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Sunday, September 14, 2025

मैं वरिष्ठ हूँ

 नमस्ते वणक्कम्।

मैं वरिष्ठ हूँ।

 मन से युवा,

 ईश्वरीय कानून 

 देखने में बूढ़ा झाँकी।

मन को काबू में रखना 

 कितना मुश्किल।

 एक क्षण में रंक से राजा तक के विचार।

नगर पालिका सदस्य से मंत्री तक के विचार।

धीरोंदात्त धीरों ललित  धीर प्रशांत।

 आधुनिक कथानक

 अंतराल तक डाकू चोर लुटेरा, बाद में कानून उसके हाथ।

पुलिस जो नहीं कर सकता,वह करता है,

 मंत्री पुलिस सार्वजनिक सेवक नहीं,

 अमीरों का गुलाम।

उसको दंड देनेवाला 

 अंतराल के पहले का लुटेरा

कथा नायक बनाता है,

सब भ्रष्टाचारी अधिकाकारियों से

 रिश्वतखोरों से

ग़रीबों को बचाता है।

पियक्कड़ प्रोफेसर 

 छात्रों के लिए आदर्श

 सभी कथानक ऐसे।

 एक विचित्र कथानक जेलर में,

 हत्यारे लुटेरे को देखकर

 पुलिस अधिकारी भी डाकू लुटेरे बनना चाहता।

यह तो नयी कल्पना नहीं 

 बुद्ध की कहानी में अंगुली माल,

अत्याचारी अशोक का बुद्ध भिक्षु बनना।

  मन कितना सोचता है,

 मनकी चंचलता  मिट जाती तो आत्मज्ञान आत्मबोध मूक साधना में 

 मानव हो जाता तल्लीन।।

मन मनकी वासनाएंँ

 असीमित दुख के कारण।

 चाह गई चिंता मिटी 

 दस साल की उम्र का दोहा।

 अस्सी साल में भी निभा न सका।

 वल्लूवर का कुरळ्

सीखो, कसर रहित सीखो।

 सीखने के बाद पालन करो।

 सीखना सिखाना आसान।

अंत में मन का निर्णय 

 सबहीं नचावत राम गोसाईं 


एस, अनंतकृष्णन चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक द्वारा स्वरचित भावाभिव्यक्ति रचना

ज्ञान दर्पण

 ज्ञान दर्पण

एस.अनंत कृष्णन, चेन्नै,तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक


दर्पण बाह्य रूप के श्रुंगार के लिए।

सामाजिक दर्पण सामाजिक व्यवहार जानने के लिए.

व्यक्तित्त्व विकास के लिए ,

व्यक्तिगत विकास और प्रगति के लिए

चाल और चेहरे को तेजोमय करने के लिए

आम सभा में अपने ज्ञान से भाषण देने केलिए

लक्ष्मी पतियों की सलाह केलिए

सुचारू रूप से जीवन चलाने के लिए

स्वदेश में ही नहीं,ब्रह्मांड में नाम के लिए

सर्वत्र मर्यादा पाने के लिए।

आत्मज्ञान आत्मबोध के लिए

मन को काबू में रखने केलिए

ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति के लिए

भगवद् कृपा के लिए

पुनर्जन्म से बचने के लिए

ज्ञान दर्पण चाहिए।

सनातन धर्म अनंत जगदीश्वर रमेश्वर

 4506. जो कोई अपने को ,देखनेवाले दृश्य को, जानने के ज्ञान को सबको ब्रह्म के रूप में देखना है तो पहले जानना चाहिए कि सबके परमकारण मैं नामक बोध ही है। कारण बोध नहीं तो कुछ भी नहीं है। इसलिए परम कारण रूपी अखंडबोध को ही ईश्वर जानना चाहिए।  साथ ही इस बात को समझना चाहिए कि  प्रपंच कार्य कोई भी मै के बोध से भिन्न नहीं है। उसको

