Thursday, April 7, 2016

राजाश्रय --६९१ से ७०० अर्थ भाग --तिरुक्कुरल -राजनीती

राजाश्रय --६९१ से ७००  अर्थ भाग --तिरुक्कुरल -राजनीती 

१. जो राजाश्रित है ,उनको राजा के साथ ऐसा रहना है 
 राजा के निकट और राजा  से दूर. जैसे से आग से सर्दी बचाते  हैं.

२. राजाश्रित लोगों को राजा  के पसंद लोगों को ही पसंद करना चाहिए. तभी स्थायी  पद और संपत्ति मिलेगी. 

३. राजाश्रित लोगों को अति सावधानी से रहना चाहिए .
छोटी-सी गलती  भी  शक भी   संकट में दाल  देगा.
फिर राजा से सफाई देना अत्यंत  असंभव  और मुश्किल हो  जाएगा.
४. 
राजाश्रित लोगों  को राजा  के सामने  दूसरों के कान  में बोलना और हँसना भी सही नहीं है. वह संकट  प्रदान करेगा. 
५. राजाश्रित लोगों को राजा की गोपनीय बातों के बारे में पूछना ,
ध्यान  से सुनना मना है. 
राजा खुद कहेगा तो ठीक है,नहीं तो यों ही छोड़ना  बेहतर  है. 

६. राजा  का  संकेत जानकर उनके जवाब अनुकूल समय पर ही घृणित बातों  को और पसंद बातों को कहना चाहिए .
७.  राजाश्रित को केवल राजा के मन -पसंद बातों को ही बोलना चाहिए.
जो बात राजा को पसंद नहीं ,उन्हें राजा के पूछने  पर भी बोलना नहीं चाहिए. 
८. राजाश्रित लोगों का व्यवहार राजा के प्रति आदरणीय होना चाहिए ,
यद्यपि राजा उम्र में छोटा हो या निकट रिश्ते का भी हो.
९.   राजाश्रित राजा द्वारा निर्मित  चतुर  और ज्ञानी  लोग  
राजा के नापसंद कामों को करने का साहस नहीं करेंगे.
१०. 
राजाश्रित लोगों  को अपनी वरिष्ठता का लाभ उठाकर 
अनुचित कार्यों को करने पर बुराई ही होगी. 
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कार्य प्रणाली ---अर्थ भाग -राजनीती -- तिरुक्कुरल ६७१ से ६८० तक

          कार्य प्रणाली ---अर्थ भाग -राजनीती -- तिरुक्कुरल ६७१  से ६८० तक 

१. सोच-विचार करके  एक काम करने तैयार होने के बाद  
जरा भी देरी करना  नहीं चाहिए.
 देरी करना नुकसान उठाना है. 

२.   जो  काम धीरे धीरे करना है ,उसको आराम से कर सकते हैं ; पर 

जो काम तेज़ी  से  करना  है ,उसे तुरंत करना चाहिए.  उसमें विलम्ब ठीक नहीं है .

३.  जहाँ  काम कर सकते है , वहाँ तुरन्त  काम कर चुकना चाहिए .
नहीं  कर सकते है तो जहाँ उचित स्थान मिलेगा ,वहाँ करना चाहिए . नहीं तो उचित उपाय ढूँढ लेना चाहिए. 

४. जो भी काम हो ,शुरू करने के  बाद आधा -अधूरा न छोड़कर पूरा करना चाहिए; 

वैसे  ही दुश्मनी को भी ख़तम करना चाहिए; 
अधूरा  काम  और अधूरी दुश्मनी  अध्-बुझे आग के समान है .
  बाद में  सर्वनाश कर देगा.

५. कार्यप्रणाली  पाँच बातों से सफल होगी ;
वे  है --१.कार्य करने की  उचित सामग्री, २. औजार, ३.समय  ज्ञान , ४. स्थान , ५  उचित  पेशा   आदि.

६. काम  करने की तरीका ,आनेवाली बाधाएं  और मिलनेवाले लाभ  आदि को
सोच -समझकर कार्य करना चाहिए.

७. जो काम करना है ,उससे पूर्व परिचित अनुभवी
कार्य कर्ताओं से भी जानकारी लेनी चाहिए.
 यह भी एक कार्यप्रणाली का एक सोपान  है.

