Monday, July 23, 2018

तिरुक्कुरळ--ईर्ष्या


तिरुक्कुरळ--ईर्ष्या 


मनुष्य    को अपने  जीवन  में सुखी रहने  के लिए 
 ईर्ष्या और लोभ  के भाव से बचना चाहिए. 
अनुशासन और अच्छी चाल चलन  के लिए ,
शांत ,संतोष और आनंद पूर्ण जीवन   के लिए 
ईर्ष्या रहित जीवन जीना ही अति उत्तम  है.

 तमिल   के विश्व प्रसिद्ध  ग्रन्थ  तिरुक्कुरल में
संत     कवि  तिरुवल्लुवर  ने" ईर्ष्या "के
दुष्परिणामों  को दस  कुरलों  में 
 विशेष  रूप से  समझाया   है.
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१.   अनुशासन और  चरित्र गठन  में   दृढ़ रहने के लिए 
मनुष्य कोईर्ष्या रहित जीवन  जीना  चाहिए.
 मन में ईर्ष्या को स्थान न देना  चाहिए.
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२.किसीसे ईर्ष्या  न   होकर  जीने  के जैसे
 जीवन - सम और कोई  संतोषप्रद
वस्तु जग में और कुछ नहीं है.
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३.धर्म  कर्म को अनावश्यक जो  मानते  हैं,
 वे अन्य  काम  भी नहीं   कर सकते
 औरकरने की क्षमता  भी  न पाते.
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४. जो चरित्र हीन गुण से आनेवाले
दुःख को  समझते  हैं ,
वे   कभी ईर्ष्या न होंगे. 
   ईर्ष्या से भरे अयोग्य   काम  न  करेंगे.
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५.ईर्ष्यालु को दुःख    बाहर  से  नहीं  आते.
खुद के कर्म और जलन से     आ  जाते  हैं.
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६.ईर्ष्या वश  जो दान 
 देने  को रोकता है,
दान देने नहीं देते , 
    खुद को  ही  नहीं ,
उनके नाते रिश्ते को भी 
 भोजन  मिलते   ,
उन के पास जो कुछ हैं , 
 वे  भी नष्ट  हो  जाते|
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७. जिनमें ईर्ष्या हैं ,
वह जलन ही
अपनी शक्ति से 
उसको   कष्ट मय   बना देगी.
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८. ईर्ष्या एक पाप कर्म ही है,
 वह गुण ही ईर्ष्यालु को कष्ट दे  देगा.
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९.ईर्ष्यालु के  कर्म , ईर्ष्या रहित जीनेवाले  के कर्म
दोनों हमेशा के लिए 
   उल्लेखनीय बन जाएगा.
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१०. ईर्ष्यालु जितना  भी  हो ,
संतोष न होंगे. 
 वे  अपने पास  जो हैं ,
उससे खुश  न   होकर ,
जो  नहीं  हैं ,उसे सोचकर  आजीवन दुखी ही रहेंगे.
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