आत्मज्ञान से ही जान सकते हैं। एक मृत शरीर से आसानी से समझ सकते हैं कि यह शरीर नहीं है, आत्म बोध है।मृत शरीर में तब तक मैं,मैं जो कह रहा थावह शरीर नहीं था,आत्मा थी। शास्त्रपरम आत्मा के बारे में अध्ययन करते समय समझ सकते हैं कि आतमा को रूप नहीं है,आत्मा सर्वव्यापी है। तब यह प्रश्न उठेगा कि शरीर ,संसार, और नाम रूप कैेसेबने हैं? उसका एक मात्र उत्तर है। स्वप्न और सवप्न लोक जैसे है, वैसे शरीर और संसार बोध से बना है। जागृत अनुभवों को स्वप्न
रूप में देखने साधारण मनुष्य के लिए बहुत कष्ट मात्र नहीं, असंभव कार्य है। लेकिन जागृत और स्वप्न दोनों में कोई फ़रक़ नहीं है। दोनों स्वप्न ही है।

4507. अद्वैत वेदांत में  सत्य शास्त्र कहते हैं कि जगत मिथ्या ब्रह्म सत्यं। लेकिन निराकार ब्रह्म में आकार कैसे आया के परस्पर विरोध प्रश्न के सवाल के जवाब यही है कि इस प्रपंच दृश्य कैसे बना?इसका कोई उत्तर नहीं और युक्ति नहीं है।
अर्थात्  मैं नामक निश्चलन अखंडबोध से एक चलन किसी भी कारण से हो नहीं सकता। लेकिन उसमें चलनशील वायु को एहसास कर सकते हैं। चलनशील वायु में आकाश रहित स्थान नहीं है। इस परस्पर विरोध होते समय अनश्वर सत्य को एहसास करके स्वीकार करके नश्वर असत्य को समझकर उसे अपरिहार्य करना चाहिए। तभी असत्य से होनेवाले दुख से विमोचन होकर सत्य स्वभाव आनंद को स्वयं अनुभव कर सकते हैं। कोई सोते समय स्वप्न को बनाता नहीं है। वह निश्चलन से सोता है।वैसे  ही सर्वव्यापी सर्वेश्वर प्रपंच रूपी स्वप्न को बनाया नहीं है। लेकिन लगता है कि प्रपंच को ईश्वर ने बनाया है। रेगिसतान मृगमरीचिका को बनाया नहीं है। लेकिन मृगमरीचिका की झाँकी को एक जीव देखता है। वैसे ही भगवान से जिसने साक्षात्कर  नहीं किया है, उसको शरीर और संसार के स्वप्न दृश्य सत्य जानने तक होता रहेगा।  जो इस तत्व का एहसास करता है, वह कहीं भी रहे घर में,या देशमें या शासक के आसन में तनिक भी दुख न आएगा। भगवान का स्वभाव परमानंद है, वैसे भगवान अपने से अन्य नहीं है, स्वयं ही है का महसूस  करके दृढ बनानेवाले के जीवन में आनंद के सिवा और कुछ अनुभव नहीं कर सकता।

