं सकता। कोई रूप बनने का साध्य नहीं। शरीर  सहित नाम रूप के प्रपंच सब मिथ्या है। शरीर,संसार वह बने कारण जानने के लिए कोई युक्ति नहीं है। वे  स्वयं अस्थिर मिथ्या दर्शन हैं। इसलिए अपने यथार्थ स्वरूप परमात्मा को स्वयं जानकर एहसास करने के साथ ईश्वर,ईश्वर सृष्टित प्रपंच रहस्य खुद प्रकट होगा। साथ ही भोधा अभिन्न जगत नामक अद्वैत अनुभूति परमानंद को स्वयं अनुभव करके वैसा ही स्थिर खडे रहेगा।

4499.भूलोक में मनुष्य जीवन दुःख से पूर्ण होने से दुख निवृत्ति के लिए मनुष्य संन्यासी जीवन अपनाता है। केवल वही नहीं, भूलोक जीवन, मनुष्य जन्म अपूर्व ही है। कारण मनुष्य जीवन सार्थक बनना कीचड से कमल खिलने के समान अज्ञान से आत्मज्ञान को आकर परमात्म स्थिति पाने की मदद  करने का मार्ग रूप ही मनुष्य शरीर है। यथार्थ संन्यास का मतलब है ईश्वर रहित और कुछ इह लोक,परलोक और चौदह लोकों में नहीं है के ज्ञान को,ईश्वर बोध रहित अहं बोध मात्र जीनेवाले लोगों को उनकी बुद्धि में दृढ बनाने का कार्य ही है। लोक सृष्टि के पहले ब्रह्म मात्र ही है जगत नहीं है इस बात को उपनिषद के कहने पर भी ब्रह्म को भूलकर प्रपंच रूपों को ही जीवात्मा चिंतन करती रहती है। वैसे चिंतन संकल्प के कारण होते हैं। संकल्प को त्याग किये बिना ब्रह्म की अनुभूति नहीं कर सकते। इसलिए संकल्प त्याग करना अलिखित कार्य नहीं है।इसीलिए सभी जीवात्मा संकल्प लोक में रहकर दुखी होते रहते हैं। इसीलिए दुख देनेवाले संकल्प से बाहर आने के लिए ही संन्यासी बनते हैं। संकल्प को विकास करने के लिए नहीं है। खुद देखनेवाला शरीर सहित लोक रूपों में ब्रह्म बोध को दृढ बनाने के साथ जीव भाव भूलकर मैं है को अनुभव करनेवाला अखंडबोध स्थिति को पाएगा। साथ ही बोध का सवभाविक परमानंद को स्वयं अनुभव करके वैसा ही प्रकाशित होना ही संन्यास है।

4500.इस लोक में अज्ञानता के कारण ही जीवन में दुखों का सामना करना पडता है। वही यथार्थ विवेकशील आदमी है, जो जिस ज्ञान के प्राप्त करने से मोक्ष मिलेगा,जीवन में सुख और शांति मिलेगी , नाना प्रकार के चिंतन कैसे  कर सकते हैं आद जानकारी प्राप्त करता है। उन्हें जाननेवाले ही यथार्थ माता पिता होते हैं। यथार्थ पति पत्नी होते हैं। उस ज्ञान का मतलब है मैं पंचभूत पिंजडे का शरीर नहीं है, यथार्थ मैं का मतलब है पंचभूत है के दृश्य को बनाकर उसे प्रकाशित करनेवाले चित स्वरूप होता है।  वह अखंड बोध है,परमात्मा है,परम ज्ञान है। ब्रहम है, इनको शास्त्र रूप में समझने के बाद मालूम होगा कि जड विषय वस्तुएँ विष है,उन्हें छोडकर सत्य,करुणा,सब्रता,संतोष,आनंद,धर्म,पुण्य इन सबको अमृत जैसे स्वीकार करके जीनेवालों को ही अनिर्वचनीय शांति,परमानंद,नित्य तृप्ति होंगी।

4501.मनुष्य अमृतस्वरूप होने पर भी मर जाता है। कारण शास्त्र परम प्रपंच को,आत्मा को शरीर और प्राण को विवेक से जानने की क्षमता नहीं है। विवेक होने पर ही ज्ञान होगा। विवेक होने पर ही समझ सकते हैं कि मैं अनश्वर आत्मा हूँ। प्रपंच को विवेक से देखते समय एहसास कर सकते हैं कि प्रपंच और आत्मा एक ही है। आत्मा रूपी स्वयं सर्वव्यापी होने से आत्मा से मिले बिना दूसरी एक वस्तु हो नहीं सकता। इसलिए उसमें दिखाई पडनेवाले नाम रूपों को आत्मा के सर्वव्यापकत्व लेकर अस्थिरता होती है। सर्वव्यापी एक वस्तु स्थिर रहते समय दूसरी एक वस्तु हो नहीं सकता। अर्थात् मैं अखंडबोध रूप परात्मा होने से मैं और प्रपंच परमात्मा ही है। अखंडबोध ही है। बोध मात्र ही है। यही यथार्थ उपनिषद सत्य है।

4502. बोधा अभिन्न जगत. जगत बोध ही है। बोध अर्थात आत्मा  सर्वव्यापी है। साधारण मनुष्य यह अनुभव नहीं करता कि मैं बोध हूँ। बोधानुभव नित्य आनंद है। मनुष्य अनुभव करता है कि मैं शरीर से बना हूँ। .मनुष्य यह एहसास नहीं करता कि आत्मबोध से आश्रित होकर ही वह  स्थिर खडा है। उसके बदले शारीरिक अभिमान। के मिथ्या अहंकार से मैं,मेरा  अपना कहकर  जीवन चलाता है। इस ब्रह्मांड में बोध को मात्र मैं है का अनुभव है। जड को मैं है का अनुभव नहीं है। शरीर से संकुचित खंड बोध को शरीर को भूलकर अखंडबोध स्थिति को पाना ही आत्म साक्षात्कार होता है। एक जीव अपने को अखंडबोध में साक्षात्कार करते समय बोध स्वभाव परमानंद सहज रूप में अनुभव कर सकते हैं। हर एक जीव वह अखंड बोध ही है।यहाँ एक अखंडबोध मात्र है। सर्वव्यापी निश्चल अखंडबोध सागर में उमडकर दीखनेवाले बुलबुले ही शररऔर प्रपंच के सभी नाम रूप। प्रपंच के सभी नाम रूपों में बोध भरे रहने से सरवत्र बोध रहित नामरूप अस्थिर हो जाते हैं। उदाहरण स्वरूप स्वर्ण चूडियों में संपूर्ण भाग सोने का हैं। स्वर्ण रहित चूडी नहीं बना सकता। बिना स्वर्ण के चूडिया का नाम नहीं है। उस स्वयं अस्थिर नाम रूप को माया कहते हैं।इस ब्रह्मांड के सभी नाम रूपों में स्वयं के बोध भरकर देखकर नाम रूपों को अस्थिर बनाकर सर्वत्र बोध ब्ह्म रूप में अनुभव करनेवाला ही ब्रह्म है। मैं नामक बोध भगवान नहीं तो ब्रह्मांड नहीं है। बोध भगवान नित्य सत्य होता है। नहीं कहने के लिए भी बोध चाहिए। बोध अनुभव स्वरूप है। पवित्र अनुभव ही भगवान है। रागद्वेष भेदबुद्धि के कलंक होते समय ही दुख का अनुभव होता है। इसलिए दुख देनेवाले तीनों कालों में रहित भद बुद्धि को राग-द्वेषों को तीनं कालों के बोध स्मरण से िटा देने पर बोधानुभव नित्य आनंद के रूप में स्वयं भोग सकते हैं। नित्य आनंद अनुभव ही भगवान है।

