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Sunday, August 31, 2025

सनातनवेद

 4476. जगत मिथ्या,ब्रह्म सत्यं अद्वैत सिद्धांत के ये शब्द के कहने मात्र से जीव  ब्रह्म के स्वभाविक  परमानंद को  अनुभव नहीं कर सकते। मिथ्या प्रपंच के बदले सत्य प्रपंच ही प्रत्यक्ष देखते हैं। यहीं से जीव को संदेह शुरु होता है। संदेह रहित जीना है तो अहं ब्रह्मास्मी के वाक्य को साक्षात्कार करना चाहिए। साक्षात्कार करने के लिए सत्य की खोज अवश्य करनी चाहिए। जो सत्य को लक्ष्य बनाकर या आत्मा को लक्ष्य बनाकर  या ईश्वर का लक्ष्य बनाकर जीनेवाले को ही मैं ब्रह्म हूँ का साक्षात्कार करके अपने स्वभाविक ब्रह्मानंद को भोग सकते हैं। जीव जो भी हो, भगवान का लक्ष्य करके न जीने पर दुख ही होगा। ईश्वर की माया विलास जानना चाहें तो स्वयं ही भगवान है का एहसास करना चाहिए। उसके लिए मार्ग वेदांत मार्ग है। वेदांत ज्ञान ही आत्मज्ञान है। वह अपने निजी  स्वरूप ज्ञान है। स्वरूप ज्ञानवाला नित्य आनंद का होगा। स्वरूप ज्ञान न हो तो दुख का मोल लेनेवाला होगा।


4477. जो जीवन को दुरित पूर्ण सोचते हैं,और निरंतर दुख का अनुभव करते हैं,उनको समझना चाहिए कि ईश्वरीय स्वभाव आनंद अपने अंतरात्म का स्वभाव है।यही शास्त्रसत्य है।कारण खुद खोज किये बिना श्रवण ज्ञान से मात्र ज्ञान बुदधि में दृढ नहीं होगा। आनंद का निवास स्थान अपनी अहमात्मा ही है, इसको मन में दृढ बना लेना चाहिए। तब तक आनंद की खोज मानव करता रहेगा। अर्थात् पहले अपने अंतरात्मा से अन्य कोई भगवान कहीं नहीं है। अपने अंतरात्मा के रूप में निश्चल ,सर्वव्यापि परमात्मा रूपी अखंडबोध स्वरूप है। उस अखंडबोध को मात्र यथार्थ सत्य होता है, वह सत्य ही मैं वह सत्य ही अपने स्वभाविक आनंद है।  जब इन सब का एहसास करना चाहिए। तभी दुख विमोचन होगा।

4478. सब  इस बात को जानते हैं कि ब्रह्म से अन्य कोई वस्तु नहीं है। वैसे सर्वदित बात है कि ब्रह्म जन्म नहीं लेते और मरते भी नहीं है, ब्रह्म नित्य है,ईश्वर का स्वभाव परमानंद है। वैसे भगवान अपने से अन्य नहीं है, जो विवेकी इसका एहसास करता है, वही स्वयं को ब्रह्म मानकर चल सकता है। मैं  ही भगवान  है को स्थिर बनाने के लिए  आत्मज्ञान पूर्ण रूप में  सीखना चाहिए।  कारण स्वयं  जिसको खोजते हैं, उसका मूल भी आनंदमय होता है।  वह आनंद आत्म स्वभाव मात्र है। इसका अनुभव करना है तो आत्मबोध रहित शरीर और संसार को विसंमरित स्थिति में रहनेवाले आत्मबोध अनुभव होना चाहिए। वैसे बोध रूप आत्मा को पूर्ण रूप में साक्षात्कार करते समय ही स्वयं ही भगवान का अनुभव होगा। सर्वस्व अनुभव स्वरूप ही है। दुख अनुभव रहित परमानंद नित्य अनुभव स्थिति ही भगवद स्थिति है। वह दुख पार करके न आनेवाला दिव्य राज्य है।

4479. दिव्य विचार मनुष्य के लौकिक भोग सुख भोग  रहित की ग़लतफ़हमी साधारणतः सबके मन में है। लेकिन वह सत्य नहीं है।  जीव को   समझना चाहिए कि जितने दिव्य विचार होते हैं,उनसे अनेक गुना भौतिक ऐश्वर्य उसकी खोज में आएगा।
जो जीव अंतर्मुखी आत्मा की ओर जाता है, भौतिक ऐश्वर्य उसके आत्म विचार पर बाधा डालकर विषय चिंतन की ओर अनायास से खींचकर ले जाएगा। तब मिलने वाले भौतिक ऐश्वर्य पूर्णतः मिट जएगा। केवल  वही नहीं,यह भी समझ लेना चाहिए कि  भौतिक  सुख सब स्फुरण ही है। तब  इसको समझते हैं ,तब उसकी आत्मा  उसको गले लगाएगा। जिसको शारीरिक चिंतन है, वह सदा मार्ग न जानकर दुखी रहेगा। कारण वे असत्य अहंकार से आश्रित ही सब कार्य करते हैं। अतः समझनाा चाहिए  कि सभी आनंद सत्य के कारण ही स्थिर रहता है।जो अपने को सत्य समझ लेता है, अपने को आश्रित ही ब्रह्मांड रहता है का एहसास करता है, उनमें  अन्य यादें नहीं होंगी। अन्य चिंतन रहित, स्मरण रहित जीवन ही परमानंद जीवन है। मैं नामक सत्य न तो कुछ भी नहीं है। मैं नामक सत्य मात्र है। वही नित्य है।
4480. भूलोक में जिंदगी बिताकर मानसिक संतोष के साथ शरीर तजकर जानेवाले विरले ही होंगे। अधिकांश लोग बिना संतोष के ही जीवन बिताकर शरीर छोडकर जाते हैं। उसके कारण की खोज करने  पर उनमें कोई भी शास्त्र परम प्रपंच सत्य समझते नहीं है। विषय इच्छाएँ और विषय चिंतन लेने उनको समय नहीं मिलता। उसकी कोशिश भी नहीं करता। जो कोई प्रपंच सत्य को समझता है, वही आत्मसंतोष से जी सकता है। वैसे लोगों को मृत्यु भय नहीं है। कारण यहाँ कोई मरता नहीं है। कोई जन्म लेता नहीं है। यही शास्त्र सत्य है। इसको जानना है तो नित्य अनित्य विवेक होना चाहिए। नित्य होना ईश्वर है।वह ईश्वर मनुष्य शरीर में उसकी आत्मा बनकर रहता है। इसलिए आत्मा ही सत्य-नित्य है। यह आत्मा सर्वत्र निराकार रूप में व्यापित है। इसलिए उससे प्रपंच चलन न होगा। लेकिन उसमें उसमें नाम रूप दृश्य होने सा लगता है। वह तो भ्रम है,जैसे रस्सी को साँप समझना। यही उपनिषद का सत्य है । इसलिए यह शरीर और संसार रस्सी को साँप समझने के जैसे मिथ्या है। असत्य है। त्रिकालों में रहित है। शरीर मिथ्या है, आत्मा सत्य है। यह एहसास ही नित्य संतोष होगा। नित्य संतोषी ही भगवान है। ईश्वर से मिले बिना कुछ भी नहीं है। वह भगवान ही मैं है का अनुभव करनेवाला अखंडबोध है।

4481. शाश्वत के बारे में मात्र यथार्थ में बोल नहीं सकते। लेकिन उसके बारे में बोलते समय अस्थिर शरीर और संसार के बारे में बोलनेवाले शब्द अस्थिर हो जाएँगे। सत्य मात्र शाश्वत रहेगा। वह सत्य ही मैं है का अनुभव करनेवाले अखंडबोध होता है। उसका स्वभाव ही परमानंद है। परमानंद स्वभाव से मिले अपने निजी स्वरूप के अखंड को अपनी शक्ति माया के कारण विस्मरण करते समय संसार और शरीर के दृश्य दीखते हैं। उन दृश्यों को सत्य मानकर विश्वास करके जीने के कारण दुख होते हैं। उन दुखों से विमोचन चाहने पर अपने यथार्थ स्वरूप अखंड बोध को निरंतर स्मरण करना चाहिए।

4482. भौतिक सुख की इच्छा से जीनेवाले लोगों से उनके बुढापे में  उनसे आप के बुढापे का जीवन संतुष्ट  है ? के प्रश्न पूछने पर  कहेंगे कि असंतुष्ट है। पूर्ण संतुष्ट है कहनेवाले विरले ही होंगे। उनको मालूम नहीं है कि शास्त्र सत्य क्या है? स्वयं कौन है।जो शास्त्र सत्य जानता है, वही परम कारण जानता है, वही कह सकता है कि मैं अपने जीवन में नित्य संतुष्ट हूँ। शास्त्र सत्य का मतलब है 1. इसे एहसास करना है कि  मैं आदी-अंत रहित अनादी ,अनंत,आकाश जैसे अरूप,स्वयं प्रकाश स्वरूप स्वयं अनुभव आनंद स्वरूप, स्वयंभू,सर्वव्यापी, निश्चलन, अखंडबोध रूप परमात्मा हूँ। 2. बनकर मिटनेवाले त्रिकालों में रहित आत्म बोध को भ्रमित करनेवाले माया दर्शन शरीर, सहित के यह जड प्रपंच को जानकर बुद्धि में दृढ बना लेना चाहिए।जो जीव इस ज्ञान दृढता में रहता है कि मैं है को अनुभव करनेवाले बोध सत्य मात्र ही हमेशा सनातन धर्म में है,वही नित्य संतुष्ट रह सकता है। यही शास्त्र सत्य है।

