4486. जिन जड वस्तुओं को हम देखते हैं उन सबकी खोज करके देखें तो वे सब आकाश रूप में बदल जाएगा। ज्ञानी कहते हैं कि उस आकाश से वायु, वायु से अग्नि,अग्नि से पानी, पानी से भूमि, माया चित्त बनाये प्राणन परिवर्तन करते हैं। लेकिन प्राणन कैसे आकाश बनता है? आकाश कैसे वायु के रूप में बदलता है? वायु कैसे पानी बनता है?कौन ऐसा करता है? कोई भी कह नहीं सकता । हैड्रज़न और आक्सिज़न मिलते समय पानी बनता है। वैसे ही गर्भ में रहनेवाले कण कैसे अनेक अंगों के बच्चे कैसे बना? यह भी किसीको मालूम नहीं है। साधारण मनुष्य भी कह सकते हैं कि ये सब ईश्वर की लीला है। वह भगवान कहाँ है? पूछने पर कह सकते हैं कि वह भगवान सर्वत्र विद्यमान है। सर्वत्र रहनेवाले भगवान अपने से मिले बिना रह नहीं सकते। इसे भी सब कह सकते हैं। वैसे चिंतन करते समय मैं ही भगवान कह सकते हैं। वह मैं ,एक ही स्थान में रहनवाले नाम रूपों के शरी ही है? के पूछने पर तब मैं जवाब देगा कि आत्मा या बोध ही यथार्थ मैं है। क्या आत्मा शरीर में है? के प्रश्न का जवाब दे सकते हैं कि आत्मा अंदर भी नहीं है, बाहर भी नहीं है, सर्वव्यापी है। सर्वव्यापी को चलन नहीं है। चलन रहित कोई क्रिया या कर्म न चलेगा। परमात्मा रहित कोई स्थान न होने से परमात्मा से मिले बिना और कुछ न होगा। जो बना-सा लगता है, शरीर और संसार , उन्हें देखनेवाले अज्ञानी जीव के लिए सत्य है। देखनेवाले वस्तु को खोजनेवाले को जो कुछ देखता है, वे सब असत्य हैं। सब के सब रेगिस्तान की मृगमरीचिका के समान ही है। मैं है को अनुभव करनेवाले एक ही अखंडबोध मात्र ही नित्य, सत्य परमानंद रूप में प्रकाश देते रहते हैं।
असीमित पंच भूतों के परिवर्तन ही हर एक जीव में रूप के होते हैं। वैसे ही परमात्मा के भाग ही हर एक जीव में आत्मा बनकर रहता है। अर्थात् सभी जीवों में एक रूपी सर्वव्यापी परमात्मा की शक्ति ही पंचभूत के रूप में ब्रह्मांड भर में रहनेवाले चलन -निश्चलन नाम रूप में हैं। वही परमात्मा और प्रकृति है ,वही शिवशक्ति है। वह शिव शक्ति ही प्रपंच के रूप में है। हर एक जीव में शिव और शक्ति जुडे हैं। आत्मा शिव है, पंचभूत शरीर शक्ति है। परमात्मा का प्रकट भाव ही प्रकृति है। अर्थात् परमात्मा का स्वप्न ही प्रपंच है । परमात्मा स्वप्न देखना परमात्मा का अखंडबोध अपनी शक्ति माया लेकर अपने को छिपाकर बनाये निजी स्वरूप विसमृति में ही प्रपंच रूपी स्वप्न स्थिर खडा रहता है। निजी स्वरूप अखंडबोध स्मृति में प्रपंच रूपी स्वप्न केवल मरीचिका ही है। इस तत्व को आत्मज्ञान से ही शास्त्र परम में समझ सकते है। आत्मज्ञानी को किसी भी काल में राग द्वेष भेद बुद्धि न होंगे। उनको एकात्मक दर्शन मात्र होगा। आत्मज्ञानम भूमि में भारताम पांबैयिन वरदान होगा। भारतीय लोग उनके जाने -अनजाने अन्य देश के लोगों को स्नेह करने के निर्बंधन के पात्र बनना ही भारत का महत्व है।
