4435. अंधकार से बाहर न आने पर प्रकाश के बारे में जान नहीं सकते। सूर्योदय होने पर अंधकार जैसे मिट जाता है,
वैसे ही आत्म सूर्य उदय होते समय अर्थात् आत्म बोध होते समय अर्थात् मैं बोधात्मा बना है का एहसास करते समय मनोमाया छिप जाएगा। इस सवाल का जवाब न मिलेगा कि जीव जीव संकल्प भाव से बाहर न आकर मैं, मेरा के अभिमान न छोडकर यात्रा करके पूछेगा कि मैं कहाँ से आया हूँ। उस सवाल के जवाब मिलने के लिए बाह्य दृश्यों की ओर न जाकर जीव को अहं की ओर जाने को सिखाना चाहिए। आत्मा की ओर ध्यान देने से ही जीव या मन रहित जान सकते हैं। प्रतिबिंब जीव बिंब आत्मा को समझते समय ही मालूम होगा कि मैं प्रतिबिंब नहीं है, बिंब रूप परमात्मा है। आदी में मैं नामक अखंडबोध मात्र ही बना रहा। अखंडबोध में मैं नहीं है। मैं होने से ही कह सकते हैं कि अखंडबोध मात्र है। अखंड बोध से ही मैं मैं नामक अहंकार उमडकर आता है। वास्तव में मैं बनकर आता नहीं है।मैं बनकर आने-सा लगता है। मैं बनकर आने के कारण बोध शक्ति चित्त ही है। वही माया है। उस माया चित्त में अखंडबोध प्रतिबिंबित सा लगने के साथ बोध अखंड को भूल जाता है। अखंड को भूलकर प्रतिबिंब बोध में बदलता है। साथ ही जीव भाव प्रकट होता है। वह जीव मैं नामक शब्द के साथ अहंकारी बनकर प्राण, मन,अंतःकरण रूप,रस,गंध,स्पर्श, शब्द ,काम,क्रोध,मद,मात्सर्य आदि मनोविकारों के साथ पंचभूतों में बढकर ब्रह्मांडों को बनाते रहते हैं। अर्थात् निश्चलन बोध में एक प्राण स्पंदन अर्थात् चलन होने-सा लगता है। हर एक चलन अनेक जड दृश्यों को अर्थात् ब्रह्मांडों को बनाते रहते हैं। ये सब परस्पर अन्योन्याश्रित हैं। यह प्रश्न अनादी काल से उठता रहता है कि पहले अंडा उत्पन्न हुआ या मुर्गी उत्पन्न हुई । ये दोनों भूमि में ही उत्पन्न हुई। इन दोनों के मूल कारण भूमि है। इस भूमि के दो भावों में ही मुर्गी और अंडा है। स्वर्ण आभूषण बनते समय आभूषणों के मूल कारण स्वर्ण ही है। मिट्टी की मूर्तियाँ अनेक होने पर भी उनके मूल कारण मिट्टी ही है। मूल कारण को माया शक्ति नाम रूप में विभाजन उत्पन्न करता है। मूल कारण से अन्य नहीं है कार्य बने अन्य रूप। लेकिन नाम और रूप में कारण होते हैं। कारण रहित नाम और रूप नहीं है। वैसे देखते समय नामरूप कारण से अन्य एक नयी वस्तु को बनाते नहीं है। तब समझ सकते हैं कि वे नहीं है। साथ ही नाम रूप अस्थिर होंगे। अस्थिर नाम रूप ही माया है। अर्थात् परस्पर आश्रित जड वस्तुएँ सब बनकर मिट जाने से वे सब नहीं के बराबर है। अर्थात् काल से आश्रित देश,देश से आश्रित काल, दोनों से आश्रित जड वस्तुएँ, आकाश से आश्रित वायु,वायु से आश्रित अग्नि,वैसेे ही दृश्य रूप सब एक दूसरे से आश्रित ही हैं। इसलिए सभी जड वस्तुएँ अस्वतंत्र है। जड वस्तु का एक भाग ही है मैं नामक अहंकार । सत्य में मैं और जडवस्तु सब माया ही है। अखंडबोध मात्र निश्चलन परमानंद सागर रूप में नित्य सत्य रूप में अनादी काल स प्रकाश देते रहते हैं।4436. स्वभाव से ही मनुष्य की पंचेंद्रियाँ बहिर्मुखी रूप में ही जा रही हैं। इसलिए मन का, प्राण का अर्थात् पंचभूतों की उत्पत्ति स्थान की खोज करके जानते नहीं है, यही नहीं पंचेंद्रियाँ दिखानेवाले विषय रूपों में बेहोश होकर ही भ्रम में रहता है।