4483. जिंदगी का रहस्य यही है कि आनंद मय आत्मा को आनंद रहित बनानेवाले अज्ञान रूपी कर्म को कैसे मिटाना चाहिए। यह ज्ञान बुद्धि में दृढ होने पर ही आत्म स्वभाव आनंद को स्वयं एहसास करके अनुभव कर सकते हैं। स्वयं सर्वव्यापी होने से सर्वव्यापी जन्म नहीं ले सकते। जन्म न लेने से उसको मृत्यु भी नहीं है। आत्मा रूपी अपने को जन्म मरण नहीं है। केवल वही नहीं स्वयं है को अनुभव करनेवाले निश्चल अखंडबोध वस्तु ही मैं है का खूब एहसास करना चाहिए। उसके बाद ही सर्वव्यापी और सर्वस्व होने से उसमें से दूसरी एक उत्पन्न न होगा को दृढ बना सकते हैं। सर्वव्यापी निश्चलन आत्मा में एक चलन प्रपंच बोध के लिए दीखनेवाले एक भ्रम है,इसको बुद्धि में दृढ बना लेना चाहिए। लेकिन प्रपंच है सा लगता है। वैसे दृश्य अपने यथार्थ पूर्ण स्वरूप ज्ञान के आवर्तन स्मरण लेकर मात्र ही मिटा सकते हैं। और किसी मार्ग से आसानी से माया को जीत नहीं सकते।

4484.  आकाश जैसे अपनी स्थिति न बदलकर अपने सर्वव्यापकत्व  मिटे बिना सूर्य और चंद्र नक्षत्र और भूमि सभी नाम रूप जो स्थिर खडे रहने से लगता है, उन  दृश्यों के सभी नाम रूपों के मूल की खोज करने पर सभी नाम रूप आकाश मय  रूप में बदल जाएगा। वैसे ही आकाश सहित पंचभूत सबकी खोज करने पर वे सब बोध मय रूप में बदलेगा। वह बोध अपरिवर्तन शील अखंड रूप में रहता है। जब वह  अपरिवर्तन शील अखंडबोध स्वयं ही है का एहसास करता है,तब माया रूपी नाम रूप दुख से विमोचन होगा।

4485. प्रपंच भर में अपनी प्रकृति है। कारण नहीं तो प्रकृति यहाँ नहीं रहेगी। केवल वही नहीं स्वयं देखनेवाले  वस्तु जो भी हो अपने से मिले बिना स्थिर नहीं रह सकता। स्वयं खोज करके देखने पर स्वयं स्थिर खडे रहने पर ही सबको स्वयं स्थिर खडे रहने पर ही सबको सथिरता है को समझ सकते हैं। यथार्थ मैं अर्थात शरीर के अंग,प्रत्यंग जाननेवाले ज्ञान बोध बने अपने से मिले बिना स्वयं वस्तुओं के दर्शन नहीं कर सकते। कारण समुद्र की लहरें, बुलबुले  आदि समुद्र के बिना और  कुछ नहीं हो सकते। वैसे ही मैं नामक अखंड बोध में स्वयं के बिना दूसरा कुछ नहीं बन सकता। जब इस अद्वैत बोध के विस्मरण होता है, तब द्वैत,द्वैत से होनेवाले दुख, भेद बुद्धि ही माया है। आत्मज्ञान से भेदबुद्धि बदलने के साथ माया बदलेगी।माया के बदलते ही दुख आनंद में बदलेगा।

मानवता

 मानवता का सच्चा ज्ञान 

एस .अनंतकृष्णन, चेन्नई 

 मानव वास्तव में जानवर।

पाषाण युग में उसका जीवन  पशु तुल्य।

 मानव में मानवता आयी।

वह श्रेष्ठ बना, महान बना।

 मानवता का मतलब है,

 मलमास साहस।

 परोपकार,

धर्म पालन।

 दया, दान शीलता।

करुणा मूर्ति, 

 समाज सेवक,

 सहकारिता, 

  वेदाध्ययन,

  ईमानदारी 

  कर्तव्य पालन।

सत्य पालन

 वचन का पालन।

अस्तेय। 

काम, क्रोध,मद,लोभ

 रहित  व्यक्तित्व,

देश भक्ति,

 मातृभाषा प्रेम ,

 

मानवता का सच्चा ज्ञान।

एस.अनंतकृष्णन, चेन्नई तमिलनाडु

Wednesday, August 27, 2025

मेहंदी

 मेहंदी की  खुशबू।

एस.अनंतकृष्णन, चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक 

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मेहंदी  ईश्वर की अपूर्व  सृष्टि ।

 उसकी खुशबू हल्की,

 हरे पत्ते पीसकर 

 हाथ पर लगाने पर लाल।

 अपने को मिटाकर 

 दूसरों को सुंदरता देना

अनेक रोगों के निवारण 

रूसी के लिए दवा।

 बाल बढ़ाने की दवा।

 कहते हैं  वह महालक्ष्मी का अंश।

 हाथ में लगाने पर गर्मी दूर्

हाथ में मेहंदी लगाने पर यम भय दूर होगा।

 त्वचा के धब्बे रोग निवारणी।

  भारत की जटिबूटियों में 

 मेहंदी भी एक है।

नींद न आने वाले 

मेहंदी फूलों से को सिर के नीचे रखकर सोने पर नींद आएगी।

  घाव लगने पर पत्ते पीसकर लगाने पर गांव भर जाएगा।

 अनेक कीटाणु रोगों के निवारण होगा।

नाखून घाव निवारती।

 अतः मेहंदी का सुगंध

और पौधे ,पत्ते फूलों के गुण अधिक।

 पाश्चात्य सभ्यता के कारण कृत्रिम सुंदरता।

त्वचा रोगों के मूल।

 मेहंदी के गुण समझो,

 जागो, सुंदर बनो।

Tuesday, August 26, 2025

मित्रता

 सच्चा मित्र 

एस.अनंतकृष्णन, चेन्नई 


सच्चा  मित्र  मिलना 

ईश्वरीय वरदान।

आधुनिक काल में 

 मित्रता निभाना

 अंतर्जाल के द्वारा ही।

स्कूल कालेज के बाद 

नौकरी अन्य प्रांतों में 

 या  विदेश में  ।

 दूरी अधिक ,

निकटता कम।

 सहकारिता 

मित्रता का बल है,

 संसार में  एक अपूर्व काम  है तो सुमित्र चुनना।

सच्चे मित्र की मित्रता 

 शुक्ल पक्ष के समान बढ़कर  पूर्णिमा के समान 

 उज्ज्वलतम होगी।

 बुरी मित्रता 

कृष्ण पक्ष के समान बढ़कर 

 अंधकार में बदलेगा।

 सच्चा मित्र   कुमार्ग दिखाएगा।

 मधु वाला जाने से रोकेगा।

 नोट लेकर वोट 

देने  रोकेगा।

 भ्रष्टाचार , रिश्वत पाप समझायेगा।

 बुरों के संग में रहने न देगा।

 तमिल कवि वल्लुवर ने कहा है ---

 कमर से धोती के गिरने पर हाथ मान रक्षा के लिए  फौरन  रोकेगा । 

वैसे ही

सच्चा मित्र सहायता के लिए दौड़ आएगा।

 मित्र वही है,जो सुख दुख में भाग लेते हैं।

 आदर्श मित्र उसी को मिलेगा, जो भाग्यवान होता हैं।

सुदामा कृष्ण की मित्रता 

अति आदर्श दिव्य शक्ति।

मित्र  ही  देवेन मनुष्य रूपेण का प्रत्यक्ष प्रमाण।

Sunday, August 24, 2025

पर्वत शिखर

 पर्वत की चोटी 

एस.अनंतकृष्णन, चेन्नई तमिलनाडु 

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 पर्वत की चोटी देखने में अति ऊँची।

  कोई कठिन काम करना है  तो कहते हैं गौरीशंकर की चोटी पर चढ़ना है।

ऊँची पहाड़ पर चढ़ने में 

 जलवायु में परिवर्तन,

बर्फीली हवाओं के कारण 

साँस लेना अति मुश्किल।

 कहते हैं बर्फीली प्रदेश में 

 उंगलियां गलकर गिर जाती है, पैर फिसलकर गिरना भी पड़ता है।

साँस लेना मुश्किल होता है।

 फिर भी जिज्ञासु साहसी व्यक्ति गोरी शंकर है की चोटी पर पहुँच ही जाते हैं।

 अनेक भक्त कैलाश की यात्रा करते हैं 

 अनेक तीर्थस्थान पहाड़ों की चोटी पर होते हैं।

  तीर्थ यात्रा करने,

 रम्य सुंदर हरियाली देखने

 गर्मी में सर्दी खाने,

 पहाड़ी जटिबूटियाँ इकट्ठा करने,

 पहाड़ के जल स्रोत  देखने

कस्तूरी मृग की कस्तूरी लेने,

 अनेकानेक कारणों से

 पर्यटकों की संख्या बढ़ती है।

 आधुनिक यातायात की सुविधाओं के कारण 

 ग्रीष्म वासस्थल जाते हैं।

 इनके कारण यह सरकार को आय मिलती हैं।

 जंगली पशु पक्षियां देखने में अति आनंद मिलता है।

 अपूर्व फल फूल मिलते हैं।

 रामायण में संजीविनी पहाड़ पर की जटि बूटियों का महत्व है।

देवदारु, स्क्रिप्ट्स जैसे

 ऊँचे ऊँचे पेड़,

सुंदर जलप्रपात 

 दर्शकों को आनंद होता है।

  पर्वत की चोटी पहुँचना 

 वैज्ञानिक युग में आसान।

 हेलिकॉप्टर की यात्रा की सुविधा हैं।

 गधा, घोड़े ढोंगियों का भी करते हैं।

 हिमाचल हमारे भारत के उत्तर में प्राकृतिक पहरेदार हैं।

  दक्षिण में तिरमलै पहाड़ पर बालाजी मंदिर,

 पलनी पहाड़ पर कार्तिकेय मंदिर ,

 अनेक ऋषि-मुनियों के तपस्या स्थान आदि 

पहाड़ियों की गुफाओं में।

कहते हैं आजमी अश्वत्थामा,

 हनुमान जिंदा घूम रहे हैं।

 