४४८८4488. जो कोई सत्य की खोज करता है, उसको खूब सही रूप में समझ लेना चाहिए कि बोध और जड क्या है? इस बोध का मुख्यत्व है कि बोध से मिले बिना देखने, समझने, सुनने,अनुभव करने कुछ भी साध्य नहीं है। इसे बुद्धि में सुदृढ बना लेना चाहिए। तभी निस्संदेह समझ सकते हैं कि इस रीति में जानकर महसूस करते समय अखंडबोध मात्र ही सर्वत्र विद्यमान है। दूसरी बोध से समझना चाहिए कि ऋषियों ने जो चौदह लोक का आनंद बोध रूप देखा,वे परमात्मा के रूप ही है। तीसरी बात यह है कि नाम रूपों के सब जड ही है।उस जड को जीव है सा लगना उसके पीछे आत्म बोध होने से ही है। बोध से मिले बिना चलन जान नहीं सकते। चलन कहाँ स्थिर खडा है की खोज करने पर चलन के सभी भागों में बोध मात्र ही है को समझ सकते है्। जहाँ बोध है, वहाँ चलन नहीं हो सकता। कारण बोध अखंड निश्चलन वस्तु है। बोध स्वभाव आनंद है, जड स्वभाव दुख है। एक जीव अर्थात् प्रतिबिंब बोध जड वस्तुओं को स्वीकार करते समय पंचेंद्रियों से होनेवाले दुख जो भी हो जीव पर असर न डालेगा। केवल वही नहीं, अखंडबोध के स्वभाव अनिर्वचनीय शांति और आनंद को अनुभव करके सब जगह सभी जीव कर सकते हैं।
४८८९4489. एक अज्ञानी जीव पूर्ण स्वस्थ रहने पर मैं,मेरे के अहंकारी बनकर मेरे के भाव से दूसरों को द्रोह करेगा। उसी समय स्वास्थ्य और अधिकार नष्ट होते समय अहंकार सिर तानकर खडे रह नहीं सकते। तभी आरोग्य काल में जो द्रोह किया,उनके कर्म फल पीछे पडेगा। उसे सहने की शक्ति चाहिए तो आत्म बोध में दृढ रहनेवाले से ही हो सकता है। वैसे लोग आये हुए दुखों को निस्संग अनुभव करेंगे। उसी समय आत्म बोध रहित अहं बोध में मात्र रहने पर नरक वेदना भोगनी पडेगी।
4990. एक जीव को सदा आनंद से रहना चाहिए तो आनंद स्वभाव अखंड बोध स्वयं ही है का एहसास करना चाहिए। स्वयं अखंडबोध ही है को दृढ बनाकर सदा आनंद रहेगा। अर्थात् सदा आनंद रहनेवाले को स्थितप्रतिज्ञ कहते हैं। शास्त्र रूप में प्रपंच सत्य समझना चाहिए तभी अनेक रूप में दीखनेवाले प्रपंच को एक रूप में दर्शन करके स्थित प्रज्ञ एक रूपी होनी चाहिए। प्रपंच सत्य माने प्रपंच है सा लगना। मैं है के अनुभव के बोध से ही। इस बोध में आदी अंत रहित सर्वव्यापी रूप में है।उसको जानना है तो यह अनुभव होना चाहिए कि अखंडबोध रूपी मैं ही सभी रूपों में सभी भागों में भरा रहता है। जहाँ भी जाए,वहाँ बोध ही रहेगा। सर्वत्र भरे अखंडबोध में अकारण उमडकर आए, एक बुलबुला ही अहंकार रूपी यह शरीर है।स्वयं देखनेवाले सभी रूप संकल्प से ही उत्पन्न हुए हैं। संकल्प नाश से सभी नाम रूप अस्त होते हैं। जब बोध विस्मरण करता है,तब संकल्प होता है। पुनः स्मरण करते समय संकल्प नाश होता है। साथ ही शरीर और संसार छिप जाता है। साथ ही अखंडबोध मात्र परमानंद स्वरूप में नित्य सत्य रूप में प्रकाशित हैं।
