सनातन वेद
(5वाँ वेद)
महावाक्य
(बोधाभिन्न जगत)
नित्य चैतन्यमे नित्य संगीतमे,
सप्त स्वर राग अनुभूति ओंकार में
प्रथम नाद प्रणवे
अनंतानंद बोधाकरम्
परमात्म ज्ञान रसानुभूतिं
पवित्रम् परिशुद्ध प्रेम स्वरूपम् प्रणवारत्त मूर्ति
अरुंदति समयत्त श्री वशिष्ट गुरु देवाय नमो नमः
अनुक्रमाणिका
प्रपंच सृष्टि का रहस्य
प्रारंभ में “मैं” का अस्तित्व है । मेरा एक एक शारीरिक रूप है। “मैं” को देखने एक संसार भी है। एक ईश्वरीय शक्ति ने मुझे और इस संसार की सृष्टि की है। ऐसे कहने के पहले ही “मैं” होने से ईश्वरीय ध्वनि मुझसे और उसके पहले मुझसे ही बनी थी। इसलिए “मैं ” की खोज करते समय, अपने में अपरिहार्य स्थिर खडे रहनेवाले ज्ञान रूपी अपने स्वभाव, परमानंद को अपनी शक्ति माया, अपने संकल्प मन, आत्मा रूपी अपनी इच्छा से ही को न जानने के पहले अंधकार रूप में, मनोमाया ने अपने को छिपा दिया। उस उपस्थिति में ”मैं” के स्मरण के साथ “अहं” माया में प्रतिबिंब को देखने अपनी शक्ति दुबारा एक बार छिपा दिया। वह आकाश रूप बन गया। फिर आत्मा स्वस्वरूप स्मरण की कोशिश करने अपनी शक्ति फिर आकाश से एक पर्दा डाल दिया। वह वायु रूप बन गया।फिर अपने स्वरूप को पाने वायु से एक पर्दा डाला। वह अग्नि रूप बन गया। अग्नि से स्वरूप पाने फिर माया ने एक पर्दा डाला। वह पानी बन गया। फिर अपने नष्ट के परमानंद पाने की कोशिश में पानी से परदा डाला तो भूमि बन गयी। उन पंच भूतों के तत्व आकाश,वायु,आग, पानी,भूमि आदि से प्रारंभित जड कर्म चलन रूप में परमानंद स्वभाव रूप परमात्मा बने अखंडबोध अपने को छिपाने से नष्ट हुए आनंद को,स्वतंत्र को फिर-फिर अपनी शक्ति माया अपने को छिपाने से नष्ट हुए आनंद को,स्वतंत्र को पुनः पुनः छिपा देने के इंद्रजाल रूपों से बचाने के प्रयत्न को माया छिपाते रहने विविध प्रकार के पर्दा डालते रहने से वे सब छिपाव सब के सब अमीबा से प्रारंभ होकर विविध रूपों के जीव,पशु-पक्षी,वनस्पति जगत पेड,लता,पौधे आदि के रूपों में माया अपने स्वरूपों को छिपाते रहने के इंद्रजाल स्वरूपों से अपने स्व स्वरुप को बचा लेने अंतःकरणों में प्राण चलन से हर एक रूपों में जीव भावों से स्वस्वरूप को बचा न पाने से अंत में पंचेंदरियों से बने मनुष्य रूप मं सर्वव्यापी परमेश्वर परमत्मा अपने को पुनः छिपा लिया।वैसे मनुष्य रूप में से अपने स्वस्वरूप को पुनःबचाकर ले आने अंतःकण के रूप मन, बुद्धि, चित्त आदि करण के मिलने से उनसे “स्वयं” अपने छिपाये प्राणों में अति सूक्ष्म प्राणन को प्राण की गाँठ मन को उपयोग करके षडाधार पार करके चिताकाश जाकर सहस्र चक्र मार्ग द्वारा जीव रूपी प्राणन खुले मैदान आ सकता है।इस स्थिति को आने के बाद अपनी शक्ति माया दिखाने के पंचभूत पिंजडा मनुष्य रूप से मनुष्य रूपी अपने मन के विकास के कारण देव,ऋषि बनकर स्वस्वरूप अपनी शक्ति द्वारा पुनः प्राप्त कर सकता है। पुनः स्वस्वरूप को विस्मरण करने के लिए उसके अंदर मन संकल्प शक्ति बनकर सूर्य, चंद्र, कई करोड नक्षत्र, आकाश गंगा आदि में ब्रह्मांड में छिपाकर संकल्पों को आज भी बढाते रहते हैं। मनुष्य रूप का यह अहं अपने रूप रहित परमात्म स्थिति को भूलकर इस पंचभूत के शरीर को “मैं” सोचने को विवश कर दिया है।अंतः करण की बुद्धि को उपयोग करके जीव,शरीर और संसार को विवेक से जानने विशेष ज्ञान आत्मज्ञान अर्थात स्वस्वरूप ज्ञान मिला। तब माया बेसहारा हो गई। उसको महसूस हुआ कि उसने कुछ नहीं किया है,आत्मा की इच्छा से ही सब कुछ हुआ है, तब माया का अभिमान और अहंकार मिट गये। साथ ही खंड का यह शरीर जीव भाव भूलकर अखंड बोध परमत्मा परमानंद अनुभव स्वभाव मं स्थिर स्थित हो गया। अपनी शक्ति दिखाये माया,माया इंद्रजाल,दिखाये यह प्रपंच सब रेगिस्तान की मृगमरीचिका जैसे मिथ्या नीर हो गया। वह स्मरण भी न रहा।स्वयं प्रकाश स्वरूप अपने प्रकाश की ज्वाला में माया अंधकार पूर्ण रूप में संपूर्ण प्रकाश में ओझल हो गया।साथ ही निरूपाधिक स्वयं प्रकाश नित्यानंद रूपमें“मैं” नामक सत्य अनंत अनादी बनकर शाश्वत बनकर स्थिर रूप में खडा रहता है।
आत्मस्वरूपोपनिषद (109वाँ)
1. पहले आत्मा के रूप को एहसास करने के लिए आत्म तत्व क्या है? इसकी खोज करनी चाहिए।
2. अंतःकरण में ज्ञान समझानेवाले,स्पष्ट करनेवाली अहमात्म को समझना चाहिए।
3.आत्मजाग्रण के उदय होते ही “मैं” की भावना मिट जाएगी।
4.”मैं” की भावना नष्ट होते ही आत्मा सर्वव्यापी स्थिति पाती है।
5. याद रखिए कि आकाश से सूक्ष्म है आत्मा। वह निराकार होती है।
6.आकाश क्या है? तो आकाश है का ज्ञान ही एक ज्ञान है।
7.आकाश ,प्राण,मनोमय संसार आदि के उस पार है आत्मलोक।
8.जिस स्थान में आनंद भाव होता है,उसी को आत्मा के रूप का महसूस कर लेना चाहिए।
9. आत्मस्वभाव को सदा आनंदमय जानना चाहिए।
10. सोचकर देखने से मालूम होगा कि आनंद बोध के सिवा और कुछ नहीं है।
11. आनंद आत्मा के स्वभाव होने से उसे अन्यत्र खोजना नहीं चाहिए।
12. निर्विकार निश्चल आत्मा नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्त है।
13.चित्त नहीं तो वह निरामय. वह निर्मल है,वह निश्चल है।
14. निर्गुण पूर्णत्व है।शाश्वत है। सगुण और एकत्व अलग नहीं है।
15.आत्मा आदि अंत रहित है। आत्मा आदी काल से प्रज्वलित है।
16. आत्मा की उत्पत्ति, सच्चाई और विकास नहीं है।परिवर्तन,खंडित होना,नाश होना आदि तीनों नहीं है।
17. स्मरण रखना चाहिए कि आत्मा में अलौकिक क्षमता है,उसमें लिंग भेद नहीं है।
18.सब से पार रहनेवाली आत्मा किसी से असंबंधित वस्तु है।
19. आत्मा का रूप सच्चिदानंद है। स्वयं जानने का प्रज्ञान है?
20.सत्य ही आत्मा है। स्नेह ही आत्मा है। आत्मा स्नेह रूपा शांति है।
21.सर्वचराचर के कारण है आत्मा। सबके आश्रयस्थल है आत्मा।
22. एक रस बने एक ही आत्मा।आत्मा संपूर्ण चैतन्य गुणवली है।
23.आत्मा अनश्वर और अदृश्य होती है।
24.आत्मा को जान नहीं सकते। समझ नहीं सकते। पास नहीं पहुंच सकते।
25. आत्मा अंतर्यामी है। मन तक पहुँचेगा।अद्वैत को वर्णन नहीं कर सकता।
26.आँखों से देख नहीं सकते। स्थाई है। विभाजन नही कर सकते।
27.आत्मा अक्षर रूप में ओंकार मात्रा का आधार है।
28. आत्मा अद्भूतों में अद्भुत है,चमत्कारों में चमत्कार है।
29. आत्म क्षेत्र ज्ञानी परम पुरुष स्वतंत्र है।
30. जो बना है,वह नहीं हो सकता। जो नहीं है,वह हो नहीं सकता।
31. बाह्य आंतरिक ज्ञान ही आत्मा ,सब कुछ के ज्ञाता स्वयंभू है।
32.जग की मूल मूर्ति मैं और तुम के रूप में रहता है।
33.आत्मा प्रकाश और प्रकाश देनेवाली स्वयं प्रज्वलित ज्योति है।
34. देश काल के निमित्तों को पारकर तुरीय पद ही आत्म संसार है।
35.त्रिगुणों को पार करके सर्व शक्तिवान प्रणव का अर्थ ही परमात्मा ही है।
36. दर्शक,दृश्य,दर्शन बुद्धि आदि आत्मा के सिवा और कुछ नहीं है।
37. अपने से अन्य वस्तुओं को न देखना ही “मैं” आत्मा का बोध होता है।
38.”मैं” आत्म रूप को छिपाते समय वहाँ अहंकार हो जाएगा।
39.तैल धारा के जैसे आत्म बोध मन में होते समय मनुष्य ब्रह्म बनता है।
40.अल्लाह ,परिशुद्ध आत्मा,,परब्रह्म के नाम से कहते हैं।
41.जो है,उसका नाश नहीं होता। जो नहीं है, वह बनता नहीं है।
42. जो संसार नहीं है, उसमें दृष्टित जीव भी नहीं है।
43. असीमित एक वृत्त में ही भगवान सर्वव्यापी केंद्रित है।
44.जीवात्मा और परमात्मा के विभाजन न करने के स्वभाव को सदाशिव जानना चाहिए।
45.शून्य में ही अनंत शून्य बोध बोध के पार का आत्म रूप है।
46.परिपूर्ण बेजोड कैवल्य रूप ही ब्रह्मत्व बोध होता है।
47.परमेश्वर,परमत्मा१ रूप,अर्द्ध नारीश्वर,जगदीश्वर विभो।
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पहले आत्मा के रूप की अनुभूति के लिए आत्म तत्व की खोज करनी चाहिए।
आत्मा के रूप को समझने के पहलेे समझना चाहिए कि आत्मा क्या है? उसे जानने के लिए पहले महसूस करना चाहिए कि आडंबर पूर्ण सुख जीवन मिट जाएगा। इसके बाद क्या करना चाहिए की चिंता जिस जीव को होता है ,उसी को ही आत्मा की खोज का उद्वेग होगा।वैसे आत्मा की खोज करते समय संसार में आज तक पैदा हुए महात्मा,उपनिषद,देव,ऋषि जैसे सकल जडाचर जहाँ पहुँचकर परमपद प्राप्त करके वापस आ नहीं सके, और उससे बडे और किसी आनंद की आवश्यक्ता न हो,वहाँ पहुँचने के लिए ज्ञान की खोज करना ही पहला कदम होता है।
2. अंतर्मन में ज्ञान रूप है अहमात्मा। इसे जान लेना चाहिए। यहाँ के हर जीव “मैं” कहते समय साधारण लोगों को शरीर बोध का ही स्मरण होगा। वह दार्शनिक खोज में पता चलेगा कि “मैं” इन पंचभूतों से मिश्रित शरीर नहीं है ,इस शरीर को नियंत्रण करने एक मन होता है।उस मन को नियंत्रण करने मनःसाक्षी नामक बोध तत्व है। यह जगत मिथ्या है। जगत माया है। यह समझते समय “मैं”का बोध सत्य ही ज्ञान के रूप में प्रज्वलित जानना ही चाहिए। इस दृश्य जगत में हर एक जीव हर एक बोध ही है। हर एक ज्ञान जानने के लिए एक व्यक्ति चाहिए। जो इनको जानता है,उसी को यथार्थ ज्ञानी कहते हैं। जो ज्ञान जानते हैं,और भी ज्ञान जानने की है। इसे समझते समय यह ज्ञान ही अपनी अहमात्मा,वह अहमात्मा ही यथार्थ “मैं” को महात्मा समझ लेते हैं।
3. आत्मा अनंत जाग्रण में उठते समय “मैं”का भाव मिट जाता है।
यहाँ “मैं”का शरीर बोध घडाकाश अर्थात एक काली घडे में रहने का आकाश समझ लेना चाहिए।इस संसार के सभी विषयों के स्वाद लेने के बाद भी ऐसा ही महसूस होगा कि कोई भी विषय पूर्ण आनंद नहीं देता।तब ज्ञान धन खोजनेवाले को विषयों में विचार कम होते-होते ऐसी स्थिति पर पहुँचेगा कि उसके मन में कोई विचार नहीं उठेगा। तभी वैरागय व्यक्ति को शरीर का विस्मरण होगा।फिर शरीर बोध और सांसारिक बोध विस्मरण होकर बोध में विलीन होकर बोध सीमा पारकर निर्विकल्प समाधि स्थिति पर पहुँचेगा। तब शरीर ज्ञान कहनेवाला घडाकाश महा आकाश में परमात्मा में लय हो जाता है। शरीर बोध जीवात्मा होता है,महा आत्मा परमातमा होता है। इसे समझ लेना चाहिए।उदाहरण स्वरूप समुद्र के ऊपर जानेवाली वर्षा की बूँद ही समुद्र को छूने की पहली स्थिति ही जीव बोध है।वह बूंद समुद्र में मिलते समय समुद्र बन जाता है। उसके बाद उस बूंद को समुद्र से अलग नहीं कर सकते। वैसे ही जीव मुक्ति,शरीर बोध आदि क बिलकल मिट जाने को ही आत्मा की अनंत जागृति कहतेे हैं। साथ ही सीमित जीव बोध का अंत हो जाता है। (When you forget the limited body Consciousnes the limited I consciousness is transformed to Universal Consciousness).
“ मैं” को एक घडे में रहनेवाला आकाश की कल्पना कीजिए।इस आकाश को “मैं” का बोध समझ लीजिए।उस बोध को आत्मा समझ लीजिए।उस आत्मा को सत्य समझ लीजिए। उस सत्य को स्नेह समझ लीजिए। उस स्नेह को स्वतंत्र मान लीजिए। उस स्वतंत्र को ईश्वर मान लीजिए। वह ईश्वर इस शरीर नामक घडे में फँस गई हैं। उस घडे के टूटते ही बाहर का आकाश अंदर और अंदर का आकाश बाहर नहीं आ जा सकता। घडे का टूटने का अर्थ है शरीर को भूल जाना। शरीर को भूल जाने का मतलब है सीमित को भूलकर असीमित की ओर जाना। वास्तव में जीवात्मा परमात्मा में,परमात्मा जीवात्मा में विलीन होती नहीं है। पहले ही वहाँ असीमित अनंत है। वह घडा उसके बीच बाधा बनकर खडा है। इस घडे के एक एक चूर्ण टुकडे की खोज करने पर उसकी अंतिम स्थिति अंतहीन रहेगा।यह स्पष्ट होता है कि उस अंतहीनता से भिन्न एक घडा बनाया नहीं है।
4. “मैं” नामक भाव मिटते ही आत्मा सर्वव्यापी होती है।
“मैं” की भावना पूर्व जन्म कर्म फल की ही जारी है। ब्रह्म एक है। जब परब्रह्म स्व रूप भूलकर स्वयं को दो रूप में देखना पडता है,तब दो अंतहीन विचार के अहंकार का भँवर ही यह जन्म और जन्मांत्र बात है।
हम जो कुछ सोचते हैं, वे कार्य तुरंत होते नहीं हैं। कारण यही है कि सोचने के बाद अधिक कल्पना करते हैं कि हमारी पहली सोच का बल कमजोर हो जाता है। ऐसे दु्र्बल होनेवाले कई हजार जन्मों के शुद्धीकरण का संग्रह ही यह शरीर है।आज हम जिन बातों को सोचते हैं,उनके पहले पूर्व जन्म के बल पूर्ण विचारों की पूर्ति के लिए जीवनानुभवों लिए मार्ग देते समय नये विचार दुर्बल हो जाते हैं।अपूर्ण कई कार्य मनुष्य केे शरीरर बोध को स्थिर बनाते हैं। ज्ञात विषय जो भी हो,मनुष्य या मनुष्य बुद्धि को तंग नहीं करते। जिज्ञासा नहीं बढाते। अज्ञात विषय ही मनुष्य के जिज्ञासा बढाकर उसको गतिशील बनाते हैं।
उनमें अपूर्ण इच्छाएँ ,तुरंत पूरा करनेवाली चाहें ,भविष्य की चिंताएँ शरीर को क्रियाएँ करने को प्रेरित करते हैं।जन्म के रहस्य समझने वाले प्राण इच्छाओं से आराम लेते हैं। अर्थात चिंतन अस्त हो जाते हैं।
जब चिंतन या विचार समझ में नहीं आते हैं तभी चिंतन के नियंत्रण करने में मनुष्य दुखी होता है। चिंतन के रूप में मन ही आता है।चिंतन को छोडकर मन, मन को छोडकर चिंतन नहीं है।The mind is called Imajination,the imagination is calle mind.)
ये दोनों अन्योन्याश्रित है। देखनेवाले के सामने एक दृश्य रूप होते समय एक विचार आता है। यह दृश्य जगत नाम,रूप से बना है। बिना नाम रूप के चिंंतन उमडते नहीं है। नाम रूप के देखने से ही यह क्या है का प्रश्न उठता है। नाम रूप चिंतन के लिए अपरिहार्य कारण है। अनंत आकाश में नक्षत्र,सूर्य रूप काले बादल आदि नहीं तो मन में कोई विचार नहीं उठते। बिना कोई विचार उठे शरीर स्मरण ,संसार का स्मरण होने की संभावना नहीं होती। वास्तव में नाम रूप ही मनुष्य रूप है। कल्पना के क्षण में ही इस संसार का जन्म होता है। कलपना में ही वह मिट भी जाता है। नाम रूप अंत में मिट रूप ज्तता है। वहाँ से ही परिवर्तित संसार अर्थात व्यक्तिगत मै सर्वव्यापि का महसूस पुनः सर्वव्यापकत्व पाता है।
5. आकाश से अति सुक्ष्म है आत्मा। यह भी याद रखिए कि आत्मा का कोई रूप नहीं है।
इस आत्मा की उपमा केवल पंचभूतों में से एक आकाश से कर सकते हैं।लेकिन आत्मा आकाश के साथ नहीं है।वह एक सूक्ष्म भूत है। पंचभूतों में एक आकाश सर्वत्र विद्यमान है। इस आकाश से आत्मा सूक्ष्म रूप से विद्यमान है।आत्मा निराकार है।
6.आकाश क्या है? आकाश एक बोध है। आकाश कहते समय ”आ” का मुँह खोलते हैं। पर उसकी स्पष्ट व्याख्या नहीं कर सकते। नाम रूप रहित आकाश को जैसे जानते हैं, वैसे ही बोध है आकाश।
7.आकाश प्राण मनोमय संस्कार पारकर आत्मलोक।
आकाश,मन,प्राणन आदि को एक उदाहरण के द्वारा व्याख्या कर सकते हैं। एक बरफ़ को शरीर की कल्पना कीजिए। उसका घनत्व कम होते समय वह पानी बन जाता है। शरीर के अस्तित्व के लिए एक सीमा को पता लगाना पडता है। उसी समय मन की दौड में आधे क्षण मं अंतरिक्ष पहुँच सकते हैं। बरफ अपने सूक्ष्म स्थिति में पानी का रूप लेता है।पानी भरे बर्तन का आकार लेता है। वैसा ही मन की दशा भी है। और सूक्ष्म स्थिति पाते समय अर्थात भाप बनते समय वह आकाश में संचरन करता है। भाप सूखकर आकाश में ऐक्य हो जाता है। वैसे ही एक अंतर्मुखी व्यक्ति शारीरिक बोध से मानसिक बोध को प्राणन सूक्ष्म स्थिति पाकर उससे सूक्ष्म आत्मा में मिल जाता है।बरफ पानी भाप अंत में आकाश में ऐक्य हो जाता है। वैसे ही शारीरिक बोध से अन्न मय,मनोमय, विज्ञानमय,आनंदमय आदि स्थितियों को पारकर आत्मबोध को प्राप्त शरीर विस्मरण के कारण आतम भावना मात्र स्थिर खडा रहता है। बरफ रूप भूल जाने के जैसे शरीर के रूप बोध विस्मरण के लिए प्रेरित करता है। वास्तव में शरीर के स्थिर खडा रहना स्मरण में है।
8.आनंद भावना जहाँ होती है,उसी स्थान को आत्मा का आकार समझना चाहिए।
हम जब इस संसार को देखते हैं,सुनते हैे,जानते हैं, तब आनंद भावना चंद मिनट होती है। उदाहरण के लिए मंदिर में गर्भ गृह में दीपारधना के समय भगवान को प्रार्थना करते समय एक पल हम चुप हो जाते हैँ।
तब हम आनंद का अनुभव करते हैं। एक सुंदर फूलों के बाग में रंगबिरंगे फूलों को देखकर आनंद विभोर होते हैं। वैसे ही पशु-पक्षियों को देखकर,संगीत सुनकर आनंद का अनुभव करते हैं।प्रिय लोगों को देखते समय, पसंद की चीजें मिलते समय आनंद पाते हैं।संभोग में आनंद पाते हैं। गहरी नींद में आनंद पाते हैं। ये सब तात्कालिक आनंद होते हैं।सोचिए कि रुचिकर फल खाते हैं। जीभ और फल में स्वाद ही आत्मा है। उपर्युक्त सभी घटनाएँ नाम रूप विस्मरण में ही है।शरीर का विस्मरण करते हैंउदहरण।
शरीर का विस्मरण करते समय शेष सत् जो है,वहाँ आनंद सहज होता है। वह सहज आनंद सत्य को आत्मा के रूप में समझ लेना चाहिए।
9. आत्म स्वभाव को सदा आनंद ही जानना चाहिए।
पहले हमें अपने को आत्मा समझ लेना चाहिए। उस आत्मा के स्वभाव को आनंद मन लेना चाहिए। हमें महसूस करना चाहिए कि जहाँ भी जो भी आनंद मिलता है,वह आत्मा की “मैं” कहनेवाली ज्योतिर्मयता है।
हमें आनंद नहीं मिला है तो कारण “मैं”नाम रूप रहित आत्मा क बोध को बिना किसी प्रकार के संदेह के दृढ न बनाना ही है। इस सांसारिक
आनंद जहाँ भी हो, जैसा भी हो हमको वास्तविक आनंद के लिए पर्याप्त नहीं है। उदाहरण के लिए शराबी के चाहने से ही शराबी को आनंद होता है। मधु को सूँघने पर बद्बू आने से कै आता है। मधु किसी को आनंद न दे सकता। कारण वह उसे नहीं चाहता। किसी एक के चाहक दूसरे का चाहक न रहेगा। एक स्त्री से या पुरुष से प्रेम और चाह होने पर ही सुख मिलेगा। सुख वस्तु में है तो सबको मिलना चाहिए।सुख के मूल कारण वस्तु,मनुष्य,विषय नहीं है।समझ लेना चाहिए कि मूल कारण इच्छा है। चाह के होते समय मन और चिंतन बाहर भटकता है। बाह्य चाहों में फँसे मनुष्य को स्वभाविक दशा को लाने तक प्राण संतुष्ट नहीं होता। जब वस्तु मन का नाश होता है, तब ”शेष सत्” ही “आत्म सत् “ समझ लेना चाहिए। उस आत्म सत् का स्वभाव आनंद है, जैसे आग की गर्मी, पानी का ठंडक।वैसे समझते समय ही मन बाह्य विषयों पर मोहित न होकर अंतर्मुख आत्मा में विलीन हो सकता है।
10. आनंद क्या है? सोचकर देखने पर पता चलेगा कि ज्ञान ही है और कुछ नहीं है।
सुख एक ज्ञान है। दुख एक ज्ञान है। द्रष्टा “ मैं “ही सुख और दुख को जाननेवाला ज्ञान होता है। मन जब एहसास करता है कि “ मैं “ शरीर हूँ, मैं दुखी हूँ, मैं सुखी हूँ, तब अनुमान का अनुभव होता है। कोढी वेशधारी अभिनेता का अभिनय क्षमता देखकर चित्रपट निदेशक आनंद होते हैं।कोढी कथा पात्र निदेशक को आनंददायक है।उसी समय दर्शक कोढी का रूप और अभिनय से तन्मय होकर दुखी होते हैं। निदेशक अभिनेता कोढी के सुख-दुख को समान रूप में देखते हैं। पर दर्शक अभिनेता को कोढी ही मानकर यथार्थ सुख-दुख मानकर दुखी होते हैं।वैसे ही सत्य न जाननेवाले जीव दुखी होते हैं। अपनी सृष्टि चित्रपट को निदेशक के दृष्टिकोण जैसे एक साक्षी बनकर इस शरीर और संसार को देखने की स्थिति पर पहुँचते समय आत्मा को सहजानंद अनुभव प्रारंभ होता है। तब पता चलेगा कि इस संसार के सभी प्रकार के सुख-दुख एक चित्रपट है।वे सब बोधानुभव होते हैं।
मैं शरीर हूँ सोचते समय ईश्वरदास बनेगा, मैं आत्मा का बोध होते समय ईश्वर का अंग मानेगा। मैं ही आत्मा की अनुभूति में मैं और ईश्वर एक होकर अहंब्रह्मास्मी का तत्व होता है।
11.
आनंद नामक इस आत्म स्वभाव को अन्यत्र खोजना नहीं चाहिए।.
इस संसार में सभी जीव राशियों के लिए आवश्यक है आनंद।
हमारे दैनिक जीवन में हमारा और हर एक जीव की चेष्टाएँ अर्थात क्रियाएँ सब के सब का लक्ष्य आनंद पाना ही है। लेकिन सुख कहाँ मिलता है और कैसे मिलता है? आदि जानने की कमी के कारण ही जीवात्मा अंगों को न देखकर बाह्य अंगों की कामुक्ता में डूबकर खेलते हैं।उसके कारण आत्म तत्व के बारे में पूर्ण ज्ञान न होना और शैक्षणिक योजनाओं में आत्म तत्व का पाठ्य-क्रमों में स्थान न देना।शास्त्रों के शोध करते समय एक बढिया उदाहरण मिलता है। राजा विश्वामित्र त्रिकाल ज्ञानी वशिष्ट के आश्रम गए। तब उन्होंने कामधेनु को देखा,जो सभी माँगें पूरी करती है। अतः कामधेनु को प्राप्त करने युद्ध करके हार गये। वे राज पद को त्यागकर कठोर तपस्या करके राजर्षी से ब्रह्मर्षी पद तक पहुँचे।कामधेनु वास्तव में यह आत्मा है।संन्यासी बनने के बाद कोई भी वापस नहीं आते।संन्यासी से बढकर बडा सुखभोग और कोई नहीं है।किसी कारण से जो वापस आते हैं, सुख भोग श्रेष्ठ नहीं कहते।
उसी समय सुख भोगी गृहस्थ संन्यासी जीवन को बढिया नहीं मानते।
कामुक्ता में स्थाई आनंद नहीं है।फिर भी क्रिया की विभिन्नता के कारण मनुष्य अपनी इच्छाओं का गुलाम बनकर यथार्थ आत्मतत्व स्थिति को समझने का अवसर न देकर कर्म में डूबकर खुश होते हैं।यही कर्म रहस्य को समझना चाहिए। हम जो भी कर्म करते हैं,यथार्थ “ मैं” आत्मा नहीं है। यह जानकर आत्मा से जुडकर हर एक मिनट आत्म बोध को बिना भूले,चाहों को या वासनाओं को पूरा करने कर्म करनेवालों को आत्मा के सहज स्वभाविक आनंद होगा।कस्तूरी मृग अपने में रहनेवाले सुगंध को न पहचानकर बाहर ढूँढता रहता है। वैसे ही मानव आत्मा के अपने स्वभाविक आनंद को न पहचानकर आनंद की खोज में बाहर खोजकर भटकते रहते हैं। अन्य स्थानों को मन जाने रोकने के लिए आत्म तत्व को सबल बनाना चाहिए। सिवा इसके और कोई मार्ग नहीं है।
12 आत्मा निर्विकार,निश्चलन,वह नित्य,शुद्ध बुद्ध मुक्त होती है।
आत्मा निर्विकार होने से विशिष्ट है। बदलना है तो अपने से अन्य कोई वस्तु चाहिए। आत्मा से भगवान के सिवा और कोई अन्य वस्तु आने का साध्य नहीं है।आदी में अखंड बोध रूपी भगवान में नाद होने की झाँकी हुई। वह नाद शक्ति होना है तो अपरिवर्तन शील बुनियाद चाहिए। वही बोध है। बोध के बिना नाद नही है। नाद ही बोध है। बोध मात्र ही है। वैसे ही सृजन करना,सुरक्षा करना,मिटाना आदि नाम रूप में बना है।विकारों से मिश्रित है। उसमें स्थूल सूक्ष्म के बीच अंतर होता है। नाम रूप की सूक्ष्मता निर्विकार में अंत होता है। इसीलिए नाम रूप के इस दुनिया में एक झलक मात्र है। अर्थात मिथ्या ही है,माया ही है।
कई बातों में परिवर्तन होने की संभावनाएँ होती है। आत्मा से अर्थात ब्र्ह्म से दूसरी अन्य वस्तु होने की संभावनाएँ नहीं हैं। क्योंकि ब्रह्म सर्वव्यापी होते हैं।. जो हुआ है सा लगता है, प्रपंच का संगठन हुआ-सा लगना जीव बोध का है। अर्थात प्राण में शरीर बोध स्थित है तो परिवर्तन होगा ही। जीव “ मैं “ कौन हूँ ? की खोज करते समय जीव बोध का अहंकार अर्थात शरीर बोध का अहंकार विस्मरण होते समय दूसरा एक दृश्य नदारद हो जाएगा। दूसरा एक दृश्य नदारद होते समय बदल रहा जी भाव मिटकर अपरिवर्तन आत्मा बन जाती है।
हिलना /चलन का मतलब है एक स्थान से दूसरे स्थान को जाना। उसे निश्चलन कहते हैं। आत्मा सर्वव्यापी होने से अहंकार के लिए उसमें स्थान नहीं है। अर्थात अहंकार का स्थिर रहना कैसे का प्रश्न उठेगा।आत्मा जब अपने सर्वव्यापक्त्व को भूलते समय अहंकार का उदय होता है। जीव सब सदा काल आत्मा के सर्वव्यापकत्व गुण भूलकर जी रहे हैं।आत्मा के सर्वव्यापकत्व गुण के स्मरण करते समय अहंकार भूल जाता है।अर्थात “ मैं ” का अहं मिट जाता है। जिस मनुष्य में तैल धारा के जैसा आत्मा सर्वव्यापी का बोध स्थिर होता है,वह व्यक्ति अहं से छूटे व्यक्ति बन जाता है।अहं से मुक्त व्यक्ति भगवान बन जाता है। यथार्थ रूप के विस्मरण में ही पहले चलन होता है।एक व्यकति से पूछे कि आप नहीं तो यह संसार और भगवान रहेंगे क्या?
वह कहेगा कि मेरे होने न होने पर भी संसार और भगवान रहेगा ही।ईश्वर और भगवान आप के जानने से ही है।आप के न जानने पर दूसरे लोग जानेंगे। इस विचार से कहनेवाले भी आप ही है। खुर्राटे की नींद सोते समय स्वयं नहीं है, तब तो कुछ भी नहीं है। अब उठने के बाद “ मैं” हूँ,मैं जानता हूँ।इसलिए सब कुछ है। लेकिन यहाँ का”मै” अहंकार का “ मैं”होता है। इसीलिए सोना,जागना होता है।किसी व्यक्ति को सोते समय स्वप्न में एक “ मैं “ होता है। वह “मैं “ एक अलग दुनिया में कुछ लोगों के साथ मिलकर सुख-दुखों को भोगने के समान स्वप्न देखता है। स्वप्न में हाथी हमला करने आता है तो भागता ही है। वह स्वप्न नहीं यथार्थ -सा लगता है। स्वप्न में समय ,स्थान आदि सत्य -सा ही लगता है। स्वप्न से जागते ही स्वप्न के दृश्य यथार्थ नहीं समझ में आता है। वैसे ही हर एक जीवात्मा स्वप्न के मैं ही है। इन स्वप्न के मैं जागते ही यह शरीर ,संसार ,ये रिश्ते ,अनुभव आदि यथार्थ के बिना बदलते हैं। यहाँ बनकर अस्थिर होना अहंकार और उससे संबंधित कल्पनाएँ मात्र हैं। उनके प्रमाण में आत्मा कहाँ से बना है?इस सवाल के जवाब के अंत ही आत्मबोध ही है। आत्मा रूपी “मैं” से अन्य कोई दृश्य नहीं है। इस ज्ञान के महसूस होते ही “मैं” शाश्वत मालूम होता है। आत्मा अमृत रूप है। अमृत रूपी आत्मा को कलंक होने के लिए कोई संदर्भ नहीं है। सूर्य और किरणों को जैसे अलग नहीं कर सकते, वैसे ही परमात्मा और प्रकृति को अलग नहीं कर सकते।इस आत्मबोध को देखते समय अशुद्ध शब्दों के कोई महत्व नहीं है।इसलिए वह परिशुद्ध ही है।
आत्मा को कभी नियंत्रण नहीं कर सकते। उसे नियंत्रण में रखने दूसरी कोई शक्ति नहीं है। कारण आत्मा सर्वव्यापी है। कभी नियंत्रणन कर सकनेवाली आत्मा को मुक्ति की जरूरत नहीं है। जीव ही बोध रहित है।जीव को नियंत्रण में ला सकते हैं। अतः जीव का कोई अस्तित्व नहीं है। आत्मा हमेशा मुक्त ही है। बुद्ध ही है। बुद्ध होते समय उदय,मक्ति सब मन से स संबंधित कार्य होते है। मन न होने की अवस्था में मन में होनेवाले नियंत्रण और मुक्ति को कोई बडा महत्व नहीं है। आत्मा नित्य मुक्त ही है।
13. जिन में मन नहीं है,वह निरामय ,निर्मल और निस्संग है।
मन रहित का मतलब है भगवान की परम दशा। कारण परब्रह्म में विचार नहीं आते। परब्रह्म स्वयंभू होता है। अर्थात स्वयं जो बने उसमें से स्वयं ही आदी रूप बनते है। परमात्मा से असीम शक्तियाँ प्रज़्वलित होते हैं। उनमें इच्छ शक्ति ,क्रिया शक्ति,ज्ञानशक्ति,सृष्टि,पोषण,नाश आदि भावनाएँ होने के बाद चिंतन मुख्यत्व पाते हैं।भगवान की उच्च स्थिति को परमात्मा की स्थिति को यहाँ निश्चिंत कहते हैं। सभी देव और देवियाँ जिस चैतन्य को ध्यान करते हैं,उस शक्ति दशा को निश्चिंत कहते हैं। देव-देवियों को नहीं कहते।
यहाँ द्वैत्व न होने से दुख के कोई कारण नहीं है। इसलिए भगवान निरामय होते हैं।जहाँ द्वैत है ,वहाँ भय होता है। भय दुख के कारण होता है। परम दशा में द्वैत रहित दशा निश्चिंत है। मन अज्ञान होता है। अज्ञान अंधकार होता है। आत्मबोध रहित दशा में अंधकार का अनुभव होता है। पहले सूर्य के सामने बरफ पिघल जाता है, वैसे ही परमात्म दशा को पहुँचते समय माया से ढके अज्ञान अपने आप मिट जाता है।माया,नानत्व,पंचभूत आदि किसी में परमात्मा नहीं रहते।लेकिन ये सब परमात्मा के लिए अन्य नहीं है। अतः आत्मा निस्संग है। क्योंकि आत्मा के विरुद्ध कोई दृश्य नहीं बनते। कारण कोई कहता है कि मैं अकेलाा हूँ। दूसरा कहेगा कि मैं जिस हवा का साँस लेता हूँ,वही आप लेते हैं। तब वह इन्कार नहीं कर सकता। वैसे ही पंचभूत हमेशा परस्पर एक दूसरे से आश्रित है। नाम रूप भी कल्पना कहते समय परमत्मा को बंधन में रखने कोई नहीं है। नियंत्रित वसतुएँ सीमित है। वहाँ इच्छाओं को स्थान नहीं है।प्राण को बंधन है। जीव स्थिति में इंद्रिय से सबंधित है। जीव को परमात्म बोध होते समय निस्संगत्व होता है। जल कहनेवाला जीव केले के पत्ते पर गिरेंं तो चाह अथ्वा संग, कमल के पत्ते पर गिरें तो चाह रहित निस्संगत्व होता है ।
14.निर्गुण ,पूर्णत्व स्थिति ,सगुण,व्यक्तित्व आदि मेंं भेद नहीं है
निर्गुण कहते समय यह अर्थ नहीं लेना चाहिए कि कोई गुण रहित आदमी है।अमुक एक गुणवाला नहीं अनंत गुणवाला है। इस सच्चिदानंद रूप में सभी अनंत गुण अंतर्गत होने से उसको प्रत्येक गुणवाला कहने की जरूरत नहीं है। सभी गुणों से भरा एक व्यक्तिगत भगवान की कल्पना करते समय अपरिमित असीम भगवान को सीमित दायरे में लाना पडेगा। सगुण के सभी ईश्वर बीज होते हैं। परब्रह्म निर्गुण की चिनगारियाँ होंगी। उदाहरण के लिए बिजली ज़ीरो वाल्ट बल्ब में भी है। 1000 वाल्ट बल्ब में भी है। ट्रान्सफ़र्मर में भी है। बिजली पैदा करनेवाली जनरेटर के संचालक शक्ति में भी है। इसका उत्पत्ति स्थान की खोज करते समय हमारी आँखों में दिखाई न पडेगा। उस अदृश्य एलकट्रान प्रवाह द्वारा अदृश्य शक्ति के रूप में बदलते समय उस शक्ति को क्रियाशील बनाने से ही उसको गुण रूप होता है।उसके जैसे परमात्मा को शरीर की गतिशीलता से कल्पना करते समय ही सगुणेश्वर कह सकते हैं। निरुपाधिक स्थिति को ही निर्गुण स्थिति कहते हैं। शक्ति शक्ति उपाधियों से मिलकर कई गुणों से स्थित रहने को ही कई देव -देवियाँ बनकर सगुणेश्वर के विशेष नाम पाते हैं।
गुण रूप या उपाधि उसकी सूक्ष्म अवस्था में शक्ति से भिन्न नहीं है।
शक्ति रूप लेने पर भी उसकी समष्टि भाव अरूप स्थिति से स्वरूप स्थिति भिन्न नहीं है। वह समष्टि स्थिति ही समझना चाहिए।
15.आदी अंत रहित आत्मा अनादी से प्रज्वलित है।
भगवान के आदी की खोज करते समय यह भी प्रश्न उठेगा कि भगवान की सृष्टि किसने की है। उस प्रश्न के उत्तर में पहला प्रश्न प्रश्न करेवाले मन से उठता है। प्रश्न करता को अपने आप से प्रश्न करना चाहिए कि क्या मेरा जन्म हुआ है। तभी समझ में आएगा कि कुछ सालों के पहले यह शरीर ,यह ज्ञान,यह मन नहीं है। इस प्रकार पिछलीी बातों का स्मरण करें तो माँ के दूधद पान की याद आएगी। फिर सोचना पडेगा कि क्या मैंने माँ के गर्भ मेे रहतेे समय सोचा था कि मेरा जन्म भूमि में होगा। बुद्धिि मेंं विविध प्रकार के प्रश्न उठते रहेंगे। तब अवस्थाओं के बारे में ज्ञात होगा।पर शरीर,मन,बुद्धि, बोध,सत कहनेवाली आत्मा के बारे में जानना असाध्य हो जाता है। यहाँ शरीर और मन लगभग एक लाख दो हजार नाडियाँ,नशें,जान,हृदय,रीढ की हड्डियाँ आदि हमारी बुद्धि से नियंत्रित है।कह सकते हैं कि ये सब हमारै हैं। जो कुछ अपना है ,वे सब ”मैं” नहीं बनते। तब मालूम होगा कि “ मैं ” उनसे भिन्न होता है।इसलिए सब कुछ जाननेवाले ज्ञान को अर्थात शरीर ,संसार को भूलकर कोई श्रीगणेश करने का मौका नहीं है।उस स्थिति से देखते समय शरीर के जागृत,स्वप्न,सुसुप्ति,तुर्यातीत स्थिति तक पहुँचे योगी या ज्ञानी शरीर के उदय अस्त के बारे में जान सकते हैं। पर “मैं” नामक आत्मा के आरंभ -अंत को जानने का साध्य नहीं है। इसलिए आत्मा की विशेषता आदि अंत रहित अनादी कहा जाता है।
16.उत्पत्ति,सत्य,विकास नहीं,
परिवर्तन,अपघटन (भिन्नत्व) , नाश तीनों नहीं है।
उत्पन्न होता है तो अंतहीनता जन्म लेना आदि के लिए साध्य नहीं है।
उत्पन्न होता है तो उसको न हुआ है की स्थिति भी होती है। जो उत्पन्न होता है,उसका नाश भी होता है। एक को सत्य दूसरे को असत्य कहने का मौका नहीं है। पंचभूत पिंजड़े को लेकर ही उत्पत्ति होने का अवसर होता है। उसमें स्थूल और सूक्ष्म होता है। स्थूल दृश्य होता है और सूक्ष्म अदृश्य होता है। इनको उत्पत्ति होती है। आत्मा अंत रहित है।अतः भूत रूप में कोई बंधन नहीं है। इसलिए उसकी उत्पत्ति कभी नहीं होगी।वह तो शाश्वत है।परमात्मा वर्णनातीत सत्य है। इसीलिए उसको सत्य नहीं कहते हैं। जिनमें विकास है,वे सीमित है।एक ही स्थिति में आत्मा है।आत्मा आत्म स्थिति से बढती नहीं है। अनंत है।वह सूक्ष्मता से स्थूल की ओर नहीं आती,उसका विकास भी नहीं होता।
जिन विषयों की सीमा होती है, उन्हीं में ही परिवर्तन होते हैं।आत्मा सर्वव्यापी होने से आत्मा अपरिवर्तनशील होती है।स्थान,काल के निमित्तों के अपार आत्मा होती है। आत्मा अपूर्ण रूप में या पूर्ण रूप में मिटती नहीं है। रूपों का मात्र नाश होता है। आत्मा के रूप न होने से वह अनश्वर होती है। सब कुछ मिटकर जो रिक्त होताा है,वही आत्मा है।इसलिए आत्मा को कोई भी शक्ति विनाश नहीं कर सक्ती ।
आत्म हत्या का शब्द जीवात्मा के लिए है। जीवात्मा मन ही है।पुष्पों का सुगंध कितना सूक्ष्म होता है, आकार रहित।वासना का निवासस्थान अहंकार सेे पूर्ण। अहंकार का स्थान स्वरूप विस्मरण होता है।वासनाएँ स्थाई चाहक शरीर में अड्डा बना लेती है। वही नाश आत्महत्या होती है।
शरीर मात्र मिटता है।हर एक जीव शरीरर के अंत समय की सोच केे अनुसार पुनर्जन्म लेता है। सगुणेश्वर कुल देव कीी आराधना करनेवाले सत्य लोक वैकुंठ,कैलाश,स्वर्ग लोक,सूर्य लोक,चंद्र लोक,नक्षत्र लोक आदि लोकों को जाते हैं। पुण्य मिटते तक वहाँ रहकर फिर पुर्जन्मम न होने के लिए कोशिश करना पडता है।नाम रूप रहित परब्रह्म के प्रथम अक्षरर ओंकार के स्मरण में जान तजनेवालेे तन्मय भावना अर्थात मन पूर्णतया मिटने की स्थिति को पाते हैं
17. सदा स्मरण रखना चाहिए कि लिंग भेद रहित आत्मा अलौकिक क्षमतावान है “आत्मा”.
