Tuesday, June 11, 2024

वेद

 सनातन वेद

(5वाँ  वेद)
महावाक्य
(बोधाभिन्न जगत)

नित्य चतन्यमे नित्य संगीतमे,
सप्त स्वर राग अनुभूति ओंकारमे
प्रथम नाद प्रणवे

अनंतानंद बोधाकरम्
परमात्म ज्ञान रसानुभूतिं
पवित्रम्  परिशुद्ध प्रेम स्वरूपम् प्रणवारत्त मूर्ति
अरुंदति समयत्त श्री वशिष्ट गुरु देवाय नमो नमः

            अनुक्रमाणिका
          प्रपंच सृष्टि का रहस्य
आरंभ में “ मैं” का अस्तित्व है। मेरा एक एक शारीरिक रूप है। “मैं”देखने एक संसार भी है। मुझे और इस संसार को एक ईश्वरीय शक्ति ने सृष्टि की है। ऐसा कहने के पहले ही “मैं” होने से ईश्वरीय ध्वनि मुझसे ही पहले मुझसे ही बनी थी। इसलिए “मै” की खोज करते समय अपने में अपरिहार्य स्थिर खडे खडे रहनेवाले ज्ञान रूपी अपने स्वभाव परमानंद अपनी शक्ति माया संकल्प मन आत्मा रूपी अपनी इच्छा से ही को न जानकर ही पहले अंधकार रूप में मनोमाया अपने को छिपा दिया। उस उपस्थिति में  ”मैं” के स्मरण के साथ “अहं” माया में प्रतिबिंब  को देखने अपनी शक्ति  दुबारा एक बार छिपा दिया। वह आकाश रूप बन गया। फिर आत्मा स्वस्वरूप स्मरण की कोशिश करने अपनी शक्ति फिर आकाश से एक पर्दा डाल दिया। वह वायु रूप बन गया।फिर अपने स्वरूप को पाने  वायु से एक पर्दा डाला। वह अग्नि रूप बन गया। अग्नि  से स्वरूप पाने फिर माया ने एक पर्दा डाला। वह पानी बन गया। फिर अपने नष्ट के परमानंद पाने की कोशिश में पानी से  परदा डाला तो भूमि बन गयी। उन पंच भूतों के तत्व आकाश,वायु,आग, पानी,भूमि  आदि से  प्रारंभित जड कर्म चलन रूप में परमानंद  स्वभाव  रूप परमात्मा बने अखंडबोध अपने को छिपाने से नष्ट हुए आनंद को,स्वतंत्र को फिर-फिर अपनी शक्ति माया अपने को छिपाने से नष्ट हुए आनंद को,स्वतंत्र को पुनः पुनः छिपा देने के इंद्रजाल रूपों  से बचाने के प्रयत्न को माया छिपाते रहने विविध प्रकार के पर्दा डालते रहने से वे सब छिपाव सब के सब  अमीबा  से प्रारंभ होकर विविध रूपों के  जीव,पशु-पक्षी,वनस्पति जगत पेड,लता,पौधे आदि के रूपों में माया अपने स्वरूपों को छिपाते रहने के इंद्रजाल स्वरूपों से अपने स्व स्वरुप को बचा लेने अंतःकरणों में प्राण चलन से हर एक रूपों में जीव भावों से स्वस्वरूप को बचा न पाने से अंत में पंचेंदरियों से बने मनुष्य रूप मं सर्वव्यापी परमेश्वर परमत्मा अपने को पुनः छिपा लिया।वैसे मनुष्य रूप में से अपने स्वस्वरूप को पुनःबचाकर ले आने अंतःकण  के रूप मन, बुद्धि, चित्त  आदि करण  के मिलने से उनसे “स्वयं” अपने छिपाये प्राणों में अति सूक्ष्म प्राणन को प्राण की गाँठ मन को उपयोग करके षडाधार पार करके चिताकाश जाकर सहस्र चक्र मार्ग द्वारा जीव रूपी प्राणन खुले मैदान आ सकता है।इस स्थिति को आने के बाद अपनी शक्ति माया दिखाने के पंचभूत पिंजडा मनुष्य रूप से मनुष्य रूपी अपने मन के विकास के कारण देव,ऋषि बनकर स्वस्वरूप अपनी शक्ति द्वारा पुनः प्राप्त कर सकता है। पुनः स्वस्वरूप को विस्मरण करने के लिए उसके अंदर मन संकल्प शक्ति बनकर सूर्य,चंद्र, कई करोड नक्षत्र ,आकाश गंगा आदि में ब्रह्मांड में छिपाकर संकल्पों को आज भी बढाते रहते हैं। मनुष्य रूप का यह  अहं अपने रूप रहित परमात्म स्थिति को भूलकर इस पंचभूत के शरीर को “मैं” सोचने को विवश कर दिया है।अंतः करण की बुद्धि को उपयोग करके जीव,शरीर  और संसार को विवेक से जानने विशेष ज्ञान आत्मज्ञान अर्थात स्वस्वरूप ज्ञान मिला। तब माया बेसहारा हो गई। उसको महसूस हुआ कि उसने कुछ नहीं किया है,आत्मा की इच्छा से ही सब कुछ हुआ है, तब माया का अभिमान और अहंकार मिट गये। साथ ही खंड का यह शरीर जीव भाव भूलकर अखंड बोध परमत्मा परमानंद  अनुभव स्वभाव मं स्थिर स्थित हो गया। अपनी शक्ति दिखाये माया,माया इंद्रजाल,दिखाये यह प्रपंच सब रेगिस्तान की  मृगमरीचिका जैसे मिथ्या नीर हो गया। वह स्मरण भी न रहा।स्वयं प्रकाश स्वरूप अपने प्रकाश की ज्वाला में माया अंधकार पूर्ण रूप में संपूर्ण प्रकाश में ओझल हो गया।साथ ही निरूपाधिक स्वयं प्रकाश नित्यानंद रूपमें“मैं” नामक सत्य अनंत अनादी बनकर शाश्वत बनकर स्थिर रूप में खडा रहता है।


              आत्मस्वरूपोपनिषद  (109वाँ)

1. पहले आत्मा के रूप को एहसास करने के लिए आत्म तत्व क्या है? इसकी खोज करनी चाहिए।
2. अंतःकरण में  ज्ञान समझानेवाले,स्पष्ट करनेवाली अहमात्म को समझना चाहिए।
3.आत्मजाग्रण के उदय होते ही “मैं” की भावना मिट जाएगी।
4.”मैं” की भावना नष्ट होते ही आत्मा सर्वव्यापी स्थिति पाती है।
5.  याद रखिए कि आकाश से सूक्ष्म है आत्मा। वह निराकार होती है।
6.आकाश क्या है? तो आकाश है का ज्ञान ही एक ज्ञान है।
7.आकाश ,प्राण,मनोमय संसार आदि के उस पार है आत्मलोक।
8.जिस स्थान में  आनंद भाव  होता है,उसी को आत्मा के रूप का महसूस कर लेना चाहिए।
9. आत्मस्वभाव को सदा आनंदमय जानना चाहिए।
10. सोचकर देखने से मालूम होगा कि आनंद बोध के सिवा और कुछ नहीं है।
11. आनंद आत्मा के स्वभाव होने से उसे अन्यत्र खोजना नहीं चाहिए।
12. निर्विकार निश्चल आत्मा नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्त है।
13.चित्त नहीं तो वह निरामय. वह निर्मल है,वह निश्चल है।
14. निर्गुण पूर्णत्व है।शाश्वत है। सगुण और एकत्व अलग नहीं है।
15.आत्मा आदि अंत रहित है। आत्मा आदी काल से प्रज्वलित है।
16. आत्मा की उत्पत्ति, सच्चाई और विकास नहीं है।परिवर्तन,खंडित होना,नाश होना आदि तीनों नहीं है।
17. स्मरण रखना चाहिए कि आत्मा में  अलौकिक क्षमता है,उसमें लिंग भेद नहीं है।
18.सब से पार  रहनेवाली  आत्मा  किसी से असंबंधित वस्तु है।
19. आत्मा का रूप सच्चिदानंद है। स्वयं जानने का प्रज्ञान है?
20.सत्य ही आत्मा है। स्नेह ही आत्मा है। आत्मा  स्नेह रूपा शांति है।
21.सर्वचराचर के कारण है आत्मा। सबके आश्रयस्थल है  आत्मा।
22. एक रस बने  एक ही आत्मा।आत्मा संपूर्ण चैतन्य गुणवली है।
23.आत्मा अनश्वर और अदृश्य होती है।
24.आत्मा को जान नहीं सकते। समझ नहीं सकते। पास नहीं पहुंच सकते।
25. आत्मा अंतर्यामी है।  मन तक पहुँचेगा।अद्वैत को वर्णन नहीं कर सकता।
26.आँखों से देख नहीं सकते। स्थाई है। विभाजन नही कर सकते।
27.आत्मा अक्षर रूप में ओंकार मात्रा का आधार है।
28.  आत्मा अद्भूतों में अद्भुत है,चमत्कारों में चमत्कार है।
29.  आत्म क्षेत्र ज्ञानी परम पुरुष  स्वतंत्र है।
30. जो बना है,वह नहीं हो सकता। जो नहीं है,वह हो नहीं सकता।
31. बाह्य आंतरिक ज्ञान ही आत्मा ,सब कुछ के ज्ञाता स्वयंभू है।
32.जग की मूल मूर्ति मैं और तुम के रूप में रहता है।
33.आत्मा प्रकाश और प्रकाश देनेवाली स्वयं प्रज्वलित ज्योति है।
34. देश काल के निमित्तों को पारकर तुरीय पद ही आत्म संसार है।
35.त्रिगुणों को पार करके सर्व शक्तिवान प्रणव का अर्थ ही परमात्मा ही है।
36. दर्शक,दृश्य,दर्शन बुद्धि आदि आत्मा के सिवा और कुछ नहीं है।
37. अपने से अन्य वस्तुओं को न देखना ही “मैं” आत्मा का बोध होता है।
38.”मैं” आत्म रूप को छिपाते समय वहाँ अहंकार हो जाएगा।
39.तैल धारा के जैसे आत्म बोध मन में  होते समय मनुष्य ब्रह्म बनता है।
40.अल्लाह ,परिशुद्ध आत्मा,,परब्रह्म के नाम से कहते हैं।
41.जो है,उसका नाश नहीं होता। जो  नहीं है, वह  बनता नहीं है।
42. जो  संसार नहीं है, उसमें दृष्टित जीव भी नहीं है।
43. असीमित एक वृत्त में  ही भगवान सर्वव्यापी केंद्रित है।
44.जीवात्मा  और परमात्मा  के  विभाजन  न करने के स्वभाव को सदाशिव जानना चाहिए।
45.शून्य में ही अनंत शून्य बोध बोध के पार का आत्म रूप है।
46.परिपूर्ण  बेजोड कैवल्य रूप ही ब्रह्मत्व बोध होता है।
47.परमेश्वर,परमत्मा१ रूप,अर्द्ध  नारीश्वर,जगदीश्वर विभो।
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  1. पहले आत्मा के रूप की अनुभूति के लिए आत्म तत्व की खोज करनी चाहिए।
    आत्मा के रूप को समझने के पहलेे  समझना चाहिए कि आत्मा क्या है?  उसे जानने के लिए पहले महसूस करना चाहिए कि आडंबर पूर्ण सुख जीवन  मिट जाएगा। इसके बाद क्या करना चाहिए  की चिंता जिस जीव को होता है ,उसी को ही आत्मा की खोज का उद्वेग होगा।वैसे आत्मा की खोज करते समय संसार में आज तक पैदा हुए महात्मा,उपनिषद,देव,ऋषि जैसे सकल  जडाचर जहाँ पहुँचकर परमपद प्राप्त करके वापस आ नहीं सके, और उससे बडे और किसी आनंद की आवश्यक्ता न हो,वहाँ पहुँचने के लिए ज्ञान की खोज करना ही पहला कदम होता है।
    2. अंतर्मन में ज्ञान रूप है अहमात्मा। इसे जान लेना चाहिए। यहाँ के हर जीव “मैं” कहते समय साधारण लोगों को शरीर बोध का ही  स्मरण होगा। वह दार्शनिक खोज में पता चलेगा कि “मैं” इन पंचभूतों से मिश्रित शरीर नहीं है ,इस शरीर को नियंत्रण करने एक मन होता है।उस मन को नियंत्रण करने मनःसाक्षी नामक बोध तत्व है। यह जगत मिथ्या है। जगत माया है। यह  समझते समय “मैं”का बोध सत्य ही ज्ञान के रूप में प्रज्वलित जानना ही चाहिए। इस दृश्य जगत में हर एक जीव हर एक बोध ही है। हर एक ज्ञान जानने के लिए  एक व्यक्ति चाहिए। जो इनको जानता है,उसी को यथार्थ ज्ञानी कहते हैं। जो ज्ञान जानते हैं,और भी ज्ञान जानने की है। इसे समझते समय यह ज्ञान ही अपनी अहमात्मा,वह अहमात्मा ही यथार्थ “मैं” को महात्मा समझ लेते हैं।
    3. आत्मा अनंत जाग्रण में उठते समय “मैं”का भाव मिट जाता है।

    यहाँ “मैं”का शरीर बोध घडाकाश अर्थात एक काली घडे में रहने का आकाश समझ लेना चाहिए।इस संसार के सभी विषयों के स्वाद लेने के बाद   भी ऐसा ही महसूस होगा कि कोई  भी विषय  पूर्ण  आनंद नहीं  देता।तब ज्ञान धन खोजनेवाले को  विषयों  में विचार कम होते-होते ऐसी स्थिति पर पहुँचेगा कि उसके मन में कोई विचार नहीं उठेगा। तभी वैरागय व्यक्ति को शरीर का विस्मरण होगा।फिर शरीर बोध और सांसारिक बोध विस्मरण होकर बोध में विलीन होकर बोध सीमा पारकर  निर्विकल्प समाधि स्थिति पर पहुँचेगा। तब शरीर ज्ञान कहनेवाला घडाकाश महा आकाश में परमात्मा में लय हो जाता है। शरीर बोध जीवात्मा होता है,महा आत्मा परमातमा होता है। इसे समझ लेना चाहिए।उदाहरण स्वरूप समुद्र के ऊपर जानेवाली वर्षा की बूँद ही समुद्र को छूने की पहली स्थिति ही जीव बोध है।वह बूंद समुद्र में मिलते समय समुद्र बन जाता है। उसके बाद उस बूंद को समुद्र से अलग नहीं कर सकते। वैसे ही जीव मुक्ति,शरीर बोध आदि क बिलकल मिट जाने को ही आत्मा की अनंत जागृति कहतेे हैं। साथ ही सीमित जीव बोध का अंत हो जाता है। (When you forget the limited body Consciousnes the limited I consciousness is transformed to Universal Consciousness).
    “ मैं” को एक घडे में रहनेवाला आकाश की कल्पना कीजिए।इस आकाश को “मैं” का बोध समझ लीजिए।उस  बोध को आत्मा समझ लीजिए।उस आत्मा को सत्य समझ लीजिए। उस सत्य को स्नेह समझ लीजिए। उस स्नेह को स्वतंत्र मान लीजिए। उस स्वतंत्र को ईश्वर मान लीजिए। वह ईश्वर इस शरीर नामक घडे में  फँस गई हैं। उस घडे के टूटते ही बाहर का आकाश  अंदर और अंदर का आकाश बाहर नहीं आ जा सकता। घडे का टूटने का अर्थ है शरीर को भूल जाना। शरीर को भूल जाने का मतलब है सीमित को भूलकर असीमित की ओर जाना। वास्तव में जीवात्मा परमात्मा में,परमात्मा जीवात्मा में विलीन होती नहीं है। पहले ही वहाँ असीमित अनंत है। वह घडा उसके बीच बाधा बनकर खडा है। इस घडे के एक एक चूर्ण टुकडे की खोज करने पर उसकी अंतिम स्थिति अंतहीन रहेगा।यह स्पष्ट होता है कि उस अंतहीनता से भिन्न एक घडा बनाया नहीं है।
    4. “मैं” नामक भाव मिटते ही आत्मा सर्वव्यापी होती है।
    “मैं” की भावना पूर्व जन्म कर्म फल की ही जारी  है। ब्रह्म एक है। जब परब्रह्म स्व रूप भूलकर स्वयं को दो रूप में देखना पडता है,तब दो अंतहीन विचार के अहंकार का भँवर ही यह जन्म और जन्मांत्र बात है।
    हम जो कुछ सोचते हैं, वे कार्य तुरंत होते नहीं हैं। कारण यही है कि सोचने के बाद अधिक कल्पना करते हैं कि हमारी पहली सोच का बल  कमजोर हो जाता है। ऐसे दु्र्बल होनेवाले कई हजार जन्मों के शुद्धीकरण का संग्रह  ही यह शरीर है।आज हम जिन बातों को सोचते हैं,उनके पहले पूर्व जन्म के बल पूर्ण विचारों की पूर्ति के लिए जीवनानुभवों लिए मार्ग देते समय नये विचार दुर्बल हो जाते हैं।अपूर्ण कई कार्य मनुष्य केे शरीरर बोध को स्थिर बनाते हैं। ज्ञात विषय जो भी हो,मनुष्य या मनुष्य बुद्धि को तंग नहीं करते। जिज्ञासा नहीं बढाते। अज्ञात विषय ही मनुष्य के जिज्ञासा बढाकर उसको गतिशील बनाते हैं।
    उनमें अपूर्ण इच्छाएँ ,तुरंत  पूरा करनेवाली चाहें ,भविष्य की चिंताएँ शरीर को क्रियाएँ करने को प्रेरित करते हैं।जन्म के रहस्य समझने वाले प्राण इच्छाओं से आराम लेते हैं।  अर्थात चिंतन अस्त हो जाते हैं।
    जब  चिंतन या विचार समझ में नहीं आते हैं तभी चिंतन के नियंत्रण करने में मनुष्य दुखी होता है। चिंतन के रूप में मन ही आता है।चिंतन को छोडकर मन, मन को छोडकर चिंतन नहीं है।The mind is called Imajination,the imagination is calle mind.)
    ये दोनों अन्योन्याश्रित है। देखनेवाले के सामने एक दृश्य रूप होते समय एक विचार आता है। यह दृश्य जगत नाम,रूप से बना है। बिना नाम रूप के चिंंतन उमडते नहीं है। नाम रूप के देखने से ही यह क्या है का प्रश्न उठता है। नाम रूप चिंतन के लिए अपरिहार्य कारण है। अनंत आकाश में नक्षत्र,सूर्य रूप काले बादल आदि नहीं  तो मन में कोई विचार नहीं उठते। बिना कोई विचार उठे शरीर स्मरण ,संसार का स्मरण होने  की संभावना नहीं होती।  वास्तव में  नाम रूप ही मनुष्य रूप है। कल्पना के क्षण में ही इस संसार का जन्म होता है। कलपना में ही वह मिट भी जाता है। नाम रूप अंत में मिट रूप  ज्तता है। वहाँ से ही परिवर्तित संसार अर्थात व्यक्तिगत मै सर्वव्यापि का महसूस पुनः सर्वव्यापकत्व पाता है।
    5. आकाश से अति सुक्ष्म है आत्मा। यह भी याद रखिए कि आत्मा का कोई रूप नहीं है।
    इस आत्मा की उपमा केवल पंचभूतों में से एक आकाश से कर सकते हैं।लेकिन आत्मा आकाश के साथ नहीं है।वह एक सूक्ष्म भूत है। पंचभूतों में एक आकाश सर्वत्र विद्यमान है। इस आकाश से आत्मा सूक्ष्म रूप से विद्यमान है।आत्मा निराकार है।
    6.आकाश क्या है? आकाश एक बोध है। आकाश कहते समय ”आ” का मुँह खोलते हैं। पर उसकी स्पष्ट व्याख्या नहीं कर सकते। नाम रूप रहित आकाश को जैसे जानते हैं, वैसे ही बोध है आकाश।

    7.आकाश प्राण मनोमय संस्कार पारकर आत्मलोक।
    आकाश,मन,प्राणन आदि को एक उदाहरण के द्वारा व्याख्या कर सकते हैं। एक बरफ़ को शरीर की कल्पना कीजिए। उसका घनत्व कम होते समय वह पानी बन जाता है। शरीर के अस्तित्व के लिए एक सीमा को पता लगाना पडता है। उसी समय मन की  दौड में आधे क्षण मं अंतरिक्ष पहुँच सकते हैं। बरफ अपने सूक्ष्म स्थिति में पानी का रूप लेता है।पानी भरे बर्तन का आकार लेता है। वैसा ही मन की दशा भी है। और सूक्ष्म स्थिति पाते समय अर्थात भाप बनते समय वह आकाश में संचरन करता है। भाप सूखकर आकाश में ऐक्य हो जाता है। वैसे ही एक अंतर्मुखी व्यक्ति शारीरिक बोध से मानसिक बोध को प्राणन सूक्ष्म स्थिति पाकर उससे सूक्ष्म आत्मा में मिल जाता है।बरफ पानी भाप अंत में आकाश में ऐक्य हो जाता है। वैसे ही शारीरिक  बोध से अन्न मय,मनोमय, विज्ञानमय,आनंदमय आदि स्थितियों को पारकर आत्मबोध को प्राप्त शरीर विस्मरण के कारण आतम भावना मात्र स्थिर खडा रहता है। बरफ रूप भूल जाने के जैसे शरीर के रूप बोध विस्मरण के लिए प्रेरित करता है। वास्तव में  शरीर के स्थिर खडा रहना स्मरण में है।
    8.आनंद भावना जहाँ होती है,उसी स्थान को आत्मा का आकार समझना चाहिए।
    हम जब इस संसार को देखते हैं,सुनते हैे,जानते हैं, तब आनंद भावना चंद मिनट होती है। उदाहरण के लिए मंदिर में गर्भ गृह में दीपारधना के समय भगवान को प्रार्थना करते समय एक पल हम चुप हो जाते हैँ।
    तब हम आनंद का अनुभव करते हैं। एक सुंदर फूलों के बाग में रंगबिरंगे फूलों को देखकर आनंद विभोर होते हैं। वैसे ही पशु-पक्षियों को देखकर,संगीत सुनकर आनंद का अनुभव करते हैं।प्रिय लोगों को देखते समय, पसंद की चीजें मिलते समय आनंद पाते हैं।संभोग में आनंद पाते हैं। गहरी नींद में आनंद पाते हैं। ये सब तात्कालिक आनंद होते हैं।सोचिए कि रुचिकर फल खाते हैं। जीभ और फल में स्वाद ही आत्मा है। उपर्युक्त सभी घटनाएँ नाम रूप विस्मरण में ही है।शरीर का विस्मरण करते हैंउदहरण।
    शरीर का विस्मरण करते समय शेष सत् जो है,वहाँ आनंद सहज होता है। वह सहज आनंद सत्य को आत्मा के रूप में समझ लेना चाहिए।