4486. जिन जड वस्तुओं को हम देखते हैं उन सबकी खोज करके देखें तो वे सब आकाश रूप में बदल जाएगा। ज्ञानी कहते हैं कि उस आकाश से वायु, वायु से अग्नि,अग्नि से पानी, पानी से भूमि, माया चित्त बनाये प्राणन परिवर्तन करते हैं। लेकिन प्राणन कैसे आकाश बनता है? आकाश कैसे वायु के रूप में बदलता है? वायु कैसे पानी बनता है?कौन ऐसा करता है? कोई भी कह नहीं सकता । हैड्रज़न और आक्सिज़न मिलते समय पानी बनता है। वैसे ही गर्भ में रहनेवाले कण कैसे अनेक अंगों के बच्चे कैसे बना? यह भी किसीको मालूम नहीं है। साधारण मनुष्य भी कह सकते हैं कि ये सब ईश्वर की लीला है। वह भगवान कहाँ है? पूछने पर कह सकते हैं कि वह भगवान सर्वत्र विद्यमान है। सर्वत्र रहनेवाले भगवान अपने से मिले बिना रह नहीं सकते। इसे भी सब कह सकते हैं। वैसे चिंतन करते समय मैं ही भगवान कह सकते हैं। वह मैं ,एक ही स्थान में रहनवाले नाम रूपों के शरी ही है? के पूछने पर तब मैं जवाब देगा कि आत्मा या बोध ही यथार्थ मैं है। क्या आत्मा शरीर में है? के प्रश्न का जवाब दे सकते हैं कि आत्मा अंदर भी नहीं है, बाहर भी नहीं है, सर्वव्यापी है। सर्वव्यापी को चलन नहीं है। चलन रहित कोई क्रिया या कर्म न चलेगा। परमात्मा रहित कोई स्थान न होने से परमात्मा से मिले बिना और कुछ न होगा। जो बना-सा लगता है, शरीर और संसार , उन्हें देखनेवाले अज्ञानी जीव के लिए सत्य है। देखनेवाले वस्तु को खोजनेवाले को जो कुछ देखता है, वे सब असत्य हैं। सब के सब रेगिस्तान की मृगमरीचिका के समान ही है। मैं है को अनुभव करनेवाले एक ही अखंडबोध मात्र ही नित्य, सत्य परमानंद रूप में प्रकाश देते रहते हैं।
4487.सामाजिक लोग आपस में,अडोस पडोस में,अन्य राज्यों में परसपर मिलते जुलते रहने पर भी भेद बुद्धि और रागद्वेष के साथ ही व्यवहार करते हैं। मनुष्य रहित अन्य जीव भी भले ही देव -देवी भी हो ,रूपवाले जीव जो भी हो उनमें भेद बुदधि और राग-द्वेष होंगे ही। उनके कारण अनेक संग्राम, सर्वत्र सभी में होते रहते हैं। उसके कारण प्रपंच के विशेष बुद्धिवालों को न पहचानना ही है। अन्य जीवों को परम कारण जानने, कई जन्म लेना पडेगा। सृष्टि में पंचभूत सीमित और असीमित ही होते हैं। हर एक जीव में असीमित आकाश का एक भाग है। वैसे ही वायु, अग्नि , पानी, भूमि सभी का एक भाग जीवों में होते हैं।
असीमित पंच भूतों के परिवर्तन ही हर एक जीव में रूप के होते हैं। वैसे ही परमात्मा के भाग ही हर एक जीव में आत्मा बनकर रहता है। अर्थात् सभी जीवों में एक रूपी सर्वव्यापी परमात्मा की शक्ति ही पंचभूत के रूप में ब्रह्मांड भर में रहनेवाले चलन -निश्चलन नाम रूप में हैं। वही परमात्मा और प्रकृति है ,वही शिवशक्ति है। वह शिव शक्ति ही प्रपंच के रूप में है। हर एक जीव में शिव और शक्ति जुडे हैं। आत्मा शिव है, पंचभूत शरीर शक्ति है। परमात्मा का प्रकट भाव ही प्रकृति है। अर्थात् परमात्मा का स्वप्न ही प्रपंच है । परमात्मा स्वप्न देखना परमात्मा का अखंडबोध अपनी शक्ति माया लेकर अपने को