4508. एक रूप रेगिस्तान को मृगमरीचिका द्वैत दिखाने के जैसे एकरूप भगवान को माया प्रपंच अनेक रूप में दिखाता है।
जो कोई रेगिस्तान को पूर्ण रूप से जानता है,उसको रेगिस्तान एक ही दीख पडेगा। उसको मृगमरीचका का स्मरण न रहेगा। वैसे व्यक्ति रेगिस्तान से बाहर आकर देखनेपर मृगमरीचिका दीख पडेगा। लेकिन वह मृगमरीचिका पर विश्वास न करेगा। वह प्रपंच में सवयं बने ब्रह्म को ही देखेगा। मरुभूमि  में जैसे मृगमरीचका की झाँकी होते रहते हैं, वैसे शाश्वत ब्रह्म में प्रपंच की झाँकी अनादी काल से होते रहते हैं। वह ब्रह्म का स्वभाव ही है। निश्चलन अखंड बोध ब्रह्म प्रकट होनेवले ब्रह्मशक्ति लीला नाटक ही यह ब्रह्मांड  है। जैसे फूल और सुगंध को अलग नहीं कर सकते वैसे ही निश्चलन अखंड बोध ब्रह्म, ब्रह्म शक्ति प्रकट करनेवाला प्रपंच दृश्य भी। मैं नामक अखंडबोध प्रकाश ही जीव और जीव देखनेवाले लोक के माया भ्रम दृश्य है। ऐसे अपने से अन्य दूसरे एक दृश्य को न देखकर निर्विकर,निश्चलन,अखंडबोध बनकर रहनेवाले को ही अकारण स्वयं के बोध में उमडकर देखनेवाले विकरप्रपच को अन्य रहित वह मैं ही को एहसस करके स्वयं मात्र है का एहसास कर सकते हैं। साथ ही स्वयं आनंद स्वरूप में स्थिर खडा रहेगा।

4509. सभी जीवों से करुणा है,पर मदद करने के लिए मन नहीं। वैसे लोगों की मदद करने ईश्वर को भी मन न रहेगा। मदद करनेवालेे को समझना चाहिए कि मदद पानेवाले का मन उसको अनजाने में ही ईश्वर के पास जाने की मदद करता है। अर्थात उसके मन को उसके अंतरात्मा को उनके अनजाने में ही ईश्वर के निकट पहुँचाता है। इसीलिए ही मदद मिलते ही हे ईश्वर बोलते हैं।  वे महसूस करते हैं कि ईश्वर ने ही  मनुषय के रूप में आकर मदद की है। इसका एहसास करके असहाय लोगों को ईश्वर की सेवा जैसे मदद करनेवाला ही यथार्थ धर्मवान है।

4510. बडे ज्ञानी पंडित हो, लक्ष्य भगवान नहीं है तो अमृत रूपी ब्रह्म रहस्य उससे कहने पर भी वह उसका ग्रहण करने की क्षमता न रहेगी। जो ब्रहम रहस्य नहीं जानता वे मृत्यु के पात्र बनते हैं। ब्रह्म ज्ञान के लिए मात्र जीवन को त्याग करनेवाले मात्र ब्रह्म ज्ञानी बनेंगे। ब्रहमज्ञानी और ब्रह्म दो नहीं,एक ही होते हैं। जिसमें ब्र्हम बोध है वह दोनों में एक नहीं जानता। दूसरे एक को अनजान ज्ञान दशा को ही महाभारत के वेदव्यास के पुत्र श्री शुक को भागवत में परीक्षित महाराजा को नाग रूप में आये मृत्यु भय से मोक्ष देकर पूर्ण  ब्रह्म स्थिति का पात्र बनाते हैं। इसीलिए परीक्षित महाराजा ब्रह्म स्वभाव परमानंद में डूबकर संसार,अपने को मारने आये दक्षक नाग पर उसका ध्यान न रहा।

