Wednesday, August 24, 2016

याद

सुबह उठा,
  मन उछल मचल ।
  कितना सोचता  है।
   बचपन से अडसठ साल के जीवन में।
क्या पाया, कितना खोया।
कितना न्याय, कितना अन्याय।
अपने लिए याअपने  दोस्तों के लिए।
अपने नातों के लिए, अपने रिश्तों के लिए।
कितना भला ,कितना बुरा।
मुझको कितना न्याय-,अन्याय मिला।
कितनों ने अच्छा किया?
कितना स्वार्थ। कितना निस्वार्थ।
कितनी भक्ति , कितनी सेवा,
कितना दान -कितना धर्म।
  अंत में यही याद,
कबीर की  नसीहत।
बुरा जे देखन मैं गया बुरा न मिलिया कोय।
दूसरा दोहा-  
जो तू को काँटा बुवै, तू उसको बुओ फूल
तुझको फूल ही फूल है,उसको है त्री शूल।
  बिगडी  बातें बनै नहीं ,लाख करै किन होय।
बिगडै माथै दूध को, तिन माते मक्खन होय।
साहित्य में कितनी बातें,  हम न करते याद।
न करते पालन।

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