सभी प्रकार के व्यवहारिक वैवाहिक बातें होते समय उनके साथ किसी प्रकार के बंधन के बिना खडे रहने की क्षमता को ही अलौकिक सामार्थ्य कहते हैं।आकाश में काले बादल फैलते समय आकाश में कुछ नहीं होता।यही आत्मा की दशा है। लौकिक नियंत्रित है,अलौकिक अनियंत्रित है।
आकाश से सूक्ष्म आत्मा अर्थात उस परम चैतन्य को स्त्री या पुरुष के विभाजन कर नहीं सकते। गुण रूप को लिंग के फ़रक होते हैं। परब्रह्म में स्त्री,पुरुष की विशेषता नहीं होते। कारण इतिहास की जाँच में रूपवाले सारे देव,देवी अनंत चैतन्य को नमस्कार करने को समझ सकते हैं। प्रकृति नामक स्त्री,पुरुष नामक आत्मा अर्थात
शिव शक्ति के रूप में खडा रहता है। वह फूल और सुगंध जैसे होते हैं। पुरुष
सूर्य और किरण के जैसे हैं। प्रकृति अर्थात स्त्री आत्म चमत्कार है।
18.सब को भरकर उमडने की आत्मा ,किसी से चिपकता नहीं ।
सृजन करना,स्थिर करना,नाश करना आदि होते समय इन सबके साक्षी रूप में स्थिर रहकर सकल चराचर अंतर्यामी के रूप में प्रभव,प्लय खेल का नाटक होने पर ये सब आतमा को तनिक भी छूते नहीं है।वह वस्तु ही परमात्मा है।
स्नेह-बंधन होना है तो द्वैत होना चाहिए। भेदबुद्धि होनी चाहिए। सृष्टि करना,सुरक्षा करना,मिटाना या नाश करना आदि माया के अंदर की घटनाओं का विकास है। मावा ही नियंत्रण और बंधन बना सकती है। ज्ञान के विभाजन में वेदांत होने की संभावना ही नहीं होती।जिसने वेद के अंत तक अध्ययन किया है,वही वेदांती है। वेदांति परम स्थिति तक पहुँच चुका है। आकाश में नक्षत्रों का उदय होना,अस्त होना सहज घटनाएँ हैं। आकाश में जो भी होता है,तभी प्रकाश होता है। बिजली की चमक,वज्रपात गर्जन। वह आकाश में ही ओझल हो जाता है। इस प्रकार इस प्रपंच के सब स्व मात्राएँ और कण अपनी परम स्थिति आकाश में ओझल होने पर आकाश में कुछ नहीं होता। दूसरे उदाहरण के द्वारा इसकी व्याख्या कर सकते हैं एक दियासलाई को रगडने पर आग जलता है। वह पासपरस होने से फौरन आग लगता है। दो पत्थरों के रगडने से आग जलता है। यह आग आकाश में ही होता है। वह न होना भी आकाश में ही है। लेकिन हम नहीं जानते कि आकाश को कुछ हुआ है कि नहीं। इसलिए आकाश से अति सूक्ष्म आत्मा को क्या होनेवला है? इसलिए आत्मा को किसी से लगाव नहींं है।
19. सच्चिदानंद रूप ही आत्मा,स्वयं जानने की प्रज्ञा है।
सर्वव्यापी सत्ताधारी परमात्मा से मन जुडते समय आनंदानुभव होता है। अन्यत्र रहकर सर्वज्ञ, सर्व मुखी,सर्वस्व स्वयं भगवान ही है। बाहर से जो ज्ञान मिलते हैं,वह सीमित है। सीमित ज्ञान को जानने का ज्ञान भी सीमित ही रहेगा।सब जानकर जब जानने को कुछ भी नहीं होता, अंदर परम विवेक उदय होते समय सभी ज्ञान “ मैं ” में बदल जाता है। “ मैं “ से अन्य कोई दूसरी वस्तु स्वयं नहीं हो सकता। उदाहरण के लिए एक सिमंट टैंक से पानी निकालने पर पानी खाली हो जाएगा। एक कुएँ से खींचने पर पानी खाली न होगा। सूर्य के सामने कालेबादल छा जान पर कहते हैं,धूप चली गयी। वास्तव में धूप आती जाती नहीं है। कालेवबादल ही आते जाते हैं। वैसे ही हर एक परमात्मा नामक ज्ञान सूर्य होता है। वही संपूर्ण होता है। उसमें काले बादल हैं नाम रूप । नाम रूप को छोडने के संपूर्ण ज्ञान को प्रज्ञा कहते हैं। वही ब्रह्म है। सब के ज्ञाता और अज्ञाता भगवान ही है।
20.सत्य ही आत्मा,स्नेह ही आत्मा,प्यार रूप में शांत
हम परमात्मा को ही सत्य, सत्य कहते हैं। उस सत्य को ही सच्चा प्रेम मानकर मनाते हैं। उसी को पवित्र प्रेम की विशेषता देते हैं। इसका आदी और अंत स्वभाव शांत ही है। वास्तव में जगदीश्वर के भिन्न नाम ही है ये सब। काम और प्यार दोनों भिन्न भिन्न अर्थ के शब्द होते है। काम कहने पर पुरुष को स्त्री के प्रति, स्त्री को पुरुष के प्रति होनेवाले शारीरिक आकर्षण ही काम है। काम जहाँ होता है, वहाँ राम नहीं होता।
इसका मतलब होता है कि शारीरिक,मानसिक,भौतिक आदि में कोई न कोई लाभ के बिना प्यार के लिए कोई प्यार नहीं करते। एक बार प्रेम हो जाने पर कभी नष्ट नहीं होते।किसके लिए प्यार करते हैं? उसका जवाब यही होगा कि प्यार के लिए प्यार करते हैं। यहाँ किसी भी प्रकार की प्रतीक्षा नहीं होती। यही वास्तविक प्यार हैl यथार्थ प्रेम में प्रेमी को प्रेमिका की आवश्यक्ता नहीं होती की स्थिति आने पर प्यार पूर्ण होता है। सामान्य लोग और भक्त लोग कहते हैं कि भगवान की प्रार्थना में मन नहीं लगता।एकाग्र चित्त से ध्यान मग्न होना मुश्किल सा लगता है। मानव को जो विषय विशेष लगता है,उसपर उसका मन हर मिनट उस पर लगता है।उदाहरण के लिए हम एक मेले में मेले को प्रेम से देख रहे हैं। आतिशबाजियाँ फट रही है। तब गले के 80 ग्राम सोने का चैन टूट जाता है।तब हमारा ध्यान केवल हार पर ही लगेगा। प्रेमी या प्रेमिका को दिखाते समय किसी प्रकार के कष्ट के बिना प्रेम होने का मतलब है परस्पर इससे बडा आनंद और कोई नहीं है का विचार ही है। वैसे ही भगवान पर तीव्र प्रेम व्यवहार करने पर उनका स्वभाविक मरमानंद पा सकते हैं। इच्छा दया और करुणा के रूप में बदलते समय यथार्थ स्नेह होता है। आत्मा की सहज दशा को स्नेह कहते हैं। वह अति पवित्र होता है। आदर्श प्रेम को काम,क्रोध,मोह,मत्सर,लोभ,रूप रस,गंध,स्पर्श आदि कोई भी नहीं स्पर्श नहीं कर सकते। इन सब के ऊपर होने से ही प्यारको भगवान कहते हैं। सत्य को कभी शब्दों से व्याख्या नहीं कर सकते। सत्य को कभी सत्य से व्याख्या कर नहीं सकते। सत्य कहने पर भी ,असत्य कहने पर भी मौन रहने पर भी समाज चुप न रहेगा। कारण सत्य हमेशा निशब्द होता है। निशब्द शब्द होने पर प्रकृति दंड देती है।चींटी से लेकर सृष्टि कर्ता तक सभी जीवराशियों को संभोग अति मुख्य विषय है।उस विषय के नाम से सारे विश्व मे अत्याचार,अनाचार,अनीति ,मानसिक संगठन,लंबे समय से लगातार
हो रहे हैं।इन सब का कारण जगत मिथ्या ,ब्रह्मं सत्यं आत्म अजर,अमर शरीर और संसार मृगमरीचिका आदि का ज्ञान न होना ही है। अर्थात काम शारीरिक बोध अहंकार है। उस अहंकार के नाश हौने पर ही आनंद रूपी आत्मा अमर हो सकती है।
बाह्य अवयव सब के सब उन्नति के बदले पतन की ओर ले जाएँगे। उसी समय के अंदर प्रवेश होनेवाले सब के सब अनश्वर दशा की ओर लै जानेाला नित्य सत्य है।
बाह्य अवयव स्वरूप से स्व आत्मा को अघोर ,द्वैत, अहंकार बनाकर मृत्यु की ओर ले जाते है। लेकिन आंतरिक अवयव स्वस्वरूप स्मरण दिलाकर अहंकार को नाश करके जीव को मरण से अमृत रूप में बदल देता है। लेकिन मृत्यु के बारे में अनिश्चित मनुष्य की कल्पनाएँ अनर्थ होती है। वहीं आत्मा का मुख्यत्व प्रकट होता है। इस प्रपंच रहस्य रहस्य को समझकर सत्य की स्थापना करनेवालों को प्रकृति जीने नहीं देती। जीने देने का इतिहास भी नहीं होता। इस प्रपंच को,जीव के नित्य-अनित्य को आत्म तत्व को गहराई से जानकर समझकर प्रचार करनेवाले महान ज्ञानी विश्व के अन्य जातियों के लोगों से भारत में अधिक है।वैसे अवतार पुरुष,आध्यात्मिक गुरु
और अधिक काल क्यों नहीं जिए का दुख कई लोगों में है।इस आत्म तत्व को ठीक तरह से पहचानकर जो जीते हैं, वे ही सांसारिक समस्याएँ जो भी हो,उनका सामना आत्मज्ञान को अस्त्र बनाकर आत्मज्ञान के नाना तत्व में एकत्व देखने का बुद्धि लेकर कर सकते हैं और सफलता पाने का धैर्य होगा। इसलिए सत्य की भाषा मौन ही है। अंत हीनता कुछ भी बोलती नहीं है। इसीलिए सत्य को आत्मा की व्याख्या मानते हैं।
21.सर्व चराचर के कारण और सब के निवास स्थान
आत्मा ही कारण और कार्य होती है। जो नहीं थी,उनसे बनी है यह दुनिया। माया भरी दुनिया में सत्य की खोज करें तो वह न मिलेगा। कारण माया दिखानेवाले इंद्रजाल है। लेकिन वह तो ओझल हो जाता है।इसे जानने के कारण आत्मा सर्वव्यापी होने से कार्य कारणों के लिए अतीत होता है।
सभी वेद,मंत्र,देवता,होम,यज्ञ,आदि करके जहाँ जाना है,वहाँ जिसमें परमात्मा बोध है,वह कुछ भी किये बिना चलता है। ये सब परमात्म बोध पाने के लिए करना चाहिए।इसलिए ये सब आत्मा ब्रह्म ही है,वह आत्मा “ मैं ही” को समझ जाएँगे उसको किसी समझ लेंगे तो किसी निवास स्थान की खोज में जाने की आवश्यक्ता नहीं है।
समझ लेना चाहिए कि सबका निवास स्थान आत्मा ही है। इसलिए आत्मा को ही
स्मरण करें तो या पुरुष प्रयत्न द्वारा सभी निवास स्थान आत्मस्वरूप में जाकर पहुँच सकता है।आत्म को ही पुरुष कहते हैं। पुरुष प्रयत्न का मतलब है स्व आत्मा ही है।
हर एक मिनट सोचकर प्रशंसा करके उसी को परस्पर जागृत करके उसी की कल्पना
करके वैसा ही बन सकता है। मेरे मरण से उपद्रव दूर होंगे का मतलब है मेरे न होने पर समस्याएँ नहीं है। “ मैं “ हूँ, “ मैं “ जानता हूँ, अर्थात मैं ही सभी समस्याओं के कारण है। भगवान ने प्रारंभ में आदाम की सृष्टि की है। ब्रह्मा आदी में दक्ष प्रजापतियों की सृष्टि की। या स्वयंभू सदाशिव से त्रिमूर्तियों की सृष्टि की हैं। वेद में जो कुछ है,उन्हें कहने “ मैं “नहीं तो दूसरे लोग जानते हैं। कोई नहीं जानते हैं तो भगवान जानते हैं कहने के लिए “ मैं “ चाहिए। “ मैं “ कहने की आत्मा को विवेक से देखते समय
आत्मा में ही सब कुछ है। ईश्वर सर्वव्यापी होने से स्थान नहीं है। “ मैं “ कहाँ खडा रहूँगा की जगह खोजते समय “ मैं “ नदारद हो जाता है। जब “मैं “ ,अहं मिट जाता है तो शेष वस्तु रूप आत्मा होगी। वही सबका निवासस्थान होता है।
22.एक रस होनेवाले एक ईश्वर ही आत्मा है। पूर्ण चैतन्य गुण के हैं।
नवरस होने पर भी अपरिवर्तनशील आनंद रूपी एक रस में मिलकर रहना ही आत्मा है।अहं ब्रह्मास्मी अर्थात मैं ब्रह्म हूँ,तत्वमसी तुम ब्रह्म हो।अर्थात यह आत्मा ब्रह्म है, प्रज्ञा ब्रह्मा है, चारों वेद यही बताते हैं। मैं कहनेवाली आत्मा से अन्य दूसरा दृश्य
नहीं होता। इस बात पर विश्वास होकर प्रज्ञा से दृश्य छोडकर अपने में ही लय होने पर वहाँ एक के सिवा और कुछ नहीं है। हम जागते समय एक प्रपंच फूल खिलता है। इममें मन नहीं तो किसी भी दृश्य को देख नहीं सकते। आप किसीसे पूछेंगे कि आप कहाँ खडे हैँ? जवाब लेगा कि आप के समने या ज़मीन पर। सचमुच वे अपने मन पर खडे हैं। अपने मन नहीं तो यह प्रपंच नहीं है। हमारा मन ही इस प्रपंच के आकार में तडके खिलता है। वही ब्रहम कमल है।यह बात समझने पर किसी को शाप न देंगे कि तुम्हारा नाश हो शब्द जहाँ उदय होता है, वही अस्तम होता है।कारण उस नाश का अंत अपने में ही है। विचार की पूर्ती एक परिक्रमा है। वैसे ही दृश्य जगत में हम किसी को मदद करने से हम अपने आप को मदद कर लेते हैं। कारण हमारा मन ही उस आदमी के रूप में दृश्य बनकर स्थिर हो जाता है। और हमें साँस लेने व्यक्तिगत हवा नहीं है। हम जिस हवा को साँस लेते हैं,उसी को सभी जीवराशी एक ही समय पर साँस लेते हैं। मैं साँस लेता हूँ ,कहते समय प्रपंच दृश्यों को हम से अन्य नहीं कर सकते। हमारा शरीर हम देखनेवाले दृश्य पंचभूतों का मिश्रित दृश्य है।
हमारी आत्मा और हमारी दृष्टि की जीवात्मा एक ही है। उदाहरण के लिए एक तडाग के पानी में सूर्य के प्रतिबिंब निश्चल पानी में दीख पडेगा। पानी में चलन होने पर हजारों बुलबुले दीख पडेंगे। हरेक बुल बुले में एक एक सूर्य आकार दीख पडता है।
बुलबले न होने पर एक ही सूर्य दीखता है। यह तत्व ही आत्म तत्व मैं है। इसलिए एक रस ,एक रूप कहा जाता है। आकाश में करोडों नक्षत्र होते हैं। नवग्रह होते हैं। हर एक मिनट बनकर नष्ट होनेवाले प्रकाश मंडल,वज्रघात,बिजलियाँ,काले बादल,हवा,तूफ़ान आदि जो भी संभव हो आकाश को कुछ भी न होगा। उदाहरण के लिए चित्र पट पर चित्रपट के दृश्य बदल बदलकर आते समय पट पर कई प्रकार के दृश्य आते हँ। सृष्टि ,नाश प्रलय आदि जो भी हो श्वेत पट को कुछ नहीं होगा,वैसे ही परमात्मा स्वरूप सदा नित्य सत्य पूर्ण चैतन्य रूप में शाश्वत रूप में स्थिर खडा रहता है। वही आत्मा का स्वभाव है।
23. शाश्वत,अदृश्य,आत्मा,अतुलनीय अंतहीन .
जिसको रूप है,उसको अंतहीन रहने का साध्य नहीं है।आत्मा असीम होने से उसको अंतहीन कहते हैं। भगवान को सर्वव्यापी होना आवश्यक है। सर्वव्यापी को रूप होने की नियती नहीं है। जिसको रूप है,वही दृश्य है। भगवान खोजने की शक्ति है। भगवान के सत्य में खडे होकर देखते समय मालूम होगा कि आँखों के सामने दृष्टिगोचर होनेवाले कोई भी वस्तु मैं कहनेवाला आत्मा नहीं है। समझ में आएगा कि मैं जिसकी खोज करता हूँ, वह मैं ही है। और सभी शक्तियों के अंतर्गत रखनेवाली कभी अनश्वर रहनेवाली ही आत्मा होती है। किसी एक व्यकति से भूमि को नाप करने के लिए कहें तो बहुत ही स्वल्प स्थानों को ,चंद लोगों को मात्र कलपना कर सकते हैं। वैसी भूमि से कई लाख गुना बडा है सूर्य।
सूर्य से करोडों गुना बडा है एक नक्षत्र। तब दो नक्षत्रोें का नाप कितना बडा होगा? वैसे हम अपने साधारण आँखों से कितने नक्षत्र देखते हैं? दूरबीन के द्वारा कितने नक्षत्र देखते हैं? इतने बडे प्रपंच को अपने दिमाग से कल्पना तक नहीं कर सकते। मैं जानता हूँ का मतलब है यह संपूर्ण प्रपंच स्थिर खडा है। मेरे दिमाग में ही यह ब्रह्मांड है।उस ब्रह्मांड में भूमि स्थित है। उस भूमि पर मैं स्थित हूँ।
कोई व्यक्ति अपनी निद्रा की अवस्था में स्वपन देख सकता है कि उसने अनेक लोक,चौदह लोक में संचरण कर रहा है। वस्तविक बात तो यह है कि यह शरीर तो अपनी जगह में लेटा है। कहीं नहीं गया है। अर्थात अपने अंतर्मन में विस्तृत दीखपडनेवाला ही यह प्रपंच है। स्वप्न से छूटते ही स्वप्न के दृश्य मरुभूमि की मृगमरीचिका के समान हो जाएँगे। तब आत्मबोध होगा। जो दृश्य स्वप्न में देखे वे मृगमरीचिका के पानी के समान ओझल हो जाएगा। स्वप्न में यथार्थ शरीर को भूलकर स्वप्न शरीर में संचरण करते समय यथार्थ शरीर छिपने के जैसे मैं अब मोह निद्रा में है,यह शरीर स्वप्न शरीर है,यथार्थ शरीर आत्मा अदृश्य है,नेत्रों द्वारा देख नहीं सकते। इसका प्रमाण है स्वप्न और स्वप्न के दृश्य। स्वप्न छोडकर यथार्थ शरीर में आत्मा में जागते समय यह शरीर ये दृश्य मृगमरीचिका जैसे मिथ्या होते हैं।मृगमरीचिका अनुभव देगा। सत्य में समय और स्थान का विस्तार मनुष्य की कल्पनाएँ मात्र हैं।
24.आत्मा को जान नहीं सकते, आत्मा के समीप नहीं जा सकते, आत्मा को नाप नहीं सकते, उसे समझ नहीं सकते।
आत्मा कभी ज्ञान के विषय में नहीं आती। जो नाम रूप में जुडते हैं, वे ही ज्ञान के विषय हो सकते हैं। इनको इंद्रियों से ,मन से जान नहीं सकते तो किसके द्वारा जान सकते हैं। जब इंद्रिय और मन नहीं होते,अर्थात मन मरते समय जो बचता है, वही आत्मा होती है।
आत्मा दूसरे स्थान में जुडने का विषय नहीं है।” मैं “ ही उसके जुडने का स्थान है। इसलिए उसके समीप जा नहीं सकते। जिसका प्रमाणित करना चाहिए वह “ मैं “ ही हूँ। इसलिए उसको नाप नहीं कर सकते। उसको समझना भी अति मुश्किल होता है।
मन नाश होते समय शेष जो रहता है,इंद्रियों से मन से न जुड सकनेवाला जहाँ से वापस आता है,उस स्थान को आत्मस्वरूप कहते हैं। मन से स्वर्ण चाहिए, मिट्टी चाहिए कहने पर मार्ग दिखाएगा। लेकिन मनसे परमात्मा की माँग करने पर मन को मार्ग न होकर वह अपने स्थान को ही वापस आएगा। प्रश्न के आरंभ स्थान को ही चलेगा। मन और बुद्धि को एक सीमित रूप ही है। सीमित से असीमित को जान न सकने पर नासमझ कहते हैं।
25. अंतर्यामी चित्त पहचान नहीं सकता।आत्मा अद्वैत है,व्याख्या नहीं कर सकता। कर्मेंद्रिय और ज्ञानेद्रिय के पार साक्षी रूप में आत्मा स्थित है। विचार कहाँ से उत्पन्न होते हैं? इस की खोज करते समय उसका निवास स्थान “ मैं “ही केंद्रबिंदु है का पता चलेगा। अपनी अनुमति के बिना अपने में कोई विचार होगा तो मनुष्य कहेंगे। अपनी अनुमति के साथ कोई विचार उदय होगा तो देव कहेंगे। कोई भी विचार न होगा तो भगवान कहेंगे। यहाँ एक मनुष्य में हर मिनट विचार आते-जाते रहेंगे। विचारों की श्रृंखलाओं को नियंत्रण कर नहीं सकते। विचार आपके ही है। फिर भी हमारे नियंत्रण में रहित विचार आते समय ही हमारे अतिरिक्त दूसरे एक व्यक्ति हममें हैं। वही यथार्थ “ मैं “होते हैं। यथार्थ “ मैं ‘ को पहुँचना चाहिए तो विचारों की भूमिका को जाने
के सिवा और कोई मार्ग नहीं है। इसके पहले कई युगों के मन्वंतरों के इस जीवन वृक्ष में जड रूप में जमा किये गये विचारों के ढेरों को दुर्बल करने अहंकार के बीज को आत्मज्ञानाग्नि में भूनने के सिवा और कोई मार्ग नहीं है। जिस व्यक्ति में अपने विचारों को प्रारंभ में ही नियंत्रण करने की क्षमता होती है, उसी में इच्छा शक्ति होती है। वैसे इस पंचभूत के सम्मिलित शक्ति के सूक्ष्म शरीर में आत्मा स्थित होने से उसको अंतर्यामी कहते हैं।
चिंतनों को उत्पन्न करनेवाले केंद्र को मन में ला नहीं सकते।चिंतन को उत्पन्न करनेवाले स्थान को पीछे धकेलने की कोशिश करते समय चिंतन अस्त होते हैं। इसीलिए उसे चिंतन रहित कहते हैं।वह स्थान परमात्मा का निवास स्थान जहाँ शब्दों तक न जाकर वचन वापस आ जाते हैं। देव-देवियों को मंत्रों से प्रार्थना करते समय शब्द देव-देवियों के रूप में वापस आते हैं । अरूप आत्मा की प्रार्थना करने की कोशिश करते समय शब्द जहाँ से निकलते हैं, वहाँ वापस आते हैं। इसलिए परमात्मा के रूप वर्णनात्मक है।
हमको अब शरीर बोध होता है। शरीर के बोध होने से कई प्रकार की बुद्धि होती है। अर्थात विविध प्रकार में एक,एक प्रकार में अनेक कहना स्मरण-विस्मरण की स्थिति जैसे ही है। स्मरण कहना प्रकृति है। विस्मरण पुरुष प्रकृति विविध प्रकार की है। शरीर बोध में ही याद और भूल की घटनाएँ होती है। प्रतीक्षाएँ,यादें ही शरीर बोध नामक अहंकार के कारण बनतीं। पर्दे में सभी कार्य चलते हैं। भूतकाल के स्मरण कुछ भी नहीं होगा। इस सच्चाई को विवेक से समझते समय वर्तमान को भोगना साध्य होता है। भूत और भविष्य को भूल जाने पर अहंकार स्थिर खडा रह नहीं सकता। अहंकार के लिए कोई सत् नहीं होता। आत्म सत को लेकर ही अहंकार क्रिया शील होता है। अहं रिक्त बोध में स्थिर रहते समय भेद बुद्धि दृश्यों में नहीं होती। सही आत्मबोध पहुँचते समय अर्थात मूलाधार, मणिपूरकम् ,स्वादिष्ठानम्,
विशुद्धि, आज्ञा,आदि योगियों की बातें षठाधारों को पारकर कुंडलिनि शक्ति, सहस्रदल पद्म अर्थात चिताकाश पहुँचते समय योगी खुद सर्व अंतर्यामी होने की अनुभूति करता है। ऊपर मैं, नीचे मैं, दाये मैं,बाये मैं,” मैं “ के बिना कोई स्थान नहीं है। इस स्थिति पर पहुँचता है। वहाँ कोई मन नहीं होता। मन की स्थिति सत्व में बदलता है। फिर वह मन नहीं है। वह सति स्थिति में ही सभी सथानों पर “ मैं “ रहने का एहसास करता है। वही अद्वैत स्थिति है।
26.आत्मा अदृष्टिगोचर है और व्याख्या से परे हैं। आत्मा स्थिर है,विभाजित नहीं कर सकते।
आत्मा अदृश्य है। व्यख्या से परे हैं। आत्मा के बारे में कहकर समझा नहीं सकते।
दर्शनीय सब के सब परमत्मा नहीं है। अहंकार नामक शरीर बोध स्थिर खडे रहते समय दृश्य दर्शनीय बनते हैं ।आँखों से देखने के दृश्य,आँख ,शरीर,अपने दृश्य में बदलते समय साक्षी स्थिति पाते समय व्यवहार के लिए स्थान रहित अदृश्य हो जाते हैं। शरीर को पूर्ण रूप से अपने दृश्य रूप में देखते समय “मैं” आत्मा के साक्षी रूप खडा रहता है। वायु गतिशील होती है। वायु मंडल के पार और मंडल होते हैं। एक स्थान से दूसरे स्थान को संचरण करने को ही विकार कहते हैं। वायु सीमित है।
सीमित सभी वस्तुओं को विकार करते हैं। आत्मा आकाश की तरह असीमित है। वह सर्वव्यापी होने से उसको वर्णन नहीं कर सकते। वह आता-जाता नहीं है।वह गतिशील नहीं है। इसलिए वह अनश्वर है। इसीलिए उसे अक्षर कहते हैं। उसे कभी विभाजित नहीं कर सकते। आतमा का रूप कभी विभाजित नहीं कर सकते।
27. जानना चाहिए कि आत्मा ओंकार मात्रा के अनुसरण है।
आदी में ओंकार शब्द ही यह प्रपंच रूप में होता है। त्रिकाल,भूतकाल,वर्तमानकाल,भविष्यत काल ही नहीं काल से परे तीन कालों से
उल्लंघित जो है वह भी ओंकार ही है।इस ओंकार को चार भागों में समझ लेना चाहिए।भागों का मतलब है भावनाएँ।।अ,उ,म् वे मात्राएँ चार पाद अ स्थूल अर्थात व्यष्टि या जागृत ।उसको वैश्वानर ,विश्व नाम से बुलाते हैं। वही पहला पाद होता है। दूसरा “उ” स्वप्न दशा। वह सूक्ष्म पाद है। उसको तेजस नाम से बुलाते हैं।तीसरा पाद “म् “ अर्थात सुसुप्ति । वह गहरी नींद होती है। वह कारण भाव होता है। उसे प्राज्ञ कहते हैं। चौथा पाद अम् मात्रा, त्रिकालों के परे स्थिति है। (बोध के पार की स्थिति) वह सभी स्थितियों में व्यापित होने पर भी पूर्ण चैतन्य है। वह ब्रह्म बनने की आत्मा होती है। नाभी से निकलनेवाला वायु शब्द अक्षर में रूपांतर होकर कंठ से ओंठ तक कई स्थानो को स्पर्श करते समय ही ओं को उच्चारण करते समय अकार कंठ में पडनेवाले शब्द सभी स्थानों को पारकर “म् “ धवनि आएगी। फिर ओंठ छूकर अंत होता है। ओंकार ही अक्षरों और भाषाओं के द्वारा आता है।
आत्मा जागृत अवस्था में बाह्य विषयों को जान सकती है। सात अंग,उन्नीस मुखों को आँखों से देखने के विषयों के उपभोग्ता के रूप में रहनेवाले बोध को ही इसका पहला पाद कहते हैं। वही वैश्वानर है।
आत्मा सूक्ष्म दशा में अर्थात् स्वप्नावस्था में (अंतरंग मात्रा में क्रिया करने का बोध) सूक्ष्म विषयों को सूँघता है। मन स्वयं विविध रूप में परिवर्तन होकर भोगने का अनुभव ही स्वप्न है। देखना,सुनना, न भोगना,होना न होना आदि सबको स्वयं ज्योति रूप में मन आत्मा से आश्रित है । स्वप्न दृश्यों के रूप बनाकर रस लेता है। मन स्वयं सर्वस्व बनकर भोगता ही है। वही तेजस होता है। वही आत्मा का दूसरा भाव है। वह सात अंग और 19 मुख मिले हैं।
तीसरा सुसुप्ति है। वहाँ स्वप्न, किसी प्रकार की अभिलाषाा रहित स्थिति होती है। अर्थात गहरी नींद मात्र है। वह यथार्थ में परमात्मा में मन ऐक्य होकर एक रूप आत्मा की स्थिति होती है। वह बोध रूप होता है। द्रव्य,क्रिया,गुण,सामान्य,विशेष, अभाव आदि। पाँच ज्ञानेंद्रिय,पाँच कर्मेंद्रिय, पंच प्राण,मन,बुद्धि अहंकार ,चित्त आदि।
चौथा पाद तुरीय स्थिति होती है। वह शारीरिक बोध विषय नहीं है। जानने- अनजानने की बात नहीं है। बताकर न समझा सकते,अभी सिफारिश नहीं कर सकते। वह एकात्म बोध सार है। वह प्रपंच बिलकुल नश्वर है।अद्वैत रूप,शांत रूप शिवमय होता है। आत्मा अनश्वर रूप में ओंकार मात्रा में उच्च स्थिति में रहनेवाली है। (अकार,उकार.मकार ) ये तीन मात्राएँ मिलकर ही ओंकार होता है। वह ब्रह्म वाचक है। यही आत्मा का चौथा पाद है।
28.अद्भुतों में अद्भुत,आश्चर्यों में आश्चर्य
गीता के अनुसार मोती की माला धागे से आश्रित ही मोती स्थिर रहता है ,वैसे ही आत्मा से आश्रित ही इन प्रपंचों के ग्रह स्थित हैं। यह धागा वास्तव में ” मैं “ नामक आत्मा जानना ही आश्चर्य है। आज तक हम जिन बातों को नहीं देखा है,उनको देखने पर आश्चर्य होता है। वैसे इस प्रपंच में जाने -अनजाने कार्यों को पार करके ही मनुष्य संन्यासी की यात्रा शुरु करता है। इंद्रियों के द्वारा जानने से अतिरिक्त सूक्ष्म शक्तियाँ जागृत होते समय योग स्थिति में एहसास करने के कार्य आश्चर्य देनेवाले होंगे। अर्थात सिद्धियों के लिए गानेवालों को सिद्धि मात्र मिलेगा। परमात्मा ज्ञान प्राप्त व्यक्ति को सिद्धियाँ स्वभाविक गुण होंगे। अर्थात पुनर्जन्म, अपने शरीर तजकर दूसरे मृत शरीर में प्रवेश कर फिर अपने शरीर में आना,अग्नि के रूप में बदलना,जड बनना,आकाश में यात्रा करना आदि अष्ट सिद्धियों को प्राप्त करने के बाद साध्य करने की बातें हैं। किसी को खीर पीने की इच्छा है तो खीर बनाने की सामग्रियाँ चाहिए। उसके लिए पैसै चाहिए। पैसे कमाने के लिए मेहनत करना चाहिए। मेहनत करने के लिए स्वास्थ्य चाहिए। और नौकरी मिलनी चाहिए। ऐसे शारीरिक, बौद्धिक,मानसिक बाधाओं को पारकर मनोकामनाएँ पूरी होनी चाहिए। उसी समय एक सिद्ध पुरुष खीर पीने की सोच मात्र काफी है। तुरंत खीर हाथ में आ जाएगा। पीकर खुश होना चाहिए। उसी समय परमात्म ज्ञानी को खीर पीने का श्रम भी न उठाना चाहिए। सोचने मात्र से ही पीने का एहसास हो जाएगा। जिसको सकल सिद्धियाँ और परमात्म ज्ञान प्राप्त हुआ है,उनको सब कुछ मिल जाएगा। तभी समझ में आएगा कि वह आ्त्मा मैं ही है, सभी शक्तियाँ मेरे पास है,मैं नाम रूप रहित सर्व व्यापी परमात्मा है। उसको एहसस करने से बढकर आश्चर्य और अद्भुत और क्या हो सकता है।
29. जान लेना चाहिए कि मंदिर के अधिपति परम पुरुष स्वतंत्र है।
शरीर को मंदिर ,मंदिर के पति को परमात्मा के रूप में देखना चाहिए।इस संसार के सकल जीवों को अति आवश्यक है स्वतंत्रता । दासता दुख देती है। स्वतंत्रता सुख देती है।इस आत्मा को ही स्वतंत्र कहते हैं। सर्वतंत्र स्वतंत्र आत्मा ही है। इसलिए सभी जीव जाने-अनजाने में स्वतंत्रता के लिए गतिशील होते हैं। रामायण तत्व स्वतंत्र की स्पष्ट व्याख्या करती है। राम आत्मा का है तो सीता मन का प्रतीक है। मन को आत्मा का ध्यान लक्ष्मण के रूप में चित्रित है। इस ध्यान के अभाव में ही मन रूपी सीता अहंकारी राम की दासी बनती है। उस अहंकारी राम के दस सिर होते हैं। वे हैं काम, क्रोध,लोभ,मद,मोह, स्पर्धा,रूप,रस,गंध,स्पर्श आदि। मन रूपी सीता दस सिरों के अहंकार का दास बनती है। हर जीवात्मा इसी दशा में है। इस मन रूपी सीता को अहंकारी रावण की पकड से स्वतंत्र बनाना है तो हनुमान को आना है। वैसे शारीरिक भूल नामक लंका दहन होने के साथ सीता रूपी मन राम की आत्मा में विलीन होना ही पट्टाभिषेक नामक मुक्ति है।
30. जो बना है,वह नहीं बनता। जो नहीं है, बनता नहीं है।
जो दृश्य उदय होते हैं,वे अस्त होते हैं । उदय होकर जो अस्त होते हैं,वे शाश्वत नहीं होते। शाश्वत आत्मा मात्र है। वह अपरिवर्तनशील है। उदाहरण स्वरूप एक बीज बोते हैं। वह पेड बनता है। फिर ठूँठ हो जाता है। वैसे ही मनुष्य जन्म लेता है। चंद काल जीता है। फिर मर जाता है। देव अवतार लेते हैं। चंद जीते हैं। उसके बाद ओझल हो जाते हैं।महात्मा भी वैसे ही। परमात्मा के परम ज्ञान के सिद्धांतों के प्रत्यक्ष ज्ञान ही चल और अचल वस्तुओं से बने यह प्रपंच । उदाहरण स्वरूप महात्मा गाँधीजी एक तत्व है । कार्ल मार्क्स जिनन,लावोस आदि एक एक तत्व के हैं। ब्रह्मानंद स्वामीजी, श्री नारायण गुरु चट्टंबि स्वामी जी, शिवानंद परमहंस,शीरडी साई बाबा आदि भी एक एक तत्व के हैं। इसीलिए ये और इनके सिद्धांत कभी मिटते नहीं है। ( Everything is preplanned nothin unexpected) सभी शास्त्रों का सार यही है कि भगवान से अन्य कोई नहीं है। सभी मजहबों के बुनियाद सिद्धंतों के ज्ञाताओं को यह खूब मालूम होता है।भगवान एक ही है। बीज में जैसा पेड होता है ,वैसा ही वह कभी नहीं मिटता।बीज सही है तो पेड भी सही रहेगा। वैसा ही भौतक नास्तिक,आध्यात्मिक आस्तिक ,महात्मा,सामान्य लोग,सभी जीव इंद्रजाल से न रोक सकनेवाले काल चक्र की आँंख मिचौनीी खेल के अंगबनते समय ही एक वयक्तिगत आदमी सेे इस प्रपंच को उत्थान या पतन की ओर ले नहीं जा सकता। इन महात्माओं के ऊँचे वचनों को मुख्यत्व देने पर पहले ही यह संसार स्वर्ग मेंं बदल सकता।भगवान तो ठीक ही है। इसलिए सब कुछ ठीक ही चलता है। कारण भगवान मात्र ही है।.
हिमालय में सुमेरू पर्वत के ईशान कोने की चोटी की ऊँचाई और चौडाई के प्राचीनतम कल्प वृक्ष है। उसके दक्षिण में एक बडी शाखा में एक घोंसला है। उसमें भुषुंड नामक एक प्रबल कौआ रहता था। एक बार वशिष्ट महर्षि भुषुंड से मिलने गये। चिरंजीवि भुषुंड से उनके अनुभवों की कहानियाँ विस्तार से सुनाने की प्रार्थना की। भुषुंड ने वशिष्ट से कहा कि यह वशिष्ट का आठवाँ जन्म है। उनको मालूम है कि इस जन्म में वशिष्ट मिलने आएँगे। दूसरा अवतार तीन बार,दूध मंथन बारह बार, हिरणयाक्ष भूमि को पाताल में दबाना तीन बारर हुआ है। उसने कहा किभार्गव राम अवतार छे बार,मुक्तावतार सौ बार होने को देखा है। श्री परमेश्वर का त्रिपुर जलाने को भी तीस बार देखा है। परमेश्वर क्रोधित होकर इंद्र के वध को भी देखा है। अर्जन से लडने को भी देखा है। मनुष्य ज्ञान के वीर्य बहुत सिमटते रहने से वेदों की संख्या पाठ,कई रूपों में बदलते देखा है। रामायण ,महाभारत जैसे इतिहास पहले नहीं थे।
फिर युग में नयी-नयी रचनाएँ होना भी याद है। ये सब योगावाशिष्ट में भुशुंड ने कहा था। इन में परिवर्तन होते रहते हैं । इन सब के साक्षी स्वरूप आत्मा शाश्वत है।
31. अहं नहीं,बाह्य नहीं ,ज्ञान ही आत्मा।
सर्वज्ञ बने स्वयंभू है आत्मा।
नाम रूप गुण सभी चीजो़ को अंतरंग और बहिरंग होते हैं।अरूप आकाश जैसे विशाल ज्ञान रूप परमात्मा को अंतरंग और बहिरंग कहने के लिए यहाँ कुछ भी नहीं है। इसलिए आत्मा को अंतरंग और बहिरंग रहित निराकार ही समझना चाहिए। आदी में अखंड बोध मात्र रहा था। मुर्गी के अंडे में जैसे मु्र्गी है, बीज में जैसे वृक्ष है,वैसे ही यह प्रपंच,यह ब्रह्मांड सब के सब आत्मा में लय हैं।सब के सब स्वयं है।
मुर्गी बनना, वृक्ष बनना,प्रपंच बनना, नाना प्रकार के रूप बनने से विविध घटनाएँ स्वयं शरीर बनने से उनकी गर्भ स्थिति भूल जाती है। अर्थात आत्मा की एक स्थिति में नानात्व नहीं है। नानात्व रहते एकत्व नहीं है। देव,मनुष्य,गंधर्व,अचल आदि में कुछ कमियाँ मिलकर ही ज्ञान,क्षमताएँ,शक्तियाँ दी गयी हैं। पूर्ण ज्ञान का मतलब है कि किसी एक विषय में संपूर्ण ज्ञान प्राप्त करना है।सभी विद्याएँ सभी ज्ञान होने को संपूर्ण ज्ञान कहते हैं। संपूर्ण ज्ञान कोश को ही परमात्मा कहते है।
32.जगत के मूल चिनमुद्रा मैं और तुम के रूप में हैं
चौदह संसार के मूल परमात्मा होते हैं। परमत्मा ही यहाँ मैं,तुम की भावनाओं में नानात्व, एकत्व में चमक रहे हैं। मैं होने से तुम हो। तुम होने से ही मैं का एहसास होता है।परंतु यथार्थ में यही सत्य है कि तुम भी नहीं हो और मैं भी नहीं हूँ। जो है वह स्वयं के अनुभव आनंद बोध मात्र है।
समुद्र,उसकी लहरें, उसके बुलबुले ,जाॅग आदि सब पानी ही है। उनको देखते समय समुद्र को भूल जाते हैं। पानी को देखते समय पानी मात्र ही है। एक सुनार आभूषण पहनी औरत को देखते समय कहेगा कि उसके पास कितने ग्राम सोना है? कुंडल देखते समय सोने को भूल जाते हैं। स्वर्ण को देखते समय कुंडल भूल जाते हैं। चट्टान की मूर्ति देखते समय हम पत्थर को भूल जाते हैं। पत्थर देखते समय शिला भूल जाते हैं। एक मिनट पर एक मात्र अच्छा लगता है। एक के रहते समय और कुछ भी नहीं है। शुद्ध स्वर्ण से आभूषण बनाना मुश्किल है। उस में ज़रा ताँबा जोडना पडता है। वैसा ही परमात्मा से सबल माया जुडते समय नाम रूप के मैं, तुम के नाना प्रकार के रूप कलपनाएँ होती है।
33. प्रकाश को भी प्रकाश देनेवाले स्वयं प्रज्वलित ज्योति होंगे।
प्रकाश शब्द से ही मालूम होगा कि अंधकार मिटानेवाला है। हमारे घरों को प्रकाश चाहिए तो बिजली चाहिए। बिजली चाहिए तो जनरेटर चाहिए। जनरेटर चलाने के लिए पानी चाहिए।पानी चाहिए तो काले बादल चाहिए। काले बादल बनने के लिए सूर्य का प्रकाश चाहिए। अंधे आदमी सूर्य हो या न हो अपने मन के आत्म प्रकाश के द्वारा जी रहा है। वैसे ही सूर्य के समान तेज़स होने आत्म प्रकाश चाहिए।
अंतर्मुख ध्यान में एकाग्रता से लगे श्री नारायण गुरु जैसे ज्ञान योगी हजारों सूर्य एक साथ उदय होने के जैसे ज्ञान का प्रकाश देखा था। उसमें मिलकर वैसे ही बदल जाने को इतिहास और पुराणों में देख सकते हैं।नवग्रहों की सृष्टि आदी पराशक्ति ने की है। आत्मा के कारण ही ग्रहों को प्रकाश मिलता है। स्वयं प्रकाश रहित चंद्र सूर्य प्रकाश के पडने से हमको प्रकाश देता है। वैेसे ही परमात्मा के प्रकाश से ही नक्षत्र मंडल ,सूर्य सब केसब प्रकाश पाते हैं। आत्मा का स्वभाव पूर्ण प्रकाश होता है। अज्ञानता ही अंधकार है। अज्ञान के अंधकार को आत्म सूर्य के प्रकाश से ही मिटाना चाहिए। इस संसार के सकल चराचरों में प्रकाश होता है। इस प्रकश को प्रज्वलित
करने वाली स्वात्मा होती है। इस आत्मा कहनेवाले प्रकाश नहीं तो और किसी में प्रकाश नहीं होगा।
हम को प्रकाश देनेवाला सूर्य आकाश में है। आत्मा में ही आकाश है। वह आत्मा मैं ही है। “ मैं “ कहनेवाली आत्मा स्वयं स्थित खडे रहने से बाकी चराचर प्रकाश के साथ रहने का एहसास करते हैं।
34.देश काल निमित्त तुरीय पद ही आत्मा का संसार
आत्मा का चौथा पद तुरीय पद है। जागृत, स्वप्न नदारद हो जाता है। सुसुुप्ति
गहरी नींद होती है। उससे जागृत दशा ही तुरीय पद है।ह चिताकाश है। अर्थात शरीर बोध और सांसारिक बोध विस्मरण की दशा है।
स्थान,काल,निमित्त तीनों काल से आधारित है। समय बढाने की बात कहना अज्ञानता का एक दृश्य ही है। हमारे प्रिय लोग पास रहें तो समय चलना हम जानते नहीं। उसी समय हमारे नफ़रत के लोग पास रहने पर समय लंबा लगेगा। परमात्मा में मन लगें तो
महीने,साल,युग.मनवंतर बीतने पर भी समय के चलने का पता नहीं लगता। ऐसे कई योगियों की बातों को इतिहास बताता है। मन प्रकृति का गुलाम बनकर प्रेम बंधन में फँसकर तडपते समय हर एक पल चलना कई युगों के बीतने के समान होंगे। कहते हैं किगोपिकाओं को श्री कृष्ण की प्रेम क्रीडाओं में लगे रहने से एक रात कई युग बीतने के समान रहे। वहाँ गोपिकाएँ श्री कृष्ण के आत्म प्रेम में सुधबुध भूलकर परमात्मा के साथ तन्मय भावना में रहीं। उदाहरण के लिए एक मनुष्य स्वप्न में देखता है कि यह शिला पाँच सौ साल के पहले उनके पूर्वजों ने बनायी है। तब दूसरे स्वप्न “ मैं “ अमेरिका में चाय पीकर सिंहपुर में दोपहर का खाना खाकर आराम के लिए केरल आकर चार दिन से यात्रा कर रहा हूँ तो पाँच मिनट की नींद टूटने के बाद पता चलेगा कि स्वप्न में लंबे समय का अनुभव मिला है। स्वप्न का लंबा समय केवल पाँच मिनट ही था। आत्म जागृति प्राप्त मनुष्य के लिए कितने युग,कितने मनमंत्र बीतने पर भी काल,देश,निमित्त कुछ भी न होगा। उसके आधार पर ही हम समय बिताते हैं।चंद्रग्रह ,
मंगल ग्रह जानेवाले के लिए यह बाधक नहीं है। उसके जैसे मन अहंकार रूपी शरीर बोध को बाँधकर रहते समय देश काल निमित्त के बंधन में रहता है। आत्मा इंद्रियाँ और अहंकार के अपार है।
35.त्रिगुणों के पार सर्वशक्तिमान प्रणव ही परमात्मा है।
त्रि गुणों से ही इस प्रपंच की सृष्टि हुई है। उदाहरण के लिए समझन तमोगुण, रजो गुण.सत्वगुण आदि।उदाहरण स्वरूप समझना चाहिए कि
कुंभकर्ण तमोगुण,रावण रजोगुण,विभीषण सत्व गुण के हैं ।
तमो गुण सदा निद्रावस्था में रहेगा । अहंकार का रूप ही रजोगुण,भगवान की इच्छा पाने में संतुष्ट होकर शांति से जीने का ढंग ही सत्वगुण होता है। हर एक मनुष्य में ये तीनों गुण होते हैं। हर एक समय में ये तीनों गुण शरीर में बदल बदल कर आते हैं। इसलिए तमो गुण को रजो गुण से,रजो गुण को सत्व गुण से निम्न गुण को पार करने की स्थिति पाना चाहिए। इन तीन गुणों से परे हैं आत्मा का निवास स्थान।
एक व्यक्ति को स्वास जीने के लिए कितना आवश्यक है,उतना मुख्यत्व हर एक मनुष्य जीव को समझ लेना चाहिए कि ईश्वर एक ही है। वह सर्वशक्तिमान है।
उसे कहना मात्र नहीं उसकी गहराई को समझकर जीनेवाले बहुत कम लोग होते हैं।
विश्वास कहना ही अज्ञानता के कारण ही। जहाँ विश्वास नहीं है, वहीं विश्वास रखने का ज़ोर देते हैं। एक माँ से उसके बच्चे पर विश्वास रखने के लिए ज़ोर देने की ज़रूरत नहीं है। माँ ने ही बच्चे का जन्म दिया है। वैसे ही जिसको भगवान पर विश्वास है,उसको ईश्वर पर विश्वस करने का अवश्य नहीं होता। वैसे ही भगवान मात्र ही है की बात पर जिसको विश्वास है, उनको विश्वास करने की आवश्यक्ता नहीं पडती।
एक बार मुहम्मद् नबी रेगिस्तान में अकेले रहते समय एक अजनबी ने आकर कहा कि मैं आपकी हत्या करूँगा। फिर तलवार आगे करके कहा कि अब आपकी रक्षा कौन करेगा। फ़ौरन नबी ने कहा कि खुदा। मेरे सृष्टि कर्ता खुदा बचाएँगे। उसी क्षण हत्यारे ने तलवार चलाई। हत्यारे की तलवार उसके हाथ से नीचे गिरा। मुहम्मद नबी ने तलवार अपने हाथ में उठा ली और कहा –अब तुम को कौन बचाएगा? उसने नबी के चरणों पर गिर पडा और कहा कि नबी नायक बचाएँगे। उनहोंने नहीं कहा कि अललह बचाएँगे। वैसा कहने पर उसका सिर काटा जता। नबी को अल्लाह से निकट संबंध है,अनुभूति है,आनंद है। ये सब अजनबी नहीं जानता। हमारे और ईश्वर के गहरे अनुभव से ही मालूम होगा। अनुभव से ही शक्ति रूप परिवर्तन होगा। जिनमें ईश्वर ज्ञान हैं,उनको ही पूर्ण विश्वास होगा कि निस्संदेह ईश्वर सर्वशक्तिवान,सर्वज्ञ होते हैं,वह अपने हृदय में गतिशील होता है। वैसे लोगों को प्रकृति सभी प्रकार के समर्थक होकर साधक बनाते हैं।
भगवान के शब्द का मतलब है कि सर्वशक्तिमान । जिसमें सर्वज्ञ,सर्व शक्तिमान अपने में है का दृढ विश्वास हो जाता है ,उसको कोई क्रिया असाध्य नहीं होती।
प्रणव के कहने का मतलब होता है ओंकार। शिव और शक्ति ही ओंकार होता है। वह प्रकृति और पुरुष का मिश्रण होता है। ओंकार का अर्थ है परमार्थ तत्व।
36.दृष्टा,दृश्य,दर्शन बुद्धि आदि आत्मा के सिवा और कुछ नहीं होता।
दर्शक को दृश्य और दृश्य को देखने का ज्ञान होगा। वस्तु के आवश्यक उपकरण उसी शक्ति में ही लगना केवल अनुमान मात्र ही है। देखने वाले के बिना आत्मा को छोडकर खुद चलने की शक्ति अहं को नहीं है। आत्म सत् से ही अहंकार का यह शरीर चलता है। आत्मा अचल है।अहं को स्वयं सत् नहीं है। तब यहाँ गतिशील कौन है के पूछनेे पर आत्मा कहना ही ठीक होगा। आत्मा मर कर्म मढने पर विरोधाभास होगा। कारण आत्मा कर्म नहीं करता। वह हमेशा निष्क्रिय, संपूर्ण है। आत्मा संपूर्ण होने से पाने के लिए, सुनने के लिए,जानने के लिए कुछ नहीं है।बिजली के कारण दीप जलता है। एक प्रकाश बंधन देखने पर बल्ब हिलते नहीं है । जगमगाहट में बल्ब सब दौडते-फिरते देख सकते हैं। वैसे ही आत्मा निश्च होने से माया के कारण चंचलता का अनुभव करते हैं। सिनेमा थियेटर में फिल्म रोल लगातार घुमाने से ही दृश्य चलते हैं। वैसे ही हमारे मन भी त्वरित गति से चलने से ही यह प्रपंच की गतिशीलता का एहसास करते हैं।
37 .अपनेे से अन्य दूसरेे रूप को अनदेखा रहने पर ही “मैं” आत्मा होता है।
इस संसार का पहली स्थिति मेरा जन्म मनुष्य के रूप में हुआ है। मेरे माता-पिता हैं।
उनके पार हमारेे सृष्टिकर्ता भगवान होते हैँ।इस बडे प्रपंच में भूमि एक छोटा गृह है उस भूमि में एक छोटा जीवाणु “मैं” का आदमी के विचार ही 90 प्रतिशत जीवों का स्वभाविक स्थिति होती है। इनमें जीवन के अनुभव के द्वारा विचार बदलकर सत्य की खोज में कुछ लोग चलेंगे। तब यह बात समझ में आता है कि “ मैं “ यथार्थ में आत्मा
है और यह संसार मिथ्या है। और कुछ लोग उनसे गहराई से सोचकर संसार में आत्मा रूपी “मैं” इस शरीर के बंधन में है,इस बंधन से छूटकर परमात्म स्थिति के लिए मोक्ष पाने का पुरुष प्रयत्न करेंगे। और कुछ लोग समझ लेंगे कि मैं ही आत्मा है, मेरे दृश्य रूप यह प्रकृति ,भगवान समुद्र , समुद्र की लहरें,जाग जैसे एक ही है। ज्ञान मार्गी लोग यह समझकर ऐक्य हो जाते हैं कि इस आत्मा का कोई बंधन नहीं है,उसको बाँधने की और कोई शक्ति नहीं है,मैं मुक्त है। इस स्थिति को पहुँचते समय मैं के सिवा और कोई दृश्य नहीं है। ऐसी भावनाा के आते ही प्रज्ञा अपने ज्ञान दृश्य तजकर मैं की स्थिति में मैं ही बदलते समय मैं से अन्य किसी को दर्शन नहीं कर सकते। जहाँ स्व रूप भूल होती है,छिपता है, वहाँ द्वैत्व होता है। द्वैत्व होते समय “मैं “ अपनी यथार्थ दशा में रह नहीं सकता। ज्ञान के मिलते ही अपने से अन्य कोई दृश्य नहीं मिलता। ऐसे विश्वास के होते ही यथार्थ दशा होती है।
38.मैं के आत्म रूप को भूलते समय वहाँ अहंकार होता है।
हमको अब शरीर बोध मात्र होता है। शरीर बोध सीमित है। अतः असीमित के अपार की कल्पना नहीं कर सकता। कल्पना के प्रयत्न करते समय सूर्य के सामने के बर्फ़ के जैसे मन और अहंकार ओझल हो जाएगा। तब आत्मा शेष रहेगा। माया की खोज करने निकलने पर माया को समझ नहीं सकते। कारण वह एक पकड में न आनेवाला विषय है। उसी समय मैं कौन हूँ, भगवान कौन है? की खोज करने पर उसकी बाधा में आनेवाले विचारों को ही माया कहते हैं। विचार रहित होते समय शारीरिक बोध भी छिप जाता है। शरीरिक बोध मिट जाने के बाद आत्म बोध मात्र शेष रहता है। सत्य में यथार्थ गुण से यथार्थ आता-जाता नहीं है। यथार्थ स्वयं जैसे रहना है। स्वरूप में स्वशक्ति खुद भूलकर स्व शरीर बनता है। उससे कई घटनाएँ घटती है।
39. तैल धारा के समान आत्म बोध अंदर बनते समय मनुष्य भगवान बनेगा।
क्या मैं के बिना भगवान है? यह प्रश्न स्वयं अपने से पूछते समय मैं को मिटा नहीं सकते। मैं मिटाते समय मैं स्थिर खडे होनेे केे बाद मेरा नहींं है की कल्पना कर सकते हैं। उदाहरण के लिए एक व्यक्ति के पास क्या तुम मर सकते हो पूछनेे पर कहेगा कि
मैं मर सकता हूँ। .कहेगा कि पोटासियम् शयनयड देंगे तो तुरंत मर जाऊँगा। आप की मृत्यु को आप कैसे जानेंगे? के प्रश्न करने पर कहेगाा कि मैं नहींं जानता। .दूसरे लोग जानते हैं।अर्थात आपको छोडकर दूसरा प्रकाश तक नहीं होगा। इससे स्पष्ट होता है कि आप के रहते ,आप नहीं है कि कल्पना कर सकते हैं। वास्तव में मैं रूपी आत्मा न जन्म लेती है,न मरती है। मैं कहनेवाला आत्मबोध बना हूँ,मिट गया हूँ की कल्पना असाध्य हो जाती है। कल्पना करते समय बनना,स्थिर खडे होकर मिटना शरीर मात्र है। जो बनता नहीं,स्थिर रहकर नहीं मिटता,उसी को आत्मा कहते हैं। इस आत्मा को ही वेदों में अयं आत्म ब्रह्मम् कहते हैं। अर्थात् आत्मा आकाश जैसे आत्म रूप हैै। इस ज्ञान धारा में बाधा न हो तो उसमें सभी शक्तियाँ सहज ही ब्रह्म में बदल जाता है।
40.