4503. साधारणतः किसीसे आप कौन है? के सवाल करने पर वह अपना नाम, अपना काम, अपने पिता का नाम, घर का पता आदि कहेगा। वे सब उसके शरीर को ही संकेत करेंगे। कारण शास्त्र परम हर एक जीव को पंचभूत पिंजडा शरीर नहीं है। शरीर का संचालन अअखंडबोध रूप परमात्मा ही करते हैं। लेकिन वह जीव पंचभूत प्रपंच माया के कारण यथार्थ स्वरूप को भूल जाता है। जीव अपने यथार्थ स्वरूप अखंड बोध को विस्मरण करता है। विस्मरण करने के कारण कर्ता माया कहाँ से? कब? कैसे आया ? न जानकर मनुष्य जीवन चला रहा है। काले बादल सूर्य को छिपाने के जैसे बोध शक्ति माया मन ही मैं नामक बोध को छिपा देता है। पूर्ण प्रकाश में अंधकार मिट जाने के जैसे आत्म स्मरण से आत्मा का सर्वव्यापकत्व पुनः पा सकते हैं। जीव आत्मबोध स्मरण लेकर परमात्म स्थिति पाने के साध माया मन पूर्णतः मिट जाएगा। किसीभी प्रकार के संकल्प के बिना तैल धारा जैसे आत्मबोध मन में होते समय जीव जीवभाव भूलकर अमृत स्वरूप स्थिति पाएगा।

4504. संन्यासी जीवन चाहनेवाले, वेदांत जीवन,आध्यात्मिक जीवन चाहनेवाले, ईश्वर की खोज करनेवाले, ईश्वर के दर्शन के पिपासावाले, सत्य की खोज करनेवाले आदि लोगों को यह जानना समझना है कि जो याचना करते हें,उस लक्ष्य पर दृढ रहना चाहिए। उनको ही दुख और निराशा होता है, जिनका लक्ष्य और कर्म भिन्न होते हैं। अपनी याचना को मात्र लक्ष्य बनाकर उसके लिए प्रयत्न करनेवाले जानना चाहिए कि ध्यान, वैराग्य , अभ्यास, प्रार्थना,यज्ञ-होम, उपासना,मंत्र जप देव संकल्प आदि कुछ भी न होने पर भी, पहले यह समझना चाहिए कि मैं मैं है का अनुभव करनेवाला बोध होने से ही सब कुछ होता है। बोध सदा स्थाई रूप में है।शाश्वत मैं नाम रूपों के साथ मिले पंचभूत पिंजडा शरीर नहीं है, मैं बोध रूप आत्मा समझना काफी है । शरीर से संकीर्ण बोध रूपी मैं यथार्थ में शरीर रहित अखंडबोध रूप आत्मा सर्वव्यापी है। इसलिए प्रपंच में मैं रूपी बोध सर्वत्र है,बोध रहित स्थान नहीं है। एक ही मैं नामक अखंडबोध मात्र ही नित्य सत्य रूप में है। अज्ञान निद्रा जागृत प्रपंच में नाम रूप जैसे कहाँ से आया? कहाँ खडा है? कहाँ रहित है? इनको न जाने कोई युक्ति रहित मिथ्या भ्रम मात्र ही है। भ्रम के कारण नजी स्वरूप विस्मृति है। वह यथार्थ स्वरूप अखंडबोध को तैल धारा जैसे जो विस्मरण नहीं करता है,उसको कोई माया भ्रम नहीं है। उसको बोध स्वभाव परमानंद अनुभव है। अर्थात् वह असीमित परमानंद रूप ही है।

4505. पुराणों में  जनक महाराजा एक आत्मज्ञानी थे। आत्मज्ञानी होकर भी वे शासक बनकर प्रसिद्ध राजा रहे। वे अपने को,संसार को,अपनी प्रजाओं को किस दर्शन में शासन किया है? वे यात्रा करते समय विविध दृश्य देखते थे। बीच में पहाड की गुफाओं से अदृश्य तपस्वियों के सिद्ध पुरुषों के कीर्तन सुनते थे। उसके फलस्वरूप  राजा को आत्मज्ञान मिला। दृष्टा और दृश्य के मिलने से दृष्टा को होनेवाले आनंद को आत्म शक्ति के रूप में जानकर उपासना करता है। दृष्टा,दृश्य,दर्शन,दर्शन करने की वासनाओं को एकत्र करके मिटाकर दर्शन के पहले प्रकाशित चैतन्य को मैं आत्म शक्ति जानकर उपासना करता है। अर्थात है या नहीं के बीच प्रकाश के प्रकाश चैतन्य को मैं आत्म शक्ति जानकर उपासना करते हैं। ऐसा ही जनक महाराज आत्म तत्व का एहसास किया था। राजा ने कई प्रकार से विचार किया और सोचा कि संसार की अस्थिरता, जगत में होनेवाले दुख, जीवन में हरेक मिनट संभव होनेवाले भ्रम, वस्तुओं की निरर्थकता, अस्थिर जीवन ,किस मिनट क्या होगा, आयु का अंत कब होगा,पता नहीं,। तब राजा के मन में ज्ञान वैराग्य हुआ। आत्म ज्ञान से शरीर और संसार को विवेक से जानकर शरीर और संसार के परम कारण मैं नामक अखंडबोध का महसूस करके प्रपंच स्वयं बने अखंड बोध से अन्य नहीं है, स्वयं और प्रपंच को एक ही अखंड बोध है। इस ज्ञान की दृढता में बोध रूपी अपने में उमडकर देखनेवाला प्रपंच, जीव अर्थात् समुद्र, उससे उमडकर आनेवाली लहरें , बुलबुले अन्य नहीं है, वैसे ही जनक महाराज का राज करते थे। जो सत्य को समझते हैं, या मैं ही सत्य जानते हैं उनको कमल के पत्ते पानी जैसे निस्संग रहने की आवश्यक्ता नहीं है। कारण उनमें इस ज्ञान की दृढता थी कि उनमें और प्रजा में कोई अंतर नहीं है। जनकमहाराजा को संग या निस्संग की जरूरत नहीं है। बोध रूपी स्वयं सर्वव्यापी है, स्वयं मात्र है, इसको जाननेवाले राजा को विजय-पराजय,अच्छा बुरा सब स्वयं ही है।

Wednesday, September 10, 2025

खिताब

 किताबी शिक्षा 

खिताबी शिक्षा 

सब अति सीमित।

 आत्मज्ञान और आत्मबोध से

अनुभव से शिक्षा 

 व्यवहारिक शिक्षा ही श्रैष्ठ।

जो काम करते हैं,अपने आप को समझकर 

अपने बुद्धि बल , शारीरिक बल धनबल

 जानकर ही कार्य में लगना है।

 अधपके ज्ञान से

 कोई कार्य करने पर

 सफलता असंभव।

 समाज के अध्ययन है

 पता चलता है कि

 केंपस साक्षात्कार में 

 जीतनेवाले अंत तक नौकरी करता है।

उनके सहपाठी स्नातकोत्तर नहीं 

पर कंपनी का मालिक बनता है।

खिताबी से गैर खिताबी

 विश्वविद्यालय की स्थापना,

शासक मंत्री बनता है।

जिला देश उनका सलाम करता है।

 तब पता चलता है

 भागय का फल।

अध्यापक ने जिसको नालायक बताया,

वह अध्यापक के बेटे का

 मालिक बन गया।

 यह सूक्ष्मता न जानने का फल

सबहीं नचावत राम गोसाईं।

अपना अपना भाग्य।

मध्य निषेद

 नशा मुक्त भारत।

 एस.अनंतकृष्णन, चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक 

११-९-२५.