4511. शून्य आकाश में रहित वस्तुओं को रहित दृश्यों को मौज़ूद सा एक जादूगर दिखाता है।वह  मन संकल्प से,वस्तुओं से हस्त तेज़ी से, संभाषण से दर्शकों की आँखों पर पर्दा डालते हैं। लेकिन वस्तु रहित, संकल्प रहित,मंच रहित,रूप रहित ब्रह्म शक्ति दिखानेवाला इंद्रजाल है यह प्रपंच। सुनार स्वर्ण से विविध आभूषण बनाते हैं। वैसे ही एक रूप ब्रह्म अर्थात् अखंडबोध अर्थात्  परमात्मा अर्थात अपरिवर्तनशील सत्य विविध ब्रह्मांड बनाकर दिखाता है। रस्सी में साँप के भ्रम जैसे ही ब्रह्म में दीखनेवाला ब्रह्मांड है। प्रपंच दृश्य को बनाकर दिखाने का स्वभाव निश्चलन,निर्विकार सर्वव्यापी अपरिवरतनशील अखंडबोध ब्रहम को सहज रूप में है। ब्रह्म प्रपंच की सृष्टि  नहीं करता।  मरुभूमि का स्वभाव है मृगमरीचिका बनाकर दिखाना। मरुभूमि मृगमरीचिका नहीं बनाता। वैसे होने पर भी रेगिस्तान देखनेवाले को रेगिस्तान में पानी की  लहरों का दृश्य दीखेगा। वैसे ही ब्रहम को छिपाेवाली ब्रह्म शक्ति माया चित्त में प्रतिबिंबित प्रतिबिंब जीवात्माओं को ही ब्रह्म में प्रपंच का दृश्य बनकर दिखाई पडता है। जीवात् परमात्मा को पूर्ण रूप से साक्षात्कार करने के साथ प्रपंच दृश्य पर्ण रूप में िट जाएगा।

4512. बच्चे हो या युवक हो या बूढे हो या रोगी या पंगु या शय्याशायी या असहाय स्थिति में रहनेवाले को समझना चाहिए कि प्रपंच नीति कहती हैं कि  अपना नाटक पर्याप्त है। उसी समय मनमें आत्मस्मरण तैलधारा जैसे आ रहे तो सीमित शरीर से जीवबोध असीमित बोध स्थिति को साक्षात्कार करने के साथ शरीर के बारे में स्मरण मिटकर बोध स्वभाव परमानंद भोगेगा। उसी समय मन आत्मा को छोडकर अर्थात् आत्म स्मरण रहित अन्य विषयों में घम फ़िरकर रहेंतो नरक वेदना अनुभव करके प्रपंच के नीति के अनुसार प्राण छोडना पडेगा। इसलिए वह मन इच्छाओं की पूर्ति के लिए माया संकल्प कर्म चक्र में अगले शरीर मिलने के लिए भटकता रहेगा। ब्रहम शक्ति माया चित्त ब्रह्म सानिध्य में बनानेवाले प्रपंच दृश्य ,उसके नाम रूप ब्रह्म अभिन्न रूप में जो दर्शन नहीं करता उनको मात्र दुख का अनुभव होगा। कारण ब्रह्म सर्वव्यापी बनकर निश्चलन होने से दूसरी एक वस्तु कभी  कहीं नहीं होगा।  ब्रह्म मात्र ही है। एक मनुषय जन्म में आत्मज्ञान को जीवको जानना चाहिए। आत्म ज्ञान से अनुभव करना चाहिए। आत्मा को पूरण रूप से साक्षात्कार करना चाहिए।

4513. मनुष्य प्रपंच भर में परस्पर विरोधों को ही देखता है। इसीलिए भला-बुरा,धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य, गलत-सही, नीति-अनीति, सब देखते हैं। भगवान अपनी निश्चलन शीलता, सर्वव्यापकता, निर्विकारता, सर्व स्वतंत्रता में बिना परिवर्तन के अपनी शक्ति माया को उपयोग करके दिखानेवाला एक इंद्रजाल प्रतिभासीत प्रभव प्रलय लीला नाटक माया कर्म चक्र अनादी काल सेै घूमताा रहता है। उस चक्र से बाहर आने के लिए सत्य -असत्य, नित्य-अनित्य को विवेक से जानना चाहिए। जो मिट जाता है, वह असत्य है। उदाहरण रूप में रस्सीी में साँप काा भ्रम, परस्पर विरोधाभाष है। पूर्ण प्रकाश में सत्य कोो मात्र जानकर महसूस करने से असत्य मिट जाता है। जोो जन्म लेता है,वह मरेगा ही। जन्म लेकर मरनेवाले को परमकारण न रहेंगे। कारण परम कारण मृत्यु वस्तु होने पर मरनेवाले जीव की उत्पत्ति के लिए आधार खडे दूसरी वस्तु को दिखा नहीं सकते। इसलिए परम कारण जन्म मरण रहित  नित्य वस्तु होना चाहिए। इसलिए परमकारण नित्य,सर्वव्यापी,शाश्वत, अपरिवर्तनशील ,निश्चल होना चाहिए। अर्थात् शरीर और संसार जिसमें होकर जिसमें स्थिर खडे होकर जिसमें मिट जाता है,वही परम कारण है। वह अपने में अपरिहार्य मैं है को अनुभव करनेवाला  परमानंद स्वभाव से मिले अखंडबोध मात्र ही है।