 संक्षेप में कहना है तो

पहाड़  प्राकृतिक सौंदर्य,

 मलय पवन,पवन परिवर्तन ,वर्षा होने कारण 

पर्वत की चोटी मानव कल्याण का केंद्र है।

एक बार की यात्रा 

 चिरस्मरणीय बन जाता है।

Monday, August 11, 2025

कन्हैया

 भविष्य की आशा

 एस.अनंतकृष्णन, चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक 

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कहते हैं वर्तमान में 

कर्तव्य पर ध्यान देना।

 वर्तमान ठीक है तो

 भविष्य की आशा

 कभी निराश न होगा।

वर्तमान में शिक्षा,

 आगे अच्छी नौकरी।

 भविष्य रहेगा सुख मय।

 वर्तमान में प्राणायाम 

 कसरत  भविष्य में स्वस्थ।

 वर्तमान की भ्रष्टाचारी 

 भविष्य में दंड निश्चित।

 वर्तमान का दान-धर्म

 बदनाम भविष्य में 

  सुख धाम।

वर्तमान के परिश्रम,

 संपत्ति जोड़ना,

 भविष्य की आशा 

 बुढ़ापे में सुख सुविधा।

 भविष्य की आशा में

 वर्तमान में हवा महल।

 भविष्य को क्या देगी निराशा।

 भूत गया, भविष्य न जाने क्या होगा,

पर वर्तमान ही बचपन

 कला कौशल क्षमता 

 विकास करने का अवसर।

जवानी वर्तमान है

 कठोर मेहनत 

 संतान पालन 

 संपत्ति जोड़ने से

 भविष्य की आशा।

उज्ज्वलतम जान।

कन्हैया

 हमारा कान्हा प्यारा।

एस. अनंतकृष्णन, चेन्नई 

 हम तमिलनाडु में 

कान्हा को कहते हैं कण्णन, कृष्णन।

कितने  भक्त हैं 

कण्णन  के।

चित्रपट के कवि सम्राट 

 अपने नाम को रखा है

कण्णदासन।

कालिंगनर्तन का कन्हैया।

 भूत के वध का कन्हैया।

 पांडवों का प्रिय कन्हैया।

मुरली बजाने वाले कन्हैया।

गोपालक कन्हैया।

 राधा प्रिय कन्हैया।

गीता चार्य कन्हैया।

 गोपिकाओं के प्रिय कन्हैया।

 रसखान प्रिय कन्हैया 

रसखान ने गाया,

मानुष हौं तो वही रसखानि, बसौं मिलि गोकुल गाँव के ग्वारन। जो पसु हौं तो कहा बस मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥" 

 सूर प्रिय कन्हैया,

जगत रक्षक कन्हैया।

मित्रता के आदर्श तो

 सुदामा कृष्ण कन्हैया।

दुष्ट संहारक कन्हैया।

 इष्ट रक्षक कन्हैया।

इस्कान मंदिर में 

 कन्हैया 

 विश्वभर में गूँजउठता

 हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।

गोवर्धन धारी, वर्ण भगवान हारी।

सनातन वेद -जगदीश्वर तमिल का अनुवाद

     4435. अंधकार से बाहर न आने पर प्रकाश के बारे में जान नहीं सकते। सूर्योदय होने पर अंधकार जैसे मिट जाता है,

वैसे ही आत्म सूर्य उदय होते समय अर्थात् आत्म बोध होते समय अर्थात् मैं बोधात्मा बना है का एहसास करते समय मनोमाया छिप जाएगा। इस सवाल का जवाब न मिलेगा कि जीव जीव संकल्प भाव से बाहर न आकर मैं, मेरा के अभिमान न छोडकर यात्रा करके पूछेगा कि  मैं कहाँ से आया हूँ।  उस सवाल के जवाब मिलने के लिए बाह्य दृश्यों की ओर न जाकर जीव को अहं की ओर जाने को सिखाना चाहिए। आत्मा की ओर ध्यान देने से ही जीव या मन रहित जान सकते हैं। प्रतिबिंब जीव बिंब आत्मा को समझते समय ही मालूम होगा कि मैं प्रतिबिंब नहीं है, बिंब रूप परमात्मा है। आदी में मैं नामक अखंडबोध मात्र ही बना रहा। अखंडबोध में मैं नहीं है। मैं होने से ही कह सकते हैं कि अखंडबोध मात्र है। अखंड बोध से ही मैं मैं नामक  अहंकार उमडकर आता है। वास्तव में मैं बनकर आता नहीं है।मैं बनकर आने-सा लगता है। मैं बनकर आने के कारण बोध शक्ति चित्त ही है। वही माया है। उस माया चित्त में अखंडबोध प्रतिबिंबित सा लगने के साथ बोध अखंड को भूल जाता है। अखंड को भूलकर प्रतिबिंब बोध में बदलता है। साथ ही जीव भाव प्रकट होता है। वह जीव मैं नामक शब्द के साथ अहंकारी बनकर प्राण, मन,अंतःकरण रूप,रस,गंध,स्पर्श, शब्द ,काम,क्रोध,मद,मात्सर्य आदि मनोविकारों के साथ  पंचभूतों में बढकर ब्रह्मांडों को बनाते रहते हैं। अर्थात्  निश्चलन बोध में एक प्राण स्पंदन अर्थात् चलन होने-सा लगता है। हर एक चलन अनेक  जड दृश्यों को अर्थात् ब्रह्मांडों को बनाते रहते हैं। ये सब परस्पर अन्योन्याश्रित हैं। यह प्रश्न अनादी काल से उठता रहता है कि पहले अंडा  उत्पन्न हुआ या मुर्गी उत्पन्न हुई । ये दोनों भूमि में ही उत्पन्न हुई। इन दोनों के मूल कारण भूमि  है। इस भूमि के दो भावों में ही मुर्गी और अंडा है। स्वर्ण आभूषण बनते समय आभूषणों के मूल कारण स्वर्ण ही है। मिट्टी की मूर्तियाँ अनेक होने पर भी उनके मूल कारण मिट्टी ही है। मूल कारण को माया शक्ति नाम रूप में विभाजन उत्पन्न करता है। मूल कारण से अन्य नहीं है कार्य बने अन्य रूप। लेकिन नाम और रूप में कारण होते हैं। कारण रहित नाम और रूप नहीं है। वैसे देखते समय नामरूप कारण से अन्य एक नयी वस्तु को बनाते नहीं है। तब समझ सकते हैं कि वे नहीं है। साथ ही नाम रूप अस्थिर होंगे। अस्थिर नाम रूप ही माया है। अर्थात्  परस्पर आश्रित जड वस्तुएँ सब बनकर मिट जाने से वे सब नहीं के बराबर है। अर्थात् काल से आश्रित देश,देश से आश्रित काल, दोनों से आश्रित जड वस्तुएँ, आकाश से आश्रित वायु,वायु से आश्रित अग्नि,वैसेे ही दृश्य रूप सब एक दूसरे से आश्रित ही हैं। इसलिए सभी जड वस्तुएँ अस्वतंत्र है। जड वस्तु का एक भाग ही है मैं नामक अहंकार । सत्य में मैं और जडवस्तु सब माया ही है। अखंडबोध मात्र निश्चलन परमानंद सागर रूप में नित्य सत्य रूप में अनादी काल स प्रकाश देते रहते हैं।

4436. स्वभाव से ही मनुष्य की पंचेंद्रियाँ बहिर्मुखी रूप में ही जा रही हैं। इसलिए मन का, प्राण का अर्थात् पंचभूतों की उत्पत्ति स्थान की खोज करके जानते नहीं है, यही नहीं पंचेंद्रियाँ दिखानेवाले विषय रूपों में बेहोश होकर ही भ्रम में रहता है।
अर्थात्  पंचभूत प्रपंच कई वर्णों में जीव को भ्रम भ्रम में डालने का भ्रम होता ही रहता है। इसलिए प्रतिबिंब  बोध जीव भाव  होगा।  शारीरिक अहंकार की शक्ति बढाएगी। उस अहंकार को ही मैं, मेरा है के  कर्तृत्व और भोगतृत्व अभिमान अधिक होता है। मैंने ही किया है, मैंने ही भोगा है  का मिथ्या अभिमान बढता है। साथ ही भेदबुद्धि और रागद्वेष के साथ कर्म की इच्छा होगी। उसके द्वारा कर्मबंधन,उसके कर्म फल बंधन से स्वतंत्र रहित इच्छाएँ पूर्ण करने शरीर असहयोग हो जाएगा। इसके कारण मानसिक तनाव और नाना प्रकार के रोग के कारण  दुख बढेगा तब इच्छाएँ मिट जाएँगी। तभी मन,शरीर और प्राण को एहसास होगा कि स्वयं स्थिर खडा रह नहीं सकते। साथ ही जड के मिथ्या तत्व मालूम होगा। तब एहसास होगा कि स्वयं शरीर नहीं है, स्वयं आत्मा है,अखंडबोध है। तब बोध के स्वभाव नित्य शांति. नित्य आनंद को सहज रूप में भोग सकते हैं। तब प्रपंच के दुख उस पर प्रभाव न डालेगा।

4437. जो कोई अंतर्मुखी से स्वआत्मा का शब्द  मैं है के अनुभव को अपने यथार्थ स्वरूप  समझकर , अपने शरीर को बोधा अनुभव को छिपानेवाले पर्दा जानकर ,बोध स्मरण से,शरीर रूपी पर्दा हटाकर,  जीवात्म बोध को सीमित बोध को परमात्म असीमित बोध के रूप में साक्षात्कार करता है, अखंडबोध के रूप में साक्षात्कार करता है, ईश्वर के रूप में साक्षात्कार करता है, अखंड ब्रह्म के रूप में साक्षात्कार करता है, तभी समझ सकता है कि शरीर और सांसारिक दृश्य बोध में दीखनेवाला ब्रह्म है, वह भ्रम रूपी नाम रूप प्रपंच, उसमें रहनेवाले जीव रूप, सकलचराचर मैं है को अनुभव करनेवाले अखंडबोध सत्य से ही उदय होकर दीखनेवाले दृश्य है। वह दृश्य बोध में लगनेवाला भ्रम मात्र है। यह शास्त्र सत्य है कि मैं नामक निश्चल अखंड बोध में कोई चलन न हो सकता। इसलिए उस निश्चलन बोध में दीखनेवाले चलन प्रपंच ,शरीर,शरीर देखनेवाले प्रपंच दृश्य, न होने के लिए अपने यथार्थ स्वरूप अखंडबोध स्मरण से एक क्षण भी  हटे बिना  रहना चाहिए। तभी मनोमाया पर्दा हटेगा। तभी एहसास होगा कि बोध रूप परमात्मा बने स्वयं मात्र है। उस स्थिति में बोध में दीखनेवाले सब में सिवा बोध के किसी रूप के दर्शन नहीं कर सकता। तभी बोधाभिन्न जगत के अद्वैत सत्य को वह साक्षात्कार कर सकता है।


