Friday, August 2, 2024

धर्म

 3301 .जैसे हम सोते समय अपने शरीर,संसार, बंधन सबको एक ही मिनट में भूल जाते हैं, वैसे ही ब्रह्मात्म बोध के उदय होते ही शरीर और संसार भूल जाते हैं। अर्थात् नींद में वासना का एहसास करके जागृतावस्था में प्रपंच में आते हैं। वैसे ही

जो आत्म बोध अप्राप्त है,वह वासनाओं के साथ मरने पर उसका जीव ब्रह्म में लय न होकर अनंतर जन्म लेकर संकल्प लोक जाता है।  लेकिन जीव संकल्प माया प्रपंच नगर से परमात्म स्थिति स्वर्ग जाने के लिए एकमात्र चाबी आत्म  विचार ही है।
अन्य स्मरण रहित आत्मा को मात्र सोचनेवाले को आतमज्ञान हाथ के आँवला जैसे बहुत ही आसानी से मिलेगा।


3302.  इस शरीर के परम कारण को अर्थात यथार्थ मैं कौन हूँ  अर्थात शरीर या प्राण को समझानेवाले को ही यथार्थ गुरु के रुप में स्वीकार करना चाहिए। वे ही यथार्थ गुरु होते हैं। वैसे गुरु के शिष्यों के राग-द्वेष, भेद बुद्धि नहीं होंगी। कारण उन सबको जिन्होंने पार किया,उन्हीं को ब्रह्म ज्ञानी के रूप में स्वीकार करते हैं। शिष्य की परिपक्वता न जानकर आत्मज्ञान देनेवाले गुरु बिलकुल समझदार न होंगे। अतः यथार्थ गुऱु और शिष्य अपने अपने ज्ञानाभ्यास के द्वारा ही विश्व के कल्याण कार्य करेंगे। अर्थात आतमज्ञान सीख लेने से मात्र ही गुरु नहीं बन सकते। खुद परमात्मा के परम स्थिति पाकर उनके स्वभाविक परमानंद को निरूपाधिक रूप में स्वयं भोगकर आनंद से गुरुओं के शिष्य को ही आत्मज्ञान बुद्धि में जमेगा,नहीं तो
अन्य गुरु से  सीखी आत्मज्ञान से परमानंद , अनिर्वचनीय शांति न मिलेगी।

3303.यथा राजा,तथा प्रजा। इसका सूक्ष्म अर्थ यह है कि इस ब्रह्मांड के  शासक परमात्मा ही है। यह ब्रह्मांड, ब्रह्मांड की प्रजाएँ अभिन्न ही लगेंगे।अर्थात परमात्मा के बिना कुछ भी नहीं है। इस तत्व को जानकर जिसका शासन चलता है वही रामराज्य है। वह शांति का राज्य है। उस राज्य की प्रजाएँ सानंद रहेंगे। विष्णु पुराण में महाविष्णु  दशावतार लेने में विष्णु अपनी इच्छा से रामावतार लेने का संकल्प किया। वह प्रारब्ध कर्म के अंत तक अखंड बोध ब्रह्म महाविष्णु शरीर में और संसार में रामावतार के अंत तक निस्संग ही राम शरीर में ही जीते थे।इसलिए लक्ष्मनोपदेश में लक्ष्मण से समझौता  करने के लिए राम वशिष्ट से सीखे आत्मतत्व को लक्ष्मण को उपदेश देते हैं। उस उपदेश से यथार्थ राम आत्मराम बनने का एहसास कर सकते हैं। ऱाम को राम देखनेवाला संसार ,नाते- रिश्ते बंधन सब त्रिकालों में रहित नामरूपों की माया है। वह माया आत्मरूपी अपनी शक्ति है,वह शक्ति सीता है। वे खुद परमात्मा बने अखंड बोध सत्य है।इन का एहसास करके ही ऱाम जिए थे और शासन करते थे।       

3304. मनुष्य रूप का ब्रह्म अपने परमानंद  स्वरूप अखंडबोध के परमात्म स्थिति को भूलकर तैलधारा जैसे सख-दुख देेनेवाली प्रकृति स्वभाव इच्छाओं के चित्त के पीछे मोहित होकर दौडते रहते हैं। वह चित्त सभी प्रकार के दोषों का वासस्थल इंद्रधनुष के समान निकलकर छिपनेवाली वर्ण प्रपंच की प्रकृति माया मोहिनी होती है। उस माया मोहिनी की दृष्टि मेंं पडे जीव को साँप निगलने के समान धीरे धीरे काल निगलेगा। इसलिए स्वस्वरूप  परमात्म स्थिति  के  स्मरण होने के लिए  आत्मज्ञान सीखकर प्रपंच आत्म शक्ति के दृश्य एक इंद्रजाल है का एहसास करके संसार के भ्रम में न पडकर परमानंद स्वरूप स्थिति को पाना चाहिए।