अर्थात् पंचभूत प्रपंच कई वर्णों में जीव को भ्रम भ्रम में डालने का भ्रम होता ही रहता है। इसलिए प्रतिबिंब बोध जीव भाव होगा। शारीरिक अहंकार की शक्ति बढाएगी। उस अहंकार को ही मैं, मेरा है के कर्तृत्व और भोगतृत्व अभिमान अधिक होता है। मैंने ही किया है, मैंने ही भोगा है का मिथ्या अभिमान बढता है। साथ ही भेदबुद्धि और रागद्वेष के साथ कर्म की इच्छा होगी। उसके द्वारा कर्मबंधन,उसके कर्म फल बंधन से स्वतंत्र रहित इच्छाएँ पूर्ण करने शरीर असहयोग हो जाएगा। इसके कारण मानसिक तनाव और नाना प्रकार के रोग के कारण दुख बढेगा तब इच्छाएँ मिट जाएँगी। तभी मन,शरीर और प्राण को एहसास होगा कि स्वयं स्थिर खडा रह नहीं सकते। साथ ही जड के मिथ्या तत्व मालूम होगा। तब एहसास होगा कि स्वयं शरीर नहीं है, स्वयं आत्मा है,अखंडबोध है। तब बोध के स्वभाव नित्य शांति. नित्य आनंद को सहज रूप में भोग सकते हैं। तब प्रपंच के दुख उस पर प्रभाव न डालेगा।
4437. जो कोई अंतर्मुखी से स्वआत्मा का शब्द मैं है के अनुभव को अपने यथार्थ स्वरूप समझकर , अपने शरीर को बोधा अनुभव को छिपानेवाले पर्दा जानकर ,बोध स्मरण से,शरीर रूपी पर्दा हटाकर, जीवात्म बोध को सीमित बोध को परमात्म असीमित बोध के रूप में साक्षात्कार करता है, अखंडबोध के रूप में साक्षात्कार करता है, ईश्वर के रूप में साक्षात्कार करता है, अखंड ब्रह्म के रूप में साक्षात्कार करता है, तभी समझ सकता है कि शरीर और सांसारिक दृश्य बोध में दीखनेवाला ब्रह्म है, वह भ्रम रूपी नाम रूप प्रपंच, उसमें रहनेवाले जीव रूप, सकलचराचर मैं है को अनुभव करनेवाले अखंडबोध सत्य से ही उदय होकर दीखनेवाले दृश्य है। वह दृश्य बोध में लगनेवाला भ्रम मात्र है। यह शास्त्र सत्य है कि मैं नामक निश्चल अखंड बोध में कोई चलन न हो सकता। इसलिए उस निश्चलन बोध में दीखनेवाले चलन प्रपंच ,शरीर,शरीर देखनेवाले प्रपंच दृश्य, न होने के लिए अपने यथार्थ स्वरूप अखंडबोध स्मरण से एक क्षण भी हटे बिना रहना चाहिए। तभी मनोमाया पर्दा हटेगा। तभी एहसास होगा कि बोध रूप परमात्मा बने स्वयं मात्र है। उस स्थिति में बोध में दीखनेवाले सब में सिवा बोध के किसी रूप के दर्शन नहीं कर सकता। तभी बोधाभिन्न जगत के अद्वैत सत्य को वह साक्षात्कार कर सकता है।
4438. जैसे एक ही बिजली सभी बल्बों को जलाती है, वैसे ही एक अखंडबोध बोधा शक्ति माया बनाकर दिखानेवाले सभी जीवों और रूपों को प्रकाशित करती है। हर एक बल्ब को जैसे प्रत्येक बिजली नहीं है,वैसे ही हर एक जीव को अलग-अलग बोध नहीं है। हृदय में रहनेाली आत्मा ही यथार्थ मैं है। वह यथार्थ मैं रूपी आत्म स्वभाव अनंत आनंद पूर्ण है। उस नित्य आनंद को अज्ञान रूपी माया चित्त ही है। उस चित्त में प्रतिबिंबित प्रतिबिंब बोध बने जीव के द्वारा ही भेद बुद्धि और राग द्वेष होता है। इसलिए भेद बुद्धि और रागद्वेष के चित्त मलों को आत्म बोध स्मरण से मिटाकर शुद्ध करने के लिए दो मार्ग होते हैं।
यह जानकर समझ लेना चाहिए कि एक चित्त रूपी सूक्ष्म जड तीनों कालों में बोध में बना नहीं है और बना नहीं सकता की भावना को बढाता रहना चाहिए। दूसरा मार्ग है कि आत्मा रूपी मैं सर्वव्यापी है, अर्थात् अखंडबोध है, अखंडबोध बने अपने से मिले बिना दूसरी एक वस्तु कहीं नहीं हो सकता। इस बात को भी एहसास करना चाहिए कि अखंड बोध रूपी मैं ही अपनी निश्चलनता को बदले बिना सूर्य,चंद्र,नक्षत्र,काले बादल,आकाश, वायु, अग्नि, नीर, भूमि रूप में एहसास करना चाहिए। अर्थात् यह एहसास करना चाहिए कि संसार में जीनेवाली चींटी से ब्रह्मा तक के बाहर देखनेवाले नाम रूपों में बोध रूपी मैं ही भरा है। इसलिए बोध से मिले बिना एक एक नाम रूप स्थिर नहीं है। वह नाम रूप स्वयं अस्थिर माया है। यह समझ लेना चाहिए कि मैं नामक अखंड बोध मात्र ही है। तभी यह अनुभव होगा कि मैं नामक बोध नहीं तो कुछ भी नहीं है। अर्थात् सर्वव्यापी आकाश जैसे बोध रूप रहने वाला मैं ही अमीबा से त्रिमूर्तियों तक के सभी में भरा रहता है की भावना करके रूप रहित अखंडबोध स्थिति को पाना ही दूसरा मार्ग है। यह भावना ही अद्वैत बुद्धि देती है। अद्वैत् बुदधि के दृढ होते ही भेदबुद्धि और राग द्वेष आदि सारा चित्त मल मिट जाएगा। चित्त बनाये नाम रूपों के नाश के साथ नामरूपों के नाश के साथ चित्त नाश का भी संभव होगा। चित्त नाश के साथ शरीर,संसार,माया भ्रम भी नाश हो जाएँगे। मैं नामक अखंडबोध मात्र स्वयं अनुभव आनंद रूप में अर्थात् परमानंद रूप में, अनंत आनंद रूप में, अनादी रूप में स्थिर रूप में खडा रहता है।