    9. आत्म स्वभाव को सदा  आनंद ही जानना चाहिए।
    पहले हमें अपने को आत्मा समझ लेना चाहिए। उस आत्मा के स्वभाव को आनंद मन लेना चाहिए। हमें महसूस करना चाहिए कि जहाँ भी जो भी आनंद मिलता है,वह आत्मा की  “मैं” कहनेवाली ज्योतिर्मयता है।
    हमें आनंद नहीं मिला है तो कारण “मैं”नाम रूप रहित आत्मा क बोध को बिना किसी प्रकार के संदेह के दृढ न बनाना ही है। इस सांसारिक
    आनंद जहाँ भी हो, जैसा भी हो हमको  वास्तविक आनंद के लिए पर्याप्त नहीं है। उदाहरण के लिए शराबी के चाहने से ही शराबी को आनंद होता है। मधु को सूँघने पर बद्बू आने से कै आता है। मधु किसी को आनंद न दे सकता। कारण वह उसे नहीं चाहता। किसी एक के चाहक दूसरे का चाहक न रहेगा। एक स्त्री से या पुरुष से प्रेम और चाह होने पर ही सुख मिलेगा। सुख वस्तु में है तो सबको मिलना चाहिए।सुख के मूल कारण वस्तु,मनुष्य,विषय  नहीं है।समझ लेना चाहिए कि मूल कारण इच्छा है। चाह के होते समय  मन और चिंतन बाहर भटकता है। बाह्य चाहों में फँसे मनुष्य को स्वभाविक दशा को लाने तक प्राण संतुष्ट नहीं होता। जब वस्तु मन का नाश होता है, तब ”शेष  सत्” ही  “आत्म सत् “ समझ लेना चाहिए। उस आत्म सत् का स्वभाव आनंद है, जैसे आग की गर्मी, पानी का ठंडक।वैसे समझते समय ही मन बाह्य विषयों पर मोहित न होकर अंतर्मुख आत्मा में विलीन हो सकता है।
    10. आनंद क्या है? सोचकर देखने पर पता चलेगा कि ज्ञान ही है और कुछ नहीं है।
    सुख एक ज्ञान है। दुख एक ज्ञान है। द्रष्टा “ मैं “ही सुख और दुख को जाननेवाला ज्ञान होता है। मन  जब एहसास करता है कि “ मैं “ शरीर हूँ, मैं  दुखी हूँ, मैं सुखी हूँ, तब अनुमान का अनुभव होता है। कोढी वेशधारी अभिनेता का अभिनय क्षमता  देखकर चित्रपट निदेशक आनंद होते हैं।कोढी कथा पात्र निदेशक को आनंददायक है।उसी समय दर्शक कोढी का रूप और अभिनय से तन्मय होकर दुखी होते हैं। निदेशक अभिनेता कोढी के सुख-दुख को समान रूप में देखते हैं। पर दर्शक  अभिनेता को कोढी ही मानकर यथार्थ सुख-दुख मानकर दुखी होते हैं।वैसे ही सत्य न जाननेवाले जीव दुखी होते हैं। अपनी सृष्टि चित्रपट को निदेशक के दृष्टिकोण जैसे एक साक्षी बनकर इस शरीर और संसार को देखने की स्थिति पर पहुँचते समय आत्मा को सहजानंद अनुभव प्रारंभ होता है। तब पता चलेगा  कि इस संसार के सभी प्रकार के सुख-दुख एक चित्रपट है।वे सब बोधानुभव  होते हैं।
    मैं शरीर हूँ सोचते समय ईश्वरदास बनेगा, मैं आत्मा का बोध होते समय ईश्वर का अंग मानेगा। मैं ही आत्मा की अनुभूति में  मैं और ईश्वर एक होकर अहंब्रह्मास्मी का तत्व होता है।
    11.
    आनंद नामक इस आत्म स्वभाव को अन्यत्र खोजना नहीं चाहिए।.
      इस संसार में सभी जीव राशियों के लिए आवश्यक है आनंद।
    हमारे दैनिक जीवन में हमारा और हर एक जीव की चेष्टाएँ अर्थात क्रियाएँ  सब के सब का लक्ष्य आनंद पाना ही है। लेकिन सुख कहाँ मिलता है और कैसे मिलता है? आदि जानने  की कमी के कारण ही जीवात्मा अंगों को न देखकर बाह्य अंगों की कामुक्ता में डूबकर खेलते हैं।उसके कारण आत्म तत्व के बारे में पूर्ण ज्ञान न होना और शैक्षणिक योजनाओं में आत्म तत्व का पाठ्य-क्रमों में स्थान न देना।शास्त्रों के शोध करते समय एक बढिया उदाहरण मिलता है। राजा विश्वामित्र त्रिकाल ज्ञानी वशिष्ट के आश्रम गए। तब उन्होंने कामधेनु को देखा,जो सभी माँगें पूरी करती है। अतः कामधेनु को प्राप्त करने युद्ध करके हार गये। वे राज पद को त्यागकर कठोर तपस्या करके राजर्षी से ब्रह्मर्षी पद तक पहुँचे।कामधेनु वास्तव में यह आत्मा है।संन्यासी बनने के बाद कोई भी वापस नहीं आते।संन्यासी से बढकर बडा सुखभोग और कोई नहीं  है।किसी कारण से जो वापस आते हैं, सुख भोग श्रेष्ठ नहीं कहते।
    उसी समय सुख भोगी गृहस्थ संन्यासी जीवन को बढिया नहीं मानते।
    कामुक्ता में स्थाई आनंद नहीं है।फिर भी क्रिया की विभिन्नता के कारण मनुष्य अपनी इच्छाओं का गुलाम बनकर यथार्थ आत्मतत्व स्थिति को समझने का अवसर न देकर कर्म में डूबकर खुश होते हैं।यही कर्म रहस्य को समझना चाहिए। हम जो भी कर्म करते हैं,यथार्थ “ मैं” आत्मा नहीं है। यह जानकर आत्मा से जुडकर हर एक मिनट आत्म बोध को बिना भूले,चाहों को या वासनाओं को पूरा करने कर्म करनेवालों को आत्मा के सहज स्वभाविक आनंद होगा।कस्तूरी मृग अपने में रहनेवाले सुगंध को न पहचानकर बाहर ढूँढता रहता है। वैसे ही मानव आत्मा के अपने स्वभाविक आनंद को न पहचानकर आनंद की खोज में बाहर खोजकर भटकते रहते हैं। अन्य स्थानों को मन जाने  रोकने के लिए  आत्म तत्व को सबल बनाना चाहिए। सिवा इसके और कोई मार्ग नहीं है।
    12   आत्मा  निर्विकार,निश्चलन,वह नित्य,शुद्ध बुद्ध मुक्त होती है।
    आत्मा निर्विकार होने से विशिष्ट है। बदलना है तो अपने से अन्य कोई वस्तु चाहिए। आत्मा से भगवान के सिवा और कोई अन्य वस्तु आने का साध्य नहीं है।आदी में अखंड बोध रूपी भगवान में नाद होने की झाँकी हुई। वह नाद  शक्ति होना है तो अपरिवर्तन शील बुनियाद चाहिए। वही बोध है। बोध के बिना नाद नही है। नाद ही बोध है। बोध मात्र ही है।  वैसे ही सृजन करना,सुरक्षा करना,मिटाना आदि नाम रूप में बना है।विकारों से मिश्रित है। उसमें स्थूल सूक्ष्म के बीच अंतर होता है। नाम रूप की सूक्ष्मता निर्विकार में अंत होता है। इसीलिए नाम रूप के इस दुनिया में एक झलक मात्र है। अर्थात मिथ्या ही है,माया ही है।
    कई बातों में परिवर्तन होने की संभावनाएँ होती है। आत्मा से अर्थात ब्र्ह्म से दूसरी अन्य वस्तु होने की संभावनाएँ नहीं हैं। क्योंकि ब्रह्म सर्वव्यापी होते हैं।. जो हुआ है सा लगता है, प्रपंच का संगठन हुआ-सा लगना जीव बोध का है। अर्थात प्राण में  शरीर बोध स्थित है तो परिवर्तन होगा ही। जीव “ मैं “  कौन हूँ ? की खोज करते समय जीव बोध का अहंकार  अर्थात शरीर बोध  का अहंकार विस्मरण होते समय दूसरा एक दृश्य नदारद हो जाएगा। दूसरा एक दृश्य नदारद होते  समय  बदल रहा जी भाव मिटकर  अपरिवर्तन आत्मा बन जाती है।
    हिलना /चलन का मतलब  है  एक स्थान  से दूसरे स्थान को जाना। उसे निश्चलन कहते हैं। आत्मा सर्वव्यापी होने से  अहंकार  के लिए उसमें स्थान नहीं है। अर्थात अहंकार का स्थिर रहना कैसे का प्रश्न उठेगा।आत्मा जब अपने सर्वव्यापक्त्व  को भूलते समय अहंकार का उदय होता है। जीव  सब  सदा काल आत्मा के सर्वव्यापकत्व  गुण भूलकर जी रहे हैं।आत्मा के सर्वव्यापकत्व गुण के स्मरण करते समय अहंकार भूल जाता है।अर्थात “ मैं ” का अहं मिट जाता है। जिस मनुष्य में  तैल धारा के जैसा आत्मा सर्वव्यापी का बोध स्थिर होता है,वह व्यक्ति अहं से छूटे व्यक्ति बन जाता है।अहं से मुक्त व्यक्ति भगवान बन जाता है। यथार्थ रूप के विस्मरण में ही पहले चलन होता है।एक व्यकति से पूछे कि आप नहीं तो यह संसार और भगवान रहेंगे क्या?
    वह  कहेगा कि मेरे होने न होने पर भी संसार और भगवान रहेगा ही।ईश्वर और भगवान आप के जानने से ही है।आप के न जानने पर दूसरे लोग जानेंगे। इस  विचार से कहनेवाले भी आप ही है। खुर्राटे  की नींद  सोते समय स्वयं नहीं है, तब तो कुछ भी नहीं है। अब उठने के बाद “ मैं” हूँ,मैं जानता हूँ।इसलिए सब कुछ है। लेकिन यहाँ का”मै” अहंकार का “ मैं”होता है। इसीलिए सोना,जागना होता है।किसी व्यक्ति को  सोते समय स्वप्न में एक “ मैं “ होता है। वह “मैं “ एक अलग दुनिया में कुछ लोगों  के साथ मिलकर सुख-दुखों को भोगने के समान स्वप्न देखता है। स्वप्न में हाथी हमला करने आता है तो भागता ही है। वह स्वप्न नहीं यथार्थ -सा लगता है। स्वप्न में समय ,स्थान आदि सत्य -सा ही लगता है। स्वप्न से जागते ही स्वप्न के दृश्य यथार्थ नहीं समझ में आता है। वैसे ही हर एक जीवात्मा स्वप्न के मैं ही है। इन स्वप्न के मैं जागते ही यह शरीर ,संसार ,ये रिश्ते ,अनुभव आदि यथार्थ के बिना बदलते हैं। यहाँ बनकर अस्थिर होना अहंकार और उससे संबंधित कल्पनाएँ मात्र हैं। उनके प्रमाण में आत्मा कहाँ से बना है?इस सवाल के जवाब के अंत ही आत्मबोध ही है। आत्मा रूपी  “मैं” से अन्य कोई दृश्य नहीं है। इस ज्ञान के महसूस होते ही “मैं” शाश्वत मालूम होता है। आत्मा अमृत रूप है। अमृत रूपी आत्मा को कलंक होने के लिए कोई संदर्भ नहीं है। सूर्य और किरणों को जैसे अलग नहीं कर सकते, वैसे ही परमात्मा और प्रकृति को अलग नहीं कर सकते।इस आत्मबोध को देखते समय अशुद्ध शब्दों के कोई महत्व नहीं है।इसलिए वह परिशुद्ध ही है।
    आत्मा को कभी  नियंत्रण नहीं कर सकते। उसे नियंत्रण में रखने दूसरी कोई शक्ति नहीं है। कारण आत्मा सर्वव्यापी है। कभी नियंत्रणन कर सकनेवाली आत्मा को  मुक्ति की जरूरत नहीं है। जीव ही बोध रहित है।जीव को नियंत्रण में ला सकते हैं। अतः जीव का कोई अस्तित्व नहीं है। आत्मा हमेशा मुक्त ही है। बुद्ध ही है। बुद्ध होते समय उदय,मक्ति   सब मन से स संबंधित कार्य होते है। मन  न होने की अवस्था में मन में होनेवाले नियंत्रण और मुक्ति को कोई बडा महत्व नहीं है। आत्मा नित्य मुक्त ही है।
    13.   जिन में मन नहीं है,वह  निरामय ,निर्मल और निस्संग है।
    मन रहित का मतलब है भगवान की परम दशा। कारण परब्रह्म में विचार नहीं आते। परब्रह्म स्वयंभू होता है। अर्थात स्वयं जो बने उसमें से स्वयं ही आदी रूप बनते है। परमात्मा से असीम शक्तियाँ प्रज़्वलित होते हैं। उनमें इच्छ शक्ति ,क्रिया शक्ति,ज्ञानशक्ति,सृष्टि,पोषण,नाश आदि भावनाएँ होने के बाद चिंतन मुख्यत्व पाते हैं।भगवान की उच्च स्थिति को परमात्मा की स्थिति को यहाँ निश्चिंत कहते हैं। सभी देव और देवियाँ जिस चैतन्य को ध्यान करते हैं,उस शक्ति दशा को निश्चिंत कहते हैं। देव-देवियों को नहीं कहते।
    यहाँ द्वैत्व न होने से दुख के कोई कारण नहीं है। इसलिए भगवान निरामय होते हैं।जहाँ द्वैत है ,वहाँ भय होता है। भय दुख के कारण होता है। परम दशा में द्वैत रहित दशा निश्चिंत है। मन अज्ञान होता है। अज्ञान अंधकार होता है। आत्मबोध रहित दशा में अंधकार का अनुभव होता है। पहले सूर्य के सामने बरफ पिघल जाता है, वैसे ही परमात्म दशा को पहुँचते समय माया से ढके अज्ञान अपने आप मिट जाता है।माया,नानत्व,पंचभूत आदि किसी में  परमात्मा नहीं रहते।लेकिन ये सब परमात्मा के लिए अन्य नहीं है। अतः आत्मा निस्संग है। क्योंकि आत्मा के विरुद्ध कोई दृश्य नहीं बनते। कारण कोई कहता है कि मैं अकेलाा हूँ। दूसरा कहेगा कि मैं जिस हवा का साँस लेता हूँ,वही आप लेते हैं। तब वह इन्कार नहीं कर सकता। वैसे ही पंचभूत हमेशा परस्पर एक दूसरे से आश्रित है। नाम रूप भी कल्पना कहते समय परमत्मा को बंधन में रखने कोई नहीं है।  नियंत्रित वसतुएँ सीमित है। वहाँ इच्छाओं को स्थान नहीं है।प्राण को बंधन है। जीव स्थिति में इंद्रिय से सबंधित है। जीव को परमात्म बोध होते समय निस्संगत्व होता है। जल कहनेवाला जीव केले के पत्ते पर गिरेंं तो चाह अथ्वा संग, कमल के पत्ते पर गिरें तो चाह रहित निस्संगत्व होता है ।

    14.निर्गुण ,पूर्णत्व स्थिति ,सगुण,व्यक्तित्व आदि मेंं भेद नहीं है

        निर्गुण कहते समय यह अर्थ नहीं लेना चाहिए कि कोई गुण रहित आदमी है।अमुक एक  गुणवाला नहीं अनंत गुणवाला है। इस सच्चिदानंद रूप में सभी अनंत गुण अंतर्गत होने से उसको प्रत्येक गुणवाला कहने की जरूरत नहीं है। सभी गुणों से भरा एक व्यक्तिगत भगवान की कल्पना करते समय अपरिमित असीम भगवान को सीमित दायरे में लाना पडेगा। सगुण के सभी ईश्वर बीज होते हैं। परब्रह्म निर्गुण  की चिनगारियाँ होंगी। उदाहरण के लिए बिजली ज़ीरो वाल्ट  बल्ब में भी है। 1000 वाल्ट बल्ब में भी है। ट्रान्सफ़र्मर में भी है। बिजली पैदा करनेवाली जनरेटर के संचालक शक्ति में भी है। इसका उत्पत्ति स्थान की खोज करते समय हमारी आँखों में दिखाई न पडेगा। उस अदृश्य एलकट्रान प्रवाह  द्वारा अदृश्य शक्ति के रूप में बदलते समय उस शक्ति को क्रियाशील बनाने से ही उसको गुण रूप होता है।उसके जैसे परमात्मा को शरीर की गतिशीलता से कल्पना करते समय ही सगुणेश्वर कह सकते हैं। निरुपाधिक स्थिति को ही निर्गुण स्थिति कहते हैं। शक्ति शक्ति उपाधियों से मिलकर कई गुणों से स्थित रहने को ही कई देव -देवियाँ बनकर सगुणेश्वर के विशेष नाम पाते हैं।
    गुण रूप या उपाधि उसकी सूक्ष्म अवस्था में शक्ति से भिन्न नहीं है।
    शक्ति  रूप लेने पर भी उसकी समष्टि भाव अरूप स्थिति से स्वरूप स्थिति भिन्न नहीं है। वह समष्टि स्थिति ही समझना चाहिए।
    15.आदी अंत रहित आत्मा अनादी से प्रज्वलित है।
    भगवान के आदी की खोज करते समय यह भी प्रश्न उठेगा कि भगवान की सृष्टि किसने की है। उस प्रश्न के उत्तर में पहला प्रश्न प्रश्न करेवाले मन से उठता है। प्रश्न करता को अपने आप से प्रश्न करना चाहिए कि क्या मेरा जन्म हुआ है। तभी समझ में आएगा कि कुछ सालों के पहले यह शरीर ,यह ज्ञान,यह मन नहीं है। इस प्रकार पिछलीी बातों का स्मरण करें तो माँ के दूधद पान की याद आएगी। फिर सोचना पडेगा कि क्या मैंने  माँ के गर्भ मेे रहतेे समय सोचा था कि मेरा जन्म भूमि में होगा। बुद्धिि मेंं विविध  प्रकार के प्रश्न उठते रहेंगे। तब अवस्थाओं के बारे में ज्ञात होगा।पर शरीर,मन,बुद्धि, बोध,सत कहनेवाली आत्मा के बारे में जानना  असाध्य हो जाता है। यहाँ शरीर और मन लगभग एक लाख दो हजार  नाडियाँ,नशें,जान,हृदय,रीढ की हड्डियाँ आदि हमारी बुद्धि से नियंत्रित है।कह सकते हैं कि  ये सब हमारै हैं। जो कुछ अपना है ,वे सब ”मैं” नहीं बनते। तब  मालूम होगा कि  “ मैं ” उनसे भिन्न होता है।इसलिए सब कुछ जाननेवाले ज्ञान को अर्थात शरीर ,संसार को भूलकर कोई श्रीगणेश करने का मौका नहीं है।उस स्थिति से देखते समय शरीर के जागृत,स्वप्न,सुसुप्ति,तुर्यातीत स्थिति तक पहुँचे योगी या ज्ञानी शरीर के उदय अस्त के बारे में जान सकते हैं। पर  “मैं” नामक आत्मा के आरंभ -अंत को जानने का साध्य नहीं है। इसलिए आत्मा की विशेषता आदि अंत रहित अनादी कहा जाता है।

    16.उत्पत्ति,सत्य,विकास  नहीं,
        परिवर्तन,अपघटन (भिन्नत्व) , नाश तीनों नहीं है।
    उत्पन्न होता है तो अंतहीनता जन्म लेना आदि के लिए साध्य नहीं है।
    उत्पन्न होता है तो उसको न हुआ है की स्थिति भी होती है। जो उत्पन्न होता है,उसका नाश भी होता है।  एक को सत्य दूसरे को असत्य कहने का मौका नहीं है। पंचभूत पिंजड़े को लेकर ही उत्पत्ति  होने का अवसर होता है। उसमें स्थूल और सूक्ष्म होता है। स्थूल दृश्य होता है और सूक्ष्म अदृश्य होता है। इनको उत्पत्ति होती है। आत्मा अंत रहित है।अतः भूत रूप में कोई बंधन नहीं है। इसलिए उसकी उत्पत्ति कभी नहीं होगी।वह तो शाश्वत है।परमात्मा वर्णनातीत सत्य है। इसीलिए उसको सत्य नहीं कहते हैं। जिनमें विकास है,वे सीमित है।एक ही स्थिति में आत्मा है।आत्मा आत्म स्थिति से बढती नहीं है। अनंत है।वह सूक्ष्मता से स्थूल की ओर नहीं आती,उसका विकास भी नहीं होता।
    जिन विषयों की सीमा होती है, उन्हीं में ही परिवर्तन होते हैं।आत्मा सर्वव्यापी होने से आत्मा अपरिवर्तनशील होती है।स्थान,काल के निमित्तों के अपार आत्मा होती है। आत्मा  अपूर्ण रूप में या पूर्ण रूप में मिटती नहीं है। रूपों का मात्र नाश होता है। आत्मा के रूप न होने से वह अनश्वर होती है। सब कुछ मिटकर जो रिक्त होताा है,वही आत्मा है।इसलिए आत्मा को कोई भी शक्ति विनाश नहीं कर सक्ती ।
    आत्म हत्या का शब्द जीवात्मा के लिए है। जीवात्मा मन ही है।पुष्पों का सुगंध कितना सूक्ष्म होता है, आकार रहित।वासना का निवासस्थान अहंकार सेे पूर्ण। अहंकार का स्थान स्वरूप विस्मरण होता है।वासनाएँ स्थाई चाहक शरीर में अड्डा बना लेती है। वही नाश आत्महत्या होती है।
    शरीर मात्र मिटता है।हर एक जीव शरीरर के अंत समय की सोच केे अनुसार पुनर्जन्म लेता है। सगुणेश्वर कुल देव कीी आराधना करनेवाले सत्य लोक वैकुंठ,कैलाश,स्वर्ग लोक,सूर्य लोक,चंद्र लोक,नक्षत्र लोक आदि लोकों को जाते हैं। पुण्य मिटते तक वहाँ रहकर फिर पुर्जन्मम  न होने के लिए कोशिश करना पडता है।नाम रूप रहित परब्रह्म के प्रथम अक्षरर ओंकार के स्मरण में जान तजनेवालेे तन्मय भावना अर्थात मन पूर्णतया मिटने की स्थिति को पाते हैं

  17.  सदा स्मरण रखना चाहिए कि लिंग भेद रहित आत्मा अलौकिक क्षमतावान है “आत्मा”.
      सभी प्रकार के व्यवहारिक वैवाहिक बातें होते समय उनके साथ किसी प्रकार के बंधन के बिना खडे रहने की क्षमता को ही अलौकिक सामार्थ्य कहते हैं।आकाश में काले बादल फैलते समय आकाश में कुछ नहीं होता।यही आत्मा की दशा है। लौकिक नियंत्रित है,अलौकिक अनियंत्रित है।
आकाश से सूक्ष्म आत्मा अर्थात उस परम चैतन्य को स्त्री या पुरुष के विभाजन कर नहीं सकते। गुण रूप को लिंग के फ़रक होते हैं। परब्रह्म में  स्त्री,पुरुष की विशेषता नहीं होते। कारण इतिहास की जाँच में रूपवाले सारे देव,देवी अनंत चैतन्य को नमस्कार करने को समझ सकते हैं। प्रकृति नामक स्त्री,पुरुष नामक आत्मा अर्थात
शिव शक्ति के रूप में खडा रहता है। वह फूल और सुगंध जैसे होते हैं। पुरुष
सूर्य और किरण के जैसे हैं। प्रकृति अर्थात स्त्री आत्म चमत्कार है।