अल्लाह,परिशुद्ध आत्मा,परब्रह्म कहते हैं।
इस ब्रह्मांड में असंख्य जीव जाल होते हैं। हर एक जीव को अपनी इच्छाओं की पूर्ति करने के लिए विचार विमर्श एक अनिवार्य अंश होता है।संसार का बीज मन होता है। वह विकसित होकर तपस्या में मग्न होकर सुसुप्ति की समान स्थिति पर पहुँचता है।वे चिंतन नहीं कर सकते। अहं में ज्ञान नहीं है। वह एक मूढ की अवस्था होती है। मिट्टी में मूर्ति रहने के जैसे अवसर मिलते समय बहुत चित्त कर्म ,कर्म के ढेरों की सृष्टि करती है। जानवर भी अपनी भाषा में विचार विमर्श कर लेते हैं।रटने मनन करनेवाला जीव प्रकाश और ध्वनि होने के पहले सांकेतिक भाषा में अपने विचारों को आपस में अभिव्यक्ति करता था। देव अपनी भाषा में विचार विमर्श करते हैं।सब मनुष्य समुद्र के पानी लेते समय अपनी अपनी भाषा का प्रयोग करते हैं। तमिल भाषी तण्णीर,मलयालम् भाषी वेल्लम् ,हिदी भाषी पानी,अंग्रेजी भाषी वाटर विविध भाषाओं के शब्द अलग-अलग होने पर भी “ नीर” एक ही है। एक दफ्तर चलाने के लिए पहरेदार, सहायक,मुख्य अधिकारी जैसे कई विभाग के नौकरों की आवश्यक्ता होती है। ऊँचे पद पर रहनेवाले निम्न पद के काम नहीं कर सकते। कारण हर एक शरीर पाना इच्छाओं के आधार पर ही है। अच्छी इच्छाएँ उच्च श्रेणी के और बुरी इच्छाएँ निम्न श्रेणी के होते हैं। जब इच्छाएँ बिलकुल नहीं होती,जीव भगवान के पास ले जानेे की पूर्व स्थिति परब्रह्म स्थिति परिशुद्ध स्थिति अर्थात भगवान की स्थिति जीव को याद आते समय वैसा ही बदलता है। उच्च अधिकारी से जिसका संबंध है,वह निम्न कर्मचारियों की परवाह किये बिना सीधे संपर्क करने का मौका पाता है। उसी समय उच्च अधिकारियों से जिसका संबंध नहीं, वे सहायक के द्वारा बहुत देर की प्रतीक्षा के बाद ही अधिकारी से मिलते हैं। यही तत्व ही भक्ति विषय में भी । जिस गुरु में ऋषि में ब्रह्म ज्ञान है उनसे मिलने त्रिमूर्तियाँ,विघ्नेश्वर तक वंदना करने तैयार होते हैं। उसी समय जिसमें ब्रह्म ज्ञान नहीं है,ऊपर कहे हर एक ईश्वर को अलग -अलग संतुष्ट करना पडेगा। तभी परब्रह्म ज्ञान पाने का अवसर मिलेगा। वर्षा होते सय समुद्र के ऊपर उडनेवाले विमान पर भी वर्षा की बूंदें गिरेंगी। विमान पर की वर्षा की बूंदें हवाई अड्डे पर पहुँचता है। विमान पर की बूंदों को एक पक्षी पीता है। वह पक्षी पेड के नीचे अवशेष छोडता है। उसे वह पेड चूसता है। वह फल बनता है। उस फल को एक मनुष्य खाता है। उसे वह दूसरी जगह पर पाखाना करता है। फिर वह समुद्र पर पहुँचने
कितना समय लगेगा,वैसा ही कर्म की गति होती है। समुद्र ही केंद्र स्थान होता है। उस केंद्र स्थान समुद्र से बना पानी फिर सनुद्र तक पहुँचने कई बाधाओं को पार करना पडता है। असंख्य वर्षा की बूंदें ,असंख्य जीव राशियाँ असंख्य मार्गों के द्वारा उस केंद्र को पहुँचने के लिए उस केंद्र के नाम कहकर बुलाते हैं। वही अललाह,परिशुद्ध आत्मा, पर ब्रहम ,शक्ति आदि कहने का सारांश है।
41.जो है,उसका नाश नहीं है, जो संसार नहीं है वन बनता नहीं है।
सत्य में जो है ,वह यथार्थ में मैं आत्मा को ही कहते हैं। जैसा भी प्रयत्न करें ,उसे मिटाना असाध्य हो जाता है। यह संसार ही नहीं होता है। कभी नाश न होनेवाले स्वयंभू को ही शाश्वत कहते हैं। यह संसार मन होता है। मन नहीं है तो संसार नहीं है। चिंतनारूपी मन बनकर मिट जाता है। उसको उसको स्वसत् नहीं है। उसे खोजते समय वह नहीं रहता। सत्य में मन दृश्य मात्र है। दृश्य होने पर भी स्वरूप स्थिति में रहते समय त्रि कालों में यह नहीं रहता। मन सत्य है या असत्य ? के प्रश्न का उत्तर यही है कि नश्वर नाम रूप ही मन है। नाम रूप सत्य नहीं है। कारण सत्य स्थाई होती है। सत्य रहित नाम रूप से आश्रित मन असत्य ही है। वह सत्य होने का न्याय नहीं है। ऐसे असत्य मन से उत्पन्न स्वर्ग -नरक की शिक्षा भी असत्य ही है। मन का अहंकार कहनेवाला शारीरिक बोध मिथ्या बडप्पन का मैं से देखनेवाला यह संसार
मैं आत्मा की स्थिति की अज्ञानता ही है। एक माँ अपने शिशु का परिपालन करते समय हम कल्पना कर सकते है कि वैसा ही मेरा जन्म हुआ है। हमारे खुद के जन्म प्रसव को स्वयं नहीं देख सकते। हम नहीं कह सकते कि मैं पैदा हुआ । किसी से पूछो कि पहले तुम्हारा जन्म हुआ है या तुम्हारी माँ का। वह माँ कहेगा। तुम्हारे होने से तुम्हारी एक माँ है। तब हाँ का जवाब मिलेगा। क्या मेरा जन्म हुआ है? स्वयंं सोचकर देखें तो यथार्थ मैं का जन्म स्मरण नहीं आता। अर्थात अपने में जो आत्मा है,वह स्वयं स्वयंभू होकर खडा है। वास्तव में कोई सोने के लिए लेटता है तो पता न चलेगा कि किस मिनट में वह सोने लगा है। तब स्वप्न में कोई दोस्त पूछता है कि तेरी माँ कहाँ है?तब स्वप्न जाग्रण में एक अंग्रेज़ी स्त्री को या एक नीग्रो स्त्री को अपनी माँ दिखाता है।स्वप्नावस्था में यथार्थ ही मानता है।फिर दोस्त पूछता है कि किस अस्पताल में तुम्हारा जन्म हुआ, तेरे साथ कौन कौन थे? तब माँ के जवाब भी यथार्थ ही लगते हैं।
पर स्वप्नावस्था टूटकर जागृत अवस्था में कोई नहीं पूछता और कहते हैं कि यह केवल स्वप्न है। फिर स्वप्न की माँ,अस्पताल आदि की चिंता नहीं होती। यथार्थ पर विश्वास रखनेवाला यह शरीर,स्वप्न में कैसे फिसलकर गिरता है,पता नहीं चलता। वैसे ही आत्मा मोह निद्रा में फिसलकर अपने शरीर बनने को देखकर अपने नाते-रिश्तों को देखता है। वह शरीर मैं का गर्व करता है,अपने सामने आकाश,समुद्र,जनता ,संसार आदि के दर्शन का एहसास करता है। इसलिए मैं क्या स्वप्न में है के पूछने पर यथार्थ में मैं सोता हूँ । इस नींद में मैं स्वप्न देखता हूँ। स्वप्न में मैं और मेरा स्वप्न अनुभव सूक्ष्म होता है। जागृत अवस्था में सूक्ष्म होता है। स्वप्न में वह संकुचित है। जागृत में विस्तृत है। एक स्वप्न की माया है,दूसरा जागृत माया है। दोनों ही माया है।
स्वप्न को हम जिस प्रकार माया समझते हैं,वैसे ही जागृत अवस्था को भी समझना चाहिए। इस आत्मा को कभी नहीं विनाश होता। यह एहसास होगा कि जो दृश्य नहीं है, वह सदा के लिए नहीं है।
42. जानना- समझना चाहिए कि जो संसार नहीं है,उसमें दीख पडनेवाले जीव भी नहीं है।
एक नाटक का लेखक एक नाटक को लिखने के पहले ही अपने कथा पात्रों को सिलसलेवार ढंग से बना लेता है। नाटक के निर्देशक अमुक पात्र के योग्य अभिनता चुनकर कहता है कि तुम को कृष्ण के पात्र का अभिनय करना चाहिए। तुमको दुर्योधन का चरित्र है। तुमको दृधराष्ट्र का अभिनय करना चाहिए। अभिनय करनेवाले अपने अपने पात्र में तन्मय हो जाते हैं। मंच पर श्री कृष्ण का वेश धारी दुर्योधन का संवाद न करना चाहिए। दर्शकों को देखकर दुर्योधन इसने क्या अधर्म किया है ,बोलने में कोई अर्थ नहीं है। क्योंकि उसके पात्र के अनुकूल ही संवाद कर सकते हैं।दुर्योधन,कृष्ण,दर्शकों के लिए कठोर विरोधी पात्र है। सब श्री कृष्ण पात्र की स्तुति करते हैं, दुर्योधन पात्र की निंदा करते हैं। लेकिन मंच से बाहर आते ही दोनों कृष्ण और दुर्योधन पात्र दोस्त बन जाते हैं। जब ये अभिनय करते हैं,तब उनके अंतर्मन में यह भावना है कि यथार्थ में कृष्ण नहीं है,दुर्योधन नहीं है। लेकिन कथा पात्र के अनुसार उनका अभिनय कृष्ण ,दुर्योधन के प्रतिबिंब बन जाते हैं। वैसे ही आत्म ज्ञान
को स्थाई बनाकर इस शरीर को वेश मिला है। उसे अभिनय में प्रतिबिंबित करने के लिए संसार के मंच पर अभिनय करने आये हैं। अपने को भगवान ऐसे अभिनय करने को समझकर जो जी रहे हैं,उनको इस संसार से कोई संबंध नहीं है। वे कमल के पत्ते और पानी के जैसे जी सकते हैं। वैसे ही सर्व शक्तिमान भगवान इस ब्रह्मांड के नाटक मंच पर अभिनय कराकर तमाशा देखकर रसिक बन रहे हैं। फथा पात्रों को प्रतिबिंबित करनेवाले निर्देशक को वेश धारण से कोई संबंध नहीं होना चाहिए। वेश में भूल होने पर यथार्थ नहीं होता।वैसा ही अहंकार को जैसा भी शाश्वत रखने का प्रयत्न करें, स्थायित्व असंभव है। अहंकार को स्वसत् नहीं है। वैसे ही चराचर के नामरूपों को यथार्थ सत नहीं है। आत्म सत् के प्रकाश से ही वे स्थिर खडा सा लगता है। कर्नाटक के यक्ष गान में महाभारत में कृष्ण पांडवों का दूत बनकर दुर्योधन से बोलते हैं। आधे राज्य की माँग करते हैं। दुर्योधन कहता है कि सुई के नोक बराबर स्थान भी मैं नहीं दूँगा। कृष्ण पूछते हैं कि क्यों सुई के नोक भरा स्थान भी देना नहीं चाहते हो? दुर्योधन कहता है कि कृष्ण, मुझे मालूम है कि धर्म क्या है? लेकिन धर्म नहीं कर सकता।अधर्म क्या जानत हूँ। फिर भी अधर्म किये बिना रह नहीं सकता। इसका गूढार्थ है कि कृष्ण परमात्मा के सोचने मात्र से ही दुर्योधन के द्वारा ही सब कुछ कर सकते हैं। अर्थात जो कृष्ण सोचते हैं,वे ही दुर्योधन कर सकता है।दुर्योधन अहंकार का संकेत है। अर्थात यहाँ दृष्टित नाम रूप स्त्री पुरुष विविधता के सकल चराचर होते हैं। इस प्रपंच भर में प्रकृति अर्थात स्त्री होती है। पुरुष आत्मा होती है। अहंकार कभी परमात्मा के रूप में न बदलेगा। कह नहीं सकते कि वह है नहीं। ,कारण
वह नहीं है कहने पर है बन जाता है। उसे अलग करके उसकी सूक्ष्मता की ओर जाते समय वह नहीं हो जाता है।आप अपने विचारों के मूल स्थान पर अधिकार चला सकते हैं तो वह आप कै लिए असाध्य नहीं होगा। कारण आप अपने विचारों के वासस्थल पहुँचते समय प्रपंच के केंद्र को पहुँचते हैं। एक मनुष्य के किसी एक अंग को “मैं” नहीं कहते। आँखें बंद करके अपने में अपनों की खोज करते समय डृदय से सिर तक के अंगों को एहसास करते हैं। सत्य के विचारों का द्वार हृदय है। वही यथार्थ मैं है। वहाँ खडे रहते समय अहंकार गायब हो जाता है। केंद्र में पहुँचते समय मैं संसार भर विस्तृत सीमा के अनुभव में प्रवेश करता है। वहाँ सीमित मैं मिट जाता है। साथ ही संसार भी।उसके आधार का सत्य स्थिर खडा रहता है।
43.असीमित एक वृत्त है भगवान।सभी स्थानों में केंद्र होता है।
अनंत को असीमित वृत्त ही मान सकते हैं। हमारो विचारों के विभाजन शुरु में ही अस्त हो जाते हैं। एक सद्विचार हममें से उदय होते समय कितने ही घंटों के संचरण के बाद एक वृत्त रूप रूप में जहाँ उदय हुआ,वही आ पहुँचेगा।लोका समस्ता सुखिनो भवंतु कहकर प्रार्थना करते समय हमारा मन ही लोक हो जाता है। सकल सुख हममें ही होता है। वैसे ही बुरे विचारों की स्थिति भी। इसलिए कोई विवेकी बुरे विचारों को प्रकट नहीं करते। कोई आशीश देता है कि तुम श्रेष्ठ बनो। इस आशीश को स्वीकार करें या न करें वह अपने निवास को वापस आ जाएगा। इसीलिए विवेकी अपने बारे में ही सोचते हैं। अज्ञानता ही यहाँ बुरी चिंतन के अर्थ में कही जाती है। अर्थात्
आत्म ज्ञान के बिना सब के सब अज्ञान ही है। अंतहीन रिक्त एक भाग को केंद्र नहीं कह सकते। सभी भाग केंद्र ही है। शरीर स्वीकार करने पर ही एक केंद्र बनता है। मैं केंद्र रूप में बदलना है तो शारीरिक ज्ञान नहीं होना चाहिए। तभी मैं केेंद्र बनता है,जब आत्मा ही मैं की दृढता होती है, या मैं परमात्मा ही है का बेशक ज्ञान होता है। वह केंद्र मैं माया शक्ति के भँवर में गिर जाता है।उसी क्षण में जीव कला बनकर उस जीव कला के मन में बदलने के मन में भूमि ,आकाश समुद्र आदि अनेक जीव जाल बढकर दीख पडता है। स्वप्न को तजकर मैं केंद्र रूप में बदलने के साथ केंद्र बदलने के साथ केंद्र अंत होकर बदलता है। अर्थात सभी भाग केंद्र के रूप में बदलता है।.
44.
जीवात्मा परमत्मा को जब विभाजन नहीं कर सकते, तब उस स्वभाव को सदाशिव समझना चाहिए।
आकाश में बरफ़ से बने घडे को रखते समय घडा घडा रहने तक घडे के अंदर का आकाश घडा आकाश ,और घडे के बाहर के आकाश को महा आकाश कहते हैं। घडे के अंदर का आकाश अर्थात बोध मैं इस घडे के जैसे सोचता है। घडे बाहर के आकाश को अपने अन्य प्रपंच के रूप में देखता है। ज्ञान सूर्य का उदय होने पर घडा पिघलता है। अर्थात शरीर भूल जाता है। घडाकाश कुछ भी किये बिना अंत हीन आकाश के रूप में बदलता है। वास्तव में घडाकाश महाकाश में लय नहीं होता।महाकाश घडाकाश में लय नहीं होता। घडाकाश और महाकाश एक हो जाता है। घडा रहते समय घडे के अंदर का आकाश जीवतमा और बाहर के आकाश को परमात्मा कहते हैं। घडा शरीर है। सत्य में एक मात्र है। उस एक को ही५ परमत्मा कहनेवाला सदाशिव कहते हैं।
45. शून्य में ही अनंत शून्य बोध के पार का आत्म रूप
वायु मंडल भूमि से चंद मीलों की दूरी पर है। उसके बाद शून्य ही है। उस शून्य के पार असंख्य नक्षत्रों की भीड और नवग्रह स्थित है। उनके क्षेत्र फल हमारे ज्ञान के अपार है। फिर भी हम पंचेंद्रिय मनो बुद्धियों को जीतते समय साक्षी रूप आत्मबोध को पहुँचते समय ,कुंडलिनी प्राण बने कुंडलिनी शक्ति का एहसास करके योगी की कल्पना के मूलाधार,स्वादिष्टन,मणिपूरक,अनागत,विशुद्धि,आज्ञा,आदि षडाधार पार करके सहस्रदल कमल पहुँचकर अनंत को पहुँचते समय होनेवाले कई करोड सूर्य प्रकाश एकसाथ ज्योति अनुभवों को सीमित ज्ञान द्वारा समझ नहीं सकते.समझा नहीं सकते। एक यंत्र झूला में हर एक संदूक में बैठे लोग चक्कर लगाते समय ऊपरवाले के दृश्य वर्णन नीचे के संदूकवाले को स्पष्ट रूप से सुनाई नहीं पडेगा। वैसा ही काल चक्र भी ऊपर जानेवले की बारी में ही सत्य में यथार्थ दृश्य देख सकते हैं। सकल प्रपंच,ग्रह,उनकी सीख। अर्थात स्वर्ग-नरक जैसी कल्पनाएँ चौदह संसार,कहनवले लोक,देव,गंदर्व,मनुष्य,अग्रिय जैसे जीवों की सृष्टियाँ,रक्षा करना, नाश करना जैसे सभी शिक्षाएँ,भूलकर अंतहीन रिक्त ही समझ लेना चाहिए। शरीर के बिना बोध के बारे में कह नहीं सकते। शरीर मिटते समय बोध सीमा के बाहर चला जाता है। अर्थात खंडबोध अखंड बोध में बदलता है।
46.परिपूर्ण अतुलनीय कैवल्य रूप ,परमात्म बोध दे देना।
पूर्ण से पूर्ण लेने पर पूर्ण मात्र बचता है। संपूर्ण ज्ञान प्राप्त सभी कलाओं के पारंगत संपूर्ण अवतार,ऋषि, महान आदि कोई भी इतिहास में ज्ञान न पाये। इतिहास की खोज करते समय कृष्ण के समर्थक शिव की आराधना नहीं करते। देवी की आराधना करनेवले दूसरे देवों की आराधना नहीं करते। हिंदू विश्वासी इस्लाम धर्म पर विश्वास नही करते। इस्लाम मजहबी हिंदू धर्म को नहीं मानते। ईसाई इन दोनों को स्वीकार नहीं करते। बुद्ध के आराधक के विरुद्ध जैन धर्म की स्थापना हुई। जंगल के आदीवासी सभी मज़हबों को छोडकर प्रकृति शक्ति की आराधना करते हैँं। ईसा मसीह मरकर तीन दिनों के बाद पुनः दर्शन दिये। हिमलय में क्रिया बाबाजी 1804 सालों से जीवित रहकर योग्य भक्तों को दर्शन दे रहे हैं।फिर भी आध्यात्मिक बडे लोग दूसरे वर्गों को मानते नहीं है। सभी वर्गों को एक ही कहते हुए विभिन्न मार्ग पर यात्रा करते हैं। उसके कारण वे अपनी संपूर्ण शक्ति को प्रकट नहीं कर सकते। सभी प्रकार की क्षमता प्राप्त लोगों को सर्वशकतिमान कहते हैं। उस सर्वसंपन्न गुणी के शरीर धारण कर संसार के लोगों के दर्शन के लिए आज तक परमात्मा परमेश्वर ने अनुमति नहीं दी है। समुद्र का पानी भाप बनकर वर्षा होकर भूमि पर तालाब, नदी बनकर फिर समुद्र में संगम होता है। समुद्र पूर्ण रूप में आकाश में जाकर फिर नीचे आने का साध्य नहीं है। भूमि के सामने दोनों ओर समुद्र हैं। एक भाग जमीन है। इन दोनों भागों के पानी एक ही समय पर उमडकर आने पर भूमि डूब जाएगी। वैसे ही परब्रह्म रूप सामने आने पर उसका प्रभाव प्रलय होगा। यहाँ मनन करनेवाले मनुष्य स्थिति में खडे होकर सीमित जीवबोध असीमित अनंत में टिककर लय होने के लिए
प्रार्थना ही परमात्म बोध देने के लिए। यथार्थ में ज्ञान का कहना स्वआत्म स्मरण होगा। यह बिना ध्यान के कोई भी जीव इस माया रूपी अंधकार से अर्थात अज्ञानता से बच नहीं सकता। एक बार त्रिकाल ज्ञानी शिव भगवान अपनी पत्नी उमा देवी के साथ वशिष्ट मुनि के सामने दर्शन दिये। एक हजार पूर्ण चंद्र के शीतल आनंद दर्शन की खुशी हुए मुनि से शिव भगवान उनके ध्यान की स्थिति के बारे में पूछा। जवाब देकर मुनि ने देव पूजा के विधिवत चलने की प्रणाली और पूजा की आवश्यक सामग्री के बारे में पूछा। उसके उत्तर में शिव ने कहा कि लक्ष्मी सहित वैकुंठ में विराजामन श्री नारायण ,कमल पर बैठे ब्रह्मा, कैलासपति मैं आदि देव नहीं हैं। चिताकाश स्वरूप स्व आत्मा ही यथार्थ देव है। उसके लिए आवश्यक पूजा सामग्रियाँ फूल और ज्ञान ही हैं। अचंचल रहना और चैन से रहना ,समत्व, आदि उसके उपकरण बोध होते हैं। सर्वव्यापी है। सर्वत्र सर्व इंद्रियों के अविभाज्य सच्चिदानंद रूप आत्मा “मैं “ की दृढता पाने से बढकर कोई बढिया ध्यान या यज्ञ या कर्म इस संसार में नहीं है। इस सत्य को जानने, समझने तक विभाज्य अर्थात शारीरिक उपधाओं के साथ एक गुरु ,इष्ट देवताओं को ,त्रिमूर्तियों को आराधना करने पर भी जिस कण में मैं आत्मा ,ब्रह्म के बोध पाते हैं, उसी मिनट मालूम होगा कि ऊपर की बातें माया ही है। यथार्थ पूजा का मतलब है कि दैनिक जीवन में होनेवाले सुख-दुख, लाभ-नष्ट,उन्नति-अवनति, शीतोष्ण,रोग-आरोग्य स्थितियाँ ,पाप-पुण्य,सफलता-असफलता, ज्ञान-अज्ञान, निंदा-प्रशंसा, आदि होते समय मन को सम स्थिति रहने की समता लाना ही यथार्थ देव पूजा होती है। इस पूजा करनेवालों को एक विचार उदय होकर दूसरे विचार उदय होने के बीच का समय अर्थात शरीर में मध्य भाग हृदय से प्राणन उदय उदय होकर अर्थात रेचक पूरक के बीच के उस सूक्ष्म समय में अर्थात कुंभक,शीतल,शांति आदि शाश्वत आनंद स्थितियाँ प्रसाद के रूप मिलती हैं। वही चिरंजीवि होते हैं,जो सूर्य के प्राणन् और चंद्र के अपानन् आदि गति को हर एक मिनट जागृत,स्वप्न,सुसुप्ति मं भी पीछा करके प्राणन,अपानन् के बीच स्थित खडे रहे चितात्मा को एक मिनट भी विस्मरण नहीं करते हैं।
हर एक जीव अपने मन में अपने रिश्तेदार ,माता-पिता,भाई-बहन,पति -पत्नी, आदि बंधन होते हैं। आत्म चिंतन की खोज में हर एक जीव के अबोध स्थल में ये सब रिशते-नाते मिथ्या चेहरे मालूम होने पर भी ज्ञान की कमी के कारण वे सब ठीक है या सही,धर्म है या अधर्म ,पाप या पुण्य आदि न समझकर बंधन-स्नेह में फँसकर कर्म करने में लगकर,कालगति पाते हैं। लेकिन इसके विपरीत उपर्युक्त कोई नाते-रिश्ते के लोग कोई भी प्रगति की ओर जाने की मदद नहीं करते।वही नहीं मरते समय मालूम होगा कि वे हमारी प्रगति के बाधक रहे थे। उस स्थिति में शरीर,मन और बुद्धि भार लगेंगे।अंतिम साँस लेते समय,साँस घुटते समय अमृत रूप परब्रह्म में लय होने की तीव्र इच्छा होते समय आत्म स्मृति शारीरिक भूल सवभाविक रूप में अचानक होगा।
सत्य में इस आनंद का रहस्य सूक्ष्म में ही है।उदाहरण रूप में एक साहित्य वाक्य मानस संचररे के नाम शुरु होनेवाले गीत सुननेवाले के लिए अक्षर मात्र ही है। उसको राग देकर शंकराभरण में सुंदर गीत बनाने पर अक्षरों को लंबा-छोटा करके गाने पर हम सुनने में आनंद लहरी में तन्मय हो जाते हैं। वैसे ही नैलान साड़ी पहननेवाली को छूते समय और सन (जूट) की साड़ी छूते समय भिन्नअनुभव होता है। वैसे ही माँसाहार खाने से शाकाहारी को मानसिक शांति मिलती है। अर्थात सूक्ष्म में ही सुख मिलता है। मन शरीर के चिंतन करते समय मन से अति सूक्ष्म आत्मा के निकट पहुँचते समय यथार्थ आनंद अनुभव होता है। भक्त प्रहलाद की कहानी में प्रहलाद का मन तैलधारा के समान नारायण में था। प्रह्लाद के पिता हिरण्यकश्यप का मन प्रह्लाद में था। उसकी माता का मन पति हिरण्यकश्यप में था। यहाँ प्रह्लाद नारायणकी आत्मा रूपी
बिजली को छूता है। यह बिजली एक ही समय में सबमें चलन से आत्मा की बिजली मात्र में है। आत्मा द्वारा आत्मा को जगा सकते हैं। जैसे जनरेटर के द्वारा बिजली तैयार कर सकते हैं।
आत्मज्ञान का प्यासी यथार्थ शिष्य नचिकेता को हम कठोपनिषद में पढते हैं। मृत्यु के रहस्य जानने यम धर्म गुरु के पास पूछता है। तब नचिकेता के प्रश्न का उत्तर न देकर प्रलोभ की बात करते हैं। यम वचन देते हैं कि तुम को भूलोक का चक्रवर्ति बनाता हूँ। भगवान के यशोगान गानेवाली देवलोक की अप्सराओं को भेजता हूँ।
तुम्हारी लंबी होगी। जब तुम चाहोगे,तब तेरी मृत्यु होगी। तब नचिकेता ने कहा कि मेरे प्रश्न के उत्तर देने के गुरु आप के सिवा तीनों लोकों में और कोई नहीं है। आप मृत्यु के रहस्य को न पूछने के लिए जो वर देने तैयार हैै वह घास की तरह है। आत्म ज्ञान के परमानंद के सामने वे क्षण भर में मिटनेवाले हैं। वे वर आप
खुद रख लीजिए । नचिकेता के निवेदन सुनकर कठोर वैराग्य देखकर यम ने सोचा कि देवों को भी अप्राप्त आत्म ज्ञान पाने का योग्य उत्तम शिष्य यही है। उसके बाद मृत्यु रहस्य के ब्रह्म विद्या को अर्थात आत्म ज्ञान को नचिकेता को सिखाया। मृत्यु रहस्य यही है कि “ मैं ”आत्मा का मृत्यु नहीं है।
सुख पाने की इच्छा तनिक रहने पर भी मन नहीं वश में आता,जन्म और इच्छा का नाश नहीं होता। हम दृश्यों को मानते हैं तो स्वरूप विस्मृति होती है। स्व रूप को भूले बिना दृश्य को अपनाना साध्य नहीं है। यह जानना और समझना आवश्यक है कि मन और शरीर नश्वर है। “मैं” “ आत्मा “ अनश्वर है। इस बात को संदेह के बिना ज्ञान बोध बढने पर सांसारिक विचार न होंगे। उस स्थिति में “ सत “नामक आत्मा का रूप नित्य प्रज्वलित होगा।नित्य प्रज्वलित होगा।
47. परमेश्वर, परमात्म रूप, प्रभो,अर्द्ध नारीश्वर,जगदीश्वर विभो।
ओं
सनातन वेद
(5वाँ वेद)
महा वाक्य
( बोधाभिन्न जगत्)
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1.प्रकृति रूपी स्त्री ,वह नंगा हो जाती तो आत्मा रूपी पुरुष बन जाती।
2. जो न होना था,वह हो गया।
3. चाह. पसंद,नफ़रत होने की स्वयं जिम्मेदारी है। यह उसको नहीं मालूम।
4. आत्मा से उमडकर आनेवाले वचनों में अमृत रस मिला रहेगा।
5. हम जो काम करते हैं, जब उसमें आत्मार्थ नहीं होता, वह दूसरों को समझाने की कोशिश करता है।
6. जो अंदर है,वह बाहर, जो बाहर है वह अंदर आये बिना न रहेगा।
7. हथेली में जो है,वह काम का नहीं है तो शहतीर से लेने की कोशिश करना मन का स्वभाव होता है।
8. सुरक्षा के लिए यथार्थ रूप में पैरों पर गिरनेवाले पूजा करेंगे ।भय से पैरों पर गिरनेवाले नमक हराम होंगे।
9. जो चिंतन बाहर अभिव्यक्ति नहीं कर सकते,वे मन का भार बनेंगे।
10. हृदय की बातें स्रोत बनते समय, ग्रंथों की बातें मन में भरने की जरूरत नहीं है।
11. सोचने से मिलने के ज्ञान से बढकर ,अतिरिक्त ज्ञान चिंतन रहित दशा में मिल जाता है।
12. लोकायुक्त रहित आत्मा में मात्र जिसका मन स्थित रहता है,लोकायुक्त विज्ञान अपने आप मिलता है।
13.अगले मिनट हमारे मन में उदय होनेवाले चिंतन व स्मरण जब हम खुद नहीं जानते, तब दूसरों के चिंतन स्मरण के बारे में कह नहीं सकते कि पूर्ण रूप से मालूम है।
14. अपने में उदय होनेवाले चिंतन-स्मरण पहले ही जानते हैं, वे ही दूसरों के चिंतन स्मरण जान पाएँगे।
15.मेरे बिना यह संसार नहीं है। अपनी अज्ञानता में संसार को जानकर दूसरों को समझाने का तुरंत का प्रयत्न मूर्खता ही है।
16.झूठ के पर्दे के पीछे का सुखी जीवन अर्थात रहस्य जीवन बितानेवालों को सच्चाई के प्रकट होते ही जीवन स्थिर न रहेगा।
17.लोकयुक्त सुख-भोग विषय सब,अनित्य सुख के ढक्कन से बंद दुख ही है।
18. अद्वैत् वेदांत के अनुसरण करके ,न अनुसरण करके अपने से अन्य दूसरा किसी भी काल में बनेगा नहीं। वैसे होते समय अपने को मदद करनेवाले दुखी होते समय वह अपना ही दुख समझना चहिए।
19.अग्नि में मोहित पतंगों के नाश के समान ज्ञानी के ज्ञान प्रकाश के मोह में चलनेवालों की अज्ञानता मिट जाती है।
20,ब्रह्म बिंदु ही ओं होता है।
21. अनंत नाद ब्रह्म ओंकार रूप में ही आएगा।
22.ओं एक ही अक्षर होने पर भी उसको ही बहुत बडा वजन होता है।
23. सब कुछ नहीं चाहिए को सोचते समय ही सब कुछ मिल जाता है।
24. साधारण मनुष्य के दूध जैसा मन सांसारिक पानी में मिश्रित होगा। इसलिए मन को सांसारिक विषयों से अलग नहीं कर सकते। इसलिए विषयों के द्वारा दुख होगा ही। लेकिन ज्ञानियों में अपने आत्म विचार से मन रूपी दूध को श्वेत बनाकर संसार के पानी में न चिपककर रहने को छोड देने से उसके स्वभाविक आत्म स्थिति पर पहुँचकर उसके स्वभाविक परमानंद का अनुभव करते हैं।
25. जिससे मन अधिक प्यार करता है,वह हमारे काल के रूप में आने पर भी उससे हमारा स्नेह हटता नहीं है। उसका नाम स्नेह नहीं है,प्यार खोना नहीं चाहते।
26. भगवान से प्यार करने लगेंगे तो काल आने पर भी चिंता नहीं होता।
27, मैं करनेवाले कार्यों की प्रेरणा अहंकार होता तो लगेगा कि वह ठीक नहीं है। वह आत्मा हो तो अनुकूल कार्य करेगा। हमें सीधे मार्ग पर कार्य में लगना चाहिए। वह आनंद देगा ।
28.राम के मन में रावण आ जाएगा तो राम को मुश्किल होगा। रावण के मन में राम आ जाएगा तो रावण को मोक्ष मिलेगा।
29. शरीर पराधीन होने से शरीर की सीमा होने से जन्म से ही हमारी स्वतंत्रता नष्ट हो जाती है।
30. जब कोई किसी को अज्ञानी कहता है, तब वह खुद अपने अनजान में ही अपनी अज्ञानता प्रकट करता है। कारण जो अपने को जानता है,वह दूसरों पर दोषारोपन नहीं करता।
31. दोनों बात कह सकते हैं कि शरीर बना है,शरीर नहीं है। लेकिन शरीर जिस ज्ञान को जानता है, इस ज्ञान का जन्म कहाँ हुआ है? कैसे ज्ञान नहीं होता है? इसको स्मरण में लाने का अवसर नहीं है। क्योंकि वही आत्मा है।इसीलिए आत्मा का जन्म,मरण रहित शाश्वत कहते हैं।
32.जो मनुष्य किसी भी प्रकार की मदद नहीं पा सकता,वह लबी साँस लेकर अनुभव नामक शिकारी से पश्चाताप की खोज करता है। तभी यथार्थ गुरु उसमें उदय होता है। अनुभव ही यथार्थ गुरु होता है।
33. आत्मा की मृत्यु नहीं है का ज्ञान बोध पक्का न होने से ही प्राण का भय होता है।
34.आत्मा का स्वभाव आनंद ही है। उसे जानने अहंकार का नाश होना चाहिए।
35.जब तक अहंकार रहेगा,तब तक रति भी रहेगी।
36.अनंत, अनादी,स्वयंभू,स्वयं आनंद अनुभव,आत्म स्वरूप ब्रह्म,जीवन में खुद प्रकट होना ही मोक्ष है।
37. माया में सत्य है। इसीलिए माया को ही सत्य रूप में देखते हैं।
38.जल रहित रेगिस्तान पानी बनाकर दिखाने की क्षमता रखता है। वैसे ही प्रकाश स्वरूप अपने में अपनी शक्ति माया अपने को ही दो ,दो से बहु गुना बनाकर दिखता है।
39.परमात्मा अपने को ही प्रतिबिंबित करने की कोशिश करना ही सृष्टि है।
40.विधि पीछा करने पर,उदासी से भागना मूर्खता है।
41.किसी एक व्यक्ति पर करुणा से उसको ढोने पर उससे कोई प्रतिफल की प्रतीक्षा नहीं कर सकते। उसको अपने की ही सुरक्षा काफी है।
42.बनानेवाले को भोगने ,भोगनेवाले को बनाने में श्रद्धा कम होगी।
43. दूसरों को आनंद देने के विचार आते ही हमरे दिल में आनंद होगा। वैसे ही चिंता भी।
44.अपने बडप्पन बिगाडे बिना गलत करने सब तैयार हैं। लेकिन सत्य प्रकट कर देगा।
45.खुद गलत समझने के कार्यों के अनुभव से ही भय होता है।
46. आत्म ज्ञानी को गुलाम बनाने की कोशिश करना आकाश को घडे में बंद कर रखने की कोशिश करने के समान है।
47. एकांत में कल्पना लोक में जाते समय काम ,अचिंतन स्थिति में जाते समय मोक्ष की ओर मन जाएगा।
48. जहाँ सुगंध है, वहाँ देवों का आगमन होता है। जहाँ दुर्गंध होता है,वहाँ भूत -पिशाच आते हैं।
49.जो नहीं लगता है,वे होते हैं। रूप ही बदलता है। रूप ही माया है।
50.जो कार्य हो रहा है,वह पहले ही निश्चित है। जो इस बात को जानते हैं,वे निश्चिंत रहते हैं। यही नही नया निर्णय के कार्य में अपने विवेक का प्रयोग कर सकते हैं।
51. आत्मा सर्व स्वतंत्र होने से सभी जीव स्वतंत्र प्रेमी होते हैं।
52.जो स्वतंत्रता को मुख्यत्व देते हैं,उनको ही सत्यसाक्षातकार (मोक्ष) मिलने का अवसर होता है।
53. किसी एक को उपेक्षा करके देखो,वह तेरे पीछे आने को देख सकते हो।
54. सब को उपेक्षा करनेवालों को ही शांति मिलेगी।
55.इस संसार को आप नहीं पसंद करते तो यह संसार के आप हकदार हैं।
56.जो कुछ आये हैं,सब के उपेक्षा करने की संपूर्ण क्षमता जिसमें है,वही आत्मराज होता है। उसके सामने सब के सब गुलाम होते हैं।
57. जिसको स्वीकार करने से अनुपेक्षित को भी उपेक्षित कर सकते हैं वही आत्मा होती है।
58. टालने न योग्य अपने पसंद की वस्तु न मिलने के कारण यही है कि इस जन्म में
या पूर्व जन्म में अपने को योगयता है या नहीं का न समझना ही है।
59. जिस विषय में पूर्ण इच्छा नहीं होती, वह विषय आसानी से हमें मिल जाता।
60. सत्य रूपी पुरुष स्त्री रूपी प्रकृति को देखते समय सत्य रूपी पुरुष मिथ्या स्त्री के रूप में बदलती है।
61. अखंड साक्षी बोध यही है कि खुद जो भी करें,मैंने कुछ नहीं किया का ज्ञान है।
62.त्रिकालों में रहित संसार में अर्थ रहित जीवन में अपने से अन्य बनकर दूसरा एक नहीं है। इस ज्ञान बोध में “मैं” प्रवेश नहीं होना चाहिए।
63. साक्षी बोध का मतलब है दृश्य के जैसे अपने शरीर को भी देखने की स्थिति ही है। दृष्टा के बिना दृश्य नहीं है। इस अखंड ज्ञान का बोध होते ही आत्म बोध होता है। अर्थात यह निदर्शन है कि आत्म बोध के बिना और कुछ नही है।
64.मनुष्य में बाहर कहने को पसंद न करनेवाली जगह में ही खुश होता है। वैसे ही
नाश होनेवाले इस मिथ्या प्रकृति से ही अनश्वर सत्य रूपी आत्मा।
65. परमात्मा निस्संग रूप में इस शरीर को प्रयोग करके ही जीवत्मा से सभी कर्मों को निश्चय करता है। उस निश्चय के अनुसार शरीर की अनुमति देने पर ही अपनी इच्छाओं को पूर्ति कर सकते हैं।
66. अपने में अपरिहार्य अहमात्मा को अनुसण करने पर ही उसके साथ जुडकर उसके समान बदल सकते हैं।
67.किसी एक को अनुसरण करने पर ही उसको पूर्ण रूप से जान-समझ सकते हैं।
68.आचार मर्यादाओं के बंधन में जीनेवालों को इस संसार में कोई बडा कार्य नहीं कर सकते हैं। क्योंकि वे बंधनों के पार होते हैं।
69. अहंकार नियम को नाश करने पर सत्य रूपी आत्मा अहंकार को नाश कर देता है।
70. बकरी,गाय,मुर्गियों को खाना देकर ध्यान करनेवाले कसाई जैसे विषय भोग देते समय सावधान रहिए। वैसे समर्थन करनवाले यम लक जाने क मार्ग दिखाते हैं।
71. जैसा भी स्मरण हो, वे यादें सब जीव के नश्वर स्थिति को ही दिखाते हैं।
क्योंकि रूप के बिना यादों को कोई स्थिरता नहीं है।रूप तो नश्वर है।
72. सूर्य उदय के बिना कर्म न चलेगा। आत्म सान्निध्य के बिना शरीर इंद्रियों को
कोई काम नहीं कर सकता। वैसे ही आत्मा निर्विकार होकर कर्म करता है।
73. जिनमें शक्ति है,उनको अहंकार ज़रा भी नहीं होगा।
74.जीवात्मा तभी मुक्ति पाने को सोचेगा,जब मालूम होगा कि इस शरीर से ही
चिंता होती है।
75. मैं शरीर नहीं ,आत्मा ही है का पूर्ण बोध प्राप्त करनेवालों को यह शरीर भार रूप लगेगा।
76.प्यार भगवान है, भगवान सत्य है, सत्य मैं ,मैं अनंत, अनंत आकाश जैसे सूक्ष्म,सूक्ष्म शून्य , शून्य ज्ञान,ज्ञान ब्रह्म, ब्रह्म जानकर अनजान रहना उसका स्वभाव होता है। उनसे अभेद रूप ही यह प्रपंच होता है।
77. हमारे लिए अनावश्यक विषयों में मन न लगना है तो आवश्यक वस्तुओं को पूर्ण रूप में जानना चाहिए। वह उससे अधिक प्रधान होना चाहिए।
78. भगवान की खोज के बिना भगवान नहीं बन सकते। वह भगवान अधिक निकट
अपने हृदय में रहते हैं। इसलिए भगवान को हृदय की खोज पूर्ण होते समय एक क्षण में शरीर भूलकर भगवान बनेगा।
79. जब इच्छित वस्तु को सहज रूप से नहीं चाहिए की बात लगती है,तब वह वस्तु अपनी बनेगी। मन नियंत्रण में आएगा।
80. चाह -बंधु और बंधन होगा। घृणा -बंधन और काल के बाद विमोचन होगा।
81.जिनको स्वीकार नहीं करते, उनको छोड देते हैं।स्वीकार करते समय जो बंधन होगा,वही बचते समय भी। इसलिए बंधन मुक्ति के लिए किसी बात को स्वयं स्वीकार करना नहीं चाहिए और स्वयं तजना भी नहीं चाहिए।
82. जो कुछ चाहते हैं, सब कुछ पाने पर भी आत्मा के बराबर कुछ नहीं होगा। “मैं” आत्मा हूँ के जानने के बाद एहसास होगा कि यहाँ कमाने के लिए कुछ नहीं है। कारण सर्वस्व आत्मा में ही है।
83.अभिनय में अनुभव होने पर संसार अभिनय -सा लगेगा। लेकिन कर्म फल अनुभव करेगा।
84. नश्वर चीजें सब के सब असत्य ही है। उनके बिना मन नहीं बनता। स्मरण असत्य होने से मन और मानसिक कल्पनाएँ सब असत्य ही होगा।
85. हमारा यथार्थ जो भी हो यथार्थ जीवन जितने भी काल हो ,अंत भी यथार्थ भी होगा।
86. मन आत्मबोध से शारीरिक बोध को आते समय परमानंद काम सुख में बदलेगा।
87. मन और शरीर एक ही स्थान में रहते समय सुख हो या दुख पूर्णत्व मिलता है।
88.तटस्थता से अपने में खुद का रसिक विवेकी है। क्योंकि अहमात्मा में अपने रसिक होने पर सभी जीवों के रसिक हो सकते हैं। कारण आत्मा सर्वव्यापी होती है।
89.खुले मन के साथ सब कुछ किससे कह सकते हैं,वह मित्रता ही अंत तक जारी रहेगा।
90.सूर्य के सामने काले बादल छा जाते हैं तो धूप चली जाती है। काले बादल बदल जाने पर धूप आ जाती है। लेकिन आना-जाना धूप नहीं है। काले बादल ही है। वैसे ही अज्ञान की यादें आत्मा रूपी ज्ञान सूर्य को छिपाता है।
91. नाम और रूप के बिना कोई यादें याद आने का साध्य नहीं है। नाम और रूप असत्य है तो जो यादें आती जाती हैं,वे सब असत्य ही हैं।
92. अपनी अज्ञानता से गुरु को देखते समय ही शिष्य गुरु से विवाद करता है। जो शिष्य गुरु में पूर्णता देखता है,गुरु में कमियाँ नहीं देखेगा।
93.गुरु के वचन सत्य है,कारण गुरु ईश्वर है। गुरु के वचन के विपरीत न बोलनेवाला ही यथार्थ गुरु के पहचान करनेवाला शिष्य है।
94. किसी को पाठ सिखानेवाला ही अध्यापक है। उसको सुधारने की योग्यता रखनेवाला ही गुरु होते हैं।
95. ईश्वर पर दृढ विश्वास रखनेवाला नहीं कहेंगे कि अपने को कोई नहीं है।
96. ज्ञानदेवी अंदर आते समय माया देवी बाहर जाती है।
97.मशाले को जला नहीं सकते,वैसे ही ब्रह्म ज्ञानी को खुश कराने के लिए कामुक्ता में योग्यता नहीं रहती।
98. नश्वर में अनश्वर को चाहना ही माया होती है।
99.भोगकर भोगने के जैसे अभिनय करें तो संसार चुप न छोडेगा।
100.सत्य को लेकर असत्यता को बंद करने की मूर्ख क्षमतावाले ही मन में आएँगे।
संकल्प-विकल्प में फँसकर तडपते रहेंगे। उसके आयुध ही आत्मा सर्वव्यापी का विचार होता है।
101. दाम और स्थिति होने पर छोटी है, दाम और स्थिति नहीं तो बडी है।
102.नाम रूप स्मरणों को प्रयोग करके ही मन की स्थिती रहती है।
103. सीमित यादों को असीमित परमात्मा के पास पहुँचा नहीं जाता।क्योंकि यादें रहित स्थिति ही परमात्म स्थिति होती है।
104.किसी को उपदेश देते समय उसको मदद करने के लिए तैयार रहना चाहिए। मदद को स्वीकर करनेवाला उपदेश को मानकर उसकी बात माननी चाहिए।
105. जिस मिनट पर यादें सब भूल जाती है,उस पल में ही मोक्ष मिल जाएगा।
106. शास्त्र जितनी दूर भी जएँ,यादों तक ही जा सकते हैं।
107.सभी चेहरे मिथ्या चेहरे जाननेवालों को मन स्व आत्मा में मात्र रमने का कष्ट न रहेगा।
108. मन और आत्मा मिश्रित रति ही नित्यानंद होने के लिए बना मार्ग होता है। मन आत्मा के निकट जाते समय आत्म बोध विकसित होगा। खंड बोध अखंड बनने के साथ जो मन नहीं है, उसे नहीं है का एहसास कर सकते हँ।
109. जीने की इच्छा जिनमें है, मृत्यु निश्चित है जानने पर मर जाएँगे पर विश्वास करना कष्ट ही होगा।
110.मन अन्य विषयों पर रमते समय शक्ति से मन निश्चल आत्मा में रमते समय ही अतिरिक्त शक्ति मिलेगी। अर्थात विषय जो भी हो, उसके बारे में नित्य,अनित्य ज्ञान होने के लिए चलन अत्यावश्यक होता है।
111. अनुभवी उनके अनुभव को दूसरों से बोलते समय उसे सुननेवाले को अपने अनुभव -सा लगेगा। कारण विश्व मन का भाग ही दोनों मन हैं। कहनेवाला और सुननेवाला दोनों एक ही संकल्प के होने से वही अनुभव होता है।
112.सज्जनों को दूसरे मदद नहीं करने पर भी सज्जन दूसरों को भलाई करेंगे ही।
113. भूख ही एक मनुष्य को व्यवहारिक बनाता है।
114. बाहर लौकिक बोध भूलकर मन आत्मा में मात्र खुश होते समय एक गुफा में जाएँगे।
115.सत्य रहित अर्थात बोध रहित कोई दृश्य नहीं है। सत्य की खोज करते समय अंत में सभी दृश्य गायब हो जाता है।
116. आत्मा को लक्ष्य करके जीनेवाले को इस प्रपंच रहस्य को आसानी से जानने के लिए परीक्षा चलाना प्रकृति की नीति होती है।
117. किसी के घर जाते समय कुत्ते के भूँकने पर उनके लक्ष्य के बाधक कुत्ते पर पत्थर फेंकने के समान अभिनय ,यह कुत्ते को मारने के लिए नहीं ,लक्ष्य की बाधा से बचने के लिए ही। वैसे ही संन्यासी का क्रोध भी।
118.