4439. जो सोनेवाला है, वह इस प्रपंच को देखकर रस नहीं ले सकता। सूर्योदय होने पर भी सोनेवाले को इस प्रपंच को देखकर रस नहीं ले सकता। दिन में प्रपंच को देखकर रस लेने सूर्य प्रकाश चाहिए। अंधकार में आँखें खोलने पर भी कुछ नहीं देख सकते। अंधकार में प्रपंच को देखने के लिए बिजली की रोशनी चाहिए। अग्नि की रोशनी चाहिए। सूर्य और अग्नि को देखने के लिए आँखें चाहिए। आँखों की रोशनी के लिए मन चाहिए। बिना मन के आँखों से विषयों को ग्रहण नहीं कर सकते।
मन को प्रकाशित करने मैं है को अनुभव करने आत्मा रूपी बोध चाहिए। मन को जानने का ज्ञान चाहिए। जानने का ज्ञान ही बोध होता है। वह बोध न तो मन,शरीर,सूर्य,चंद्र आदि नहीं है। बोध ही नित्य,सत्य,शाश्वत और आनंद है। वह बोध ही मैं है।
अर्थात् मैं है के अनुभव के साथ निराकार, निश्चलन,अखंड,परमानंद के रूप में शाश्वत रूप में खडा रहता है। अर्थात् अपने यथार्थ स्वरूप परमानंद ही है।
4440. स्वयं देखनेवाले संसार के और शरीर के आधार रहनेवाले अर्थात् परमकारण रहनेवाले मैं है को अनुभव करनेवाली आत्मा ही है। सबको जाननेवाले ज्ञान के रूप में,अर्थात् अधिक जानने कुछ भी नहीं है, परम ज्ञान अर्थात् अखंड बोध के मैं नामक सत्य को मैं नहीं है का अनुभव नहीं कर सकते। किसी को भी यह अनुभव नहीं रहेगा कि मैं नहीं है ।अर्थात् मैं है,मैं का अनुभव निरंतर होता है। नित्य आनंद रुप में है। उस यथार्थ मैं को कोई रूप नहीं है। रूप रहित होने से ही सर्वव्यापी है। सर्वव्यापी मैं नामक अखंडबोध निश्चलन होने से चलन नहीं हो सकता। चलन के बिना कोई कोई कर्म नहीं होगा। वैसे रूप भी नहीं होगा। रूप जो भी हो,मैक्रेस्कोप के द्वारा देखने पर उसमें ऍलक्ट्रानिक्स , प्रोटान, न्यूट्रान चलनशील रहेंगे। लेकिन निश्चलन अखंडबोध में कोई चलन नहीं हो सकता। लेकिन शास्त्र रूप में निश्चलन अखंडबोध में किसी भी काल मं कोई चलन देख नहीं सकता। लेकिन निश्चलन में चलन होने को उपकरणों के द्वारा देख सकते हैं। इन सूक्ष्म चलनों को नग्न नेत्रों से देख नही सकते। शास्त्रों के सत्य के अनुसार स्थूल हो या सूक्ष्म कोई भी चलन निश्चलन अखंडबोध में नहीं हो सकता। लेकिन होने सा लगता है। वैसे लगनेवाले शरीर और संसार के रूप अर्थात् चराचर के सभी रूप तीनों कालों में रहित है। इसका एहसास किये बिना नष्ट हुए परमानंद को पुनः प्राप्त नहीं कर सकते। जीव को जन्म- मरण दुख से बाहर आना है तो
यह यथार्थ ज्ञान बुद्धि में दृढ होना चाहिए कि शरीर और संसार के जड.कर्म, चलन निश्चल बोध में हो नहीं सकता। माया भ्रम लोक से लोक से किनारे पर पहुँचना है तो इस शास्त्रीय रीति को बुद्धि में दृढ बनाना चाहिए कि शरीर और बोध में उत्पन्न नाम रूप बने ही नहीं है। यही सनातन शास्त्र सत्य है। उपनिषद,वेद, गीता आदि भारत का ख़ज़ाना है। वह सभी संसार का खजाना है। ये सनातन सत्य जानने के लिए उपयोगी है । सभी सनात धर्म आचार और अहंब्रह्मास्मी से शुरु हुए महा वाक्यों को स्वयं साक्षात्कार करना ही सभी जीवों का यथार्थ धर्म होता है।
