शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन
मनुष्य बहुत कुछ करना चाहता है.
बुद्धि बल से शारीरिक बल से आर्थिक बल से।
क्या वह करने में सफलता पाता है ?
हर एक मनुष्य के मन में एक मानसिक प्रेरणा होती है.
अपने आप एक कौशल वह महसूस करता है।
किसी को गाने में रुची हो तो किसी को सुनने में।
किसी को चित्रकारी में तो किसी को साहित्य में।
किसी को कृषि में तो किसी को विज्ञान में।
किसी को तकनीकी में।
पर आज के समाज में अभिभावक
अपने बच्चे को हर फन मौला बनाना चाहते हैं ,
अपने बेटे या बेटी के सहज ज्ञान जानने के प्रयत्न न करके
अपने मन पसंद पाठ पढ़ने का आग्रह करते हैं।
फलस्वरूप प्रतिभाशाली पुत्र के मन पसंद विषय चुनने नहीं देते.
परंपरागत रीति के शिक्षा नीति प्राचीन भारत में थी.
तब कृषि ,हस्तकला ,बढ़ई गिरी, वास्तुकला ,संगीत ,
जुलाई सब में अति आगे था.
मैं इस बात पर जोर नहीं देता कि
परंपरागत ही करें ,
छात्र की रुची और कौशल जानकर आगे बढ़ने दें.
सिद्धार्थ की रुचि आध्यात्मिक चिंतन थी.
जान कर भी उनके पिता ने राजा बनाने के प्रयत्न में रहे.
पर सिद्धार्थ ने घर त्यागा था.
बुद्ध बनकर एशिया खण्ड के ज्योति बने.
विवेकानन्द के जीवन में भी मोड़ आ गया.
एम.इस.सी प्राणी शास्त्र पढ़कर
बैंक के गुमाश्ता या बैंक मैनेजर बन जाते हैं.
बी.इ। सिविल पढ़कर ऐ। टी। में.
ऐसी शिक्षा प्रणाली में अपने छः साल की उच्च शिक्षा के विषय में
दिमाग लड़ाना कितना कष्टप्रद हो जाता है.
अतः शिक्षा में अनुशासन की कमी हो जाती है.
गुरु-शिष्य का अन्योन्य भाव की कमी हो जाती है.
अतः आज कल की शिक्षा प्रणाली में जड़ मूल परिवर्तन की जरूरत है.
No comments:
Post a Comment