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नशा मुक्त भारत 

 संभव है क्या?

 केवल नशीली वस्तुओं 

का नशा ही नशा नहीं।

वह तो व्यक्तिगत नशा

 उसको और उसके कुटुंब को नाश करता है।

पर सरकार को,

 शराब कारखाने के मालिक को, नौकरों को

दूकान दारों को

कितना लाभ प्रद है सोचिए।

दूसरे प्रकार की नशा

वेश्यागमन लाल दीप क्षेत्र।

तीसरे प्रकार की नशा अहंकार, काम क्रोध मंद लोभ।

चौथी नशा  देशोन्नति के बाधक।

भ्रष्टाचार और रिश्वत खोर।

सरकारी योजनाओं को 

 पूरा न करके रसीद बनाना।

न्याय का गला घोंटने रिश्वत लेना

ये नशाएँ  समाज को

 राष्ट्र को   व्यक्तिगत  जीवन को नाश कर देता है।

 नशा मुक्त भारत कैसे?

 चित्रपट पियक्कड़ को

 कथा नायक बनाता है।

 कालेज प्रोफेसर जो

पियक्कड़ है,

वह छात्रों के प्रिय बनता है।

ये राजनैतिक नेता बनते हैं।

लोक प्रिय कथा नायक पियक्कड़। धूम्रपान के कलाकार, उसके अनुचर भी वैसे।

 नशा मुक्त भारत 

व्यक्तिगत अनुशासन में है।

सोसियल मीडिया इनके साथ नहीं।

सरकार आमदनी के लिए 

 दूकान खोलती है।

 पियक्कड़ कहता है,

 मेरे न पीने पर सरकार दिवाला।

आज महिलाएं भी पीती है।

चिंता दूर करने,

खुशियाँ मनाने 

 पियक्कड़ पार्टी।

 दीपावली के दिन 

 हर साल लाखों करोड़ों की कमाई सरकार को।

वह प्रोत्साहित करती है।

यथा शासक तथा प्रजा।


 


Monday, September 8, 2025

सनातन वेद अनंत जगदीश्वर

 4486. जिन जड वस्तुओं को हम देखते हैं  उन सबकी खोज करके देखें तो वे सब आकाश  रूप में बदल जाएगा। ज्ञानी कहते हैं कि उस आकाश से वायु, वायु से अग्नि,अग्नि से पानी, पानी से भूमि, माया चित्त बनाये प्राणन परिवर्तन करते हैं। लेकिन प्राणन कैसे आकाश बनता है? आकाश कैसे वायु के रूप में बदलता है? वायु कैसे पानी बनता है?कौन ऐसा करता है?  कोई भी कह नहीं सकता । हैड्रज़न और आक्सिज़न मिलते समय पानी बनता है। वैसे ही गर्भ में रहनेवाले कण कैसे अनेक अंगों के बच्चे कैसे बना? यह भी किसीको मालूम नहीं है।  साधारण मनुष्य भी  कह सकते हैं कि  ये सब ईश्वर की लीला है।  वह भगवान कहाँ है? पूछने पर कह सकते हैं कि वह भगवान सर्वत्र विद्यमान है।  सर्वत्र रहनेवाले भगवान अपने से मिले बिना रह नहीं सकते। इसे भी सब कह सकते हैं। वैसे चिंतन करते समय मैं ही भगवान कह सकते हैं। वह मैं ,एक ही स्थान में रहनवाले नाम रूपों के शरी ही है? के पूछने पर तब मैं जवाब देगा कि आत्मा या बोध ही यथार्थ मैं है। क्या आत्मा शरीर में है? के प्रश्न का जवाब दे सकते हैं कि आत्मा अंदर भी नहीं है, बाहर भी नहीं है, सर्वव्यापी है। सर्वव्यापी को चलन नहीं है। चलन रहित कोई क्रिया या कर्म न चलेगा। परमात्मा रहित कोई स्थान न  होने से परमात्मा से मिले बिना और कुछ न होगा। जो बना-सा लगता है, शरीर और संसार , उन्हें देखनेवाले  अज्ञानी जीव के लिए सत्य है। देखनेवाले वस्तु को खोजनेवाले को जो कुछ देखता है, वे सब असत्य हैं। सब के सब रेगिस्तान की मृगमरीचिका के समान ही है। मैं है को अनुभव करनेवाले एक ही अखंडबोध मात्र ही नित्य, सत्य परमानंद रूप में प्रकाश देते रहते हैं।


4487.सामाजिक लोग आपस में,अडोस पडोस में,अन्य राज्यों में परसपर मिलते जुलते रहने पर भी भेद बुद्धि और रागद्वेष के साथ ही व्यवहार करते हैं। मनुष्य रहित अन्य जीव भी भले ही देव -देवी भी हो ,रूपवाले जीव जो भी हो उनमें भेद बुदधि और   राग-द्वेष होंगे ही। उनके कारण अनेक संग्राम,  सर्वत्र  सभी में होते रहते  हैं।  उसके कारण प्रपंच के विशेष बुद्धिवालों को न पहचानना ही है।  अन्य जीवों को परम कारण जानने, कई जन्म लेना पडेगा। सृष्टि में पंचभूत सीमित और असीमित ही होते हैं। हर एक जीव में असीमित आकाश का एक भाग है। वैसे ही वायु, अग्नि , पानी, भूमि सभी का एक भाग जीवों में होते हैं।

असीमित पंच भूतों के परिवर्तन ही हर एक जीव में रूप के होते हैं। वैसे ही परमात्मा के भाग ही हर एक जीव में आत्मा बनकर रहता है। अर्थात् सभी जीवों में एक रूपी सर्वव्यापी परमात्मा की शक्ति ही पंचभूत के रूप में ब्रह्मांड भर में रहनेवाले चलन -निश्चलन नाम रूप में हैं। वही परमात्मा और प्रकृति है ,वही शिवशक्ति है। वह शिव शक्ति ही प्रपंच  के रूप में है। हर एक जीव  में शिव और शक्ति जुडे हैं। आत्मा शिव है, पंचभूत शरीर शक्ति है। परमात्मा का प्रकट भाव ही प्रकृति है। अर्थात्  परमात्मा का स्वप्न ही प्रपंच है ।  परमात्मा स्वप्न देखना परमात्मा का अखंडबोध अपनी शक्ति माया लेकर अपने को छिपाकर बनाये निजी स्वरूप विसमृति में  ही प्रपंच रूपी स्वप्न स्थिर खडा रहता है। निजी स्वरूप अखंडबोध स्मृति में प्रपंच रूपी स्वप्न केवल मरीचिका ही है। इस तत्व को आत्मज्ञान से ही शास्त्र परम में समझ सकते है। आत्मज्ञानी को किसी भी काल में राग द्वेष भेद बुद्धि न होंगे। उनको एकात्मक दर्शन मात्र होगा। आत्मज्ञानम भूमि में भारताम पांबैयिन वरदान होगा। भारतीय लोग उनके जाने -अनजाने  अन्य देश के लोगों को स्नेह करने के निर्बंधन के पात्र बनना ही भारत का महत्व है।