4441. साधारणतः अच्छा- बुरा, पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म, जाति-वर्ण,कुल-गोत्र, देव-देवी ,चींटी से त्री मूर्ति तक सभी नाम रूपों का उत्पत्ति स्थान एक ही एक रूप विशव न ही है। वह चलनशील विश्व मन स्थिर खडे रहने के समान लगना निश्चलन अखंडबोध में ही है। मन बोध है, समझने के साथ मन बनानेवाली सब वस्तुएँ बोध ही हैं। बोध के अखंड में मन अस्थिर हो जाता है। जो मन नहीं है ,मन बनाकर दिखानेवाले सब आकार मृगमरीचिका जैे नहीं के बराबर ही है। भ्रम के सभी रूपों में बोध रहित स्थान को ढूँढते समय ही समझ सकते हैं कि नाम रूप नहीं है, बोध मात्र ही है। साथ ही यह अनुभव होगा कि निराकार अखंडबोध मात्र ही हैं। जिसने बोध का साक्षातकार किया है,उसको यह अनुभव होगा कि बोध से अन्य एक चलन का दृश्य बोध उत्पन्न नहीं होगा। वैसे ही प्राण चलन की उत्पत्ति स्थान बोध रहित किसी स्थान में है तो मालूम होगा कि बोध रहित कोई स्थान नहीं है। इसलिए एहसास कर सकते हैं कि प्राण उदय बोध में बना नहीं है। तब एहसास होगा कि प्राण नहीं है और प्राण बनाये प्रपंच नहीं है। जिसने प्रपंच को अखंड रूप में साक्षात्कार किया है, उसको यह अनुभव होगा कि अखंडबोध से अन्य कोई वस्तु नहीं है। अपूर्णता में ही अन्य विचार होते हैं। अपूर्णा की तलाश में एहसास कर सकते हैं कि पूर्णता मात्र है। बोध के अखंड में अपूर्णता को स्थान नहीं है। सबमें बोध को मात्र दर्शन करके अखंड बोध में रहनेवालों को दूसरा चिंतन कभी नहीं होगा । बोध केंद्रित रहते समय बोध का स्वभाव परमानंद और अनिर्वचनीय शांति और अमृत सागर रूप में निश्चल नित्य रूप में शाश्वत रहेगा।
4442. नवजात शिशु को मालूम नहीं है कि यह प्रपंच माया है। कहने पर भी वे जानते नहीं है। शास्त्र ज्ञान से यह शरीर और संसार माया है, समझने पर भी ,शरीर और संसार को सच मानकर विश्वास करके ही जीते हैं। हमारे देखनेवाले संसार और बंधु यथार्थ ही समझकर जी रहे हैं। वे बुद्धि बल, शारीरिक बल, मनोबल आदि के अहंकार के विश्वास पर जीते हैं। विश्वास विपरीत फल को बनाते समय ही विचार करने लगते हैं। तब नश्वर शरीर और संसार पर भरोसा हटकर आत्मा पर ध्यान करने लगेगा। वैसे ही साधारण मनुष्य के मन को बाहरी दुनिया से आत्मा की ओर ले जा सकते हैं। तब तक मनुष्य अनेक प्रकार के दुखों का पात्र बनेगा। इसलिए यौवन और आरोग्य मिटने के पहले समझ लेना चाहिए कि सत्य क्या है?
4443. भगवान पर भरोसा रखना भगवान को जानने के लिए या ईश्वर की स्थिति को पाने के लिए चाहिए। जो ईश्वर के दर्शन की इच्छा करता है, उसको पहले जानना चाहिए कि शरीर,संसार, मन,बुद्धि, प्राणआदि स्थूल सूक्ष्म जडों से बना है।
या कर्म चलनों से बना है। इन कर्म चलनों को कोई स्वयं स्थिरता नहीं है। एक मनुष्य के मरने पर उस शरीर में बने रहे प्रतिबिंबब रूप अर्थात जीव उस शरीर को छोडकर चला जाएगा। वह मृतशरीर पुरुष हो तो उसकी स्त्री उसके प्यार और मर्यादा भूलकर उसे शव ही कहेगी। जड कभी नहीं कहता कि मैं हूँ। मैं है का अनुभव शरीर का नहीं है, बोध के कारण ही होता है। शरीर के नाश देखकर ही अज्ञानियों को यह बात समझ में आती है। जो शरीर को सत्य मानकर विश्वास करते हैं,वे भी समझ सकते हैं। बोध नहीं तो जड को अस्तित्व ही नहीं है। जड न होने पर भी बोध का अस्तित्व रहेगा। बोध ही भगवान है। बोध नहीं तो प्राण, मन, शरीर, संसार आदि कुछ भी नही है। उसका अर्थ यही है कि शास्त्र पर ईश्वर मैं है को अनुभव करनेवाले अखंडबोध ही है। बोध सर्वव्यापी है। इसलिए बोध से मिले बिना दूसरी एक वस्तु हो नहीं सकती। एक वस्तु उत्पन्न होना है तो चलन चाहिए। बोध या आत्मा निश्चलन होता है। बोध सर्वव्यापी है। इसलिए बोध में दीखनेवाले चलन जो भी हो, वे असत्य है, अनित्य है और भ्रम है। अतः हर एक जीव एक अखंडबोध ही है। समुद्र में दृष्टित बुलबुले जैसै अदृश्य होते हैं, वैसे ही अखंडबोध में दृष्टित अदृश्य होनेवाले सभी शरीर रूप होते