18.सब को भरकर उमडने की आत्मा ,किसी से चिपकता नहीं ।
सृजन करना,स्थिर करना,नाश करना आदि होते समय इन सबके साक्षी रूप में स्थिर रहकर सकल चराचर अंतर्यामी के रूप में प्रभव,प्लय खेल का नाटक होने पर ये सब आतमा को तनिक भी छूते नहीं है।वह वस्तु ही परमात्मा है।
स्नेह-बंधन होना है तो द्वैत होना चाहिए। भेदबुद्धि होनी चाहिए। सृष्टि करना,सुरक्षा करना,मिटाना या नाश करना आदि माया के अंदर की घटनाओं का विकास है। मावा ही नियंत्रण और बंधन बना सकती है। ज्ञान के विभाजन में वेदांत होने की संभावना ही नहीं  होती।जिसने वेद के अंत तक अध्ययन किया है,वही वेदांती है। वेदांति  परम स्थिति तक पहुँच चुका है। आकाश में नक्षत्रों का उदय होना,अस्त होना सहज घटनाएँ  हैं। आकाश में जो भी होता है,तभी प्रकाश होता है। बिजली की चमक,वज्रपात गर्जन। वह आकाश में ही ओझल हो जाता है। इस प्रकार इस प्रपंच के सब स्व मात्राएँ और कण अपनी परम स्थिति आकाश में ओझल होने पर आकाश में कुछ नहीं होता। दूसरे उदाहरण के द्वारा इसकी व्याख्या कर सकते हैं एक दियासलाई को रगडने पर आग जलता है। वह पासपरस होने से फौरन आग लगता है। दो पत्थरों के रगडने से आग जलता है। यह आग आकाश में ही होता है। वह  न होना भी आकाश में ही है। लेकिन हम नहीं जानते कि आकाश को कुछ हुआ है कि नहीं। इसलिए  आकाश से अति सूक्ष्म आत्मा को क्या होनेवला है? इसलिए आत्मा को किसी से लगाव नहींं है।
19. सच्चिदानंद रूप ही आत्मा,स्वयं जानने की प्रज्ञा है।
सर्वव्यापी सत्ताधारी  परमात्मा से मन जुडते समय आनंदानुभव होता है। अन्यत्र रहकर सर्वज्ञ, सर्व मुखी,सर्वस्व  स्वयं भगवान ही है। बाहर से जो ज्ञान मिलते हैं,वह सीमित है। सीमित ज्ञान को जानने का ज्ञान भी सीमित ही रहेगा।सब जानकर जब जानने को कुछ भी नहीं होता, अंदर परम विवेक उदय होते समय सभी ज्ञान “ मैं ” में बदल जाता है। “ मैं “ से अन्य कोई दूसरी वस्तु स्वयं नहीं हो सकता। उदाहरण के लिए एक सिमंट टैंक से पानी निकालने पर पानी खाली हो जाएगा। एक कुएँ से खींचने पर पानी खाली न होगा। सूर्य के सामने कालेबादल  छा जान पर कहते हैं,धूप चली गयी। वास्तव में धूप आती जाती नहीं है। कालेवबादल ही आते जाते हैं। वैसे ही हर एक परमात्मा नामक ज्ञान सूर्य होता है। वही संपूर्ण होता है। उसमें काले बादल हैं नाम रूप । नाम रूप को छोडने के संपूर्ण ज्ञान को प्रज्ञा कहते हैं। वही ब्रह्म है। सब के ज्ञाता और अज्ञाता भगवान ही है।
20.सत्य ही आत्मा,स्नेह ही आत्मा,प्यार रूप में शांत
हम परमात्मा को ही सत्य, सत्य कहते हैं। उस सत्य को ही सच्चा प्रेम मानकर मनाते हैं। उसी को पवित्र प्रेम की विशेषता देते हैं। इसका आदी और अंत स्वभाव शांत ही है। वास्तव में जगदीश्वर के भिन्न नाम ही है ये सब। काम और प्यार दोनों भिन्न भिन्न अर्थ के शब्द होते है। काम कहने पर पुरुष को स्त्री के प्रति, स्त्री को पुरुष के प्रति होनेवाले शारीरिक आकर्षण ही काम है। काम जहाँ होता है, वहाँ राम नहीं होता।
इसका मतलब होता है कि शारीरिक,मानसिक,भौतिक आदि  में कोई न कोई लाभ के बिना प्यार के लिए कोई प्यार नहीं करते। एक बार प्रेम हो जाने पर कभी नष्ट नहीं होते।किसके लिए प्यार करते हैं? उसका जवाब यही होगा कि प्यार के लिए प्यार करते हैं। यहाँ किसी भी प्रकार की प्रतीक्षा नहीं  होती। यही वास्तविक प्यार हैl यथार्थ प्रेम में प्रेमी को प्रेमिका की आवश्यक्ता नहीं होती की स्थिति आने पर प्यार पूर्ण होता है। सामान्य लोग और भक्त लोग कहते हैं कि भगवान की प्रार्थना में मन नहीं लगता।एकाग्र चित्त से ध्यान मग्न होना मुश्किल सा लगता है। मानव को जो विषय विशेष लगता है,उसपर उसका मन हर मिनट उस पर लगता है।उदाहरण के लिए हम एक मेले में मेले को प्रेम से  देख  रहे हैं। आतिशबाजियाँ फट रही है। तब गले के 80 ग्राम सोने का चैन टूट जाता है।तब हमारा ध्यान केवल हार पर ही  लगेगा। प्रेमी या प्रेमिका को दिखाते समय किसी प्रकार के कष्ट के बिना प्रेम होने का मतलब है परस्पर इससे  बडा आनंद और कोई नहीं है का विचार ही है। वैसे ही भगवान पर तीव्र प्रेम व्यवहार करने पर उनका स्वभाविक मरमानंद पा सकते हैं। इच्छा दया और  करुणा के रूप में बदलते समय यथार्थ  स्नेह होता है। आत्मा की सहज दशा को स्नेह कहते हैं। वह अति पवित्र होता है। आदर्श प्रेम को काम,क्रोध,मोह,मत्सर,लोभ,रूप रस,गंध,स्पर्श आदि कोई भी नहीं स्पर्श नहीं कर सकते। इन सब के ऊपर होने से ही प्यारको भगवान कहते हैं। सत्य को कभी शब्दों से व्याख्या नहीं कर सकते। सत्य को कभी सत्य से व्याख्या कर नहीं सकते। सत्य कहने पर भी ,असत्य कहने पर भी मौन रहने पर भी समाज चुप न रहेगा। कारण सत्य हमेशा निशब्द होता है। निशब्द  शब्द होने पर प्रकृति दंड देती है।चींटी से लेकर सृष्टि कर्ता तक सभी जीवराशियों को संभोग अति मुख्य विषय है।उस विषय के नाम से सारे विश्व मे अत्याचार,अनाचार,अनीति ,मानसिक संगठन,लंबे समय से लगातार
हो रहे हैं।इन सब का कारण जगत मिथ्या ,ब्रह्मं सत्यं आत्म अजर,अमर शरीर और संसार मृगमरीचिका आदि का ज्ञान न होना ही है। अर्थात काम  शारीरिक बोध अहंकार है। उस अहंकार के नाश हौने पर ही आनंद रूपी आत्मा  अमर हो सकती है।
बाह्य अवयव सब के सब उन्नति के बदले पतन की ओर ले  जाएँगे। उसी समय के अंदर प्रवेश होनेवाले  सब के सब अनश्वर दशा की ओर लै जानेाला नित्य सत्य है।
बाह्य अवयव स्वरूप से स्व आत्मा को अघोर ,द्वैत, अहंकार बनाकर मृत्यु की ओर ले जाते है। लेकिन आंतरिक अवयव  स्वस्वरूप स्मरण दिलाकर अहंकार को नाश करके जीव को मरण से अमृत रूप में बदल देता है। लेकिन मृत्यु के बारे में अनिश्चित मनुष्य की कल्पनाएँ  अनर्थ होती है। वहीं आत्मा का मुख्यत्व प्रकट होता है। इस प्रपंच रहस्य रहस्य को समझकर सत्य की स्थापना करनेवालों को प्रकृति जीने नहीं देती। जीने देने का इतिहास भी नहीं होता। इस प्रपंच को,जीव के नित्य-अनित्य को  आत्म  तत्व को गहराई से जानकर समझकर प्रचार करनेवाले महान ज्ञानी विश्व के अन्य जातियों के लोगों से भारत में अधिक है।वैसे अवतार पुरुष,आध्यात्मिक गुरु
और अधिक काल क्यों नहीं जिए का दुख कई लोगों में है।इस आत्म तत्व को ठीक तरह से पहचानकर जो जीते हैं, वे ही  सांसारिक समस्याएँ जो भी हो,उनका सामना आत्मज्ञान को अस्त्र बनाकर आत्मज्ञान के नाना तत्व में एकत्व देखने का बुद्धि लेकर कर सकते हैं और सफलता पाने का धैर्य होगा। इसलिए सत्य की भाषा मौन ही है। अंत हीनता कुछ भी बोलती नहीं है। इसीलिए सत्य को आत्मा की व्याख्या मानते हैं।
21.सर्व चराचर के कारण और सब के निवास स्थान
आत्मा ही कारण और कार्य होती है। जो नहीं थी,उनसे बनी है यह दुनिया। माया भरी दुनिया में सत्य की  खोज करें तो वह न मिलेगा। कारण माया दिखानेवाले इंद्रजाल है। लेकिन वह तो ओझल हो जाता है।इसे जानने के कारण आत्मा सर्वव्यापी होने से कार्य कारणों के लिए अतीत होता है।
सभी वेद,मंत्र,देवता,होम,यज्ञ,आदि करके जहाँ जाना है,वहाँ जिसमें परमात्मा बोध है,वह कुछ भी किये बिना चलता है। ये सब परमात्म बोध पाने के लिए करना चाहिए।इसलिए ये सब आत्मा ब्रह्म ही है,वह आत्मा “ मैं ही” को समझ जाएँगे उसको किसी समझ लेंगे तो किसी निवास स्थान की खोज में जाने की  आवश्यक्ता नहीं है।
    समझ लेना चाहिए कि सबका निवास स्थान आत्मा ही है। इसलिए आत्मा को ही
स्मरण करें तो या पुरुष प्रयत्न द्वारा सभी  निवास स्थान आत्मस्वरूप में जाकर पहुँच सकता है।आत्म को ही पुरुष कहते हैं। पुरुष प्रयत्न का मतलब है स्व आत्मा ही है।
हर एक मिनट सोचकर प्रशंसा करके उसी को परस्पर जागृत करके उसी की कल्पना
करके वैसा ही बन सकता है। मेरे मरण से उपद्रव दूर होंगे का मतलब है मेरे न होने पर समस्याएँ नहीं है। “ मैं “ हूँ, “ मैं “ जानता हूँ, अर्थात मैं ही सभी समस्याओं के कारण है। भगवान ने प्रारंभ में आदाम की सृष्टि की है। ब्रह्मा आदी में दक्ष प्रजापतियों की सृष्टि की। या स्वयंभू सदाशिव से त्रिमूर्तियों  की सृष्टि की हैं। वेद में जो कुछ है,उन्हें कहने “ मैं “नहीं तो दूसरे लोग जानते हैं। कोई नहीं जानते हैं तो भगवान  जानते हैं कहने के लिए “ मैं “ चाहिए। “ मैं “ कहने की आत्मा को विवेक से देखते समय
आत्मा में ही सब कुछ है। ईश्वर सर्वव्यापी होने से स्थान नहीं है। “ मैं “ कहाँ खडा रहूँगा की जगह खोजते समय “ मैं “ नदारद हो जाता है। जब “मैं “ ,अहं मिट जाता है तो शेष वस्तु रूप आत्मा होगी। वही सबका निवासस्थान होता है।

22.एक रस होनेवाले एक ईश्वर ही आत्मा है।  पूर्ण चैतन्य गुण के हैं।

      नवरस होने पर भी  अपरिवर्तनशील आनंद रूपी  एक रस में मिलकर रहना ही आत्मा है।अहं ब्रह्मास्मी अर्थात मैं ब्रह्म हूँ,तत्वमसी तुम ब्रह्म हो।अर्थात यह आत्मा ब्रह्म है,  प्रज्ञा ब्रह्मा है, चारों वेद यही बताते हैं। मैं  कहनेवाली  आत्मा से अन्य दूसरा दृश्य
नहीं होता। इस  बात पर विश्वास होकर प्रज्ञा से दृश्य  छोडकर अपने में ही लय होने पर  वहाँ एक के सिवा और कुछ नहीं है। हम जागते समय एक प्रपंच फूल खिलता है। इममें  मन नहीं तो किसी भी दृश्य को देख नहीं सकते। आप किसीसे पूछेंगे कि आप कहाँ  खडे  हैँ?  जवाब लेगा कि आप के समने या ज़मीन पर। सचमुच वे अपने मन पर खडे हैं। अपने मन नहीं तो यह प्रपंच नहीं है। हमारा मन ही इस प्रपंच के आकार में तडके खिलता है। वही ब्रहम कमल है।यह बात समझने पर किसी को शाप न देंगे कि तुम्हारा नाश हो शब्द जहाँ उदय होता है, वही अस्तम होता है।कारण उस नाश का अंत अपने में ही है। विचार की पूर्ती एक परिक्रमा है। वैसे ही दृश्य जगत में हम किसी को मदद करने से हम अपने आप को मदद कर लेते हैं। कारण हमारा मन ही उस आदमी के रूप में दृश्य बनकर स्थिर हो जाता है। और हमें साँस लेने व्यक्तिगत हवा नहीं है।  हम जिस हवा को साँस लेते हैं,उसी को सभी जीवराशी एक ही समय पर साँस लेते हैं। मैं साँस लेता हूँ ,कहते समय प्रपंच दृश्यों को हम से अन्य नहीं कर सकते। हमारा शरीर हम देखनेवाले दृश्य पंचभूतों का  मिश्रित दृश्य है।
हमारी आत्मा और हमारी दृष्टि की जीवात्मा एक ही है। उदाहरण के लिए एक तडाग के पानी में सूर्य के प्रतिबिंब निश्चल पानी में दीख पडेगा। पानी में चलन होने पर हजारों  बुलबुले दीख पडेंगे। हरेक बुल बुले में एक एक सूर्य आकार दीख पडता है।
बुलबले न होने पर एक ही सूर्य दीखता है। यह तत्व ही आत्म तत्व मैं है। इसलिए एक रस ,एक रूप कहा जाता है। आकाश में करोडों नक्षत्र होते हैं। नवग्रह होते हैं। हर एक मिनट बनकर नष्ट होनेवाले प्रकाश मंडल,वज्रघात,बिजलियाँ,काले बादल,हवा,तूफ़ान आदि जो भी संभव हो आकाश को कुछ भी न होगा। उदाहरण के  लिए चित्र पट पर चित्रपट के दृश्य बदल बदलकर आते समय पट पर कई प्रकार के दृश्य आते हँ। सृष्टि ,नाश प्रलय आदि जो भी हो श्वेत पट को कुछ नहीं होगा,वैसे ही परमात्मा स्वरूप सदा नित्य सत्य पूर्ण चैतन्य रूप में शाश्वत रूप में स्थिर खडा रहता है। वही आत्मा का स्वभाव है।

23. शाश्वत,अदृश्य,आत्मा,अतुलनीय अंतहीन .
जिसको रूप है,उसको अंतहीन रहने का साध्य नहीं है।आत्मा असीम होने से उसको अंतहीन कहते हैं। भगवान को सर्वव्यापी होना आवश्यक है। सर्वव्यापी को रूप होने की नियती नहीं है। जिसको रूप है,वही दृश्य है। भगवान खोजने की शक्ति है।  भगवान  के सत्य में खडे होकर देखते समय मालूम होगा कि आँखों के सामने दृष्टिगोचर होनेवाले कोई भी वस्तु मैं कहनेवाला आत्मा नहीं है। समझ में आएगा कि मैं जिसकी खोज करता हूँ, वह मैं ही है। और  सभी शक्तियों के अंतर्गत रखनेवाली कभी अनश्वर रहनेवाली  ही आत्मा होती है। किसी एक व्यकति से भूमि को नाप करने  के लिए कहें तो बहुत ही स्वल्प स्थानों को ,चंद लोगों को मात्र कलपना कर सकते हैं। वैसी भूमि से कई लाख गुना बडा है सूर्य। 
सूर्य से करोडों गुना बडा है एक नक्षत्र। तब दो नक्षत्रोें का नाप कितना बडा होगा? वैसे हम अपने साधारण आँखों से कितने नक्षत्र देखते हैं?  दूरबीन के द्वारा कितने नक्षत्र देखते हैं?  इतने बडे प्रपंच को अपने दिमाग से कल्पना तक नहीं कर सकते। मैं जानता हूँ  का  मतलब है यह संपूर्ण प्रपंच स्थिर खडा है।  मेरे दिमाग में ही यह ब्रह्मांड है।उस ब्रह्मांड में भूमि स्थित है। उस भूमि पर मैं स्थित हूँ।

कोई व्यक्ति अपनी निद्रा की अवस्था में स्वपन देख सकता है कि उसने अनेक लोक,चौदह लोक में संचरण कर रहा है। वस्तविक बात तो यह है कि यह शरीर तो अपनी जगह में लेटा है। कहीं नहीं गया है। अर्थात अपने अंतर्मन में विस्तृत दीखपडनेवाला ही यह प्रपंच है। स्वप्न से छूटते ही स्वप्न के दृश्य मरुभूमि की मृगमरीचिका के समान हो जाएँगे। तब आत्मबोध होगा। जो दृश्य स्वप्न में देखे वे मृगमरीचिका के पानी के समान ओझल हो जाएगा। स्वप्न  में यथार्थ शरीर को भूलकर स्वप्न शरीर में संचरण करते समय यथार्थ शरीर छिपने के जैसे मैं अब मोह निद्रा में है,यह शरीर स्वप्न शरीर है,यथार्थ शरीर आत्मा अदृश्य है,नेत्रों द्वारा देख नहीं सकते। इसका प्रमाण है स्वप्न और स्वप्न के दृश्य। स्वप्न छोडकर यथार्थ शरीर में आत्मा में जागते समय यह शरीर ये दृश्य मृगमरीचिका जैसे मिथ्या होते हैं।मृगमरीचिका अनुभव देगा। सत्य में समय और  स्थान का विस्तार मनुष्य की कल्पनाएँ मात्र हैं।
24.आत्मा को जान नहीं सकते,  आत्मा के समीप  नहीं जा सकते, आत्मा को नाप नहीं सकते, उसे समझ नहीं सकते।
आत्मा कभी ज्ञान के विषय में नहीं आती। जो नाम रूप में जुडते हैं, वे ही ज्ञान के विषय हो सकते हैं। इनको  इंद्रियों से ,मन से जान नहीं सकते तो किसके द्वारा जान सकते हैं। जब इंद्रिय और मन नहीं होते,अर्थात मन मरते समय जो बचता है, वही आत्मा होती है।
आत्मा दूसरे स्थान में  जुडने का विषय नहीं है।” मैं “ ही उसके जुडने का स्थान है। इसलिए उसके समीप जा नहीं सकते।  जिसका प्रमाणित करना चाहिए वह “ मैं “ ही हूँ।  इसलिए उसको नाप नहीं कर सकते। उसको समझना भी अति मुश्किल होता है।
मन नाश होते समय शेष जो रहता है,इंद्रियों से मन से न जुड सकनेवाला जहाँ से वापस आता है,उस स्थान को आत्मस्वरूप कहते हैं। मन से स्वर्ण चाहिए, मिट्टी चाहिए कहने पर मार्ग दिखाएगा। लेकिन मनसे परमात्मा की माँग करने पर मन को मार्ग न होकर वह अपने स्थान को ही वापस आएगा। प्रश्न के आरंभ  स्थान को ही चलेगा। मन और बुद्धि को एक सीमित रूप ही है। सीमित से असीमित को जान न सकने पर नासमझ कहते हैं। 

25. अंतर्यामी  चित्त पहचान नहीं सकता।आत्मा अद्वैत है,व्याख्या नहीं कर सकता। कर्मेंद्रिय और ज्ञानेद्रिय के पार साक्षी रूप में आत्मा स्थित है। विचार कहाँ से उत्पन्न होते हैं? इस की  खोज करते समय उसका निवास स्थान “ मैं “ही केंद्रबिंदु  है का पता चलेगा। अपनी अनुमति के बिना अपने में कोई विचार होगा तो मनुष्य कहेंगे। अपनी अनुमति के साथ कोई विचार उदय होगा तो देव कहेंगे। कोई भी विचार न होगा तो भगवान कहेंगे। यहाँ  एक मनुष्य में हर मिनट विचार आते-जाते रहेंगे। विचारों की श्रृंखलाओं को नियंत्रण कर नहीं सकते। विचार आपके ही है। फिर भी हमारे  नियंत्रण में रहित विचार आते समय ही हमारे अतिरिक्त दूसरे एक  व्यक्ति हममें हैं। वही  यथार्थ “ मैं “होते हैं। यथार्थ “ मैं ‘ को पहुँचना चाहिए तो विचारों की भूमिका को जाने
के सिवा और कोई मार्ग नहीं है। इसके पहले कई युगों के मन्वंतरों के  इस जीवन वृक्ष में जड रूप में जमा किये गये  विचारों के ढेरों को दुर्बल करने अहंकार के बीज को आत्मज्ञानाग्नि में भूनने के सिवा और कोई मार्ग नहीं है। जिस व्यक्ति में अपने विचारों को  प्रारंभ में ही नियंत्रण करने की क्षमता होती है, उसी में इच्छा शक्ति होती है। वैसे इस पंचभूत के सम्मिलित शक्ति के सूक्ष्म शरीर में आत्मा स्थित होने से उसको अंतर्यामी कहते हैं।
चिंतनों को उत्पन्न करनेवाले  केंद्र को मन में ला नहीं सकते।चिंतन को उत्पन्न करनेवाले स्थान को पीछे धकेलने की कोशिश करते समय चिंतन अस्त होते हैं। इसीलिए  उसे चिंतन रहित कहते हैं।वह स्थान परमात्मा का निवास स्थान जहाँ शब्दों तक  न जाकर वचन वापस आ जाते हैं।  देव-देवियों को मंत्रों से प्रार्थना करते समय शब्द देव-देवियों के रूप में वापस आते हैं । अरूप आत्मा की प्रार्थना करने की कोशिश करते समय शब्द जहाँ से निकलते हैं, वहाँ वापस आते हैं। इसलिए परमात्मा के रूप वर्णनात्मक है।
हमको अब शरीर बोध होता है। शरीर  के बोध होने से  कई  प्रकार की  बुद्धि होती है। अर्थात विविध प्रकार में एक,एक प्रकार में अनेक कहना स्मरण-विस्मरण की स्थिति जैसे ही है। स्मरण कहना प्रकृति है। विस्मरण पुरुष प्रकृति विविध प्रकार की है। शरीर बोध में ही याद और  भूल  की घटनाएँ होती है। प्रतीक्षाएँ,यादें ही शरीर बोध  नामक अहंकार के कारण बनतीं।  पर्दे में सभी कार्य चलते हैं। भूतकाल के स्मरण कुछ भी नहीं होगा। इस सच्चाई को विवेक से समझते समय वर्तमान को भोगना साध्य होता है। भूत और भविष्य को भूल जाने पर अहंकार स्थिर खडा रह नहीं सकता। अहंकार के लिए कोई सत् नहीं होता। आत्म सत को लेकर ही अहंकार क्रिया शील होता है। अहं रिक्त बोध में स्थिर रहते समय भेद बुद्धि दृश्यों में नहीं होती।  सही आत्मबोध पहुँचते समय अर्थात मूलाधार, मणिपूरकम् ,स्वादिष्ठानम्, 

विशुद्धि, आज्ञा,आदि योगियों की बातें षठाधारों को पारकर कुंडलिनि शक्ति, सहस्रदल पद्म  अर्थात चिताकाश पहुँचते समय योगी खुद सर्व अंतर्यामी होने की अनुभूति करता है। ऊपर मैं, नीचे मैं, दाये मैं,बाये मैं,” मैं “ के बिना कोई स्थान नहीं है। इस स्थिति पर पहुँचता है। वहाँ कोई मन नहीं होता। मन की स्थिति सत्व में बदलता है। फिर  वह मन नहीं है। वह सति स्थिति में ही सभी सथानों पर “ मैं “ रहने का एहसास करता है। वही अद्वैत स्थिति है।

26.आत्मा अदृष्टिगोचर है और व्याख्या से परे हैं। आत्मा स्थिर है,विभाजित नहीं कर सकते।
आत्मा अदृश्य है। व्यख्या से परे हैं। आत्मा  के बारे में कहकर समझा नहीं सकते।
दर्शनीय सब के सब परमत्मा नहीं है। अहंकार नामक शरीर बोध स्थिर खडे रहते समय दृश्य दर्शनीय बनते हैं ।आँखों से देखने के दृश्य,आँख ,शरीर,अपने दृश्य में बदलते समय साक्षी स्थिति पाते समय व्यवहार के लिए स्थान रहित अदृश्य हो जाते हैं।  शरीर को पूर्ण रूप से अपने दृश्य रूप में देखते समय  “मैं” आत्मा के साक्षी रूप खडा रहता है। वायु गतिशील होती है। वायु मंडल के पार और मंडल होते हैं। एक स्थान से दूसरे स्थान को संचरण करने को ही विकार कहते हैं। वायु  सीमित है।
सीमित सभी वस्तुओं को विकार करते हैं। आत्मा आकाश की तरह असीमित है। वह सर्वव्यापी  होने से उसको वर्णन नहीं कर सकते। वह आता-जाता  नहीं है।वह गतिशील नहीं है। इसलिए वह अनश्वर है। इसीलिए उसे अक्षर कहते हैं। उसे कभी विभाजित नहीं कर सकते। आतमा का रूप कभी विभाजित  नहीं कर  सकते।

27.  जानना चाहिए कि आत्मा ओंकार मात्रा के अनुसरण है।

आदी में ओंकार शब्द ही यह प्रपंच रूप में होता है। त्रिकाल,भूतकाल,वर्तमानकाल,भविष्यत काल ही नहीं काल से परे तीन कालों से
उल्लंघित जो है वह भी ओंकार ही है।इस ओंकार को चार भागों में समझ लेना चाहिए।भागों का मतलब है भावनाएँ।।अ,उ,म् वे मात्राएँ चार पाद अ स्थूल अर्थात व्यष्टि  या जागृत ।उसको वैश्वानर ,विश्व नाम से बुलाते हैं। वही पहला पाद होता है। दूसरा “उ” स्वप्न दशा। वह सूक्ष्म पाद है। उसको तेजस नाम से बुलाते हैं।तीसरा पाद   “म् “ अर्थात सुसुप्ति । वह गहरी नींद होती है। वह कारण भाव होता है।  उसे प्राज्ञ कहते हैं। चौथा  पाद अम् मात्रा, त्रिकालों के परे स्थिति है। (बोध के पार की स्थिति) वह सभी स्थितियों में व्यापित  होने पर भी पूर्ण चैतन्य है। वह ब्रह्म बनने की आत्मा होती है। नाभी से निकलनेवाला वायु शब्द  अक्षर में रूपांतर  होकर कंठ  से ओंठ तक कई स्थानो को  स्पर्श करते समय ही ओं को उच्चारण करते समय अकार  कंठ में पडनेवाले  शब्द  सभी  स्थानों को पारकर “म् “ धवनि आएगी। फिर ओंठ छूकर अंत होता है। ओंकार ही अक्षरों  और भाषाओं  के द्वारा आता है।

आत्मा जागृत अवस्था में बाह्य विषयों को जान सकती है। सात अंग,उन्नीस मुखों को आँखों से देखने के विषयों के उपभोग्ता के रूप में रहनेवाले बोध को ही इसका पहला पाद कहते हैं। वही वैश्वानर है।
आत्मा सूक्ष्म दशा में अर्थात्  स्वप्नावस्था में (अंतरंग मात्रा में क्रिया करने का बोध) सूक्ष्म विषयों को सूँघता है। मन स्वयं विविध रूप में परिवर्तन होकर भोगने का अनुभव ही स्वप्न है। देखना,सुनना, न भोगना,होना न होना आदि सबको स्वयं ज्योति रूप में मन आत्मा से आश्रित है । स्वप्न दृश्यों के रूप बनाकर रस लेता है। मन स्वयं सर्वस्व बनकर भोगता ही है।  वही तेजस होता है। वही आत्मा का दूसरा भाव है। वह सात अंग और 19 मुख मिले हैं।
तीसरा सुसुप्ति है। वहाँ  स्वप्न, किसी प्रकार की अभिलाषाा रहित स्थिति होती है। अर्थात गहरी नींद मात्र है। वह यथार्थ में परमात्मा में  मन ऐक्य होकर एक रूप आत्मा की स्थिति  होती है। वह बोध रूप होता है। द्रव्य,क्रिया,गुण,सामान्य,विशेष, अभाव आदि।  पाँच ज्ञानेंद्रिय,पाँच कर्मेंद्रिय, पंच प्राण,मन,बुद्धि अहंकार ,चित्त आदि।
चौथा पाद तुरीय स्थिति होती है। वह शारीरिक बोध विषय नहीं है। जानने- अनजानने  की बात नहीं है। बताकर न समझा सकते,अभी सिफारिश नहीं कर सकते। वह एकात्म बोध सार है। वह प्रपंच बिलकुल नश्वर है।अद्वैत रूप,शांत रूप शिवमय होता है। आत्मा अनश्वर रूप में ओंकार मात्रा में उच्च स्थिति में रहनेवाली है। (अकार,उकार.मकार ) ये तीन मात्राएँ मिलकर ही ओंकार होता है। वह ब्रह्म वाचक है। यही आत्मा का चौथा पाद है।