४४८८4488. जो  कोई सत्य की खोज करता है, उसको खूब सही रूप में समझ लेना चाहिए कि  बोध और जड क्या है? इस बोध का मुख्यत्व है कि बोध से मिले बिना देखने, समझने, सुनने,अनुभव करने कुछ भी  साध्य नहीं है। इसे बुद्धि में सुदृढ बना लेना चाहिए। तभी निस्संदेह समझ सकते हैं कि इस रीति में जानकर महसूस करते समय अखंडबोध मात्र ही सर्वत्र विद्यमान है। दूसरी बोध से समझना  चाहिए कि ऋषियों ने जो चौदह लोक का आनंद बोध रूप देखा,वे परमात्मा के रूप ही है। तीसरी बात यह है कि नाम रूपों के सब जड ही है।उस जड को जीव है सा लगना उसके पीछे आत्म बोध होने से ही है। बोध से मिले बिना चलन जान नहीं सकते। चलन कहाँ स्थिर खडा है की खोज करने पर चलन के सभी भागों में बोध मात्र ही है को समझ सकते है्। जहाँ बोध है, वहाँ चलन नहीं हो सकता। कारण बोध अखंड निश्चलन वस्तु है। बोध स्वभाव आनंद है, जड स्वभाव दुख है। एक जीव अर्थात् प्रतिबिंब बोध जड वस्तुओं को स्वीकार करते समय पंचेंद्रियों से होनेवाले दुख जो भी हो जीव पर असर न डालेगा। केवल वही नहीं, अखंडबोध के स्वभाव अनिर्वचनीय शांति और आनंद को अनुभव करके सब जगह सभी जीव कर सकते हैं।

४८८९4489. एक अज्ञानी जीव पूर्ण स्वस्थ रहने पर मैं,मेरे के अहंकारी बनकर मेरे के भाव से दूसरों को द्रोह करेगा। उसी समय स्वास्थ्य और अधिकार नष्ट होते समय अहंकार  सिर तानकर खडे रह नहीं सकते। तभी आरोग्य काल में जो द्रोह किया,उनके कर्म फल पीछे पडेगा। उसे सहने की शक्ति चाहिए तो आत्म बोध में दृढ रहनेवाले से ही हो सकता है। वैसे लोग आये हुए दुखों को निस्संग अनुभव करेंगे। उसी समय आत्म बोध रहित अहं बोध में मात्र रहने पर नरक वेदना भोगनी पडेगी।

4990. एक जीव को सदा आनंद से रहना चाहिए तो आनंद स्वभाव अखंड बोध स्वयं ही है का एहसास करना चाहिए। स्वयं अखंडबोध ही है को दृढ बनाकर सदा आनंद रहेगा। अर्थात् सदा आनंद रहनेवाले को स्थितप्रतिज्ञ कहते हैं। शास्त्र रूप में प्रपंच सत्य समझना चाहिए तभी अनेक रूप में दीखनेवाले प्रपंच को एक रूप में दर्शन करके स्थित प्रज्ञ एक रूपी होनी चाहिए। प्रपंच सत्य माने प्रपंच है सा लगना। मैं है के अनुभव के बोध से ही। इस बोध में आदी अंत रहित सर्वव्यापी रूप में है।उसको जानना है तो यह अनुभव होना चाहिए कि अखंडबोध रूपी मैं ही सभी रूपों में सभी भागों में भरा रहता है। जहाँ भी जाए,वहाँ बोध ही रहेगा। सर्वत्र भरे अखंडबोध में अकारण उमडकर आए, एक बुलबुला ही अहंकार रूपी यह शरीर है।स्वयं देखनेवाले सभी रूप संकल्प से ही उत्पन्न हुए हैं। संकल्प नाश से सभी नाम रूप अस्त होते हैं। जब बोध विस्मरण करता है,तब संकल्प होता है। पुनः स्मरण करते समय संकल्प नाश होता है। साथ ही शरीर और संसार छिप जाता है। साथ ही अखंडबोध मात्र परमानंद स्वरूप में नित्य सत्य रूप में प्रकाशित हैं।

4486. जिन जड वस्तुओं को हम देखते हैं  उन सबकी खोज करके देखें तो वे सब आकाश  रूप में बदल जाएगा। ज्ञानी कहते हैं कि उस आकाश से वायु, वायु से अग्नि,अग्नि से पानी, पानी से भूमि, माया चित्त बनाये प्राणन परिवर्तन करते हैं। लेकिन प्राणन कैसे आकाश बनता है? आकाश कैसे वायु के रूप में बदलता है? वायु कैसे पानी बनता है?कौन ऐसा करता है?  कोई भी कह नहीं सकता । हैड्रज़न और आक्सिज़न मिलते समय पानी बनता है। वैसे ही गर्भ में रहनेवाले कण कैसे अनेक अंगों के बच्चे कैसे बना? यह भी किसीको मालूम नहीं है।  साधारण मनुष्य भी  कह सकते हैं कि  ये सब ईश्वर की लीला है।  वह भगवान कहाँ है? पूछने पर कह सकते हैं कि वह भगवान सर्वत्र विद्यमान है।  सर्वत्र रहनेवाले भगवान अपने से मिले बिना रह नहीं सकते। इसे भी सब कह सकते हैं। वैसे चिंतन करते समय मैं ही भगवान कह सकते हैं। वह मैं ,एक ही स्थान में रहनवाले नाम रूपों के शरी ही है? के पूछने पर तब मैं जवाब देगा कि आत्मा या बोध ही यथार्थ मैं है। क्या आत्मा शरीर में है? के प्रश्न का जवाब दे सकते हैं कि आत्मा अंदर भी नहीं है, बाहर भी नहीं है, सर्वव्यापी है। सर्वव्यापी को चलन नहीं है। चलन रहित कोई क्रिया या कर्म न चलेगा। परमात्मा रहित कोई स्थान न  होने से परमात्मा से मिले बिना और कुछ न होगा। जो बना-सा लगता है, शरीर और संसार , उन्हें देखनेवाले  अज्ञानी जीव के लिए सत्य है। देखनेवाले वस्तु को खोजनेवाले को जो कुछ देखता है, वे सब असत्य हैं। सब के सब रेगिस्तान की मृगमरीचिका के समान ही है। मैं है को अनुभव करनेवाले एक ही अखंडबोध मात्र ही नित्य, सत्य परमानंद रूप में प्रकाश देते रहते हैं।

4487.सामाजिक लोग आपस में,अडोस पडोस में,अन्य राज्यों में परसपर मिलते जुलते रहने पर भी भेद बुद्धि और रागद्वेष के साथ ही व्यवहार करते हैं। मनुष्य रहित अन्य जीव भी भले ही देव -देवी भी हो ,रूपवाले जीव जो भी हो उनमें भेद बुदधि और   राग-द्वेष होंगे ही। उनके कारण अनेक संग्राम,  सर्वत्र  सभी में होते रहते  हैं।  उसके कारण प्रपंच के विशेष बुद्धिवालों को न पहचानना ही है।  अन्य जीवों को परम कारण जानने, कई जन्म लेना पडेगा। सृष्टि में पंचभूत सीमित और असीमित ही होते हैं। हर एक जीव में असीमित आकाश का एक भाग है। वैसे ही वायु, अग्नि , पानी, भूमि सभी का एक भाग जीवों में होते हैं।