4514. भ्रम दृश्य शरीर और संसार को सत्य विश्वास करनेवाले पशु बुद्धि के मनुष्य को उनके अनुभव करनवाले दुख के कारण खोजने के लिए बुद्धि या विवेक नहीं होता। दुख के कारण जानने से ही समझ सकते हैं कि आगे आनेवाले दुख को मिटा सकते हैं। साथ ही दुख रहित जीवन होगा। दुख के कारण न खोजकर चलनेवाले सुख की प्रतीक्षा करते ही जीते हैं। वह सुख के निवास स्थान की खोज नहीं करता। पशु बुद्धि का मतलब है, असत्य को सत्य सोचकर यथार्थ सत्य न जानकर जीनेवाला है। सामान्यतः  बहुत अधिक लोग उसी नःस्थिति में ही जीते हैं। दुख के कारण की खोज करनेवाले ही शास्त्र सत्य को कार्यान्वित करके भग सते हैं। शास्त्र का मत लब है सत्य शास्त्र। वह सतय ही ववध रूप लकर वह सत्य बरह्म रचित वेद को अर्थात् ब्रह्म ज्ञान को श्रुति के द्वारा, स्मृति के द्वारा , विविध सूत्र के शब्द द्वारा वेद उपनिषद भगवद् गीता ब्रह्म सूत्र से प्रारंभ होकर अनेक सत्य शास्त्र ,पुराण कहानियाँ रची हुई हैं। इनका सार दुख निवृत्ति के याचक ही ग्रहण कर सकता है। वह पशु बुद्धि रहित अर्थात् सत्य को ग्रहण करने की क्षमता रखनेवालों से ही सत्यदर्शी ज्ञान संवाद करेंगे। पशु बुद्धिवालों से सत्यदर्शी संवाद न करेंगे। सत्यदर्शी अज्ञात सत्य को ग्रहण करने का पात्र बनाएँगे। वही प्रकृति की नियति है।
4515. निजी आत्मा को लक्ष्य बनाकर यात्रा करनेवाले एक जीव को इस सांसारिक भौतिक जीवन को  अलंकृत करने का पद मोह न रहेगा। कारण इस ब्रह्मांड के रम कारण स्वरूप परमात्मा ही है। वह परम कारण परमात्म सागर में अकारण उमडकर दीखाई पडनेवाले सब के सब जीव रूप समुद्र मेंउमडकर मिटनेवले बुलबुलों के समन ही है। परमात्म शक्ति माया चित्त में प्रतिफलित प्रतिबिंब बोध ही जीव है। अखंडबोध शरीर से संकुचित दशा में ही हर एक जीव जिंदगी बिता रहे हैं। वैसे जीव को समझ लेना चाहिए कि अपने पंचेंद्रिय से अनुभव करनेवाला आनंद जो भी हो मन से संकल्पित आनंद जो भी हो,वेसब मैं है को अनुभव करनेवाले अखंडबोध रूप भगवान का स्वभाव ही है। अखंडबोध के अपने स्वभाव ही परमानंद है। वैसे आनंद को निरुपाधिक रूप  में स्वयं अनुभव न करने के कारण नाम रूप से बननेवाले चिंतन मन को अखंड बोध स्थिति को जाने न ेकर नमरूप शरीर से संकुचित बनाकर बोध को सीमित बना देते हैं। चिंतन स्मरण रहित स्थिति को जाते समय ही खंड बोध अखंड बोध स्थिति को पाएगा। तभी नितय शांति ,नित्य आनंद, पूरण स्नेह, सर्व स्वतंत्रता को स्वभाविक रप में भोग सकता है। किसी भी प्रकार की चाह के बिना रहने पर याद रहित स्थिति को जा सकते हैं। याद रहित स्थिति को जाना चाहिए तो किसी भी प्रकार की चाह न होनी चाहिए।  चाह रहित जीवन जीने के लिए परमानंद स्वभावकेे साथत मिले अखंडबोध मैं नामक ज्ञान की दृढता बुद्धि मेंं पक्का बनाकर आवर्तन करते रहना चाहिए ।