28.अद्भुतों  में  अद्भुत,आश्चर्यों में आश्चर्य
गीता के अनुसार मोती की माला धागे से आश्रित ही मोती स्थिर रहता है ,वैसे ही आत्मा से आश्रित ही इन प्रपंचों के ग्रह स्थित हैं। यह धागा वास्तव में ” मैं “ नामक आत्मा जानना ही आश्चर्य है। आज तक हम जिन बातों को नहीं देखा है,उनको देखने पर आश्चर्य होता है। वैसे इस प्रपंच में जाने -अनजाने कार्यों को पार करके ही मनुष्य संन्यासी की यात्रा शुरु करता है। इंद्रियों के द्वारा जानने से अतिरिक्त सूक्ष्म शक्तियाँ जागृत होते समय योग स्थिति में  एहसास करने के कार्य आश्चर्य देनेवाले होंगे। अर्थात सिद्धियों के लिए गानेवालों को सिद्धि मात्र  मिलेगा। परमात्मा ज्ञान प्राप्त व्यक्ति को सिद्धियाँ  स्वभाविक गुण होंगे। अर्थात  पुनर्जन्म,  अपने शरीर तजकर दूसरे मृत शरीर में प्रवेश कर फिर अपने शरीर में आना,अग्नि के रूप में बदलना,जड बनना,आकाश में यात्रा करना आदि अष्ट सिद्धियों को प्राप्त करने के बाद साध्य करने की बातें हैं।  किसी को खीर पीने की इच्छा है तो खीर बनाने की सामग्रियाँ चाहिए। उसके लिए पैसै चाहिए। पैसे कमाने के लिए मेहनत करना चाहिए। मेहनत करने के लिए स्वास्थ्य चाहिए। और नौकरी मिलनी चाहिए। ऐसे शारीरिक, बौद्धिक,मानसिक बाधाओं को पारकर मनोकामनाएँ पूरी होनी चाहिए।  उसी समय एक सिद्ध पुरुष खीर पीने की सोच मात्र काफी है। तुरंत खीर हाथ में आ जाएगा। पीकर खुश होना चाहिए। उसी समय परमात्म ज्ञानी को खीर पीने का श्रम भी न उठाना चाहिए। सोचने मात्र से ही पीने का एहसास हो जाएगा। जिसको  सकल सिद्धियाँ और परमात्म ज्ञान प्राप्त  हुआ है,उनको सब कुछ मिल जाएगा। तभी समझ में आएगा कि वह आ्त्मा मैं ही है, सभी शक्तियाँ मेरे पास है,मैं नाम रूप रहित सर्व व्यापी परमात्मा है। उसको एहसस करने से बढकर आश्चर्य  और अद्भुत और क्या हो सकता है।

29. जान लेना चाहिए कि  मंदिर के अधिपति  परम पुरुष स्वतंत्र है।

शरीर को मंदिर ,मंदिर के पति को परमात्मा के रूप में देखना चाहिए।इस संसार के सकल जीवों को अति आवश्यक है स्वतंत्रता । दासता दुख देती है। स्वतंत्रता सुख देती है।इस आत्मा को ही स्वतंत्र कहते हैं। सर्वतंत्र  स्वतंत्र आत्मा ही है। इसलिए सभी जीव जाने-अनजाने में स्वतंत्रता के लिए गतिशील होते हैं। रामायण तत्व स्वतंत्र की  स्पष्ट व्याख्या करती है। राम आत्मा का है तो सीता मन का प्रतीक है। मन को आत्मा का ध्यान लक्ष्मण के रूप में  चित्रित है। इस ध्यान के अभाव  में ही मन रूपी सीता अहंकारी राम  की दासी  बनती है। उस अहंकारी राम के दस सिर होते हैं। वे हैं काम, क्रोध,लोभ,मद,मोह, स्पर्धा,रूप,रस,गंध,स्पर्श आदि। मन रूपी सीता  दस सिरों के अहंकार का दास बनती है। हर जीवात्मा इसी दशा में है। इस मन रूपी सीता को अहंकारी रावण की पकड से स्वतंत्र बनाना है तो हनुमान को आना है। वैसे शारीरिक भूल नामक लंका दहन होने के साथ सीता रूपी मन राम की आत्मा में विलीन होना ही पट्टाभिषेक नामक मुक्ति है।
30. जो बना है,वह नहीं बनता। जो नहीं है, बनता नहीं है।
जो दृश्य उदय होते हैं,वे अस्त होते हैं । उदय होकर जो अस्त होते हैं,वे शाश्वत नहीं होते। शाश्वत आत्मा मात्र है। वह अपरिवर्तनशील है। उदाहरण स्वरूप एक बीज बोते हैं। वह पेड बनता है। फिर ठूँठ हो जाता है। वैसे ही मनुष्य जन्म लेता है। चंद काल जीता है। फिर मर जाता है। देव अवतार लेते हैं। चंद जीते हैं। उसके बाद ओझल हो जाते हैं।महात्मा  भी वैसे ही। परमात्मा के परम ज्ञान के सिद्धांतों के प्रत्यक्ष ज्ञान ही चल और अचल वस्तुओं से बने यह प्रपंच । उदाहरण स्वरूप महात्मा गाँधीजी एक तत्व है । कार्ल मार्क्स जिनन,लावोस आदि एक एक तत्व के हैं। ब्रह्मानंद स्वामीजी, श्री नारायण गुरु चट्टंबि स्वामी जी, शिवानंद परमहंस,शीरडी साई बाबा आदि भी एक एक तत्व के हैं। इसीलिए ये और इनके सिद्धांत कभी मिटते नहीं है। ( Everything is preplanned nothin unexpected) सभी शास्त्रों का सार यही है कि भगवान से अन्य कोई नहीं है। सभी मजहबों के बुनियाद सिद्धंतों के ज्ञाताओं को यह खूब मालूम होता है।भगवान  एक ही है। बीज में जैसा पेड होता है ,वैसा ही वह कभी नहीं मिटता।बीज सही है तो पेड भी सही रहेगा। वैसा ही भौतक नास्तिक,आध्यात्मिक आस्तिक ,महात्मा,सामान्य लोग,सभी जीव  इंद्रजाल से न रोक सकनेवाले काल चक्र की आँंख मिचौनीी खेल के अंगबनते समय ही एक वयक्तिगत आदमी सेे इस प्रपंच को उत्थान या पतन  की ओर  ले नहीं जा सकता। इन महात्माओं के ऊँचे वचनों को मुख्यत्व देने पर पहले ही यह संसार स्वर्ग मेंं बदल सकता।भगवान तो ठीक ही है। इसलिए  सब कुछ ठीक ही चलता है। कारण भगवान मात्र ही है।.
  हिमालय में सुमेरू पर्वत के ईशान कोने की चोटी  की ऊँचाई और चौडाई के प्राचीनतम कल्प वृक्ष है। उसके दक्षिण में एक बडी  शाखा में एक घोंसला है। उसमें भुषुंड नामक एक प्रबल कौआ रहता था।  एक बार वशिष्ट महर्षि भुषुंड से मिलने गये। चिरंजीवि  भुषुंड से उनके अनुभवों की कहानियाँ विस्तार से सुनाने की प्रार्थना की। भुषुंड ने वशिष्ट से कहा कि यह वशिष्ट का आठवाँ जन्म है। उनको मालूम है कि इस जन्म में वशिष्ट मिलने आएँगे। दूसरा अवतार तीन बार,दूध मंथन बारह बार, हिरणयाक्ष भूमि  को पाताल में दबाना तीन बारर हुआ है।  उसने कहा किभार्गव राम अवतार  छे बार,मुक्तावतार सौ बार होने को देखा है। श्री परमेश्वर का त्रिपुर जलाने को भी तीस बार देखा है। परमेश्वर क्रोधित होकर इंद्र के वध को भी देखा है। अर्जन से लडने को भी देखा है। मनुष्य ज्ञान के  वीर्य बहुत सिमटते रहने से वेदों की संख्या पाठ,कई रूपों में बदलते देखा है। रामायण ,महाभारत जैसे इतिहास पहले नहीं  थे।
फिर युग में नयी-नयी रचनाएँ होना भी याद है। ये सब योगावाशिष्ट में भुशुंड ने कहा था। इन में परिवर्तन होते रहते हैं । इन सब के साक्षी स्वरूप आत्मा शाश्वत है।

31. अहं नहीं,बाह्य नहीं ,ज्ञान ही आत्मा।
      सर्वज्ञ बने स्वयंभू है आत्मा।
नाम रूप गुण सभी चीजो़ को अंतरंग और बहिरंग होते हैं।अरूप  आकाश जैसे विशाल ज्ञान रूप परमात्मा को अंतरंग और बहिरंग कहने के लिए यहाँ कुछ भी नहीं है। इसलिए आत्मा को अंतरंग और बहिरंग रहित निराकार  ही समझना चाहिए। आदी में अखंड बोध मात्र रहा था। मुर्गी  के अंडे में जैसे मु्र्गी  है, बीज में जैसे वृक्ष है,वैसे ही यह प्रपंच,यह ब्रह्मांड सब के सब आत्मा में लय हैं।सब के सब स्वयं है।
मुर्गी बनना, वृक्ष बनना,प्रपंच बनना, नाना प्रकार के रूप बनने से विविध घटनाएँ स्वयं शरीर बनने से उनकी गर्भ स्थिति भूल जाती है। अर्थात आत्मा की एक स्थिति में नानात्व नहीं है। नानात्व रहते एकत्व नहीं है। देव,मनुष्य,गंधर्व,अचल आदि में कुछ कमियाँ  मिलकर ही ज्ञान,क्षमताएँ,शक्तियाँ दी गयी हैं। पूर्ण ज्ञान का मतलब है कि किसी एक विषय में संपूर्ण ज्ञान प्राप्त करना है।सभी विद्याएँ सभी ज्ञान होने को संपूर्ण ज्ञान कहते हैं। संपूर्ण ज्ञान कोश को ही परमात्मा कहते है।

32.जगत के मूल चिनमुद्रा मैं और तुम के रूप में हैं

चौदह संसार के मूल परमात्मा होते हैं। परमत्मा ही यहाँ मैं,तुम की भावनाओं में नानात्व, एकत्व में चमक रहे हैं। मैं होने से तुम हो। तुम होने से ही  मैं का एहसास होता है।परंतु यथार्थ में यही सत्य है कि तुम भी नहीं हो और मैं भी नहीं हूँ। जो है वह स्वयं के अनुभव आनंद बोध मात्र  है।
  समुद्र,उसकी लहरें, उसके बुलबुले ,जाॅग आदि सब पानी ही है। उनको देखते समय समुद्र को भूल जाते हैं। पानी को देखते समय पानी मात्र ही है। एक सुनार आभूषण पहनी औरत को देखते समय कहेगा कि उसके पास कितने ग्राम सोना है? कुंडल देखते समय सोने को भूल जाते हैं। स्वर्ण को देखते समय कुंडल भूल जाते हैं। चट्टान की मूर्ति देखते समय हम पत्थर को भूल जाते हैं। पत्थर देखते समय शिला भूल जाते हैं। एक मिनट पर एक मात्र अच्छा लगता है। एक के रहते समय और कुछ भी नहीं है। शुद्ध स्वर्ण से आभूषण बनाना मुश्किल है। उस में ज़रा ताँबा जोडना पडता है। वैसा ही परमात्मा से सबल माया जुडते समय नाम रूप के मैं, तुम के नाना प्रकार के रूप कलपनाएँ होती है।
33. प्रकाश को भी प्रकाश देनेवाले स्वयं प्रज्वलित ज्योति होंगे।
प्रकाश  शब्द से ही मालूम होगा कि अंधकार मिटानेवाला है। हमारे घरों को प्रकाश चाहिए तो बिजली चाहिए। बिजली चाहिए तो जनरेटर चाहिए। जनरेटर चलाने के लिए पानी चाहिए।पानी चाहिए तो काले बादल चाहिए। काले बादल बनने के लिए सूर्य का प्रकाश चाहिए। अंधे आदमी सूर्य हो या न हो अपने मन के आत्म प्रकाश के द्वारा जी रहा है। वैसे ही सूर्य के समान तेज़स होने आत्म प्रकाश चाहिए।
अंतर्मुख ध्यान में एकाग्रता से लगे श्री नारायण गुरु जैसे ज्ञान योगी हजारों सूर्य एक साथ उदय होने के जैसे ज्ञान का प्रकाश देखा था। उसमें  मिलकर वैसे ही बदल जाने को  इतिहास और पुराणों में देख सकते हैं।नवग्रहों की सृष्टि आदी पराशक्ति ने की है। आत्मा के कारण ही ग्रहों को प्रकाश मिलता है।  स्वयं प्रकाश रहित चंद्र सूर्य प्रकाश के पडने से हमको प्रकाश देता है। वैेसे ही परमात्मा के प्रकाश से ही नक्षत्र मंडल ,सूर्य सब केसब प्रकाश पाते हैं। आत्मा का स्वभाव पूर्ण प्रकाश होता है। अज्ञानता ही अंधकार है। अज्ञान के अंधकार को आत्म सूर्य के प्रकाश से ही मिटाना चाहिए। इस संसार के सकल चराचरों में प्रकाश होता है। इस प्रकश को प्रज्वलित
करने वाली स्वात्मा होती है। इस आत्मा कहनेवाले प्रकाश नहीं तो और किसी में प्रकाश नहीं होगा।
हम को प्रकाश देनेवाला सूर्य आकाश में है। आत्मा में ही आकाश है। वह आत्मा मैं ही है। “ मैं “ कहनेवाली आत्मा स्वयं स्थित खडे रहने से बाकी चराचर प्रकाश के साथ रहने का एहसास करते हैं।

34.देश काल निमित्त तुरीय पद ही आत्मा का संसार
आत्मा का चौथा पद तुरीय पद है। जागृत, स्वप्न नदारद  हो जाता है। सुसुुप्ति
गहरी नींद होती है। उससे जागृत दशा ही तुरीय पद है।ह चिताकाश है। अर्थात शरीर बोध और सांसारिक बोध विस्मरण की दशा है।
स्थान,काल,निमित्त तीनों काल से आधारित है। समय बढाने की बात कहना अज्ञानता का एक दृश्य ही  है। हमारे प्रिय लोग पास रहें तो समय चलना हम जानते नहीं। उसी समय हमारे नफ़रत के लोग पास रहने पर समय लंबा लगेगा। परमात्मा में मन लगें तो
महीने,साल,युग.मनवंतर बीतने  पर भी समय के चलने का पता नहीं लगता। ऐसे कई योगियों की बातों को इतिहास बताता है। मन प्रकृति का गुलाम बनकर प्रेम बंधन में फँसकर तडपते समय हर एक पल चलना कई युगों के बीतने के समान होंगे। कहते हैं कि
गोपिकाओं को श्री कृष्ण की प्रेम क्रीडाओं में लगे रहने  से एक रात कई युग बीतने के समान रहे। वहाँ गोपिकाएँ श्री कृष्ण के आत्म प्रेम में सुधबुध भूलकर परमात्मा के साथ तन्मय  भावना में रहीं। उदाहरण के लिए एक मनुष्य स्वप्न में देखता है कि यह शिला पाँच सौ साल के पहले  उनके पूर्वजों ने बनायी है। तब दूसरे स्वप्न “ मैं “ अमेरिका में चाय पीकर सिंहपुर  में दोपहर का खाना खाकर आराम के लिए केरल आकर चार दिन से यात्रा कर रहा हूँ तो पाँच मिनट की नींद टूटने के बाद पता चलेगा कि स्वप्न में लंबे समय का अनुभव मिला है। स्वप्न का लंबा समय केवल पाँच मिनट ही था। आत्म जागृति प्राप्त मनुष्य के लिए कितने युग,कितने मनमंत्र बीतने पर भी काल,देश,निमित्त कुछ भी न होगा। उसके आधार पर ही हम समय बिताते हैं।चंद्रग्रह ,
मंगल ग्रह जानेवाले के लिए यह बाधक नहीं है। उसके जैसे मन अहंकार रूपी शरीर बोध को बाँधकर रहते समय देश काल निमित्त के बंधन में रहता है। आत्मा इंद्रियाँ और अहंकार  के अपार है।

35.त्रिगुणों के पार सर्वशक्तिमान प्रणव ही परमात्मा है।
त्रि गुणों से ही इस प्रपंच की सृष्टि हुई है। उदाहरण के लिए समझन                                                                                                                                                          तमोगुण, रजो गुण.सत्वगुण आदि।उदाहरण स्वरूप  समझना चाहिए कि
कुंभकर्ण  तमोगुण,रावण रजोगुण,विभीषण सत्व गुण के हैं ।
तमो गुण सदा निद्रावस्था में रहेगा । अहंकार का रूप ही रजोगुण,भगवान की इच्छा पाने में संतुष्ट होकर  शांति से जीने का ढंग ही सत्वगुण होता है। हर एक मनुष्य में ये तीनों गुण होते हैं। हर एक समय में ये तीनों गुण शरीर में बदल बदल कर आते हैं। इसलिए तमो गुण को रजो गुण से,रजो गुण को सत्व गुण से निम्न गुण को पार करने की स्थिति पाना चाहिए। इन तीन गुणों से परे हैं आत्मा का निवास स्थान।
  एक व्यक्ति को स्वास जीने के लिए  कितना आवश्यक है,उतना मुख्यत्व हर एक मनुष्य जीव को समझ लेना चाहिए कि ईश्वर एक ही है। वह सर्वशक्तिमान है।
उसे कहना मात्र नहीं उसकी गहराई को समझकर जीनेवाले बहुत कम लोग होते हैं।
विश्वास कहना ही अज्ञानता के कारण ही। जहाँ विश्वास नहीं है, वहीं विश्वास रखने का ज़ोर देते हैं। एक माँ से उसके बच्चे पर विश्वास रखने के लिए ज़ोर देने की ज़रूरत नहीं है।  माँ ने  ही बच्चे का जन्म दिया है। वैसे ही जिसको भगवान पर विश्वास है,उसको ईश्वर पर विश्वस करने का अवश्य नहीं होता। वैसे ही भगवान मात्र ही है की बात पर जिसको विश्वास है, उनको विश्वास करने की आवश्यक्ता नहीं पडती।
एक बार मुहम्मद् नबी रेगिस्तान में अकेले रहते समय एक अजनबी ने आकर कहा कि मैं आपकी हत्या करूँगा। फिर तलवार आगे करके कहा कि अब आपकी रक्षा कौन करेगा। फ़ौरन नबी ने कहा कि खुदा। मेरे सृष्टि कर्ता खुदा बचाएँगे। उसी क्षण हत्यारे ने तलवार चलाई। हत्यारे की तलवार उसके हाथ से नीचे गिरा। मुहम्मद नबी ने तलवार अपने हाथ में उठा ली और कहा –अब तुम को कौन बचाएगा? उसने नबी के चरणों पर गिर पडा और कहा  कि नबी नायक बचाएँगे। उनहोंने नहीं कहा कि अललह बचाएँगे। वैसा कहने पर उसका सिर काटा जता। नबी को अल्लाह से निकट संबंध है,अनुभूति है,आनंद है। ये सब अजनबी नहीं जानता। हमारे और ईश्वर के गहरे अनुभव से ही मालूम होगा। अनुभव से ही शक्ति रूप परिवर्तन होगा। जिनमें ईश्वर ज्ञान हैं,उनको ही पूर्ण विश्वास होगा कि निस्संदेह  ईश्वर सर्वशक्तिवान,सर्वज्ञ होते हैं,वह अपने हृदय में गतिशील होता है। वैसे लोगों को प्रकृति सभी प्रकार के समर्थक होकर साधक बनाते हैं।
  भगवान के शब्द  का मतलब है कि सर्वशक्तिमान । जिसमें सर्वज्ञ,सर्व शक्तिमान अपने में है का दृढ विश्वास हो जाता है ,उसको कोई क्रिया असाध्य नहीं होती।
प्रणव के कहने का मतलब होता है ओंकार। शिव और शक्ति ही ओंकार होता है। वह प्रकृति और पुरुष का मिश्रण होता है। ओंकार का अर्थ है परमार्थ तत्व।

36.दृष्टा,दृश्य,दर्शन बुद्धि आदि आत्मा के सिवा और कुछ नहीं होता।
दर्शक को दृश्य और दृश्य को देखने का ज्ञान होगा। वस्तु के आवश्यक उपकरण उसी शक्ति में ही लगना  केवल अनुमान मात्र ही है। देखने वाले के बिना आत्मा को छोडकर खुद चलने की शक्ति अहं को नहीं है। आत्म सत् से ही अहंकार का यह शरीर चलता है। आत्मा अचल है।अहं को स्वयं सत् नहीं है। तब यहाँ गतिशील कौन है के पूछनेे पर आत्मा कहना ही ठीक होगा। आत्मा मर कर्म मढने पर विरोधाभास होगा।  कारण आत्मा कर्म नहीं करता।  वह हमेशा  निष्क्रिय, संपूर्ण है। आत्मा संपूर्ण होने से पाने के लिए, सुनने के लिए,जानने के लिए कुछ नहीं है।बिजली के कारण दीप जलता है। एक प्रकाश बंधन देखने पर बल्ब हिलते नहीं है । जगमगाहट में बल्ब सब दौडते-फिरते देख सकते हैं। वैसे ही आत्मा निश्च होने से  माया के कारण चंचलता का अनुभव करते हैं। सिनेमा थियेटर में फिल्म रोल लगातार घुमाने  से ही दृश्य चलते हैं। वैसे ही हमारे मन भी त्वरित गति से चलने से ही  यह प्रपंच की गतिशीलता का एहसास करते हैं।

37 .अपनेे से अन्य दूसरेे रूप को अनदेखा रहने पर ही “मैं” आत्मा होता है।
इस संसार का पहली स्थिति मेरा जन्म मनुष्य के रूप में हुआ है। मेरे माता-पिता हैं।
उनके  पार हमारेे सृष्टिकर्ता भगवान होते हैँ।इस बडे प्रपंच में भूमि एक छोटा गृह है उस भूमि में एक छोटा जीवाणु “मैं” का आदमी के विचार ही  90 प्रतिशत जीवों का स्वभाविक स्थिति होती है। इनमें जीवन के अनुभव के द्वारा विचार बदलकर सत्य की खोज में कुछ लोग चलेंगे। तब यह बात समझ में आता है कि “ मैं “ यथार्थ में आत्मा
है और यह संसार मिथ्या है। और कुछ लोग उनसे गहराई से सोचकर संसार में आत्मा रूपी “मैं” इस शरीर के बंधन में है,इस बंधन से छूटकर परमात्म स्थिति के लिए मोक्ष पाने का पुरुष प्रयत्न करेंगे। और कुछ लोग समझ लेंगे कि मैं ही आत्मा है, मेरे दृश्य रूप यह प्रकृति ,भगवान  समुद्र , समुद्र की लहरें,जाग जैसे एक ही है। ज्ञान मार्गी लोग यह समझकर  ऐक्य हो जाते हैं कि इस आत्मा का कोई बंधन नहीं है,उसको बाँधने की और कोई शक्ति नहीं है,मैं मुक्त है। इस स्थिति को पहुँचते समय  मैं के सिवा और कोई दृश्य नहीं है। ऐसी भावनाा के आते ही प्रज्ञा अपने ज्ञान दृश्य तजकर मैं की स्थिति में  मैं ही बदलते समय  मैं से अन्य किसी को दर्शन नहीं कर सकते। जहाँ स्व रूप भूल होती है,छिपता है, वहाँ द्वैत्व होता है। द्वैत्व होते समय “मैं “ अपनी यथार्थ दशा में रह नहीं  सकता। ज्ञान के मिलते ही अपने से अन्य कोई दृश्य नहीं मिलता। ऐसे विश्वास के होते ही यथार्थ दशा होती है।

38.मैं के आत्म रूप को भूलते समय  वहाँ अहंकार  होता है।
हमको अब शरीर बोध मात्र होता है। शरीर बोध सीमित है। अतः असीमित के अपार की कल्पना नहीं कर सकता। कल्पना के प्रयत्न करते समय सूर्य के सामने के बर्फ़ के जैसे मन और अहंकार ओझल हो जाएगा। तब आत्मा शेष रहेगा।  माया की खोज करने निकलने पर माया को समझ नहीं सकते।  कारण वह एक पकड में न आनेवाला विषय है। उसी समय मैं कौन हूँ, भगवान कौन है? की खोज करने पर उसकी बाधा में आनेवाले विचारों को ही माया कहते हैं। विचार रहित होते समय शारीरिक बोध भी छिप जाता है।  शरीरिक बोध मिट जाने के बाद आत्म बोध मात्र शेष रहता है। सत्य में यथार्थ गुण से यथार्थ आता-जाता नहीं है। यथार्थ स्वयं जैसे रहना है। स्वरूप में स्वशक्ति खुद भूलकर स्व शरीर बनता है।  उससे कई घटनाएँ घटती है।