असीमित पंच भूतों के परिवर्तन ही हर एक जीव में रूप के होते हैं। वैसे ही परमात्मा के भाग ही हर एक जीव में आत्मा बनकर रहता है। अर्थात् सभी जीवों में एक रूपी सर्वव्यापी परमात्मा की शक्ति ही पंचभूत के रूप में ब्रह्मांड भर में रहनेवाले चलन -निश्चलन नाम रूप में हैं। वही परमात्मा और प्रकृति है ,वही शिवशक्ति है। वह शिव शक्ति ही प्रपंच  के रूप में है। हर एक जीव  में शिव और शक्ति जुडे हैं। आत्मा शिव है, पंचभूत शरीर शक्ति है। परमात्मा का प्रकट भाव ही प्रकृति है। अर्थात्  परमात्मा का स्वप्न ही प्रपंच है ।  परमात्मा स्वप्न देखना परमात्मा का अखंडबोध अपनी शक्ति माया लेकर अपने को छिपाकर बनाये निजी स्वरूप विसमृति में  ही प्रपंच रूपी स्वप्न स्थिर खडा रहता है। निजी स्वरूप अखंडबोध स्मृति में प्रपंच रूपी स्वप्न केवल मरीचिका ही है। इस तत्व को आत्मज्ञान से ही शास्त्र परम में समझ सकते है। आत्मज्ञानी को किसी भी काल में राग द्वेष भेद बुद्धि न होंगे। उनको एकात्मक दर्शन मात्र होगा। आत्मज्ञानम भूमि में भारताम पांबैयिन वरदान होगा। भारतीय लोग उनके जाने -अनजाने  अन्य देश के लोगों को स्नेह करने के निर्बंधन के पात्र बनना ही भारत का महत्व है।

४४८८4488. जो  कोई सत्य की खोज करता है, उसको खूब सही रूप में समझ लेना चाहिए कि  बोध और जड क्या है? इस बोध का मुख्यत्व है कि बोध से मिले बिना देखने, समझने, सुनने,अनुभव करने कुछ भी  साध्य नहीं है। इसे बुद्धि में सुदृढ बना लेना चाहिए। तभी निस्संदेह समझ सकते हैं कि इस रीति में जानकर महसूस करते समय अखंडबोध मात्र ही सर्वत्र विद्यमान है। दूसरी बोध से समझना  चाहिए कि ऋषियों ने जो चौदह लोक का आनंद बोध रूप देखा,वे परमात्मा के रूप ही है। तीसरी बात यह है कि नाम रूपों के सब जड ही है।उस जड को जीव है सा लगना उसके पीछे आत्म बोध होने से ही है। बोध से मिले बिना चलन जान नहीं सकते। चलन कहाँ स्थिर खडा है की खोज करने पर चलन के सभी भागों में बोध मात्र ही है को समझ सकते है्। जहाँ बोध है, वहाँ चलन नहीं हो सकता। कारण बोध अखंड निश्चलन वस्तु है। बोध स्वभाव आनंद है, जड स्वभाव दुख है। एक जीव अर्थात् प्रतिबिंब बोध जड वस्तुओं को स्वीकार करते समय पंचेंद्रियों से होनेवाले दुख जो भी हो जीव पर असर न डालेगा। केवल वही नहीं, अखंडबोध के स्वभाव अनिर्वचनीय शांति और आनंद को अनुभव करके सब जगह सभी जीव कर सकते हैं।

४८८९4489. एक अज्ञानी जीव पूर्ण स्वस्थ रहने पर मैं,मेरे के अहंकारी बनकर मेरे के भाव से दूसरों को द्रोह करेगा। उसी समय स्वास्थ्य और अधिकार नष्ट होते समय अहंकार  सिर तानकर खडे रह नहीं सकते। तभी आरोग्य काल में जो द्रोह किया,उनके कर्म फल पीछे पडेगा। उसे सहने की शक्ति चाहिए तो आत्म बोध में दृढ रहनेवाले से ही हो सकता है। वैसे लोग आये हुए दुखों को निस्संग अनुभव करेंगे। उसी समय आत्म बोध रहित अहं बोध में मात्र रहने पर नरक वेदना भोगनी पडेगी।

4990. एक जीव को सदा आनंद से रहना चाहिए तो आनंद स्वभाव अखंड बोध स्वयं ही है का एहसास करना चाहिए। स्वयं अखंडबोध ही है को दृढ बनाकर सदा आनंद रहेगा। अर्थात् सदा आनंद रहनेवाले को स्थितप्रतिज्ञ कहते हैं। शास्त्र रूप में प्रपंच सत्य समझना चाहिए तभी अनेक रूप में दीखनेवाले प्रपंच को एक रूप में दर्शन करके स्थित प्रज्ञ एक रूपी होनी चाहिए। प्रपंच सत्य माने प्रपंच है सा लगना। मैं है के अनुभव के बोध से ही। इस बोध में आदी अंत रहित सर्वव्यापी रूप में है।उसको जानना है तो यह अनुभव होना चाहिए कि अखंडबोध रूपी मैं ही सभी रूपों में सभी भागों में भरा रहता है। जहाँ भी जाए,वहाँ बोध ही रहेगा। सर्वत्र भरे अखंडबोध में अकारण उमडकर आए, एक बुलबुला ही अहंकार रूपी यह शरीर है।स्वयं देखनेवाले सभी रूप संकल्प से ही उत्पन्न हुए हैं। संकल्प नाश से सभी नाम रूप अस्त होते हैं। जब बोध विस्मरण करता है,तब संकल्प होता है। पुनः स्मरण करते समय संकल्प नाश होता है। साथ ही शरीर और संसार छिप जाता है। साथ ही अखंडबोध मात्र परमानंद स्वरूप में नित्य सत्य रूप में प्रकाशित हैं।

4491.  ऐसी मूर्खता पूर्ण बुद्धिवाले ही अधिकांश है कि आत्मसाक्षात्कार के लिए सत्य की खोज में भटकनेवाले भौतिक विषय सुखों को भोग नहीं सकते। लेकिन सत्य को लक्ष्य बनाकर जीनेवालों के पीछे ही सभी भौतिक सुखभोग आकर जुड जाते हैं। सत्य को भूलकर धन कमानेवालों से कई गुना धन सत्य दर्शी के पीछे आएगा। धन आए या न आए यथार्थ सत्यदर्शी पर कोई असर न पडेगा। कारण सभी भौतिक सुख माया पूर्ण है। माया सत्य दर्शी के सत्य पर आवरण डालने के संदर्भ की ओर ही चलती है। इसलिए यथार्थ सत्यदर्शी को भौतिक सुखभोग की आवश्यक्ता नहीं है। यथार्थ सत्यवादी जानता है कि भौतिक सुख स्वप्न सुख के समान है, जड सब तीनों कालों में रहित है। सत्य मात्र ही एक वस्तु है,जो परमानंद स्वभाव के हैं। वह  मैं है को भोगनेवाला अखंडबोध है।