हिंदी दिवस

 हिंदी दिवस 

एस. अनंत कृष्णन चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक।

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 एक सप्ताह एक दिन हिंदी दिवस।

जैसे दादा दादी के मृत्यु के दिन  साल में एक दिन मनाते हैं।

फिर अगले साल याद करते हैं।

 यों ही हर साल एक दिन 

१४ सितौबर हिंदी दिवस।

 क्या ७८ साल से मना रहे हैं।

सचमुच हिंदी के विकास और प्रगति अद्भुत चमत्कार।१२५ साल का हिंदी इतिहास।

 तुलसी, सूर जोड़ते हैं 

 वास्तव में अवधि और व्रज भाषा।

 भारतेंदु काल से ही हिंदी खड़ी बोली का भाषा स्वरूप।

१९००से।

गद्य शैली, नाटक एकांकी उपन्यास, कहानियां।

 उर्दू शब्दों से भरा प्रेमचंद्र उपन्यास सम्राट।

 संस्कृत तद्भव तत्सम का 

जयशंकर प्रसाद।

पंत,निराला की कविताएं।

 साकेत को  समझ सकते हैं 

 तुलसी रामायण समझना मुश्किल।

अतः हिंदी का इतिहास १२५ साल का।

एक दिन दिवस सही नहीं,

 दिन दिन हिंदी का दिवस मनाना है।

आज़ादी के ७८ साल में 

 अंग्रेज़ी माध्यम की लोक प्रियता हिंदी को नहीं।

 कारण पितृ दिवस जैसे हिंदी दिवस मनाया जाता है।

  इसकी प्रशंसा कैसे?