रूप रहित स्वतंत्र आत्मा को स्वतंत्रता रहित प्रकृति अर्थात् माया,साधारणतः आत्मा के स्वभाव स्वतंत्रता को बाहर प्रकट करने न देगी।
119.भूलोक में जितने विविध प्रकार के मनुष्य होते हैं, उतने प्रकार के स्वभाव होते हैं। लेकिन स्वभाव का मूलाधार एक ही होगा। वह आनंद ही है।
120. गलत प्रतिबिंब ही यह शरीर है। गलत नामक कोई नहीं है। इसलिए यह शरीर भी नहीं है। जो शरीर नहीं है,वह नहीं है। क्योंकि जो है,उसको नाश नहीं है।
121.रति से ही यह शरीर बना है। रति के बनते ही द्वैत होगा। जो है वह अद्वैत है,
रति केवल कल्पना ही है।
122.संकल्प ही भविष्य है।
123. जो सही नहीं है,वह गलत है। प्रश्न और उत्तर गलत है। प्रश्न और उत्तर जो नहीं है, वही सही है । सही कहना ईश्वर ही है।
124.नियंत्रण रहित बंधनों के के द्वारा ही सत्य का मार्ग स्पष्ट होगा।
125. जो सत्य को मात्र अनुसरण करके जीता है,नियंत्रित बंधन अंधा बना देगा।
126.आत्म ज्ञानी का धैर्य और किसी को न मिलेगा।
127.आत्मा को मात्र लक्ष्य बनाकर जीनेवालों का बंधन खुद ही हट जाएगा।
128. उत्तम गुरु के अधीन उत्तम शिष्य रहकर उत्तम विषय को उत्तम स्थान में बाँटकर देने से उत्तम फल देगा।
129.आत्मा सर्वव्यापी होने से कह नही सकते कि वह आत्मा का प्रतिबिंब है। लेकिन आत्मा की शक्ति माया के कारण प्रति बिंब सा लगेगा। वही नहीं सर्वशक्तिमान को असंभव की बात कोई नहीं है। अर्थात आत्मा सर्वव्यापी होने से माया भी सर्वव्यापी
ही है। समझ लेना चाहिए कि माया और प्रति बिंब मृगमरीचिका ही है।
130.जिस अनुभव की व्याख्या नहीं कर सकते, उसकी व्याख्या करते समय वह व्याख्या अनुभव से छोटी हो जाएगी।
131. परमात्मा अपनी शक्ति माया के आवरण से प्रतिबिंबित है यह सृष्टि।
वह सृष्टि ही भगवान का सपना है। भगवान महसूस करने पर वह प्रलय होता है।
132. लगातार जो याद अपने को शिकार करता है, वह याद ही अपने जीवन का लक्ष्य होगा। वही उस जीवन का मुख्य योग होगा।
133. कर्म वासना बीज झडकर गिरते समय ही स्मरण रहित रह सकते हैं।
134. लोकयुकत अभिलाषाएँ जिसको है,वे अनुगरह परापत कर अलप ऐशवरय पाकर सुखी रहने पर भी मृत्यु शय्या पर सत्य की खोज करेंगे तो पूर्ण आत्म समर्पण से आत्मज्ञान के आनंद सागर में नित्य संगमित होगा।
135.इस संसार में दीख पडनेवाले दृश्य कोई भी सत्य नहीं है, इस संसार में अपने को नित्य सुख देने के लिए योग्यता नहीं है,मैं आत्मा ,आत्मा का स्वभाव आनंद, इन बातों को जाननेवाले दूसरा जन्म नहीं चाहेंगे।
136. मन में एक रूप स्थिर नहीं रहेगा। क्योंकि मन स्थिर नहीं रहेगा।
137.एक के मन में संचित वासना अर्थात पूर्व जन्म वासना रहते समय कर्जा चुकाने के रस्मों में एक है कन्या देखने का रस्म।
138.चाबी खत्म हुई घडी के समान है कर्म रहित लोग है। उनको लोकायुक्त जन्मांत्र वासना नहीं है। लेकिन मन आत्मा में नहीं है तो जीवन अनर्थ है।
139.हृदय में रहनेवाले सत्य आत्मा बने “ मै” ही प्राण उदय का केंद्र है।
140.रात में पूर्ण दृष्टि में, दिन में अर्द्ध दृष्टि में संसार को देखनेवाली बिल्ली के जैसे ही यथार्थ योगी होते हैं।
141. संकीर्ण धर्म पथ पर घनिष्टता जो सह नहीं सकते, उनको विशाल स्वर्ग को अनुभव नहीं कर सकते।
142. जिस राज्य पर जाते समय, जीव पूर्ण स्वतंत्र होता है, वही आत्म राज्य है।
143.जिस आनंद के होते समय दूसरे किसी आनंद की आवश्यक्ता नहीं होती ,
वह ज्ञान ही आत्मानंद होता है।
144, जिस ज्ञान के होते समय ,अन्य किसी भी ज्ञान की आवश्यक्ता नहीं होती,वह ज्ञान ही आत्मज्ञान होताहै।
145.बुद्धि आत्मा में लगने आरंभ करते समय पुस्तकीय ज्ञान में लगन नहीं रहेगा। क्योंकि पुस्तक दिमाग से बनी है।
146. मन सत्य की ओर जाते समय शरीर में कामुक्त के भूत पकडेगा। उस भूत को मिटाने आत्मज्ञान की अग्नी में नहाना चाहिए।
147. भ्रमर मधु पीते समय उसका गुंजन न रहेगा। वैसे ही मन आत्मा में लगते समय शारीरिक भावना, यादें, अभिलाषाएँ सब विस्मरण हो जाएगा।
148. दर्शन से अधिक शक्ति शाली कल्पना ही ह।
149. अपने से अन्य एक विषय में एकाग्र चित्त में लगते समय वह विषय अपनी आत्मा में मिलेगा। कर्म,चलन ,प्राणन की माया शक्ति का करम ही संकल्प शक्ति होती है।
150. बुद्धि होना मात्र पर्याप्त नहीं है। विवेक होना चाहिए। विवेक का अर्थ ही अनासक्त रहना। आसक्ति में यादें आती हैं। यादों के आते ही मन की शांति बिगड जाती है। तब आत्मा का स्वभाव शांति भोगकर वह स्थिति पा नहीं सकते।
151,जो निष्क्रिय है,वही बुद्धिमान है। निष्क्रिय रहना है तो यह ज्ञान प्राप्त करना चाहिए कि अपने को कोई कर्तव्य नहीं,भूख नहीं,प्यास नहीं,नाश नहीं है।उस ज्ञान की दृढता आने के बाद परमात्म स्थिति आने के लिए देह की आवश्यक्ता होती है। इसलिए उस ज्ञान की दृढता में जीनेवालों के देह स्थिर खडे रहने के लिए आवश्यक सब कुछ ईश्वर की इच्छा से स्वयं आ जाएँगे। वैसे लोग ही वर्तमानकाल में जी सकता है।
152. जो जान-समझता है कि गल्ती करने के कारण कया है ,उसी को ही यह योग्यता और कहने का अधिकार है कि तुम को यह गल्ती करनी नहीं चाहिए। वह योग्यता ही अपनी आत्मा की दृढता।
153. परमात्म ज्ञान के निकट पहुँचकर उसको समझ लेना ही अनुग्रह है।
154. इस सांसारिक रोग का एक दिव्य औषध केवल आत्मज्ञान मात्र है।
155. अग्र चिंता ज्ञानी को ही सत्य को बाहर प्रकट कर सकता है।
156,अग्र चिंताा ज्ञानियों की बातें सामाजिक नियमों के अनुसरण करनेवाले स्वीकार नहीं कर सकते।
157. जो कोई अपने अभिप्राय स्वतंत्रता को प्रकट करने की दशा में नहीं रहते,उनका मन अगले मार्ग में बदलेगा। उनको ही मानसिक परिवर्तन हो सकता है।
158. मालिक के कार्यों में मज़दूर जितना अधिक श्रद्धा दिखाता है, उतना ही काम का बोझ कम होगा, और पदोन्नति होगी।
159.सर्व ऐश्वर्य परमात्मा में है। वह परमात्मा का ही है। वह परमात्मा ही है। उसकी अनुभूति होनी है तो आत्मराम होना चाहिए।
160.जिसमें आत्मा पर दृढ विश्वास है,और अन्य विषयों पर मन नहीं लगता, केवल आत्मा पर विश्वास रखता है और यह आत्म ज्ञानबोध होता है कि आत्मा कामधेनु है,जो कुछ माँगते हैं,दे देगी। वह आत्मा को मात्र अपना लक्ष्य बना देगा।
161.आत्मचिंतन आने पर परिवार का आधार टूट जाएगा के भय के कारण से ही मनुष्य लोकायुक्त जीवन को चाहकर मोहित होता है। वह संसार के अस्तित्व के लिए अत्यावश्यक है। वह उसको मालूम नहीं है।
162. हमको संसार को स्थिर खडे रखने की आवश्यक्ता नहीं है। वह खुद ही अस्तित्व है। उसे स्थिर खडे रखने का प्रयत्न अर्थहीन कामना है। कारण जो है,उसको स्थिर खडा रखने की ज़रूरत नहीं है। जो नहीं है,उसको स्थिर खडे रखने का प्रयत्न मूर्खता होती है।
163. विवेकहीन मनुष्य स्वयं स्थित खडे रहने की आत्मा को स्थिर खडे रखने का व्यर्थ कठिन प्रयास करता रहेगा।
164. जो मन को आत्म बोध में स्थिर खडा रखना चाहता है ,उसको कोई भी रोग चिंता उत्पन्न नहीं कर सकता।
165. जिस दुनिया को मैं देखना चाहता हूँ,वह संसार मैं के बिना और कुछ नहीं है।
166. परस्पर किसी प्रकार की प्रतीक्षा के बिना रहनेवाले पवित्र प्रेमी ही शिव-शक्ति के रूप में जी सकते हैं।
167. मनुष्य प्रकृति से ही सुगंध को चाहते हैं, दुर्गंध से नफरत करते हैं।
168. मन:साक्षी के विरोध अपने को अर्हता रहित मिलनेवाले एक रुपया भी अपने वश में आ जाएँ तो उसके लिए हिसाब चुकाना चाहिए। वह प्रकृति की नियति है।जो इसको समझता है,वह ज्ञानी है।
169. कोई किसी एक व्यक्ति से बोलते समय उसका कहना सब झूठ समझकर सच्चाई जानने तक उस पर विश्वास न करके अपने मनःसाक्षी पर मात्र विश्वास करके जीना सांसारिक जीवन के लिए अच्छा है।
170. संसार ही झूठा है तो शब्द भी झूठे होंगे।
171.जिसको मनःसाक्षी है,वह हमेशा आत्मा के बारे में ही बोलता रहेगा।
172.जिसका मन स्त्री ,स्वर्ण,मिट्टी पर आसक्त है,उसको मनःसाक्षी न रहेगा। क्योंकि उसका मन आतमा के निकट नहीं जाएगा।
173.कामुक्ता तजने की योग्यता चाहिए तो परमानंद की महिमा को हर मिनट समझना चाहिए।
174.परमानंद की महिमा को लोरी की जगह में पलनेवाले बच्चों के द्वारा ही संसार में धर्म की रक्षा कर सकते हैं।
176 .बुद्धि अहंकार के साथ मिलकर सांसारिक विषयों को सोचनेवालों की बुद्धि को भ्रम और दुख होंगे। बुद्धि आत्मा से मिलकर सोचनेवालों को शांति और समाधान मिलेंगे।
177. किसी के बारे में बिना सोचे रहना ही आत्मशांति है।आत्मा पर मन न लगना ही संसार को विवेक से जाने कैसे जीना है का प्रश्न आता है।
178. कला और कलाचार को आदर देनेवाले शहर में भलाई करने पर उस शहर का बडप्पन बढेगा। उसी समय कला और कलाचार की इज्जत न करनेवालों के शहर में
भलाई करनेवाले को बदनाम ही होगा। उनके जीवन के खतम् होने के बाद ही उसके कल्याण कार्यों की महीमा मालूम होगी।कला गुण के लोगों को समझना है कि कलाओं का उत्पत्ति स्थान अहमात्मा बने बोधसत्य है। जो उस सत्य को नहीं छोडता .
उसकी प्रशंसा की ज़रूरत नहीं है। उसका आदर करें या न करें उसका आत्मानंद नष्ट न होकर सकल कला में निपुण परमेश्वर के अखंड बोध स्थिति को पाएगा। नहीं तो
इस माया कर्म चक्र में फँसकर कई जन्म लेना पडेगा। कारण कलाकार और कला रसिक के बीच का लक्ष्य स्थाई आनंद ही है। वह कला का नहीं ,आत्मा का स्वभाव ही है। वे कलाएँ सब के सब परमानंद समुद्र की बूंदें ही हैं। वह एक बूंद को पकडनेवालों को परमानंद समुद्र ही नष्ट होता है।
179. उज्ज्वल प्राकृतिक शक्ति को ईश्वर की इच्छा से युगों के अंत में होनेवाले प्रलय काल के सिवा किसी मी मार्ग पर किसी भी काल में नियंत्रण कर नहीं सकते। कारण वह अनादी है। इसीलिए उसे महा प्रगीतीश्वरी और जगदीश्वरी कहेंगे।
180.किसी एक की सभी क्रियाएँ, साँस के स्मरण सब के सब भगवान ही कराते हैं। इस विचार से रहनेवाला प्रकृति की नदी के साथ अनुशासन से चलता है। वह निश्चित रूप से लक्ष्य की ओर जाएगा।
181.सब कुछ ईश्वर की इच्छा है को सोचनेवाला ईश्वर ही बन जाएगा। कयोंकि वहाँ अहंकार सिर उठा नहीं सकता।
182. आत्मा के जैसे अहंकार भी अति सू्क्ष्म ही है। आत्मा स्थिर है। अहंकार अस्थिर होता है।
183. सत्य आत्मा वह तत्व है,जिस सत्य को जान-समझकर ग्रहण करते समय मन को स्थाई आनंद मिलता है। वही आत्मज्ञान होता है।
184. बुद्धि आत्मा को स्पर्श करके आते समय सत्य शब्द आते हैं। बुद्धि अहंकार को स्पर्श करके आते समय असत्य शब्द आते हैं।
185. बिजली बल्ब छूकर आते समय प्रकाश शक्ति ,यंत्र से आते समय यंत्र शक्ति कहते हैं। वैसे ही आत्मा मनुष्य शरीर से मिलते समय मनुष्य शक्ति कही जाती है।
लेकिन बल्ब को, यंत्र को कोई शक्ति नहीं है। वैसे ही शरीर को स्वयं कोई शक्ति नहीं है।
186. सिनेमा देखनेवले रसिक अज्ञानी जैसे,सिनेमा निर्देशक ज्ञानी जैसे बन जाते हैं।
क्योंकि रसिक कहानी को यथार्थ रूप में अनुभव करते हैं। लेकिन निर्देशक अभिनय क्षमता देखकर खुश होंगे।
187. शारीरिक रूप आकाश जैसे,स्वभाव आनंद ,आत्मस्वरूप आकार रहित ज्ञान ऐसा ही आत्मा को समझना चाहिए।
188.जीव जालों से भरे निर्णय रहित चराचर के साथ सांसारिक जीवन में से ही ईश्वर का महत्व प्रकट होता है।
189. मन से इस दुनिया में जो चाहे पा सकते हैं के विचार के कारण हर एक व्यक्ति
इस प्रपंच भर में रहनेवाले ब्रह्म बीज ही है।
190. यथार्थ संगीत सुनते समय जीव को आनंद होने का रहस्य कई यादों के दल के मन को आनंदमय आत्मा के पास तात्कालिक रूप में ले जाने की मदद करने से ही है।
191. आत्मा रूपी स्वर्ण में उत्पन्न नानात्व आभूषण ही इस प्रपंच के दृश्य होते हैं।
आभूषणों को मात्र देखते समय एकत्व सोने को भूल जाते हैं। सोना मात्र त्रिकालों में
मिलते हैं। नाम रूप ही माया है। सवर्ण को छोडकर नाम रूप टिक नहीं सकता। स्वर्ण आभूषण की दूकान में दूकानदार की दृष्टि स्वर्ण मात्र में रहेगा। वही एकत्व है।
लेकिन स्वर्ण दूकानदार की नज़रों में स्वर्ण के आभूषण की याद ही रहेगा।वही नानात्व है।
192. आम खाने के इच्छुक के मन को सडे कीटों का आम वश नहीं कर सकता। वैसे ही अल्प विषय एक ज्ञानी को वश नहीं कर सकता।
193. नगर में सभी वर्णों के दीप एक ही बिजली के द्वारा ही प्रकाशित है। वैसे ही इस संसार सब में एक ही आत्मा स्थिर खडी रहती है।
194. जिस ज्ञानी को यह बोध आ जाता है ,उसको कोई दोष न लगेगा कि इस संसार में यथार्थ बने आत्मा ही इस प्रपंच जीव जालों को प्रकाशित करता है।
195. नाम रूप नश्वर स्थिति ही आत्म स्थिति होती है।
196. शारीरिक याद स्थित होने तक आत्मज्ञान मिलकर कमल के पत्ते पानी के जैसे जीने पर भी पूर्णत्व न होगा।
197. शरीर और लोक भूल जाने पर आदि में जीव जैसा था ,वैसा ही बदल जाता है। वही समाधि है।
198. जिसके मन में सीधे खडे करने की शक्ति है,वह झुककर भीख न माँगेगा।
199.जो ब्रह्मचारी है,वह ब्रह्म पथ पर चलता है। ब्रहम से दूसरा कोई नहीं है,तो संचार और संचरण करनेवाला ब्रह्म ही है।
200. अपनी सुरक्षा के लिए रखवाले की नियुक्ति करनेवाले को यह समझ में नहीं आता कि अपने की सुरक्षा अपनी आत्मा करती है। अपनी आत्मा ही संसार का बहुत सुरक्षित रखवाला है।
201. किसी भी प्रकार की प्रतीक्षा किये बिना वर्णनातीत प्यार जो है ,वही यथार्थ प्यार होता है। प्यार वर्णनातीत होने पर ही वह प्यार ईश्वर बनेगा।
202. अहमात्मा पर का संपूर्ण विश्वास ही आत्मविश्वास होता है। अर्थात मैं ही आत्मा का महसूस करना। मैं ही आत्मा का एहसास करना। वह एहसास न होने पर शास्त्र ,वेद, यज्ञ आदि के द्वारा मोक्ष न मिलेगा।
203. किसी पर किसी भी प्रकार की इच्छा-मोह के बिना संपूर्ण अहंकार शून्य पर पहुँचकर विस्मरित संपूर्ण मौन में रहकर आत्मविश्वास के साथ अर्थात स्व आत्म निश्चय से वर्तमान काल में जीने से इस संसार में बहुत बडा साधना और कुछ नहीं है।
204. चौदहों संसार से जो बडा है,वही आत्मा है। यह सारा संसार उसके अंतर्गत है।
वह कल्पवृक्ष है। वह अपने को छोडकर और कुछ नहीं है। इस तत्व का महसूस करते समय अपनी आत्मा पर अपने को विश्वास होगा।
205. किसी भी मिनट में शरीर को भूलकर ,नदारद होने की स्थिति में गृहस्थ जीवन को न चाहनेवालों को ही अचानक मोक्ष मिल जाएगा। क्योंकि उनको ही आत्म विश्वास है।
206. वर्तमान काल वह एहसास की स्थिति है ,जिसका आदि अंत रहित अनादी आनंद याद रहित रूप रहित ज्ञान पूर्ण आत्मा ही है ।
207. यथार्थ जानने के पहले जो होता है,वही विश्वास है। सत्य और प्यार को विश्वास की जरूरत नहीं है।
208. जिसको सभी बातों में संदेह होते हैं,उसको हल करना किसी भी काल में नहीं हो सकता। कारण उसका लक्ष्य माया ही है। माया के नाश के साथ उसका भी नाश होगा। लेकिन विश्वास जितना गहरा होता है,उतना ही संदेह दूर होता है। अर्थात ज्ञान के विकास के अनुसार विश्वास करनेवाले का संदेह दूर होगा। संपूर्ण ज्ञान में संदेह बदलने के साथ विश्वास अनावश्यक होगा। वह स्व आत्मा निश्चित है।
209. शारीरिक बोध आने से स्वतंत्रता के लिए जी नहीं सकते, बिना जिए रह नहीं सकते। यह समझना ही जीवन है कि जना ही चाहिए।
210. शास्त्र पढना, यज्ञ करना, स्थाई प्रार्थना करना आदि से कोई न कोई फल मिलेगा। वह स्थाई शांति के लिए उपयोग नहीं होगा। लेकिन आत्मानुभूति का अनुभव न मिलने पर वे सब व्यर्थ ही है।
211. यह जाँचकर देखना चाहिए कि कोई आध्यात्मिक मार्ग पर जितना भी ऊँचे पद पर भी रहे,उसको पंचेंद्रिय के नियंत्रण में ,काम,क्रोध की चिंता में कितनी दूर सफलता मिली है। सिद्धि मिलने पर भी काम-क्रोध को न जीतने पर पुनर्जन्म जरूर होगा। वह आत्म ज्ञानी के सामने बहुत ही छोटा होगा।
212. छोटी वस्तु के लिए बडे बंधुओं को खोनेवाला जीवन के अर्थ न जाननेवाला मूर्ख होगा।
213. अहंकारी से बोलते समय उसके विरुद्ध के वचन गुह के मुख द्वार पर बोलने के जैसे है, घमंडी आत्म ज्ञानी के विरोध बोली आकाश की बोली जैसी होती है।
214.उदय होकर अस्त होनेवाली भावनाओं के आरंभ स्थान जो है,वहीं मैं का अहंकार अर्थात् आत्मबोध.वह समझते समय ही मैं मैं बनता है।
215. जितने बडे कठिन विरोध आने पर भी किसी भी प्रकार के विरोध या उत्तर दिये बिना सहकर सब्रता रहनेवाला अपार शक्तिवाला होता है। वही आत्मबोध प्राप्त व्यक्ति होगा।
216.नदी के मार्ग पर पानी बहते समय किनारा उसके साथ नहीं जाता। वैसे ही यादें आते समय साक्षी के रूप में रहें तो अहंकार मिट जएगा।ब्रह्म शांति स्थिति पाएगा।
217. स्वआत्म निश्चित न होने से ही प्राण की रक्षा करने के लोभी ,ईर्ष्यालू ,चोर
जैेसे मानव बदलता है। इन तीनों को प्रकृति दंड देने के कारण स्वआत्म निश्चय होने के लिए ही।
218. जो गलत करना जानता है,वह ठीक भी कर सकता है। जो सही है,उसे जानकर भी ठीक नहीं कर सकते। कारण पूर्व जन्म वासना फल ही जानने के ज्ञान दृढ हो जाने से शक्ति पूर्ण है। इसलिए यथार्थ सही को जानकर ज्ञान की दृढता होनी चाहिए। वह आत्मज्ञान मात्र है।
219. ईश्वर को बुलाने से भला होगा। यह बात जानकर भी न बुलाने के कारण, ईश्वर का ज्ञान ,महीमा आदि माया के कारण न जानने से ही है।
220.आश्रित रहना चलन,आश्रित न रहना निश्चलन होता है।
221. जो यथार्थ स्वतंत्रता चाहता है, वह किसी से आश्रित न रहेगा।
अर्थात आश्रित रहें या न रहें मन किसी के नियंत्रण रहित रहनेवाला ही सर्वतंत्र स्वतंत्र जीवन बितानेवाला है।
222. जाने-अनजाने सभी जीव जाल उनके स्वभाविक स्वतंत्रता को प्रेम करनेवाला ही है।
223. किसीको न देखकर आँखें मूंदकर प्रार्थना करनेवालों को “ दो्स्ती के लिए भगवान है “ की दृढता और विश्वास पक्की होगी।
224. शरीर और मन से कर्म बंधन रहित लोग विषय वासना को मिटानेवाले हैं।
वे नित्य आनंद और नित्य शांति के हैं।
225. जिस आत्म सागर मेें से निरंतर न रोक सकनेवाली यादों की तरंगें आती रहती है, वही मनुष्य की स्थिति होती है। वह उसकी अह आत्मा होगी।
226. जिस जगह में एकाग्रता है,उस जगह में एकांत का अनुभव कर सकते हैं।
जहाँ एकांत है,वहाँ ध्यान होना है की ज़रूरत नहीं है।
227. अहंकार के द्वारा, यादों का प्रारंभिक स्थान न जानते हैं तो यादों पर कोई नियंत्रण ,अधिकार नहीं कर सकते।मनःसाक्षी का एहसाआत्मस करने तक प्रकृति की नीति को अनुसरण किये बिना जी नहीं सकते। आत्मबोध में संकल्प नहीं है। संकल्प ही अइंकार को बनाता है।
228. मन में स्त्री नहीं तो शरीर पर,संसार पर कोई चाह नहीं रहेगी। इसलिए उसका मन आत्मा के निकट आसानी से जाएगा। वैसे आदमी ही यथार्थ पुरुष होता है।
229. जिनको अपने निजत्व पर स्थिरता नहीं है,वे संसार को तजकर निर्वाण होने से डरेंगे।
230. निर्वाण में जो लज्जा तजता है, स्व स्थिति में रहनेवाला ही है।
231.आत्म बोध अधिक होते समय देह बोध कम होता रहेगा।
232.जिसमें आत्मबोध बढता है,वे निर्वाण पर ध्यान न देंगे। कारण उनको शारीरिक ध्यान नहीं है।अनासक्त हो गया है।
233. देह बोध कम होते समय मालूम होगा कि मन अंतर्मुखी हो रहा है।
234. चिंता बढते समय सत्वगुणी की वासना पार होगी।
235. हर मिनट स्वयं को जानते रहने की अनुमति प्रकृति ने जिसको दी, उसको ही मालूम होगा कि वह एक अद्भुत प्रतिबिंब है।
236.जिसमें आत्मतत्व निश्चित है,उसको मालूम होगा कि अपने का यथार्थ सृष्टिकर्ता आत्मा ही है।
237.जब ब्रह्म का अवतार सा लगता है,तब कर्म चलन-सा लगता है।
238. जहाँ रूप मिट जाता है,वहाँ कर्म न रहेगा। जहाँ रूप होता है,वहाँ कर्म रहता है।रूप छिपने पर कर्म भी छिप जाता है। दुख न होगा। रूप ही संकल्प माया है।
239. भगवान पूर्ण होने से भगवान के बिना और कोई नहीं है।इसलिए भगवान किसीकेलिए कर्म करने की ज़रूरत नहीं है। इसलिए ईश्वर को निष्क्रियय कहते हैं।
240.नाम रूप असत्य है। नाम रूप के बिना कर्म नहीं है। इसलिए कर्म भी असत्य है।
इसीलिए कर्म को अज्ञान कहते हैं।
२४१241.आत्मा सर्वव्यापी होने से हिलने की जगह नहीं है।
इसलिए आत्मा को निश्चलन कहते हैं।
242. एक अनुभव होने के लिए भोगनेवाला,भोगने का विषय,उससे मिलने की अनुभूति आदि चाहिए। दूसरा जब तक स्वभावाधिक अनुभव होता है, तब तक ब्रह्म अनुभव आनंद के साथ होने पर भी पूर्ण आनंद नहीं होता। कारण ब्रह्म निरूपाधिक
स्वयं आनंद स्वरूप का है।
243.हर मिनट साधारण अनुभव करने के अनुभव को आत्म स्थिति पाने तक परिपक्व मुनि देखते रहंगे, जैसे चातक पक्षी भूमि पर न गिरे पानी की बूंदें मात्र पीता है।
244.साधारण मनुष्य साधारणतः कहेंगे कि मनः साक्षी को स्थान नहीं है। उसकी यथार्थ अर्थ यही है कि परमात्मा ही मनः साक्षी है। वह सर्वव्यापी है। इसलिए आत्मा को प्रत्येक स्थिति नहीं है।
245. जो अपना नहीं है,उसे अपना बनाने के विचार आते हैं। कयोंकि सर्वस्व के सर्वेश्वर ही “ मैं “ का बोध मन की गहराई में न जाने का विचार ही है।
246.वही भाग्यवान होता है, जो अपने को जीवात्मा नहीं और निश्चित कर लेता है कि वह परामात्मा है। कारण जिसको भाग्य है,उसको आनंद मिलेगा। आनंद आत्मा का स्वभाव होता है।
247. उसको आसानी से मुक्ति मिलेगी, जो क्रूर कर्म करके फिर ईश्वरीय मार्ग को अपनाते हैं। क्योंकि माया उसके निकट न पहुँचेगी। माया उसको अपने मोह में फँसा नहीं सकती।उसकी दिव्य शक्ति चिंतन में माया नाश हो जाएगी। आध्यात्मिक आचार्य होने के लिए ,सभी बराइयों के वासस्थल वह लोकनायक के समान योग्यता होनेवाला और कोई नहीं है। कारण उसको आसानी से ज्ञान मिलेगा। सरल मार्ग दूसरा नहीं है। अर्थात इस संसार में होनेवाली सभी गल्तियाँ अज्ञान से होती है। अज्ञान अंधकार होता है। ईश्वरीय शक्ति और माया अज्ञान के अंधकार में बनती है।
ईश्वर रूपी आत्मा को पहल पहल माया पर्दा डालकर अज्ञानी बनाती है
248.मैं रहित इस जगत को कोई अर्थ नहीं होता।” मैं” रहने से ही इस जगत का अर्थ होता है।” मैं “ है, “मैं” सदा के लिए है।
249.आत्मा के बराबर कोई नहीं है।
250. हम किसी का अनुसरण करते समय वह अनुसरण अपनी अहमात्मा के समीप जाने की मदद करनी चाहिए। वह मदद नहीं करता तो वह अनुसरण माया लोक की ओर ले जाएगा।
251.किसी एक को भगवान पर विशवासी और एक को अविशवासी कहते हैं। कारण इसका आधार कोई नहीं है। आधार मिलने पर न कहेंगे। अपने अधिकार तज़कर अपने में जो अज्ञानता है, उसे दूर करने के लिए सविनय और प्यार से आ्मज्ञानी गुरु की तलाश करनी चाहिए। तभी आत्मा रूपी आधार मिलेगा।
252. स्वतंत्र रहित कर्मबंधन में “मैं” है का एहसास होने पर ही मन निर्णय करेगा कि मोक्ष को प्रधानता देनी चाहिए।
253. किसी भी एक व्यक्ति को दूसरों के मन में प्रवेश करके दूसरे इस संसार को कैसे देखते हैं का पता लगा नहीं सकते। यह स्पष्ट है कि यह संसार एक है। मन/चित्त ही उसको एक संसार लगता है।
254. आत्मा स्नेह स्वरूप होेने से ही मनुष्य के मन में सब को स्नेह करना है का आंतरिक मन के विचार आते हैं।
255.जिसमें आत्मबोध नहीं है,उसको मालूम न होगा कि जीवन की आधार शिला क्या है। परमानंद के वासस्थल जो नहीं जानते,जिनमें आतमबोध नहीं है ,वे ही जिंदगी को शाप देते रहेंगे।
256. एक से ज़यादा लोगों को स्नेह की निर्बंधता दिखा नहीं सकते। कारण काम वासना कलंकित है, सीमित है। लेकिन स्नेह अनंत है और परिशुद्ध है।
257. आत्मा की सृष्टि कर्ता को या आत्मा को हम देख नहीं सकते। आत्मा द्वारा सृष्टित शरीर रूप को अहंकार रूपी डाक्टर जाँच करने पर भी डाक्टर की क्षमता को हम समझ नहीं सकते।
258. सृष्टि में हर एक रूप अपने मन को आकर्षित करने पर अपनी सृष्टि कर्ता को जाने-अनजाने में खोज करने के कार्य होते रहते हैं।
259. मनः साक्षी को मात्र स्नेह करके विश्वास करनेवाले को सब में सीधा मार्ग देख सकते हैं।
260. जो सीधे मार्ग पर जाता है, उसको सब धोखा देते हैं। लेकिन धोखा खानेवाले को ज़रा भी चिंता न होगी। इसको मालूम है कि धोखा देनेवाला खुद अपने आपको धोखा दे रहा है।
261. इस संसार के दृश्यों को परिवर्तन कर सकते हैं , पर सृष्टि नहीं कर सकते।
यही साधारण जीव का ज्ञान है।जो कोई स्वयं ही देखनेवाला संसार ,शरीर,अंतःकरण अर्थात चित्त रूपी जीव बोध में दीख पडनेवाले सब के सब प्रपंच और उनके साक्षी रूप के बोध ही “मैं” का ज्ञान दृढता पाकर जीव बोध भूलकर, अखंड आत्म बोध की स्थिति को पाता है, वह अखंड बोध का ब्रह्म अपनी अपनी शक्ति होगी। प्रकृति रूपी
माया को प्रयोग करके स्वयं अज्ञानी बनकर, परमात्म बोध भूलकर, इस प्रपंच के नानात्व को निस्संग के रूप में सृष्टि करके अरूप का “मै” रूप लेकर उसमें जीव का संकल्प लेकर जो बने हैं,वही संसार है। वही भगवान है।
262. परिवार की प्रशंसा के लिए नौकरी करनेवाला न्याय नहीं देख सकता। प्राण के डर से नियति नियम छोडनेवाला देश की रक्षा नहीं कर सकता। उनपर विश्वास करके देश में रहनेवाले का जीवन मुश्किल होने से विवेकी संन्यासी बनते हैं। विवेक रहित लोग चोर और डाकू बनते हैं।
263. जीव शारीरिक बोध से जितना अधिक दृश्यों को भूलने की योग्यता पाता है,उतना ही मन विकसित होकर आकाश जैसे अनंत बनते समय अनंत स्वरूप आत्म स्थिति को पाता है। वही जीवात्मा परमात्मा का ऐक्य है।
264.लोकायुक्त जीवन चलानेवाले को चिंता आते समय उसका शरीर स्मरण आत्मा रूपी भगवान पर, सदा आध्यात्मिक जीवन जीनेवाले को मन में चिंता आते समय आत्म चिंतन छोडकर शरीर स्मरण पर साधारणतः आएगा। उपर्युक्त दोनों का मन दरबार में अधिक देर न रहेगा। इसलिए तैल धारा के जैसे प्राण याद होनेवाले को सवर्ग और शारीरिक याद होनेवाले को नरक होगा।
265.जो समय से स्नेह करना नहीं जानता,वही समय को बिताने खेलों में लगेगा।काल से प्यार करके काल के रूप में ही बदलनेवाला ही ज्ञानी है।
क्योंकि काल ही आत्मा है।
266. जिसको आत्मज्ञान में दृढता नहीं है,उसको मालूम नहीं है कि सही क्या है और गलत क्या है। इसलिए वे हमेशा धर्म संकट में जिएँगे।
267. देव हो , ऋषि हो ,मनुष्य जो भी हो सत्य की अंतिम सीमा बुद्धि के पार असीम ज्ञान होता है।
268. सबकी सफाई एकत्रित करना सत्य प्रकट होने के लिए ही है।
269. कोई भी यह सोचकर चुप नहीं रहते कि किसी भी मिनट पर प्राण पखेरु उड जाएँगे। क्योंकि स्थाई आत्मा अपने में है।
270.पूर्व जन्म में अर्जित काम कर्म वासना के बीज ही इस जन्म में न चाहने पर भी मिलेगा। शरीर और रिश्ते दोनों इस जन्म में प्रतिकूल होने पर ही नयी इच्छाएँ होती हैं। उनमें पूर्व पुण्य होने पर सदवासनाएँ, पूर्व पाप होने पर दुर्वासनाएँ होंगी। विवेक होने पर मन आत्मा को चाहेगा।
271. आत्मा में अनंतशक्तियाँ होती हैं।सब शक्तियाँ आत्म शक्तियाँ ही होती हैं। संदर्भ वश माया को स्वीकार करते समय उनको देव शक्ति, मनुष्य शक्ति, गंदर्व शक्ति, पंचभूत शक्ति, जीवजाल शक्ति, सप्तशक्ति, कर्म शक्ति आदि नाम देते हैं।माया हटते समय एक बनकर ब्रह्म शक्ति मात्र होती है।
272. आत्म ज्ञान अप्राप्त अज्ञानियों से बुरा है,शक्की आदमी। वह पत्नी की सतीत्व का पहरेदार बनकर मनुष्य जन्म को बेकार करता है।
273.सजा करनेवाले पर दंड की कार्रवाई पूर्ण प्रायश्चित्त नहीं है। उसकी स्पष्टता ही इस संसार के रहते तक पुनः पुनः वही अपराध होते रहते हैं। उसका पूर्ण प्रायश्चित्त अपने आपो सुधारने में ही है। जिस समय सुधरते है, उस काल से उससे भूल न होगा।
274,इस गलत संसार में गल्तियों के कारण आत्मज्ञान की अप्राप्ति ही है।आत्मज्ञानी को यह ज्ञान होगा कि अपराध और भूलको दंड मिलेगा। आत्म ज्ञान न देकर दंड देेने से उसको अपराध से बचा नहीं सकते।
275.हर एक व्यक्ति का विचार है कि अपने को सुख भोगने के लिए ही अवकश है। ऐसे विचार आने के मूल में उसके उसकी आत्मा का सहज स्वभाव आनंद हीहै।
276.चित्त सुख-भंग बनाता है।
277. लय में चित्त नहीं है, चित्त में लय नहीं ह।
278.आत्मा की खोज की यात्रा में सामने आनेवाले सब के सब माया ही है।
279, दुर्घटनाएँ ,महारोग, और मृत्यु के अंतिम समय में ही मानव को अपने अहंकार की निम्नता और सृजनहार का महत्व मानव को मालूम होता है।
280. जब यह बात एहसास होता है कि जीवात्मा ही परमात्मा है, तब जान सकते है कि यह सारा संसार आत्मा रूपी अपने में स्थित खडा है। कयोंकि आत्मा के बिना कुछ भी नहीं है।
281.जीवत्मा अपनी अंतिम स्थिति में ही ब्रह्म का एहसास करेगा। तभी सकल देव, देवी ,त्रिमूर्ति ,सप्तर्षी, तीस करोड त्रिगुना देव, सिद्ध पुरुष अपने से अन्य नहीं लगेगा।
282.आत्म साक्षात्कार पानेवाले के मुख को जो कोई संकल्प के साथ देखता है, उसको उसी रूप में दर्शन मिलेगा।
283. सत्य को ग्रहण करनेवाले ही साधु,सद्गुणी व्यक्ति होते हैं। साधुओं का संग ही सत्संग है।
284. राग की सीमा की ओर गानेवाले नाद ब्रह्म में सम्मिलित नहीं हो सकते।
285. सृष्टिकर्ता के पिता कौन है? यह प्रश्न कहाँ से आता है, उस के बिना सृजनहार को अस्ति्त्व नहीं है।”मैं” यह कहने के लिए भी आवश्यक है कि “ मैं “ न होने पर भी सृष्टि कर्ता है। इसलिए अपने में “मैं” जब विसमरण की स्थिति पाता है, तब जो ज्ञान स्थित रहता है,वह परम परम ज्ञान को ही परम पिता समझकर एहसास करना चाहिए।
286. मनुष्य के जीभ से भगवान नहीं है,पैसे पद अधिाकार ही श्रेष्ठ है आदि कह नहीं सकता। ऐसा न कहने के लिए ही प्रकृति की व्यवस्था है रोग और मृत्यु का भय।
287. स्थूल से सूक्ष्म की ओर और सूक्ष्म से स्थूल की ओर बदलने के लिए सहज स्वभाव के आधार पर है आत्मा। लेकिन स्थूल सूक्ष्म कार्य कारण बनकर किसी प्रकार का संबध आत्मा को नहीं है।
288.इस प्रपंच के कारण आत्मा है,इसका एहसास होने पर आत्मा से अन्य कोई प्रपंच देख नहीं सकते। आत्मा सर्वव्यापी होने से आत्मा से दूसरा कुछ नहीं होगा।
आत्मा से अन्य कोई प्रपंच हुआ ही नहीं। अर्थात आत्म स्थिति को पा ही सकते हैं।
उसे देख नहीं सकते।
289.अभिलाषा पर ही यह मन सुप्त अवस्था में है। मन को नियंत्रित रखने के लिए इच्छा को नाश करने के सिवा और कोई मार्ग नहीं है। जिसपर इच्छा होती है,उसकी यथार्थ स्थिति जानने पर मन उससे परिवर्तित होकर हट जाएगा।
290.सुप्तावस्था में शारीरिक और सांसारिक भावनएँ नहीं रहती। कारण मन ब्र्ह्म में लय हो जाता है। जागृत अवस्था में मन में वासनएँ होने से फिर बाहर आती हैं। एक नदी भूमि पर बहते समय नदी को मालूम नहीं कि वह समुद्र से ही बनी है। वैसे ही नदी समुद्र को वापस बहते समय मालूम नहीं है कि वह समुद्र में ही संगम होनेनेवाली है। वैसे ही मन नींद में ब्रह्म को, भावना में ब्रह्म से बाह्य जगत को आना मन को मालूम नहीं । कारण ब्रह्म मात्र ही है। आया है,गया है जानने के कारण मनोमाया ही है। पूर्ण प्रकाश में अंधकार नहीं है। पूर्ण ज्ञान में मन नहीं है।
291. भगवान की स्थिति निष्कलंक पवित्र व्यक्ति से ही बाहर आएगी।
292.प्रणवोपासक विस्मरण की स्थिति होते समय शक्ति केंद्र के ब्रह्मास्त्र प्राप्त व्यक्ति होता है।
293. मन को शांत बनाने के लिए ही जीना चाहिए।क्योंकि उससे सब कुछ मिल जाएगा।
294. धन और पद स्वभाविक रूप में अहंकारी बनाएँगे।
295. मनुष्य जो कुछ करता है, मू्र्खता से करता है।इसे जानकर सुधरना है तो स्वात्म निर्णय होना चाहिए।
296. आत्म से जो प्यार करता है ,वही आत्मज्ञानी है।
297.अपने अंतरात्मा के महत्व का जो एहसास करता है, उनको यश की इच्छा कभी नहीं होगी। सत्य को सोचते समय ही विस्मरण विकार नियंत्रित होगा।
298. समुद्र में एक स्थान में बुलबुले आते हैं, वैसे ही आत्मसागर में उमडे बुलबुला ही अहमबोध है। उस अहम् को अंतरात्मा बनकर ज्ञान बनकर प्रकाश देनेवाला सत्य मैं ही का महसूस करके अहंकार मिटने तक प्रार्थना करनी ही चाहिए। कारण अहंकार को स्ववतंत्र अस्तित्व नहीं है।
299.काम प्रेम में जीवों को मूर्ख बनाना निस्संग ब्रह्म संकल्प ही है।
300.आहार मिलने पर भूख मिट जाती है। वैसे ही ढूँढने की वस्तु मिलने पर यादें मिट जाएँगी। दूसरी भूख न होने के लिए ,दूसरी खोज न होने के लिए स्वआत्मा की खोज करके आत्मा को ही आहार बनाना चाहिए।
301.नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्त सत्य आनंद अनादी स्वयं स्थित शांति का स्थान ही विस्मरण का अखंड बोध ही है।
302. सूर्य की किरणें बरफ़ को पानी , भाप ,आकाश की स्थितियों में जैसे बदलते हैं
वैसे ही आत्मज्ञानी देह बोध को आतमज्ञान अग्नी मन,प्राणन,चित्त आदि स्थितियों के द्वारा अखंड आत्म बोध की ओर ले जाएँगे।
303. आत्मज्ञान अज्ञान को मिटानेवाली अग्नि होती है।
304. सत्य की खोज करनेवालों का पारिवारिक जीवन खंडित हो जाता है।वही अद्वैत बोध होने का प्रारंभिक स्थिति होती है। सत्य सभी नियंत्रणों के पार होता है। पारिवारिक जीवन नियंत्रणों को बढाता है। कोई भी बंधन रहित सर्व स्वतंत्र आत्मा को स्पर्श करते समय माया बंधन के नियंत्रण सब बंधन मुक्त हो जाएगा।
305. आत्मा कब बनी? कब मिटी? ये सब चित्त के पार का विषय है। लेकिन
देह बोध के प्रारंभ के दिन से वह मिटने तक के दिन तक ही जीव का आयु काल है।
जिस दिन जीवात्मा और परमात्मा दोनों को जीव एक ही है का महसूस करता है,उस दिन में ही “मैं” एहसास करेगा कि वह जन्म मरण रहित नित्य मुक्त जीव है। तब तक माया मु्क्त जीव में परिक्रमा करता रहेगा।
306.आत्म बोध कब बना है? “ मैं” कौन हूँ? की खोज करते समय चित्त को पता न चलेगा। लेकिन सत्य यह है कि आत्मबोध है।
307.जन्म जन्मांतर के पाप -पुण्य के अनुकूल होगा इस जन्म के विचारों की शक्ति।
308. यादें,बंधन,नियंत्रण बनाते समय स्मरण रहित शांति और मोक्ष मिलेगा।
309. एक मनुष्य अपने दूर के दूसरे मनुष्य को सोचते समय स्थूल मनुष्य आने में देरी होगी। लेकिन देव को, ऋषि को सोचते समय वे सूक्ष्म रूप में सोचनेाले की शक्ति, भक्ति, विनय,प्यास के अनुकूल तुरंत हमारे पास आ जाएँगे।
310, जागृत अवस्था हो,स्वप्नावस्था हो, जो भी हो आत्म बोध के बिना कल्पना करने की मनो दशा ही स्वप्न होते हैं।