4438. जैसे एक ही बिजली सभी बल्बों को जलाती है, वैसे ही एक अखंडबोध बोधा शक्ति माया बनाकर दिखानेवाले सभी जीवों और रूपों को प्रकाशित करती है। हर एक बल्ब को जैसे प्रत्येक बिजली नहीं है,वैसे ही हर एक जीव को अलग-अलग बोध नहीं है। हृदय में रहनेाली आत्मा ही यथार्थ मैं है। वह यथार्थ मैं रूपी आत्म स्वभाव अनंत आनंद पूर्ण  है। उस नित्य आनंद को अज्ञान रूपी माया चित्त ही है। उस चित्त में प्रतिबिंबित प्रतिबिंब बोध बने जीव के द्वारा ही भेद बुद्धि और राग द्वेष होता है। इसलिए भेद बुद्धि और रागद्वेष के  चित्त मलों को आत्म बोध स्मरण से मिटाकर  शुद्ध करने के लिए दो मार्ग होते हैं।
यह जानकर  समझ लेना चाहिए  कि एक चित्त रूपी सूक्ष्म जड तीनों कालों में बोध में बना नहीं है और बना नहीं सकता की भावना को बढाता रहना चाहिए। दूसरा मार्ग है कि आत्मा रूपी मैं सर्वव्यापी है, अर्थात् अखंडबोध है, अखंडबोध  बने अपने से मिले बिना दूसरी एक वस्तु कहीं नहीं हो सकता। इस बात को भी एहसास करना चाहिए कि अखंड बोध रूपी मैं ही अपनी निश्चलनता को बदले बिना सूर्य,चंद्र,नक्षत्र,काले बादल,आकाश, वायु, अग्नि, नीर, भूमि रूप में एहसास करना चाहिए। अर्थात्  यह एहसास करना चाहिए कि संसार में जीनेवाली चींटी से ब्रह्मा तक के बाहर देखनेवाले नाम रूपों में बोध रूपी मैं ही भरा है। इसलिए बोध से मिले बिना एक एक नाम रूप स्थिर नहीं है। वह नाम रूप स्वयं अस्थिर माया है। यह समझ लेना चाहिए कि मैं नामक अखंड बोध मात्र ही है। तभी यह अनुभव होगा कि मैं नामक बोध नहीं तो कुछ भी नहीं है। अर्थात् सर्वव्यापी आकाश जैसे बोध रूप रहने वाला मैं ही अमीबा से त्रिमूर्तियों तक  के सभी में भरा रहता है की भावना करके रूप रहित अखंडबोध स्थिति को पाना ही दूसरा मार्ग है। यह भावना ही अद्वैत बुद्धि देती है। अद्वैत् बुदधि के दृढ होते ही भेदबुद्धि और राग द्वेष आदि  सारा चित्त मल मिट जाएगा। चित्त बनाये नाम रूपों के नाश के साथ नामरूपों के नाश के साथ चित्त नाश का भी संभव होगा। चित्त नाश के साथ शरीर,संसार,माया भ्रम भी नाश हो जाएँगे। मैं नामक अखंडबोध मात्र स्वयं अनुभव आनंद रूप में अर्थात् परमानंद रूप में, अनंत आनंद रूप में, अनादी रूप में स्थिर रूप में खडा रहता है।

4439.  जो सोनेवाला है, वह इस प्रपंच को देखकर रस नहीं ले सकता। सूर्योदय होने पर भी सोनेवाले को इस प्रपंच को देखकर रस नहीं ले सकता। दिन में प्रपंच को देखकर रस लेने सूर्य प्रकाश चाहिए। अंधकार में आँखें खोलने पर भी कुछ नहीं देख सकते। अंधकार में प्रपंच को देखने के लिए बिजली की रोशनी चाहिए। अग्नि की रोशनी चाहिए। सूर्य और अग्नि को देखने के लिए आँखें चाहिए। आँखों की रोशनी के लिए मन चाहिए। बिना मन के आँखों से विषयों को ग्रहण नहीं कर सकते।
मन को प्रकाशित करने मैं है को अनुभव करने आत्मा रूपी बोध चाहिए। मन को जानने का ज्ञान चाहिए। जानने का ज्ञान ही बोध होता है। वह बोध न तो मन,शरीर,सूर्य,चंद्र आदि नहीं है। बोध ही नित्य,सत्य,शाश्वत और आनंद है। वह बोध ही मैं है।
अर्थात्  मैं है के अनुभव के साथ निराकार, निश्चलन,अखंड,परमानंद के रूप में शाश्वत रूप में खडा रहता है। अर्थात् अपने यथार्थ स्वरूप परमानंद  ही है।

4440. स्वयं देखनेवाले संसार के और शरीर के आधार रहनेवाले अर्थात् परमकारण रहनेवाले  मैं है को अनुभव करनेवाली आत्मा ही है। सबको जाननेवाले ज्ञान के रूप में,अर्थात् अधिक जानने कुछ भी नहीं है, परम ज्ञान अर्थात्  अखंड बोध के मैं नामक सत्य को मैं नहीं है का अनुभव नहीं कर सकते। किसी को भी यह अनुभव नहीं रहेगा कि मैं नहीं है ।अर्थात् मैं है,मैं का अनुभव निरंतर होता है। नित्य आनंद रुप में है। उस यथार्थ मैं को कोई रूप नहीं है। रूप रहित होने से ही  सर्वव्यापी है। सर्वव्यापी मैं नामक अखंडबोध निश्चलन होने से चलन नहीं हो सकता। चलन के बिना कोई कोई कर्म नहीं होगा। वैसे रूप भी नहीं होगा।  रूप जो भी हो,मैक्रेस्कोप  के द्वारा  देखने पर उसमें ऍलक्ट्रानिक्स , प्रोटान, न्यूट्रान चलनशील रहेंगे। लेकिन निश्चलन अखंडबोध में कोई चलन नहीं हो सकता। लेकिन शास्त्र रूप में निश्चलन अखंडबोध में किसी भी काल मं कोई चलन देख नहीं सकता।  लेकिन निश्चलन में चलन होने को उपकरणों के द्वारा देख सकते हैं। इन सूक्ष्म चलनों को नग्न नेत्रों से देख नही सकते। शास्त्रों के सत्य के अनुसार स्थूल हो या सूक्ष्म कोई भी चलन निश्चलन अखंडबोध में नहीं हो सकता। लेकिन होने सा लगता है। वैसे लगनेवाले शरीर और संसार के रूप अर्थात् चराचर के सभी रूप तीनों कालों में रहित है। इसका एहसास किये बिना नष्ट हुए परमानंद को पुनः प्राप्त नहीं कर सकते। जीव को जन्म- मरण दुख से बाहर आना है तो
यह यथार्थ ज्ञान बुद्धि में दृढ होना चाहिए कि शरीर और संसार के जड.कर्म, चलन निश्चल बोध में हो नहीं सकता। माया भ्रम लोक से लोक से किनारे पर पहुँचना है तो इस शास्त्रीय रीति  को बुद्धि में दृढ बनाना चाहिए कि शरीर और बोध में उत्पन्न नाम रूप बने ही नहीं है। यही सनातन शास्त्र सत्य है। उपनिषद,वेद, गीता आदि भारत का ख़ज़ाना  है। वह सभी संसार का खजाना है। ये सनातन सत्य जानने के लिए उपयोगी है । सभी सनात धर्म आचार और अहंब्रह्मास्मी से शुरु हुए महा वाक्यों को स्वयं साक्षात्कार करना ही सभी जीवों का यथार्थ धर्म होता है।

4441. साधारणतः अच्छा- बुरा, पाप-पुण्य, धर्‌म-अधर्म, जाति-वर्ण,कुल-गोत्र, देव-देवी ,चींटी से त्री मूर्ति तक सभी नाम रूपों का उत्पत्ति स्थान एक ही एक रूप विशव न ही है। वह चलनशील विश्व मन स्थिर खडे रहने के समान लगना निश्चलन अखंडबोध में ही है। मन बोध है, समझने के साथ मन बनानेवाली सब वस्तुएँ बोध ही हैं। बोध के अखंड में मन अस्थिर हो जाता है। जो मन नहीं है ,मन बनाकर दिखानेवाले सब आकार मृगमरीचिका जैे नहीं के बराबर ही है। भ्रम के सभी रूपों में बोध रहित स्थान को ढूँढते समय ही समझ सकते हैं कि  नाम रूप  नहीं है, बोध मात्र ही है। साथ ही यह अनुभव होगा कि निराकार अखंडबोध मात्र ही हैं। जिसने बोध का साक्षातकार किया है,उसको यह अनुभव होगा कि बोध से अन्य एक चलन का दृश्य बोध  उत्पन्न नहीं होगा। वैसे ही प्राण चलन की उत्पत्ति स्थान बोध रहित किसी स्थान में है  तो मालूम होगा कि बोध रहित कोई स्थान नहीं है। इसलिए एहसास कर सकते हैं कि प्राण उदय बोध में बना नहीं है। तब एहसास होगा कि प्राण नहीं है और प्राण बनाये प्रपंच नहीं है। जिसने प्रपंच को अखंड रूप में साक्षात्कार किया है, उसको यह अनुभव होगा कि अखंडबोध से अन्य कोई वस्तु नहीं  है। अपूर्णता में ही अन्य विचार होते हैं।  अपूर्णा की तलाश में एहसास कर सकते हैं कि पूर्णता मात्र है। बोध के अखंड में अपूर्णता को स्थान नहीं है। सबमें  बोध को मात्र दर्शन करके अखंड बोध में रहनेवालों को दूसरा चिंतन कभी नहीं होगा । बोध केंद्रित रहते समय बोध का स्वभाव परमानंद और अनिर्वचनीय शांति और अमृत सागर रूप में निश्चल नित्य रूप में शाश्वत रहेगा।

4442. नवजात शिशु को मालूम नहीं है कि यह प्रपंच माया है। कहने पर भी वे जानते नहीं है। शास्त्र ज्ञान से यह शरीर और संसार माया है, समझने पर भी ,शरीर और संसार को सच मानकर विश्वास करके ही जीते हैं। हमारे देखनेवाले संसार और बंधु यथार्थ ही समझकर जी रहे हैं। वे बुद्धि बल, शारीरिक बल, मनोबल आदि के अहंकार  के विश्वास पर जीते हैं। विश्वास विपरीत फल को बनाते समय ही विचार करने लगते हैं। तब नश्वर शरीर और संसार पर भरोसा हटकर आत्मा पर ध्यान करने लगेगा। वैसे ही साधारण मनुष्य के मन को बाहरी दुनिया से आत्मा की ओर ले जा सकते हैं। तब तक मनुष्य अनेक प्रकार के दुखों का पात्र बनेगा। इसलिए यौवन और आरोग्य मिटने के पहले समझ लेना चाहिए कि सत्य क्या है?