4492.जब जग की सृष्टि हुई, तब से परम कारक परमात्मा सत्य दर्शी के रूप लेकर भूलोक में आकर
सत्य को बताने पर भी असत्य संसार को सत्य मानकर जीनेवाले ही संसार में अधिकांश लोग होतै हैं।
जीवन में सत्य माने प्रपंच रहस्य जानना है। प्रपंच रहस्य को कैसे जानना है? एक स्वर्ण आभूषण की दूकान में स्वर्ण आभूषण होते हैं। जब दूकानदार दूकान खोला,तब उसके पास सौ किलो सोने का कच्चा सोना थे। दूकानदार ने एक सुनार के द्वारा नाना प्रकार के आभूषण बनवाया। उस व्यापारी का उद्देश्य केवल धन कमाना था। लेकिन ग्राहक के मन में आभूषण खरीदने के चिंतन ही रहेंगे। वैसे ही शरीर के और संसार के आधार परम कारण परमात्मा और प्रपंच सत्य को मात्र जानने के इच्छुक के मन में सत्य का एक चिंतन मात्र रहेगा। वैसे लोग सत्यबोध लेकर प्रपंच रूपी नानात्व को विस्मरण कर देते हैं। विविधता को भूलकर एक विषय को मात्र लक्ष्य बनाने पर मन सम दशा पाता है। जो मन को सम स्थिति पर लाता है,उसे ही योगी,ज्ञानी,स्थितप्रज्ञ कहते हैं। एक मात्र विषय पर ध्यान देनेवाले को ही योग्यता है कि नित्यआनंद,कर्म विमोचन,दुखनिवृत्ति सर्व स्वतंत्र और परम शांति भोगना। अनेक विषयों को देखनेवालों को जीवन में स्थाई दुख मिलेगा।

4493. ईश्वर प्रकृति ही प्रपंच है,ईश्वर रूप,ईश्वर स्वभाव  ही  प्रपंच है। ईश्वर को कोई रूप रंग नहीं है। जिसका रूपरंग है, वह  सर्वव्यापी नहीं हो सकता।ईश्वर सर्वव्यापी बनकर अपने सर्वव्यापकत्व को स्थिर रखकर एक जादूगर के जैसे जो प्रपंच नहीं है, शून्य में बनाकर दिखाता है। वह पानी रहित रेगिस्तान में मृगमरीचिका जैसे हैं। रेगिस्तान में मृगमरीचिका रेगिस्तान बनाता नहीं है। लेकिन रेगिस्तान में पानी के जैसे भ्रम है। वैसे ही ईश्वर रूपी परमात्मा बने अखंडबोध अपनी शक्ति को प्रयोग करके अर्थात् अपनी माया को उपयोग करके स्वयं निर्विकार, निश्चलन,निष्क्रिया, सर्वव्यापी रहकर प्रपंच बनाकर दिखाता है। वह कैसे है के पूछने पर अपर प्रकृति मन,बुद्धि, प्राणन पंचेंद्रिय, प्रतिबिंब बोध जीव,नामक पराप्रकृति से मिला है प्रपंच। पंचभूत सब जड कर्म चलन स्वभाव से मिला है। निश्चलन अखंड बोध में कोई चलन न होगा। चलन होने से लगना अखंडबोध में स्वयं उमडकर आये अहंकार के परिवर्तन ही है। मैं नामक अहंकार का बढना ही मन,अंतःकरण,पंचेंद्रिय अर्थात् शरीर सब। सत्य में अहंकार उमडकर आता नहीं है। लेकिन लगता है कि उमडकर आता है। यह परसपर विरोध भगवद् शक्ति माया बनाकर दिखानेवाले रहित वस्तुएँ ही हैं। ये सब है दिखाने की युक्ति किसी में नहीं है। कारण सर्वस्वतंत्र रूप निश्चलन अखंडबोध भगवान में जो भी दृश्य बनते हैं, वह भगवान रहित और कुछ नहीं बन सकता। कारण बोध से मिले बिना कोई वस्तु बन नहीं सकता। जो कोई एक रूप अखंडबोध को मात्र दर्शन करता है, या अनुभव करता है, वह माया को जीतेगा। जो दो देखता है,वह जनन-मरण माया दुख से बाहर  आ नहीं सकता। दुख से मुक्ति पाने एहसास करना चाहिए कि ईश्वर रूपी मै मा

मात्र है।

4494. जो भी वेदांत शास्त्र हो, दुख विमोचन के प्रायश्चित्त के रूप में भगवद् उपदेश संपूर्ण रूप में भगवान से शरणागति होना है। पहले जानना चाहिए कि भगवान कौन है और कैसे शरणागति पाना है? समझना चाहिए कि प्रपंच सत्य क्या है?
यह भी समझते नहीं है कि प्रपंच सत्य को खोजनेवाले प्रपंच के मूलकारण ईश्वर जानकर भी ईश्वर से मिले बिना अर्थात् मैं नामक अखंडबोध से मिले बिना स्थिर खडा रह नहीं सकता। अर्थात् ईश्वर सत्य से ही पहले दर्शन देते हैं। जो कोई अपने यथार्थ स्वरूप परमात्मा को अर्थात अखंडबोध को लक्ष्य बनाकर जीवात्मा को परमात्मा के रूप में साक्षातकार करता है, वही परमशांति और परमानंद  अनुभव कर सकता है।

4495.  राज्य जो भी हो,देव जोभी हो, मनुष्य का स्तर जैसा भी हो, आराधना,प्रार्थना ध्यान पद्धतियाँ जैसी भी हो एक मात्र लक्ष्य है ईश्वर । एहसास करना चाहिए कि वह ईश्वर मैं है के अनुभव करन्ने का बोध है।वह बोध अखंड है। निश्चल,निर्विकार ,निष्क्रिय,निर्मल,सर्वव्यापी, निराकार, अपरिवर्तनशील ,परमनंद स्वभाव,परमशांति स्वरूप, जन्म मरण रहित स्वयंभू, सत्य वस्तु आदि का जब तक एहसास नहीं करता, तब तक दुख से मुक्ति नहीं पा सकता। अर्थात् हर एक जीव अखंडबोध स्वरूप है, वह अखंडबोध परमानंद निश्चल सागर है, उनमें स्वयं उमडकर आयी बोध शक्ति अवतार ही जीव रूपी मैं है, जब ये बातें समझ में आती हैं,तभी माया बडा चढाकर दिखानेवले प्रपंच रूपी इंद्रजाल नाटक में प्रवेश न करके अपने यथार्थ स्वभाव परमानंद को पुनः पा सकते हैं।