311. जीव के मार्ग पर बाधाएँ आकर कहते हैं कि भगवान ही मेरी रक्षा करनी चाहिए।तब रक्षा के लिए जो भी आए,वे जीव बोध सीमा के पार के अहमात्मा ही होगी।
312. कोई एक रूप की प्रार्थना करते समय अपने अनजान में ही अपने अंतरात्मा को ही प्रार्थना करते हैं।
313,उस ज्ञानी को किसी भी प्रकार की चिंता,धडकन न होगा जो पूर्व जन्म या इस जन्म की अपनी मनोकामना पूरी न हो। ज्ञानी को दृढ ज्ञान बोध है कि आज या कल अपनी मनोकामना पूरी होगी।
314. जो कार्य गलत लगता है,उस कार्य को आत्मज्ञान के द्वारा विवेक से देखने पर सही के रूप में बदलेगा। भय दूर होगा।
315. यह समझने तक आत्म तत्व समझमें न आएगा कि स्वयं जो भी करें वह अपने आत्म सुख के लिए ही करते हैं।
316. गलत लगने का कारण यही है कि स्वयं के एक सत्य स्थिर खडे रहने पर हमारे सामने अपने से भिन्न दूसरा कोई उपस्थित है।
317. भला हो या बुरा हो, हर एक अपने अनजाने में ही आत्मा की खोज करते हैं। निश्चल ब्रह्म में चलन उत्पन्न करना ही ब्रह्म माया का धर्म है।
318. यह माया प्रपंच आत्म सूर्य प्रकाश ही है। सूर्य प्रकाश आत्म सूर्य प्रकाश से भिन्न नहीं है। प्रपंच की खोज करते समय नहीं -सा लगेगा। खोज करने पर है-सा लगेगा।
319 मन देह से मिलते समय शक्ति प्रकट होकर कामसुख देगा। शरीर थक जाएगा।
मन आत्मा से जुडते समय शक्ति शरीर परिवर्तन होकर प्रकाश होगा।
320.मन शरीर से जुडते समय भावावेश में कामसुख लघु सुख देगा। मन आत्मा मात्र
से जुडते समय निर्विकार अनंत आनंद परमानंद देगा।
321.अरूप आत्मा में न मिलकर नाम रूप में नियंत्रित होकर संसार को खोजनेवाला स्वप्न में बदल जाताा है।
322. जागृत ,स्वप्न,सुसुप्ति के पार स्थिति ही आत्मबोध होता है।
323.मनोमाया उसका स्वभाविक चलन कर्म लेकर परमात्मा को विस्मरित करके ब्रह्म को बनाता है।
324. योगी,ज्ञानी विस्मरण सुसुप्ति में महसूस समाधी स्थिति में ही योगी,ज्ञानी, आराम लेते हैं।
325 .जो जाग्रत,स्वप्न,सुसुप्ति तीनों स्थितियों में अपने को विस्मरण किये बिना रहता है,वही नित्य स्थिति को पाता है।
326 संसार से घृणा करके मत्यु को स्नेह करनेवाला नाश हो जाएगा। क्योंकि मिथ्या शरीर और संसार को सत्य समझकर धोखा खाता है।संसार से घृणा न करके मृत्यु से प्रेम करनेवाला अमृत स्थिति को जाएगा। कारण वह समझता है कि शरीर और संसार मिथ्या है , आत्मा अमर है।
327. वेद- शास्त्र सीखने से और गुरुउपदेश प्राप्त करने से भी स्वात्मा ही अमृत है का महसूस किए बिना आत्मसाक्षात्कार पा नहीं सकते।
328. जितना अधिक दूर आत्मा को समझ सकते हैं, उतना ही दूर सांसारिक वासनाएँ कम होंगी।
329.जब तक अपने सुख के लिए दूसरे अपने से भिन्न वस्तु को मन चाहता है और सोचता है कि उसके बिना जीना असंभव है तब वह दूसरी वस्तु को अपना अहमात्मा बनाकर जीनेवाले का जीवन अमृत बनेगा।
330.जो अपने आप मिलने से संतोष होता है , किसी पर किसी प्रकार की इच्छा के बिना रहता है,उस स्थान से शाति और समाधान आरंभ होता है।
331. इस मिनट पर आप आनंद है, तो आप आत्म बोध में ही है।
332.युक्ति और विवेक भरे आत्म ज्ञानी ही हर एक मिनट आनंद पूर्ण बना सकते है।
333.हम किससे याचना करते हैं, उनसे देने वस्तुएँ,कहाँ से आती है ,उसे जानना ही ज्ञान का लक्षण है।
334. जिसकी उत्पन्न ही नहीं हुई है उसकी खोज करने के अंत में मालूम होगा कि
शारीरिक भावना रहित मैं के स्मरण के आधार पर खडे अखंड बोध परमात्म सत्य ही है।
335. भूमि पर मरनेवाला जीव अपने साथ पुण्य-पापों के सिवा और कुछ ले जा नहीं सकता। उसमें पुण्य ही उसकी शक्ति और कृपा है। इसलिए पाप रहित आत्म विचार मात्र सोचते रहते हैं तो पाप रहित संसार को जा सकते हैं। वही परमात्मा बनने का परमानंद लोक होता है।
336.मैं शरीर नहीं, आत्मा ही है की याद को बुद्धि में दृढ बनाने की क्रिया ही तपस्या है।
337.सीमित जीवात्मा बोध क्षेत्र से असीमित परमात्म बोध क्षेत्र जाने तक मरण भय मिटेगा नहीं।
338. माया बदलते तक परमात्मा रूपी ब्रह्म स्वमाया से जीवत्मा रूपी माया में बदलते समय ही स्वयं एहसास कर सकते हैं कि परमात्मा ही जीवात्मा के रूप में था।
केवल वही नहीं ,जीवात्मा त्रिकालों में नहीं था। वह एक भ्रम था। वह भ्रम भी परमात्मा से भिन्न नहीं है।
339. रूप रहित को समझाना है तो एक रूप बनना चाहिए। इसलिए रूप रहित को जो मूल्य है,वही मूल्य रूप का भी होगा। कारण वह अरूप ही रूप में दृश्य बना है।
ऐसा जो जीव नहीं है,उसको लगता है।जो अपरिवर्तनशील है,वह रहित न होगा।अर्थात अपरिवर्तन शील सर्वव्यापी होने से वह रूप में भरा रहता है। उस रूप में सर्वव्यापी सर्वत्र विद्यमान है। इसका महसूस होते ही रूप नदारद हो जाएगा। वह स्थिति ही परमानंद स्थिति होती है। वह हमेशा एक मन का होगा।
340. दो संगम होते समय तीसरी एक अनुभूति होती है। वह आत्मा का आनंद स्फुरण प्रकाश किरण है। वे अनुभव स्वभाधिक अनुभव होंगे। आत्मा के स्वयं का अनुभव आनंद स्वभाव के हैं।
341.मन आत्मा से जुडने की स्थिति ही अनुभव होता है। वे अनुभव स्वभावाधिक अनुभव होते हैं। आत्म स्वानुभव आनंद स्वभाव के हैं।
342. स्वात्म यादों के बिना बाकी यादों का अंत शून्य ही है।
343. किसी एक को नित्य बनने के लिए आत्मबोध से अबोध के लिए अर्थात शरीर बोध को न जाने देकर जीवन को को देख लेना चाहिए। तभी समझ में आएगा कि स्वयं स्थिर खडे रखने की आत्मा को स्थिर खडे रखने की आवश्यक्ता नहीं है।
वह तो सदा स्थिर खडा रहता है। केवल उसीको स्थाई स्थिरता है।
344. स्वतंत्र आत्मा में माया का मूल स्वरूप भूल भावनाएँ अस्वतंत्र प्रतिबिंब ही जीवात्मा है।
345.जीवित रहने के रूप को सोचने से कोई प्रयोजन न होने पर प्राण रहित रूपों के बारे सोचने से कोई प्रयोजन नहीं है। रूप ही नश्वर है तो उससे संबंधित यादें भी नश्वर ही है। यादों का नाश ही मोक्ष है। इसलिए किसी स्मरण की ओर न जाना ही विवेक ह।
346. परमात्मा के बिना कोई जीवात्मा नहीं है। परमात्मा और जीवात्मा एक ही है।
सर्वव्यापी परमात्मा में अपनी शक्ति चित्त रूप में प्रतिबिंबित प्रतिबिंब बोध ही जीव अर्थात जीवात्मा है। एक जल के बर्तन में प्रतिबिंबित सूर्य प्रतिबिंब जल के भाप बनते ही प्रतिबिंब छिपकर सूर्य मात्र है। वैसे ही चित्त में में उमडकर आनेवाली इच्छाओं के पीछे जीव को जाना नहीं चाहिए। तभी मन नदारद होकर परमात्मा मात्र रहने को महसूस कर सकते हैं। इसी स्थिति को कहते हैं कि जीवातमा और परमात्मा अभिन्न है। प्रतिबिंब की उपस्थिति एक माया चलन ही है। निश्चल परमात्मा में चलन न होगा। अतः जीवचलन न होगा। जीवचलन एक उपस्थिति मात्र है। उपस्थिति सत्य नहीं है। जो सत्य नहीं है, उसको स्थिर रखने का प्रयत्न करनेवाला जीव भी मिथ्या है।
347. जब मन शांत है,तब मंत्र का जप नहीं करना चाहिए। मन शांत होने के लिए ही मंत्र है। मंत्र चंचल है। शांति अचंचल है। वह आत्मस्थिति है। अन्य लोकायुक्त व्यवहार के विषयों में संकर्षित मन को नियंत्रित करने के लिए मंत्र ,जप सहायक रहेंगे। अंत और लक्ष्य मन का निश्चलन ही है। कारण निश्चलन में ही सभी शक्तियाँ और आनंद है।
348 .आत्मज्ञान पूर्णता के निकट जाते समय हमारे मन में अपूर्ण स्मरण किसी को देखना है, किसी बात को सुनना चाहिए, कुछ न कुछ जानना चाहिए किसी न किसी प्रकार बनना चाहिए आदि विचार न उपस्थित होंगे।कारण अपूर्ण चिंतन बदलेंगे।
349.अहंकार को न त्यागने पर मोक्ष की चाह पूरी न होगी। लेकिन जब तक मोक्ष की इच्छा होगी,तब तक मोक्ष न मिलेगा। कारण इच्छा रहित दशा ही मोक्ष है।
350.प्यार ही स्वयं बने आत्मा है। जब यह ज्ञान होता है, तभी प्यार के लिए दूसरों की खोज में मन न जाएगा। प्यार ही भगवान है।परमात्मा आत्मा है। आत्मा प्यार है।
(Love is God,God is Soul, Soul is Love)
351. “मैं” आत्मा ही है। आत्मा ज्ञान है। ज्ञान सत्य है। सत्य भगवान है। सत्य स्नेह है।
352. आत्मतत्व निश्चय होने पर सकल इच्छाएँ अस्तमित रहेगा। कारण आत्मा कामधेनु है।
353.हर मिनट की यादों को ,दर्शनों को,अनुभव अनुभूतियों को आत्म तत्वों के साथ तुल्ना करके देखकर सीखना ही बहुत बडी साधना है।
354. दूसरों के संतोष देखकर आनंद मनानेवाला ही त्यागी होते हैं।कारण आनंद पाने के लिए त्याग के सिवा और कई बढिया मार्ग नहीं है। अर्थात आत्मा से प्यार करनवालों को ही यथार्थ त्यागी बन सकते हैं।उनको ही समदृष्टि होगी।
355. वही विवेकी होता है ,जो जानता है कि नाश क्या है? और नाश रहित क्याहै?
विवेक आत्म स्मरण खिलाएगा।
356. अविवेकी नहीं जानते हैं कि स्थाई से अस्थाई की चाह अर्थ शून्य है।उसके कारण भ्रम है।
357.विवेक होते ही दुख निवृत्ति होती है, उसके फलस्वरूप सुख और समाधान मिलेगा। उसके लिए नित्य और अनित्य विवेक चाहिए।
358. अविवेक अज्ञान को, अज्ञान से संकल्प, संकल्प से अस्वतंत्रता,उसके कारण
दुख ही दुख होताहै।
359.विवेकी बनना है तो दूसरों की बातों को ज्यों का त्यों न सुनकर बातों को अनुशीलन विश्लेषण करके समझ लेना चाहिए।उसके बाद ही अनुसरण करना चाहिए।
360.देह संकल्प दृढ अज्ञान ही है। दृढ संकल्प को सरल बनाने के लिए आत्मबुद्धि को उपयोग करना चाहिए। कारण संकल्प नाश ही मुक्ति होती है।
361. “ मैं “ के स्मरण स्थिर खडे रहते समय जीव नियंत्रण में रहेगा। नियंत्रण संकल्प में ही रहेगा। संकल्प नाश ही स्वतंत्रता के लिए मार्ग बनाएगा।
362. इच्छा शक्ति, ज्ञान शक्ति,क्रिया शक्ति आदि हमें होना है तो आत्म साक्षात्कार पाना चाहिए।
363. निश्चल मन हो तो संकल्प सत्य रूप में बदलेगा।
364.अज्ञान की वासनाएँ मिटें तो मन संकल्प रहित होगा।
365. वासनाएँ रहित मन लेकर किसको संकल्प करते हैं, तुरंत वैसा ही बदलता है।
366.भूमि पर रहते समय भूमि को पूर्ण रूप से देख नहीं सकते।
भूमि छोडकर आकाश पर जाते समय भूमि को पूर्ण रूप से देख सकते हैं।वैसे ही जीव शारीरिक बोध छोडकर आत्म बोध की ओर जाते समय बिलकुल एहसास कर सकते हैं कि शरीर और जीव मिथ्या है।
367.आत्मबोध बने अपने में उमडकर दीख पडनेवले माया जाल ही हैं यह शरीर और यह दुनिया। वह आत्मा अभिन्न है। उस अभिन्न को एहसास करनेवाला ही अदवैत ज्ञानी है।
368. वासना के बढते समय ही उसको अपना बना लेने की सोच की प्रेरणा होती है।
369. भावनाएँ अनुराग उत्पन्न करेगा। अनुराग आत्मानुराग में एहसास करते समय आनंद होगा। नहीं तो वह दुख देगा।
370. सत्य की शक्ति प्रकट होना चाहिए तो यह जान-समझकर महसूस करना चाहिए कि यथार्थ ही सत्य है।
371.धर्म ,नीति,दान आदि सब सत्य बोध के लिए उपयोग करना चाहिए।
372.त्रिकालों में अनजान ,अपने में रहकर अज्ञान,ज्ञान से अधिक न छू सकनेवाली
“ मैं “ ही यह सत्य रूपी आत्मा है।
373. एक रूपी सूर्य अनेक प्रतिबिंब में प्रतिबिंबित है, वैसे ही एक रूप आत्मा अनेक जीवों में प्रतिबिंबित होती है। इसीलिए हर एक जीव में स्वयं पूर्णत्व है की उपस्थिति गहरे मन में होता है।
374. सभी कार्यों में बाधाएँ आते समय जिंदगी असफल लगेगी।लेकिन बाधाओं को प्रकृति का वर समझनेवालों को आत्म बोध के लिए मार्ग दिखाएगा।
375. तब आत्म शक्ति दृढ होगी,जब “मैं” कोई नहीं और कुछ नहीं का अनुभव ज्ञान होता है।
376.अज्ञानियों को मालूम नहीं है कि अहमातमा से आश्रित होकर ही शरीर काम करता है। शरीर को ही भूल से आत्मा सोचकर कर्म करते समय आत्म- भूल और शरीर की याद करके ही व्यवहार करता है। प्राकृतिक दंड से कई संदर्भ परिस्थितियों से दुखी होकर शरीर को भूलकर अहमात्मा को सोचते समय ही कुछ लोग आत्मबोध के साथ संसार में व्यवहार करते हैं। वैसे लोग कालांतर में आत्म स्थिति पाते हैं। जो अहमात्मा को न सोचकर जीते हैं, संकल्प कर्म चक्र में घूमते रहेंगे।
377. देवचिंतन की भावना के साथ ही स्थूल बोध सूक्ष्मता की ओर जाता है। देव चिंतन आते समय साधारण मनुष्य मन इह लोक छोडकर परलोक को सोचेगा। वह रूप चिंतन छोडकर अरूप आकाश चिंतन के लिए वह मदद करेगी। जाने -अनजाने में ही ईश्वर भक्ति किसी एक व्यक्ति को स्थूल से सूक्ष्म की ओर ले जाएगी। आत्मा अति सूक्ष्म है। आनंद सूक्ष्म में ही होगा।
378. बंधुओं से और बंधनों से कर्मों से ,आंतरिक स्मरणों से विमोचन न मिलेगा तो सर्व तंत्र स्वतंत्र आत्मानुभूति न मिलेगी।
379. मल-मूत्र विसर्जन,नहाना,दाँत साफ़ करना, साँस लेना,आहार,संभोग आदि जीव की स्वतंत्रता के लिए बाधक कार्य ही है। गर्भ में पलनेवाले शिशुको,निर्विकल्प समाधि में रहनेवाले योगी को यह एक बडी समस्या नहीं है। लेकिन जिस मनुष्य को जीने के लिए भी स्वतंत्रता नही है,उनको जीना बडा कठिन ही है। लेकिन इन सबको तोडने की शक्ति आत्म विचारको के मात्र ही है।
380.कर्म करने निर्बंध करने पर भी संसार के सभी चराचर कर्म बंधित ही है।कर्म बंध के जीवों को कर्म स्वभाव के दुख से छुटकारा पाने लंबे समय होंगे। तभी उनको यह विचार होगा कि आनंद स्वभाविक स्वतंत्र चाहिए।
381. निष्काम कर्म करनेवाला समझता है कि यथार्थ स्वयं बननेवाली आत्मा निष्क्रिय ही है। वह जो कर्म करता है,वह उसको कभी बंधित नहीं करता। कारण वह अज्ञान अंधकार प्राण,चलन,माया,संकल्प आदि मिथ्या कर्म रहस्य जानता है।
इसलिए कर्म बंधन उसपर प्रभाव न डालेगा।कर्म करने पर भी वह स्वतंत्र है।
382. जो भी कर्म करें,उसका फल चाहें या न चाहे ,हमें खोजकर आएगा।कारण कर्म करते ही उसका फल भी साथ रहेगा। वह एक सिक्के के दो पक्ष होते हैं।कर्म अकेला न रहेगा। फल के साथ ही रहेगा। उस कर्म नियति को जाननेवाला ही निष्कर्म काम करेंगे।
383. आत्म कर्म की खोज करनेवाले विश्वास को समझने, आराधना जागृत होने, लक्ष्य स्वात्म निश्चय के लिए, भय अभय के लिए, परतंत्र स्वतंत्र की ओर ले जाएगा।
384. देह को भूलने के लिए अविस्मरण स्थिति के उपयोग में काम आनेवाले पवित्र आकाश भावना जैसे बढिया ध्यान और कोई नहीं है।
385.अपने आप को जानने का मतलब है आत्मा को जानना।
386. अपने आप आनेवाली भलाई या बुराई जो प्राकृतिक योजना है , उसको सहकर मन को सम स्थिति पर लानेवाले को प्रकृति परमातमा के रहस्य को खुलकर बताएगा। कयोंकि वे प्रकृति को शाप नहीं देते।उसी समय जो प्रकृति की योजना न जानकर उसको शाप देकर मन को सम स्थिति पर नहीं लाता, उसके आत्मा के मार्ग को प्रकृति बंद कर देगी।
387. लोभियों की कमाई अल्प सुख ही देगी।अहंकार बढाकर संतुष्ट देगी। परिणाम स्वरूप मानव दुखी होगा। शांति और समाधान उसे छोडकर चली जाएगी।
388.धर्म, अर्थ,काम,मोक्ष आदि पुरुषार्थों में काम पर विजय न पाकर मोक्ष न मिलेगा। इसलिए एक स्त्री से शादी करते समय का काम,फिर प्रेम में बदलता है। फिर जिम्मेदारी और कर्तव्य के रूप में बदलता है। उसकी खोज में पारिवारिक जीवभंग होता है। स्नेह भोगने में असमर्थ होते हैं। किसी भी लाभ-नष्ट की प्रतीक्षा के बिना जब स्नेह होता है,तभी पारिवारिक में शांति होगी। जो प्रेम को आत्मा का रूप जान-समझकर एहसास करता है, वही परिवारों में ही नहीं ,सभी जीवों से प्यार करते हैं। जो वैसा नहीं रहता, काम के अधीन रहता, उसका जीवन जल्दी पूर्ण हो जाएगा।
389. जो नहीं जानता और नहीं समझता कि यथार्थ प्यार क्या है,उसी को प्यार की चिंता होगी।किसी प्रकार के प्रतीक्षा बिना किये प्यार करना यथार्थ प्यार होगा।
390.प्यार हमेशा आनंद स्वभाव का होता है। किसी एक समय पर प्रेम नहीं हो जाता तो वह यथार्थ प्रेम नहीं,केवल भ्रम है।कारण प्यार भगवान है। भगवान स्थाई और शाशवत है।आत्मा का रूप ही प्यार है।. वह निरंतर आत्मबोध होनेवाले का लक्षण होता है।. इसी कारण से वह सबसे प्यार कर सकता है।
391. जिसको ज्ञान में आनंद है,वह ज्ञानी हैं।
392.अहंकार के साथ का ज्ञान अज्ञान ही है। कारण आत्म ज्ञानी को अहंकार न होगा। अर्थात जहाँ अहंकार है,वहाँ आत्मज्ञान न होगा। अहंकार व्यक्ति ज्ञान सीखने पर भी वह साध्य न होगा।
393. त्याग हमेशा सुख ही देगा।
394.अपने बारे में जानने का ज्ञान ही यथार्थ ज्ञान है।
395.अपने मनःसाक्षी के अंगीकार के साथ करनेवाले सभी कार्यों में सदा संतोष ही होगा।
396.तुरंत निवारण के लिए भटकनेवाला मनुष्य अपने में आत्मस्मरण का जो दिव्य औषद है,उसकी पूजा नहीं करता।
397.धन की इच्छा जिसमें नहीं होती, उसी को लक्ष्मी देवी चाहती है। करोडों रपये होने पर भी धन का लोभी दरिद्र ही रहेगा। जिसको धन की इच्छा नहीं, उसको मालूम है कि अहमात्मा कामधेनु है। धन के हच्छुक सोचता है कि अपनी बुद्धि के कठिन परिश्रम करने पर ही धन मिलेगा। यह उसकी मिथ्या धारणा है।
398.काम,क्रोध ,ईर्ष्या ,शरारती,गुसलखोरी, परदूषण, कंजूसी, चापलूसी, निम्नस्तरता, अनावश्यक निंदा-स्तुति आदि आनंद की बाधाएँ होती हैं।
399.सूर्य,चंद्र आदि नक्षत्र ,काले बादल आदि रहित आकाश की भावना करके विस्मरित अवस्था में ही अनिर्वचनीय शांति का अनुभव कर सकते हैं।
400. जिसने कोई भी गल्ती नहीं की,उसको मुक्ति की चिंतन नही आती। क्योंकि उसको नियंत्रण करनेवाले बंधन कोई नहीं है। कारण वह आकाश जैसे बन गया । वह आकाश में भी सूक्ष्म आत्मा ही स्वयं है का महसूस कर चुका है।
401.अपनी इष्ट वस्तु की कमियाँ दीख न पडेंगी।
402.अपनी अहमात्मा के महत्व को जान-समझनेवाले के मन मात्र अपने से और कहीं न जाएगी।
403.वही निश्चिंत व्यक्तिि है, जिसने अपनी४ सभी वासनाओं को छोड दिया है।
उसका मन ही स्वस्थान में स्थिर खडाा रहह सकताा है।
404. रूप की अरूप अवस्थाा को अर्थात् सूक्ष्मताा को जो अपने विवेक से जानता है, वही सूक्ष्म ज्ञानी है। उसको मन न रहेगा। कारण रूप की इच्छा सेे ही मन स्थिरर खडा रह सकता है।
405. मन शरीर से मिलकर रहने से शारीरिक अभिमान होता है। इसलिए अन्य स्मरण आते हैं। नाना प्रकार के विचार आते हैं। उसी समय मन आत्मा से जुडते समय
वह आत्मा सभी जीवों में और बाहर सर्वव्यापी, सर्व और एक ही होने से अन्य भेद बुद्धि न होगी।
406. हर दिन होनेवाले अनुभवों के दो कारण होते हैं। एक पूर्व जन्म वासनाओं के कारण आनेवाले अनुभव, दूसरे इस जन्म की म्रतीक्षाओं के कारण होनेवाले अनुभव।
मन आत्मा से जुडते समय सभी कार्य बाधा रहित होंगे। कार्य स्मरण होने के साथ चलेंगे भी। उसी समय मन अहंकार से मिलते समय बाधाएँ अधिक होंगी। कारण अहंकार अज्ञान होता है, आत्मा ज्ञान होता है।
407. दूसरों के कल्याण चाहनेवाला मन परिशुद्ध होता है। उसके लिए इस ज्ञान की दृढता चाहिए कि दूसरों की आत्मा और अपनी आत्मा एक नहीं है। वैसे परिशुदध मनवाले ब्रह्म की खोज करके ब्रहम ही बन जाते हैं।
408. दूसरों के नाश की प्रतीक्षा में उसको अन्य के रूप में देखते समय हमारे हृदय में ईश्वरीय शक्ति का बल नहीं रहेगा। जब मनुष्य इसको जानता है, तभी मनुष्य अच्छे विचार ही करता है। सोच बढिया होती है।
409.नाम रूप के इस प्रपंच के आधार स्वरूप अरूप होने से स्थूल से सूक्ष्म की यात्रा ही जीवनन है। स्थूल के पाप सेे सूक्ष्म के पुण्यय को जाकर अरूप के सहज आनंद पाना ही जीव का लक्ष्य है।
410. हर एक दिन नींद के एहसास करनेवाले जीवन में मनुष्य नींद को ही चाहेगा।कारण नींद में ही शांति मिलती है। विवेकी को एहसास होने के बाद ही मालूम होगा कि वह शांति आत्मा का स्वभाव होता है।इस संसार और शरीर को एहसास करते समय दुख ही मिलेगा। उसमें सुख एक बूंद ही मिलेगा। इसलिए आत्म भावना के साथ जागृत, स्वप्न,सुसुप्ति आदि तीनों कालों में रहनेवाला परमानंद अर्थात नित्य शांति पाएगा।
411. जिसमें यह भावना है कि आत्म साक्षात्कार के लिए ही यह शरीर है तो वह इस शरीर की खोज करेगा। जिसमें वह भावना नहीं है ,वह शरीर पर तभी ध्यान देगा,जब तन को कोई रोग होता है। काँटे चुभने पर दूसरे काँटे से काँटा निकालकर दोनों काँटों को फेंक देते हैं, वैसे ही आत्मज्ञान की दृढता लेकर संकल्प शरीर को फेंक देना चाहिए।
412. जीव की कल्पनाएँ दृढ बनकर परिपक्व बनकर अपने कर्मों से उभरती है। वह स्नायु तंत्र को आने के पहले ही संभव होते समय कहते हैं कि वह ईश्वर निश्चय ,विधि। अर्थात मन के संकल्प के बिना कुछ भी संभव नहीं होगा। सभी शारीरिक और सांसारिक अनुभव चित्त का संकल्प ही है। जब चित्त होता है, तब अहंकार और अनेकता होती है। चित्त का नाश जगत का नाश ही है। संकल्प के अस्त होते ही आत्म बोध मात्र रहेगा।
413.शरीर में होनेवाले सकल संभव आत्मा की अपनी भावना और ज्ञान के साथ ही संभवित होती है। वह बोध मन में न आने से ही वह अनजान होता है। जो जान लेते हैं, और सच्चाई को महसूस करते हैं कि अहंकार को अपनत्व नहीं है,तब कर्मों में अभिमान न करेंगे। कारण स्वयं बने आत्मा के बिना और कुछ नही है।
414. अति साहस के साथ ,कठिन परिश्रम के साथ खोजकर पता लगा लने की संपत्ति है, अपनी आत्म वस्तु ही है। वही सत्,चित् आनंद है। आत्मा नहीं तो मृत्यु का भय सदा रहेगा। मरण भय कभी नहीं जाएगा।
415. अहमात्मा में मन रखकर कुएँ खोदनेवाले को नित्य शांति रूप पानी स्रोत से आता रहेगा।
416.अपने मनःसाक्षी को न जान सकनेवलों ने जो गल्तियाँ की, वही जीवन के दुख होते हैं।
417. ब्रह्म माया के काम यही है कि मन को अंतर्मुखी बनने में बाधा डालकर बहिर्मुखी बनाकर दृश्यों की भेद-बुद्धि, राग-द्वेष बनाकर अहंकार और आत्मा में संघर्ष उत्पन्न करना।
418. मुझे वहाँ रहना चाहिए,नहीं तो यहाँ रहना चाहिए ऐसी दुविधा में न पडकर वहीं जाऊँगा के लक्ष्य पर दृढ रहनेवाले एक न एक दिन विजय पा सकते हैं।
419.विवाह हो गया के एक ही कारण को मन में रखकर इच्छाओं और मोहों को छिपाकर जीना आत्मवंचना के साथ पुनर्जन्म के कारण बनेगा।
420. आत्म प्यासी लोग आज या कल, एक दिन सभी बंधनों को तोडकर दूर फेंककर चले जाएँगे।
421.आत्मसाक्षत्कार की मदद के लिए जो कुछ कमाते हैं, वह दुख न देगा। कारण वैसे लोगों का मन जड न रहेगा। केवल वही नहीं, धन लक्ष्य सुख ही है। सुख का प्रारंभिक आधार स्थिति नित्य आनंद आत्मा ही है।
422.संसार स्वप्न सम है।ऐसी स्थिति में केवल आत्मसाक्षात्कार ही नहीं,और कोई कर्तव्य ,धर्म आदि आत्मज्ञान प्राप्त मनुष्य को नहीं है।कारण अद्वैत आत्मा के सिवा दूसरा कोई और नहीं बनता।
423. नाम रूप प्रपंच जगत मिथ्या है। जब तक मनुष्य इस सच्चाई को महसूस नहीं करता, तब तक नाते-रिश्ते बंधनों को मनुष्य मन छोड नहीं सकता। संसार सत्य है या मिथ्या –इसको जान-समझ लेना ही सभी चिंताओं से विमोचन होने का एक मात्र मार्ग होता है। सत्य यही है कि प्रपंच अभिन्न आत्मा ही है। आत्मा मात्र है कल और आज।
424. सत्य को अनुसंधान करनेवालों को आसानी से मालूम होगा कि सत्य क्या है? असत्य क्या है? उसमें इस ज्ञान की दृढता है कि अंत में सत्य मात्र रहेगा। अर्थात् सत्य ही भगवान है। यही सत्य है कि ईश्रर के बिना और कुछ नहीं है।
425.अपने आपको विवेक से जानकर ही स्वयंभू बना है का एहसास होते समय ही समझते हैं कि सृष्टि ,तिथि,संहार अपनी इच्छा शक्ति के बिना नहीं होगा। वही प्रपंच रहस्य है।
426.आत्मा की खोज करके वह आत्मा ही स्वयं का सोचना ही ध्यान है। उस ध्यान का अंत जीव को समाधि की ओर ले जाएगा। वह समाधि ही परमानंद और स्वतंत्र रूप में स्थिर खडा रहता है।
427.प्रकृति को माता,परमात्मा को पिता जान-समझनेवाले अपने माता-पिता के प्रति अपना धर्म निभाना न चूकेंगे। जो वह तत्व न जानते,वे पापी हो जाते। पाप वही है, जो प्रकृति पुरूष, रहस्य न जानने की जिंदगी है।
428. ऋषि-योगियों के अंतर्मुखी रहकर पता लगाये तत्वों को सीधे मार्ग पर अनुष्ठान करने से ही इस लोकायुक्त जीवन में ज्ञानदान करनेवाले शक्तिवान होते हैं। अर्थात उसीको इस ज्ञान भावना में दृढता होगी कि स्वयं ही इस प्रपंच का केंद्र है।
429.वर्तमान काल में जीते समय आत्म ज्ञानाग्नि होगी। उस उष्णता में स्थूल शरीर पिघलकर सूक्ष्म प्राणन्, मन, चित्त ,आकाश आदि स्थियों को पारकर अखंड आत्मबोध के रूप में बदलेगा।
430. आत्मबल देनेवाला आत्मज्ञान भारतीयों को जन्म सिद्ध होने से जाने अनजाने में ही उनके शरीर में होने से भारत देश दिव्य देश कहलाता है। अन्य देश के लोग भानत का अनुकरण कर रहे हैं।
431. आत्म ज्ञान में पूर्णत्व प्राप्त ज्ञानियों के सामने अज्ञानी लोग अधिक देर टिक नहीं सकत। क्योंकि उनकी ज्ञानाग्नि में अदृश्य ज्ञानपरकाश को अज्ञानियों से सहा नहीं जाता।
432. अहमत्मा से यह प्रपंच रहस्य उमडकर आते समय लिखने लगते हैं तो ब्रह्म स्थिति में बाधा पडने से महानों ने लिखने की कोशीश नहीं की है। अर्थात वेद लिखना निश्चल पूर्ण ब्रह्म बननेवाले अखंड आत्म बोध को अपनी शक्ति माया संकल्प अज्ञान रूपी अंधकार स्वरूप को छिपाने के साथ माया के प्रतिबिंब से दीख पडे मोह की नीड चित्त के अनुकरण करने से स्वरूप को छुडाने की कोशिश के परिणाम स्वरूप को पुनःप्राप्ति के प्रयत्न के फलस्वरूप रचित ग्रंथ उपनिषद हैं। उन उपनिषदों के तत्व ही वेद हैं।
433 शरीर की याद आने से आज तक बने शरीर,मन,बुद्धि आदि के परिवर्तन की जानकारी के साथ शरीर ,मन,बुद्धि आदि जो ज्ञान आत्मा सेे मालूम होता है,वह ज्ञान आत्मा है,के सिवा बना है,नदारद है का स्मरण आने के लिए मौका नहीं है। इसीलिए कहते हैं आत्मा नित्य है।
434.पुण्य रूपी संन्यासियों को सज्जन घरों में स्वागत करके उनकी पूजा किया करते हैं। कारण उनके दर्शन से उनकी दृष्टि पडने से ही पाप नाश हो जाएँगे। अर्थात पुण्य आत्म बोध है। पाप अज्ञान है। जिसमें आत्मबोध नहीं है, वह अज्ञानी है, जिसमें
आत्मबोध है, वह ज्ञानी है। आत्म बोध आनंद है,शारीरिक बोध दुख है।अर्थात ज्ञानियों के दर्शन शारीरिक भावों से आत्म जाग्रण की ओर ले जाएगा।
435. क्षुधा पूर्ति के लिए याचना करनेवाले मनुष्य,पशु-पक्षी जो भी हो ,उन जीवात्माओं को अवहेलना करना नहीं चाहिए। कारण वे भगवान की ओर जाने का मार्ग दिखाने आये हैं। वह अवसर कभी नहीं मिलेगा। कारण वे ही भेद बुद्धि रहित मन को पवित्र बनाता है। जहाँ पवित्रता है,वहाँ भगवान होता है।
436. असुर स्वभाव वाले सज्जनों के क्षेत्र और सुगंधित क्षेत्र को न चाहेंगे।
437. आत्मबोध के बढते-बढते शारीरिक बोध घटते रहेंगे। साथ ही भूख,प्यास,नींद आदि कम होंगी। यह आत्म साधक का लक्ष्य होगा।
438. आत्म चिंतन मात्र करनेवालों के चेहरे पर आत्म स्वभाव संतोष और शांति का प्रकाश सदा प्रज्वलित होगा।
439. जिनमें शारीरक अहंकार होंगे, वे ही मेरा,मुझे के शब्द प्रयोग करेंगे। उनके बंधन ही माया बंधन हैं। आत्म भावना के साथ रहें तो अहंकार दुर्बल होगा। साथ ही माया हट जाएगी।
440. जीवन को अर्थ देनेवाला वही है. जो स्व अहमत्मा ही यथार्थ “ मैं “, वह “मैं “ ही माता.पिता,और सर्वस्व जानता है। यही ब्रह्म रहस्य है।
441. वे सत्य की खोज करने को न जाननेवाले अज्ञानी मूर्ख होते हैं, जो लज्जा, मान-मर्यादा पर अपनी निजी भावनाओं के असहनीय गुण से जीवन को बेकार करते हैं।
साधारण लोगों को मालूम नहीं होता कि यह जीव शरीर निर्विकार, निष्क्रिय,जन्म-मरण रहित नित्य,निराचार,स्वयंभू आत्मा होती है।अपनी शक्ति माया के आड में प्रतिबिंबित उत्पन्न प्रतिबिंब बोध है, वह त्रिकालों में नहीं होते।
442. विवाह, प्रसव आदि कार्यों के लिए कर्जा देने के लिए माया में जकडे व्यक्ति
पूर्ण रूप से तैयार रहेंगे। क्योंकि जीव को बंधनों में फँसाने के लिए। वही माया धर्म होता है।
443. काल चक्र के आवर्तन में कई जन्म लेकर माया के दंड भोगकर जन्म लेनेवाले जीव के मन में ही इस जन्म में “ मैं कौन हूँ” का प्रश्न उठेगा। जो वैसे नहीं है, वे मूर्ख बनकर जन्म लेते हैं।
444. एक मनुष्य एक माया विषय को सत्य मानकर दुखी होता है तो उसका दुख तभी दूर होगा,जब वह महसूस करेगा कि वह माया विषय मिथ्या है।मन विषय से हटेगा। वैसे हटे-मिटे मन से लेनेवाला जन्म ही सत्य की खोज करने का साहस रखेगा।
445. जो अपने निज रूप आत्मा को भूल जाता है, उसको माया अपने अधीन कर लेती है।
446. नित्य शाश्वत आत्मा के निकट यम जा नहीं सकता। जो जीव जन्म-मरण-पुनर्जन्म पर विश्वास रखता है, उस जीव को अपने शरीर भूलकर
आत्मा को मात्र हर मिनट स्मरण रखना चाहिए।
447. जिसका मन स्व आत्मा से हर मिनट लय है, उसके मन के संकल्प सब के सब ज्ञानाग्नि में जल जाते हैं, वह एहसास कर सकता है कि शरीर और जीव रेगिस्तान का पानी है अर्थात मृगमरीचिका है।
448. अनेक जन्मों के पुण्य के साथ जो जन्म लेता है,वही आत्म ज्ञानी गुरु को देख सकता है।उस आत्म ज्ञानी के दर्शन से अज्ञानी जीव की पूर्व स्थिति को समझ सकता है।
449. जन्म से लेकर मृत्यु तक अपने को शिष्टाचार बनाये रखनेवाली अपनी अहमात्मा सत्य ही है। जब तक मन में संकल्प और अनेक वासनाएँ रहती है,तब तक जीव नहीं जान सकता। कारण वासना के पीछे जानेवाला मन अहंकार ही होगा।
450. अखंड बोध के ज्ञान की दृढता जिसमें है,वे ही आंतरिक और बाह्य प्रयत्न के बिना जी सकता है।
451. अहमात्मा को भुलाने -भुलवाने ही माया ने शरीर को दिया है। उसे स्थिर खडा करने के लिए ही जीव को भूख-प्यास होते हैं।
452. स्व-आत्मा जब दृढ होती है, तभी भूख और प्यास मिटेंगे।
तब तक आत्म शक्ति के दृश्य इंद्रजाल नाटक में जीव बेहोश रहेगा।कारण जब तक यह विवेक नहीं आता ,दृढता नहीं आती कि मैं शरीर नहीं हूँ, शरीर नश्वर है,
आत्मा निर्विकार है,तब तक स्व आत्म निश्चय न होग।
453. जागृत अवस्था में रहनेवालों को माया कोई विषय नहीं है।
454.माया की खोज करने पर उसे देख नहीं सकते। माया रहित आत्मा की खोज करते समय सामने आनवाले सब माया ही जान पडेगा।
455. जो होना है,वह होगा ही। जो न होना है, उसकी कोशिश करने पर भी न होगा। इसलिए कोशिश केवल एक दिखावामात्र है। जाग्रण ही अखंडबोध आत्मा होती है। उस स्थिति में दूसरे रूप, नाम,दिखावा आदि टिक नहीं सकता। उदाहरण स्वरूप आकाश हीन स्थान को देख नहीं सकते। वैसे ही बोध को छोडकर एक वस्तु को देख नहीं सकते। जैसे आकाश को कर्म नहीं है, वैसे ही बोध और कर्म को कर्म नहीं है।
456. चित्त ही माया है। वह कहाँ से आया है? किसलिए आया है? इन प्रश्नों को उत्तर न मिलेंगे। कारण आत्मा से ही माया आती है। लेकिन माया आत्मा से आ नहीं सकती। कारण आत्मा सर्वव्यापी और निश्चल होती है।माया चलन शील है। निश्चलन से कभी कोई चलन न होगा। लेकिन चलन होना है तो चलन रहित कोई होना ही चाहिए। चलन की उत्पत्ति का कोई जवाब नहीं है। अर्थात निश्चल आत्मा बने भगवान की अलौकिकता सामार्थ्य पूर्ण माया जाल होती है। अर्थात पानी रहित मरुभूमि में मृगमरीचिका जैसा है वैसा ही भगवान है।
457.सदा काम करनेवाले अपनी इच्छा से काम नहीं करते। कारण वे चैन से रह नहीं सकते। चैन या शांति से रहने का काम ही उन्नत,इष्ट और श्रेष्ठ होते हैं ।
458.चलायमान मनवाले मनुष्य संकल्प विकल्प लेकर अति वेग से दौडने से शांति भंग करनेवाले नाते रिश्ते बंधन के बिना एक मिनट भी चैन से रह नहीं सकता। लेकिन वे नहीं समझते कि उनका लक्ष्य शांति ही है।
459. मन, शरीर, बुद्धि सबको शांति प्रदान के लिए जो कर्म करता है, वही शक्तिशाली कर्म वीर होता है।
460. दिव्य सृष्टि रहस्य में प्रपंच प्रकृति को श्री पुरुष आदि सकल जीवजालों को हर एक धर्म स्वभाव होता है। उनके संकेत का ज्ञान ही शिक्षा ज्ञान में सभी मनुष्यों को देना चाहिए। उनमें नश्वर, अनश्वर आदि स्वभाव को पहले सीखना चाहिए। कारण आनंद अनश्वर वस्तुओं में है। दुख नश्वर वस्तुओं में है।
461. शिक्षा में आत्मज्ञान विषय इस गलत धारणा के कारण सम्मिप्लित नहीं है कि
मनुष्य के सोच की प्रगति और कर्म क्षमता नाश हो जाएगी। अर्थात यह समझ में न आने के कारण ही कहते हैं कि मनुष्य की प्रगति जीव के विकास में ही है। ज्ञान-विज्ञान में जो ज्ञान की दृढता है,वैसी दृढता जीव के विकास में “मैं” ही सर्वस्व है। तभी विकास की सच्चाई मालूम होगी। अर्थात विकास केवल दुख विमोचन मात्र नहीं, आनंद को बढानेवाला होना चाहिए।
462. विद्याभ्यास संप्रदाय में बचपन से ही आत्मज्ञान अर्थात् अपने अस्तित्व ज्ञान देने पर राज्य,देश,राजनीति,समुदाय आदि के नियंत्रण,आदेश आदि जीवन पर कभी कोई प्रभाव न डालेगा। कारण आत्मज्ञान समरस लाएगा।लेकिन उसके लिए ईश्वर की इच्छा अनुकूल होनी चाहिए।
463. किसी भी प्रतीक्षा रहित प्यार में हम दो नहीं, भावना होगी कि हम दोनों एक ही है।
464.स्थाई अद्वैत आनंद को सोचने के पहले नष्ट होनेवले आनंद की बूंद ही है स्त्री-पुरुष के संभोग में होनेवाले उच्च कोटी के सुख।
465. एक रूपी भगवान अनेक धर्म के दृश्यो को प्रकट करने की कोशिश करते समय स्वयं को भूले बिना भूला जाता है। अर्थात अपनी शक्ति चलन से चले बिना चलती है। वही ईश्वर की योग माया की क्षमता है।
466.भगवान अपने एकत्व को जब भूल गये, तब नानात्व हो गये।वैेसे नानात्व भूलकर एकत्व में जाने की स्थिति ही नींद होती है। सुसुप्ति में मैं नहीं है। सुसुप्ति में महसूस समाधि दशा में मैं है। मैं मात्र है। स्मरण रहित और संकल्प रहित मैं है। नींद और समाधि में अखंडबोध ब्रह्म स्थिति ही है। समाधि पूर्ण है। सुसुप्ति अपूर्ण है। कारण ससुप्ती में अपनी वासनाओं के अज्ञान के अंधकार में ब्रह्म का आवरण है। छिपाया गया है।समाधि अवस्था में वासनाएँ नहीं है।
467. बाहर से एक रूप अंदर न आने , अंदर से कोई स्मरण बाहर न जाने की स्थिति ही आत्म स्थिति है।
468. अपने स्वरूप सर्वव्यापी आत्मा के एहसास हो जाने के बाद दूसरों को एहसास कराने में कोई श्रम न होगा। जिसने एहसास किया है, उसके लिए कोई अन्य नहीं है। इसलिए जिसने महसूस नहीं किया है, उसको जिसने महसूस किया है, उसको देखकर अज्ञान खुद दूर होगा।
469. आश्रम संन्यासियों के दर्शन करके सत्संग करने से विषय वासनाएँ मिटने में मदद होगी।
470. स्वआत्म भावना से शरीर, संसार को भूलना ही ऊँची सिद्धि होगी। वही असीम आनंद स्थिति होती है।
471. जब अष्टमा सिद्धि के बारे में मन में कोई चिंतन नहीं होता,तब संपूर्ण आत्मज्ञानी बनते हैं। आतमज्ञान ही बडी सिद्धि होती है। सभी सिद्धि आत्म ज्ञान का स्वभाव ही है। .