4443. भगवान पर भरोसा रखना भगवान को जानने के लिए  या ईश्वर की स्थिति को पाने के लिए चाहिए। जो ईश्वर के दर्शन  की इच्छा करता है, उसको पहले जानना चाहिए कि शरीर,संसार, मन,बुद्धि, प्राणआदि स्थूल सूक्ष्म जडों से  बना है।
या कर्म चलनों से बना है। इन कर्म चलनों को कोई स्वयं  स्थिरता नहीं है।  एक मनुष्य के मरने पर उस शरीर में बने रहे प्रतिबिंबब रूप अर्थात  जीव उस शरीर को छोडकर चला जाएगा। वह मृतशरीर पुरुष हो तो उसकी स्त्री उसके प्यार और मर्यादा भूलकर उसे शव ही कहेगी। जड कभी नहीं कहता कि मैं हूँ। मैं है का अनुभव शरीर का नहीं है, बोध के कारण ही होता है। शरीर के नाश देखकर ही अज्ञानियों को यह बात समझ में आती है। जो  शरीर को सत्य मानकर विश्वास करते हैं,वे भी समझ सकते हैं। बोध नहीं तो जड को अस्तित्व ही नहीं है। जड न होने पर भी बोध का अस्तित्व रहेगा। बोध ही भगवान है। बोध नहीं तो प्राण, मन, शरीर, संसार  आदि  कुछ भी नही है।      उसका अर्थ यही है कि शास्त्र पर ईश्वर मैं है को अनुभव करनेवाले अखंडबोध ही है। बोध सर्वव्यापी  है। इसलिए बोध से मिले बिना दूसरी एक वस्तु हो नहीं सकती। एक वस्तु उत्पन्न होना है तो चलन चाहिए। बोध या आत्मा निश्चलन होता है। बोध सर्वव्यापी है। इसलिए बोध में  दीखनेवाले चलन जो भी हो, वे असत्य है, अनित्य है और भ्रम है। अतः हर एक जीव एक अखंडबोध ही है। समुद्र में दृष्टित बुलबुले जैसै अदृश्य होते हैं, वैसे ही अखंडबोध में दृष्टित अदृश्य होनेवाले सभी शरीर रूप होते हैं। अर्थात् प्रतिबिंब बोध ,प्रति बिंब बने बुलबुलों में बिंब रूपी समुद्र का पानी,जैसे सभी भागों में भरा रहता है, वैसे हर एक प्रतिबिंब के जीवन में बिंब रूपी अखंडबोध भरा रहता है। इसलिए जीव और जीव संकल्प अर्थात्  पंचभूत प्रपंच नाम रूप सब त्रिकालों  में रहित ही है। वह किसी भी लोक में रहित ही है।  मैं नामक अखंडबोध मात्र ही सत्य रूप में होता है। इस शास्त्र को बचपन से ही बच्चों को समझाना चाहिए। वैसे अद्वैत तत्व तत्व बने आत्मज्ञान को सभी पाठशालाओं मेें सिखाते समय ही बच्चों में भेद बुद्धि और राग द्वेष नहीं होगा एक आत्म बुद्धि के साथ सभी जीव परस्पर प्यार कर सकते हैं।

4444. सर्व ब्रह्म मय है। ब्रह्म रहित कोई भी  माया नहीं है।  क्योंकि दूसरा एक माया है तो ब्रह्म का सर्वव्यापकत्व नहीं रहेगा। ब्रह्म सर्वव्यापी  है। लेकिन मैं ब्रह्म हूँ का विश्वास और एहसास जीव नहीं कर सकते। कारण ब्रह्म दुख रहित सब कुछ होनेवाले हैं। ब्रह्म सर्वस्व होते हैं। परमानंद स्वरूप होते हैं। प्रेम से पूर्ण होते हैं। शांति की उपजाऊ भूमि होते हैं। शांति स्वरूप होते हैं। सत्य स्वरूप होते हैं। सर्वतंत्र स्वतंत्र है। ऐसे ही जाने अनजाने ब्रह्म रूपी भगवान पर विश्वास करते हैं। लेकिन जीवात्मा निरंतर दुख से,मानसिक चिंताओं से आँसू बहाकर जीते हैं। इसलिए ईश्वर को सर्वव्यापी देखने से मन इनकार करता है। वैसे लोगों को एक ही जवाब यही है कि स्वप्न में बाघ गले को काटने पर वह दर्द स्वप्न के काटने तक रहेगा। वैसे ही इस संसार को देखने से या अनुभव करने से संसार सत्य नहीं कह सकते हैं। उसकी साक्षी स्वप्न ही है। जागृतावस्था के अनुभव स्वप्न नहीं है को प्रमाणित नहीं कर सकते। वैसे  ही मन कैसे बना है? कहाँ से आया है? मन  कैसे संकल्प करताा है?
संकल्पित  संसार कैसे बना है? इन सवालों को कोई भी युक्ति से प्रमाणित  नहीं कर सकते। इसलिए एहसास करना चाहिए कि  जागृत अनुभव सब रात में आनेवाले स्वप्न से भिन्न नहीं है। जैसे  स्वप्न के अनुभव सत्य नहीं है, वैसे ही जागृतावस्था के अनुभव और दृश्य असत्य ही हैं। उनहें वे ही एहसास कर सकते हैंं जो अज्ञान रूपी निद्रा से बाहर आ चुके हैं। इसलिए समझना चाहिए कि जागृतावस्था में जीव अनुभव करनेवाले दुख सब अज्ञान नद्रा को समझने तक ही है।

4445. जो लोग ईश्वर से साक्षात्कार  किये लोक में रहते हैं, वे सब एक ही स्वर में कहेंगे कि भगवान से कोई दूसरी  एक अन्य शक्ति कहीं नहीं है। वैसे महात्माओं  के द्वारा बताये श्रेष्ठ तत्वों को व्यवहार में ला न सके। इसके कारण लोगों ने सोचा कि जब आराम मिलता है,तब सीख लेंगे। लेकिन जन्म से मृत्यु तक आराम नहीं मिलते। इतना ही नहीं है  कि उनके जीवन में निरंतर दुख के सिवा आनंद या शांति स्वप्न में भी साधारण मनुष्य को नहीं मिलता। जो ज्ञान सभी दुखों को मिटाता है, वह ज्ञान आत्मज्ञान ही है। केवल आत्मज्ञान ही इस संसा के दुख सागर पार करने का सहारा है। मनुष्य चाहनेवाले शांति और आनंद बोध स्वरूप परमात्मा का ही है। उस परमत्मा के बारे में जो ज्ञान है, वही आत्मज्ञान है। इसलिए आत्मा को छोडकर इस संसार में जिसको भी चाहे, तब दुख मात्र मिलेगा। आत्मज्ञान मात्र ही अपने यथार्थ स्वरूप परमानंद को देगा। 4456. चींटी से ब्रह्मा तक के सभी जीवराशियों के सभी कर्म आत्म सुख के लिए ही है। धर्म या अधर्म, पाप या पुण्य, जो भी कर्म हो लक्ष्य तो आत्म सुख ही है।  दुखी  आदमी भी आत्महत्या करने जाता है तो वह  भी आत्म सुख के लिए  ही है। युद्ध में कोई किसी को मारता है,तो वह भी आत्म सुख के लिए ही है। लेकिन उसको मालूम नहीं है कि वह स्वयं आत्मा नहीं है, आत्मा का स्वभाव ही वह चाहनेवाला परमानंद है। कारण इस जगह में ही आत्मज्ञान का मुख्यत्व है। अर्थात् यह आत्मज्ञान उसको उसको माता-पिता या समाज या अध्यापक द्वारा नहीं मिला है। पुण्यात्माओं के लिए ही मात्र ही जन्म से सत्य खोज मिलेगा। आत्म ज्ञान न होने के कारण पूर्व संकल्प नाते-रिश्ते, वासनामयी माया चित्त ही है। वह वासना चित्त बोधशक्ति माया शून्य से बनाकर दिखानेवाले इंद्रजाल का एक भाग ही है। अर्थात् शरीर और संसार के नाम रूप सब के परमकारण मैं है के अनुभव बनानेवाले  अखंडबोध ही है। बोध अखंड होने से चलनशील नहीं है। निश्चलन एक वस्तु से दूसरी एक वस्तु बन  न सकता। चलनशील एक वस्तु से ही  दूसरी एक वस्तु बन सकता है। लेकिन इस चलन प्रपंच के उत्पत्ति स्थान की खोज करते समय  मालूम होगा कि मैं नामक अखंडबोध में दीखनेवाले एक भ्रम मात्र है। कारण मैं नामक अखंडबोध निश्चलन होने से  बोध के अखंड में कोई चलन किसी भी काल में हो नहीं सकता।