हैं। अर्थात् प्रतिबिंब बोध ,प्रति बिंब बने बुलबुलों में बिंब रूपी समुद्र का पानी,जैसे सभी भागों में भरा रहता है, वैसे हर एक प्रतिबिंब के जीवन में बिंब रूपी अखंडबोध भरा रहता है। इसलिए जीव और जीव संकल्प अर्थात् पंचभूत प्रपंच नाम रूप सब त्रिकालों में रहित ही है। वह किसी भी लोक में रहित ही है। मैं नामक अखंडबोध मात्र ही सत्य रूप में होता है। इस शास्त्र को बचपन से ही बच्चों को समझाना चाहिए। वैसे अद्वैत तत्व तत्व बने आत्मज्ञान को सभी पाठशालाओं मेें सिखाते समय ही बच्चों में भेद बुद्धि और राग द्वेष नहीं होगा एक आत्म बुद्धि के साथ सभी जीव परस्पर प्यार कर सकते हैं।
4444. सर्व ब्रह्म मय है। ब्रह्म रहित कोई भी माया नहीं है। क्योंकि दूसरा एक माया है तो ब्रह्म का सर्वव्यापकत्व नहीं रहेगा। ब्रह्म सर्वव्यापी है। लेकिन मैं ब्रह्म हूँ का विश्वास और एहसास जीव नहीं कर सकते। कारण ब्रह्म दुख रहित सब कुछ होनेवाले हैं। ब्रह्म सर्वस्व होते हैं। परमानंद स्वरूप होते हैं। प्रेम से पूर्ण होते हैं। शांति की उपजाऊ भूमि होते हैं। शांति स्वरूप होते हैं। सत्य स्वरूप होते हैं। सर्वतंत्र स्वतंत्र है। ऐसे ही जाने अनजाने ब्रह्म रूपी भगवान पर विश्वास करते हैं। लेकिन जीवात्मा निरंतर दुख से,मानसिक चिंताओं से आँसू बहाकर जीते हैं। इसलिए ईश्वर को सर्वव्यापी देखने से मन इनकार करता है। वैसे लोगों को एक ही जवाब यही है कि स्वप्न में बाघ गले को काटने पर वह दर्द स्वप्न के काटने तक रहेगा। वैसे ही इस संसार को देखने से या अनुभव करने से संसार सत्य नहीं कह सकते हैं। उसकी साक्षी स्वप्न ही है। जागृतावस्था के अनुभव स्वप्न नहीं है को प्रमाणित नहीं कर सकते। वैसे ही मन कैसे बना है? कहाँ से आया है? मन कैसे संकल्प करताा है?
संकल्पित संसार कैसे बना है? इन सवालों को कोई भी युक्ति से प्रमाणित नहीं कर सकते। इसलिए एहसास करना चाहिए कि जागृत अनुभव सब रात में आनेवाले स्वप्न से भिन्न नहीं है। जैसे स्वप्न के अनुभव सत्य नहीं है, वैसे ही जागृतावस्था के अनुभव और दृश्य असत्य ही हैं। उनहें वे ही एहसास कर सकते हैंं जो अज्ञान रूपी निद्रा से बाहर आ चुके हैं। इसलिए समझना चाहिए कि जागृतावस्था में जीव अनुभव करनेवाले दुख सब अज्ञान नद्रा को समझने तक ही है।
4445. जो लोग ईश्वर से साक्षात्कार किये लोक में रहते हैं, वे सब एक ही स्वर में कहेंगे कि भगवान से कोई दूसरी एक अन्य शक्ति कहीं नहीं है। वैसे महात्माओं के द्वारा बताये श्रेष्ठ तत्वों को व्यवहार में ला न सके। इसके कारण लोगों ने सोचा कि जब आराम मिलता है,तब सीख लेंगे। लेकिन जन्म से मृत्यु तक आराम नहीं मिलते। इतना ही नहीं है कि उनके जीवन में निरंतर दुख के सिवा आनंद या शांति स्वप्न में भी साधारण मनुष्य को नहीं मिलता। जो ज्ञान सभी दुखों को मिटाता है, वह ज्ञान आत्मज्ञान ही है। केवल आत्मज्ञान ही इस संसा के दुख सागर पार करने का सहारा है। मनुष्य चाहनेवाले शांति और आनंद बोध स्वरूप परमात्मा का ही है। उस परमत्मा के बारे में जो ज्ञान है, वही आत्मज्ञान है। इसलिए आत्मा को छोडकर इस संसार में जिसको भी चाहे, तब दुख मात्र मिलेगा। आत्मज्ञान मात्र ही अपने यथार्थ स्वरूप परमानंद को देगा। 