472. आत्मज्ञानी को दूसरा एक न होने से सिद्धि को दूसरों से प्रकट करने की आवश्यक्ता नहीं है।
473. दिन,वार, मुहूर्त देखकर मंदिर जानेवाले , यह सूक्ष्म तत्व नहीं जानते कि भगवान कौन है? भगवान क्या है? भगवान कहाँ है? भगवान कैसे हैं?
474. मन आत्म ज्ञान की खोज करते समय ,आत्म ज्ञान को सूंघते समय सदा मौन मुस्कुराहट करता रहेगा।
475. आत्मा रूपी मैं सर्वस्व जाननेवाला ज्ञान बनकर ,स्वयंभू बनकर रहते समय अपने को सृष्टि करनेवाला एक स्रष्टा नहीं रहेगा। कारण स्वयं के बिना और कुछ नहीं है।
476. स्वयं बनी आत्मा स्थिर खडे रहे बिना अपने के स्वयं नहीं का चिंतन नहीं सकता। इसलिए सभी कालों में आत्मा शाश्वत है। आत्मा जन्म-मरण रहित नित्य शाश्वत अस्तित्व होती है।
477 तेज साँस लेनेवाले अपने आयु को कम कर लेते हैं। इसलिए आत्म भावना आने तक शरीर की रक्षा करने प्राणन को,मन को नियंत्रण में रखना चाहिए। नियंत्रण में रखकर सम दशा को ले आना चाहिए।
478. प्राण रहस्य जाननेवाले धीरेधीरे साँस लेकर अपनी आयु बढा लेते हैं।
479. वे ही अनाथ बच्चों को आश्रम स्थापित करते हैं जिनको बचपन में कोई सहारा नहीं था, अपने जीवन के लिए किसीने मदद नहीं की है।उनको समझ लेना चाहिए कि नाते-रिश्ते झूठे हैं,संसार में सब के सब मन में अनाथ ही है। यही आत्म तत्व है।
इसलिए अपने विकास के लिए आत्म निर्भर होकर जीने की कोशिश करनी चाहिए। आत्म निर्भरता ही सहायक रहेगी।
480. मानसिक नियंत्रण नहीं तो हिमालय में रहने पर भी शांति और आनंद नहीं मिलेगा। जिसमें मानसिक नियंत्रण है, वह नगर मध्य रहकर भी शांति और आनंदित रहेगा।
र481. रूप के समरण के बिना मन सथिर खडा नहीं रहता। रूप समरण रहित मन विसमरण की दशा ही आतमा का आकार है।
482. चिंतन सब के सब अधोगति को ही जाएँगे।
483.वक्ता के जैसे अधिक बोलनेवाले मृत्यु को जल्दी बुलानेवाले होते हैं।क्योंकि वे प्राण नाश के बारे में नहीं जानते। वैसे होने पर भी पूर्व जन्म कर्म फल उनको छोडते नहीं है। लेकिन “मैं” ज्ञान प्राप्त व्यक्ति पर कोई असर न पडेगा। क्योंकि वह नाद शक्ति को समझता है कि वह माया है।
484. ऐसा सोचना अहंकार ही है कि स्वयं के बिना संसार गतिशील नहीं रहेगा और वह शहतीर का आधार चिपकली जैसे ही है। स्वयं को आत्मा, ब्रह्म,भगवान,सत्य आदि के रूप में एहसास करनेवाले को अपने से अन्य कोई एक दृश्य नहीं रहेगा।अतः अहंकार न होगा। इसलिए बोली को स्थान नहीं है।
485. जो विज्ञापन से मोहित है, वे ही मार्ग भूलकर भटकते हैं।
486. अर्द्धांगनी आग बबूला होकर जाते समय पूर्व जन्म विचारों के कारण प्रकृति एहसास कराएगी कि अपने शरीर को अब पत्नी की जरूरत नहीं है। वैसे ही सभी अनुभवों को समझने पर चिंता नहीं होगी।
487. असीमित आत्मा को किसी भी काल में खोज करके पता नहीं लगा सकते। सीमित बुद्धि लेकर आत्मा की खोज करना मूर्खता ही होगी। किसी भी खोज न करके निस्संग बनकर जागृत व्यक्ति अनुसंधान कर्ता से जल्दी सच्चाई जान लेंगे।
488.मनुष्य के बारे में ईश्वर के बारे में प्रपंच के बारे में ,उसके आश्चर्य के बारे में चमत्कारों के बारे में सोचकर विस्मरण होकर खुश के रूप स्व स्वरूप आत्म आनंद स्थिति को पाना चाहिए।
489.जो कोई जिसके बारे में बोलता है,वह उस स्थिति में रहने से ही बोल सकता है।
490. मनुष्य मनुष्य को, मनुष्य के विषयों को प्रकट रूप से चोरी नहीं करता। पर मानसिक रूप से बिना चोरी किये रह नहीं सकता। क्योंकि मन को स्वयं का कोई अस्तित्व नहीं है। चुराये बिना रहना है तो पहले आत्मा को चुरानाा चाहिए।
491. जो प्राणन को नियंत्रण में रखने का अभ्यास करता है, वह अपनी आयु को बढा सकता है। प्राणन का अभ्यास जन्म-मरण रहित आत्मा ही “मैं” की ज्ञान दृढता के लिए उपयोग नहीं है तो जितना भी बडा सिद्ध हो, मोक्ष प्राप्ति के लिए कई जन्म लेने पडेंगे।
492. उसको कभी मृत्यु नहीं होगी,जो स्वप्न,सुसुप्ति स्थूल अवस्थाओं में त्रिकालों में प्राणन-अपाणन को एक पल भी विस्मरण के बिना जीता है। संसार का नाश होन पर भी केवल आत्मा ही नहीं, शरीर का भी नाश नहीं होगा। अर्थात चिरंजीवी रह सकते हैं।
493. ब्रह्म संकल्प शक्ति ही प्रपंच है। प्रपंच रूपी मन को ब्रह्म से मिलाते समय ब्रहमानंद बनते हैं। अर्थात् प्रपंच में सभी नाम रूपों में ब्रह्म बोध को भरते समय नामरूप अस्थिर होकर सब कुछ ब्रह्म मय अनुभव आनंद स्थिति पाएँगे।
494. इष्ट वस्तुओं को छोडते समय मन शांत होगा।
495.इष्ट वस्तुओं को अपरिहार्य करना है तो यह ज्ञान होना चाहिए कि इष्ट वस्तु मिलते समय मिलनेवाली शांति से अधिक शांति मनःशांति में मिलेगी।
496. सर्वधर्म सहोदरत्व होने के लिए सनातन धर्म के समान आध्यात्मिक अद्वैत वेदांत,सिद्धांत के जैसे दिव्य औषध और कोई नहीं है।
497. चलन प्रपंच है।वह पराधीन होता है। आत्मा निश्चलन है, वह सर्वस्वतंत्र है।
498. आज के अनुभव ज्ञान से अतिरिक्त ज्ञान कल के अनुभव में न मिलें तो जीव आत्मसाक्षात्कार प्राप्त नहीं कर सकता। उसके लिए मन को आत्मा को लक्ष्य बनाना चाहिए।
499. अपने आपको जानने के लिए मनुष्य के सिवा और कोई जीवों से हो नहीं सकता। इसलिए मनुष्य जन्म का महत्व जानकर मनुष्य रूप में जीना चाहिए।
आत्मा का मनन करनेवाला ही मनुष्य है।
500.मन की शांति बिगाडने के लिए ही माया मन को एक विषय पर आसक्त बनाती है। जब मनुष्य इस बात को समझता है, तभी अनासक्त होकर शांति पा सकता है।
501. संकल्प से ही सृष्टि आरंभ होता है। संकल्प से ही स्थित खडा है। उस संकल्प के कारण ही नाश भी होता है।
502. संकल्प मात्र ही हुआ है, स्थित खडा है, नकारात्मक होता है।
503. नित्य शाश्वत परमात्मा बिना संकल्प के प्रकट प्रकट नहीं हो सकते। जैसे बल्ब रहित बिजली प्रकाश दे नहीं सकती। अर्थात अपनी शक्ति माया अपने को विसमरण करने के साथ खुद प्रतिबिंबित होकर वह प्रतिबिंबित बोध जीव के रूप में, चित्त के रूप में चित्त प्रकट करनेवाले विषय के पीछे जीव स्वरूप भूलकर संकल्प बढाना ही यह प्रपंच प्रकटीकरण होता है। ऐसा लगेगा कि इन सबको युक्ति होती है। पर रेगिस्तान की मृगमरीचिका के समान ही युक्ति रहित होती है। कारण ब्रह्म से दूसरा एक किसी भी काल में न होगा।
504. आत्म बोध के एहसास करते-करते शारीरिक बोध कम होता रहता है। उसका शारीरिक वजन कम होगा। तभी प्रकृति अपने वश में होगी। प्राणन को ऊर्द्धवमुखी बनाकर, मूलाधार से षडाधार पार करके आज्ञा चक्र को पार करके चिताकाश में संयमित होते समय आकाश गमन साध्य होगा।
505. गुरु शिष्य को अनेक बार उपदेश देने पर भी शिष्य खुद जान-समझ महसूस होने तक आत्मसाक्षात्कार प्राप्त नहीं कर सकता। अपने को ही एहसास कराने के लिए ही गुरु होते हैं। अपने बाहर के गुरु अनेक बार उपदेश देने पर भी संपूर्ण विश्वास न होगा।कारण शब्दों की सीमा होती है। असीम अहमात्मा को समझाने की चाबी ही गुरु वचन होते हैं।
506. आकाश में सूर्य को काले बादल छिपा रखते हैं। वैसे आनंद स्वरूप अहमात्मा सूर्य को अपने विचार छिपा रखते हैं।
507. सत्य रूपी भगवान नित्य कलंकित संसार में निष्कलंक रहते समय अराजकता की सफलता कभी नहीं होगी।
508. एक विषय पूर्ण न होकर उसमें लगते समय दुख होगा।उसी विषय को पूर्ण करके उसमें लगते समय सुख में बदलता है।
509. आत्मा का स्वभाव आनंदपूर्ण है। उसे पूर्ण रूप से प्राप्त करने के लिए मनुष्य के मन का धडकन ही सभी कार्यों के पीछे हैं।
510. स्वयं किस के लिए सर्वस्व अपरिहार्य करने की कोशिश करता है, वह दुश्मन होने पर ही आत्मा का महत्व अहंकार का निस्सारत्व समझ में आता हैं। शरीर और प्राण को विवेक से जाननेवाले विवेकी समझता है। जो विवेकी नहीं है,वे आत्महत्या करने की कोशिश करते हैं।
511. सत्य की खोज करनेवाले यथार्थ मनुष्य को ही प्यार स्नेह के रहस्य को प्रकृति सिखाएगी।
512. जितनी ऊँची प्रार्थना करने पर भी उसको सुनना हृदय में रहनेवाला भगवान ही है। उसको जानने तक मन मौन ही रहेगा।
513. ईमानदारी मन को सत्य के निकट जाते समय बुद्धि के भूलने से उनको दिनचर्या
विधि नियम न होंगे।
514. जीव को माया के बंधन में बाँधने के लिए माया प्रयोग करनेवाले अस्त्र ही संकल्प होता है। उसमें से ही भूख, प्यास से प्रारंभ होकर सभी व्यवहार होते हैं।
515. नाम रूप के बिना मनको कोई अस्तित्व नहीं है। उसको स्थित खडे रखने की कोशिश ही मन का स्वभाव होता है।
516. आश्रमवासियों को विषयवासनाएँ नहीं होनी चाहिए। नहीं तो बीज पर पानी के गिरते ही अंकुर फूटने के समान उनका स्वभाव संदर्भ के आते ही किसी भी समय पर
किसी भी जगह पर प्रकट होगा।
517. बुद्धि और आत्मा को सुई में धागा घुसने के समान एकाग्रता से रमते समय ही ज्ञान के मोती प्रकट होंगे।
518. किसकी बुद्धि आत्मा में रम जाता है,तब तप यज्ञसे मिलनेवाले फल से बडे फल वे पा सकते हैं।
519.एक व्यक्ति को पहले यह जानना चाहिए कि नित्य क्या है? अनित्य क्या है? क्योंकि उसके शरीर में अनश्वर बोध और नश्वर शरीर है। बोध पर मोह हो तो मोक्ष है। देह पर मोह हो तो नाश है।
520.दृश्यों से जाननेवाले ज्ञान से देखनेवाले को जान नहीं सकते।यह जनकर उसके जैसा ही रहना सत्य है।
521.एक बुरा आदमी अच्छे आदमी बनने पर संसार को डरने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन अच्छा बुरा बनने पर डरना ही चाहिए। क्योंकि वह संसार के लिए नाश का बीज बनेगा। कारण उसको जो अच्छा है ,वह अच्छा नहीं लगा। यथार्थ में आत्मा मात्र अच्छा है। आत्मज्ञान की कमी के कारण ही वह नाश के बीज में बदल जाता है।
522.मैं कौन हूँ ? जानने के लिए खुद कोशिश न करें तो किसी भी काल में अपने को देह बंधन से मुक्त नहीं हो सकते।
523. अपना शरीर, माता-पिता, सहोदर, देखनेवाला संसार, अपने शारीरिक परिवर्तन, आदि जीव संकल्प मात्र ही है।
524. अकारण होनेवाली माया के द्वारा स्वरूप विस्मृति से होनेवाला वासना विकास से स्वयं का जन्म, बढना,नाश आदि दीखना आदि जो जीव नहीं हैै, उसका संकल्प रहित मात्र है।वह ईश्वर की शक्ति है। ऐसा लगता है कि माया संकल्प लेकर बना है।ईश्वर की इच्छा के बिना कुछ नहीं होगा। जो कुछ होगा,वे सब ईश्वरीय संकल्प ही है।
525. अपने लगनेवाले सब कुछ नष्ट हो जाने पर भी अपने आप का नष्ट न होना इस संसार के मूल निधि है। कारण संसार का मूल मै ही है।
526. अपने मन को अनासक्त रखकर अपने वश में रखनेवाले मनुष्य के जैसे सफल आदमी को संसार में देख नहीं सकते।
527. सभी बंधन जीव को बंधनों में बुलाता है। उनमें बहुत बडा बंधन देह बंधन ही है।
528. सदानंद रूपी आत्मा ही “ मैं “ का एहसास न होने से ही ये इच्छाएँ होती हैं कि आनंद के लिए संसार के सब कुछ भोगना चाहिए।
529.जिसमें सत्य ज्ञान नहीं है, वही कर्म के लिए भटकता है।कर्म रहस्य जाननेवाले
सत्यज्ञानी कर्म में अकर्म ब्रह्म बने अपने के दर्शन करेंगे।
530.आत्मज्ञान मिलनेवाले मनुष्य जन्म पाकर भी उसके अप्राप्त जीवन तितली जैसे या दीमक जैसा बन जाता है।
ज्ञान स्वभाव आनंद ही है। उनमें बढिया ज्ञान आत्मज्ञान ही है। उसे पाने के लिए अपने आपको जानना चाहिए।
532. उसी को जीवन का सुख साध्य है,जो एहसास करता है कि पहले जो कुछ पैदा हुए हैं,पहले जो दृश्य थे,वे मिट गये,वैसे ही जो कुछ है,वे भी मिट जाएँगे। कारण वे अनासक्त रहेंगे।
533 परमात्मा सर्वोत्कृष्ट होते हैं।वह परमात्मा ही अपनी अहमात्मा है।उस अहमात्मा में मनोरथ चलानेवाले साधक के मुख में आत्म प्रभा वृत्त होगा।
534. औसत बुद्धि और स्वस्थ व्यक्ति जो काम देते हैं, उनको कर सकता है। वे आविष्कारक और शोधार्थी नहीं होते।. आत्मा की बात माननेवाले ही श्रेष्ठ होते हैं।
535. आत्मा में जीने की प्राप्ति जिसको मिली है,वही आत्म ज्ञानी होता है।वह नित्य संतुष्टि होगा।
536. स्वात्म निश्चित व्यक्ति प्रार्थना नहीं करेगा। क्योंकि अपने से अन्य एक ईश्वर को वह देख नहीं सकता।
537.मन अहमात्मा से बिलकुल संगमित होते समय उसकी प्रार्थना का अंत होगा। 538.विविध दशा और दिशाओं में चलते-फिरते मन को एक दिशा में लानेवाली परारथना ही यथारथ परारथना है।
539. बुराई से भलाई करने के लिए ही प्रकृति मनुष्य को दंड देती है। अर्थात अज्ञान की बुराई से ज्ञान की भलाई करने की प्रेरणा देती है। कारण दुख के अंधकार से सुख के प्रकाश की ओर यात्रा करना जीव का स्वभाव होता है।
540. जिंदगी में सही कार्य करके सत्य तथ्य जाननेवालों से गलत करनेवालों को ही जल्दी सत्य मालूम होता है। कारण मनःसाक्षी का अनुकरण करके या सामाजिक नियमों का अनुसरण करके भूल न करके गलत संसार को सही दृष्टि से देखने से ज्ञान न मिलेगा। उसी समय सामाजिक नियमों के नियंत्रण में न बंधकर गलत करनेवाले मनःसाक्षी को अनुसरण करके जाने से जल्दी ज्ञान मिल जाता है।
541.काम,क्रोध, लोभ,मोह, मद,मत्सर,रूप,रस, गंध,स्पर्श आदि दस ही खतरनाक होते हैं। इन दसों में एक को जीतनेवाला बाकी सबको आसानी से जीत सकता है।
542.जो पारिवारिक जीवन को अर्थ रहित महसूस करता है, उसको जल्दी मोक्ष मार्ग मिलेगा।
543.शरीर में रोग आने के कारण शरीर के जीवाणु सम स्थिति न होने से ही है।इसलिए सही क्रम के मंत्र उच्चारण से सम स्थिति पा सकते हैं। मंत्र जप,योगाभ्यास सम स्थिति देकर सुख दे सकता है।अर्थात मन को सम स्थिति में लाकर सभी समस्याओं को अंत कर सकते हैं। उसका एक मात्र विचार आत्मविचार ही है।
544. जहाँ दो लगता है,वहाँ मैं का घमंड होगा। मैं, मेरा न लगना है तो आत्म ज्ञान दृढ होना चाहिए।
545. मैं है का निरूपाधिक को मैं महसूस करने से ही तुमको देखते समय मैं का स्मरण उदय होता है।तुम और मैं यादों का आधार है। यादें नहीं तो मन नहीं है। मन नहीं तो मैं और तुम मिटकर बोध मात्र रहेगा।
546. जो कोई अपने बचपन से सांसारिक महानों के जीवन चरित्र पढकर स्मरण करता रहता है, वह अवश्य महत्वपूर्ण महान बन जाएगा।
547.सर्वव्यापी आत्मा के स्वभाव को सदा सोचते रहें तो मैं,तुम के विचारों को मुख्यत्व न रहेगा। साथ ही मन का स्नेह अस्त होगा।तब शांति सहज स्वभाव में बदलेगा।
548. जन्म जनमांतर में किये पाप -पुण्यों के प्रतिशत के अनुसार इस जन्म की स्मरण शक्ति रहेगी।
549.स्वप्न में सत्य समान लगकर अनुभव किये कार्य स्वप्न शरीर से जागृत शरीर को आने पर एहसास करेंगे कि स्वप्न सत्य नहीं है। उसे निस्सार के रूप में वर्जित कर देंगे। वैसे ही आत्मबोध के रूप में महसूस करते समय यह जागृत शरीर और संसार को निस्सार रूप में परित्याग कर देगा। एक सूक्ष्म माया तो दूसरा स्थूल माया है,दोनों ही स्वप्न है।
550. संपूर्ण स्वतंत्रता के लिए कोशिश करनेवाले वे जेल में नहीं है का महसूस कर सकते हैं जब वे सोचेंगे कि मैं पंचभूत शरीर के पिंजडे के कारावास में रहते है का विचार करके देखने पर एहसास कर सकते हैं कि सुई बराबर रिक्त स्थान में भी वह जेल में नहीं है। कारावास के स्मरण के कारण सर्वव्यापी ,सर्वस्वभाव विस्मृति है।
551. नाम रूप दृश्य देनेवाले एक मिनट सुख में बंधित होने पर नित्यानंद पाने में बाधाएँ होंगी। समझना चाहिए कि सर्व मुखी नित्यानंद में नामरूप ,एक मिनट का सुख भी स्थिर खडा नहीं रहता।
552. ज्ञान बढते समय आनंद अधिक बढेगा। कारण उसका स्वभाव आनंद ही है।जो ज्ञान जानते हैं, वह सीमित है। उसे जानने का ज्ञान असीमित है। इसलिए सीमित ज्ञान से असीमित ज्ञान की ओर जाना चाहिए। वह असीमित ज्ञान से परिवर्तित नहीं है। समझना चाहिए कि सीमित ज्ञान है।
553. जागृत,स्वप्न,ससुप्ति आदि तीनों अवस्थाओं में शारीरिक बोध भूलकर आत्मबोध शाश्वत अस्तित्व करते समय असीमित आनंद पाएँगे। इस ब्रह्म बननेवाला शरीर स्मरण ही स्वयं बननेवाले परमानंद स्वरूप की बाधा बनती है।
554. नित्य सुख चाहनेवाले बुद्धिमानों को मिथ्या देह बोध ही विरोधी होता है। उसको चाहें या न चाहे मैं नित्य स्वरूप ही है।
555. गलत करने के बाद ही मालूम होगा कि वह पूर्व इच्छा वासना है। पूर्व इच्छा वासना होने का कारण पूर्व जन्म में हुए भ्रम,भेद बुद्धि ही है। उसको आत्म विस्मृति ही कारण है।विस्मृति के कारण माया संकल्प ही है। इसलिए संकल्प तजनेवाला ही माया का विजेता होता है।
556. ज्ञान का प्यास सबको स्वभाविक होता है। इसलिए विवेकी अनश्वर ज्ञान की खोज करते हैं। वह आत्मज्ञान मात्र ही है। उसे समझनेवाला ही श्रेष्ठ है।.
557. जिसमें आत्मज्ञान नहीं है,वह चक्रवर्ती होने पर भी भिखारी ही है।
कारण आत्मज्ञान जाननेवाला ही चक्रवर्तियों के चक्रवर्ती होते हैं।
558. सरस्वती को स्वीकार करके ही कलाकार लक्ष्मी की कृपा पाते हैं। लक्ष्मी के आने के बाद प्रशंसा के चक्र में लक्ष्मी को मात्र स्वीकार करके लोकायुक्त सुख भोगों को भोगकर सरस्वती को परित्याग करनेवाले सर्वनाश हो जाएँगे। मुक्ति पा नहीं सकतेl जिंदगी भर सरस्वती की पूजा करने पर भी उनका लक्ष्य धन हो तो आत्मज्ञान पास नहीं आएगा। इसलिए मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते।
559. आत्मा की ओर लक्ष्य करके ज्ञान उत्पन्न करनेवाले साधन के कर्म ही यथार्थ देव पूजा होती है। कारण आत्मा ही यथार्थ देव होते हैं।
560. आत्म ज्ञान की प्राप्ति के बिना इस ज्ञान की प्राप्ति न होगी कि मन को किस जगह पर यथार्थ रूप में मिलाना है। उस ज्ञान के आने के बाद ही उस ज्ञानाग्नि में स्मरण सब जल जाते हैं।
561. अहंकारियों से एक रूपये लेने पर भी वे लेनेवाले को कुत्ते की तरह और बेगार की तरह देखेंगे। इसलिए आत्माभिमानी लोग अच्छे लोगों से ही रूपये लेंगे। भले ही मर जाएँगे, पर अहंकारी और घमंडियों से कुछ न लेंगे।आत्म बोध प्राप्त लोगों को यह सच्चाई मालूम है कि अहंकारी कोई शाश्वत अस्तित्व नहीं है।अर्थात आत्मा सत्य है,अहंकार असत्य है।
562. आत्मा का सहज आनंद अनुभव करना है तो संदेह रहित आत्मज्ञान में दृढ होना चाहिए।
563.जानने के विषय सब कहाँ से उदय होकर कहाँ जाती है? कैसे बनती है? कौन बनाते है? किसके लिए बनाते हैं? आदि विचारों का अंत खोज करनेवाले के स्थायित्व को चला जाएगा।
564. जितनी शक्ति से मिलकर मन आत्मा को पकड लेता है, उतनी शक्ति से काम मन को निम्न दशा को ले जाएगा।उससे किनारे पर लगने के लिए पुरुष प्रयत्न, आत्मप्रयत्न,आत्म विचार आदि के सिवा और कोई मार्ग नहीं है।
565. हारने की इच्छा नहीं तो कोई कोई प्रश्न नहीं करेगा। उसके कारण अहंकार का आधिक्य ही है। अहंकार तोडने पर ही प्रश्न उत्पन्न होंगे।
566.स्वर्ण से मोह रखकर जड बनकर माया में डूबने से आकाश से सूक्ष्म आत्मा में डूबना ही श्रेष्ठ है।
567. निस्वार्थ नित्य ब्रह्मचारी जो आत्मा को लक्ष्य लेकर जीता है, किसी प्रकार के पारिवारिक और सामाजिक बंधन में नहीं फँसता,वही संसार का शासन दूसरों की भलाई के लिए कर सकता है।
568.मैं कौन हूँ? मैं कहाँ से आया? कहाँ खडा रहूँ? क्या अपने से बढकर कोई भगवान है ? है तो वे कैसे आये? उनकी सृष्टि किसने की? स्वर्ग-नरक, धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य, सुख-दुख, ज्ञान-अज्ञान, रात-दिन आदि क्या है? इन सब की खोज करने से ही बाहर गये मन अपने में ही प्रवेश होकर बुद्धि आत्मा में मिलेगी।
569. अधिक भ्रम है तो अधिक दुख होगा। अधिक दुख होने पर विवेक काम करने लगेगा। वैसे जीवन को नित्य-अनित्य विवेक देखकर जीवन बिता सकनेवालों को ही जिंदगी में संपूर्ण आनंद मिलेगा।
570.जब मैं ही सार्थक का एहसास होता है, तब समझ में आएगा कि संसार और अपनी समस्याएँ निरर्थक है।
571.आत्मा और अहमात्मा के लक्ष्य पर दृढ लक्ष्यय होनेवाले मनुष्य को केवल संसार ही नहीं चौदह संसार, उनमें रहनेवाले देव, ऋषि,शास्त्र आदि निस्सार लगेंगे। कारण आत्मा कल्पवृक्ष है। वे सब अखंड आत्मबोध के मार्ग हैं। मार्ग लक्ष्य नहीं है। आत्मा ही लक्ष्य है।
572. जो कोई आत्मा की खोज में दृढ रहता है, उसको पहले आत्मा के बारे में पूछ लेना चाहिए। फिर खोजना चाहिए। उसके बाद चिंतन करना चाहिए। फिर महसूस करना चाहिए। उसके बाद वैसा ही बन जाना चाहिए।
573.मन सांसारिक विषयों को खोजकर जब तक भटकेगा, तब तक दुख रहेगा ही।
वैसे ही मन जब तक आत्मचिंतन में लीन रहेगा,तब तक नित्य आनंद अनुभव किये बिना रह नहीं सकता।
574. स्वप्न को सत्य बनानेवाले सत्य को गाढ देंगे। और मिथ्या जीवन जिएँगे।
575. अहमात्मा का महत्व, या वह अहमात्मा ही मैं जो नहीं जानते,वे जमीन और स्वर्ण की इच्छा त्याग नहीं सकते।वैसे ही जड और आत्मा को जानकर स्वर्ण और स्त्री की इच्छा के बिना अनासक्त जीवन जीनेवाले को मानसिक और शारीरिक दुख के बिना जीवन सरल होगा और मन आत्मा के निकट जाएगा।
576. संसार में मनुष्य जैसी भी परिस्थिति में हो, जैसा भी हो ,सत्य की खोज करनेवाले वन में, गुफाओं में रहकर ही सत्य की खोज करके मन को सम दशा और स्थिरता को लाता है।मन समदशा प्राप्त करने पर नगर के केंद्र पर रहने पर भी सांसारिक परिस्थितियों के कारण एक बूंद भी असर न डालेगा। एकांत को न चाहकर नगर के बीच रहकर लोकायुक्त जीवन में होनेवाली दुखी परिस्थितियाों में सत्य की खोज करके मन को सम स्थिति लाने की कोशिश करने पर विषय विषय वासनाएँ अडचनें देती रहेंगी। पूर्व पुण्य के लोगों को नगर के बीच रहने पर भी मन को सम दशा-स्थिति पर ला सकते हैं।
577. आत्म तत्व सीखकर प्रकृति रूपी मन को सम स्थिति को लाना द्वि पक्ष तेज तलवार पर चलने के समान है। इसलिए सहनशीलता और सब्रता के साथ मन को आत्मा में दृढ रूप में स्थित करके निस्संग रहकर कमल के पत्ते पर के पानी के जैसे, मट्टे में मक्खन जैसे विषयों में न चिपककर जो जी सकता है,वही इस नगर से मोक्ष पाना का साध्य होगा।
578. स्वीकृत है का स्मरण रहते तक ही स्वीकृत को अपरिहार्य कर सकते हैं।
स्वीकार के स्मरण नहीं तो यह स्मरण न रहेगा कि परित्याग करना चाहिए। त्यागना,स्वीकार करना मन के लिए ही है। आत्मा को नहीं है। मन ही माया है।
579. ईश्वर से जब तक याचना करते हैं,तब तक दिव्य अनुभूति न होगी। अभी जन्मे बच्चा रोना ही जानता है। बच्चे के सभी कार्यों को माँ ही देखेगी। वैसे ही निष्कलंक,निश्चल,निस्वार्थ शिशु मन के व्यक्ति भगवान को एक बार सोचना पर्याप्त है। उसके लिए जो आवश्यक हैं, वे अपने आप आ जाएगी।
580. मन की शांति को बिगाडे बिना,मंत्र जप नहीं कर सकते। शांति चाहिए तो मन निश्चल होना चाहिए। मन निश्चल न हो तो आत्मानंद न मिलेगा। उसके लिए मन आत्मा से जुडना चाहिए।
581. आत्मबोध में दृढ रहनेवाला भिखारी होने पर भी संसार का राजा होगा।
582. चाहों को मिटना है तो आत्मबोध में स्थिर रहना चाहिए।
583.आत्मज्ञान बेशक मिलने पर ही आत्मबोध में स्थित खडे रह सकते हैं।
584. सूर्य की गर्मी में बरफ पानी , भाप, फिर उनसे सूक्ष्म आकश रूप में बदलते हैं।
वैसा ही आत्म ज्ञानाग्नी में मन पवित्र बनकर रूपों का गण कम होकर सूक्ष्म रूप बनकर मन मिट जाता है।
585. परमात्मा मन लगने पर और किसी से लगाव न होगा। धन से लगाव होनेवालों का मन कभी सीधे मार्ग पर न जाएगा।
586. कोई व्यक्ति जितना अधिक अपने में खडे होकर अन्य दृश्य को स्वीकार करनेवाले को उतना ही बोझ मन में बढेगा।उसके द्वारा शाररिक अभिमान बढेगा। इसलिए वह आत्मा के निकट न जा सकता।
587. शरीर का अभिमान बढते समय अहंकार बढते रहेंगे। अहंकार बढते समय आत्मबोध कम होते रहेंगे।
588. स्वस्वरूप विस्मृति होने के काल से आरंभ काल के स्मरण के गाँठ से बना है यह शरीर है।
589. इस सांसारिक दृश्यों को देखते समय खुद आत्मा की सहज स्वभाव का आनंद विस्मरण का कार्य याद न होने से ही स्वयं देखनेवाले विषयों में अपने नष्ट हुए आनंद है । ऐसी गलत धारणा स्मरण संसारिक विषयों में लगकर सुख-दुख को सहकर दृढ होकर स्थित है। विषय विष बनते समय मृत्यु भय होकर मन आत्मा को पकडता है। पकड ठीक और पक्का हो तो इस जन्म में मुक्ति मिलेगी। पकड शिथिल होने पर कई जन्मों का मार्ग बना देगा।
590.आत्मज्ञान की कमी के कारण ही नाम रूप विषयों में विश्वास होता है कि आनंद है। आनंद विषय में नहीं है। आत्मा के स्वभाव में ही आनंद है। अर्थात विषय नाश होने से विषय का आनंद स्थाई नहीं है। यह एहसास कर सकते हैं कि आत्मा का स्वभाव शाश्वत है।
591.जो कर चुके हैं, आगे क्या करना है के विचारों को बढाने के काल तक मन को नियंत्रण में रखना असाध्य है।
592. रूप को भूले बिना नित्य आनंद न मिलेगा। वैसे होते समय रूप से नित्य आनंद की प्रतीक्षा विवेक शून्य है।
593. जो हुआ, उसी को स्मरण में ले आना नहीं चाहिए। नयी पद्धतियाँ बनाना नहीं चाहिए ,खुद आनेवाले अनुभवों में मन लगाना नहीं चाहिए।तभी मन का नियंत्रण साध्य होगा।
594. आत्मा रूपी अपने को दुख के असर पडे बिना रहने अपने को आकाश जैसे सोच लेना चाहिए। समरणों को आकास से न चिपकने वाले काले बादल जैसे सोच लेना चाहिए। वही साक्षी स्थिति है।
595.प्रेमियों के संभोग के उच्च में स्वरूप आत्मा आनंद को एक पल अनुभव करके फिर संसार की याद में आ जाते है। वैसे ही परमात्मा अपने स्वरूप स्थिति को तजकर
इस संसारिक रूप में आकर फिर स्वरूप को जाता है। इस प्रकृति पुरुष लीला ही अनादी काल से जीवों में चलाती रहती है।
596. प्राणन या मन चिताकाश में दबकर, शुक्ल पतन के काल ही नित्यानंद दशा है।
597. प्राणायाम करते समय वह ब्रह्मचारी है। साँस दबते समय वह ब्रह्म है।
598. वासियोग अपने अनुमति के बिना अपने में चलता रहता है। उस प्राणन- अपानन की कोशिश के बिना एक क्षण भी त्री कालों में भूले बिना जो रहता है,वही चिरंजीवि है।
599. हर दिन प्रभव ,प्रलय चलते रहते हैं।चेतना के समय प्रभव ,सुप्तावस्था में प्रलय चलते हैं। वह जागृति के बिना चलना ही माया है। जागृति के साथ चलते समय ब्रह्म है।
600. देव भी मनुष्य जन्म लेकर ही साक्षात्कार कर सकते हैं। कारण देवलोक में जो सोचते हैं,वह तुरंत होगा। वहाँ दुख कम होने से सोच-विचार का स्थान नहीं है। मनुष्य जन्म में भूमी पर ही दुख अधिक है। इसलिए विवेक सरलता से मिलेगा।वह विवेक आसानी से सत्य के निकट जा सकता है।इसलिए चींटी से लेकर देव तक उत्तेजित हो सकते हैं। इसलिए श्रेष्ठ मनुष्य जन्म को अहंकार रहित प्यार से .कारुण्यता से.