39. तैल धारा के समान आत्म बोध अंदर बनते समय मनुष्य भगवान बनेगा।
क्या  मैं के बिना भगवान है? यह प्रश्न स्वयं अपने से पूछते समय मैं को मिटा नहीं सकते। मैं मिटाते समय मैं स्थिर खडे होनेे केे बाद मेरा नहींं है की कल्पना कर सकते हैं।  उदाहरण के लिए एक व्यक्ति के पास क्या तुम मर सकते हो पूछनेे पर कहेगा कि
मैं मर सकता हूँ। .कहेगा कि पोटासियम् शयनयड देंगे  तो तुरंत मर जाऊँगा। आप की मृत्यु को आप कैसे जानेंगे? के प्रश्न करने पर कहेगाा कि मैं नहींं जानता। .दूसरे लोग जानते हैं।अर्थात आपको छोडकर दूसरा  प्रकाश तक नहीं होगा। इससे स्पष्ट होता है कि आप के रहते ,आप नहीं है कि कल्पना कर सकते हैं। वास्तव में मैं रूपी आत्मा न जन्म लेती है,न मरती है। मैं कहनेवाला आत्मबोध बना हूँ,मिट गया हूँ की कल्पना असाध्य हो जाती है। कल्पना करते समय बनना,स्थिर खडे होकर मिटना शरीर मात्र है। जो बनता नहीं,स्थिर रहकर नहीं मिटता,उसी को आत्मा कहते हैं। इस आत्मा को ही वेदों में अयं आत्म ब्रह्मम् कहते हैं। अर्थात् आत्मा आकाश जैसे आत्म रूप हैै। इस ज्ञान धारा में  बाधा न हो तो उसमें सभी शक्तियाँ सहज ही ब्रह्म में बदल जाता है।
40.
अल्लाह,परिशुद्ध  आत्मा,परब्रह्म कहते हैं।
इस ब्रह्मांड में असंख्य जीव जाल होते हैं। हर एक जीव को अपनी इच्छाओं की पूर्ति करने के लिए विचार विमर्श एक अनिवार्य अंश होता है।संसार का बीज मन होता है। वह विकसित होकर तपस्या में मग्न होकर सुसुप्ति की समान स्थिति पर पहुँचता है।वे चिंतन नहीं कर सकते। अहं में ज्ञान नहीं है। वह एक मूढ की अवस्था होती है। मिट्टी में मूर्ति रहने के जैसे अवसर मिलते समय बहुत चित्त कर्म ,कर्म के ढेरों की सृष्टि करती है। जानवर भी अपनी भाषा में विचार विमर्श कर लेते हैं।रटने मनन करनेवाला जीव प्रकाश और ध्वनि होने के पहले सांकेतिक भाषा में अपने विचारों को आपस में अभिव्यक्ति करता था। देव अपनी भाषा में विचार विमर्श करते हैं।सब मनुष्य समुद्र के पानी लेते समय अपनी अपनी भाषा का प्रयोग करते हैं। तमिल भाषी तण्णीर,मलयालम् भाषी वेल्लम् ,हिदी भाषी पानी,अंग्रेजी भाषी वाटर विविध भाषाओं के शब्द अलग-अलग होने पर भी “ नीर” एक ही है। एक दफ्तर  चलाने के लिए पहरेदार, सहायक,मुख्य अधिकारी जैसे कई विभाग के नौकरों की आवश्यक्ता होती है। ऊँचे पद पर रहनेवाले निम्न पद के काम नहीं कर सकते। कारण हर एक शरीर पाना इच्छाओं के आधार पर ही है। अच्छी इच्छाएँ उच्च श्रेणी के और बुरी इच्छाएँ निम्न श्रेणी के होते हैं। जब इच्छाएँ बिलकुल नहीं होती,जीव भगवान के पास ले जानेे की पूर्व स्थिति परब्रह्म स्थिति परिशुद्ध स्थिति अर्थात भगवान की स्थिति जीव को याद आते समय वैसा ही बदलता है। उच्च अधिकारी से जिसका संबंध है,वह निम्न कर्मचारियों की परवाह किये बिना सीधे संपर्क करने का मौका पाता है। उसी समय उच्च अधिकारियों  से जिसका संबंध नहीं, वे सहायक के द्वारा बहुत देर की प्रतीक्षा के बाद ही अधिकारी से मिलते हैं। यही तत्व ही भक्ति विषय में भी । जिस गुरु में  ऋषि में  ब्रह्म ज्ञान है  उनसे मिलने त्रिमूर्तियाँ,विघ्नेश्वर तक  वंदना करने तैयार होते हैं। उसी समय जिसमें ब्रह्म ज्ञान नहीं है,ऊपर कहे हर एक ईश्वर को अलग -अलग संतुष्ट करना पडेगा। तभी परब्रह्म ज्ञान पाने का अवसर मिलेगा। वर्षा होते सय समुद्र के ऊपर उडनेवाले विमान पर भी वर्षा  की बूंदें  गिरेंगी। विमान पर की वर्षा की बूंदें हवाई अड्डे पर पहुँचता है। विमान पर की बूंदों को एक पक्षी पीता है। वह पक्षी पेड के नीचे अवशेष छोडता है। उसे वह पेड चूसता है। वह फल बनता है। उस फल को एक मनुष्य खाता है। उसे वह दूसरी जगह पर पाखाना करता है। फिर वह समुद्र पर पहुँचने
कितना समय लगेगा,वैसा ही कर्म की गति होती है।  समुद्र ही केंद्र स्थान होता है। उस केंद्र स्थान समुद्र से बना पानी फिर सनुद्र तक पहुँचने कई बाधाओं को पार करना पडता है। असंख्य वर्षा की बूंदें ,असंख्य जीव राशियाँ असंख्य मार्गों  के द्वारा उस केंद्र को पहुँचने के लिए उस केंद्र के नाम कहकर बुलाते हैं। वही अललाह,परिशुद्ध आत्मा, पर ब्रहम ,शक्ति  आदि कहने का सारांश है।

41.जो है,उसका नाश नहीं है, जो संसार नहीं है वन बनता नहीं है।
सत्य में जो है ,वह यथार्थ में  मैं आत्मा को ही कहते हैं।  जैसा भी  प्रयत्न करें  ,उसे मिटाना असाध्य हो जाता है। यह संसार ही नहीं  होता है। कभी नाश न होनेवाले स्वयंभू  को ही शाश्वत कहते हैं। यह संसार मन होता है। मन नहीं है तो संसार नहीं है। चिंतनारूपी  मन बनकर मिट जाता है। उसको उसको स्वसत् नहीं है। उसे खोजते समय वह नहीं रहता। सत्य में मन दृश्य मात्र है। दृश्य होने पर भी स्वरूप स्थिति में रहते समय  त्रि कालों में यह नहीं रहता। मन सत्य है या असत्य ? के प्रश्न का उत्तर यही है कि नश्वर नाम रूप ही मन है।  नाम रूप सत्य नहीं है।  कारण सत्य स्थाई होती है।  सत्य रहित नाम रूप से आश्रित मन असत्य ही है। वह सत्य होने का न्याय नहीं है। ऐसे असत्य मन से उत्पन्न स्वर्ग -नरक की शिक्षा भी असत्य ही  है। मन का अहंकार कहनेवाला  शारीरिक बोध मिथ्या बडप्पन का  मैं  से देखनेवाला यह संसार
मैं आत्मा की स्थिति की अज्ञानता ही है। एक माँ अपने शिशु का परिपालन करते समय हम कल्पना कर सकते है कि वैसा ही मेरा जन्म हुआ है।  हमारे खुद के जन्म प्रसव को स्वयं नहीं देख सकते।  हम नहीं कह सकते कि  मैं पैदा हुआ । किसी से  पूछो कि पहले तुम्हारा जन्म हुआ है या तुम्हारी माँ का। वह माँ कहेगा। तुम्हारे होने से तुम्हारी एक माँ है। तब हाँ का जवाब मिलेगा। क्या मेरा जन्म हुआ है? स्वयंं सोचकर देखें तो यथार्थ  मैं का जन्म स्मरण नहीं आता। अर्थात अपने में जो आत्मा है,वह स्वयं स्वयंभू होकर खडा है। वास्तव में कोई सोने के लिए लेटता है तो पता न चलेगा कि किस मिनट में वह सोने लगा है। तब स्वप्न में कोई दोस्त पूछता है कि तेरी माँ कहाँ है?तब स्वप्न जाग्रण में  एक अंग्रेज़ी स्त्री को या एक नीग्रो स्त्री को अपनी माँ दिखाता है।स्वप्नावस्था में यथार्थ ही मानता है।फिर  दोस्त पूछता है कि किस अस्पताल में तुम्हारा जन्म हुआ, तेरे साथ कौन कौन थे? तब माँ के जवाब भी यथार्थ ही लगते हैं।
पर स्वप्नावस्था टूटकर जागृत अवस्था में कोई नहीं पूछता  और कहते हैं कि यह केवल स्वप्न है। फिर स्वप्न की माँ,अस्पताल आदि की चिंता नहीं होती। यथार्थ पर विश्वास रखनेवाला यह शरीर,स्वप्न में कैसे फिसलकर गिरता है,पता नहीं चलता। वैसे ही आत्मा मोह निद्रा में फिसलकर अपने शरीर बनने को देखकर अपने नाते-रिश्तों को देखता है। वह शरीर मैं का गर्व करता है,अपने सामने आकाश,समुद्र,जनता ,संसार आदि के दर्शन का एहसास करता है।  इसलिए मैं क्या स्वप्न में है के पूछने पर यथार्थ में मैं सोता हूँ । इस नींद में मैं स्वप्न देखता हूँ। स्वप्न में मैं और मेरा स्वप्न अनुभव सूक्ष्म होता है। जागृत अवस्था में सूक्ष्म होता है। स्वप्न में वह संकुचित है। जागृत में विस्तृत है। एक स्वप्न की माया है,दूसरा जागृत माया है। दोनों ही माया है।
स्वप्न को  हम जिस प्रकार माया समझते हैं,वैसे ही जागृत अवस्था को भी समझना चाहिए। इस आत्मा को कभी नहीं विनाश होता। यह एहसास होगा कि जो दृश्य नहीं है, वह सदा के लिए नहीं  है।

42.   जानना- समझना चाहिए कि जो संसार नहीं है,उसमें दीख पडनेवाले जीव भी नहीं है।
  एक नाटक का  लेखक एक नाटक को लिखने के पहले ही अपने कथा पात्रों को सिलसलेवार ढंग से बना लेता है। नाटक के निर्देशक  अमुक पात्र के योग्य अभिनता चुनकर कहता है कि तुम को कृष्ण के पात्र का अभिनय करना चाहिए। तुमको दुर्योधन का चरित्र है। तुमको दृधराष्ट्र का अभिनय करना चाहिए। अभिनय करनेवाले अपने अपने पात्र में तन्मय हो जाते हैं। मंच पर श्री कृष्ण का वेश धारी दुर्योधन का संवाद  न करना चाहिए। दर्शकों को देखकर दुर्योधन इसने क्या अधर्म किया है ,बोलने में कोई अर्थ नहीं है।  क्योंकि उसके पात्र के अनुकूल ही संवाद कर सकते हैं।दुर्योधन,कृष्ण,दर्शकों के लिए कठोर विरोधी पात्र है। सब श्री कृष्ण पात्र की स्तुति करते हैं, दुर्योधन पात्र की निंदा करते हैं। लेकिन मंच से बाहर आते ही दोनों कृष्ण और दुर्योधन पात्र  दोस्त बन जाते हैं। जब ये अभिनय करते हैं,तब उनके अंतर्मन में यह भावना है कि यथार्थ में कृष्ण नहीं है,दुर्योधन नहीं है। लेकिन कथा पात्र के अनुसार  उनका अभिनय कृष्ण ,दुर्योधन के प्रतिबिंब  बन जाते हैं। वैसे ही आत्म ज्ञान
को स्थाई बनाकर इस शरीर को वेश मिला है। उसे अभिनय में प्रतिबिंबित करने के लिए संसार के मंच पर अभिनय करने आये हैं। अपने को भगवान ऐसे अभिनय करने को समझकर जो जी रहे हैं,उनको इस संसार से कोई संबंध नहीं है। वे कमल के पत्ते और पानी के जैसे जी सकते हैं।  वैसे ही सर्व शक्तिमान भगवान इस ब्रह्मांड के नाटक मंच पर अभिनय कराकर तमाशा देखकर रसिक बन रहे हैं। फथा पात्रों को प्रतिबिंबित करनेवाले निर्देशक को वेश धारण से कोई संबंध नहीं होना चाहिए। वेश में भूल होने पर यथार्थ नहीं होता।वैसा ही अहंकार को जैसा भी शाश्वत रखने का प्रयत्न करें, स्थायित्व असंभव है। अहंकार को स्वसत् नहीं है। वैसे ही चराचर के नामरूपों को यथार्थ सत नहीं है। आत्म सत् के प्रकाश  से ही वे स्थिर  खडा सा लगता है। कर्नाटक के यक्ष गान में महाभारत में कृष्ण पांडवों का दूत बनकर  दुर्योधन से बोलते हैं। आधे राज्य की माँग करते हैं। दुर्योधन कहता है कि सुई के नोक बराबर स्थान भी मैं नहीं दूँगा। कृष्ण पूछते हैं कि क्यों सुई  के नोक भरा स्थान भी देना नहीं चाहते हो?  दुर्योधन कहता है कि कृष्ण, मुझे मालूम है कि धर्म क्या है? लेकिन धर्म नहीं कर सकता।अधर्म क्या जानत हूँ। फिर भी अधर्म किये बिना रह नहीं सकता। इसका गूढार्थ है  कि कृष्ण परमात्मा के सोचने मात्र से ही दुर्योधन के द्वारा ही सब कुछ कर सकते हैं। अर्थात जो कृष्ण सोचते हैं,वे ही दुर्योधन कर सकता है।दुर्योधन अहंकार का संकेत है। अर्थात यहाँ दृष्टित नाम रूप स्त्री पुरुष विविधता के सकल चराचर होते हैं। इस प्रपंच भर में प्रकृति अर्थात स्त्री होती है। पुरुष आत्मा होती है। अहंकार कभी परमात्मा के रूप में न बदलेगा। कह नहीं सकते कि वह है नहीं। ,कारण
वह नहीं है कहने पर है बन जाता है। उसे अलग करके उसकी सूक्ष्मता की ओर जाते  समय वह नहीं हो जाता है।आप अपने विचारों के मूल स्थान पर अधिकार चला सकते हैं  तो वह आप कै लिए असाध्य नहीं होगा। कारण आप अपने विचारों के वासस्थल पहुँचते समय प्रपंच के केंद्र को पहुँचते हैं। एक मनुष्य के किसी एक अंग को “मैं” नहीं कहते।   आँखें बंद करके अपने में अपनों की खोज करते समय डृदय से सिर तक के अंगों को एहसास करते हैं। सत्य के विचारों का द्वार हृदय है। वही यथार्थ मैं है। वहाँ खडे रहते समय अहंकार गायब हो जाता है। केंद्र में पहुँचते समय मैं संसार भर विस्तृत सीमा के अनुभव में प्रवेश करता है। वहाँ सीमित मैं मिट जाता है। साथ ही संसार भी।उसके आधार का सत्य स्थिर खडा रहता है।
43.असीमित एक वृत्त है भगवान।सभी स्थानों में केंद्र होता है।
अनंत  को असीमित वृत्त ही मान सकते हैं। हमारो विचारों के विभाजन शुरु में ही अस्त हो जाते हैं। एक सद्विचार हममें से उदय होते समय कितने ही  घंटों के संचरण के बाद एक वृत्त रूप रूप में जहाँ उदय हुआ,वही आ पहुँचेगा।लोका समस्ता सुखिनो भवंतु कहकर प्रार्थना करते समय हमारा मन ही लोक हो जाता है। सकल सुख हममें ही होता है। वैसे ही बुरे विचारों की स्थिति भी। इसलिए कोई विवेकी बुरे विचारों को प्रकट नहीं करते। कोई आशीश देता है कि  तुम श्रेष्ठ बनो। इस आशीश को स्वीकार करें या न करें वह अपने निवास को वापस आ जाएगा। इसीलिए विवेकी अपने बारे में ही सोचते हैं। अज्ञानता ही यहाँ बुरी चिंतन के अर्थ में कही जाती है। अर्थात् 
आत्म ज्ञान के बिना सब के सब अज्ञान ही है। अंतहीन रिक्त एक भाग को केंद्र नहीं कह सकते। सभी भाग केंद्र ही है। शरीर स्वीकार करने पर ही एक केंद्र बनता है। मैं केंद्र रूप में बदलना है तो शारीरिक ज्ञान नहीं होना चाहिए। तभी मैं केेंद्र बनता है,जब आत्मा ही मैं की दृढता होती है, या मैं परमात्मा ही है का बेशक ज्ञान होता है। वह केंद्र मैं माया शक्ति के भँवर में गिर जाता है।उसी क्षण में जीव कला बनकर उस जीव कला के मन में बदलने के मन में भूमि ,आकाश समुद्र आदि अनेक जीव जाल बढकर दीख पडता है। स्वप्न को तजकर  मैं केंद्र रूप में बदलने के साथ केंद्र बदलने के साथ केंद्र  अंत होकर बदलता है। अर्थात सभी भाग केंद्र के रूप में बदलता है।.
44.
जीवात्मा परमत्मा को जब विभाजन नहीं कर सकते, तब उस स्वभाव को सदाशिव समझना चाहिए।
आकाश में बरफ़ से बने घडे को रखते समय घडा  घडा रहने तक घडे के अंदर का आकाश घडा आकाश ,और घडे के बाहर के आकाश को महा आकाश कहते हैं। घडे के अंदर का आकाश अर्थात बोध मैं इस घडे के जैसे सोचता है। घडे बाहर के आकाश को अपने अन्य प्रपंच के रूप में देखता है। ज्ञान सूर्य का उदय होने पर घडा पिघलता है। अर्थात शरीर भूल जाता है। घडाकाश कुछ भी किये बिना अंत हीन आकाश के रूप में बदलता है। वास्तव में घडाकाश महाकाश में लय नहीं होता।महाकाश घडाकाश में लय नहीं होता। घडाकाश और महाकाश  एक हो जाता है। घडा रहते समय घडे के अंदर का आकाश जीवतमा और बाहर के आकाश को परमात्मा कहते हैं। घडा शरीर है। सत्य में एक मात्र है। उस एक को ही५ परमत्मा कहनेवाला सदाशिव कहते हैं।

45. शून्य में ही अनंत शून्य बोध के पार का आत्म रूप
वायु मंडल भूमि से चंद मीलों की दूरी पर है। उसके बाद शून्य ही है। उस शून्य के पार असंख्य नक्षत्रों की भीड और नवग्रह स्थित है। उनके क्षेत्र फल हमारे ज्ञान के अपार है। फिर भी हम पंचेंद्रिय मनो बुद्धियों को जीतते समय साक्षी रूप आत्मबोध को पहुँचते समय ,कुंडलिनी प्राण बने कुंडलिनी शक्ति का एहसास करके योगी की कल्पना के मूलाधार,स्वादिष्टन,मणिपूरक,अनागत,विशुद्धि,आज्ञा,आदि षडाधार पार करके सहस्रदल कमल पहुँचकर अनंत को पहुँचते समय होनेवाले कई करोड सूर्य प्रकाश एकसाथ ज्योति अनुभवों को सीमित ज्ञान द्वारा समझ नहीं सकते.समझा नहीं सकते। एक यंत्र झूला में हर एक संदूक में बैठे लोग चक्कर लगाते समय ऊपरवाले के दृश्य वर्णन  नीचे के संदूकवाले को स्पष्ट रूप से सुनाई नहीं पडेगा। वैसा ही काल चक्र भी ऊपर जानेवले की बारी में ही सत्य में यथार्थ दृश्य देख सकते हैं। सकल प्रपंच,ग्रह,उनकी सीख। अर्थात स्वर्ग-नरक जैसी कल्पनाएँ चौदह संसार,कहनवले लोक,देव,गंदर्व,मनुष्य,अग्रिय जैसे  जीवों की सृष्टियाँ,रक्षा करना, नाश करना जैसे सभी शिक्षाएँ,भूलकर अंतहीन रिक्त ही समझ लेना चाहिए। शरीर के बिना बोध के बारे में कह नहीं सकते। शरीर मिटते समय बोध सीमा के बाहर चला जाता है। अर्थात खंडबोध अखंड बोध में बदलता है।
46.परिपूर्ण अतुलनीय कैवल्य रूप ,परमात्म बोध दे देना।
पूर्ण से पूर्ण लेने पर पूर्ण मात्र बचता है। संपूर्ण ज्ञान प्राप्त सभी कलाओं के पारंगत संपूर्ण अवतार,ऋषि, महान आदि कोई भी इतिहास में ज्ञान न पाये। इतिहास की खोज करते समय कृष्ण के समर्थक शिव की आराधना नहीं करते। देवी की आराधना करनेवले दूसरे देवों की आराधना नहीं करते। हिंदू विश्वासी इस्लाम धर्म पर विश्वास नही करते। इस्लाम मजहबी हिंदू धर्म को नहीं मानते। ईसाई इन दोनों को स्वीकार नहीं करते। बुद्ध के आराधक के विरुद्ध जैन धर्म की स्थापना हुई। जंगल के आदीवासी सभी मज़हबों को छोडकर प्रकृति शक्ति की आराधना करते हैँं। ईसा मसीह मरकर तीन दिनों के बाद पुनः दर्शन दिये। हिमलय में क्रिया बाबाजी 1804 सालों से जीवित रहकर योग्य भक्तों को दर्शन दे रहे हैं।फिर भी आध्यात्मिक बडे लोग दूसरे वर्गों को मानते नहीं है। सभी वर्गों को एक ही कहते हुए विभिन्न मार्ग पर यात्रा करते हैं।  उसके कारण वे अपनी संपूर्ण  शक्ति को प्रकट नहीं कर सकते। सभी प्रकार की क्षमता प्राप्त लोगों को सर्वशकतिमान कहते हैं। उस सर्वसंपन्न गुणी के शरीर धारण कर संसार के लोगों के दर्शन के लिए आज तक परमात्मा परमेश्वर ने अनुमति नहीं दी है। समुद्र का पानी  भाप बनकर वर्षा होकर भूमि पर तालाब, नदी बनकर फिर समुद्र  में संगम होता है। समुद्र पूर्ण रूप में आकाश में जाकर फिर नीचे आने का साध्य नहीं है। भूमि के सामने दोनों ओर समुद्र हैं। एक भाग जमीन है। इन दोनों भागों के पानी एक ही समय पर उमडकर आने पर भूमि डूब जाएगी। वैसे ही परब्रह्म रूप सामने आने पर उसका प्रभाव प्रलय होगा। यहाँ मनन करनेवाले मनुष्य स्थिति में  खडे होकर सीमित जीवबोध असीमित अनंत में टिककर लय होने के लिए
प्रार्थना ही परमात्म बोध देने के लिए। यथार्थ में ज्ञान का कहना स्वआत्म स्मरण होगा। यह बिना ध्यान के कोई भी जीव इस माया रूपी अंधकार से अर्थात अज्ञानता से बच नहीं सकता। एक बार त्रिकाल ज्ञानी शिव भगवान अपनी पत्नी उमा देवी के साथ वशिष्ट मुनि के सामने दर्शन दिये। एक हजार पूर्ण चंद्र के शीतल आनंद दर्शन की खुशी हुए मुनि  से शिव भगवान उनके ध्यान की स्थिति के बारे में पूछा। जवाब देकर मुनि ने देव पूजा के विधिवत चलने की प्रणाली और पूजा की आवश्यक सामग्री  के बारे में पूछा। उसके उत्तर में शिव ने कहा कि लक्ष्मी सहित वैकुंठ में विराजामन श्री नारायण ,कमल पर बैठे ब्रह्मा, कैलासपति मैं आदि देव नहीं हैं। चिताकाश स्वरूप स्व आत्मा ही यथार्थ देव है। उसके लिए आवश्यक पूजा सामग्रियाँ फूल और ज्ञान ही हैं। अचंचल रहना और चैन से रहना ,समत्व, आदि  उसके उपकरण  बोध होते हैं। सर्वव्यापी है। सर्वत्र सर्व इंद्रियों के अविभाज्य सच्चिदानंद रूप आत्मा  “मैं “ की दृढता पाने से बढकर कोई बढिया ध्यान या यज्ञ या कर्म इस संसार में नहीं है। इस सत्य को जानने, समझने तक विभाज्य अर्थात शारीरिक उपधाओं के साथ एक गुरु ,इष्ट देवताओं को ,त्रिमूर्तियों को आराधना करने पर भी जिस कण में मैं आत्मा ,ब्रह्म के बोध  पाते हैं, उसी मिनट  मालूम होगा कि ऊपर की बातें माया ही है। यथार्थ पूजा का मतलब है कि दैनिक जीवन में होनेवाले सुख-दुख, लाभ-नष्ट,उन्नति-अवनति, शीतोष्ण,रोग-आरोग्य स्थितियाँ ,पाप-पुण्य,सफलता-असफलता, ज्ञान-अज्ञान, निंदा-प्रशंसा, आदि होते समय  मन को सम स्थिति रहने की समता लाना ही यथार्थ देव पूजा होती है। इस पूजा करनेवालों को एक विचार उदय होकर दूसरे विचार उदय होने के बीच का समय अर्थात शरीर में मध्य भाग हृदय से प्राणन उदय उदय होकर अर्थात रेचक पूरक के बीच के उस सूक्ष्म समय  में अर्थात कुंभक,शीतल,शांति आदि शाश्वत आनंद स्थितियाँ  प्रसाद के रूप मिलती हैं। वही चिरंजीवि  होते हैं,जो सूर्य के प्राणन् और चंद्र के अपानन् आदि गति को हर एक मिनट जागृत,स्वप्न,सुसुप्ति मं भी पीछा करके प्राणन,अपानन्  के बीच स्थित खडे रहे चितात्मा को एक मिनट भी विस्मरण नहीं करते हैं।
हर एक  जीव अपने  मन में अपने रिश्तेदार ,माता-पिता,भाई-बहन,पति -पत्नी, आदि बंधन होते हैं। आत्म चिंतन की खोज में हर एक जीव के अबोध स्थल में ये सब रिशते-नाते मिथ्या चेहरे मालूम होने पर भी  ज्ञान की कमी के कारण वे सब ठीक है या सही,धर्म है या अधर्म ,पाप या पुण्य आदि न समझकर बंधन-स्नेह में फँसकर कर्म करने में लगकर,कालगति पाते हैं। लेकिन इसके विपरीत उपर्युक्त कोई नाते-रिश्ते के लोग कोई भी प्रगति की ओर जाने की मदद नहीं करते।वही नहीं मरते समय मालूम होगा कि वे हमारी प्रगति  के  बाधक रहे थे। उस स्थिति में शरीर,मन और बुद्धि भार लगेंगे।अंतिम साँस लेते समय,साँस घुटते समय  अमृत रूप परब्रह्म में लय होने की तीव्र इच्छा होते समय आत्म स्मृति शारीरिक भूल सवभाविक रूप में अचानक होगा। ग