Saturday, September 6, 2025

राष्ट्रीय वन्य दिवफस प्रगति के मार्ग

: राष्ट्रीय वन्यजीव दिवस+++++++++++++++

एस. अनंत कृष्णन, चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक 

5-9-25

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राष्ट्रीय वन्यजीव दिवस 

4सितंबर को हर साल,

वन्यजीव के नाश होने से

बचाने, वन्य पेड़ पौधे की

सुरक्षा करने मनाया जाता है।

इतिहास के पन्नों में,

मंदिर के शिल्पों  में भी भी ऐ

जितने जीवराशियाँ हैं 

 उन्हें देखना है मुश्किल।

अतः जो जीव हैं 

 उन्हें बचाने वन्यजीव दिवस।

गैर कानूनी तरीके से

 शिकार करना, जंगली पेड़ पौधों को काटना

 मना है।

 वन संपदा  की सुरक्षा

पर्यावरण का संतुलन,

मोसमों का समय पर 

आना, वर्षा होना

 आदि के लिए 

 वन्य जीव और वनस्पति की सुरक्षा आवश्यक है।

वन्यजीव में शाकाहारी,

माँसाहारी चतुर चालाक 

 अनेक प्रकार के होते हैं।


 प्रगति के मोती

एस.अनंतकृष्णन, चेन्नई 

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प्रगति के लिए 

प्रथम मोती

 स्वास्थ्य रक्षा।

 स्वास्थ्य के लिए 

 योगा, प्राणायाम।

फिर  मानसिक चंचलता 

 दूर होने  ध्यान।

प्रगति के लिए आत्मचिंतन,

आत्मपरिशीलन।

काम क्रोध मंद लोभ ईर्ष्या

भय आदि से बचना।

 सत्संग में लगना।

आत्मज्ञान प्राप्त करने की

कोशिश में दिल लगाना।

  राग द्वेष  रहिऊ  तटस्थ जीवन ।

सत्य का पालन,

ईमानदारी जीवन।

भ्रष्टाचार न करना,

संक्षेप में कहना है तो

मानवता निभाना।

प्रशंसनीय काम करना।

अपने लक्ष्य की ओर जाना।

उपलक्ष्य लक्ष्य पाने में बाधा।

 ज्ञानार्जन में ही लगना।

Sunday, August 31, 2025

सनातनवेद

 4476. जगत मिथ्या,ब्रह्म सत्यं अद्वैत सिद्धांत के ये शब्द के कहने मात्र से जीव  ब्रह्म के स्वभाविक  परमानंद को  अनुभव नहीं कर सकते। मिथ्या प्रपंच के बदले सत्य प्रपंच ही प्रत्यक्ष देखते हैं। यहीं से जीव को संदेह शुरु होता है। संदेह रहित जीना है तो अहं ब्रह्मास्मी के वाक्य को साक्षात्कार करना चाहिए। साक्षात्कार करने के लिए सत्य की खोज अवश्य करनी चाहिए। जो सत्य को लक्ष्य बनाकर या आत्मा को लक्ष्य बनाकर  या ईश्वर का लक्ष्य बनाकर जीनेवाले को ही मैं ब्रह्म हूँ का साक्षात्कार करके अपने स्वभाविक ब्रह्मानंद को भोग सकते हैं। जीव जो भी हो, भगवान का लक्ष्य करके न जीने पर दुख ही होगा। ईश्वर की माया विलास जानना चाहें तो स्वयं ही भगवान है का एहसास करना चाहिए। उसके लिए मार्ग वेदांत मार्ग है। वेदांत ज्ञान ही आत्मज्ञान है। वह अपने निजी  स्वरूप ज्ञान है। स्वरूप ज्ञानवाला नित्य आनंद का होगा। स्वरूप ज्ञान न हो तो दुख का मोल लेनेवाला होगा।


4477. जो जीवन को दुरित पूर्ण सोचते हैं,और निरंतर दुख का अनुभव करते हैं,उनको समझना चाहिए कि ईश्वरीय स्वभाव आनंद अपने अंतरात्म का स्वभाव है।यही शास्त्रसत्य है।कारण खुद खोज किये बिना श्रवण ज्ञान से मात्र ज्ञान बुदधि में दृढ नहीं होगा। आनंद का निवास स्थान अपनी अहमात्मा ही है, इसको मन में दृढ बना लेना चाहिए। तब तक आनंद की खोज मानव करता रहेगा। अर्थात् पहले अपने अंतरात्मा से अन्य कोई भगवान कहीं नहीं है। अपने अंतरात्मा के रूप में निश्चल ,सर्वव्यापि परमात्मा रूपी अखंडबोध स्वरूप है। उस अखंडबोध को मात्र यथार्थ सत्य होता है, वह सत्य ही मैं वह सत्य ही अपने स्वभाविक आनंद है।  जब इन सब का एहसास करना चाहिए। तभी दुख विमोचन होगा।

4478. सब  इस बात को जानते हैं कि ब्रह्म से अन्य कोई वस्तु नहीं है। वैसे सर्वदित बात है कि ब्रह्म जन्म नहीं लेते और मरते भी नहीं है, ब्रह्म नित्य है,ईश्वर का स्वभाव परमानंद है। वैसे भगवान अपने से अन्य नहीं है, जो विवेकी इसका एहसास करता है, वही स्वयं को ब्रह्म मानकर चल सकता है। मैं  ही भगवान  है को स्थिर बनाने के लिए  आत्मज्ञान पूर्ण रूप में  सीखना चाहिए।  कारण स्वयं  जिसको खोजते हैं, उसका मूल भी आनंदमय होता है।  वह आनंद आत्म स्वभाव मात्र है। इसका अनुभव करना है तो आत्मबोध रहित शरीर और संसार को विसंमरित स्थिति में रहनेवाले आत्मबोध अनुभव होना चाहिए। वैसे बोध रूप आत्मा को पूर्ण रूप में साक्षात्कार करते समय ही स्वयं ही भगवान का अनुभव होगा। सर्वस्व अनुभव स्वरूप ही है। दुख अनुभव रहित परमानंद नित्य अनुभव स्थिति ही भगवद स्थिति है। वह दुख पार करके न आनेवाला दिव्य राज्य है।

4479. दिव्य विचार मनुष्य के लौकिक भोग सुख भोग  रहित की ग़लतफ़हमी साधारणतः सबके मन में है। लेकिन वह सत्य नहीं है।  जीव को   समझना चाहिए कि जितने दिव्य विचार होते हैं,उनसे अनेक गुना भौतिक ऐश्वर्य उसकी खोज में आएगा।
जो जीव अंतर्मुखी आत्मा की ओर जाता है, भौतिक ऐश्वर्य उसके आत्म विचार पर बाधा डालकर विषय चिंतन की ओर अनायास से खींचकर ले जाएगा। तब मिलने वाले भौतिक ऐश्वर्य पूर्णतः मिट जएगा। केवल  वही नहीं,यह भी समझ लेना चाहिए कि  भौतिक  सुख सब स्फुरण ही है। तब  इसको समझते हैं ,तब उसकी आत्मा  उसको गले लगाएगा। जिसको शारीरिक चिंतन है, वह सदा मार्ग न जानकर दुखी रहेगा। कारण वे असत्य अहंकार से आश्रित ही सब कार्य करते हैं। अतः समझनाा चाहिए  कि सभी आनंद सत्य के कारण ही स्थिर रहता है।जो अपने को सत्य समझ लेता है, अपने को आश्रित ही ब्रह्मांड रहता है का एहसास करता है, उनमें  अन्य यादें नहीं होंगी। अन्य चिंतन रहित, स्मरण रहित जीवन ही परमानंद जीवन है। मैं नामक सत्य न तो कुछ भी नहीं है। मैं नामक सत्य मात्र है। वही नित्य है।
4480. भूलोक में जिंदगी बिताकर मानसिक संतोष के साथ शरीर तजकर जानेवाले विरले ही होंगे। अधिकांश लोग बिना संतोष के ही जीवन बिताकर शरीर छोडकर जाते हैं। उसके कारण की खोज करने  पर उनमें कोई भी शास्त्र परम प्रपंच सत्य समझते नहीं है। विषय इच्छाएँ और विषय चिंतन लेने उनको समय नहीं मिलता। उसकी कोशिश भी नहीं करता। जो कोई प्रपंच सत्य को समझता है, वही आत्मसंतोष से जी सकता है। वैसे लोगों को मृत्यु भय नहीं है। कारण यहाँ कोई मरता नहीं है। कोई जन्म लेता नहीं है। यही शास्त्र सत्य है। इसको जानना है तो नित्य अनित्य विवेक होना चाहिए। नित्य होना ईश्वर है।वह ईश्वर मनुष्य शरीर में उसकी आत्मा बनकर रहता है। इसलिए आत्मा ही सत्य-नित्य है। यह आत्मा सर्वत्र निराकार रूप में व्यापित है। इसलिए उससे प्रपंच चलन न होगा। लेकिन उसमें उसमें नाम रूप दृश्य होने सा लगता है। वह तो भ्रम है,जैसे रस्सी को साँप समझना। यही उपनिषद का सत्य है । इसलिए यह शरीर और संसार रस्सी को साँप समझने के जैसे मिथ्या है। असत्य है। त्रिकालों में रहित है। शरीर मिथ्या है, आत्मा सत्य है। यह एहसास ही नित्य संतोष होगा। नित्य संतोषी ही भगवान है। ईश्वर से मिले बिना कुछ भी नहीं है। वह भगवान ही मैं है का अनुभव करनेवाला अखंडबोध है।