भक्ति से ,ज्ञान विवेक से,जागृति से जीवन बितानेवाले को इस जन्म में ही परमानंद स्थिति को पा सकते हैं।
601. स्वयं के शरीर बोध की खोज करते समय चेतना होगी कि अपनी अहमात्मा निष्क्रिय, निश्चल, निर्विकार होती है। अतः समझ सकते हैे कि कर्तव्य यथार्थ में नहीं है। शारीरिक अभिमान से ही वे होने सा लगते हैं।
602. शारीरिक चिह्नों को जो विकसित करता है,उसीको लगता है कि कर्तव्य और जिम्मेदारियाँ अधिक होती हैं। उसे कर्तव्य,यथार्थ नहीं है। उसको समझ में आएगा कि शारीरिक अभिमान ही ऐसा लगेगा कि कर्तव्य हैं।
603. अद्वैत् ज्ञान के राजा के शासन में लोगों को अधिक भला होगा। उतना संपूर्ण लाभ और राजा के शासन में न होगा।
604. जिसके मन में अधिक कल्पनाएँ होती हैं,वह सदा जागृत अवसथा में रहने पर युद्ध क्षेत्र में भी तनाव न होगा।
605.जब शासक को यह चेतना होती है कि शासक और शासितों को नचानेवाला एक है,तो शासक को भला होगा। शासक और शासितों क बीच के प्रारब्ध विशेष के अनुसार ही भलाई और बुराई होती हैं।
606. सत्य को रूप नहीं है। रूप सत्य नहीं है। रूपों को परिवर्तन है। सत्य अपरिवर्तित है।
607.बिजली के सान्निध्य से स्थिर जुडे बल्ब दौडते से लगते हैं।वैसे ही परमात्मा से आश्रित यह प्रपंच जड दृश्य रूप दौडकर खेलने के जैसे लगते हैं। वैसे ही निश्चल अखंड बोध परमात्मा में जड,प्राण,कर्म चलन माया मन संकल्प ब्रह्मांड दृश्य सा लगता है। उस दृश्य में भी निश्चल ब्रह्म के दर्शन करनेवाला ही आत्म ज्ञानी है।
608. आत्मसाधक का मन अरूप आत्म के सिवा प्रपंच दृश्यों में न लगने से उनकी साधना का अंत मनो नाश ही है। इसलिए साक्षी रूप सब मनो नाश से नदारद हो जाएँगे।
609. धन को लक्ष्य बनाकर आध्यात्मिक जीवन व्यतीत करने पर भी उनका अहंकार,काम-क्रोध उससे कभी दूर न होगा। इसलिए कभी किसी काल में उसका आत्मज्ञान दृढ न होगा। आत्मज्ञान रहित आध्यात्मिक जीवन मूल जड से गिरे पेड जैसे हैं।
610. पानी में चित्र खींचने की तरह ही परमात्मा में सृष्टि,स्थिति ,लय होता है।
611.अपने से अन्य दूसरा कोई नहीं है। इस अद्वैत सिद्धांत के अनुसार संघर्ष करना चाहिए।किसकी तुलना में बडा होना चाहिए? किसका जप करना चाहिए?किसके जैसे बनना चाहिए? किससे मिलना चाहिए? किसको बोध देना चाहिए?किसको समझाना चाहिए? अपने से ऊपर, नीचे कोई है? कुछ भी नहीं है। इनमें से कोई एक है होने पर भी ब्रह्म ज्ञानी नहीं है। ये सब न होने से ही ब्रह्म का अस्तित्व शाश्वत है।
612.किसी एक पर प्रत्येक लगाव रखने पर अपने अहमात्मा के स्वरूप स्थिति अपने आप विस्मरण हो जाएगा। वैसे स्वरूप को भूल जाने से ही शारीरिक अभिमान होता है।
613. भूलोक में जीते समय लौकिक वस्तुओं पर,जीवों पर अनासक्त रहना साधारण मनुष्य के लिए कठिन ही है। लेकिन भूलोक दृश्यों के द्वारा स्वरूप बने निराकार स्थिति अनंत आकाश जैसे रहनेवाली आत्मा को भूले बिना सूक्ष्म ज्ञान द्वारा कमल के पत्ते और पानी जैसे जीने पर भूलोक स्वर्ग दिखाई पडेगा।
614.प्रपंच को, ईश्वर को ,अपने को कोई आधार चाहिए तो उसे जानने के ज्ञान को ,जानने से बढकर कोई आधार नहीं है।
615. जन्म से अंधे व्यक्ति को इस सांसारिक दृश्यों के बारे में अपनी पूरी क्षमता लगाकर समझाने पर भी उसको इस प्रपंच के रूप समझ में न आएगा। वैसे ही चिंतनों को लेकर आत्मा को समझना।
616. सब प्रकार के ज्ञानियों में से आत्मज्ञानी ही श्रेष्ठ हैं। कारण आत्म ज्ञान अपने बारे में के ज्ञान ही है।स्वयं के बिना किसी का आधार नहीं है। इसीलिए वह श्रेष्ठ ज्ञान है।
617.जो कोई सभी जीवों से अपने को समझने में क्षमता रखनेवाले मनुष्य जीव को श्रेष्ठ जीव मानकर जीता है,वही मुक्ति के लिए कोशिश करता है। देवों को भी दुर्लभ आत्मज्ञान को इस भूमि में ही इस जन्म में ही वह पाएगा।
618. देव-असुर गुणों के मनुष्य असुर गुणों को देवगुणों से मिटाकर देव गुणों को आत्मज्ञान से मिटाकर असीम गुणों के आत्म स्थिति को पाना चाहिए। वह आत्मा ही निर्गुण परब्रह्म बनती है।
619. मनुष्य जन्म पाकर भी, जो पुरुषार्थ न खोजकर मर जाते हैं, वे निम्न जन्म लेते हैं,जैसे वृक्ष, कीडे,कीटाणु ,पशु-पक्षी आदि मृत्यु अन्त्य में जो सोचता है, वैसे कई जन्म लेते रहते हैं।
620. मरण के बाद ,जैसा भी जन्म स्वीकार करते हैं, ,पूर्व जन्म के पुण्य कर्म का फल कभी नहीं नाश होगा। संदर्भ आते समय उसे समझकर कार्य करना चाहिए।
621. जितने बार कहें, जितने ही बार जाने , जितने बार बोध करें,सीमित जड बुद्धि से हो ही नहीं सकता असीमित आत्म स्वरूप। क्योंकि चित्त संकल्प स्थाई आत्मविचार होने से संकल्प नाश होकर मन,बुद्धि,प्राण,शरीर नाश होते समय शेष जो है,वही आत्मा है।
622. सत्य रहित प्रपंच को सत्य रूप की उपस्थिति बनानेवाली सत्य माया शक्ति में सत्य रहनेवाला सत्य ही आत्मा होती है। वह “स्वयं” का महसूस करने से बढकर कुछ नहीं है।
623. सब कुछ जाननेवाला मनुष्य ,सबको जान-समझकर ज्ञान मात्र है को जान-पहचान के समय परम ज्ञानी बन जाएगा। अर्थात जानने का ज्ञान,जाना ज्ञान जानने के ज्ञान से बदला नहीं है का ज्ञान ही ब्रह्म ज्ञान है। परम ज्ञान का स्वभाव ही परमानंद है।
624. भगवान है,भगवान नहीं है कहनेवाले सूद के लिए रूपये देनेवाले स्वआत्म अनिश्चित स्वार्थी जैसे हैं।
625. निर्जीव शरीर स्वयं कार्य नहीं करता। वैसे ही ज्ञानअग्नि से वासनाएँ जल जाती है।विस्मरित मन अपनी इच्छा के बिना काम न करेगा।
626. बहुत बढिया आत्मज्ञान अमृत होने से सभी जीवराशी सभी समय में आत्म ज्ञान की खोज में भटकते रहते हैं।
627.बेटे के पैर फिसलने पर भी पिताजी के पकड होने पर नीचे न गिरेगा। वैसे ही मन स्वात्मा में प्रतिष्ठित होने पर जीव कभी न हारेगा।
628.जिसको यह स्मरण है कि मेरा जन्म हुआ है , उसके लिए मृत्यु अपरिहार्य है।
629. जिसको आत्म ज्ञान नहीं है, उसके लिए धन प्राप्त होने पर ,अहंकार के कारण नाश के द्वार खुले रहेंगे।
630. जैसे बरफ सूर्य के ताप के कारण अपने पूर्व स्वभाव के पानी के रूप में बदल जाता हैै, वैसे ही ईश्वर को मात्र लक्ष्य बनाकर प्रार्थना करनेवाले के ताप से उसकी उत्पत्ति स्थान की आत्म स्थिति पाएगी।
631.शब्द निश्शब्द ,स्थूल रूप,सूक्ष्म रूप,नित्य सुख-नित्यानंद को आज या कल जाना ही चाहिए।
632. हजारों साल के अंधेरे गुफे़ में एक दीप जलाने पर तत्क्षण अंधकार मिट जाता है। वैसा ही कई जन्मों के पाप आत्म ज्ञानाग्नि में जलकर नित्यानंद को पा सकते हैं।वही आत्मज्ञान की प्रशक्ति है।
633. शारीरिक भाषा में अर्द्ध मीलित नयनें से मौन मुस्कुराहट के योगी के दर्शन करते समय उनका मन उनके अंतरात्मा में रमते रमने को समझ सकते हैं।
634. यथार्थ स्वयं बने अखंड आत्मबोध से ही सकल ब्रह्मांड रहित नाम रूप माया रूप के साथ बनते हैं । इस सुनिश्चित ज्ञानबोध से बढकर धैर्य, स्वतंत्र, शांति और आनंद मिलने के बराबर और कोई एक तत्व ज्ञान नहीं है।
635. स्वल्प सुख देनेवाले विषयो की कलपना करके भावना करके स्वप्न लोक में जीवन को बेकार करनेवाले नित्य संतोष देनेवाले अहमात्मा को जानते नहीं है। इसलिए जो कुछ ढूँढते हैं, वे खोजनेवाले के पास है। ढूँढने की वस्तु भी ढूँडनेवाले की है। जो इसका महसूस करता है, वही मनुष्य है। अपने से भिन्न दसरी कोई वस्तु नहींहै का महसूस करनेवाला ही मनुष्य है।
636 . जब अपने शरीर से,संसार से घृणा -सा लगता है, तभीअपने अहमात्मा को गोह के समान पक्के रूप में पकड लेना चाहिए। तभी आत्मा का स्वभाव आत्मशांति भोग सकते हैं। उसके बाद फिर संसार से शरीर की चाह नहीं आएगा। वह प्रकृति का वर प्रसाद ही है।
637. बेसहारा होना आत्म विचार के अनुकूल है। जिन्होंने पूर्व जन्म सुकृत किया है, उन्हीं को मिलता है। उसे विवेक से जानता है, वही भाग्यशाली होता है।कारण जो आनंद चाहकर भी नहीं मिला है, बेसहारा स्थिति पाया है,वह आत्मा में है। वही सत्य है।
638. मित्रता नष्ट होते समय मन अपने अनजाने में ही देह बोध से आत्म बोध पार कर जाएगा। उसके आत्मबोध के आने के बाद ही एहसास होगा कि नष्ट नहीं है। कारण मित्रता से मिला आनंद आत्मबोध का स्वभाव ही है।
639. अपने आपको समझने लगेंगे तो फिर किसीको जानने समझने की आवश्यक्ता नहीं है। कारण अंत में सबकुछ स्वयं है का एहसास करेंगे।
640. प्यार करने का मतलब है शारीरिक ”मैं”के चित्त से आत्म “मैं” के चित्त को जाने का संकेत चिन्ह ही है।
641.जिनमें आत्म बोध है,उनमें काम वासना नहीं रहेंगी। उसीको ही यथार्थ प्रेम करना साध्य होगा। कारण वे एहसास कर चुके हैं कि अपने में और अन्यों में रहनेवाली आत्मा एक ही है।
642. मन शीघ्र ही रति विषयों में ही एकाग्र होता है,अर्थात प्रेमियों के शारीरिक संभोग विषयों में ही । उस मन को आत्म रति में लगानेवाला ही विवेकी है। कारण शारीरिक सुख सीमित है। आत्म सुख असीमित होता है।
643.आत्म सुख प्राप्ति के लिए मन को एकाग्र रखना चाहिए। अनेक विषयों में मन एकाग्र होने पर भी रति में मात्र मन बहुत जल्दी एकाग्र होगा। रति ही संकेत करता है कि आत्मा का स्वभाव आनंद पूर्ण है। वह स्वभाविक सुख है। मन निरूपाधिक आत्मा के निकट जाते समय ही परमानंद को भोग सकता है।
644. जब प्रपंच रहस्य मालूम होता है, तब मन मोह मुक्त हो जाता है। रहस्य तेजी से प्रकट होना पाप बढने से ही होता है।
645. पुरुष स्त्री में जब प्रेम नहीं करता,तब वह परम पद प्राप्ति का राजा बनेगा। कारण प्रकृति से बनी स्त्री ही संसार है।
646. मनुष्यों में ये ही विचार है कि किसी भी समस्या के बिना सभी प्रकार के सुखों को भोगना चाहिए। लेकिन जीवन के दुखों के कारण यह एहसास न करना ही है कि सखों सुखों के भोगने से मिलनेवले सुख सुख से कई करोड गुना सुख आत्मा का
अपना स्वभाविक सुख ही है।
647. दर्शक दृश्य नहीं है। दृश्य दर्शक से भिन्न नहीं है। दर्शक के संकल्प से दृश्य बनने के साथ स्वरूप भूल जाता है। सत्य स्वरूप भूल जाने के साथ ही माया के नियंत्रण में हो जाने से माया में ही दृष्टा, दृश्य और दर्शन सब कुछ है। यही साधारण अज्ञानी जीवन की स्थिति होती है। इस माया के दुख से छूटकर जीवन मुक्त होने के लिए आत्म ज्ञान के श्रेष्ठ दवा से ही हो सकता है। अर्थात जीवात्म बोध अखंड परमात्म बोध बनते तक दृष्टा,दृश्य,दर्शन आदि जीव संकल्प स्थिर खडे रहेंगे।
648. घृणा चाह को, चाह घृणा को लाना प्रकृति की नियति है। अर्थात चलन निश्चलन को, निश्चलन चलन को लाना चलन प्रकृति कासवभाव और निश्चलन आत्मा का स्वभाव होता है। अर्थात अखंड बोध मात्र ही नित्य सत्य रूप में है। उनमें अपनी शक्ति संकल्प रूप मं अनेक चलन रूपों को बनाकर दिखाने से ही जीव में चाह और नफ़रतें , राग-द्वेष रहने के जैेसे लगते हैं। वास्तव में चलन रूप मरुभूमि की मृगमरीचिका ही है। यह जानने तक राग-द्वेष होते रहेंगे। वह भगवान का एक इंद्रजाल मात्र है।
549. सगुणोपासना या रूप ध्यान वही है कि अपने इष्ट देवता रूप को पाद से सिर तक पूर्ण रूप को अन्य विचारोंं और चिंतन के बिना हृदय में प्रतिष्ठा करके अपने से सभी अन्य को अपने इष्ट देव के रूप में ध्यान करना ही है। वैसे उपासना करके इष्ट देव दर्शन देकर ,मन नाम रूपों से क्षय ोकर इष्ट देव के लोक में जाकर पुण्य के नाश होते ही पुनर्जन्म होगा। इसलिए विवेकी सगुणोपासना करके अर्थात रूप प्रार्थना तजकर इष्ट देव के नाम के अर्थ जानकर , उदाहरण के लिए कृष्णा का मतलब आकर्षण कहने पर आकर्षण के सब के सब कृष्ण जान समझकर सभी विषयों को आकर्षित करनेवाले अरूप आत्मा ही है के ज्ञान की दृढता प्राप्त करके कृष्ण अखंड बोध परामात्मा की अनुभूति होते ही स्वभाविक आनंद सहज रूप में आ जाएगा। वही आत्म उपासना होती है। ऐसे ही सगुण उपासना से निर्गुण उपासना की स्थिति को आते हैं।
650. आत्म ज्ञान संपूर्ण रूप में प्राप्ति के बाद आत्मा अपने स्वभाविक आनंद,शांति ,स्वतंत्र, सत्य,प्रेम, परिशुद्ध सवयं प्रकाश को अपने पूर्ण रूप में प्रकट करेगा।
651. सबको सब कुछ मालूम होता है। क्योंकि जो सब कुछ जानता है,वह उनमें रहता है। उसके साथ खडे रहने पर उसके जैसे ही बदल सकते हैं।
652.दुग्ध सागर के मथने से अमृत मिलता है। वैसे ही श्री बने मन, आत्मा रूपी पुरुष मिलकर मथने से ही आत्मा का आनंदामृत सहज होगा।
653. मैं शाश्वत आत्मा ही है को समझने के लिए सांसारिक विज्ञान को विवेक शीलता से समझकर उसमें सत्य नहीं है को दृढता समझ लेना चाहिए।
655. जितनी गहराई से मन आत्मा के पास चलता है, उतने ही मात्रा में शक्ति माया मन को निम्न विषयों की ओर खींचकर ले जएगा। इसलिए माया के स्वभाव को समझनेवाले के मन मात्र ही आत्मा से हटकर न जाएगा।
656. सभी वेद मंत्र मात्र नहीं, पूर्ण ब्रह्म शक्ति ओंकार में रहती है।
जो हुआ, जो चल रहा है , आगे क्या चलेगा आदि सब कुछ ओंकार के अंतर्निहित होते हैं। इसलिए ओंकार उपासक को उसके आवश्यक सब कुछ उस के न चाहने पर भी उसके पास अपने आप आ जाएँगे।
657. प्रकृति और पुरुष अर्थात शिव और शक्ति ब्रह्म मंत्र ओंकार को जपते समय संपूर्ण ब्रह्मांड खुद परिवर्तन हो जाता है की भावना करके युक्ति ,अनुमान, शास्त्र ज्ञान, गुरु उपदेश, श्रवण, मनन्, संकल्प से दृढ बनकर उसके अर्थ जानकर वैसा ही बनना चाहिए।
658. आत्म मंत्र ओंकार को उसके भावार्थ के साथ स्मरण करना,सत्य की खोज करना,मनःसाक्षी के साथ रहना आदि आत्मरत ही है।
659.बहुत बढिया अच्छा जीवन होना है तो बढिया अच्छे विचार मन में होना चाहिए।बहुत बढिया अच्छे विचार आत्म विचार मात्र ही है।
660. भूलोक में आत्मज्ञान के लिए ही कठोर मेहनत करना चाहिए। बाकी सब काम उनमें आने के लिए होना चाहिए। तभी आत्मा रूपी “ मैं “,नित्य ,निष्क्रिय है को दृढ रूप में एहसास करके आत्मा का स्वभाव परमानंद प्राप्त कर सकते हैं।
661. योगाभ्यास जो भी करें, नित्य शांति का अनुभव करना है तो विस्मरित स्थिति में स्वयं मात्र है का एहसास करना चाहिए। उसके लिए आत्म विचार के बिना और कोई मार्ग नहीं है।
662. पुरुष अपने में जो स्त्री है, उसको महसूस कराना चाहिए। स्त्री अपने में जो पुरुष है,उसका महसूस कराना चाहिए। वैसा स्वयं रमने में लगें तो आत्म साक्षात्कार साध्य होगा।
663.देखने,सुनने,कहने के अपार ही आत्मा है। आत्मा अमृत है। बाकी तीन उसकी बाधाएँ होती हैं।
664. जब से शारीरिक स्मरण आया, तब से प्राण भय होने लगा है।
उसे दूर करने आत्म ज्ञान का एहसास करना चाहिए कि स्वयं शरीर नहीं है,
प्राण है, उसको कोई रूप नहीं है। वह बनता नहीं है। जो बनता है,उसी का ही नाश होता है। मैं नित्य हूँ,मैं अमृत हूँ।
665. जैसे एक आदमी स्वप्न में बाघ के गर्दन पकडते और उसके चीखते
देखता है और जागृत अवस्था में दीर्घ साँस लेता है,वैसे ही अज्ञान रूपी जागृत स्वप्नावस्था में से आत्म ज्ञान से आत्मबोध के एहसास करनेवाले की स्थिति होती है।
दोनों माया ही है। एक सूक्ष्म माया है,दूसरी स्थूल माया है।
666. अखंड आत्म बोध में, आत्म इच्छा से उमडकर आनेवाला चित्त संकल्प ही इंद्रजाल ही यह प्रपंच होता है। प्रपंच के आने-जाने पर भी अखंडबोध मात्र ही नित्य और शाश्वत है।
667. नित्य दुख देनेवाले द्वैत चिंतन उत्पन्न करनेवाली माया बंधन में गहराई में जड पकडकर स्थिरता से स्थिर खडे पहले नियंत्रण माता-पिता ही है। उनपर की विजय प्राप्ति के बिना नित्य सुखप्रद अद्वैति बन नहीं सकते। उसके लिए आत्म ज्ञान के बिना
और कोई मार्ग नहीं है।
668.शरीर बोध न होने पर भी स्वयं नहीं तो कुछ नहीं बनते। इस अनुभव से समझ में आता है कि स्वयं शरीर नहीं है, आत्म बोध मात्र ही है।
669. हमें समझना चाहिए कि हम ने जिन पात्रों को स्वप्नावस्था मेें देखकर प्रधानता दी है, उतनी ही प्रधानता जागृत अवस्था में सच सोचनेवाले जीवों को ,काल देशों को अनुभवों को है। वैसे ही शारीरिक बोध से आत्मबोध को महसूस करते समय शरीर और संसार को मुख्यत्व देना है।
670. मन देह से जुडते समय देह शक्ति प्रकट होगी। मन आत्मा से जुडते समय आत्म शक्ति प्रकट होगी। देह शक्ति सीमित है। आत्म शक्ति असीमित है। सीमित दुख को, असीमित शक्ति आनंद को देगी। कारण देह को स्वयं की अपनी शक्ति नहीं है। देह शक्ति आत्म शक्ति से आश्रित होती है।
671.एकांत का मतलब है संकल्प जैसा भी हो,अनंत आनंद देनेवाले आत्मबोध का एहसास करना ही है।
672. संपूर्ण असहाय स्थिति में ही आत्म खोज करनेवाले का मन नदारद होना ही है।
तभी उनको स्वात्म निश्चय होगा।
673. अपराधी को सजा देकर सही मार्ग पर ले आने का मार्गदर्शन लाभप्रद नहीं है। कारण हर एक जीव स्वतंत्रता के चाहक ही है।
674. आत्मा रूपी खजाना में हमारी खोज की सभी बातें भरी है। यह बोध विवेकशील हर विवेकी को मालूम है। वह अक्ष्य पात्र है। जो उसको समझता है,वह चौदह संसार के विजेता होगा।
675. हर एक आदमी हर मिनट भाग्य की तलाश में भटकता रहता है।जब उसको मालूम होता है कि वह भाग्य अपनी अहमात्मा ही है तो वह सभी भाग्यों को पा लेता है। साथ ही उसकी खोज का अंत हो जाता है।
676.अपूर्ण आत्मज्ञान प्राप्त किसी एक को आचार्य के रूप में स्वीकार करना एक अंधा दूसरे अंधे को मार्ग दिखाने के समान ही होगा। कारण आत्मा मात्र अपरिवर्तनशील और अनश्वर है। जिन लोगों ने आत्मा को लक्ष्य न बनाकर,परिवर्तनशील विषयों को लक्ष्य बनाने से उसका अनुसरण करनेवाले नाश हो जाएँगे।
677. “ मैं ” के आत्मज्ञान बोध का अंत अखंड आत्म बोध होगा। उससे ही सभी खोज, ज्ञान, विज्ञान आदि होते हैं।अर्थात अनेक बुद्धि जड ही है। आत्म बोध प्रकाश से ही बुद्धि क्रियाशील होती है। लेकिन सभी खोज, प्रपंच अखंड बोध में अपनी शक्ति माया प्रकट करनेवाले मरुभूमि की मृगमरीचिका जैसे इंद्रजाल ही है।
अखंडबोध सत्य मात्र ही नित्य सत्य है। वह आनंद मजबूत गाँठ होती है।वह शांति की उपजाऊ भूमि होती है।
678.ईश्वर के भक्त, सज्जन,कलाचार के देश सकल ऐश्वर्य संपूर्ण होता है।सभी स्वर्ग के वासस्थल वहीं है। कारण ज्ञानामृत आनंद है।आनंद ही जीवन का लक्ष्य होता है।
679. सर्वव्यापी आत्मा स्वयंभू होती है। आत्मा के निराकार स्वयं प्रभा दीप्ति से नाम रूप प्रकट दृश्य में एक रूप “ स्वयं “ भ्रम से अनेक रूप में बदलते हैं वही यह प्रपंच है।
680. जो आत्म ज्ञान में सुदृढ है,उससे दुख मात्र नहीं,यम भी डरता है।कारण आत्मा अमर है।
681. आत्मज्ञान का महत्व आनंद मात्र है। इन चौदह लोक में सिवा आत्मा के और कुछ नहीं है का अनुभव जब होता है ,तब चौदह लोकों में आनंद का महसूस होता है।उसको युक्ति से, बुद्धि से, शास्त्र ज्ञान से, गुरु के उपदेश से जब जान-समझ लेना हैं, दृढ बना लेना हैं, तभी अनुभव कर सकते हैं कि “मैं” ही अखंड बोध सत्य है, परमानंद है,शाश्वत है, स्वयंभू है।
682 जान -समझने का ज्ञान ही आत्मा होती है। वही आतमबोध होता है। उसके साथ दूसरे की तुलना नहीं कर सकते। कारण उससे अन्यरूप में देखनेवाले विषयों को विवेक शीलता से दखने पर समझ सकते हैं कि बोध रहित के विषय स्थाई नहीं होते।
अर्थात एक के रहते सबके अस्तित्व लगना ही अखंड बोधात्मा होती है।
683. जन्म-मरण रहित बोध वस्तु आत्मा ही है। सबकुछ अनश्वर होने को सोचने का आधार स्थित ज्ञान है। उस बोध में उत्पन्न होकर नाश होनेवाला शरीर ,लौकिक रूप आदि सब के सब परिवर्तनशील ,अल्प समय दिखाई पडकर नष्ट होनेवाले ही है।अस्थिर वस्तुओं से अनासक्त रहकर स्थिर वस्तुओं से आसक्त रहना चाहिए।तभी जीवन अर्थ पूर्ण होगा।
684. हम पंचभूत से बने इस प्रपंच में जो कुछ देखते हैं,उनमें दुख के सिवा सुख के लिए कोई मार्ग नहीं है।इस प्रपंच में सुख एक स्वप्न मात्र है। मनुष्य स्थाई सुख ही चाहता है। कारण उसकी अंतरात्मा का स्वभाव नित्यानंद है। उसे न जानने से ही अपने को भूलकर ही खुद देखने के दृश्यों में मोहित होकर दुख भोगते हैं। इसलिए प्रकृति उसके निज रूप जानने तक दुख देती है। कारण प्रपंच शक्ति आत्मा की संकल्प शक्ति होती है। यह एक ईश्वरीय लीला ही है।
685. जिसको आत्मज्ञान में पुरानी यादें और प्यास होता है,उसको लोक ताप नहीं होगा। जो स्व-आत्मा को एक पल सोचता है, उसको उस आत्मा की शांति अपने में से उमडकर आएँगी।
686. हम विश्वास नहीं कर सकते कि मनुष्य अपने पंचेंद्रियों से स्पर्श करके भोगनेवाले यह संसार और शरीर मिथ्या और नहीं है।वही संसार और शरीर हमारे सामने ही मिटते समय विश्वास किये बिना रह नहीं सकते। ऐसे विश्वास और अविश्वास के कारण विभाजित करके देखने का विवेक न होना ही है। जिनमें विवेक है, वे विश्वास करने के बदले खोज करके वास्तविकता समझ लेते हैं।
जहाँ बुद्धि है, वहाँ विश्वास की ज़रूरत नहीं है। कारण असीमित ज्ञान का स्वभाव आनंद है। वह असीमित ज्ञान खुद ही है। स्वयं के बिना कुछ भी नहीं है, वही सत्य है।
687. शरीर को स्व-अस्तित्व नहीं है। आत्मा के आश्रय में ही वह स्थित है। वह माया का प्रतिबिंब है। इसलिए प्रतिबिंब बोध के जीव भी सत्य नहीं है। सत्य रहित जीव की कल्पनाएँ सब के सब मिथ्या ही है। स्वआत्मा निश्चित होते समय समझ सकते हैं कि यह जीव और जीवन निरर्थक है। वह विभाजित विवेक ही जीवन मुक्ति होती है।
688. जिसको भूमि, स्त्री, स्वर्ण पर लगाव होता है,उसपर भरोसा नहीं रख सकते। क्योंकि ये सब के सब बदलते रहने सेे आत्म बोध के निश्चित होने तक उसकी बुद्धि और मन बदलते रहेंगे। इसलिए अपरिवर्तन शील आत्मा पर मात्र मन लगाना चाहिए।
वही नित्यानंद का वासस्थान है।
689. आत्मा ही मनःसाक्षी है। आत्मा से बढकर विश्वास रखने के लिए इस ब्रह्मांड में और एक नहीं है ,जिसको यह बोध होता है,वे ही सत्य जानते हैं। उसको मिथ्या जगत माया छू नहीं सकता।
690. एक फल को स्वाद लेते समय ,जीभ को विस्मऱण करके उसकी रुची का सुख स्वरूप को अह आत्माको स्वयं बने आत्म स्वभाव के रूप में समझना चाहिए।
691. इसे बोध करने का साध्य नहीं है कि “ मैं ” का जन्म ङुआ है,मैं की मृत्यु होगी।
इन दोनों की कल्पना ही साध्य है। कल्पना सत्य नहीं है। कल्पना का आधार आत्म बोध ही सत्य है।
692. जो संकल्प लेकर स्वयं स्वीकृत शरीर धारण करके आये है,उस बोध प्राप्त मनुष्य को ही मालूम है कि वह कहाँ से आया है? वह कहाँ स्थित खडा रहता है उसका कहाँ अंत होगा? वही उसके सोच के काल में अपने संकल्प से स्वीकृत शरीर को नदारद कर सकता है। वही अखंड आत्मबोध होता है।
693. माया सत्य को छिपाये बिना स्थिर खडा नहीं रह सकती। अतः सत्य से डरते हैं।
694. शरीर या मन से जब विवेक रहित कर्म किया जाता है, तब बुद्धि के काम में बाधाएँ होती हैं। जब बाधाएँ हटती हैं तब ज्ञानोदय होता है।
695. संकल्प जो भी हो,वह जीव को बंधन में बाँध देता है। बंधन के मोचन से ही मुक्ति होती है। उसके लिए संकल्प नाश के बिना और कोई मार्ग नहीं है।
भेद बुद्धि ही संकल्प होने के कारण होती है। भेद बुद्धि होने के कारण आत्म बोध भूल ही है। इसलिए आत्म बोध तैल धारा के समान होते समय दुख देनेवाले संकल्प का नाश अपने आप हो जाता है।
696. जब आत्मा का महत्व और मूल्य मालूम होता है, तब संपत्ति, शरीर,जिंदगी आदि भार बन जाते हैं। जिसके रहने से सब कुछ रहता है,वही आत्मबोध होता है।
697. जो कुछ अच्छे लगते हैं, वे सब विषैले होते हैं। काल ही उसको सूचित करेगा।
कारण रूप रहित आत्मा मात्र ही अच्छी होती है।
698. अहमात्मा का स्वभाव आनंद को भोगने लगते समय ही बाह्य विषय सुख पर अनिच्छा से रहना।
699.मैं, मेरा की भावना स्थिर खडे रहने तक ही संकल्प विकल्पों के द्वारा अहंकार वृक्ष को स्थिर खडा कर सकते हैं। जब यह भावना दृढ निश्चित होती है कि मैं शरीर नहीं हूँ, आत्म बोध मात्र हूँ, तभी मैं,मेरा का अहंकार जड-मूल नष्ट होगा।
700. यह जीव तब तक संसार में ज्ञान की खोज में भटकता रहेगा,जब जीव जान समझता है कि अपनी आत्मा ही सभी ज्ञानों का केंद्र है।
701. विश्व में आत्मज्ञान ही अमूल्य है। उसको चाहने से ही जीव भाव मिट जाता है।जीव के आधार ,आत्म का स्वभाव आनंद सहज हो जाता है।
702. अपने निज स्वरूप आत्मा को भूलकर जीव संकल्प जन्म पारकर आये हैं। उन जीवों के संचित कर्म एकत्रित होकर सबल वासनाएँ बन जाने से ही मन आत्मा को सर्वश्रेष्ठ जान-समझकर भी उसमें लगता रमता नहीं है।
703. जो धन से प्यार करते हैं, वे अपने अहमात्मा से प्यार नहीं कर सकते।कारण मन प्रकृति के भाग में परवर्तित हो रहा है। वह स्थाई आत्मा में स्थिर खडा नहीं रह सकता। स्थिर रहने पर मन मिट जाएगा।उसे धन का चाहक अहंकार सह नहीं सकता।
704. जिसको अपने स्व आत्मा मेें श्रद्धा रहती है, वही मनःसाक्षी के अनुसरण में कर्म कर सकता है।जिसमें श्रद्धा है,वही आतमज्ञान प्राप्त करके आत्मज्ञानी बनेगा। आत्मज्ञानी ही सानंद रहेगा।
705. कहीं भी स्त्री, पुरुष,ईश्वर,भूत-पिशाच, विचार,विकार, परिवार,समाज आदि समस्या नहीं है। “ मैं “ तत्व को जानने-समझने में ही बडी समस्या है। वही समस्या का समाधान होगा।वही समस्या का हल होगा।
706. ईश्वर है या नहीं ,सत्य है या मिथ्या इन सवालों के जवाब देने की क्षमता प्रश्न करनेवालों में ही है। कारण शारीरिक चिन्ह के बिना आत्मा के सिवा और कोई ईश्वर ,सत्य ,मिथ्या आदि नहीं है।
707. स्वयं ही सत्य है। इसको जानना चाहिए तो अपने शरीर में अपरिवर्तनशील क्या है,अपरिहार्य क्या है को जान-समझ लेना चाहिए। आत्मा के सिवा नाद के स्पर्श के सब परिवर्तनशील ही है। परिवर्तनशील लगना त्रिकालों से ब्रह्म से अन्य न होना ही है।
708. आत्मबोध होने से ही “मैं” और यह प्रपंच होता है।सत्य-असत्य की वास्तविक्ता तभी मालूम होगा कि अपने अहमात्मा रूपी अखंडबोध शक्ति मन,संकल्प माया दिखानेवाले जाल से ही सभी प्रपंच की उत्पत्ति हुई है। अर्थात समुद्र में स्वभाविक रूप से बननेवाली लहरें,बुलबुलें पानी ही बनते हैं। दूसरा रूप नहीं लेते।
मरुभूमि दिखानेवाली मृगमरीचिका में एक बूंद पानी नहीं रहता।वैसे ही आत्मबोध के बिना दूसरा एक शरीर,लोक रूप सहित नया बनता नहीं है। दृढ रूप में यह जान-समझ लेना चाहिए कि “ मैं” रूपी ब्रह्म मात्र कल भी आज मी कल भी और सदा के लिए रहा,रहता है, रहेगा।
709. जो सदा स्थित खडी रहनेवाली आत्मा ही स्वयं है को निस्संदेह मानता है,सुदृढ रहता है, वह अपने को स्थित खडे रखने के लिए किसी भी प्रकार की कोशिश न करेगा।
710. परिवर्तन होनेवाले शरीर को अपरिवर्तनशील बनाने की कोशिश करना साधारणतः मूर्खता ही है। लेकिन योग सिद्धि के द्वारा प्राणन -अपाणन को जागृत,स्वप्न,सुसुप्ति आदि त्रिकालों में विस्मरण न करके प्राणों में मात्र ध्यान देनेवाले योगी शरीर को सूक्ष्म और स्थूल बनाकर काक भुजुंड महर्षि के समान चिरंजीवी रह सकते हैं। अर्थात अनादि काल से माया,माया दिखानेवाले, माया देखनेवाले के आँख मिचौनी खेल चलता रहता है। प्राण स्पंदन लेकर होनेवाला नाम रूप प्रपंच काल देश में होनेवाले माया इंद्रजाल ही है।किसी एक काल में कोई एक जादूगर ही खोजने का प्रयत्न करेगा।जादूगर को कोई भी देख नहीं सकता और समझ नहीं सकता। इन सबको जानकर कहने की क्षमता रखनेवलेे के पास वेद रहता है। वही वेदों के रचयिता है। वह काल-देशों के पार अखंड बोध परमात्मा है। जो समझता है कि वह अखंडबोध “ स्वयं “ ही है, उसको किसी भी प्रकार का संदेह नहीं होगा।
711. जब बंधन नहीं रहते, तब “ मैं “ का देह बोध कम होता रहेगा। देह बोध कम होते समय आत्म बोध बढेगा। जो आत्मा को ही लक्ष्य बनाकर जीते हैं,वे इसको समझ सकते हैं।
712. जब आत्म ज्ञान दृढ होता है, तब देह बोध बिलकुल मिट जाता है।देहबोध के मिटते ही मैं ही कर्ता का कर्तृत्व भाव मिट जाएगा। तभी हमें जग देखकर ,हम जग को देखकर बिना डरे रह सकते हैं। कारण वहाँ द्वैत्व बोध न रहेगा।
713. मार्ग जो भी हो, आत्म विचार द्वारा अग्नि ज्वालाएँ बुझने के जैसे स्मरण सब के सब मिटते समय जीव बोध चक्कर छिपकर आत्म बोध चक्कर में बदलेगा।तभी यथार्थ मौनी बनेगा।
714. परमत्मा बने ईश्वर अपने अपर प्रकृति को प्रयोग कर सृष्टि की इच्छा करते समय द्वैत बोध लेकर शरीर होने से आत्मा, प्राण रूप में रहकर आकाश जैसे निस्संग कर्म करता है। अर्थात् निश्चल आकाश में चलनशील हवा कार्य करने के समान निश्चल आत्मा में ,निस्संग चलनशील प्रपंच के इंद्रजाल को अपनी माया के द्वारा आत्मा प्रकट करता है। माया के बारे मे करनेवाले प्रश्न निरर्थक होते हैं। जब स्वयं ब्रह्म होते हैं,तब मालूम होगा।
715.अखंड आत्म बोध की अपनी शक्ति माया वासनाओं से भरे चित्त संकल्प के कारण स्वरूप को विसमरण कराकर उसमें प्रतिबिंब बोध जीव,जीव अहंकार, अंतःकरण,पंचेंद्रिय,कर-चरण आदि के शरीर,लोक रूप में विकसित होनेवाले प्राण परिवर्तनों को ही परमात्मा की परछाइयाँ कहते हैं।सर्वव्यापी परमात्मा को किसी भी काल में परछाई नहीं है। परछाइयाँ सत्य नहीं हैं। इस लोक के दृश्य कहाँ बनकर मिटता है के प्रश्न करने पर वह रेगिस्तान की मृगमरीचिका के जैसे ही मिथ्या झांकी ही हैं।
716. जो कुछ भी माँगने पर देनेवाली कामधेनु है आत्मा। वही कामधेनु ही स्वयं है। वही कामधेनु ही सुधि, युक्ति, गुरु उपदेश ,यूहापोह आदि लेकर ज्ञान की दृढता पाते समय ही अन्यों से आश्रित न होकर जी सकते हैं।
717. स्त्री हो या पुरुष आत्मबोध रहित संभोग में मात्र प्यार करनेवाले दुख देनेवाले चंचल चित्तवाले ही होंगे। सुख देनेवाली आत्मा ही निश्चल, निर्मल, नित्य होंगे।
718. धन रूपी बंधन मनुष्य को लाश बनाकर बदलते समय ,परब्रह्म का बंधन मनुष्य को पवित्र बनाकर ,स्वर्ण रूप में बदल देता है।
719. सारा प्रयत्न अहंकार तृप्ति के लिए बना है। उसी से काम सुख ही मिलेगा।परमानंद प्राप्ति करने घमंड और अहंकार का नाश होना चाहिए।
उसके लिए आत्म विचार ही श्रेष्ठ दवा है। आत्म विचार करनेवालों के लिए परमानंद ही होगा।
720. सर्व सिद्धियाँ अपने निज स्वरूप परमात्मा में ही है। उसे न समझनेवाले ही सिद्धियों के लिए मेहनत करते हैं।
721. जीव का परम लक्ष्य आत्मसाक्षात्कार के लिए ही बना है। उसे जाननेवालों को ही सत्य की खोज करने का विवेक होगा।
722. सत्य और असत्य को विभाजित करके न जानना ही बहुत बडा पाप है।
723. सत्य बोल न सकने के कारण ही रोज़ सत्य बोलने को तजना पडता है।
कारण नकली अभिमान और भय ही है। उसे तोडने का एक मात्र मार्ग है आत्मविचार ही है।
724. उनके लिए सदा मोक्ष का द्वार खुला रहेगा, जो कहते रहते हैं कि सभी ईश्वर अपने हाथ छोडने पर भी हृदय अंतर्वृत्ति का ईश्वर हाथ न छोडेंगे। अर्थात ब्रह्म रूप लेकर अनेक देव बनकर सृष्टित जीवों के क्षेम,मोक्ष के लिए शाश्वत खडे रहते हैं।
वैसे रूप लिए देव-देवियों को शक्ति विभाजित देनेवाले सर्व शक्तिमान परमात्मा बने ब्रह्म ही है। भगवान जो कुछ माँगते हैं,सब देंगे। मोक्ष की माँग करते समय ही भगवान रूप बदलकर माँगनेवाले के अहमात्मा बनकर अपने अस्तित्व का बोध कराता है ।
725. वृद्धावस्था में जवानी को स्थित खडे रहने के प्रयत्न के पीछे अंतरात्मा अनश्वर है का अबोध मन के स्मरण ही है।
726. फाँसी की सजा प्राप्त व्यक्ति के अंतिम दिन में किसी न किसी प्रकार बचाया जाएगा के विचार आने के पीछे यही कारण है कि शारीरिक स्थिति बंद होने से ही सर्व स्वतंत्र मनुष्य हो सकता है। यह विचार आने का कारण गहरे मन का स्मरण ही है। कारण आत्मा नित्य स्वतंत्र ही है।
727. पराधीन पंचभूत पिंजडे से बाहर आकर जो जीव स्वतंत्र होना चाहता है, वही शरीर सुरक्षा की कोशिश करेगा। वैसा व्यक्ति ही ईमानदारी जीवन बिताकर दिखाएगा। उसी को यह भावना आएगी कि स्वतंत्र अपनी आत्मा को माया के पर्दे मन और शरीर छिपा देने से शरीर और मन मिथ्या हैं।तब तक पराधीन शरीर का स्मरण न जाएगा।
728.इस संसार में कमल के पत्ते और पानी के जैसे जीना चाहें तो माया-तंत्र जानना चाहिए। माया दिखानेवाले तंत्र नीति नियम,न्यायालय के व्यवहार,परिवार नियोजन,बीमारी आदि से बचकर इस सांसारिक जीवन से अपने को बचा लेना चाहिए। उसके लिए हर मिनट आत्म जाग्रण से रहना चाहिए। तभी महसूस होगा कि यह शरीर और संसार भगवान की शक्ति माया दिखाने के माया विलास मात्र ही है। केवल भगवान मात्र कल,आज और सदा के लिए स्थाई अस्तित्व है।
729.अपने से ही यह प्रपंच पुष्प खिलता है। अपने से ही प्रज्वलित होता है।अपने से ही वह झरता है।वही ब्रह्म कमल है।
730.आत्मानंद ही ब्रह्मानंद है। उससे बढकर कोई आनंद नहीं है। आत्मा ही ब्रह्म है। आत्मा सर्वंतर्यामी है,शरीर अंतर्वर्त्ती है,दृष्टा है। जो इन्हें जानता है,वही ब्रह्म ज्ञानी है।
731. शरीर, मन, के आधार स्थित खडे सत्य,ज्ञान,आत्मा, स्वतंत्र, बोध, यथार्थ स्वयं ही अनादि,आदि अंत,पाद और चोटी के रूप में रहते हैं।
732. आत्म बोध के अपने संकल्प चलन शक्ति ही मन होता है। चलन नहीं तो मन नहीं है। चलन रहित मन को मन नहीं कह सकते, सत् ही कह सकते हैं।
733. अपने गहरे मन में अपने को जो कम-सा लगता है,उसपर ही मन दृढ रहता है। उनमें से ही उसका सारा प्रयत्न उदय होकर शरीर क्रियाशील बनता है।
734. शरीर और संसर को विस्मरण न करें तो आत्मा आत्मा का सवभाविक आनंद को भोग नहीं सकते। लेकिन विषयों को लक्ष्य बनाकर जीनेवालों को सब कुछ भूलना कष्ट ही होगा। आत्मा को लक्ष्य बनाकर जीनेवालों की बुद्धि में अनवश्यक विषय न रहेंगे। कारण आत्मज्ञानाग्नि में सबकुछ जल जाएँगे।
735. आत्मा सर्वाभिष्टधात्री है। वह अक्ष्य पात्र है। यह जानकर दान करनेवालों को सर्वाभिष्ट अपने आप पूर्ण होंगी।
736. परम माय ईश्वर को मात्र जो खोज नहीं करते,उनको माया का रहस्य समझ में नहीं आएगा।
737. सत्य की खोज करके केवल सत्य के लिए मात्र जीनेवाले वेदांति ही भेद बुद्धि रहित रहेंगे।
738.ऐसी सोच से अभिमान न होगा कि दूसरों की समस्याओं को हल करने के लिए अपनाने के पहले ही उनको सब कुछ मालूम है। शायद वे हम से बिना पूछे ही उनकी समस्या हल होने पर भी कोई चिंता न होगी। यह गुण एकात्म बुद्धिवाले को ही होगा।
739. एवाल की सृष्टि इसीलिए हुई कि दिव्य सृष्टियों के आश्चर्य ,चमत्कार और अद्भुतों से आनंदित होकर सुधबुध खो न जाएँ।कारण आत्मा की हँसी प्रकृति रूपी माया से सहा नहीं जाता। माया को ईर्ष्या होगी। वह माया का स्थिर खडे गुण है।माया का धर्म समस्याओं को उपन्न करना ही है। माया से डरकर ही ज्ञानी आत्मा को पकड लेते हैं। यह ईश्वरीय लीला ही है।
740.जब तक अनुभव गुरु नहीं बनते, तब तक अविवाहित लोग, विवाहित अनुभवियों की बात विवाह मत करो, न मानेंगे। विवाह की चाह के बिना रह नहीं सकते। वैसे ही आत्मा के महत्व न जाननेवाले लोकयुक्त जीवन से आसक्त लोगों से अनासक्त जीवन बिताने के लिए कहें तो वे न मानेंगे।
741.जब मन आत्मविचार रहित होता है,तब यह अनुभव से जान सकते हैं कि अपना बननेवाली आत्मा सूर्य को ही प्रकाशित करनेवला सूर्य है।
742. किसी एक का मृत्यु भय मिटना है तो मेरा जन्म नहीं हुआ है का आत्मज्ञान की दृढता होनी चाहिए। क्योंकि बचपन से आज तक अपने माता-पिता के द्वारा,रिश्तेदारों के द्वारा अपनी बुद्धि में पंजीकृत जनन मरण चिंतन ही किसी एक के जीवन को तुरित पूर्ण बनाता है। वास्तव में कोई भी जन्म लेते नहीं और मरते भी नहीं। सर्वव्यापी परमेश्वर ही सदा के लिए शाश्वत है। वही परमानंद स्थिति है।
743. लोकायुक्त जीवन में अपरिपक्व व्यक्ति संन्यासी जीवन अपनाते समय, आत्मज्ञान में दृढता प्राप्त आत्मसंतुष्ट सही गुरु के मार्ग दर्शन के बिना लोकायुक्त जीवन को वापस आने का अवसर होगा। इसलिए ज्ञान वैराग्य होने के लिए केवल नवग्रह मात्र नहीं ,परिचित-अपरिचित अनेक करोड सूर्य परिवारों पर शासन करनेवाली अपनी अहमात्मा ही है की भावना से गुरु का शरणार्थी बनना चाहिए।
744. जिसमें आत्मज्ञान का पिपासा नहीं, उसको कामधेनु सम आत्मज्ञान बाँटकर देने पर ,प्रकृति के दंड का पात्र बनना पडेगा। कारण राजा देव के रूप ,देव ऋषि के रूप में परिपक्व होेेने पर ही आत्मज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। पुराणों में तप करके देव और असुर कई वर प्राप्त करने पर भी विवेक रहित, कई अनर्थ करके पद खोकर, प्राण त्यागे इतिहास बहुत है। इन सब के कारण उन्होंने राग द्वेष, भेद-बुद्धि पर न जीतकर तपस्या करके वर प्राप्त किया था। आत्मज्ञानी किसी से वर प्राप्त न करते ।कारण आत्मा मात्र ही सर्वमुखी,नित्य सत्य है।
745. असहनीय दुख आते समय ही कोई आत्महत्या की कोशिश करता है। चिंता तो मन और शरीर को ही होती है। शरीर और लौकिक विषयों के भ्रम में पडनेवालों को मालूम नहीं है कि मन या शरीर “ मैं “ नहीं है। परमात्मा को गलत सोचने पर ही वह प्रयत्न करते हैं। जो अनश्वर आत्मा को ही “ मैं” समझता है, उसको यह विचार न आएगा।
746. बुद्धि विधि को जीतना है तो किसी भी प्रकार के संदेह रहित परमात्म ज्ञानबोध होना चाहिए। वास्तव में विधि ही बुद्धि को बनाती है। सर्व शक्ति और सर्वबलशाली ईश्वर ही विधि का निर्णय करता है।
747.संकल्प ही जीवन है। भावना ही भाव होता है। प्राण शरीर को तजते समय किसका संकल्प करता है,वही अगला जन्म होता है। अर्थात प्रतिबिंब बोध जीव चित्त वासनाओं के साथ अनंतरजन्म लेता है।
748. मन के लगाव जिस पर अधिक होता है, उस पर ही विषय सिद्धि होगी। सिद्धि न होने के कारण पहली सोच सिद्धि होने के पहले दूसरी सोच आना ही है। अर्थात एक को भूलने से ही दूसरे को देख सकते हैं। एक सोच के रहते दूसरी सोच न होगा। अर्थात हमेशा एक ही होगा।
749. जीव को शारीरिक चेतना के समय से ही विचारों के उतार-चढाव के फल ही आज करने वाले हर प्रयत्न के विपरीत और अनुकूल फल देता है। उसका अंत शारीरिक बोध से आत्म बोध पाना ही है। मनुष्य जन्म में महत्व करके इस जन्म में आत्मानुभूति पानेवाला ही विवेकी है। न पानेवाला मूर्ख होता है।