छिपाकर बनाये निजी स्वरूप विसमृति में ही प्रपंच रूपी स्वप्न स्थिर खडा रहता है। निजी स्वरूप अखंडबोध स्मृति में प्रपंच रूपी स्वप्न केवल मरीचिका ही है। इस तत्व को आत्मज्ञान से ही शास्त्र परम में समझ सकते है। आत्मज्ञानी को किसी भी काल में राग द्वेष भेद बुद्धि न होंगे। उनको एकात्मक दर्शन मात्र होगा। आत्मज्ञानम भूमि में भारताम पांबैयिन वरदान होगा। भारतीय लोग उनके जाने -अनजाने अन्य देश के लोगों को स्नेह करने के निर्बंधन के पात्र बनना ही भारत का महत्व है।
४४८८4488. जो कोई सत्य की खोज करता है, उसको खूब सही रूप में समझ लेना चाहिए कि बोध और जड क्या है? इस बोध का मुख्यत्व है कि बोध से मिले बिना देखने, समझने, सुनने,अनुभव करने कुछ भी साध्य नहीं है। इसे बुद्धि में सुदृढ बना लेना चाहिए। तभी निस्संदेह समझ सकते हैं कि इस रीति में जानकर महसूस करते समय अखंडबोध मात्र ही सर्वत्र विद्यमान है। दूसरी बोध से समझना चाहिए कि ऋषियों ने जो चौदह लोक का आनंद बोध रूप देखा,वे परमात्मा के रूप ही है। तीसरी बात यह है कि नाम रूपों के सब जड ही है।उस जड को जीव है सा लगना उसके पीछे आत्म बोध होने से ही है। बोध से मिले बिना चलन जान नहीं सकते। चलन कहाँ स्थिर खडा है की खोज करने पर चलन के सभी भागों में बोध मात्र ही है को समझ सकते है्। जहाँ बोध है, वहाँ चलन नहीं हो सकता। कारण बोध अखंड निश्चलन वस्तु है। बोध स्वभाव आनंद है, जड स्वभाव दुख है। एक जीव अर्थात् प्रतिबिंब बोध जड वस्तुओं को स्वीकार करते समय पंचेंद्रियों से होनेवाले दुख जो भी हो जीव पर असर न डालेगा। केवल वही नहीं, अखंडबोध के स्वभाव अनिर्वचनीय शांति और आनंद को अनुभव करके सब जगह सभी जीव कर सकते हैं।
४८८९4489. एक अज्ञानी जीव पूर्ण स्वस्थ रहने पर मैं,मेरे के अहंकारी बनकर मेरे के भाव से दूसरों को द्रोह करेगा। उसी समय स्वास्थ्य और अधिकार नष्ट होते समय अहंकार सिर तानकर खडे रह नहीं सकते। तभी आरोग्य काल में जो द्रोह किया,उनके कर्म फल पीछे पडेगा। उसे सहने की शक्ति चाहिए तो आत्म बोध में दृढ रहनेवाले से ही हो सकता है। वैसे लोग आये हुए दुखों को निस्संग अनुभव करेंगे। उसी समय आत्म बोध रहित अहं बोध में मात्र रहने पर नरक वेदना भोगनी पडेगी।
4990. एक जीव को सदा आनंद से रहना चाहिए तो आनंद स्वभाव अखंड बोध स्वयं ही है का एहसास करना चाहिए। स्वयं अखंडबोध ही है को दृढ बनाकर सदा आनंद रहेगा। अर्थात् सदा आनंद रहनेवाले को स्थितप्रतिज्ञ कहते हैं। शास्त्र रूप में प्रपंच सत्य समझना चाहिए तभी अनेक रूप में दीखनेवाले प्रपंच को एक रूप में दर्शन करके स्थित प्रज्ञ एक रूपी होनी चाहिए। प्रपंच सत्य माने प्रपंच है सा लगना। मैं है के अनुभव के बोध से ही। इस बोध में आदी अंत रहित सर्वव्यापी रूप में है।उसको जानना है तो यह अनुभव होना चाहिए कि अखंडबोध रूपी मैं ही सभी रूपों में सभी भागों में भरा रहता है। जहाँ भी जाए,वहाँ बोध ही रहेगा। सर्वत्र भरे अखंडबोध में अकारण उमडकर आए, एक बुलबुला ही अहंकार रूपी यह शरीर है।