८.  एक काम करते समय ,दूसरे  काम  को भी कर चूकना,
 एक हाथी की सहायता  से दूसरे हाथी को पकड़ने के सामान है.

९. दुश्मनों को भी अपने अनुकूल बनाकर  काम करना ,
दोस्तों से बढ़कर काम को जल्दी पूरा करने में सहायता सिद्धी है .

१० . जो कमजोर हैं ,वे बलवानों के पक्ष में जाकर कार्य करने में समर्थ हो जायेगे ,
जब उनके साथी  भी  बलवानों  से डरने लगेंगे .



राजदूत ---अर्थ्भाग -राजनीती -तिरुक्कुरल --६७१से ६८०

राजदूत  ---अर्थ्भाग -राजनीती -तिरुक्कुरल --६७१से ६८० 


१. एक राज दूत  के श्रेष्ठ गुण हैं ---प्यार भरा व्यवहार ,  प्रसिद्द उच्च कुल ,
सरकार द्वारा सराहनीय संकृति आदि. 

२. राजदूत  बनने  के लिए  तीन  मुख्य गुण  हैं --१.प्यार २. ज्ञान ३, सोच-समझ बोलने की शब्द -शक्ति.

३. देश की विजय -वार्ता के दूत को अधिक ग्रंथों के ज्ञान 
और ज्ञानियों में श्रेष्ठ होना  और छानबीन कर तथ्य कहने का कौशल  आदि गुण  आवश्यक  है. 

४. राजदूत   के पद के लिए विशेष व्यक्तित्व ,शोध  करने के गुण  अधिक ज्ञान  आदि आवश्यक है. 

५. राजदूत  को ऐसे मधुर वचन बोलने की शक्ति आवश्यक है ,
जिससे सुननेवाले को क्रोध  न हो.
 अनावश्यक बातें छोड़कर आवश्यक बातें बोलने की शक्ति चाहिए. वही राजदूत का लक्षण  है. 
६. दूतों में श्रेष्ठ वही है   जो अति ज्ञानी हो ,दुश्मन की दृष्टी से निर्भय हो,
 समयानुकूल बोलनेवाले हो  ऐसा बोलना कि सुननेवाले के मन छू  सके.

७. वही दूत है जो अपने कर्तव्य को खूब समझकर   ,समय और स्थान को सही चुनकर  सोच -समझकर कहने में समर्थ हो.


८. साहसी  ,सहायक ,अच्छी चाल-चलन  आदि सच्चे आदर्श दूत के लक्षण होते  है. 

९. अपराध भरे शब्द  न  बोलना भी राज दूत के योग्य गुण है. 

१०. अपने प्राण के खतरे के समय  में  भी  निडर होकर अपने राजा के कल्याण कार्य करनेवाला  ही  राज दूत है. 

८. 

Wednesday, April 6, 2016

कर्म कौशल -दृढ़ता --तिरुक्कुरल --६६१ से ६७० -अर्थ-भाग

 कर्म -कौशल  -दृढ़ता ---तिरुक्कुरल --६६१  से ६७० तक. --अर्थ -भाग

१.  एक कर्म-कौशल दृढ़ता का मतलब है - कर्म करने की   मानसिक दृढ़ता .
बाकी सब इससे भिन्न है.


२. कर्म -कौशल का मतलब  है ,
 बाधाओं  के पहले  ही बाधाएं मिटाना ;हल करना आदि;
 फिर भी बाधाएं  आ जाती है तो
 मन  को दृढ  रखना और मानसिक शिथिलता आने  न देना.
यही  कर्म-कौशल सम्बन्धी ज्ञानियों  का कथन  है.

३.. कार्य कौशल  दृढ़ता का  मतलब  है
 जो  भी कार्य हो ,
उसे करके दिखाने  के पहले  प्रकट  न करना .
बीच में अभिव्यक्त  करें तो  कर्म  कर चुकने  में बाधाएं  होंगी.

४.   यह   कहना  आसान  है कि  कर्म को ऐसा करना --वैसा  करना.
        लेकिन कहेनुसार  करना मुश्किल है .