3305. अद्वैत ज्ञान में सभी भेदों को अभेद एकात्मक बुद्धि लेकर ही दर्शन करेगा। इसलिए विश्व शांति के लिए एकात्म दर्शन देनेवाले आत्मज्ञान को सभी शिक्षा ज्ञान में अपरिहार्य बना लेना चाहिए। केवल वही दुख देनेवाले जीवन के लिए एक परिकार होगा। आत्म ज्ञान  भौतिक पूरक मन के लिए बाधक बनने से स्वर्ग बनाने ,नित्य परमानंद स्थिति के लिए प्रार्थी होगा।क्योंकि हर एक जीव भौतिक शरीर ,आत्मा रूपी प्राण मिश्रित सृष्टि है।वह शरीर आत्मबोध प्राप्त कर क्रिया शील बनने पर ही शांति मिलती है। आत्म बोध रहित शारीरिक अभिमान,अहंकार से जीने से ही जीवन नरक-सा लगता है। जगत को बोधाभिन्न के रूप में दर्शन करने की क्षमता बढानेवाला आत्मज्ञान मात्र है। जो जगत को बोधाभिन्न के रूप में देखता है, वही परमानंद प्राप्त व्यक्ति है।

3306. इस संसार के बहुत बडा चिकित्सक शरीर के सृजनहार ही है। यह शरीर अपने में से ईश्वर के संकल्प से ही बना है इस शारीरिक अंगों की रचना, उनमें से होनेवाले सुख-दुख के रहस्यों को  जाननेवाला वही है। उसके पास जाकर उसके
कहेनुसार  दवा लेने पर रोग कैसा भी हो चंगा हो जाता है। अर्थात वह चिकित्सक सदा अपने में रहनेवाली अहमात्मा ही है।
इस शरीर का परम  कारण “ मैं” का अखंड बोध ही है। स्वयं बननेवाले  बोध को विस्मरण न करके रहना ही सभी रोगों के लिए  श्रेष्ठ दवा है। कारण जो कोई आत्मा बने बोध से न हटकर क्रिया शील बनता है, उसके  असम सभी अंग सहज ही सम स्थिति  बन जाएँगे। अर्थात सम स्थिति बननेवाला मन बोध ही है। यह शरीर और संसार जीव पर प्रभाव डालनेवाला एक भ्रम माया रोग ही है। वह बोध की संकल्प शक्ति बने मानसिक कल्पनाओं का एक दृश्य ही है। किसी भी संकल्प न करना ही उनसे बाहर आने की श्रेष्ठ दवा है।

3307, यह शरीर अरूप से ही रूप पाया है। अर्थात ब्रह्म ही शरीर और संसार के रूप में है। ब्रह्म न तो शरीर भी नहीं है और संसार भी। अर्थात् पहले निराकार अखंडबोध ही एक रूप में स्थित खडा रहता है। अब भी वह एक अखंड बोध मात्र ही है।
आगे भी वह अखंड बोध मात्र ही रहेगा। कारण वह नित्य है,सत्य है, परम कारण है। वह एक रूप अखंड बोध ब्रह्म को अपनी शक्ति माया विविध रूप में दिखाना ही नानात्व प्रपंच है।  इस विकल्प के प्रपंच को एक रूप में देखने की स्थिति ही निर्विकल्प होता है। अर्थात निर्विकल्प समाधि में एक ही बोध मात्र रहेगा। निर्विकल्प ही ब्रह्म है।वही अखंडबोध है। वही 