स्वयं देखनेवाले सभी रूप संकल्प से ही उत्पन्न हुए हैं। संकल्प नाश से सभी नाम रूप अस्त होते हैं। जब बोध विस्मरण करता है,तब संकल्प होता है। पुनः स्मरण करते समय संकल्प नाश होता है। साथ ही शरीर और संसार छिप जाता है। साथ ही अखंडबोध मात्र परमानंद स्वरूप में नित्य सत्य रूप में प्रकाशित हैं।
4491. ऐसी मूर्खता पूर्ण बुद्धिवाले ही अधिकांश है कि आत्मसाक्षात्कार के लिए सत्य की खोज में भटकनेवाले भौतिक विषय सुखों को भोग नहीं सकते। लेकिन सत्य को लक्ष्य बनाकर जीनेवालों के पीछे ही सभी भौतिक सुखभोग आकर जुड जाते हैं। सत्य को भूलकर धन कमानेवालों से कई गुना धन सत्य दर्शी के पीछे आएगा। धन आए या न आए यथार्थ सत्यदर्शी पर कोई असर न पडेगा। कारण सभी भौतिक सुख माया पूर्ण है। माया सत्य दर्शी के सत्य पर आवरण डालने के संदर्भ की ओर ही चलती है। इसलिए यथार्थ सत्यदर्शी को भौतिक सुखभोग की आवश्यक्ता नहीं है। यथार्थ सत्यवादी जानता है कि भौतिक सुख स्वप्न सुख के समान है, जड सब तीनों कालों में रहित है। सत्य मात्र ही एक वस्तु है,जो परमानंद स्वभाव के हैं। वह मैं है को भोगनेवाला अखंडबोध है।
4492.जब जग की सृष्टि हुई, तब से परम कारक परमात्मा सत्य दर्शी के रूप लेकर भूलोक में आकर
सत्य को बताने पर भी असत्य संसार को सत्य मानकर जीनेवाले ही संसार में अधिकांश लोग होतै हैं।
जीवन में सत्य माने प्रपंच रहस्य जानना है। प्रपंच रहस्य को कैसे जानना है? एक स्वर्ण आभूषण की दूकान में स्वर्ण आभूषण होते हैं। जब दूकानदार दूकान खोला,तब उसके पास सौ किलो सोने का कच्चा सोना थे। दूकानदार ने एक सुनार के द्वारा नाना प्रकार के आभूषण बनवाया। उस व्यापारी का उद्देश्य केवल धन कमाना था। लेकिन ग्राहक के मन में आभूषण खरीदने के चिंतन ही रहेंगे। वैसे ही शरीर के और संसार के आधार परम कारण परमात्मा और प्रपंच सत्य को मात्र जानने के इच्छुक के मन में सत्य का एक चिंतन मात्र रहेगा। वैसे लोग सत्यबोध लेकर प्रपंच रूपी नानात्व को विस्मरण कर देते हैं। विविधता को भूलकर एक विषय को मात्र लक्ष्य बनाने पर मन सम दशा पाता है। जो मन को सम स्थिति पर लाता है,उसे ही योगी,ज्ञानी,स्थितप्रज्ञ कहते हैं। एक मात्र विषय पर ध्यान देनेवाले को ही योग्यता है कि नित्यआनंद,कर्म विमोचन,दुखनिवृत्ति सर्व स्वतंत्र और परम शांति भोगना। अनेक विषयों को देखनेवालों को जीवन में स्थाई दुख मिलेगा।