५. कार्य -कौशल  में नामी बड़े लोगों की कर्म -दृढ़ता
शासकों के आकर्षण बनकर
अधिक आदरणीय और सराहनीय बनेगा.

६.  एक काम करने के विचार में जो दृढ़  रहते  है ,
वे उस कार्य को जैसे सोचते हैं ,वैसे करने में सफल होते हैं,

७.  बड़े रथ के चक्र  घूमने के  लिए जैसे अक्ष दंड  छोटे होने पर भी आवश्यक है ;
    वैसे ही बड़े कर्म करने छोटे लोगों की भी आवाश्यकता  है;
  अतः छोटे आकर देखकर अपमानित करना उचित कर्म कौशल नहीं   है.

८.  सोच -विचार  करके  एक काम करने में लगने के बाद
साहस  के साथ  बिना देरी किये जल्दी पूरा करना चाहिए.
यह भी कार्य कौशल -दृढ़ता है.
९.  जो भी काम करने में लग जाते हैं ,उसका सफल अंत  में सुखदायक ही होगा.
अतः  कर्म करते -करते दुःख आने पर
 मन में शिथिलता को स्थान न देकर ,
दृढ़ता से  आगे बढ़ना चाहिए .

१० . अन्य क्षेत्रों में दृढ़  रहने  पर भी ,कर्म क्षेत्र में दृढ़ता न  होने पर ,कर्म -कौशल  न होने पर संसार तारीफ न करेगा.


पुरुषोचित प्रयास --अर्थ भाग --६११ से ६२०

पुरुषोचित प्रयास --अर्थ भाग --६११ से ६२० 

१.  हमें यह सोचना ठीक नहीं  है कि यह  काम हम नहीं कर सकते .
मर्दाना प्रयत्न से सभी काम को  सफलता पूर्वक  कर  सकते  हैं.

२. जो  भी  काम  हो अपूर्ण छोड़ना सही नहीं है; काम  को अधूरा छोड़ने पर संसार  भी तुमको  छोड़ देगा.
३. प्रयत्न के प्रबल  स्थिति में  ही  परोपकार का श्रेष्ठ गुण होगा.

४. अप्रयत्नशील  मनुष्य दान  आदि 
परोपकार में  लगना ऐसा है ,
वैसा जैसे  तलवार  ही  जिसको पकड़ने नहीं  आता
 वह युद्ध क्षेत्र में तलवार घुमाने लगता हो .
५. सुख की चाह के बिना ,  स्वार्थ रहित कार्य करनेवाले अपने नाते -रिश्तों के  भार ढोनेवाले खंभ  के समान होगा.

६.प्रयास  ही  सब विजय का मूल है. 
प्रयत्न ही संपत्ति बढायेगी.
प्रयत्न  न करने पर गरीबी घेरेगी. 
७. प्रयत्नशील मनुष्य को लक्ष्मी  देवी  कहन , 
अप्रयात्नशील मनुष्य को ज्येष्ठा  देवी कहना 
लोक व्यवहार  में है. 
८. शारीरिक अंगों  की कमी कमी नहीं  है; 
बिना प्रयत्न के चुप रहना ही मनुष्य की कमी है.
भाग्य की कमी प्रयास हीन लोगों के लिए है.
९. जो काम भगवान से न होगा ,
वह काम प्रयत्न के द्वारा हो जाएगा. 
शारीरिक और मानसिक प्रयत्न  
भाग्य हीन को भी भाग्यवान बना देगा. 
१०. कहेंगे कि विधि की  विडम्बना टाल  नहीं सकते. 
पर प्रयत्न विधि को भी बदलकर सफलता प्रदान  करेगा. 
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कर्म -शुद्धता ---अर्थ भाग --राजनीती --तिरुक्कुरल ६५१ से ६६० तक

कर्म -शुद्धता ---अर्थ भाग --राजनीती --तिरुक्कुरल ६५१  से  ६६०  तक 

१.  किसी व्यक्ति को अच्छे सहायकों  से सम्पत्ति  बढ़ेगी ;

बल  बढेगा. पर उनके साथ  मिलकर 

अच्छे कार्य करेंगे तो सभी प्रकार  के फल  मिलेंगे। 

२. ऐसे कर्म करना  नहीं चाहिए ,
 जिससे  वर्तमान जीवन में सुख नहीं मिलता 
 और धर्म कर्म करके मोक्ष की प्राप्ति  न मिल सकता। 

३. जो  जीवन  में  आगे बढ़ना  चाहते  हैं ,
उनको अपयश का कर्म नहीं  करने  का  ध्यान रखना  चाहिए। 

४. जिनमें स्पष्ट ज्ञान है, वे अपने दुःख से मुक्त होने के लिए भी बुरे काम नहीं करेंगे। 

५. ऐसा  काम कभी नहीं करना चाहिए ,जिसे करने के बाद पछताना पड़े.