सत्य में इस आनंद का रहस्य सूक्ष्म में ही है।उदाहरण रूप में एक साहित्य वाक्य  मानस संचररे के नाम शुरु होनेवाले गीत सुननेवाले के लिए अक्षर मात्र ही है। उसको राग देकर शंकराभरण में सुंदर गीत बनाने पर अक्षरों को लंबा-छोटा करके गाने पर हम सुनने में आनंद लहरी में तन्मय हो जाते हैं। वैसे ही नैलान साड़ी पहननेवाली को छूते समय और सन (जूट) की साड़ी छूते समय भिन्नअनुभव होता है। वैसे ही माँसाहार खाने से शाकाहारी को मानसिक शांति मिलती है। अर्थात सूक्ष्म में ही सुख मिलता है। मन शरीर के चिंतन करते समय मन से अति सूक्ष्म आत्मा के निकट पहुँचते समय यथार्थ आनंद अनुभव होता है। भक्त प्रहलाद की कहानी में प्रहलाद का मन तैलधारा के समान नारायण  में था। प्रह्लाद के पिता हिरण्यकश्यप का मन प्रह्लाद में था। उसकी माता का मन पति हिरण्यकश्यप में था। यहाँ प्रह्लाद नारायणकी आत्मा रूपी
बिजली को छूता है। यह बिजली एक ही समय में सबमें चलन से आत्मा की बिजली मात्र में है। आत्मा द्वारा आत्मा को जगा सकते हैं। जैसे जनरेटर के द्वारा बिजली तैयार कर सकते हैं।
आत्मज्ञान का प्यासी यथार्थ  शिष्य  नचिकेता को हम कठोपनिषद में पढते हैं। मृत्यु के रहस्य जानने यम धर्म गुरु के पास पूछता है। तब नचिकेता के प्रश्न का उत्तर न देकर प्रलोभ की बात करते हैं। यम वचन देते हैं कि तुम को भूलोक का चक्रवर्ति बनाता हूँ। भगवान के यशोगान गानेवाली  देवलोक की अप्सराओं को भेजता हूँ।
तुम्हारी लंबी होगी। जब तुम चाहोगे,तब तेरी मृत्यु होगी। तब नचिकेता ने कहा कि मेरे प्रश्न के उत्तर देने के गुरु आप के सिवा तीनों लोकों में और कोई नहीं है। आप मृत्यु के रहस्य को न पूछने के लिए जो वर देने तैयार हैै वह घास की तरह है। आत्म ज्ञान के परमानंद के सामने वे क्षण भर में मिटनेवाले हैं। वे वर आप
खुद रख लीजिए । नचिकेता के निवेदन सुनकर कठोर वैराग्य देखकर यम ने सोचा कि देवों को भी अप्राप्त आत्म ज्ञान पाने का योग्य उत्तम शिष्य यही है। उसके बाद मृत्यु रहस्य के ब्रह्म विद्या को अर्थात आत्म ज्ञान को नचिकेता को सिखाया। मृत्यु रहस्य यही है कि “ मैं ”आत्मा का मृत्यु नहीं है।
सुख पाने की इच्छा तनिक रहने पर भी मन नहीं वश में आता,जन्म और इच्छा का नाश नहीं होता। हम दृश्यों को मानते  हैं तो स्वरूप विस्मृति होती है। स्व रूप को भूले बिना दृश्य को अपनाना साध्य नहीं है। यह जानना और समझना आवश्यक है कि मन और शरीर नश्वर है। “मैं”  “ आत्मा “ अनश्वर है। इस बात को संदेह के बिना ज्ञान बोध बढने पर सांसारिक विचार न होंगे। उस स्थिति में “ सत “नामक  आत्मा का रूप नित्य प्रज्वलित होगा।

Tuesday, April 23, 2024

विचार तरंगेे

 [12:14 am, 16/04/2024] sanantha.50@gmail.com: एस. अनंत कृष्णन सेतु रामन का नमस्कार।

साहित्य नव कुंभ साहित्य सेवा संस्थान को 

प्रणाम।

 चित्रलेखा।

 शीर्षक --जंग लगी ताला।

विधा --अपनी हिंदी अपने विचार 

अपनी शैली भावाभिव्यक्ति 

-------++---++++((+((

सुना 

उर्वरा भूमि सोना उगलती है,

 आश्चर्य जंग लगी ताला में 

 अंकुर पनप रहा है।

 आज वैज्ञानिक युग में,

छत पर गमलों में पेड़-पौधे 

 खाली फैंके बोतल में भी।

 तब चतुर मानव 

आलसी न तो भीख नहीं माँगता।

प्रकृति बहुत कुछ देती है

 हवा मुफ्त जीने के लिए।

वर्षा मुफ्त।

कृषी प्रधान भारत।

  बेकारी नहीं सोच समझकर 

 बाग बगीचा उद्यान।

 जंग लगी ताला में पौधा।

 प्रेरित करती, प्रोत्साहन देती।

 मानव! खेती करो,

भूमि  बोतल भी बन सकता है।

 जंग लगी ताला भी।

 एस. अनंतकृष्णन चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक द्वारा स्वरचित भावाभिव्यक्ति कविता।

[12:16 am, 16/04/2024] sanantha.50@gmail.com: एस. अनंत कृष्णन सेतु रामन का नमस्कार।

साहित्य नव कुंभ साहित्य सेवा संस्थान को 

प्रणाम।

 चित्रलेखा।

 शीर्षक --जंग लगी ताला।

विधा --अपनी हिंदी अपने विचार 

अपनी शैली भावाभिव्यक्ति 

-------++---++++((+((

सुना 

उर्वरा भूमि सोना उगलती है,

 आश्चर्य जंग लगी ताला में 

 अंकुर पनप रहा है।

 आज वैज्ञानिक युग में,

छत पर गमलों में पेड़-पौधे 

 खाली फैंके बोतल में भी।

 तब चतुर मानव 

आलसी न तो भीख नहीं माँगता।

प्रकृति बहुत कुछ देती है

 हवा मुफ्त जीने के लिए।

वर्षा मुफ्त।

कृषी प्रधान भारत।

  बेकारी नहीं सोच समझकर 

 बाग बगीचा उद्यान।

 जंग लगी ताला में पौधा।

 प्रेरित करती, प्रोत्साहन देती।

 मानव! खेती करो,

भूमि  बोतल भी बन सकता है।

 जंग लगी ताला भी।

 एस. अनंतकृष्णन चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक द्वारा स्वरचित भावाभिव्यक्ति कविता।

[12:17 am, 16/04/2024] sanantha.50@gmail.com: नमस्ते वणक्कम्।


साहित्य  परिवार भारत को 

एस.अनंतकृष्णन का  प्रणाम।।

विषय --तमन्ना 

विधा --अपनी हिंदी अपने विचार 

           अपनी भाषा अपने विचार 

           अपनी शैली भावाभिव्यक्ति।

            १५-४-२०२४.

 तमन्ना क्या है?

 आजकल के छात्र से पूछा तो  कहा 

 तमन्ना अभिनेत्री।

  बूढ़े से पूछा तो

  तमन्ना ? मेरी कामना स्वस्थ तन।

ताज़े स्नातक से पूछा,

 नौकरी।

 युवति के पिता से पूछा 

 बेटी की शादी योग्य वर से।

शादी के बाद   सुंदर बच्चे की तमन्ना।

  हर कोई की तमन्ना/ख्वाहिश/इच्छा/

 उम्र के अनुसार बदलती है तमन्ना।

भारतीय  आध्यात्मिक जीवन

 तमन्ना रहित जीना।

 चाह गई चिंता मिटी,

 जानें कछु न चाहिए 

 वही शाहँशाह।।

 इच्छा नहीं,

 ऊँची अभिलाषा आकांक्षा नहीं 

तो ज्ञान नहीं, जिज्ञासा नहीं तो

 खोज नहीं, क्रिया नहीं।

 लौकिक ख्वाहिशें अलक।

अलौकिक ख्वाहिशें अलग।

 साहित्यकार की तम…

[7:58 am, 16/04/2024] sanantha.50@gmail.com: लिखा है हिंदी में, 

 लिखूँगा हिंदी में 

 लिख रहा हूँ हिंदी में।

 अनिवार्य दोहा

 लिखने के प्रयत्न

फिर भी राय दोहे की विधा नहीं।

कोशिश करके छोड़ दिया।

 कवि बनना ईश्वरीय वरदान।


 विधा  है  

अपनी भाषा अपनी हिंदी अपने‌ विचार

अपनी शैली  भावभिव्यकति।

 छंद बंद रखना,

विचारों  की धारा मैं बाँध बनाना।

दोहे लिखना आसान।

पर न  १३,११ मात्राएँ

 सही नहीं बैठता।

  अनिवार्य दोहा शैली।

   प्राचीनता की रक्षा।

 न पैदल चलतै हैं,

न घुड सवार,

न बैलगाड़ी 

 न घोड़ा गाड़ी 

न पैर गाड़ी

न हिंदी भारतीय माध्यम  पाठशालाएँ

न गुरु कुल, न चोटी न धोती।

 न राजतंत्र न दीवान।

 लोकतंत्र न ईमानदारी 

भ्रष्टाचारी अपराधी ३०% सांसद विधायक।

 २०% विपक्षी दल,१०% गिरगिट दल

२०%प्रधान दल 

मतदाता में ३०% मत नहीं देते७०% में 

पैसे लेकर खोट देने वाले।

 अपने दल के नेता 

 अपराध करें फिर भु समर्थन।

 देश की चिंता सच…

[2:22 am, 18/04/2024] sanantha.50@gmail.com: कलम बोलती है साहित्य मंच को एस अनंतकृष्णन चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक का प्रणाम वणक्कम।

विषय --सपनों की दुनिया 

विधा --अपनी हिंदी अपने विचार 

अपनी शैली भावाभिव्यक्ति 

18-4-24.

+++++++++

सपना कितने-कितने किस्म के।

 दिवा सपना,जो साकार नहीं होता।

 ब्रह्म मुहूर्त में सपना कहते हैं 

 जरूर सत्य है, फल मिलेगा।

 जागते जागते सपना,

 बड़े उद्योगपति बनने का।

 नेता बनने का।

 वैज्ञानिक बनने का।

जिसको कीर्तवान

चतुर होशियार 

 नामी धनी देखते हैं 

 वैसा ही बन जाने का।

 जादूगर बनने का।

अभिनेता बनने का।

जागते जागते सपना।

 वह तो  सपना सपना सपना ही ।

 तमिल के  शिव भक्त 64 थे।

 उनको कहते नायन्मार।

 उनमें एकते पूसलार।

 गरीब भक्त।

 शिव के मंदिर बनाने का सपना।

 कल्पना में ही मंदिर बन गये।

 दिव्य मंदिर।

 कल्पना में ही कुंभाभिषेक।।

शिव भगवान की लीला देखिए।।

राजा के स्वप्न में …

[6:43 am, 20/04/2024] sanantha.50@gmail.com: साहित्य बोध प्रमुख इकाई को एस.अनंतकृष्णन का प्रणाम।वणक्कम।

बढ़ गया प्यास का एहसास दरिया देखकर।

विधा --अपनी हिंदी अपने विचार 

 अपनी शैली भावाभिव्यक्ति 20-4-24.

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प्यास,

 बुझाने 

पानी की आवश्यकता।

प्यास प्राकृतिक उद्वेग।

 प्यास प्यार का,

प्यास ईश्वर भक्ति का

प्यास ज्ञान प्राप्त करने का

 ज्ञान पिपासा।

 प्यास आम भावना ,

 सब को मानव, पशु-पक्षी, वनस्पति।

पर मानव को मात्रा

 सांसारिक जीवन में 

 दरिया प्यास का बुझता नहीं।

विविध प्यास, विविध परिस्थितियों में।

तृष्णा नाम प्राप्त करने का।

 ये भी ईश्वर प्रेरित।

 कविता सुनने में का आम तृष्णा।

 कवि ही बनने की तृष्णा 

 उनका प्यास बुझता नहीं।

 देश की सुरक्षा सब की चाह।

 सेना में भर्ती होकर 

 जान त्यागने की पिपासा।।

नेता को देखकर नेता बनने का

 अध्यापक देख अध्यापक बनने का।

 अभिनेता , अभिनेत्री बनने का।

ये तो प्रपंच का आकर्षण।

 वैज्ञानिक बनने  का प्यास

 व्यक्ति गत क्षमता ,कौशल

 ईश्वर की देन, वह तो बुझता नहीं।

 प्यास, पिपासा,  तृष्णा।

  विविध प्राकृतिक विशेषताएँ।

  सांसारिक दरिया में 

जन्म पर्यंत ज्ञान पिपासा बढ़ता है,

बढ़ रहा है, बढ़ेगा ही,

मानव बुद्धि जीवी,

 न पशु-पक्षी वनस्पति समान 

 पानी मात्र पीना,बढना,मरना।

 मानव का ज्ञान पिपासा 

जिज्ञासा बढ़ गया संसार की दरिया देखकर।।

 प्यार, ज्ञान, भक्ति तीनों अति विस्तार।

 बढ़ गया प्यास का एहसास दरिया देखकर।


एस.अनंतकृष्णन, चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक

[4:01 pm, 21/04/2024] sanantha.50@gmail.com: नमस्ते वणक्कम् एस.अनंतकृष्णन का 

साहित्य बोध महाराष्ट्र इकाई को।

विषय -जख्म कहीं नासूर न बन जाए।

 विधा --अपनी हिंदी अपने विचार 

          अपनी शैली भावाभिव्यक्ति 

 २२-४-९०२४.

  शब्द कया है?

 वक्रोक्ति।

 तुम तो वैशाखनंद हो,

मैं तो अर्थ नहीं जानता।

 नंदकिशोर, नंद गोपाल जैसे 

 पता चला वैशाखनंद का अर्थ गधा है।

तब मेरी प्रसन्नता अप्रसन्न ।

 मेरी तारीफ वाजस्तुति।

  एक शब्द है औषधी दूसरा शब्द तीर।

  धीमा शब्द कहना,

  कुंजरः,ऊंचे स्वर में अश्वत्थामा।

 गुरु द्रोणाचार्य का भ्रम।

 परिणाम चेले के द्वारा मृत्यु।

 भले ही भगवान कृष्ण हो

ज़ख्म तो नासूर ही।

 धर्म निंदा नहीं,

 अधर्म युद्ध सा चोट।।

क्या करें हम,

 चोट  तो लगजाती।

मधुर वचन है औषधी,

 कटुकी वचन है तीर। 

 सोचो समझो

 ज़ख्म कहीं नासूर न बन जाए।

 जिह्वा बावरी कह गया

 स्वर्ग पाताल।

 खोपड़ी पर चोट।

तिरुवल्लुवर ने कहा,

 …

[10:28 pm, 21/04/2024] sanantha.50@gmail.com: मानव मन डरपोक होता,

 जब   इति भीति दुखी  घटना

 सोचता ही रहता।

 जीवन का सुख भगवान की कृपा 

 अति आनंद मनाना 

वैसे ही दुख में भी मनाना।

 दुख भगवान के पास ले जाएगा।

 सुख भगवान से 

अति दूर भगाएगा।

 वेदना तू भली गुप्त जीने लिखा।

नर हो, न निराश करो मन को।

 आप क्यों इतना उदास दीख पड़ते हैं।

 सुख में दुख में 

 साथ देनेवाली,

 ऊर्जा देनेवाली ऋतुएँ

 पतझड़ में सूखे पेड़।

 एक पत्ता भी नहीं,

 वसंत में पनपते हैं 

 ताज़े पत्ते, फूल नव वधु समान।

 तज चले पक्षु वापस आते।

 कोयल कू कू।

 मानव में क्या नहीं,

 मानव खुद भगवान 

 अहंब्रह्मास्मी।

 शक्ति पुंज।

 शरणागत वत्सल।

 शरणार्थी बनो।

 शक्तिशाली बनोगे।

 मूर्ख भी कवि बनता।

 वरकवि कालीदास।

 वरकवि वाल्मीकि।

 आप तो नामी कवि

 हमेशा सरोताज़ा रहना। 

एस.अनंतकृष्णन

[12:46 pm, 22/04/2024] sanantha.50@gmail.com: नमस्ते वणक्कम्।

 भू लोक 

 मृत्यु लोक

 नश्वर लोक

 पर भूमि तो शाश्वत।

 भू दिवस चाहिए क्या?

 हाँ, आजकल का मानव

 वैज्ञानिक मानव,

 अपने स्वार्थ के लिए 

सद्यःफल के लिए 

 जंगलों को नगर बना रहे हैं।

 प्राकृतिक जलाशयों को

 जल रहित बना रहे हैं।

 यंत्रीकरण  कारखाने 

 धूएँ, रसायनिक जल,

 आवागमन की ध्वनियां,

 भू गर्भ के प्राकृतिक संतुलन 

बिगाड़ रहे हैं।

 तमिलनाडु मदुरै के पास 

 पहाड़ समतल बना रहा है।

 पहाड़ को चूर्ण करने का नतीजा 

 नदी की चौड़ाई कम,

 तालाब हमारे पूर्वजों ने बनाया 

 कूड़े कचरे डालकर 

 नदारद है।

 भू को पवित्र रखने

 सनातन धर्म में  वन महोत्सव,

 होम हवन पर आजकल 

 भूतल जल प्रदूषित,

 विषैले वायु भोपाल दुर्घटनाएँ।

इन सब बातों को ध्यान दिलाने

 दुबाई बाढ़ अप्रतीक्षित वर्षा 

 सतर्क करने पृथ्वी दिवस/धर्ती दिवस/भू दिवस 

 मनाना चाहिए।

एस.अनंतकृष्णन, चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक द्वारा स्वरचित भावाभिव्यक्ति कविता 

 स्वरचित

[11:09 pm, 22/04/2024] sanantha.50@gmail.com: साहित्य बोध उत्तर प्रदेश इकाई को एस.अनंतकृष्णन का नमस्कार वणक्कम।

शीर्षक ---अनुभव ही जीवन का श्रेष्ठ शिक्षक है।

विधा --अपनी हिंदी अपने विचार 

           अपनी शैली भावाभिव्यक्ति 

२३-०४-२०२४

  अनुभव से ही मानव 

    मानव बनता है।

    आग के छूने से जलन का अनुभव।

     नीचे गिरने से चोट का अनुभव।

       गाली सुनने से मनुष्य का स्वभाव।

         कदम कदम पर अनुभव।

         नवरसों का अनुभव।। 

         आलंबन आश्रय  उद्दीपन से

          प्रेम करुणा भय शोक घृणा।

           धोखा खाने से अनुभव।

             हर अनुभव ही शिक्षक।

             विद्यालय में अनुभव।

             महाविद्यालय में अनुभव।

             मैदान में अनुभव।

            परिवारवालों से अनुभव ,

            समाज में , यात्रा में 

             पढ़ने सुनने में

               प्रेम के मिलन में,

              प्यार के कारण 

             मधुर अनुभव,कटु अनुभव।

             धनी, निर्धनी का अनुभव।

              नौकरी साक्षात्कार में 

              नौकरी  मिलने न मिलने के अनुभव।

              वाणिज्य में लाभ नष्ट के अनुभव।

                बाढ़ सुनामी भूकंप के अनुभव में 

                हर अनुभव के सुपरिणाम, कुपरिणाम।  

                 शिक्षक बनता है।

               संक्रामक रोग के अनुभव तो बड़ा शिक्षक।

               प्रदूषण के अनुभव भी शिक्षक।

         चित्रपट में विचार प्रदूषण।

         सोचो समझो जानो अनुभव ही शिक्षक।

एस.अनंतकृष्णन, चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक।

[9:39 am, 23/04/2024] sanantha.50@gmail.com: कुएं सूखा नहीं,

 प्रकृति का क्रोध बढ़ रहा है

 आहिस्ते-आहिस्ते।

 समृद्ध भारत कृषि प्रधान भारत 

 नगर विस्तार नगरीकरण 

  भावी पीढ़ी के लिए नरकीकरण।

 कह रहे हैं प्रकृति प्रेमी।

 सद्यःफल विज्ञान मधुशाला की तरह।

 गोरी गली-गली बिकै।

 जीना मरना 

 दुख भूलने पूर्वजों का

 आध्यात्मिक ध्यान में परिवर्तन।

 मधुशाला की ओर आकर्षण।

स्थाई सुख ईश्वर ध्यान।

 अस्थाई  सुख बाह्य माया।

 स्नातक स्नातकोत्तर महाविद्यालय के 

बढते बढते भ्रष्टाचार रिश्वतखोर का

 बढना, मुगलों के आने के पहले

 भारतीय विकास बाद के आधुनिक विकास

 आनन्द किस में?

 Kiss में , चुंबन स्वतंत्रता क्रांति।

 सोचो, समझो, 

धन 

 झूठे हिसाब किताब लिखने में 

 धन

 अपराधियों को बचाने में 

 धन 

 अश्लील गाना लिखने में 

 अश्लील दृश्य दिखाने में।

 धन धन धन 

देखो ,ज़रा तन परिवर्तन 

 तन की शिथिलता 

 तेरा धन कुछ काम का नहीं 

 जवानी न …

[9:39 am, 23/04/2024] sanantha.50@gmail.com: मन मान मर्यादा 

 तीनों शब्द 

 आ सेतु हिमाचल तक।

 मनम् मानम् मरियादै  

 तमिल में।

 धन धनम् तमिल में 

 धन के लिए 

मन बदलना,

 मान-मर्यादा छोड़ना

मातृभाषा के लिए कब्र खोदना,

अंग्रेज़ी माध्यम स्कूल की अनुमति 

 सद्यःफल  आय। 

 देश भक्ति , संस्कृति  भूलना


 ईश्वरीय अपमान 

 मानव सदा दुखी।

 देश की प्रगति में बाधक।

एस. अनंत कृष्णन चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक

[4:43 pm, 23/04/2024] sanantha.50@gmail.com: नमस्ते वणक्कम्।

परिवार दल को,

 किसका प्रणाम?

