Saturday, August 27, 2016

मनुष्यता

ईश्वर की लाखों करोडों  सृॉष्टियों में ,

सब को ईश्वर ने दी सुरक्षा की बुद्धी ।

मनुष्य  को तो दी अद्भुत शक्ति।
भले -बुरे गुणों  में ,
सब  अपने को भला ही
प्रदर्शन करना  गौरव मानते ।
  माया भरी संसार में
स्वार्थ, ईर्ष्यालू , असत्य, अहंकारी अति धक।
मनुष्य के कल्याण  एक ही कर सकता है,
बहुत भीड नहीं,
एक  केे सिद्धांत  बहुप्रिय ,लेकप्रिय ।
दृढ अनुयायी उनके वश में।
   कल्याण कारी   समाज को
एक अनुशासित  रूप देकर  चला जाता है।
बाद में  उनके अनुयायियों में
बडे - छोटे के संग्राम।

कौन  हित्चिंतकों में  बडा,
अपने गुरु ,अपने नेता ,अपने अनुसंधान ,
अपने इष्टदेव   से कौन   आगे अगुआ ?
तब कई शाखाएँ, कई लुटेरे, कई चोर ,
परिणाम  अशाश्वत, अस्थिर,  लौकिक इच्छाएँ,
लौकिक माया, मूल को भूल,
  बढने  लगते हैं ।
शाखाएँ काटी जाती हैं,
मूल जड,
नयी शाखाएँ  देने में समर्थ।
जड हम नहीं देखते ।
शाखाएँ हम नहीं देखते ,
फल  मात्र चाहते हैं।
  नये फलों में कितने भेद।
नये फलों  में खट्टे - मीठे, कडुए ,
सडे हुए, बढिया ,घटिया, कीडे-मकोडों से पीडित
वैसे ही मनुषय समाज  बन जाता है।
भगवान एक।
नेता एक।
आविष्कारक एक।
मूल ग्रंथ एक।
पैगंबर एक।
पर   कालांतर में किते परिवर्तन।
कितनी कल्पनाएँ,
कितनी माया ,
कितने जाल ,
कितना प्रवाह।
    कितनी उन्नतियाँ।
    अवनति कितनी ।
      नया रूप,
नयी भाषा ,
नये वस्त्र ,
नये भोजन।
जितना भी हो, पर
ईश्वरीय  न्याय व्यवस्था अपरिवर्तनशील।
हम मूल सिद्धांतों में 
मूल आविष्कार में,
मूल ईश्वरीय शक्ति में
अस्त्र-शस्त्र ,वस्त्र , भाषा,
सब में परिवर्तन लाते हैं।
पर ईश्वरीय परिवर्तन स्थाई ।
जन्म, शिशु, बचपन, लडकपन, जवानी,
प्रौढ, बुढापा, अंग शिथिलता , मृत्यु।
यह याद रखें तो होगा
विश्व में  शांति, संतोष, आनंद -मंगल ।

 


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