4456. चींटी से ब्रह्मा तक के सभी जीवराशियों के सभी कर्म आत्म सुख के लिए ही है। धर्म या अधर्म, पाप या पुण्य, जो भी कर्म हो लक्ष्य तो आत्म सुख ही है। दुखी आदमी भी आत्महत्या करने जाता है तो वह भी आत्म सुख के लिए ही है। युद्ध में कोई किसी को मारता है,तो वह भी आत्म सुख के लिए ही है। लेकिन उसको मालूम नहीं है कि वह स्वयं आत्मा नहीं है, आत्मा का स्वभाव ही वह चाहनेवाला परमानंद है। कारण इस जगह में ही आत्मज्ञान का मुख्यत्व है। अर्थात् यह आत्मज्ञान उसको उसको माता-पिता या समाज या अध्यापक द्वारा नहीं मिला है। पुण्यात्माओं के लिए ही मात्र ही जन्म से सत्य खोज मिलेगा। आत्म ज्ञान न होने के कारण पूर्व संकल्प नाते-रिश्ते, वासनामयी माया चित्त ही है। वह वासना चित्त बोधशक्ति माया शून्य से बनाकर दिखानेवाले इंद्रजाल का एक भाग ही है। अर्थात् शरीर और संसार के नाम रूप सब के परमकारण मैं है के अनुभव बनानेवाले अखंडबोध ही है। बोध अखंड होने से चलनशील नहीं है। निश्चलन एक वस्तु से दूसरी एक वस्तु बन न सकता। चलनशील एक वस्तु से ही दूसरी एक वस्तु बन सकता है। लेकिन इस चलन प्रपंच के उत्पत्ति स्थान की खोज करते समय मालूम होगा कि मैं नामक अखंडबोध में दीखनेवाले एक भ्रम मात्र है। कारण मैं नामक अखंडबोध निश्चलन होने से बोध के अखंड में कोई चलन किसी भी काल में हो नहीं सकता।
4457. जीव इसको जानते नहीं है कि इस प्रपंच में हर एक जीव इंद्रियों के द्वारा विषयों को भोगते समय मिलनेवाले छोटे छोटे आनंद अपनी आत्मा के अपने स्वभाव ही है। वे विषयों की उपाधियों से मिले आनंद को अनुभव करने से उनमें ग़लतफ़हमी होती है कि आनंद विषय वासनाओं से मिलता है। एक गीत सुनते समय आनंद मिलता है। लेकिन गाना सुनते समय थोडी देर आत्मा को छिपानेवाला पर्दा मन विस्मरणीय स्थिति में परिवर्तन होने से उन मिनटों में आतमस्वभाव आनंद का अनुभव करता है। गीत के समाप्त होते समय फिर मनोमाय पर्दा आत्मा को छिपाता है। साथ ही आनंद नष्ट होता है। इसीलिए कुछ सोग अक्सर गाना सुनकर आनंद का अनुभव करते हैं। उनको समझना चाहिए कि नाद एक सूक्ष्म जड है। नाद एक ऊर्जा है। उसको आनंद देने की क्षमता नहीं है। आनंद आत्मा बने बोध का स्वभाव मात्र है। वैसे ही लघु सुख काम सुख हो या किसी भी विषयों में आनंद मिले ,वह विषयों से नहीं मिलता। वह विषय माया पर्दा आत्म बोध से परिवर्तन की स्थिति में मिलता है। पूर्ण प्रकाश में अंधकार छिपने के जैसे आत्म वस्तु अर्थात बोध या ब्रह्म को पूर्ण रूप में साक्षात्कार करने के साथ साथ सभी विषय सूर्य के सामने ओस कण नदारद होने के जैसे छिप जाएँगे। तभी परमानंद अपने स्वभाविक नित्य रूप में भोग सकते हैं। अंधकार की उत्पत्ति को खोज नहीं सकते। वह युक्ति रहित प्रतिभास है।इसलिए अज्ञान को माया कहते हैं।
निराकार सर्वव्यापी निश्चल परमात्मा अखंड बोध के सिवा ज्ञान के सिवा सत्य के सिवा दूसरी एक चलन वस्तु कहीं भी नहीं है। सत्य मात्र नित्य शाश्वत है। मैं नहीं तो कुछ भी नहीं है, मैं नहीं तो कुछ भी भोग नहीं सकते। इसलिए मैं स्वयंभू है।
4458. जो मनःसाक्षी के विरोध काम करता है, वह समस्याओं से समस्या की ओर ,दुख से महा दुख की ओर ,नरक से महानरक की ओर,जन्म से विविध जन्म की ओर चलता रहेगा। उसी समय मनःसाक्षी का अनुसरण करके कर्म करनेवाले को मनःसाक्षी के रूप में रहनेवाली आत्मा ही स्वयं मैं का एहसास कर सकते हैं।वह एहसास कर सकता है कि अपने शरीर और संसार अस्थिर संकल्प मात्र है। वैसे जो स्वयं आत्मा है का दृढता से एहसास करता है, उसको कोई समस्या न होगी। कोई समस्या उस पर प्रभाव न डालेगा। वह शांत गंभीर रहेगा। अपने विरुद्ध आनेवाले अपने आप नाश होने के दृश्य को वहखुद देख सकता है। उसके लिए शांति और सन्नाटा सहोदर होते हैं। वह किसी भी प्रकार की इच्छा के रहित रहेगा। उसमें रागद्वेष और भेद बुद्धि न रहेंगे। । वह सर्वस्वतंत्र है। शांति की संपत्तिवाला है। उससे प्रेम सागर उमडकर आएगा। वह परमानंद सागर बनकर स्थिर रहेगा। कारण वह परमात्मा को पूर्ण रूप से साक्षात्कार करने वाले के रूप में बदलेगा। कारण परमात्मा का स्वस्वरूप कामधेनु होगा। वह कल्पवृक्ष होगा। वह अक्ष्य पात्र होगा।