एस., अनंतकृष्णन चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक  का। 

  विषय 

अनेकता में एकता।

विधा

अपनी भाषा अपनी हिंदी अपने‌ विचार अपनी सोच

 अपनी शैली भावाभिव्यक्ति 

+++++++++++++++++++

 एक सफेद सूत,

 रंग-बिरंगे धागा।

एकता में विविधता।

 अब  विविध रंग।

  विविध रंगों का एक कपड़ा। 

 भगवान एक,

 सृष्टियांँ विविध।

 बुद्धिहीन पशु-पक्षी,

 हड्डी हीन कीड़े मकोड़े।

 मानव में कितने रंग।

 विचारों में कितने रंग भंग।

फिर मानव में एकता का ज्ञान।

 प्रेम देश प्रेम, विविधता भूलकर एकता।

धर्म-कर्म गुण दान वीर।

 पर मज़हब तो अनेक।।

मजहब में ईश्वर अनेक।

 पंचभूत नहीं देखता

 विविधता।

   प्यास , प्रेम,  आत्मज्ञान न तो

 मानव पशु समान।

मानवीय गुण,

नवरस

 दया, ममता, करुणा, अहिंसा,

 ईश्वरीय कानून मृत्यु 

  विविध गुण वाले मानव में 

 एकता के कारण बनते।

 एस.अनंतकृष्णन,

चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक द्वारा स्वरचित भावाभिव्यक्ति।

Friday, April 19, 2024

तमन्ना

सपना कितने-कितने किस्म के। दिवा सपना,जो साकार नहीं होता। ब्रह्म मुहूर्त में सपना कहते हैं जरूर सत्य है, फल मिलेगा। जागते जागते सपना, बड़े उद्योगपति बनने का। नेता बनने का। वैज्ञानिक बनने का। जिसको कीर्तवान चतुर होशियार नामी धनी देखते हैं वैसा ही बन जाने का। जादूगर बनने का। अभिनेता बनने का। जागते जागते सपना। वह तो सपना सपना सपना ही । तमिल के शिव भक्त 64 थे। उनको कहते नायन्मार। उनमें एकते पूसलार। गरीब भक्त। शिव के मंदिर बनाने का सपना। कल्पना में ही मंदिर बन गये। दिव्य मंदिर। कल्पना में ही कुंभाभिषेक।। शिव भगवान की लीला देखिए।। राजा के स्वप्न में पूसलार भक्त के बारे में कहा। राजा पूसलार की खोज में गये। उनकी कल्पना के जैसे ही मंदिर बनवाये। जो भी सपना हो, पूरा होने कठोर प्रयत्न लग्न ईश्वरीय अनुग्रह चाहिए। तभी सपना साकार होगा। स्वर्गीय राष्ट्रपति अब्दुल कलाम कहते थे स्वप्न देखिए। लक्ष्य बनाइए। एस . अनंत कृष्णन, चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक।

Tuesday, April 16, 2024

विचार तरगें

[9:08 am, 15/04/2024] sanantha.50@gmail.com: नमस्ते वणक्कम्। साहित्य परिवार भारत को एस.अनंतकृष्णन का प्रणाम।। विषय --तमन्ना विधा --अपनी हिंदी अपने विचार अपनी भाषा अपने विचार अपनी शैली भावाभिव्यक्ति। १५-४-२०२४. तमन्ना क्या है? आजकल के छात्र से पूछा तो कहा तमन्ना अभिनेत्री। बूढ़े से पूछा तो तमन्ना ? मेरी कामना स्वस्थ तन। ताज़े स्नातक से पूछा, नौकरी। युवति के पिता से पूछा बेटी की शादी योग्य वर से। शादी के बाद सुंदर बच्चे की तमन्ना। हर कोई की तमन्ना/ख्वाहिश/इच्छा/ उम्र के अनुसार बदलती है तमन्ना। भारतीय आध्यात्मिक जीवन तमन्ना रहित जीना। चाह गई चिंता मिटी, जानें कछु न चाहिए वही शाहँशाह।। इच्छा नहीं, ऊँची अभिलाषा आकांक्षा नहीं तो ज्ञान नहीं, जिज्ञासा नहीं तो खोज नहीं, क्रिया नहीं। लौकिक ख्वाहिशें अलक। अलौकिक ख्वाहिशें अलग। साहित्यकार की तम… [4:56 pm, 15/04/2024] sanantha.50@gmail.com: एस.अनंतक‌ष्णन का नमस्कार वणक्कम साहित्य मंच प्रकाश को। विषय --वन-उपवन। காடும் தோட்டமும். विधा --स्वच्छिक मौलिक रचना मौलिक विधा। 27-4-2022. ------------------ वन ईश्वर की सृष्टि। காடு கடவுளின் படைப்பு. उपवन मानव निर्मित। தோட்டம் மனிதன் படைத்தது. मानव ईश्वर निर्मित।। மனிதன் கடவுள் படைத்தது. मानवता मानव ज्ञान निर्मित। மனிதம் மனித ஞானம் படைத்தது. जन्म ईश्वर की देन। பிறப்பு கடவுள் அளித்தது. जीवन में जी और वन है। ஜீவன் ஜீ மனது வனம் காடு जी में सुविचार है तो. மனதில் நல்ல எண்ணங்கள் இருந்தால் मानव की जिंदगी उपवन। மனித வாழ்க்கை ஒரு தோட்டம். जी में मानवता है तो मानव श्रेष्ठ। மனதில் மனிதம் இருந்தால் மனிதன் மேன்மையானவன். जी में पशुत्व हो तो मानव अधम, மனதில் மிருக குணம் இருந்தால் மனிதன் அதமன்.தாழ்ந்தவன். पशु बराबर, भयंकर वन समान।। மிருகத்… [0:14 am, 16/04/2024] sanantha.50@gmail.com: एस. अनंत कृष्णन सेतु रामन का नमस्कार। साहित्य नव कुंभ साहित्य सेवा संस्थान को प्रणाम। चित्रलेखा। शीर्षक --जंग लगी ताला। विधा --अपनी हिंदी अपने विचार अपनी शैली भावाभिव्यक्ति -------++---++++((+(( सुना उर्वरा भूमि सोना उगलती है, आश्चर्य जंग लगी ताला में अंकुर पनप रहा है। आज वैज्ञानिक युग में, छत पर गमलों में पेड़-पौधे खाली फैंके बोतल में भी। तब चतुर मानव आलसी न तो भीख नहीं माँगता। प्रकृति बहुत कुछ देती है हवा मुफ्त जीने के लिए। वर्षा मुफ्त। कृषी प्रधान भारत। बेकारी नहीं सोच समझकर बाग बगीचा उद्यान। जंग लगी ताला में पौधा। प्रेरित करती, प्रोत्साहन देती। मानव! खेती करो, भूमि बोतल भी बन सकता है। जंग लगी ताला भी। एस. अनंतकृष्णन चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक द्वारा स्वरचित भावाभिव्यक्ति कविता। [0:16 am, 16/04/2024] sanantha.50@gmail.com: एस. अनंत कृष्णन सेतु रामन का नमस्कार। साहित्य नव कुंभ साहित्य सेवा संस्थान को प्रणाम। चित्रलेखा। शीर्षक --जंग लगी ताला। विधा --अपनी हिंदी अपने विचार अपनी शैली भावाभिव्यक्ति -------++---++++((+(( सुना उर्वरा भूमि सोना उगलती है, आश्चर्य जंग लगी ताला में अंकुर पनप रहा है। आज वैज्ञानिक युग में, छत पर गमलों में पेड़-पौधे खाली फैंके बोतल में भी। तब चतुर मानव आलसी न तो भीख नहीं माँगता। प्रकृति बहुत कुछ देती है हवा मुफ्त जीने के लिए। वर्षा मुफ्त। कृषी प्रधान भारत। बेकारी नहीं सोच समझकर बाग बगीचा उद्यान। जंग लगी ताला में पौधा। प्रेरित करती, प्रोत्साहन देती। मानव! खेती करो, भूमि बोतल भी बन सकता है। जंग लगी ताला भी। एस. अनंतकृष्णन चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक द्वारा स्वरचित भावाभिव्यक्ति कविता। [0:17 am, 16/04/2024] sanantha.50@gmail.com: नमस्ते वणक्कम्। साहित्य परिवार भारत को एस.अनंतकृष्णन का प्रणाम।। विषय --तमन्ना विधा --अपनी हिंदी अपने विचार अपनी भाषा अपने विचार अपनी शैली भावाभिव्यक्ति। १५-४-२०२४. तमन्ना क्या है? आजकल के छात्र से पूछा तो कहा तमन्ना अभिनेत्री। बूढ़े से पूछा तो तमन्ना ? मेरी कामना स्वस्थ तन। ताज़े स्नातक से पूछा, नौकरी। युवति के पिता से पूछा बेटी की शादी योग्य वर से। शादी के बाद सुंदर बच्चे की तमन्ना। हर कोई की तमन्ना/ख्वाहिश/इच्छा/ उम्र के अनुसार बदलती है तमन्ना। भारतीय आध्यात्मिक जीवन तमन्ना रहित जीना। चाह गई चिंता मिटी, जानें कछु न चाहिए वही शाहँशाह।। इच्छा नहीं, ऊँची अभिलाषा आकांक्षा नहीं तो ज्ञान नहीं, जिज्ञासा नहीं तो खोज नहीं, क्रिया नहीं। लौकिक ख्वाहिशें अलक। अलौकिक ख्वाहिशें अलग। साहित्यकार की तमन्ना अलग। वैज्ञानिकों की तमन्ना अलग। तमन्ना विविध।। सर्वे जना सुखिनो भवंतु। वसुधैव कुटुंबकम् जय जगत। सत्यमेव जयते भारतीय तमन्ना जागते कल्याण। जगतोद्धार। एस.अनंतकृष्णन, चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक द्वारा स्वरचित भावाभिव्यक्ति कविता ।

विचार तरंगें

लिखा है हिंदी में, लिखूँगा हिंदी में लिख रहा हूँ हिंदी में। अनिवार्य दोहा लिखने के प्रयत्न फिर भी राय दोहे की विधा नहीं। कोशिश करके छोड़ दिया। कवि बनना ईश्वरीय वरदान। विधा है अपनी भाषा अपनी हिंदी अपने‌ विचार अपनी शैली भावभिव्यकति। छंद बंद रखना, विचारों की धारा मैं बाँध बनाना। दोहे लिखना आसान। पर न १३,११ मात्राएँ सही नहीं बैठता। अनिवार्य दोहा शैली। प्राचीनता की रक्षा। न पैदल चलतै हैं, न घुड सवार, न बैलगाड़ी न घोड़ा गाड़ी न पैर गाड़ी न हिंदी भारतीय माध्यम पाठशालाएँ न गुरु कुल, न चोटी न धोती। न राजतंत्र न दीवान। लोकतंत्र न ईमानदारी भ्रष्टाचारी अपराधी ३०% सांसद विधायक। २०% विपक्षी दल,१०% गिरगिट दल २०%प्रधान दल मतदाता में ३०% मत नहीं देते७०% में पैसे लेकर खोट देने वाले। अपने दल के नेता अपराध करें फिर भु समर्थन। देश की चिंता सच्चे सेवक है ईश्वरीय शक्ति है पर पुरानों में आसुरी शक्तियों के शासन। देशद्रोही इधर उधर फिर देशोन्नति। इस आध्यात्मिक शक्ति ईश्वर की सूक्ष्म लीला। साहित्य में भी सुधार दोहा कबीर की भाषा तुलसी अवधि , सूर व्रज विद्यापति मैथिली। आज खड़ी है खड़ी बोली। स्वतंत्रता से लिखने देना तभी भाषा का विकास। न मैं गिनता मात्राएँ अपने मनका भाव अभिव्यक्ति। इसको भी चाहती जनता। एस.अनंतकृष्णन, चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक।