“मैं “ है।

3308. आत्मा स्वयं है, वह एक,सर्वव्यापी,निश्वल,निर्विकार,अनादि,आनंद, नित्य,पवित्र, अव्यक्त,अचिंतन स्वभाव में स्थिर होकर अपनी शक्ति माया से बनाये पंचभूत पिंजडे में अखंडरूपी स्वयं खंड रूपी जीव बोध में बदलकर उसमें अभिमानी बनकर माया से बनायी चित्त संकल्प लोक में जीते समय वह मरुभूमी की मृगमरीचिका के समान नहीं के बराबर हो गया। अर्थात निश्चल,निर्विकार ब्रह्म में माया की लहरें बने प्रपंच दृश्य हैं सा लगना जीव के भ्रम बदलने तक ही है। भ्रम के कारण माया है। माया के कारण अपने निजी स्वरूप अखंड बोध को विस्मरण करके खंड बोध में बदलते समय वास्तव में अखंडबोध
अपरिवर्तित ही है। अर्थात  जीवात्मा परमात्मा के रूप में,परमात्मा जीवात्मा के रूप में बदलती नहीं।उदाहरण के लिए दूर से कोई रेगिस्तान को देखते समय पानियों की लहरेंं दीख पडेंगी। निकट जाकर देखते समय एक बूंद पानी भी नहीं रहेगा। तीन कालों में  रहित पानी रेगिस्तानन में कभी न रहेग। वैसे ही ब्रह्म मात्र ही सदा रहता है।प्रपंच त्रिकालों में बनते नहीं है।
कारण निश्चलन  में  कभी चलन न होगा। इस जन्म  मेें  इस ज्ञान को बुद्धि में  दृढ बनाना है । और कुछ खोजने की ज़ूरत नहीं है। कारण  एक रस, एक, परम कारण के अखंड बोध ही शाश्वत है। बाकी सब बनाकर दीखता है। आग का स्वभान गर्मी है। वैसे ही ब्रह्म का स्वभाव ब्रह्म में है। दीख पडनेवाले सब परपंच प्रकृति का प्रभव प्रलय है।
3309. शरीर नाश होने को कोई न चाहेगा।इसलिए कोई भी अहंकार छोडने की कोशिश न करेगा। इसलिए अहंकार छोडने में देर लगती है। दुखी भी रहता है। शारीरिक अभिमान मिटे बिना आत्मबोध नहीं होगा। उसके लिए आत्मस्मरण करना चाहिए। आत्मस्मरण करते समय होनेवाले ज्ञानाग्नि में शारीरिक अभिमान जलकर अपने आप मिट जाएगा। यही जीव मुक्ति का मार्ग है। जीव भाव मिटे बिना दुख का विमोचन नहीं है।जीवभाव चाह के कारण स्थिर खडा है।. इच्छा रहित आत्मविचार ही मोक्ष है।

3310.सांसारिक जीवन के लिए,राज्य को शासन करने के लिए अहंकार अर्थात शारीरिक बोध अपरिहार्य है। पिछले काल की यादें ,भविष्य की प्रतीक्षाएँ ही अहंकार को स्थिर खडा रहता है। अहंकार का स्वभाव ,आत्म स्वभाव के विरुद्ध होने से जीवन  में  आत्मज्ञान को मुख्यत्व  नहीं दिया जाता।आत्मा अरूप है,माया को मिटानेवाली है।अहंकार रूप है,माया को विकसित करनेवाली है। आत्मज्ञान के विवेक के बदले अहंकार के अहंकार के सहोदर काम,क्रोध,भेद बुद्धि, राग-द्वेष,ही रहते हैं।  अर्थात स्वयं आत्मा है के बोध अर्थात एहसास न होने से जीवात्मा अहम बोध के कारण भेद बुद्धि और राग-द्वेष से संघर्ष करते हैं। लेकिन एकात्म बुद्धि से जीव जीव जब जीने लगते हैं, तभी शांति का सपना देख सकते हैं। आतमबोध के बिना अहंबोध से मात्र जीने के जीव मिट जाएगा। साथ ही नित्य दुख के पात्र बननेवाले अनंतरजन्म भी लेने पडेंगे। इसलिए नित्य दुख देनेवाले लौकिक जीवन के साथ नित्य आनंद देनेवाले बोध के साथ सभी कर्म करना चाहिए।  एक मनुष्य के लिए साँस लेने की जितनी आवश्यक्ता है,उतनी ही आवश्यक्ता बिजली की है। घर में, देश में, राज्य में  बिजली के बिना जी नहीं सकते। लेकिन बिजली के बारे में कोई नहीं सोचते।  बिजली के उपकरण और उसके गुणों को मात्र सोचते हैं। वैसे ही शरीर और  संसार के लिए परम कारण अखंड बोध मात्र है। लेकिन कोई भी आत्म बोध के साथ काम नहीं करते। उस अखंढ बोध को विस्मरण करके ही अहं बोध के साथ जगत में व्यवहार करते हैं। उसी कारण से ही मानव को दुख और संघर्ष होते हैं। जहाँ भी हो सूर्य या चंद्र आत्म बोध के साथ जाने पर सफलता ही मिलेगी। बोध नहीं तो सूर्य भी नहीं है, चंद्र भी नहीं है। संसार भी नहीं है। कारण बोध ही परम कारण है,सर्वस्व होता है।

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