4459. एक चित्रकार सफेद कागज़ पर एक दो बिंदु रखकर उसपर पेंसिल से दो-तीन लकीर खींचता है। कुछ ही मिनटों में चित्रकार उन रेखाओं को जंगल के रूप में,नदी के रूप में, आकाश,आकाश में उडनेवाले पक्षी में बदल देता है। जो चित्रकार के चित्र खींचने को देखते हैं, वे सफेद कागज पर ध्यान न देकर चित्र पर ही नज़र चलाते हैं। चित्रकार चाहें तो रबड़ से खींचे चित्र को मिटाकर पुनः नये चित्र खींच सकता है। उन चित्रों पर रंग चढाने पर उन्हें मिटा नहीं सकता। तब चित्रकार को दूसरा सफेद कागज़ लेना पडेगा। प्रतिबिंब बोध जीवन शुद्ध बोध के बिंब में अर्थात् पवित्र निराकार परमात्मा में अर्थात् नाते -रिश्तों को चित्र खींचने के समान बुद्धि में दर्ज कर लेता है। नाते-रिश्तों सब को सच मानकर मन से उनके रूप न मिटने से नाते-रिश्तों के लिए पुनर्जन्म लेना पडेगा। सत्य जानने तक जारी रहेगा। जो जानता है कि प्रपंच के सभी चराचरों के नाम रूप सब के सब माया है, उस विवेकी के चित्त से प्रपंच रूप सब पूर्ण रूप से मिट जाएगा। साथ ही चित्त निर्मल होगा। तभी एहसास कर सकते हैं कि सत्यबोध होकर वह सत्य स्वयं है, स्वयं बने सत्य अखंड है।
4460. जो सबसे अर्थात् सभी जीओं के साथ मुस्कुराते हुए प्यार का व्यवहार कर सकता है, उसका मन सदा आत्मा में मग्न होता रहेगा। अर्थात् आत्मा में विलीन होकर आत्मा से मिलता रहेगा। कारण उसको चाहने के लिए उसके सिवा और कोई नहीं है। अर्थात् वह एहसास कर चुका है कि वही आत्मा है, आत्मा रूपी वह भोगनेवाले सब वही है। उस एहसास में ही परमानंद विकसित होता है। उस परमानंद को विकसित करनेवाला परमेश्वर ही है। वह परमेश्वर ही आदी-अंत रहित अनंत,अनादि जनन-मरण रहित स्वयंभू परमानंद स्वरूप है।
4461. एक ब्रह्मचारी देश को शासन करते समय प्रजाएँ ही उनका परिवार है। इसलिए वे अपनी प्रजाओं को अपने परिवार के जैसे परिपालन करेंगे। एक गृहस्थ राज्य को शासन करते समय अपने घर के सबको राजा बनाने की कोशिश करता रहेगा। केवल वही नहीं उनको अपने परिवार पर ही आसक्ति होगी, जनता पर नहीं होगी। इसलिए जनता को निर्णय करना चाहिए कि किसको राजा बनाना चाहिए। जनता निर्णय करते समय धर्म-अधर्म के विवेक से चुनने न जानने से ही देश में अराजकत्व का प्रचलन होता है। इसलिए शांति पूर्ण जीवन जीने को चाहनेवाले को सत्य शास्त्र उत्पन्न देश का निर्माण करना चाहिए। तभी जनता सभी प्रकार के दुखों से निवृत्ति पाकर आनंद भोग सकते हैं।
4462. हर एक देश में और राज्य में लाखों और करोडों लोग जी रहे हैं। एक राज्य के राजा को विवेक नहीं तो जिस देश का राजा विवेकी है,जय-पराजय के कारण जानता है, वह विवेकहीन राजा और राज्य को अपने नियंत्रण में रख लेगा। वैसे नियंत्रण में रखने पर सज्जन और दुर्जनों के कारण अनेक निरपराधियों के प्राण पखेरू उड जाएँगे। उसके कारण की खोज करते समय सद्कर्म और दुष्कर्म की समस्या नहीं है, ज्ञान की समस्या ही है। ज्ञान माने प्रपंच सत्य है। वह ज्ञान अखंड बोध स्वरूप है। अर्थात परमात्मा है। वही परब्रह्म है। वह परब्रह्म सर्वत्र सर्वव्यापी होते हैं। सर्वव्यापी ज्ञान ही मैं है, जिसको एहास होता है, उसकी दृष्टि में अन्य कोई नहीं है। अन्य दृष्टि रहित जिसमें अखंड आत्मबोध होता है,वह अपनी शक्ति के द्वारा अपने में से उमडकर देखनेवाले ब्रह्मांड को और उसमें रहनेवाले जीवों को अपने से अन्य रूप में न देखने से उनपर अज्ञान का असर न पडेगा। उनका विवेक नष्ट न होगा,वह अविवेकी न बनेगा। विवेक नष्ट न होकर स्वस्वरूप स्मरण में रहकर जो कोई अपनी शक्ति माया बनाकर दिखानेवाली भेबुद्धि और राग द्वेषों के नाटकों के इंद्रजाल दृश्यों में मन लगाये बिना रहता है, वह संसार के सब प्रकार के दुश्मनों को जीत सकता है । जिस राज्य में आत्मज्ञानी शासन करते हैं, वहाँ प्रजाएँ संग्राम, कलह आदि दुरितों का अनुभव न करेंगे। जहाँ आत्मबोध रहित अहंकारी शासन करते हैं,वहाँ की प्रजाएँ और राज्य नाश हो जाएँगे। वैसे राज्य की प्रजाएँ दरिद्र और दुख का अनुभव करेंगे। यहाँ एक अखंडबोध मात्र ही है। बाकी सब बोधशक्ति महामाया बनाकर दिखानेवाले इंद्रजालिक भ्रमात्मक दृश्य ही है।
