Saturday, December 30, 2017

स्वतंत्र लेखन

स्वतंत्र लेखन मेरी भाषा, मेरी शैली. 
कितना लिखूँ, सुखांतसुखाय पहले. 
परमार्थ केलिए कैसे मैं कहूँ, 

वह है अपने और परियों की 
अपनी बुद्धि, अपने लाभ, 
भ्रष्टाचार के विरुद्ध लिखूँ, 
उसके समर्थक करते विरोध. 
नास्तिक   का  विरोध करूँ, 
उसके भी समर्थक हैं 
दान धर्म का समर्थन करूँ, 
तब भी विरोध, 
आलसियों की वृद्धि 
राजनैतिक बातें व्यर्थ .
सत्यता बल केवल कहानियों में. 
मातृभाषा माध्यमियों का समर्थन तो
नौकरी की आशा नहीं. 
स्वतंत्र लेखन क्या लिखूँ, 
लिख रहा हूँ निश्चिंत. 
चाहे बनवास कहें, 
चाहे सत्य वचन कहें 
चिंता नहीं किसी की. 
स्वतंत्र चिंतन नहीं, 
समाज में रहता हूँ. 
सामाजिक चिंतन ही बढी.
(स्वरचित )

Tuesday, December 26, 2017

जीवन

जीवन --जी में वन की चाह , वह तो ज्ञान मार्ग .
जीव न चाहता पुनर्जन्म ,वह भी ज्ञान मार्ग .
जी वन में एकांत चाहता है, मतलब
जीवन से ऊब गया है जी.(स्वरचित अनंत कृष्णन.)

अस्थायी जग

अपनी आँखों से उसे दूर जाते देखा है,
शीर्ष क उसे माने क्या?
सुंदर प्रेमी या प्रेमिका या मित्र
मिलने -बिछुड़ जाने कितनी कविताएँ.
मैं जब छोटा था,
मुझे कितनों का प्यार मिला
बडा बना तो उसे दूर होते देखा.
कम कमाई, पर नाते रिश्ते के आना जाना
खुशी से मिलना दुलारना,
उन सब को देखा .
घर छोटा-दिल बड़ा.
अधिक कमाई बडा घर पर
नाते रिश्ते की
आना- जाना ,मिलना- जुलना
सब को
अब बंद होना देखा था.
गुरु जन मुफ्त सिखाते,
अब बोलने के लिए तैयार
पैसे गुरु शिष्य वात्सल्य मिलते देखा.
हर बात हर सेवा, नेताओं का त्याग
सब दूर
कर्तव्यपरायणता सब मिटते
दूर होते दे देख रहा हूँ,
क्या करूँ?
स्वच्छ जल की नदियाँ ,
जल भरे मंदिर के तालाब
उन सबके दूर होते देख रहा हूँ
. क्या करूँ?
अब मेरी जवानी मिट दूर होते देख रहा हूँ.
हृष्ट पृष्ट शरीर में झुर्रियां देख रहा हूँ.
उसे दूर जाते देखा है,
अस्थायी जग में सब के सब दूर जाते देखा है.

सबहीं नचावत राम गोसाई.

हम में हर कोई चाहता है 
सुखी जीवन. 
सुखांत जीवन. 
प्रयत्न हर कोई लगातार 
जारी रखता है,
कोई कामयाबी के शिखर पर
कोई असफलता की घाटी में
कोई संतुष्ट तो कोई असंतुष्ट
को ई धनी, कोई नामी,
कोई दानी, कोई धर्मी,
कोई रूपवान, कोई कुरूप.
अंत में निष्कर्ष यही
सब के नचावत राम गोसाई.

स्थायी कोहरा

स्थाई कोहरा
*×****/***////
जिससे अस्पष्ट
दीख पडता
सब कुछ.
देवालय के,
शिक्षालयों के
न्यायालयों के
न जाने और
सरकारी कार्यालयों में
राजनैतिक नेताओं के
सब के भ्रष्टाचार में
कोहरा स्थाई बन गया है.

ब्रह्मानंद

मन का घोडा, 
अति तेज. 
रोकना रुकाना अति दुर्लभ. 
कितने विचार 
कितनी कल्पना 
कितने हवा महल.
कितनी माया
कितना आकर्षण.
कितना आनंद,
कितनी पीडा.
कितनी आशाएँ
कितनी निराशाएँ.
यह मन होता तो
मनुष्य मन शांत
ब्रह्मानंद.

गाँव का नाला ,बचपन की यादें

पुराणी यादें ,
खेलते निर्भय ,
किसी ने न कहा,
संक्रामक रोग फैलेगा.
किसीने न कहा ,
कीटाणुओं का शिकार बनोगे .
किसीने न कहा
जल प्रढूषण.
आजकल वही गाँव ,
वही नाला,
चालीस साल शहरी वातावरण
पर पैर भिगोने डर लगता है,
उस समय के घासों का सुगंध नहीं ,
नाले में मोरे का गंदा पानी,
नाले की चौडाई कम .
कीचड से भरा,
भारतीय सरकार
ग्राम राज्य को भी
पैसे के लालच में
शहरी वातावरण बना रखा है.
खेतों में अधिकांश
इमारतें ,कारखाने ,
लोभी अंग्रेज़ी माध्यम पाठशालाएं,
केवल स्वार्थ धनियों के लिए.
वे पढ़कर डाक्टर बनते ,
धनलाभ के लालच में ,
जितने शिक्षा दान दिया ,
उतने लूटने.
जितना चुनाव खर्च किया
उतना लूटने.
स्वर्गीय सुख के नालें में