4457. जीव इसको जानते नहीं है कि इस प्रपंच में हर एक जीव इंद्रियों के द्वारा विषयों को भोगते समय मिलनेवाले  छोटे छोटे आनंद  अपनी आत्मा के अपने स्वभाव ही है। वे विषयों की उपाधियों से मिले आनंद को अनुभव करने से उनमें ग़लतफ़हमी  होती है कि आनंद विषय वासनाओं से मिलता है। एक गीत सुनते समय आनंद मिलता है। लेकिन गाना सुनते समय थोडी देर आत्मा को छिपानेवाला पर्दा मन विस्मरणीय स्थिति में परिवर्तन होने से उन मिनटों में आतमस्वभाव आनंद का अनुभव करता है। गीत के समाप्त होते समय फिर मनोमाय पर्दा आत्मा को छिपाता है। साथ ही आनंद नष्ट होता है। इसीलिए कुछ सोग अक्सर गाना सुनकर आनंद का अनुभव करते हैं। उनको समझना चाहिए कि नाद एक सूक्ष्म जड है। नाद एक ऊर्जा है। उसको आनंद देने की क्षमता नहीं है। आनंद आत्मा बने बोध का स्वभाव मात्र है। वैसे ही लघु सुख काम सुख हो या किसी भी विषयों में आनंद मिले ,वह विषयों से नहीं मिलता। वह विषय माया पर्दा आत्म बोध से परिवर्तन की स्थिति में मिलता है। पूर्ण प्रकाश में अंधकार छिपने के जैसे आत्म वस्तु अर्थात बोध या ब्रह्म को पूर्ण रूप में साक्षात्कार करने के साथ साथ सभी विषय  सूर्य के सामने ओस कण नदारद होने के जैसे छिप जाएँगे। तभी परमानंद अपने स्वभाविक नित्य रूप में भोग सकते हैं। अंधकार की उत्पत्ति को खोज नहीं सकते। वह युक्ति रहित प्रतिभास है।इसलिए अज्ञान को माया कहते हैं।
निराकार सर्वव्यापी निश्चल परमात्मा अखंड बोध के सिवा ज्ञान के सिवा सत्य के सिवा दूसरी एक चलन वस्तु कहीं भी नहीं है। सत्य मात्र नित्य शाश्वत है। मैं नहीं तो कुछ भी नहीं है, मैं नहीं तो कुछ भी भोग नहीं सकते। इसलिए मैं  स्वयंभू है।

4458. जो  मनःसाक्षी के विरोध काम करता है,  वह समस्याओं से समस्या की ओर ,दुख से महा दुख की ओर ,नरक से महानरक की ओर,जन्म से विविध जन्म की ओर चलता रहेगा। उसी समय मनःसाक्षी का अनुसरण करके कर्म करनेवाले को मनःसाक्षी के रूप में रहनेवाली आत्मा ही स्वयं मैं का एहसास कर सकते हैं।वह एहसास कर सकता है कि अपने शरीर और संसार अस्थिर संकल्प मात्र है। वैसे जो स्वयं आत्मा है का दृढता से एहसास करता है, उसको कोई समस्या न होगी। कोई समस्या उस पर प्रभाव न डालेगा। वह शांत गंभीर रहेगा। अपने विरुद्ध आनेवाले अपने आप नाश होने के दृश्य को  वहखुद देख सकता है।  उसके लिए शांति और सन्नाटा सहोदर होते हैं। वह किसी भी प्रकार की इच्छा  के रहित रहेगा।  उसमें रागद्वेष और भेद बुद्धि न रहेंगे। । वह  सर्वस्वतंत्र है। शांति की संपत्तिवाला है। उससे प्रेम सागर उमडकर आएगा। वह परमानंद सागर बनकर स्थिर रहेगा। कारण वह परमात्मा को पूर्ण रूप से साक्षात्कार करने वाले के रूप में बदलेगा। कारण परमात्मा का स्वस्वरूप कामधेनु होगा। वह कल्पवृक्ष होगा। वह अक्ष्य पात्र होगा।

4459. एक चित्रकार सफेद कागज़ पर एक दो बिंदु रखकर उसपर पेंसिल से दो-तीन लकीर खींचता है। कुछ ही मिनटों में चित्रकार उन रेखाओं को जंगल के रूप में,नदी के रूप में, आकाश,आकाश में उडनेवाले पक्षी में बदल देता है। जो चित्रकार के चित्र खींचने को देखते हैं, वे सफेद कागज पर ध्यान न देकर चित्र पर ही नज़र चलाते हैं। चित्रकार चाहें तो रबड़ से खींचे चित्र को मिटाकर पुनः नये चित्र खींच सकता है। उन चित्रों पर रंग चढाने पर उन्हें मिटा नहीं सकता। तब चित्रकार को दूसरा सफेद कागज़ लेना पडेगा। प्रतिबिंब बोध जीवन शुद्ध बोध के बिंब में अर्थात् पवित्र निराकार परमात्मा में अर्थात् नाते -रिश्तों को चित्र खींचने के समान बुद्धि में दर्ज कर लेता है। नाते-रिश्तों सब को सच मानकर मन से उनके रूप न मिटने से नाते-रिश्तों के लिए पुनर्जन्म लेना पडेगा। सत्य जानने तक जारी रहेगा। जो जानता है कि प्रपंच के सभी चराचरों के नाम रूप सब के सब माया है, उस विवेकी के चित्त से प्रपंच रूप सब पूर्ण रूप से मिट जाएगा। साथ ही चित्त निर्मल होगा। तभी एहसास कर सकते हैं कि  सत्यबोध होकर वह सत्य स्वयं है, स्वयं बने सत्य अखंड है।

4460. जो सबसे अर्थात् सभी जीओं के साथ मुस्कुराते हुए प्यार का व्यवहार कर सकता है, उसका मन सदा आत्मा में मग्न होता रहेगा। अर्थात् आत्मा में विलीन होकर आत्मा से मिलता रहेगा। कारण उसको चाहने के लिए उसके सिवा और कोई नहीं है। अर्थात्  वह एहसास कर चुका है कि  वही आत्मा है, आत्मा रूपी वह भोगनेवाले सब वही है। उस एहसास में ही परमानंद विकसित होता है। उस परमानंद को विकसित करनेवाला परमेश्वर ही है। वह परमेश्वर ही आदी-अंत रहित अनंत,अनादि जनन-मरण रहित स्वयंभू परमानंद स्वरूप है।

4461. एक ब्रह्मचारी देश को शासन करते समय  प्रजाएँ ही उनका परिवार है। इसलिए वे अपनी प्रजाओं को अपने परिवार के जैसे परिपालन करेंगे। एक गृहस्थ राज्य को शासन करते समय अपने घर के सबको राजा बनाने की कोशिश करता रहेगा। केवल वही नहीं उनको अपने परिवार पर ही आसक्ति होगी, जनता पर नहीं होगी। इसलिए जनता को निर्णय करना चाहिए कि किसको राजा बनाना चाहिए। जनता निर्णय करते समय धर्म-अधर्म के विवेक से चुनने न जानने से ही देश में अराजकत्व  का प्रचलन होता है। इसलिए शांति पूर्ण जीवन जीने को चाहनेवाले को सत्य शास्त्र उत्पन्न देश का निर्माण करना चाहिए। तभी जनता सभी प्रकार के दुखों से निवृत्ति पाकर  आनंद भोग सकते हैं।

4462. हर एक देश में और राज्य में लाखों और करोडों लोग जी रहे हैं। एक राज्य के राजा को विवेक नहीं तो जिस देश का राजा विवेकी है,जय-पराजय के कारण जानता है, वह विवेकहीन राजा और राज्य को अपने नियंत्रण में रख लेगा। वैसे नियंत्रण में रखने पर सज्जन और दुर्जनों के कारण अनेक निरपराधियों के प्राण पखेरू उड जाएँगे। उसके कारण की खोज करते समय सद्कर्म और दुष्कर्म की समस्या नहीं है, ज्ञान की समस्या ही है। ज्ञान माने प्रपंच सत्य है। वह ज्ञान अखंड बोध स्वरूप है। अर्थात परमात्मा है। वही परब्रह्म है। वह परब्रह्म सर्वत्र सर्वव्यापी होते हैं। सर्वव्यापी ज्ञान ही मैं है, जिसको एहास होता है, उसकी दृष्टि में अन्य कोई नहीं है। अन्य दृष्टि रहित जिसमें अखंड आत्मबोध होता है,वह अपनी शक्ति के द्वारा अपने में से उमडकर देखनेवाले ब्रह्मांड को और उसमें रहनेवाले जीवों  को अपने से अन्य रूप में न देखने से उनपर अज्ञान का असर न पडेगा। उनका विवेक नष्ट न होगा,वह अविवेकी न बनेगा। विवेक नष्ट न होकर स्वस्वरूप स्मरण में रहकर जो कोई  अपनी शक्ति माया बनाकर दिखानेवाली भेबुद्धि और राग द्वेषों के नाटकों के इंद्रजाल दृश्यों में  मन लगाये बिना रहता है, वह संसार के सब प्रकार  के दुश्मनों को जीत सकता  है । जिस राज्य में आत्मज्ञानी शासन करते हैं, वहाँ प्रजाएँ संग्राम, कलह आदि दुरितों का अनुभव न करेंगे। जहाँ आत्मबोध रहित अहंकारी शासन करते हैं,वहाँ की प्रजाएँ और राज्य नाश हो जाएँगे। वैसे राज्य की प्रजाएँ दरिद्र और दुख का अनुभव करेंगे। यहाँ एक अखंडबोध मात्र ही है। बाकी सब बोधशक्ति महामाया बनाकर दिखानेवाले इंद्रजालिक भ्रमात्मक दृश्य ही है।