 ३६५दिन हिंदी दिवस मनाना है।

 हिंदी के खर्च अनुवाद गोदाम में।

 कारण एल.के.जी से डाक्टरेट तक अंग्रेज़ी माध्यम।

संस्कृत नाम मात्र की भाषा।

अंक पाने ६०% अंग्रेज़ी 

 ४०% संस्कृत।

बस यह भी एक नाटक।

 अंग्रेज़ी में थीसिस संस्कृत का डाक्ट्रेट।

बुनियाद ठीक नहीं है,

 हिंदी इमारत की कल्पना दिवस ७८ साल से।

 नारा तो ठीक है एक दिन 

 एक सप्ताह।जय हिन्द ! जय हिन्दी।

 वास्तव में राज्य सरकार 

 केंद्र सरकार अंग्रेज़ी के विकास में 

 अंग्रेज़ी माध्यम खोलने की अनुमति।

 एक तमिल माध्यम स्कूल बंद।

वहाँ दो अंग्रेज़ी स्कूल 

 एक प्रांत का दूसरा केंद्र का।

 बातों में जय हिन्दी।

सोचिए।

 मुझपर दोष मत लगाना।

 जनता के दिल में 

 अंग्रेज़ी बस गयी।

 हिंदी में तीस अंक ही तीसमारखाँ।

दसवीं के बाद हिंदी नहीं।

 जय हिन्दी।

Saturday, September 13, 2025

इन्सान

 इंसान कुछ पहचान।

एस. अनंत कृष्णन, चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक 

++++++++++++++

 इंसान इंसान हैं इंसानियत के कारण।

मनुष्य की तुलना जानवरों से

 जानवरों की तुलना मनुष्य जैसे नहीं।

 सिंह जैसी गंभीरता 

सियार जैसी चालाकी

मीनलोचनी,  

क्योंकि मनुष्य में सब गुण है।

वह शाकाहारी हैं

वह माँसाहारी है।

आदमखोर है।

वह गिरगिट है।

वह नेता बदलनेवाला है।

वह साधु-संत है।

वह नकली साधु हैं।

 मधुर भाषी पर ठगी विधायक।

 बाहर एक अंदर एक बोलनेवाला है।

वह दानवीर है।

 वह लोभी है।

 वह अहंकारी हैं

 वह स्वार्थी हैं।

 वह निस्वार्थी है।

वह त्यागी है,

 वह भोगी है।

चुनाव में विधायक चुनने में इंसान की पहचान मुश्किल है।

 चुनाव के महीने में 

 उनकी विनयशीलता 

 उसकी असलियत पहचानने में असमर्थ हैं मतदाता।

कलियुग

 जब मैं सब बच्चा था,

 लौ शब्द अंग्रेज़ी का

 एक अश्लील शब्द था।

पिताजी की आँखों से लौ निकलता।

अध्यापक आगबबूला हो जाते।

छड़ी का मार।

 पिताजी कहते

 अध्यापक का मार

फूलों का हार।।


अब बातें उल्टी हो गई।

अध्यापक ज़ोर से बोलने पर उनको  डराने धमकाने 

तैयार  है,

 सरकार और अभिभावक।

लौ अंग्रेज़ी शब्द 

 एल केजी से शुरू।

 बार फ़्रंड गेल फ्रंड 

 लौ किस।

अंग्रेज़ी प्रभाव।

 कलियुग की बात।

 तीन साल की बच्ची से

 चुट्टि टी।वी में अण्णाच्ची

 पूछते हैं कालेज जाकर क्या करोगी।

 बच्ची फ़ौरन जवाब देती

 कालेज जाकर प्रेम करूँगा।

 दर्शक, बच्ची की माँ बाप दादा दादी सब खुशी से बजाते हैं ताली।

 विनाशकाले विपरीत बुद्धि।।

वरिष्ठ लोगों को यह संस्कृति असहनीय है।


एस. अनंत कृष्णन, चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक।

Friday, September 12, 2025

इन्सान

 इंसान कुछ पहचान।

एस. अनंत कृष्णन, चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक 

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 इंसान इंसान हैं इंसानियत के कारण।

मनुष्य की तुलना जानवरों से

 जानवरों की तुलना मनुष्य जैसे नहीं।

 सिंह जैसी गंभीरता 

सियार जैसी चालाकी

मीनलोचनी,  

क्योंकि मनुष्य में सब गुण है।

वह शाकाहारी हैं

वह माँसाहारी है।

आदमखोर है।

वह गिरगिट है।

वह नेता बदलनेवाला है।

वह साधु-संत है।

वह नकली साधु हैं।

 मधुर भाषी पर ठगी विधायक।

 बाहर एक अंदर एक बोलनेवाला है।

वह दानवीर है।

 वह लोभी है।

 वह अहंकारी हैं

 वह स्वार्थी हैं।

 वह निस्वार्थी है।

वह त्यागी है,

 वह भोगी है।

चुनाव में विधायक चुनने में इंसान की पहचान मुश्किल है।

 चुनाव के महीने में 

 उनकी विनयशीलता 

 उसकी असलियत पहचानने में असमर्थ हैं मतदाता।इ