4463. सत्य की खोज करते समय यह एहसास करना चाहिए कि प्रपंच सत्य मैं ही हूँ। उसके बाद समझ लेना चाहिए कि अपना यथार्थ स्वरूप निराकार परमात्मा है। यह भी समझ लेना चाहिए कि यही आत्मा ही परम ज्ञान, निश्चल निर्विकार ब्रह्म है। यह भी समझ लेना चाहिए कि वह ब्रह्म ही अखंडबोध है, मैं है का अनुभव है। साथ ही शरीर से संकुचित प्रतिबिंब बोध जीव जीव भाव तजकर बिंब रूप अखंडबोध स्थिति पाएगा। साथ ही समझ सकता है कि हर एक जीव भोगनेवाला आनंद अखंडबोध परमात्मा का है। भेद बुद्धि और रागद्वेष की माया पर्दा हटानेवाले जीव ही यथार्थ स्वरूप अखंडबोध का स्वभाव परमानंद को स्वयं निरुपाधिक रूप में अनुभव कर सकते हैं।
4464. भगवान अर्थात् परमात्मा अपनी शक्ति माया को प्रकट करना ही सृष्टि की लीला है। सृष्टि में मनुष्य को उसके बारे में जानने के लिए अर्थात् अर्थात् आत्मबोध प्राप्त करने, जीव के यथार्थ स्वरूप को समझाने के लिए उपनिषदों में मनुष्य को समझने के लिए अनेक उदाहरण दिये गए हैं।विवेकी उन उदाहरणों से स्वस्वरूप को जान समझकर दुख निवृत्ति होनेवाले मोक्ष पद जाकर परमानंद का अनुभव करते हैं। इसलिए समझ सकते हैं कि नींदजीव विवेक के साथ जीव रूपी अपने की खोज करते देखते समय नींद में शारीरिक भाव न होने पर भी परमानंद स्वरूपी आत्मा अर्थात् सत्य अर्थात् बोध समझकर ही रहता है। यह भी महसूस कर सकते हैं कि वह सत्य अर्थात् जन्म मरण रहित परमानंद नित्य वस्तु है। उस परमानंद वस्तु आत्मा को आत्मशक्ति अंधकार रूप में मन के रूप में आकर गहरी नींद में छिपा देने से नींद में जीव का यथार्थ स्वरूप आनंद अनजान हो जाता है। इसका एहसास करते समय सुसुप्तावस्था में अनुभव किये आत्म सुख को जीव की याद में ला सकते हैं। सुसुप्ति में अनुभव किए जीव आत्मा आनंद को जागृतावस्था में भोगना चाहिए तो जागृतावस्था में सांसारिक व्यवहार चलाते समय हर एक विचार को कम करते करते आत्मा के महत्व और संसार के निस्सारता को पुनः पुनः याद में लाकर उसको इच्छा रहित आदमी बनाना चाहिए। तभी आत्मा को पूर्ण अज्ञान से मुक्त हो सकता है। साथ ही काल-देश के पार जागृत,स्वप्न और सुसुप्तियों को पार करके जीव जीवभाव भूलकर, नित्य निर्मल अखंड बोध स्थिति पाकर परमानंद को भोग सकते हैं।
4465. भौतिक जीवन को चलानेवाले सदा दुखी रहते हैं। मैं भौतिक जीव नहीं है, आध्यात्मिक जीव कहनेवाले अहंकारी, यथार्थ सत्य से अपरिचित आदमी, ईश्वर मात्र है कहनेवाला,मैं मात्र हूँ कहनेवाला, , यथार्थ से अनजान आध्यात्मिक वादी आदि सब के सब सदा दूसरी रीति में दुखी रहते हैं। इसलिए इस प्रपंच को, आत्मा को एक साथ जानना चाहिए। प्रपंच भर को बोध से भरना चाहिए। तभी ज्ञान की पूर्णता होगी। अर्थात् मैं नामक बोध से आश्रित होकर ही सब स्थिर रहता है। अर्थात् मैं बोध है, वह बोध अखंड है, सर्वव्यापी है, यह समझने के साथ बोधा भिन्न एक नाम रूप को अर्थात् एक माया को स्थिर खडा रह नहीं सकता। अर्थात् बोधाभिन्न जगत्.अखंड बोध मात्र परमानंद स्वरूप के रूप में, निश्चल अमृत सागर के रूप में, अनंत रूप में, अनादी रूप में, नित्य सत्य रूप में चमकते रहते हैं। बोध से मिले बिना एक जीव,एक जिंदगी कभी नहीं है।
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