4463. सत्य की खोज करते समय यह एहसास करना चाहिए कि  प्रपंच सत्य मैं ही हूँ। उसके बाद समझ लेना चाहिए कि अपना यथार्थ  स्वरूप निराकार परमात्मा है। यह भी समझ लेना चाहिए कि यही आत्मा ही परम ज्ञान, निश्चल निर्विकार ब्रह्म है। यह भी समझ लेना चाहिए कि वह ब्रह्म ही अखंडबोध है,  मैं है का अनुभव है। साथ ही शरीर से संकुचित प्रतिबिंब बोध जीव जीव भाव   तजकर   बिंब रूप अखंडबोध स्थिति पाएगा। साथ ही समझ सकता है कि हर एक जीव भोगनेवाला आनंद अखंडबोध परमात्मा का है। भेद बुद्धि और रागद्वेष की माया पर्दा हटानेवाले जीव ही यथार्थ स्वरूप अखंडबोध का स्वभाव परमानंद को स्वयं निरुपाधिक रूप में अनुभव कर सकते हैं।

4464. भगवान अर्थात्  परमात्मा अपनी शक्ति माया को प्रकट करना ही सृष्टि की लीला है। सृष्टि में मनुष्य को उसके बारे में जानने के लिए अर्थात् अर्थात् आत्मबोध प्राप्त करने, जीव के यथार्थ स्वरूप को समझाने के लिए उपनिषदों में मनुष्य को समझने के लिए अनेक उदाहरण दिये गए हैं।विवेकी उन उदाहरणों से स्वस्वरूप को जान समझकर दुख निवृत्ति होनेवाले मोक्ष पद जाकर परमानंद का अनुभव करते हैं। इसलिए  समझ सकते हैं  कि नींदजीव विवेक के साथ जीव रूपी अपने की खोज करते देखते समय  नींद में शारीरिक भाव न होने पर भी परमानंद स्वरूपी आत्मा अर्थात् सत्य अर्थात् बोध समझकर ही रहता है। यह भी महसूस कर सकते हैं कि वह सत्य अर्थात् जन्म मरण रहित परमानंद नित्य वस्तु है। उस परमानंद वस्तु आत्मा को आत्मशक्ति अंधकार रूप में मन के रूप में आकर गहरी नींद में छिपा देने से नींद में जीव का यथार्थ स्वरूप आनंद अनजान हो जाता है। इसका एहसास करते समय सुसुप्तावस्था में अनुभव किये आत्म सुख को जीव की याद में ला सकते हैं।  सुसुप्ति में अनुभव किए जीव आत्मा आनंद को जागृतावस्था में भोगना चाहिए तो जागृतावस्था में सांसारिक व्यवहार चलाते समय हर एक विचार को  कम करते करते  आत्मा के महत्व और संसार के निस्सारता को पुनः पुनः याद में लाकर उसको इच्छा रहित आदमी बनाना चाहिए।  तभी आत्मा को पूर्ण अज्ञान से मुक्त हो सकता है। साथ ही काल-देश के पार जागृत,स्वप्न और सुसुप्तियों को पार करके जीव जीवभाव भूलकर, नित्य निर्मल अखंड बोध स्थिति पाकर परमानंद को भोग सकते हैं।

4465. भौतिक जीवन को चलानेवाले सदा दुखी रहते हैं। मैं भौतिक जीव नहीं है,  आध्यात्मिक जीव कहनेवाले अहंकारी, यथार्थ सत्य से अपरिचित आदमी, ईश्वर मात्र है कहनेवाला,मैं मात्र हूँ कहनेवाला, , यथार्थ से अनजान आध्यात्मिक वादी  आदि सब के सब सदा दूसरी रीति में दुखी रहते हैं। इसलिए इस प्रपंच को, आत्मा को एक साथ जानना चाहिए। प्रपंच भर को  बोध से भरना चाहिए। तभी ज्ञान की पूर्णता होगी। अर्थात् मैं नामक बोध से आश्रित होकर ही सब स्थिर रहता है। अर्थात्  मैं बोध है, वह बोध अखंड है, सर्वव्यापी है, यह समझने के साथ बोधा भिन्न एक नाम रूप को अर्थात् एक माया को स्थिर खडा रह नहीं सकता। अर्थात् बोधाभिन्न जगत्.अखंड बोध मात्र परमानंद स्वरूप के रूप में, निश्चल अमृत सागर के रूप में, अनंत रूप में, अनादी रूप में, नित्य सत्य रूप में चमकते रहते हैं। बोध से मिले बिना एक जीव,एक जिंदगी कभी नहीं है।

Sunday, August 10, 2025

संघर्ष जीवन में

 जीवन के संघर्ष।

एस. अनंत कृष्णन, चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक 

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 जीवन में संघर्ष 

राजा हो या रंक

 करना ही पड़ता है।

 राजा देश की सुरक्षा के लिए,

 देश की सुभीक्षा के लिए,

 अपनी वीरता बनाये रखने के लिए 

 नागरिकों की माँगें पूरी करने के लिए,

 संघर्ष करता रहता है।

 रंक अपने पेट भरने के लिए 

 कठोर मेहनत करता है।

अन्नदाता किसान के संघर्ष,

अहर्निशम के  कठोर परिश्रम के बाद,

 फसल को कीड़े मकोड़े 

‌चिडिया,चूहा, पक्षियों है 

बचाने,

अच्छे मूल्य बेचने

 अतिवृष्टि, अनावृष्टि,आदि

 प्राकृतिक कोप  ,

 इन सबके संघर्ष।

जीवन के संघर्ष

खासकर मानव जीवन में,

संघर्ष  विविध।

 गर्भ धारण से

 बच्चे का जन्म लेने तक 

का संघर्ष,प्रसव वेदना।

 बच्चे के रुप,आकार, गुण

 प्रतिभा, बुद्धिमत्ता कै

 विकास करने का संघर्ष।

 विद्यार्जन का संघर्ष,

 कला अर्जन का संघर्ष।

धन कमाने का संघर्ष।

  शादी के बाद का संघर्ष।

 गुणवान पति ने मिलने का संघर्ष।

 गुणवती पत्नी न मिलने का संघर्ष।

 संतान पालन का संघर्ष।

सुपुत्र कुपुत्र प्रतिभाशाली मंदबुद्धि, जन्मजात रोग,

 भाई-बहनों के संघर्ष।

 संपत्ति जोड़ने से संघर्ष।

संपत्ति न होने से संघर्ष।

साध्य असाध्य 

 रोग के संघर्ष।

आर्थिक संघर्ष,

 मानसिक संघर्ष।

 शारीरिक संघर्ष।

 अड़ोस-पड़ोस के संघर्ष।

   भ्रष्टाचारियों के कारण,

रिश्वतखोरों के कारण,

आतंकवादियों के कारण 

 चोर डाकू उचक्कों के कारण संघर्ष।

महँगाई के संघर्ष।

 जीवन के संघर्ष अंत तक।

फिर भी मानव सुखी

दुख सुख की आँखमिचौनी 

के संघर्षों का खेल है  जीवन।

एस.अनंतकृष्णन,










Saturday, August 9, 2025

जीवन कैसे

 जीवन का संतुलन 

एस.अनंतकृष्णन, चेन्नई,

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 जीवन का संतुलन 

 खुराक़ में संतुलित

   भोजन -सा ,

व्यवहार में संतुलन

 अति आवश्यक है।

परिमाण से ज़्यादा होने पर अमृत भी होगा विषय।।

 लोभ अति लोभ

 कभी न देता संतोष।

 काम को दबाना है,

 नहीं तो बदनाम होगा ही।

क्रोध भी संतुलित होना है।

 नव रर्सों के राजा श्रृंगार,

 वह नियंत्रण में न हो तो

इंद्र समान बदनाम होगा ही।

 भय असत्य काम से होना है, 

 भय जीवन की 

तरक्की में  बाधा।

कसरत भी संतुलित  होना है।

 जीवन असंतुलन होने पर

 मानसिक , शारीरिक, आर्थिक असंतुलन होगा ही।

 संतुलन जीवन में चाहिए,

 भोजन में, बोली में,

 व्यवहार में।

 अति प्रिय, अति संपत्ति।

 अहंकार  न देगा सुख।

Tuesday, August 5, 2025

बोली का महत्व शब्द शक्ति

 शब्द शक्ति 

एस.अनंतकृष्णन।

शब्द शक्ति न तो

 निरर्थक शब्दों से

 भावाभिव्यक्ति 

  असंभव।।

कल कल नदी बहती

 कल वर्षा होगी

 दोनों में  कल-कल 

 निरर्थक में भी आनंद।

 शब्द शक्ति 

अनुप्रास  में 

 श्लेष में 

 यमक में 

काक वक्रोक्ति में 

 उपमा में

 अलंकार के विभिन्न भेदों में  कितना महत्व।।

 व्याज स्तुति का 

अपना महत्व।

कठोर शब्दों से दुश्मनी,

 मधुर शब्दों में दोस्ती।

 बुद्ध की जीवनी में 

 अहंकारी अमीर  बुद्ध भिक्षू बना।

नानक के उपदेश से

 निर्दयी डाकू  दयालू बना।

 अंगुलिमाल डाकु बुद्ध भिक्षु बना।

 कामांध राजा जनता को भूल  अंतःपुर में ही

रहा तो  बिहिरी के दोहे ने

जागृति लायी।

नहिं परागु नहिं मधुर मधु, नहिं बिकासु इहिं काल।

अली कली ही सौं बंध्यौ, आगैं कौन हवाल॥

 यही शब्द शक्ति।

 कबीर का दोहा

 शब्द शक्ति पर ज़ोर देता है

 मधुर वचन है औषधी,कटुक वचन है तीर।

 तमिल के विश्वविख्यात कवि वल्लुवर ने कहा है,

 आग के जलन का गांव भर जाएगा,

 जीभ से निकले कठोर शब्द का गांव कभी न भरेगा।

मन में सदा चुभता रहेगा।

 



 





 



  