Saturday, March 23, 2024

सनातनवेद

2601.सब के प्रिय के पात्र बनने के लिए निश्चय ही अनेक हजार जन्मों का पुण्य करना चाहिए । मन आत्मा को अस्पर्शित लोगों को जानवर भी न चाहेगा।उसी समय जिंदगी भर एक क्षण भी त्रिकालों में स्व रूप आत्मा को जो नहीं भूलता, उसको सभी जीव ,पौधे,लताएँ आदि भी प्रणाम करेंगे। यह जीवन सबके पसंद का जीवन ही है ।उसके लिए एक मात्र मार्ग अद्वैत ज्ञान मार्ग का अनुकरण करके भगवान के स्मरण में जीना ।वही नहीं भगवान के लिए जीकर सबको ईश्वर के रूप में देखकर ईश्वर के बिना संसार में कुछ भी नहीं है की ज्ञान दृढता पाना।जिस देश में,जिस कुटुंब में, ऐसी ज्ञान की दृढता को व्यवहार में लाते हैं,वहीं परमानंद का वासस्थान अनिर्वचनीय शांति की खेती होगी। 2602.आत्मज्ञानी अज्ञानियों को उनके कल्वाण के लिए अपमनित करने पर उनको अज्ञानी पर क्रोध होगा। अज्ञानी विषय लाभ उठाकर स्वल्प संतोष पाने पर भी उस संतोष के कारण होनेवाले दुख से मानसिक पीडा होने के कारण विषय विरक्ति होकर आत्मज्ञान प्राप्त करने के प्रयत्न में लगेंगे। विषय दुख के आने के बाद ही ज्ञानियों का महत्व मालूम होगा।वे ज्ञानियों को सम्मानित करके उनको अनुकरण करने का प्रयत्न करेंगे। 2603 . जो सोचते हैं कि दूसरों के गुणों की प्रशंसा करने से अपना नाम बिगड जाएगा, उनको यह मालूम नहीं है कि वे अपने महत्व को अपने आप घटा रहे हैं। कारण उनमें आत्म ज्ञान नहीं है। आत्मज्ञान के बारे सही जानकारी न होने से लोग सोचते हैं कि आत्मज्ञान एक आश्चर्य की वस्तु है,उसको सीख नहीं सकते।वह तो बुजुर्गों के लिए है।जवानी में इच्छाओं को बढाकर जीना चाहिए।हर एक जीव को उनकी अपनी निजी सुखों को,सभी स्वतंत्रता, सब प्रकार की शांति ,स्नेह-प्यार .यह आत्मा का स्वभाव मात्र नहीं,वह अपनी अहमात्मा ही है। यह अहमात्मा ही मैं का बोध है।वह बोध के कारण ही सब कुछ होते हैं।उस बोध के कारण इस अखंड प्रपंच को देखते हैं। अखंडबोध ही ज्ञान की दृढता बनाती है।उससे बढकर धर्म इहलोक और परलोक में और कोई नहीं है। 2604.अनंत,अनादि,स्वयं अनुभव आनंद आत्म स्वरूप ब्रह्म अपने आप प्रकट होकर आना ही मोक्ष है। उनके आने से रोकने के लिए राग-द्वेष,काम-क्रोध आदि विविध विषय-वासनाओं को लेकर स्वच्छ मन को मलीन करके भेद-बुद्धियों को बनाकर संकल्पों को माया अपने सहज स्वभाव के कारण बढाते ही रहेंगी। उस चित्त को परमात्मा का प्रतिबिंब बोध जीव रूपी मन को अपने विवेक से चित्त गति का अनुसरण न करके सत्य-असत्य,असल-नकल के अंतरों को जान-पहचानकर प्रतिबिंब बोध रूपी जीव मैं को ही यथार्थ स्वरूपी अखंड को भूलकर इस पंचभूत के तंग पिंजरे में अज्ञानी के रूप में ही रहते हैं। उस नकल जीवन से मुक्त होकर जीव भाव भूलकर नित्य निष्कलंक परमात्मा ही अपने यथार्थ स्वरूप की बात को मन में स्थिर रखकर ,मन के मलों को आत्म बोध द्वारा निर्मल बनाकर सत् ,चित् ,आनंद अर्थात सच्चिदानंद के रूप में जीना चाहिए। 2605.इस ब्रह्मांड का आधार स्तंभ बोध ही है। अर्थात मैं के अखंड बोध के बिना और कोई ब्रह्मांड नहीं है। मानव के मन में इस अखंड बोध के उदय होते ही उस जीव को विवेकपूर्ण रूप से कार्यान्वित करके जीने पर जीव का भाग्योदय होगा।सिवा इसके स्थान,कुल,के जन्म के अनुसार भाग्योदय न होगा। कारण जीव की सभी इच्छाएँ अखंड बोध के स्वभाव मात्र ही है। 2606. भूमि से कई गुना बडे सूर्य को एक छोटा-सा काला बादल छिपा देता है।वैसे ही आदी-अंत रहित ब्रह्म को यह शरीर छिपा देता है।सर्वव्यापी परमात्मा अनंत और अज्ञात है अतः उसे छिपाने के लिए दूसरा कोई अनंत न बनेगा। वह अपनी शक्ति माया दिखाती इंद्रजाल को देखने का भ्रम ही है। उस भ्रम को बदलकर मैं ही ब्रह्म की अनुभूति करना ही मोक्ष होता है।उसके लिए ब्रह्म ज्ञान ही मार्ग है। 2607. एक माता अपने बच्चे को किसी भी हालत में नहीं कहेगी कि बच्चा अपना नहीं है,भले ही वह अति क्रूर हो, बच्चे को मारती पीटती हो।वैसे ही उससे बढकर आत्मज्ञानी गुरु अपने शिष्य के साथ रखता है।हर एक जीव के शारीरिक रूप में परमात्मा ही है।अखंड बोध अपनी शक्ति माया का भाग ही है वह। केवल वही नहीं अखंड बोध के प्रतिबिंब बनकर ही उस जीव में मैं का बोध होता है।वैसे ही प्रपंच के सभी रूपों में अपनी शक्ति माया का वैभव ही है।उसको प्रकाशित करनेवाला मैं बननेवाला अखंडबोध प्रकाश ही है।इस ब्रह्मज्ञान की अनुभूति लेकर ही सद्गुरु रहते हैं।इसीलिए हर एक जीव अपने माता-पिता से सद्गुरु को श्रेष्ठ मानकर निस्संगता से प्यार करते हैं। 2608. मानव किसी एक महारोग से पीडित हो जाता तो उसकी अपनी सारी इच्छाएँ अस्त हो जाएँगी।उस रोग से मुक्ति होने की चिंता के अतिरिक्त और कोई चिंता के लिए मन में स्थान न रहेगा। और कोई चिंता बल न पकडेगी। जो इस बात को जानते हैं, वे ईश्वर को प्रधानता देते हैं। उनमें शरीर से प्राण बिछुड जाने को जानने की कला ज्ञान की खोज करने का उद्वेग होता है। 2609. रूप हीन पवित्र मन रूपवान पंचेंद्रिय विषयों में लगने पर अपवित्र हो जाएगा।उसका नाश सत्य है का सोच न होना ही दुखों के कारण बनते हैं। मन आत्मा में लगने पर बलशाली बनेगा।मन बाहर भटकेगा तो दुर्बल हो जाएगा। मन नाम रूपों के कारण बल रहित होने पर दासत्व बन जाएगा। दासत्व पराधीन बना देगा । इसलिए स्वतंत्रता से,शक्ति से सांसारिक जीवन बिताने के लिए मन को आत्मबोध से एक क्षण भी न हटाकर सभी कर्मों को निस्संग करना चाहिए। 2610. सर्वव्यापी ,निर्गुण ही आत्म का स्वभाव होगा। आत्मा एक रस होकर निरूपाधिक रहने पर आत्मा परमानंदित रहेगा। वह माया के कारण शोभाधिक के कारण अनेक विषयों के आनंद को भोगें तो उसको विषयानंद कहते हैं। 2611. जब सच बोलते हैं, तब भगवान की आशीषें मिलेंगी। झूठ बोलते समय मिली आशीषें भी नष्ट हो जाएँगी।उसका कारण सत्य बोलते समय मन आत्मा की ओर ,झूठ बोलते समय मन अहंकार की ओर जाता है। कहाँ शांति है? कहाँ अशांति है? वहाँ जाने का पता मानव जानता नहीं है । यही मानव के दुखों का मूल कारण होता है। मानव को पता लगाना चाहिए कि जहाँ जाने से शांति मिलेगी? वहाँ जाकर जीवन चलाना चाहिए। सही स्थान का पता न लगाकर दूसरों पर मीन मेख लगाने से जिंदगी भर दुख सहना ही पडेगा। 2612. जो सर्वस्व संसार को,संसार की सृष्टियों को ब्रह्म के रूप में देखता है,उस के लिए सत्य-असत्य कोई भी नहीं है। ब्रह्म दर्शन में स्वयम् ब्रह्म के रूप में रहने से दूसरा कोई दृश्य न होने से भेद बुद्धि न रहेगी। भेद बुद्धि न होने से मन निर्विचार निश्चिंत ही रहेगा।इसीलिए किसी को विभाजित करके देखने की आवश्यक्ता न होगी।इस स्थिति में ही ब्रह्म के सहज स्वभाव का परमानंद सहज ही मिल जाता है। 2613. एक जीव अनेक हजार जन्मों को पार करके इस माया सागर से बचकर किनारे पर लगाने का एक नाव ही यह मानव शरीर। वैसे ही अनेक मनुष्य शरीर का जन्म लेकर ,जिन दुखों को भोगना है ,उन सबको भोगकर अंत में ही यथार्थ स्वरूप ,इस शरीर के , इस प्रपंच का मूल आधार स्थंभ अखंड बोध ही है की अनुभूति होती है।उस स्थिति में अखंड बोध की भावना करके सुदृढ बनाने के लिए इस रूपात्मक प्रपंच के हर एक रूप को देखते समय आकाशमय ही दीखेगा। उस प्रकार ही सभी रूपात्मक प्रपंच को आकाशमय देखकर आकाश से भी सूक्ष्म चिताकाश स्वरूपी अखंड बोधात्मा की अनुभूति करनी चाहिए। 2614. वह स्त्री पतिव्रता है,जो अन्य पुरुष को अपने निकट आने नहीं देती। अपनी पतिव्रता धर्म को समझाने का प्रयत्न ही अन्य पुरुष को अपने निकट आने न देना।पतिव्रता का मन केवल भगवान पर केंद्रित रहता है। संग करने से मन में राग-द्वेष होते हैं।भेद बुद्धि बनती है।माया के संकल्प से अपनी सुरक्षा के लिए ही अन्यों के संग को वह इनकार करती है।वैसी औरत जो कुछ देखें या सुने,अपने पति बने अहमात्मा से एक पल भी न हटकर मन निश्चल होकर सभी कार्यों में मन लगाती है। जो पतिव्रता है उसके लिए असाध्य काम कोई नहीं है।वह अपने पैरों से खडे होकर ही उसे समझाती है।वह खुद आदी पराशक्ति ही है। 2615. स्त्री आत्मज्ञान सीखकर आत्मा रूपी पुरुष बनने के प्रयत्न में लगते समय ही पुरुष का अनुसरण करने लगेगी।यथार्थ पुरुष आत्म ज्ञानी ही है।वैसे आत्म ज्ञानी रूपी स्वात्मा निश्चित पुरुष का अनसरण न करनेवली स्त्री के रहते उसका लक्ष्य ज्ञान नहीं ,अज्ञान ही है। अज्ञान का मतलब है ,अरूपी अखंड बोधात्मा में उदय होकर अस्त होनेवाला माया संकल्प रूपी नाम रूप विषय रूप ही है। उन लौकिक रूप विषयों के भ्रम में जो रहते हैं,आत्मा का स्वभाव शांति और नित्यानंद को भोग नहीं सकते। 2616. कोई एक व्यक्ति अभ्यास और वैराग्य से आत्मज्ञान सीखकर आत्म उपासना करने लगते समय उसमें मन रहता है। मन हमेशा किसी एक रूप में मिलकर ही रहेगा।कोई न कोई रूप के बिना मन स्थित नहीं रह सकता।इतनी जानकारी से ही एक आत्म साधक को रूप रहित आत्म स्थिति को पाने में बाधा डालनेवाले मन को अति सरलता से मिटा सकते हैं।कारण रूप अस्थिर होता है। वह शास्त्र सत्य है। यह शास्त्र सत्य बुद्धि में स्थिर होने के साथ ही उसका मन रूप की चाह में न जाएगा। स्थाई आत्मा सर्वव्यापी होने से दूसरी कोई वस्तु बन नहीं सकती। दूसरी कोई एक वस्तु न होने से माया मन संकल्प नहीं कर सकता।अर्थात प्राणन चल न सकने से मन मन दबने के स्थान में बोध अपने एकांत में चमकेगा। अकारण ही बोध शक्ति बोध को छिपा देने से ही मन, मानसिक कल्पना रूपी प्रपंच है सा लगेगा। बोध भ्रम में पड जाएगा।इसलिए विवेक द्वारा बोध को बिना तजे रहना ही मोक्ष होता है 2617. सर्व व्यापी आत्मा शरीर को स्वीकार करते समय शरीर में जो ज्ञान है,वह सीमित जीवात्मा के रूप में परिवर्तित हो जाता है। तभी जीव को भेद बुद्धि के कारण “मैं”,”मेरा अपना” “तुम,तुम्हारा” जैसे हम जिस दुनिया को देखते हैं,वह दुनिया होगी। आत्मज्ञान द्वारा जीव शारीरिक बोध रहित होने पर आत्मबोध में जाने पर सीमित “मैं” असीमित हो जाएगा। तभी ”मैं” सर्वव्यापी का अनुभव होगा।तब तक मैं,तुम और संसार रहा।जब “मैं” सर्वव्यापी का अनुभव होता है,तब सीमित जीव का प्रतिबिंब जीव बोध छोडकर असीमित अखंड बोध अनुभव के आते ही जीव रूपी “ मैं”, जीव देखनेवाला “तुम” और “संसार” अखंड बोध में मिट जाएगा। 2618. भ्रम छूटने पर “मैं”ब्रह्म हूँ । भ्रम मन को ही है।जब तक मन रहेगा,तब तक मृत्यु रहेगी। मन के मरते ही मृत्यु भी मरेगी। मृत्यु होने की दशा ही मोक्ष है| 2619. अपने से अन्य रूप में देखनेवाले सबके सब असत्य है। जो इस बात का महसूस करता है,वही सत्य है। उसको मालूम है कि केवल वही है। 2620. कोई एक आदमी किसी एक आदमी से प्यार करते समय अन्य स्त्रियों की याद न रहेगी। वैसे आने पर वह प्यार नहीं है। वैसे ही एक भक्त को भगवान से प्यार करते समय अन्य विषयों की यादें आने पर वह भक्ति नही है। लेकिन अन्य यादों में भी भगवान के दर्शन होने पर ही भक्ति पूर्ण होती है। अर्थात शारीरिक याद रहें तो अन्य यादें होगी। यथार्थ प्रेमी में काम वासना न रहेगी। इसलिए अन्य यादें भी न रहेंगीं। 2621. अध्यापक हो या आचार्य हो माता-पिता हो या समुदाय ,मजहब हो या राजनीति या विज्ञान दैनिक जीवन के सुख-दुख से मुक्त होकर शांति प्राप्ति की शिक्षा को बचमन से ही देे से ही हम,हमारा परिवार ,देश,संसार आदि शांति उगाने की खेती बनेगी। उसके लिए एक मात्र मार्ग वेद, उपनिषद,पुराण ,विज्ञान आदि को बचपन से ही सिखानेवाले गुरु कुल संप्रदाय की शिक्षा व्यवस्था के लिए देश भर के प्रशासकों को, सरकार को नियम बनाना चाहिए। ऐसे नियम बनाना चाहिए कि शासक बदलने पर भी नियम न बदलना चाहिए। कारण पुराणों और शास्त्रों में युक्ति से न जुडे कहानियाँ और संभव है । उन सबको सत्य को समझाने के लिए ही महात्माओं ने बनाकर लिखा है। इस बात को समझकर सनातन सत्य उपनिषद के महा वाक्यों को बचपन से ही सिखाना चाहिए। बच्चों की बुद्धि में दृढ रूप में मुख्यत्व देने के लिए देश के शासकों को भी पालन करना चाहिए। क्योंकि उनके विपरीत ही ब्रह्म शक्ति महामाया देवी अनादी काल से कार्य कर रही है। इस शास्त्र सत्य जब समझ में आता है, तभी माया के द्वारा बनाये दुखों को सहकर सत्य को महसूस करके निस्संग स्वात्मा के सहज स्वभाव आनंद को भोगकर सब जीवन बिता सकते हैं। असत्य का पालन करनेवाले देश और प्रजा दरिद्रता का,अशांति का,दुख का ही भोग सकते हैं। वे शांति और आनंद को स्वप्न में भीभोग नहीं सकते।यही शास्त्र सत्य है। 2622. संकीर्ण मन लेकर आत्म विचार करते समय मन का विकास होगा।मन के विकास होते समय रूपरहित अखंडबोध होगा।वह अखंड आत्मबोध ही “मैं” बनता है।यह अनुभूति ही उसके सहज स्वभाव परमानंद का अनुभव करेगा। 2623. पुरुष हो या स्त्री जो भी हो, वे परस्पर स्थाई प्रेम को ही चाहते हैं। लेकिन प्रेम स्थाई आत्म स्वरूप ही है। वह हर जीव में सर्वव्यापी ही है। जिस दिन में एक जीव महसूस करता है कि प्रेम लेन-देन की वस्तु नहीं है,तभी वह प्रेम को नहीं चाहेगा,दूसरों से प्रेम की प्रतीक्षा न करेगा। चाहकर मिलना प्रेम नहीं,स्नेह ही है। वह सीमित है,नश्वर है। लेकिन प्यार अनश्वर है।यथार्थ प्यार आत्मा बने भगवान ही है।वह सब में एकरस, एक बनकर ही रहेगा।इसीलिए ही कहते हैं कि भगवान प्रेम है। 2624. संभोग के बाद घृणा और दुख के आने के कारण,सुख का स्थान गलत होना ही है। सत्य में सुख का स्त्रोत आत्म बोध ही है। जननेंद्रिय पाप कार्य नहीं करते।शरीर और इंद्रियों को सत्य सोचना ही पाप होता है। इंद्रिय सुख, शरीर,शारीरिक इंद्रिय त्रिकालों में नहीं रहते। पर है का अनुभव होगा ही। ये सब केवल दृश्य मात्र ही होगा। दोनों शरीरों का आधार ,संसार के लिए सत्य परम कारण स्वरूप अखंड बोध ही है। वही सत्य है,नित्य है,परमानंद स्वरूप है।इसे जानन-समझकर महसूस करके पारिवारक जीवन चलाने पर ही दंपतियों का जीवन शांति और आनंदपूर्ण होगा। २६२५.2625 अपने से अन्य किसी वस्तु को सोचने पर ही मैं शून्य बन जाता है। अपने से अन्य किसी को न देखने से ही मैं नेता बनता है। शून्य माया है। नेता ही भगवान है।. 2626 संसार में तीन स्तर के लोग जी रहे हैे।एक तरह के लोग है जो अनुसंधान कर्ता हैं, वे प्रत्यक्ष बातों पर ही विश्वास रखते हैं। वे हर एक वस्तुओं की खोज करके उसके मूल उत्पत्ति स्थान का पता न लगाने से उसकी खोज करने में जागृत रहते हैं।प्रपंच और प्रपंच को अनुसंधान करने का परम कारण अखंड बोध आत्मा ही है। उस बोध के बिना कोई अनुसंधान नहीं कर सकता। यही सत्य है। उस बोध में ही प्रपंच उभरते लगनेवाला ऊर्जा शक्ति का उत्पत्ति स्थान है।इसे बताने के लिए शोध कर्ता हिचकते हैं। लेकिन वेदांती ही इस बात को दृढ रूप में कहते हैं कि इस प्रपंच के बीच, जीवों के बीच परम कारण मैं रूपी अखंड बोध ही है। यह स्थाई सत्य है। उस बोध में दीख पडनेवाली माया दिखानेवाला यह प्रपंच ही इंद्रजाल है। दूसरे स्तर के लोग इस संसार की और जीव की सृष्टि कर्ता भगवान को मानते हैं।उनको दृढ विश्वास है कि हित करनेवालों को स्वर्ग और अहित करनेवालों को नरक मिलेगा। वे किसी प्रकार की खोज नहीं करते।अपने सभी जिम्मेदारियों को भगवान के हाथ सौंपकर दुखी जीवन बिताते हैं। ये ही भौतिकवादी होते हैं।उसी समय आध्यात्मिक लोग नित्य अनित्य को पहचानकर जगत मिथ्या,ब्रह्म सत्य ,वह ब्रह्म मात्र सत्य ,वह ब्रह्म मैं ही सत्य है का अद्वैत बुद्धि में ब्रह्म का स्वभाव परमानंद की अनुभूति करके स्वयं आत्मा का साक्षात्कार करते हैं। 2627 ब्रह्म स्वरूपी भगवान मात्र ही शाश्वत है। बाकी सब उनसे उत्पन्न होकर उसी मे स्थिर रहकर उसी में विलीन हो जाते हैं।वह अपने आप से आश्रित रहता है।मैं उससे आश्रित नहीं रहता। अर्थात भगवान ही इस प्रपंच रूप में परिवर्तित होते हैं। रूप हीन अखंड रूपी भगवान अपने को ही तोड-तोडकर इस प्रपंच को बनाते नहीं है। अपनी शक्ति माया के द्वारा संकल्प करके ही सृष्टि करते हैं। पुराण में विश्वामित्र त्रिशंख नामक राजा की इच्छा पूर्ति के लिए राजा को सशरीर अपनी तपःशक्ति के द्वारा स्वर्ग भेजा था। लेकिन मनुष्य रूप में सशरीर स्वर्ग आये राजा को नीचे धकेल दिया। राजा ने फिर विश्वामित्र से विनती की तो विश्वमित्र ने उन के लिए एक अलग स्वर्ग को ही बना दिया। वही त्रि शंख स्वर्ग है। उस स्वर्ग के लिए आवश्यक सभी सुविधाओं को अपनी संकल्प शक्ति द्वारा बना दिया।एक योगी को ही इतनी शक्ति है तो इस ब्रह्मांड को,इस विश्वामित्र को,सभी सृष्टियों को सृष्टित अखंड बोध ब्रह्म जितनी होगी,यह तो सोच के पार की अति सूक्ष्म बात है। भगवान तो एक पल में एक बहुत बडे ब्रह्मांड की सृष्टि कर सकते हैं। यही भगवान की,भगवान की शक्ति माया देवी की आपसी लीला होती है। भगवान और भगवद्शक्ति मायादेवी अखंड बोध अपने से अन्य नहीं है।यह अनुभूति ही अद्वैत ज्ञान है। यह अद्वैत ज्ञान ही सभी दुखों का अंत करता है। 2628. इस माया को वही जीत सकता है,जो दुख विमोचन की मुक्ति पाने के लिए लोक युक्त ज्ञान,आराधना,स्वतंत्र रहित मतांतर के पीछे न जाकर ऋषि-मुनियों के द्वारा रचित वेद -उपनिषदों में मन लगाकर अपने आपको विवेकशील बनाकर स्व आत्म निश्चय के साथ जागृतियाँ पाकर इस संसार और जीवों के बीच परम कारण रूप अखंड बोध में बदलनेवाले मु्क्त बनता है। अर्थात अखंड बोध मैं ही के ज्ञान में दृढ व्यक्ति ही माया के दुख रहित परमानंद में मग्न रह सकता है। 2631. अपने आप को जानना-समझना ही आध्यात्मिकता है।आत्म तत्व का अर्थ है “मैं”ही की अनुभूति होना।उसके निर्णय के बिना देहाभ्यास करना, शारीरिक यादें रखना आदि में नहीं है।आत्म भावना को दृढ बनाने के लिए ही यादों का प्रयोग करना चाहिए। हमारे संपूर्ण स्मरण सर्वव्यापी अरूप परमात्मा ही “मैं” की अनुभूति के लिए रखना चाहिए।कारण परमानंद स्वभाव अखंड बोध अपने को भूलकर संकल्पों को बनाकर दुखों का पात्र बनाना नामरूपी माया ही है।अपने अखंड को विस्मरण कराकर वह माया रूप खंड बनाकर दुख का पात्र बनाएगा। इस सत्य को स्वीकार करें या न करें सत्य सत्य ही रहेगा।जो स्वीकार करते हैं,उन के लिए सुख होगा।जोअस्वीकार करते हैं, उन के लिए दुख होगा। 2630 मनुष्य जीवन केवल दुख से भरा जीवन है।पर दुख से मुक्ति के लिए कैसे काम करना चाहिए? इसका उत्तर यही है कि मानसिक पीडा एक संकल्प मात्र ही है। इसकी जानकारी मिलते तक कष्ट भोगना ही पडेगा। उस मानसिक रोग को दूर करने के लिए विवेक का उपयोग करना चाहिए। “मैं” मन,बुद्धि,प्राणन,शरीर,संसार,अहंकार,पंचेंद्रिय,अंतःकरणआदि सब कुछ नहीं है। “मैं”, इन सब के गवाह के रूप है, इन सबको जानने का ज्ञान रूपी आत्मबोध ही है के ज्ञान को बुद्धि में दृढ बनाकर,आत्मा के सर्वव्यापकत्व की भावना करके आत्माग्नि द्वारा मन छिपने के साथ मन की कल्पना के दुख का रोग मिट जाएगा। अर्थात मन बोध के संकल्प शक्ति बन जाती है। सुख-दुख के अपार ही परमानंद है।वहाँ द्वैत्व नहीं है। अद्वैत के सत्य मात्र ही है। 2631. सभी प्रश्न और संदेह अपने से ही बनते हैं। सभी प्रश्नों के उत्तर सुनकर संतुष्ट होनेवाला भी मैं ही है।यह “मैं हूँ” का अनुभव ही है। बुद्धि रूपी बोधात्मा पहले पंचभूत रूपी पिंजडे को प्रयोग करके ही सब कुछ जानते हैं। इस पंचरूप के पिंजडों के बीच में ही बहिर्मुखी और अंतर्मुखी रूप में घडी के लोलक जैसे बोध की संकल्प शक्ति की मनोमाया स्पंदन करते रहते हैं।मन पंचेंद्रियों में मिलकर बाह्य जगत को देखते समय उसमें नाम रूप, उनमें भरी अनुभूतियाँ, उन अनुभूतियों में भरे न्यूट्रान,एलक्ट्रान,प्रोटान ही हैं। इनके चलनों के अनेक प्रकार के पहलू ही जड रूपी इस ब्रह्मांड भर में किसी की बुद्धि की समझ में पहुँच नहीं सकते।उसी के कारण ही विवेक से सभी जड पदार्थों को बुद्धि से जान- समझकर देखते समय चलन शक्ति बननेवाले प्राण तक ही बुद्धि की पहुँच तक ही जा सकता है।इस चलन को जानने के लिए चलन रहित एक स्थान चाहिए। वह स्थान ही “मैं”नामक आत्मबोध होता है। उस बोध को मिले बिना शरीर,मन,बुद्धि प्राणन आदि स्थिर नहीं रह सकते। बोध अपनी शक्ति माया मन को उपयोग करके संकल्प न करें तो यह ब्रह्मांड नहीं रहेगा। इस ब्रह्मांड भर में बोध से अन्य माया के द्वारा दीखनेवाले सभी प्रपंच घटनाएँ,शारीरिक अंग,बोध से स्वयं स्थिर न खडे रहनेवाले सब स्वप्न चित्र ही है।चित्रपट में चित्र समाप्त होते ही पट मात्र ही स्थाई रहेगा। चित्रपट के दृश्य जैसे बिजली के रुकते ही सभी अद्भुत दृश्य दीख नहीं पडते।वैसे ही खंडबोध आत्मज्ञान द्वारा अखंड बन जाने के साथ ही सभी प्रपंच के अतिषय ओझल हो जाएगा। अखंड बोध मात्र स्थाई रहेगा। वह अखंड बोध ही “मैं” नामक सत्य है। 2632. हर एक दिन एक आदमी अपराध करता ही रहता है। अपराध या कसर का कारण उसमें आत्मबोध नहीं है।अर्थात अपनी अनुभूति के बिना कल्पना लोक में रहता है। इन कल्पनाओं के कारण जब वह दुखों को भोगता है, तब वह नहीं जानता कि कल्पनाएँ ही दुखों के कारण होती हैं। दुख के कारण न जानना ही अज्ञानता है। इसलिए दुख विमोचन करनेवाला मोक्ष पाना जो चाहता है,उसको आत्मज्ञान सीखना चाहिए।उस आत्म ज्ञान की अग्नि में ही दुख देनेवाली कल्पनाएँ जलकर भस्म हो जाएँगीं। 2633. खोज में ही बडी खोज शरीर और प्राण में कोई संबंध नहीं की खोज का प्रयत्न ही है। कारण इस संसार में दो मुख्य बातों को जानना काफ़ी है। एक जड है। दूसरा बोध है। ये दोनों प्रकाश और अंधेरे के समान है।प्रकाश से अंधेरा न होगा।अंधेरे से प्रकाश नहीं होगा। अंधेरे का स्थित रहना प्रकाश की कमी के कारण है। प्रकाश की कमी के कारण जड ही है। जड को विवेकता से देखते समय मालूम होगा कि जड कर्म है,कर्म चलनशील है,चलन अखंड बोध से कभी नहीं होगा।निश्चलन बोध में कोई चलन न होगा। वैसे ही अखंडबोध बने परमात्मा के पूर्ण प्रकाश में जड रूपी अंधकार का कोई स्थान न होगा।अखंड बोध बने पूर्ण प्रकाश ही नित्य सत्य परमानंद स्वयं अनुभव आनंद से मिलकर रहते हैं। 2634 वस्तुओं के ज्ञान बढाने की साधना से बढकर विज्ञान विभाग के बढिया अनुसधान मे और कुछ नहीं है। उसी समय आत्मीक रूप में समझना चाहिए कि स्वर्ग और नरक की रचना उनका मानसिक संकल्प ही है। इसलिए मन को वस्तुओं से भिन्न स्थिति को लाने के प्रयत्न के सिवा रूप वस्तुओं में मन को लगाना नहीं चाहिए। मनके संकल्प का बंधन ही यह प्रपंच है।वही दुखों के कारण बनते हैं। इसलिए इस प्रपंच के दृश्य से बोध को मुक्त करने के लिए संकल्प बनानेवाले मन के बोध को अखंड बोध से मिटा देना चाहिए। बिना बोध के दूसरा कोई चलन न होगा। 2635. जवन में मनुष्यों की आवश्यक्ताएँ जैसे भूख-प्यास,गरीबी दूर करने के धंधे ,कृषी,राजनीति,पंचभूतों की सुविधाएँ,सब के लिए आवश्यक ज्ञान,धन की सुविधाएँ,आदि बनाने का लक्ष्य ही शासकों को होना चाहिए। यही एक देश के राजा कर रहे हैं।लेकिन मनुष्य अपने शारीरिक सुख प्राप्त करके संतुष्ट होनेवाला नहीं है। उसको मानसिक शांति चाहिए। बिना शांति के शारीरिक सुख आनंद नहीं देगा। 2636. संसार में जिसको शासन करने की योग्यता नहीं है,उनके ज्ञान शास्त्र के उपदेश लोग नहीं सुनेंगे।उनको कार्यान्वित करने तक मनुष्य की आयु समाप्त हो जाएगी।इसलिए शासकों और मंत्रियों को शास्त्रों का ज्ञान -विज्ञान का ज्ञान होना चाहिए। उस के लिए निस्वार्थ जीवन बितानेवाले प्रतिनिधियों को चुनना चाहिए। जिन शासकों में कुटुंब,जाति-धर्म-मज़हब,संप्रदाय का प्रेम भरा है,उनके राज्य में प्रजा सुखी और साआनंद नहीं रहेंगे।तटस्थ अभेद रहित शासक ही संपूर्ण प्रजा के लिए शासन करेंगे।तभी देश के नागरिक साआनंद से, चैन से रहेंगे। तभी राजा/शासक में प्रेम और स्नेह बढेगा। 2637. भगवान ने ही माया शरीर लेकर सर्वस्व त्याग किये ऋषि-मुनि बनकर उनके द्वारा ही जीवों में होनेवाले जीवन के चरित्र को कई स्थानों में रचित ऱखा है। दीर्घ दर्शी विवेकी ही जीवन में साक्षी बनकर संसार को केवल प्रदर्शिनी की वस्तु बनाकर निस्संग के रूप में जी रहे हैं।जिन्होंने आत्मा को न समझा,वे ही संघर्षमय जीवन बिताते हँ। अर्थात एक भगवान ही अनेक बनकर अपने योग माया माया शतरंज का खेल खेल रहा है।लेकिन भगवान रूपी अखंड बोध में माया दिखानेवाला प्रपंच जाल वास्तव में नहीं है। सबके कारक अखंड बोध मात्र नित्य है,सत्य है।परमानंद के रूप में शाश्वत है। जहाँ भी दो देखते हैं,वह भ्रम ही है। ब्रह्म एक है। वही सत्य है।वही “मैं” को दृढ बनानेवला कर्म है।मानव धर्म है। बाकी धर्म सब इस के लिए मात्र रहना चाहिए। 2638. जो माया के नशे का दास बन जाता है, उसको मृत्युु तक माया न छोडेगी। जो माया सेे आकर्षितत नहीं होगा, उसकेे पाद की आरधना करने के लिए प्रकृतीश्वरी प्रतीक्षा करेगी। 2639. जितना भी अत्यधिक ज्ञान हो,किसी के प्रारब्ध के अनुसार ही उसका असल स्वभाव प्रकट होगा। लेकिन प्रारब्ध जैसा भी हो आत्मज्ञानी सद्गुरु के निरंतर संसर्ग से कर्म फल को मिटा सकते हैं। उसके लिए भी एक पुण्य कर्म कर चुकना होगा।वह पुण्य इस जन्म में महसूस करते समय ही गुरु दर्शन साध्य होगा। 2640 एक शिष्य के प्रश्न सब, गुरु की आत्म दशा को दृढ बनाता रहेगा। उस गुरु के शिष्य परंपरा ही सांसारिक दुखों के विमोचन के लिए मार्ग दिखाएगा।लेकिन उसकी भी एक सीमा होगी। “मैं” ही गुरु है।”मै” से ही सारे ज्ञान का उदय होता है। “मैं “ही सब कुछ है। वैसी अ्नुभूति होना ईश्वर की खोज की अंतिम स्थिति होती है। 2641. कली खिलने के समान ही अपूर्ण और पूर्ण की प्रकृति की क्रिया होती है। वही प्रकृति की नियती है। वैसे ही माता-पिता बच्चों से, गुरु अपने शिष्यों से सहजता से व्यवहार करते हैं। वैसे ही सभी जीवराशियोंं से व्यवहार करते हैं। जो जीव प्रकृति की योजना देखकर निस्संग,निर्विकल्प,दृष्टा के रूप में होते हैं, वह दृष्टा ही सदाा शिव बनकर मगल रूप में है। 2642. अविश्वास में ही अहं आत्मसूर्य प्रकाश होते समय बाहर रहनेवाले सूर्य पर विश्वास हो या अविशवास हो फिर भी संदेह होना सहज ही है।अहं में आत्म सूर्य ही बाहर के सूर्य को प्रकाशित करने का ज्ञान है के विचार आते ही संदेह दूर नहीं होगा। 2643 बंधन के विमोचन ही मुक्ति है। ब्रह्म के लिए मुक्ति की आवश्यक्ता नहीं है। क्योंकि सर्वव्यापी ब्रह्म को बंधित करने के लिए ब्रह्म से बढकर दूसरी कोई शक्ति नहीं है। प्रतिबिंब जीव को ही मुक्ति चाहिए। कारण जीव अपने अखंड को भूलकर पंचभूत पिंजडे के शरीर के रूप में संकुचित होकर “मैं” शरीर से बना है के विचार पर विश्वास रखकर शारीरिक अभिमान के कारण संसार को अपने से अलग मानकर दुखी बनकर बंधित होकर पराधीन बनकर जीवन बिताने के परिणाम स्वरूप जीव मुक्ति के लिए प्रार्थना करता है। इसलिए प्रतिबिंब रूप जीव का भ्रम बदलने के लिए ब्रह्म भावना को बढाना चाहिए। ” मैं ” ब्रह्म हूँ की भावना को बढाना चाहिए। वह भावना जीव के भावी जीवन का निर्णय करेगा। 2644. एक मनुष्य साधरणतः सबेरे से शाम तक काम करते समय शामको निद्रा देवी अर्थात नींद उनके अनजान में ही सुला देगी। सबेरे अपने अनजान में ही महसूस करता है। रत में जीव जीव को अनजान बनकर ही रहा। अंतःकरण और शरीर जब सोता है,तब साक्षी के रूप में आत्मा नित्यानंद के रूप में ही स्थित रहता है। यथार्थता में जीव का निज स्वरूप अखंड आत्मबोध अपने सहज स्वभाव की अनुभूति करने में शारीरिक अभिमानी जीव बाधा ही बनती है। जो कोई अखंड बोध स्वरूप आत्मा ही “मैं” की अनुभूति करना चाहता है,उसको अपने जीव के जीव भाव को मिटा देना चाहिए। उसके काल के निर्णय करना उसकी इच्छाओं की मात्रा पर निर्भर रहता है। मनुष्य जितना शीघ्र चाह रहित जीने लगता है,उतना शीघ्र उसका मन मिट जाएगा।चित्तनाश ही मुक्ति होती है। उसके लिए आत्म विचार ही एक मात्र मार्ग होता है। आत्मज्ञान के बिना अज्ञान रूपी विषय वासना की अभिलाषा न छोडेगी। विषय विष को शरीर से पूर्णतः मिटाने अमृत रूपी आत्म विचार के अमृत पानी पीना चाहिए। 2645. अहमात्मा की अनुभूति से “मै” शरीर नहीं, आत्मा है के आते ही आत्मा की दशा में सूर्य-चंद्र नक्षत्रों को प्रकाश नहीं होगा। कारण उनमें “मैं” बनी आत्मा को प्रकशित नहीं कर सकता।” मैं “ बनी आत्मा को ही स्वयं प्रकाश होता है। आत्मा रूपी “ मैं ” का बोध नहीं तो संसार न चमकेगा। स्वयं प्रकाश रूपी, स्वयं शांति रूपी,स्वयं ज्ञान स्वरूपी, स्वयं आनंदस्वरूपी, स्वयं स्वतंत्र, स्वयं सर्वमुखी, स्वयं शाश्वत “मैं” है । वही मैं नामक सत्य ही सब का केंद्र है।उस केंद्र के ऊपर,नीचे,बाये-दाये, कोई आरंभ या अंत नहीं ,जन्म -मरण नहीं होगा। यही शास्त्र सत्य है। 2646. दूसरों के अंगीकार की आवश्यक्ता की चाह रखनेवाले ज्ञानी, खुद आत्मा,आत्मा सब कुछ है का महसूस करनेवाले नहीं है। वैेसे आदमियों के साथ संसर्ग करने से अज्ञानता बढकर सही आत्मानुभूति न मिलेगी।इसलिए नित्य संतुष्ट,इच्छाविहीन सही आत्मज्ञानी से ही ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। 2647. सही आत्म ज्ञानी की दृष्टि,वचन,प्रश्न आदि कर्मों में आत्म दर्शन देख सकते हैं। उसमें आत्म स्नभाव रूपी आनंद रस मिलकर रहेगा। 2648 किसी एक के कर्म में भाव बोध या अपराध भाव होते समय उससे विमोचन चाहिए तो मनःसाक्षी से,भगवान से दुखी होकर तपस्या करके प्रार्थना करते समय उनके नाते रिशतों से, बंधनों से बंधन रहित स्थिति अपने आप आ जाएगी। वही आतमज्ञान को आसानी से जान सकता है।उसको उसकी आत्मा ही समझाएगी। 2649. जैसे सूर्योदय अंधकार को बिलकुल मिटा देगा,वैसे ही आत्मज्ञान सभी प्रकार के अज्ञान अंधकार को जला देगा। 2650.जब तक अपने ऊपर शासन करने की कोई शक्ति है का विचार रहता है,तब तक अपनी इच्छा शक्ति का कोई बल न रहेगा।कारण वे आत्म बोध छोडकर शारीरिक बोध में रहते हैं। शरीर को अपनी कोई निजी शक्ति नहीं रहती। आत्म शक्ति से आश्रित होकर ही लगता है कि शरीर स्थिर रूप मेंं रहेगा।जब आत्म ज्ञान से शारीरिक बोध छिपकर आत्म बोध सुदृढ बनता है,तभी व्यक्ति अपनी इच्छा से कर्म कर सकता है।

Friday, March 22, 2024

ख्वाहिश

नमस्ते.साहित्य बोध दिल्ली इकाई को एस. अनंतकृष्णन का सादर नमस्कार. विषय-ख्वाहिशें मनुष्य को गुलाम बना देती हैं। विधा- अपनी हिंदी,अपने विचार,अपनी शैली, भावाभिव्यक्ति 22-3-24 पूर्वजों के स्वर्ण वचन यकीनन् आनंदप्रद,, स्थाई संतोषप्रद। बुद्ध भगान ने कहा-- सभी दुखों के मूल में इच्छाएँ प्रधान। कबीर न कहा-- चाह गयी चिंता मिटी। मनुआ बेपरवाह। जिन्हें कुछ न चाहिए,वही शाहँशाह। सनातन धर्म कहता है- इच्छा् शक्ति, ज्ञान शक्ति,क्रिया शक्ति तीनों नहीं तो प्रपंच शून्य । ख्वाबें पूरी होने ख्वाहिशों की ज़रूरत । ख्वाहिशें न तो न इश्क,न सृष्टि,न खोज,न आविष्कार। ख्वाहिश है साहित्य बोध में कविता लिखने की, प्रमाण पत्र पाने की। न तो न लिखने की प्रेरणा। ख्वाहिशें दैविक,जन हित हो, शैतानी इच्छाएँ गुलाम बना देती । धन लोलुप्ता,देश द्रोह की बदख्वाहशें जुआ,नशा,वेश्या गमन गुलाम ही नहीं. बेगार भी बना देती। पद, नौकरी,खिताब की ख्वाहिशें अंग्रेजी देती तो दिव्य मातृभाषाएँ गुलाम। एस.अनंतकृष्णन,तमिलनाडु का हिंदी प्रेमी,प्रचारक