करने  के बाद आगे सतर्क  रहना है कि ऐसा काम फिर  न करें. 

६. अपनी प्यारी माँ की भूख  मिटाने  के  लिए भी  कलंकित कर्म नहीं  करना चाहिए. 

७. अपयश प्राप्त कर्म कर धनी बनने  से  अच्छे कर्म करके निर्धनी रहना   ही श्रेष्ठ बात  है. 

८. बड़े लोग जिस काम को न करना चाहते ,उसे   आर्थिक  लाभ  के  लिए करने पर 
सफलता मिलने  पर  भी दुःख ही प्राप्त होगा. सुख -चैन नहीं। 

९.  दूसरों को दुःख देकर  धन कमाना दुःख का निमंत्रण ही होगा. 
धन का बरबाद होगा; फिर कभी नहीं मिलेगा. 
सुकर्म करके धन खोने पर   फिर  धन मिलेगा ही. 

१० बुरे मार्ग पर धन कमाकर बचत करना , 
मिट्टी के कच्चे घड़े में पानी जमा करने के सामान  है.
सब कुछ बरबाद  हो जाएगा. 
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शब्द =शक्ति ---अर्थ भाग --६41 से ६5० तक --तिरुक्कुरल --तिरुवल्लुवर

शब्द =शक्ति ---अर्थ भाग --६४१ से ६५०  तक --तिरुक्कुरल --तिरुवल्लुवर 

१.  शब्द -शक्ति  अभिव्यक्ति  ही श्रेष्ठ  संपत्ति  है. उसके  बराबर की संपत्ति और कोई नहीं है.

२. बनना -बिगड़ना  शब्द के आधार पर  है; अतः बोलते समय सोच -समझकर सावधान से बोलना अपने विचारों की अभिव्यक्ति करनी चाहिए.
३. श्रोताओं को आकर्षित करके   अपने वश में करना 
और जिन्होंने न सुना,
 उनको भी सुनने का उतावला करना  ही शब्द शक्ति है .

४. शब्द को खूब सोचकर 
 शब्द का  महत्व  जानकर  
बोलने से बढ़कर और  कोई बढ़िया  धर्म  नहीं  है. 

५. जो शब्द  हम   बोलते  हैं ,उससे बढ़कर दूसरा शब्द नहीं होना चाहिए ,
ऐसे शब्द बोलना है ,जिसे दूसरे शब्द नहीं जीत सकते.

६. दूसरों के लिए लाभप्रद  शब्द बोलना ,
दूसरों के लाभप्रद शब्दों से फायदा उठाना ,
ज्ञानियों  की विशेषता है.

७.    ऐसे ज्ञानियों को  हराना असंभव है
 जिनमे  अपने विचारों को उचित शब्दों  में  अभिव्यक्ति  करने  की क्षमता ,
दूसरों को मनाने  -मनवाने  का सामार्थ्य    , निडर   और चुस्त   आदि गुण हो.

८. अपने सिद्धांतों को सिलसिलेवार, सुन्दर और प्यार भरे शब्दों  में
 प्रकट करनेवाले  निपुण  लोगों की आज्ञाओं को
 संसार मानेगा.और कार्य में  लग  जाएगा।
९. निर्दोष  चन्द  शब्दों  से जो अपने विचार प्रकट करने की   और समाझाने  की
 क्षमता  नहीं रखते ,
वे   ही कई शब्दों को दोहराते रहेंगे.
१०. अपने सीखे ग्रंथों को  दूसरों को समझाने में जो असमर्थ होते  हैं ,

वे  ऐसे फूलों के गुच्छे  जैसे हैं ,जिनमे सुगंध  न हो.

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