4493. ईश्वर प्रकृति ही प्रपंच है,ईश्वर रूप,ईश्वर स्वभाव ही प्रपंच है। ईश्वर को कोई रूप रंग नहीं है। जिसका रूपरंग है, वह सर्वव्यापी नहीं हो सकता।ईश्वर सर्वव्यापी बनकर अपने सर्वव्यापकत्व को स्थिर रखकर एक जादूगर के जैसे जो प्रपंच नहीं है, शून्य में बनाकर दिखाता है। वह पानी रहित रेगिस्तान में मृगमरीचिका जैसे हैं। रेगिस्तान में मृगमरीचिका रेगिस्तान बनाता नहीं है। लेकिन रेगिस्तान में पानी के जैसे भ्रम है। वैसे ही ईश्वर रूपी परमात्मा बने अखंडबोध अपनी शक्ति को प्रयोग करके अर्थात् अपनी माया को उपयोग करके स्वयं निर्विकार, निश्चलन,निष्क्रिया, सर्वव्यापी रहकर प्रपंच बनाकर दिखाता है। वह कैसे है के पूछने पर अपर प्रकृति मन,बुद्धि, प्राणन पंचेंद्रिय, प्रतिबिंब बोध जीव,नामक पराप्रकृति से मिला है प्रपंच। पंचभूत सब जड कर्म चलन स्वभाव से मिला है। निश्चलन अखंड बोध में कोई चलन न होगा। चलन होने से लगना अखंडबोध में स्वयं उमडकर आये अहंकार के परिवर्तन ही है। मैं नामक अहंकार का बढना ही मन,अंतःकरण,पंचेंद्रिय अर्थात् शरीर सब। सत्य में अहंकार उमडकर आता नहीं है। लेकिन लगता है कि उमडकर आता है। यह परसपर विरोध भगवद् शक्ति माया बनाकर दिखानेवाले रहित वस्तुएँ ही हैं। ये सब है दिखाने की युक्ति किसी में नहीं है। कारण सर्वस्वतंत्र रूप निश्चलन अखंडबोध भगवान में जो भी दृश्य बनते हैं, वह भगवान रहित और कुछ नहीं बन सकता। कारण बोध से मिले बिना कोई वस्तु बन नहीं सकता। जो कोई एक रूप अखंडबोध को मात्र दर्शन करता है, या अनुभव करता है, वह माया को जीतेगा। जो दो देखता है,वह जनन-मरण माया दुख से बाहर आ नहीं सकता। दुख से मुक्ति पाने एहसास करना चाहिए कि ईश्वर रूपी मै मा
4494. जो भी वेदांत शास्त्र हो, दुख विमोचन के प्रायश्चित्त के रूप में भगवद् उपदेश संपूर्ण रूप में भगवान से शरणागति होना है। पहले जानना चाहिए कि भगवान कौन है और कैसे शरणागति पाना है? समझना चाहिए कि प्रपंच सत्य क्या है?
यह भी समझते नहीं है कि प्रपंच सत्य को खोजनेवाले प्रपंच के मूलकारण ईश्वर जानकर भी ईश्वर से मिले बिना अर्थात् मैं नामक अखंडबोध से मिले बिना स्थिर खडा रह नहीं सकता। अर्थात् ईश्वर सत्य से ही पहले दर्शन देते हैं। जो कोई अपने यथार्थ स्वरूप परमात्मा को अर्थात अखंडबोध को लक्ष्य बनाकर जीवात्मा को परमात्मा के रूप में साक्षातकार करता है, वही परमशांति और परमानंद अनुभव कर सकता है।
4495. राज्य जो भी हो,देव जोभी हो, मनुष्य का स्तर जैसा भी हो, आराधना,प्रार्थना ध्यान पद्धतियाँ जैसी भी हो एक मात्र लक्ष्य है ईश्वर । एहसास करना चाहिए कि वह ईश्वर मैं है के अनुभव करन्ने का बोध है।वह बोध अखंड है। निश्चल,निर्विकार ,निष्क्रिय,निर्मल,सर्वव्यापी, निराकार, अपरिवर्तनशील ,परमनंद स्वभाव,परमशांति स्वरूप, जन्म मरण रहित स्वयंभू, सत्य वस्तु आदि का जब तक एहसास नहीं करता, तब तक दुख से मुक्ति नहीं पा सकता। अर्थात् हर एक जीव अखंडबोध स्वरूप है, वह अखंडबोध परमानंद निश्चल सागर है, उनमें स्वयं उमडकर आयी बोध शक्ति अवतार ही जीव रूपी मैं है, जब ये बातें समझ में आती हैं,तभी माया बडा चढाकर दिखानेवले प्रपंच रूपी इंद्रजाल नाटक में प्रवेश न करके अपने यथार्थ स्वभाव परमानंद को पुनः पा सकते हैं।
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