Monday, August 4, 2025

धूम्रपान

 धूम्रपान निषेध।

एस. अनंत कृष्णन, चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक 

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तबीयत बिगड जाएगी,

 फेफड़ों की हानियां होंगी।

 विज्ञापन के साथ 

 बिक्री की अनुमति।।

 बस में,रेल में धूम्रपान मना है।

 फिर भी बिक्री की अनुमति।

 कारण सिगरट फेक्ट्री,

उसके मालिक,

 उसके कर्मचारी,

 उनके परिवार सबके 

जीविकोपार्जन के साधन।

 इतना ही नहीं ,

 उनको बेचनेवाले 

 फुटपाथ के व्यापारी से

बड़े या पारी तक की आमदनी का साधन।

यों ही मधुशाला,

 पीने से परिवार की हानियाँ,

 न पीने से सरकार की आमदनी में घाटा।

आमदनी के आधार पर

 जनता की तबीयत बिगाड़ने वाली

 नशीली वस्तुओं  की

 बिक्री,

 दूसरा तर्क है,

न अनुमति देने पर

 काले बाज़ार में 

 अवैध बिकेंगे।

 पुलिस और अन्य अधिकारी मालामाल बन जाएँगे।

 सरकार तो धूम्रपान मना है, विज्ञापन भी देती है।

 फिर भी पीते हैं,

धुएँ का मजा उड़ाते हैं तो

 दोष सरकार का नहीं,

 पियक्कड़ों का।

 एक पंखा संन्यासी 

 धूम्रपान करता तो

 उसके कान से,

नाक से,उसके कुत्ते से

 धुएँ आती।

 उनके भक्त और विश्वस्त सहयोगी द्वारा एक प्रदर्शनी।

 लोगों की भीड़।

 जय हो संन्यासी।

 भविष्यवाणी कहनेवाले,

 मंदिर देवता की खुश करने 

 भेंट चढाया करते।

 जय हो सरकार भी चुप,

 भक्ति में भावावेश।

पर धूम्रपान निषेध।

फेफड़ों की हानियाँ।

 सावधान।

Sunday, August 3, 2025

मित्रता

 राष्ट्रीय मित्रता दिवस

एस. अनंत कृष्णन, चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक।

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 राष्ट्रीय मित्रता दिवस 

 क्षेत्रीय नहीं,

स्थानीय मित्रों से मिल सकते हैं

मोबाइल आने के पहले

 कलम दोस्ती।

 आज अंतरराष्ट्रीय 

  स्तर पर दोस्ती,

 अंतर्जाल द्वारा।

 हस्त दूरभाष द्वारा।

दूरस्थ मित्र,

 निकटस्थ मित्र,

घनिष्ठ मित्र।

  राष्ट्रीय स्तर पर मित्र।

   रेलयात्रा के मित्र,

 तीर्थ स्थान के मित्र।

इनमें घनिष्ठ मित्र ही

 समय पर काम आएँगे

 वे  ही स्थानीय मित्र।।

 राष्ट्रीय मित्रता मनोरंजन के लिए।

अंतर्जाल द्वारा बातें करने के लिए।

 तमिल के विश्वविख्यात 

 हमारे प्रधानमंत्री  सम्माननीय,

 मोदीजी द्वारा विदेश में भी

 तारीफ़ के पात्र बने,

 संत तिरुवल्लुवर का तिरुक्कुरल।

 उसमें मित्रता संबंधित 

 दस तिरुक्कुरल यों है

 उसका भावार्थ समझिए।

 मित्रता जैसे अपूर्व कर्म 

और कोई नहीं है,

 उसके समान संरक्षक कोई नहीं है।

अच्छों की मित्रता कृष्ण पक्ष के बाद के चंद्रमा के समान 

 दिन दिन बढ़ता रहेगा।

 पूर्ण चाँद बनेगा।।

बुरों की मित्रता शुक्ल पक्ष 

चाँद के समान घटकर अंधकार बनेगा।

अच्छी मित्रता मधुर दिव्य ग्रंथ  के समान मधुर रहेगी।

मित्रता केवल प्रेम 

करने के लिए नहीं,

 उनके बुरे कर्मो को देखकर 

‌निंदा करने के लिए भी है।

अच्छी मित्रता केवल

 घनिष्ठता में नहीं है, 

 विचारों की एकता में है।

 मित्रता चेहरे की 

मुस्कुराहट में नहीं ,

गहरे दिल से होनी चाहिए।।

सच्ची मित्रता दोस्तों के कष्ट के समय साथ देने में है।

 कमर से धोती  के गिरने पर

 हाथ फ़ौरन उसे पकड़कर 

 मान बचाएगा। 

वैसे ही सच्चा मित्र तुरंत मान की रक्षा करेगा।

सच्ची मित्रता में  भेद भाव न रहेगा।

 











 


स्वतंत्रता दिवस

 नमस्ते वणक्कम्।

स्वतंत्रता दिवस।



देश में हम स्वतंत्र है,

 स्वतंत्रता दिवस मनाते हैं,

 इसका मतलब हम गुलाम थे।

गुलामी से आजा़द मिलना

 आसान नहीं।

 भारत भूमि सर्वसंपन्न भूमि,

 प्राकृतिक रक्षक चारों ओर।

 उत्तर में उत्तुंग शिखर के

 हिमालय, पूरब, दक्षिण, पश्चिम में सागर।

 जीव नदियाँ,

 न अनाजों की कमी,

 बारह मासों में

  सभी मौसमों का मज़ा।

ऐसे स्वर्ग भूमि जग में नहीं।

भारत को लूटने आये

 मंगोल, मुगल, फ्रांसीसी, अंग्रेज़ी, डच, ग्रीक

 ज्ञानार्जन के लिए आये 

 चीन से,

 नालंदा विश्वविद्यालय,

 दक्षशिला विश्वविद्यालय 

 ऋषि मुनियों की देव भूमि,

 वेद, उपनिषद, पुराण 

 देव भाषा संस्कृत ।

 पर विदेशी आक्रमणकारी,

 लुटेरे 

 हममें एकता न होने से

 आसानी  से‌ शासक बने।

 अंग्रेज़ी शासक 

व्यापारी बनकर आये,

 उनकी नीति से

 अब भी भारतीय चिंतन 

 भारतीय भाषाओं का महत्व

 भारतीयों में हीन।।

 आज़ादी हमने न पाया आसानी से।

 आज़ादी प्राप्त करने

 हजारों लोगों ने

 बहुत कष्ट सहा।।

तन,मन,धन त्यागे।

 फाँसी पर चढ़े।

 उन शहीदों की जीवनियाँ

 हमें पढ़नी चाहिए।

विदेशी कम,पर उनकी सेना में भारतीय अधिक।

 उनके चंद पैसों के लिए,

 पद के लिए,

 उपाधि के लिए 

 सब अंग्रेज़ी सीखने लगे।

भारतीय भाषाओं को

 ज्ञान शून्य समझने लगे।

 स्वतंत्रता संग्राम में 

 देश भक्तों को लाठियों का मार सहना पड़ा।

 जालियांवाला बाग में 

 जनरल टयर ने निर्दयता से

 देश भक्तों को गोलियों से भून डाला।।

 लाला लजपति राय,

बाल गंगाधर तिलक 

 सुभाषचन्द्र बोस 

 महात्मा मोहनदास करमचंद गांधी,

पं.जवाहरलाल नेहरू

 चक्रवर्ती राजगोपालाचारी,

 कामराज,

 अल्लूरी सीतारामय्या

 वीरपांडिय कट्टबोम्मन,

झांसी रानी लक्ष्मीबाई 

 चित्तूर रानी चिन्नम्मा

 चंद्रशेखर आजाद,

 भगतसिंह 

 सुखदेव सिंह,

 कितने बड़े त्यागी,

 आज़ादी की लड़ाई में 

 कष्ट सहे, जेल गये

छद्म वेश में छिपकर रहे।

 परिवार त्यागा,

जेल में  कोल्हू खींचे।

 उन शहीदों की जीवनियाँ

 युवकों को पढ़नी चाहिए।

 देश की एकता 

बनाए रखनी चाहिए।

 राष्ट्रीय शिक्षा,

 राष्ट्रीय भाषाओं पर

 ध्यान देना चाहिए।।

 भारतीय कलाओं  को

 सीखना चाहिए।

 भारतीय संस्कृति, आचार विचार  पर गर्व करना चाहिए।

 हममें एकता सुदृढ़ होनी चाहिए।

 जय भारत। जय हिन्दी, जय भारत की भाषाएँ।

एस.अनंतकृष्णन, चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी  प्रचारक द्वारा स्वरचित भावाभिव्यक्ति रचना

समुद्र खोज

 समुद्र मंथन

 एस. अनंतकृष्णन।

 मंथन का अर्थ खोजें 

 अनुशीलन अनुसंधान अन्वेषण।

 समुद्र मंथन देव -असुर

 की कहानी सर्व विदित है।

आधुनिक काल में समुद्र मंथन  नयी खोज।

 प्राचीन पौराणिक कथाओं के सत्य प्रमाण।

 समुद्र प्रकोप से डूबे शहर।

 डूबे मंदिरों के अवशेष।

 डूबे जहाजों के अवशेष।

 ढेर सारे स्वर्ण भरे जहाज।

 ऐतिहासिक प्रमाण सत्य।

 द्वारका पुरी का अवशेष।

 आसेतु हिमाचल में

 राम सेतु का प्रमाण।

 गोताखोरों का मोती बटोरना।

 रंग-बिरंगी मछलियों का पता।

 चमकती  विभिन्न जीवों का पता।

 दायरे फेर शंख

 बहू मूल्य शंखों का पता।

 समुद्र मंथन में कितने अद्भुत  वस्तुओं और जंतुओं का पता।

 गिरे विमानों के अवशेष।

 आधुनिक वैज्ञानिक ज्ञान 

 समुद्र मंथन में अपूर्व कला।

 कूर्मावतार भी समुद्र मंथन ।

 कितने अमूल्य रत्नों का पता चला।

 अमृत भरा समुद्र ,

 विष भरा समुद्र।

 आदमखोर भयंकर मगर मच्छ।

   द्वि दारु मछली तेल।

 समुद्र मंथन से बहुमूल्य वस्तुएँ।

 नये नये द्वीपों का पता।

 समुद्र मंथन अति उपयोगी।