4481. शाश्वत के बारे में मात्र यथार्थ में बोल नहीं सकते। लेकिन उसके बारे में बोलते समय अस्थिर शरीर और संसार के बारे में बोलनेवाले शब्द अस्थिर हो जाएँगे। सत्य मात्र शाश्वत रहेगा। वह सत्य ही मैं है का अनुभव करनेवाले अखंडबोध होता है। उसका स्वभाव ही परमानंद है। परमानंद स्वभाव से मिले अपने निजी स्वरूप के अखंड को अपनी शक्ति माया के कारण विस्मरण करते समय संसार और शरीर के दृश्य दीखते हैं। उन दृश्यों को सत्य मानकर विश्वास करके जीने के कारण दुख होते हैं। उन दुखों से विमोचन चाहने पर अपने यथार्थ स्वरूप अखंड बोध को निरंतर स्मरण करना चाहिए।

4482. भौतिक सुख की इच्छा से जीनेवाले लोगों से उनके बुढापे में  उनसे आप के बुढापे का जीवन संतुष्ट  है ? के प्रश्न पूछने पर  कहेंगे कि असंतुष्ट है। पूर्ण संतुष्ट है कहनेवाले विरले ही होंगे। उनको मालूम नहीं है कि शास्त्र सत्य क्या है? स्वयं कौन है।जो शास्त्र सत्य जानता है, वही परम कारण जानता है, वही कह सकता है कि मैं अपने जीवन में नित्य संतुष्ट हूँ। शास्त्र सत्य का मतलब है 1. इसे एहसास करना है कि  मैं आदी-अंत रहित अनादी ,अनंत,आकाश जैसे अरूप,स्वयं प्रकाश स्वरूप स्वयं अनुभव आनंद स्वरूप, स्वयंभू,सर्वव्यापी, निश्चलन, अखंडबोध रूप परमात्मा हूँ। 2. बनकर मिटनेवाले त्रिकालों में रहित आत्म बोध को भ्रमित करनेवाले माया दर्शन शरीर, सहित के यह जड प्रपंच को जानकर बुद्धि में दृढ बना लेना चाहिए।जो जीव इस ज्ञान दृढता में रहता है कि मैं है को अनुभव करनेवाले बोध सत्य मात्र ही हमेशा सनातन धर्म में है,वही नित्य संतुष्ट रह सकता है। यही शास्त्र सत्य है।

4483. जिंदगी का रहस्य यही है कि आनंद मय आत्मा को आनंद रहित बनानेवाले अज्ञान रूपी कर्म को कैसे मिटाना चाहिए। यह ज्ञान बुद्धि में दृढ होने पर ही आत्म स्वभाव आनंद को स्वयं एहसास करके अनुभव कर सकते हैं। स्वयं सर्वव्यापी होने से सर्वव्यापी जन्म नहीं ले सकते। जन्म न लेने से उसको मृत्यु भी नहीं है। आत्मा रूपी अपने को जन्म मरण नहीं है। केवल वही नहीं स्वयं है को अनुभव करनेवाले निश्चल अखंडबोध वस्तु ही मैं है का खूब एहसास करना चाहिए। उसके बाद ही सर्वव्यापी और सर्वस्व होने से उसमें से दूसरी एक उत्पन्न न होगा को दृढ बना सकते हैं। सर्वव्यापी निश्चलन आत्मा में एक चलन प्रपंच बोध के लिए दीखनेवाले एक भ्रम है,इसको बुद्धि में दृढ बना लेना चाहिए। लेकिन प्रपंच है सा लगता है। वैसे दृश्य अपने यथार्थ पूर्ण स्वरूप ज्ञान के आवर्तन स्मरण लेकर मात्र ही मिटा सकते हैं। और किसी मार्ग से आसानी से माया को जीत नहीं सकते।

4484.  आकाश जैसे अपनी स्थिति न बदलकर अपने सर्वव्यापकत्व  मिटे बिना सूर्य और चंद्र नक्षत्र और भूमि सभी नाम रूप जो स्थिर खडे रहने से लगता है, उन  दृश्यों के सभी नाम रूपों के मूल की खोज करने पर सभी नाम रूप आकाश मय  रूप में बदल जाएगा। वैसे ही आकाश सहित पंचभूत सबकी खोज करने पर वे सब बोध मय रूप में बदलेगा। वह बोध अपरिवर्तन शील अखंड रूप में रहता है। जब वह  अपरिवर्तन शील अखंडबोध स्वयं ही है का एहसास करता है,तब माया रूपी नाम रूप दुख से विमोचन होगा।

4485. प्रपंच भर में अपनी प्रकृति है। कारण नहीं तो प्रकृति यहाँ नहीं रहेगी। केवल वही नहीं स्वयं देखनेवाले  वस्तु जो भी हो अपने से मिले बिना स्थिर नहीं रह सकता। स्वयं खोज करके देखने पर स्वयं स्थिर खडे रहने पर ही सबको स्वयं स्थिर खडे रहने पर ही सबको सथिरता है को समझ सकते हैं। यथार्थ मैं अर्थात शरीर के अंग,प्रत्यंग जाननेवाले ज्ञान बोध बने अपने से मिले बिना स्वयं वस्तुओं के दर्शन नहीं कर सकते। कारण समुद्र की लहरें, बुलबुले  आदि समुद्र के बिना और  कुछ नहीं हो सकते। वैसे ही मैं नामक अखंड बोध में स्वयं के बिना दूसरा कुछ नहीं बन सकता। जब इस अद्वैत बोध के विस्मरण होता है, तब द्वैत,द्वैत से होनेवाले दुख, भेद बुद्धि ही माया है। आत्मज्ञान से भेदबुद्धि बदलने के साथ माया बदलेगी।माया के बदलते ही दुख आनंद में बदलेगा।

मानवता

 मानवता का सच्चा ज्ञान 

एस .अनंतकृष्णन, चेन्नई 

 मानव वास्तव में जानवर।

पाषाण युग में उसका जीवन  पशु तुल्य।

 मानव में मानवता आयी।

वह श्रेष्ठ बना, महान बना।

 मानवता का मतलब है,

 मलमास साहस।

 परोपकार,

धर्म पालन।

 दया, दान शीलता।

करुणा मूर्ति, 

 समाज सेवक,

 सहकारिता, 

  वेदाध्ययन,

  ईमानदारी 

  कर्तव्य पालन।

सत्य पालन

 वचन का पालन।

अस्तेय। 

काम, क्रोध,मद,लोभ

 रहित  व्यक्तित्व,

देश भक्ति,

 मातृभाषा प्रेम ,

 

मानवता का सच्चा ज्ञान।

एस.अनंतकृष्णन, चेन्नई तमिलनाडु