750. दूसरों के कुशल-क्षेम की पूछ-ताछ करना,उनके गुणों की प्रशंसा करना नाते-रिश्ते बंधनों को दृढ बनाता है। इसलिए यथार्थ साधु उसका अंत कर देते हैं।
751. प्रकृति पुरुष रति ही हर पल होती रहती है। रति का मतलब दो एक बनकर बदलने की क्रिया ही है।
752. माया में फँसने से ही लगता है कि परिवर्तन चाहिए।आत्मा को किसी भी काल में परिर्तन नहीं है।
753. भक्त और भगवान,गुरु और शिष्य, पति और पत्नी आदि में आत्म रति ही हो रही है। लेकिन वह स्वप्न ही है।जो नींद से उठता है,उसको मालूम है कि स्वप्न सच नहीं है। मनुष्य सूर्य प्रकाश की कमी से रात में सुप्तावस्था में स्वप्न देखता है। वैसे ही
अहमात्मा प्रकाश की कमी के कारण अज्ञान की नींद में दिन में भी स्वप्न देखता है।
स्वप्न को सत्य सोचनेवाला ही जीवन में दुखी होता है। विवेकी ही सदा आनंद से रहता है।उसको देखना इस संसार में दुर्लभ होता है।
754. सदा आशापाश और चिंता के लोगों की मित्रता से दूर रहने के लिए ही संन्यासी एकांत में रहना चाहते हैं जिससे आशा पाश से बच सके। लेकिन आत्म ज्ञानी पर इसका असर न पडेगा। कारण आत्मा मात्र है।
755. ईश्वर को सोचते समय मंदिर कीओर आँखें बंद करके प्रार्थना करते समय मालूम होगा कि सोचनेवाला “ मैं “ ही स्वयं सोचता है।
756. जब लगता है कि परिवर्तन न चाहिए, तब आत्म बोध होता है।
757. स्वभाव स्वच्छ होना चाहिए तो आत्मविार के सिा दूसरे विचार न होंगे।
758.काम प्यार की ओर,प्यार प्रेम करने की ओर,प्यार एकत्व की ओर एकत्व स्वतंत्रता की ओर ले जाएगा। यह प्रकृति का क्रियाकलाप होता है|
759. शारीरिक चेतन के बिना आत्मबोध में स्थित योगियों को चेताने पर महसूस करते हैं। उनको शरीर होने पर भी चेतना नहीं रहेगी। वे तुरिय स्थिति समाधिस्थ रहते हैं।
760.चेताने पर भी चेतना पर न आनेाले योगी तुरियातित स्थिति में बने हैं।उनको मालूम नहीं है कि शरीर है या नहीं? उनको शारीरिक वासना ,लौकिक वासना नहीं रहेगी। वह परमानंद स्थिति होती है।लेकिन स्वप्न में रोकेट में चंद्रन की यात्रा करनेवालों को मालूम नहीं होता कि उसका अपना शरीर भूमि पर है कि नहीं।उसको समझा सकते हैं,चेतना कर सकते हैं। कारण उसको शारीरिक और लौकिक वासना हैं।
761. मन से मनःसाक्षी को स्पर्श करते समय हम प्रपंच के केंद्र को छूते हैं। कारण
“ मैं “ ही प्रपंच केंद्र हैं।
762. ओंकार ब्रह्म नाद ही है। उसमें सब कुछ अंतर्गत है। वही अनागत है। वही किसीसे कहीं से न आनेवाला प्राकृतिक नाद होता है।
763. आत्मज्ञानी की मदद करते समय आत्मज्ञानी यही महसूस करते हैं कि अपनी अंतरात्मा ही दूसरे के रूप में मदद करने आती है।
764. मन मनःसाक्षी से मिलकर देखें तो लोक के रूप अरूप की स्थिति की ओर जाएगा। कारण आत्मा को रूप नहीं है।मन ही संसार है।
765. सभी सुख भोगों का आवास आत्मा ही है। इस बात का ज्ञान न होने से सभी आत्मा की खोज नहीं कर रहे हैं ।
766. सर्वव्यापी आत्मा को रूप नहीं है। इसलिए आत्मा को भूख और प्यास नहीं है। जो उस स्थिति में है, उसको शरीर और संसार स्वप्न के समान है।
स्वप्न शरीर को भूख लगती है। स्वयं शरीर है के चिंतन से ही भूख और प्यास होती है। सर्वव्यापी आत्मा के लिए रूप नहीं है। इसलिए आत्मा के लिए भूख-प्यास नहीं है। जो कोई उस स्थिति में है,उसको शरीर और संसार स्वप्न समान है। स्वप्न शरीर को भूख लगती है। वह स्वप्न देखनेवालों के लिए बाधक है। स्वपन समझनेवाले पर असर न होगा।
767. तमो गुणी वीडियो केमरा जैसे सब में सुध-बुध खोकर अपने को महसूस नहीं करते।रजोगुणी केमरा जैसे किसी वस्तुओं और कुछ व्यक्तियों को मन देकर समझे न समझे रहते हँ। सत्वगुणी दर्पण के समान किसी बात को मन में न रखकर सदा मन को पवित्र रहकर आत्मचेतन में रहते हैं।
768. मन ही संदेह का रूप है। अतः मन स्थिर होने तक स्त्री हो या पुरुष कोई भी हो संदेह बदलेगा नहीं।
769. सत्य हमेशा अज्ञान से बंद रहेगा। कीचड से कमल खिलने के समान बुरे विचारों से ,बुरी क्रियाओं से, बुरे सहवासों से ही उत्तम ज्ञान सरलता से प्रकट होता है। अर्थात जो कुछ स्वर्ग में सोचते हैं,वे सब आसानी से मिल जाते हैं। अतः शरीर स्मरण के बिना प्राण स्मरण आना आसान नहीं है। लेकिन भूलोक में जो सोचते हैं,वे नहीं मिलते। तभी शरीर को तजकर शरीर के शासक प्राण को सोचते हैं। मनःसाक्षी के विपरीत क्रिया करते समय किसी एक को प्रकृति तुरंत चिंतन में लगा देगी। उस चिंतन से ही विवेक होगा। विवेक होते समय ही विवेक होगा। विवेक से ही आत्म विचार होगा। आत्म विचार ही उसको आनंद का पात्र बनाएगा।
770. जप-तप करने से बढकर भेद चिंतन के बिना रहना ही श्रेष्ठ है। भेद चिंतन रहित जीनेवाला ही यथार्थ ब्राह्मण है।
771. शारीरिक बंधन स्थिर रहते तक सभी बंधन मिटने पर भी स्वतंत्र नहीं होते।
772.निर्विकार,स्वतंत्र आत्मा रूपी स्वयं को जब तक गलत से शरीर सोचते हैं,तब तक अहंकार, काम,क्रोध, लोभ, मोह, मद,मत्सर,रूप,रस,गंध,स्पर्श आदि अवसर के अनुसार प्रकट होगा ही।
773. मंत्रों को उच्चारण करते समय मन चंचल ही रहेगा। मंत्रों मेंं श्रेष्ठ मंत्र ओंकार ही है। ओंकार ब्रह्म मंत्र है। उसकी उपासना करते समय उसकी उत्पत्ति किसीसे न आये नाद सा सुनना चाहिए। वही अनाहत नाद होता है। वह नाद सुनते समय मन निश्चल होगा। तभी ब्रह्म अनुभूति होगी।
774. मन दृश्य को स्वीकार करते समय स्वस्थान से हट जाता है।इसलिए दुख होता है। इसलिए अपने दृश्य अपने से भिन्न नहीं का महसूस करके ,आत्म बोध के बिना दृश्य नहीं है को समझकर दृश्य को बोध से भरकर बोध मात्र है को एहसास करके दृश्य बने नाम रूपों को अस्थिर बनाने का कर्म ब्रहम यज्ञ है।ब्रह्म यज्ञ के द्वारा जीवन बितानेवाले को भेद बुद्धि, राग -द्वेष न होगा।वैसे लोगों की अर्हता है परमानंद।
775. कर्म दुख देनेवाला अज्ञान है। यह जानकर प्रारंभ करते समय ही सुख का ज्ञानोदय आरंभ होगा।
776. काम वासना मिटते ही भक्ति की अनुभूति होगी। भक्ति भगवान की खोज करेगी। भगवान के जानते ही दोनों एक हो जाएँगे। अंधेरे कामवास के यहाँ प्रकाश रूप राम न रहेंगे। राम रूप आत्मा को पूर्ण रूप से जानते समय जीवात्मा परमात्मा के रूप में बदलेगा। साथ ही अज्ञान रूपी अंधकार पूर्ण रूप में मिट जाएगा। काम वासना परमानंद बन जाएगा।
777. ब्रह्म स्वयंभू होता है।
778. सर्वव्यापी आत्मा को जो भुला देने का काम करनेवाली माया है।
779. स्व स्वरूप विस्मृति के कारण स्वमाया ही है।
780. स्वरूप स्मृति होने के साथ ही सहज आनंद अनुभूति होगी।
781. स्वस्वरूप विस्मृति से ही देहबोध, उसके निमित्त अहंकार और मन होता है।
782. देहबोध ही अज्ञान होता है।
783. आत्मा से प्यार करनेवाला ही आत्मज्ञानी होता है।
784. अपनी क्षमताओं को दूसरों को समझाने के प्रयत्न करनेवालों के बीच कई षडयंत्र गड्ढे आएँगे। अर्थात पक्व लोगों के द्वारा सुख, अपरिपक्व लोगों के द्वारा दुख होंगे।इसलिए उपदेश देनेवाले सुख और दुख को पार करना है तो पात्र जानकर भिक्षा देना चाहिए।
785. खोज में आत्मा मात्र प्रधान है। कारण आत्मा एक मशाला है। सभी कलाएँ उसकी ज्वालाएँ हैं। ज्वालाओं की उत्पत्ति मशाला बनने के जैसे सभी कलाओं का आधार आत्मा ही है। आत्मा गुणातीत है।
786. भूख शारीरिक चेतना को, शारीरिक चेतना कर्म को,कर्म अज्ञान को, अज्ञान दुख को , दुख ज्ञान को,ज्ञान आनंद को उत्पन्न करेगा।
787. मन में कर्म वासना विमोचन ही शांति स्वरूप होता है।
788. आत्म ज्ञान न होना ही अज्ञान है। उस अज्ञान से ही सकल दुख होता है।
789.सूर्य के प्रकाश से ही चंद्र का प्रकाश होता है। वैसे ही आत्म सान्निध्य से ही अहंकार चमकता है। चंद्र को अपना प्रकाश नहीं है। वैसे ही अहंकार को अपनी शक्ति नहीं है।
790.आनंद एक ही सकल चराचरों को एक बनाता है।
791. ईश्वर चिंतन अर्थात् स्वआत्म चिंतन के लिए जिसको समय नहीं,उसकी यम प्रतीक्षा करते हैं।
792. केवल आत्मज्ञानी से ही यम डरते हैं।
793. संदेह अंधेरे जैसे है।वह सोने वालों के लिए सहायक है।समझदारों के लिए असहनीय होता है।
794. शक्ति सत्य अभिन्न होने से सत्य कहनेवाले को ही सशक्तवान कहते हैं।
795.शक्ति ही बडी है, व्यक्ति नहीं है।
796.आत्म जाग्रण होते समय प्रार्थना अस्त होगा।
797. इस शरीर को जानने का ज्ञान रूप है जन्म -मरण रहित नित्य सत्य है। अखंड बोध है। यह अपरिहार्य है कि आत्मा रूपी “ मैं “ है। संदेह से ही सत्य की खोज शुरु होता है।लेकिन हर बात में संदेह होने पर उसका नाश ही होगा। संदेह रहित सत्य है कि “ मैं “ नित्य है। लेकिन सब बातों पर संदेह करनेवाला अपने आप पर भी संदेह करेगा। इसलिए उसका अंत नाश ही है।
798. जब ईश्वर सर्वव्यापी है के बोध का विस्मरण होता है,तब “ मैं” का अहंकार होता है।
799. जो होने से सब कुछ होने सा लगता है, उस अज्ञान वस्तुओं से ही ईश्वर का चिंतन शुरु होता है।
800.जिसमें स्वरूप स्मृति नहीं है उसका जीवन मृत्यु में होम किया जाएगा।
801. मनःसाक्षी के अनुसार काम करनेवालों को धैर्य और वीर्य अहमात्मा से मिलेगा।
802. गुरु और ब्रह्म की तलाश में भटकने पर अंत में मालूम होगा कि गुरु और ईश्वर मनःसाक्षी ही है।
803. दृष्टा दृश्य नहीं है। दृश्य दृष्टा से अन्य नहीं है। एक रूपी दृष्टा दृश्य बनने के साथ ज्ञानोत्व में बदलता है। उसका कारण स्वस्वरूप विस्मृति ही है। स्वस्वरूप स्मृति के साथ फिर नानात्व एकत्व में बदलता है। वैसा प्रभव प्रलय अनादी काल होता रहता है।
804.सत्य, शरीर को स्वीकार करने पर ही मरना पडता है। अर्थात सत्य,शरीर स्वीकृत लगना सत्य ही है आत्म शक्ति। माया संकल्प द्वारा बना है। माया से बने शरीर ही मिट जाता है।सत्य नित्य है। सत्य बनकर मिटना भ्रम ही है। स्वरूप स्मरण लेकर भ्रम बदलकर ब्रह्म बनेगा। स्मृति विस्मृति लीला अनादी काल से चलते-रहते हैं।
805. एक बरफ भरे बोतल को बंदकर समुद्र में डालने पर सूर्य ताप के कारण पानी पिघलकर जैसे पानी ही पानी हो जाता है, वैसे ही आत्मज्ञानाग्नि से इस संसार रूपी सागर में शरीर रूपी बोतल जीव रूपी मन आत्म विचार से शरीर भूलकर ज्ञानाग्नि से जीव बोध भूलकर परमात्म बोध बन जाता है। मन मिटकर जीवात्मा परमात्मा एक हो जाता है।
806. आत्मा की महिमा जानकर ,कामधेनु बने आत्मा के लिए अपनी मानसिक इच्छाओं को बंधनों को तजकर शरीर और मन के आधार आत्मबोध में तैल धारा जैसे खडा रहना ही मुक्ति हैं।
807. कोई अपने प्रतिकूल स्थिति में उसकी परिस्थिति में दोष दृष्टि मात्र देखना अपने अंतरात्मा को करनेवाला द्रोह ही है। कारण आत्मा एक ही है। शरीर और संसार त्रिकालों में नहीं है। वह न जानकर आत्म स्वरूप के अपने को भूलकर शरीर और संसार जो नहीं है,उसका स्मरण करना विवेक शून्य ही है। वही आत्म के लिए करनेवाला द्रोह होता है।
808. पूर्व जन्म के कर्मफल कल होने की बातों की टिप्पणियों की पूर्व विधियाँ होना प्रकृति है। उसे अपने इस जन्म के प्रयत्न सा चित्रण करना अहंकार ही है। लेकिन स्मरण जिस जन्म का भी हो, प्रयत्न करें या न करें फल देनेवाले भगवान ही है। कारण बिना भगवान के कुछ भी नहीं है। कोई भी नहीं है। इसलिए अहंकार को वहाँ स्थान नहीं है।
809. ब्रह्म से अन्य कोई दूसरा नहीं है। इस सत्य के रहते मोक्ष प्राप्त करने के लिए कठोर परिश्रम करनेवाले अज्ञानी ही है। विवेकी उसे नहीं करेंगे। विवेकी को मालूम है कि अखंडबोध सत्य बनेगा। “ मैं “ मात्र नित्य सत्य है।
810.जग मिथ्या होने से, जग जो कुछ कहता है,वह झूठ मात्र है। प्रार्थना करने पर ध्यान करने पर द्वैत ही होगा। अद्वैत ही सत्य है।
811. स्वरूप अर्थात स्व स्वरूप निराकार सर्वव्यापी बोध के रूप की आत्मा ही है। उसका स्वभाव आनंद ही है। उसका स्वभाव आनंद ही है। वह नष्ट होने पर अर्थात स्मरण न होने पर सब कुछ नष्ट हो जाएगा।
812.हम मनन करते समय स्वर्ग द्वार हम खुद ही बंद कर देते हैं। कारण जब तक चलन हैै, तब तक वह खुलेगा नहीं। अर्थात वह स्वर्ग नित्य निश्चलन ही है।
813. ईश्वरीय शक्ति के ऊपर दूसरी एक शक्ति स्वभाव और कोई भी नहीं है तो प्रयत्न का शब्द निरर्थक है। अर्थात सर्वस्व ईश्वर ही है।
814.तैल धारा जैसे आत्म अवबोध होते समय “ मैं “का भाव अस्त होगा।
815. नाम रूप विस्मृत होते समय स्नेह स्वरूप में बदलता है।
816. स्वरूप स्मृति होने के कारण नामरूप जो है,उसे हम कहते हैं कि प्यार करता है। वह द्वैत को बताता है। स्नेह यथार्थ में अद्वैत है।
817. अज्ञानियों को मालूम नहीं है कि आनंद जहाँ होता है, वहाँ आत्मानुभूति होतीहै।
818.मैं कौन हूँ ? अपना लक्ष्य क्या है? अपना सवभाव क्या है? अपना स्थान कहाँ है? किसकी इच्छा और बंधन के कारण कर्म करने के लिए लाचार हूँ? आदि की खोज करते समय ही अन्य चिंतन अस्तमित होता है।
819. आत्म संतोषी भौतिक सुख के लिए हाथ नहीं पसारेगा।
820. आत्मानुरागी को शब्दों का चिंतन अनावश्यक है। वह अनपढ़ होकर भी बोधी है।
821. चिंतन सुख का भंग करेगा।
822. जो अपने को मिलनेवाले अल्प सुखों को विवेक के साथ तज देता है, उसके निकट दुख आने डरेगा।
823. सत्य की खोज करनेवाला शरतों के बंधन में न रहेगा।कारण वह द्वैत बुदधि बनाएगा। द्वैत अज्ञान और दुख देगा।
824. विकार जहाँ होता है,वहाँ विचार नहीं है। विचार जहाँ होता है, वहाँ विकार नहीं है। विकार विवेक को छिपाते समय विचार विवेक बनाएगा।
825. एक विषय को जो पूर्ण रूप में पढते हैं, वे पूर्ण रूप से विस्तार से कह नहीं सकते।
826. यथार्थ शिष्य वही होता है, जो बाह्य गुुरु के अनुसरण से अहं के गुरु का अनुसरण करता है।
827. ईश्वर की जानकारी के मिले बिना उपदेश देनेवाला मूर्ख ही होता है। कारण उपदेश सुननेवाले को उसके जीवन जीने का निर्णय करनेवाला उसका मनःसाक्षी के अनुकूल ही है।
828. आत्मा के दर्शन होते समय अर्थात् आत्मज्ञान होते समय वह आदर्शवादी बनेगा।
829. जो निर्णय कर चुका है कि पूर्ण रूप में प्यार करने ,विश्वास करने कोई नहीं है, तो वह सत्य के निकट खडा रहता है।
830. अनुसरण करते समय देह बोध, आज्ञा देते समय आत्मबोध जाने-अनजाने में ही संभव होता है। आत्म बोध के आदेश विजय होगी। अहंकार के आदेश पराजय होगा।
वैसे ही मनःसाक्षीवाले का अनुसरण मिथ्या होगा।
831. जिसमें करुणा है, वह द्वैत बोध होनेवाला है। वह माया में ही रहता है। अद्वैत को करुणा नहीं होगा। कारण वही करुणा का आकार होता है।
832.अद्वैत बोध स्थित स्थिर खडे रहते समय कारुण्य के प्रश्न न उठेगा। अर्थात करुणा की समस्या न उठेगा।
833.मन से जो भी माँगो, वह मार्ग दिखाएगा। लेकिन आत्मा कहाँ है के पूछने पर वह मन नदारद हो जाएगा।
834. जो कुछ न होना था,प्रयत्न करने पर भी न होगा। वैसे तो जो कुछ न होना है, बिना प्रयत्न के होना चाहिए। वैसा ही हो रहा है। प्रयत्न एक दृश्य मात्र है।
835. जो नहीं है,वह नहीं है, जानने के लिए एक है का रूप चाहिए।वही आत्मा है।वही आत्मबोध है।
836. आत्मानुभूति जितनी बढती है, उतनी ही लौकिक चिंतन कम होगी।
837.चिंता शून्य मौन की ओर,मौन आनंद की ओर ले जाएगा।
838. देह बोध और सांसारिक बोध रहित सुसुप्ति की चेतनावस्था ही समाधि है।
839. प्रभव,प्रलय जैसे ही निद्रा और जागृति होती है।
840. आत्म तत्व में दृढ रहनेवाले पुरुष को स्त्री नियंत्रित नहीं कर सकती।
841.हर मिनट के आत्मानुरागी जो भी हो ,वे स्वभाव से ही ब्रह्मचारी और ब्रह्मचारिणी बन जाते हैं।
842. इंद्रियों के द्वारा आत्मानुभूति होने पर भी ,वे सब साक्षात्कार के मार्ग होने पर भी सत्य यह है कि शरीर भी आत्मसाक्षात्कार के लिए आवश्यक है। अर्थात् सर्वव्यापी आत्मा को शरीर नहीं है।
843.दो दीख पडनेवाले संसार में सब एक रूप में बदलने के कारण आत्मा एक ही है का स्पष्ट ज्ञान ही है।
844. जिसमें आत्मा की अभिलाषा है, वे जैसा भी वेश में हो ,सर्वस्व त्यागी ही है।
845. संन्यासी सबको तिरस्कार करना चाहिए। स्वीकार से ही तिरस्कार है। आत्म तत्व की चेतना करनेवाले संन्यासी की आत्मा किसी को भी स्वीकार न करने से अस्वीकार करने की आवश्यक्ता नहीं है। कारण आत्मा सर्वव्यापी है।
846. शरीर के साक्षी रूप आत्मा कभी शरीर के बंधन में नहीं है। आत्मा के लिए शरीर एक उपकरण मात्र ही है। अर्थात अपनी शक्ति माया संकल्प लेकर दिखानेवाला माया जाल ही यह जीव शरीर होता है।
847. चाह के लिए कुछ भी नहीं है। चाह रहित मन आत्म स्वरूप प्राप्त करने अधिक देरी नहीं होगी।
848. मन की रसिकता के लिए मानव को प्रेम मात्र पर्याप्त है। वह प्रेम बनाने का विषय जो है , उस विषय में आत्मा ही चमकती है। जब मन इसे समझ लेता है,तब बाह्य मन अहमात्मा का रसिक बनेगा।
849. मित्रता का बंधन अशाश्वत होने का कारण आत्म सदा एक होने से ही है। भिन्न भिन्न हर एक शरीर अस्थाई है।भिनन शरीरों से उत्पन्न नाते -रिश्ते अस्थिर होते हैं। ये सब अस्थिर और मिथ्या होने के कारण सब जीवों की आत्मा एक ही है। नामरूप शरीर माया भ्रम ही है।
850. वस्तुओं की वास्तविकता खुद ही प्रकट होते समय मन कभीकभी अपने स्व नियंत्रण करेगा। कुछ विषयों में अनिच्छा से रहेगा। उसे अपनी क्षमता कहनेवाले अहंकारी होंगे। आत्मा को न जाननेवाले होंगे।
851. रिश्तों से बने स्नेह बंधन इच्छुक वस्तुएँ चंद मिनट ही अंतर्मुखी होते हैं। लेकिन बाकी अनेक समयों में जव बहिरमुखी अधोगति को ही ले जाएँगे। इसलिए मोक्ष गति के लिए मन को निरंतर अंतर्मुखी बनाने का प्रयत्न करनेवाला ही मनुष्य है। बहिरमुखी हो या अंतर्मुखी मन को सम स्थिति पर लानेवाला ही विवेकी है। मन की सम दशा ही मुक्ति होती है।
852. वासनाएँ नाश करें तो विषय वासना निकट नहीं आएँगी। चाहकों को विषय निकट आएँगे।
853. आत्म पिपासा आने पर शुदध पानी के स्रोत के कुएँ के पास आने के समान महसूस करना चाहिए।
854.
आश्रित रहने के लिए सिवा अपने मनःसाक्षी के और कोई नहीं है के दृढ ज्ञान पाते समय अहंकार का नाश होगा। तभी आत्मा की स्वभाविक शांति सहज होगी।
855.मनुष्यों को साधारणतः यह विचार है कि नश्वर शरीर को स्थिर रखना और अनश्वर आत्मा को मिटा देना।अज्ञानी लोग दृश्य वस्तुओं पर ही विश्वास करेंगे। अदृश्य वस्तु जैसा ही सर्वव्यापी आत्मा अपने को देख नहीं सकती। जिसको इस ज्ञान की दृढता होती है कि अपने से बढकर कोई अन्य दृश्य विषय नहीं है, वही समझ सकता है कि आत्मा रूपी अपने को जन्म और मरण नहीं है ,आत्मा को मिटा नहीं सकता। वह नित्य है,शाश्वत आत्मा ही है। वह आत्मज्ञान चेतना होने तक इस माया के बंधनों से होनेवाले दुखों के कारण मोक्ष पाने के लिए विवेक शून्य होकर आत्म हत्या के प्रयत्न में लगेगा। इसलिए सत्य क्या है? असत्य क्या है? नश्वर क्या है? अनश्वर क्या है? आदि को अपने विवेक से जान लेना चाहिए। आत्म हत्या से बचे का एक मात्र मार्ग विवेकशीलता ही है।
856. जिसका लक्ष्य भगवान कौन है ? जानने में है, उसका मन ईश्वरीय चिंतन से न हटेगा। जिसका लक्ष्य भगवान को जानने का नहीं है, उसके मन में भगवान का स्मरण भी नहीं आएगा ।
857.मनुष्य मन जाने अनजाने में अपने हर कार्य के पीछे निरंतर आनंद को चाहता है। उसके द्वारा इस शरीर का आधार स्थित खडे ” मैं “ नामक आत्म बोध है, उसका केंद्र बिंदु मैं ही है, वही सर्वस्वतंत्र है। वही अखंड प्यार है,वही परम ज्ञान है, वही सबको प्रकाश देनेवाला प्रकाश है। वही सत्य है। इन सबको नित्य,अनित्य विवेक के साथ समझानेवाले ही गुरु होते है। यथार्थ गुरु ईश्वर ही है। ईश्वर से भिन्न कोई नहीं है। जब यह ज्ञान होता है, तब गुरु शिष्य एक हो जाते हैं।
858.निरंतर शांति, नित्य आनंद अपने अंतरात्मा का स्वभाव है, जिसको इस ज्ञान की दृढता इो जाती है, वही एहसास कर सकता है कि पंचेंद्रियों के द्वारा भोगनेवाले सभी विषयों में चमकनेवाले अपने स्वभाव और आनंद ही है।
859. जब यह एहसास होता है कि शास्त्र ज्ञान और गुरु उपदेश के द्वारा शरीर,मन,बु्द्धि ,अहंकार, काम,क्रोध ,विकार आदि को जिस ज्ञान से जानते हैं, वह ज्ञान, आत्म ज्ञान “ मैं “ कभी नहीं आया हैं, कहीं नहीं जाता,हमेशा एक रस से खडा रहता है , उसको स्थिर खडा रखने की जरूरत नहीं है, तब उसी क्षण जन्म का साक्षातकार होता है।
860. कष्टों के आते समय उनमें सुख देखनेवाले भी हैं। कारण उनसे मन को बाहर नहीं कर सकते।
861. गुरु बनने से, गुरु के शिष्य बनने के लिए ही योग्यता चाहिए। कारण संदेह के आकार के चित्त संकल्प रूपी इस जग में प्रश्नों के लिए ही स्थान है। उसी को प्रकृतीश्वरी विद्या माया,अविद्या मया आदि के रहस्य द्वार को खोलेगा, जो सही सत्य मार्ग की तलाश में सत्य को लक्ष्य बनाकर जीता है। वही ज्ञान का केंद्र है।
862.जिंदगी में अनेक लक्ष्य होते हैं। उनमें बहुत बढिया है आत्म साक्षात्कार करना। उस लक्ष्य के सिवा बाकी जो भी लक्ष्य हो, जीव को संसार के दुख से मुक्ति न करेगी।
863. एक पुष्प के सुगंध के द्वारा उस पुष्प के बारे में विवेक से जानते हैं। वैसे ही मृत्यु के बाद एक व्यक्ति के पूर्ण संस्कार लेकर ही प्राण सुगंध जैेसे सूक्ष्म बनकर शरीर तजकर अनंतर शरीर बनता है।
864. संसार और शरीर को देखनेवाले दृष्टा को स्वयं सोचने पर भी मिटा नहीं सकते। कारण उस नाश को जानने के लिए “मैं” का रहना चाहिए। दृष्टा रूपी अखंड बोध स्वयं के बिना कोई भी दृश्य देख नहीं सकता। कारण आत्म बोध के होने से ही यह संसार है।आत्म बोध नहीं है तो संसार नहीं है। आत्मबोध के सिवा नाम रूप को स्वयं का कोई अस्तित्व नहीं है। आत्म बोध के बिना नाम रूप नहीं है। बोध मात्र ही है। आत्म बोध छोडकर शारीरिक बोध से देखनेवाले सब नाम रूप माया ही है।उनको स्वयं की स्थिति नहीं है। इसलिए विवेकी नाम रूप में भी बोध के दर्शन करके ही द्वैत को अद्वैत बनाते हैं।
865. एक ही समय में दो लोगों को सृष्टि की शक्ति होने पर दो सूर्यों को बनाकर उसकी गर्मी में सभी जीव मर जाएँगे। इसलिए भगवान सबको अज्ञानता में डुबोकर थोडा-थोडा करके ज्ञान देते हैं। उदाहरण रूप छोटी विशाल पहिया में परिक्रमा में एक ही ऊपर रह सकता है। वैसे ही कालचक्र अर्थात सर्वव्यापी होने से परमात्मा सृष्टि नहीं कर सकते। एक विषय की सृष्टि करना है तो अपने में एक कमी होनी चाहिए। स्वयं नित्य पूर्ण है। सृष्टि के लिए एक स्थान चाहिए।स्वयं निश्चल और सर्वव्यापी होने से चलने को या नये रूप में एक उत्पन्न नहीं कर सकते। लेकिन स्वयं देखने की सृष्टियाँ परमात्मा परमेश्वर की शक्ति रूपी मन संकल्प माया मन दिखानेवाला इंद्रजाल ही है। कारण सारा ब्रह्मांड की उत्पत्ति अंत जानते नहीं है। वो प्राण,चलन, कर्म जड रूप दृश्य ही है। उसको कोई युक्ति नहीं है। उसकी खोज करने पर नदारद हो जाता है। इसीलिए उसे माया कहते हैं। उस माया रहस्य का प्रतिबिंब बोध का जीव चित्त वासनाओं को जलाकर जीवभाव तजर खंड बोध अखंड बोध होते समय ही वह स्वयं ही है को दृढ रूप से एहसास कर सकते हैं। तभी स्वयं प्रपंच का केंद्र बनेगा।
866. संदेह संदेह को बढातेे रहेंगे।. इसलिए विश्वास करके, अनुमान करके,भावना से सत्य का एहसास करना चाहिए।
867.कर्तव्य को भूलने पर भी ईश्वर को न भूलने से निष्कलंक जीवन बनेगा।
868. अहंकार और निस्वार्थ विनयशील गुणी व्यक्ति ही रिश्तेदार और दोस्तों से मिलकर उनके कुशल-क्षेम की पूछ-ताछ करते हैं। उनका महत्व निस्वार्थ लोगों को ही मालूम है। अहंकारी नहीं जानते, उनका आदर भी नहीं करते। इसके परिणाम स्वरूप विद्वानों को जो मर्यादा नहीं देते ,वे दुखी बनते। मर्यादा करनेवाले सुखी बनते।
869. हर मिनट आत्म बोध नष्ट किये बिना करनेवाले कर्म से ही पुनः चिंतन करना कष्ट रहित होगा। वह न होने से ही विस्मरण होता है। अर्थात कर्म जड है,जड चलन है। चलन निश्चल बोध में संभव न होगा।इसलिए कर्म नहीं है का एहसास करते हुए सभी कार्य आत्म बोध के साथ करें या न करें वह निष्क्रिय ही है। ऐेसे कर्म करते समय ही फल की प्रतीक्षा किये कर्म कर सकते हैं।वहाँ स्वस्वरूप विस्मरण नहीं होगा। कारण आत्मबोध जिसमें है, उस के समीप द्वैत चिंतन की माया नहीं जाती।
870. अहंकार ही स्वतंत्रता की बाधा होता है। इसीलिए अहंकार के लिए नाश संभव होता है। कारण स्वतंत्र आत्मा है, अहंकार माया है।
871. कुल,धन,पद के अहंकार के अंधे ज्ञान का आदर नहीं करते। वे ईश्वर को आशीष देते।अतः उनको ईश्वर का अनुग्रह नहीं मिलता। वे अपने नाश को खुद माँग लेते हैं।
872.आत्म सूर्य के सामने छलांग मारनेवाले जीव का वासना जाल तुरंत सूख जाएगा। जीव बीज सूख जाएगा। उसके साथ ही आत्मा के लिए इस शरीर का बंधन छूट जाता है।कोपरा जैसे उस जीव शरीर को जो कुछ होने पर भी जीव पर असर न डालेगा।
873. हम किसी को मदद करते समय कालांतर मेें वह व्यक्ति हमारे दुश्मन हो जाता है। इसलिए हमको चिंता होती है। कारण अपने से वह अन्य लगता है। अर्थात जिनको परमात्म बोध होता है,उनको अन्य कोई नहीं होता।उसको “मैं,”मेरा” दोनों भाव नहीं होता। इसलिए मदद की याद उसमें उदय नहीं होगा। वही ब्रह्म है।
874. सब में जो आत्मा है, वह एकात्मा हर एक के अंतर्मन में हम एक है की भावना होकर क्रिया शील होने से ही कारुण्य और करुणा उदय होता है। सभी जीवों को एक समय में या दूसरे समय में अन्य जीवों को अपने जीव जैसे गहरे मन में लगने से ही करुणा का उदय होता है।
875. सभी चराचर काल-देशों की माया की सीमा में है। जब यह बात ज्ञात होता है,तब उसको मालूम हो जाएगा कि अपने अपने काल के अनुसार वस्तुएँ नाश होंगी। तब उनके नाश या नष्ट होने पर चिंता नहीं होगी।
876. जिसको किसी वस्तु या किसी से बंधन न रहेगा, उसको कभी चिंता न होगी।
शरीर भी एक चिंतन के सिवा और कुछ नहीं है। वैसे व्यक्ति, अखंड बोध ही “मैं “ के ज्ञान की दृढता प्राप्त व्यक्ति है। कारण सभी मनुष्य अंत में परमानंद ही चाहता है।
877. किसी के बारे में विचार करें या न करें ,अपने आप के बारे में विचार करना चाहिए। तभी परमानंद परगति होगी।
878. नारियल की विषय वासना पानी के सूखने के बाद ही ज्ञान बोध होकर अपने खोल से कोपरा बनकर अलग होता है। वैसे अलग होने को ही मोक्ष कहते हैं। वह जीव का बंधन विमोचन होता है।
879. यह शरीर,संसार, जड-कर्म चलन-बंधन बोध से न चिपककर , निस्संग अखंड आत्म बोध के साथ जीनेवाले को शरीर स्वीकार न करना पडेगा। वैसे लोग दूसरे स्वशरीर स्वयं ही अपनाया जा सकता है। वे अपने शरीर को स्थूल या सूक्ष्म बनाना सरल साध्य होगा। वैसे ही परमात्मा अपनी माया संकल्प शक्ति से सृष्टि जाल सदा शिव की सृष्टि की है। वैसे ही सदाशिव अपनी माया संकल्प से त्रि मूर्तियों की सृष्टि की है। वैसे ही ब्रह्मा ने संकल्प से दक्षप्रजापतियों की सृष्टि की है। ब्रह्मा विश्व मन बने। सभी सृष्टियाँ माया मन संकल्प बनीं। वह विश्व मन का भाग ही हर जीव के मन होते हैं।
880.जिसको जागृत, स्वप्न सुसुप्ति में आत्म चेतना नष्ट न हुई , वे निद्रा को मात्र नहीं जीतते , शरीर को वस्त्र जैसे उपयोग कर सकते हैं।
881.हर मिनट, सावधानी से आत्मा बने अपने को विस्मरण न करके जीनेवाले को आत्मा रूपी अपने को भुलाने में मन,शरीर और बुद्धि लगने पर भी अहंकार अपना सिर उठा नहीं सकता।
882. मृ्त्यु किसी एक को दबाते समय जीव अलग होते समय दुर्बल कल्पनाएँ मिट जाना, सबल कलपनाएँ संचित कल्पनाएँ बनकर अगले शरीर की खोज में पुष्प के सुगंध जैेसे अति सूक्ष्म रूप लेकर भटकता रहेगा।
883. कोई आदमी मुक्ति पाते समय आज तक “मैं, मैं” कहता जीव ,जीवन,रिश्ता आदि एक स्वप्न-सा लगेगा। अज्ञान निद्रा से जागते समय यह एहसास कर सकते हैं कि स्वप्न में जीवन को अनुभव करते समय जितना सत्य लगता है, जितना मुख्यत्व देते हैं, उतना ही जागृत अवस्था में भी जीवन को दे सकते हैं।
884.बुद्धि बल से, स्वास्थ्य से कोई भी हो,जो भी काम हो कर सकते हैं। वे नये अनुसंधान और आविष्कारक नहीं है। आत्मा में जीने की प्राप्ति जिसमें है,वे ही कुछ कर सकते हैं।
885. अष्टमा सिद्धि प्राप्त व्यक्ति एक स्थान में अदृश्य होकर दूसरे स्थान में दृश्य हो सकते हैं। लेकिन आत्म सिद्धि प्राप्त लोगों को वह सहज रहेगा। सर्वव्यापी परमात्मा असीम परम ज्ञान स्वरूप अखंड बोध सत्य मैं मात्र है, अपने से अन्य कुछ नहीं बनेगा। ऐसे ज्ञान की दृढता पाकर परमनंद की स्थिति है।
886, समुद्र और उसकी लहरें दो नहीं है,एक है,वैसे ही आत्मा और प्रकृति है।
887. साधारणतः किसीको मालूम नहीं कि हमारे शरीर के किस अंग में कौन सी बीमारी आएगी। इसलिए हर मिनट आत्म चेतना के साथ रहें तो दुख से छूट सकते हैं।
888. क्रोध का वासस्थल इच्छा की बाधा है।
889.किसी एक विषय के बारे में ज्ञान न होना ही अज्ञान है। वह आनंद के आवास को छिपा देता है।
890. ज्ञानी से न मिलकर दिव्य संकल्प साध्य नहीं है। ज्ञानी द्वारा उदय होनेवाली कल्पनाएँ सब ज्ञान का प्रकाश होगा।
891.पंचेंद्रियों का संयम मन को आत्मा में मिलाने के लिए चाहिए।
892.सही आत्म ज्ञान उदय होते समय यादें और विकार स्वयं नियंत्रण में आएगा।
893.दूसरों की बेवकूफी से,अश्रद्धा से कोई भी अपराध न करनेवाला व्यक्ति ,इस जन्म में दंड भोगते हैं तो वह ईश्वर का दंड कहने से वह उसका जन्मांत्र कर्म फल कहना ही ठीक है। अर्थात अपने से दिव्य ध्वनी होती है।यह प्रमाणित नहीं कर सकते कि स्वयं के बिना दूसरा एक है। “स्वयं” कहना इस संसार और शरीर को जानने के ज्ञान का आधार ही है। उस आधार का ज्ञान एक शरीर के रूप में संकीर्ण नहीं है। शरीर और संसार को विस्मरण करते समय शरीर के कारण संकुचित अखंड बोध शरीर में संकुचित जीव भाव को छोडकर अखंड बोध परमात्म रूपी परमानंद सत्य ही है। वह जन्म और मरण रहित नित्य ही है। वह नित्य रूपी स्वयं अपनी शक्ति माया द्वारा विस्मरित होकर शक्ति दिखाने का इंद्र जालभूत में फँसकर व्यतीत एक जीव का तडप ही जीवन का दुख होता है
894. जिसमें आत्म शक्ति है, अर्थात आत्मा को बिना भूले कार्य कर रहा हो, वह एक ही क्षण में एक विषय को स्मरण सकता है और भूल भी सकता है। कारण आत्मा के सिवा अपने में दूसरा आदमी अपने में रहकर काम नहीं करता।
895. आत्मा प्यार करनेवाला ही आत्मज्ञानी है।
896. शरीर को मुख्यत्व देनेवाले को आत्म विचार करना मुश्किल होगा।
897. वही माया मुक्त व्यक्ति है,जो सर्वव्यापी आत्मा बने अपने को नियंत्रण करने एक माया नहीं है का एहसास करता है।
898.माया मुक्त होने का मार्ग है संपूर्ण आत्मज्ञान है।
ईश्वर के सिवा और कुछ नहीं है। वह ईश्वर स्वयं ही है। वह स्वयं निराकार अखंड आनंद स्वभाव के सर्व तंत्र स्वतंत्र परमात्मा , नित्य सत्य रूप में रहकर अपनी शक्ति संकल्प माया लेकर एक रूपी अपने को अनेक बनाकर स्वयं इंद्रजाल दिखाकर स्वयंभू रूप में स्थित खडे बोध आत्मा का दृढ ज्ञान बनाकर सहज आनंद मं शाश्वत रहा ही ज्ञान का पूर्णत्व है।
899.सुख अंदर है, बाहर नहीं है। करण बाहर गये मन अंदर आते ही सुख का अनुभव होता है। विषय वासनाओं से भरा मन अहमात्मा को नज़दीक मन को बाहर लाने के लिए विषय चिंतन कोशिश करेगा। विषय चिंतन से आत्म चिंतन अधिक करनेवाले मन ही अंदर जाकर आत्मा के नज़दीक आते समय शेष विषय वासनाएँ सूर्य को देखनेवाले बरफ़ के समान उस ज्ञानाग्नि में जलकर, दबकर, छिपकर आत्मा का स्वभाविक आनंद को सहज अनुभव कर सकते है।
900. एकात्म बुद्धिवाला ही अन्य को अन्य न समझकर अपने जैसे देखकर मदद करता है। वैसा व्यक्ति ही आत्मा को लक्ष्य बनाकर जीता है।
२-५७
901. अपने हर एक चलन को चेष्टाओं को समझकर उसके मूल कारण को अनुसंधान करनेवालों के लिए सत्य का द्वार खोला जाएगा।
902. जो आत्म साक्षात्कार को लक्ष्य बनाकर जीते हैं, प्राण जिंदा रहने के लिए खाएँगे, खाने के लिए न जिएँगे। कारण देनेवाले मन को वस्तुओं पर प्रेम न रहेगा।
वही नहीं, जिसके पास है,वही देगा। भगवान के पास ही सब कुछ है। देनेवाले का मन सदा ईशवर से आश्रित रहेगा। अंत में वह ब्रह्म बनेगा। उसी समय जो न देता है, उसका मन लौकिक रहेगा। वस्तुएँ जड होती हैं। जड कर्म है।कर्म चलन शील है।चलन प्राण स्पंदन है। स्पंदन माया है। अतः जो न देता है, कई जन्म माया चक्र की परिक्रमा करके दानशीलता आने तक लेता रहेगा।
903. जिसके मन में अपनी अंतरात्मा अखंड बोध के सत्य का केंद्र है,वह केंद्र “ मैं “ के जीव-बोध रहनेवाला शरीर जड है, अपने मन, बुद्धि,प्राण सब के सब वही जड कर्म चलन है। वैसे एक चलन सत्य बोध में हो नहीं सकता, इसको एहसास करके रेगिस्तान में दृष्टित पानी जैसे “ मैं “ अभिमानित इस शरीर को जन्म-मरण नहीं है। इन बातों को दृढ बनाते रहना ही ब्रह्म उपासना और ब्रह्म ध्यान होता है। रेगिस्तान में पानी नहीं है,जितना सत्य है, उतना ही सत्य है शरीर और संसार नहीं है। उस पानी को उत्पत्ति भी नहीं है , अंत भी नहीं है। वह एक दृश्य मात्र है। वैसे ही इस शरीर का जन्म भी नहीं है,मृत्यु भी नहीं है। यह एक दृश्य मात्र है। “ मैं “ का अखंड बोध मात्र ही सत्य है।
904. इस मिथ्या जगत में बिना झूठ बोले, शरीर से,मन से बिना चोरी किए जी नहीं सकते। जो सत्य से प्यार नहीं करते,सत्य को मुख्यत्व नहीं देते ,वे झूठ बिना बोले,बिना चोरी किये रह नहीं सकते। जो सत्य के लिए जीते हैं, सत्य को महत्व देते हैं, उनके झूठ बोलने से ,चोरी करने से कोई असर न पडेगा।कारण उसमें स्वार्थ नहीं रहेगा। निस्वार्थ जीवन ही उसको ईश्वर से मिलाएगा। .
905. किसी एक का मन जिसपर एकाग्र होता है,वह अपने रहस्य को खोलकर दिखाएगा।
906. जो कलाकार कला का महत्व जानकर एहसास करता है, उससे दूसरे बंधन सहा नहीं जाता।
907. आत्म स्मरण न होना ही भाव है। उसमें बढिया भाव मैं के सत्य को विवेक से न जानना ही है।
908. सही बनवाने के गुरु ही अभय है। अभय ही आत्मा है।
909. सत्य को अनुसंधान करनेवाले का अंत वही होगा।
910. नाते- रिश्ते हो या दोस्त हो, विपत्ति के समय निष्काम मदद करना है तो उसको ईश्वरीय ज्ञान होना चाहिए।
911. किसीसे भी मिले,दुरभिमान के द्वारा ,भूख के द्वारा, बदला लेने का विचार बढते रहना ही चोरी करने की मनोभावना के हेतु है।कोई एक व्यक्ति चोरी करने के लिए प्रार्थना करें तो भगवान उसकी मदद करेंगे। कोई क्रूर कर्म करने की प्रार्थना करें तो ईश्वर उसकी मदद करेंगे। भगवन भले-बुरे दोनों को एक समान मदद करते हैं। भगवान को किसी से किसी भी प्रकार का पक्षपात नहीं है। क्योंकि ईश्वर के बिना कोई कर्म नहीं होता। भगवान ही सिंह है। सिंह का आहार हिरन भी सिंह है। सिंह की भूख,हिरन की वेदना दोनों भगवान ही है। चित्रपट पर सुनामी का दृश्य दिखाते हैं,पर पट पर एक बूंद पानी भी नहीं रहता और पट को नहीं भिगोता। कुश्ति लडना, भूख आदि दुख के अनुभव, सुख-दुख के अनुभव चित्रपट के समाप्त होते ही स्वप्न जैसा बदल जाता है। वैसे ही परामात्मा रूपी पट पर संसार का चित्रपट चलता-रहता है। चित्रपट देखनेवाले सुख-दुख को बदल-बदलकर अनुभव करते हैं। पर चितरपट के निर्देशक आनंद को ही अनुभव करेगा। अतः इस संसार को देखकर एक निदेशक बनकर स्वयं मात्र है को दृढ रूप से जो एहसास करते हैं,उनको इस सांसारिक दुख कोई प्रभाव न डालेगा।
912. आत्म भावना जिसमें है, उनकी शारीरिक कमियाँ इच्छाओं को कम कर देगी।
913. मनुष्य को कष्ट देकर ,पाठ सिखाकर परिपक्व करनेवाले गुरु से बढकर और कोई धन-संपत्ति नहीं है।
914. जो सोचते हैं कि जो भी हो,कोई भी हो ,अनासक्त लोगों को तनिक भी दिखाना नहीं चाहिए , उनको आसक्त लोगों को पूर्ण रूप से दिखाने का संदर्भ बना देगा। वही स्वार्थवाद है। वैसे स्वार्थवादियों को समझना चाहिए कि संसार के सभी दुखों का आधार भेद बुद्धि और राग-द्वेष ही है। उसे तजने के लिए आत्मज्ञान सीखकर
अद्वैत ज्ञान एहसास करके वेदांत भोगना चाहिए।
915. धन के लिए,भोजन के लिए, स्त्री-पुरुष संभोग के लिए जाति,मत,वर्ण नहीं देखते। वैसे एक परिस्थिति के अवसर पर एहसास होगा कि उनका दुरभिमान सब नकली है। जाति,मत,वर्ण ,दुरभिमान, के पार कर चिंतन करनेवाला अत्मज्ञानी होते हैं। वे परिस्थितियाँ जैसी भी हो, ईश्वर की इच्छा की प्रतीक्षा में रहेंगे।
916.भोजन के लिए जीनेवाले को धन संचय की चाह न होगी। वैसे व्यक्ति आत्मा को ग्रहण करने तक जन्म-मरण के काल चक्र में घूमते रहेंगे।
917. शद्ध स्वर्ण लेकर कुछ नहीं कर सकते। आभूषण बनाने के लिए थोडा तांबा मिलाना पडेगा। वैसे ही ब्रह्म शक्ति माया के द्वारा ही एक अनेक बनते हैं। वही माया और भगवान है। शुद्ध सोना एकत्व है,तांबे मिश्रित सोना नानात्व होता है। एकत्व ब्रह्म है। नानात्व माया है। जैसे सोने के आभूषण अभिन्न है, वैेसे ही ब्रह्म अभिन्न है। अर्थात् ब्रह्म मात्र कल,आज,कल शाश्वत है।
918. जब तक तुम रहोगे, तब तक मैं धोखा खाता रहूँगा। तुम नहीं हो, मैं मात्र है।यही सत्य है।
919. सत्य मैं हूँ को विवेक से जानने तक मिथ्या को जिंदगी रहेगी।
920. “मैं” रहने से ही तू है। तू न होने पर भी “मैं “ है।
921. अपने को खुद सुधारे बिना सौभाग्य जीवन मिलने के लिए कोई मार्ग नहीं है।
वह सौभाग्य मैं ही को समझने तक जाँच करना आवश्यक है।
922. सत् चिंतन के अनुपात के अनुसार ही अपने जीवन को अहात्मा बने अपने से ही शक्ति विभाजित होकर मिलेगा।
923. आपको 100 प्रतिशत लोग विश्वास करेंगे तो यह बात दृढ हो जाती है कि आप में योग्यता है।वैसे अपने अपने मनःसाक्षी के सिवा विरोध के बिना कोई भी योग्य नहीं है। वह मनःसाक्षी वेद है। अर्थात ज्ञान है। वही एक भगवान है। अर्थात् आत्मबोध है।
924. स्थिर चित्तवाले को ही दूसरे ढूँढकर जाएँगे। वह आत्मबोध से न हटेगा।
925. मन विषयों की पूजा करते समय ही बाहर देखता है। आत्मा की पूजा करते समय ही अंतर्मुखी होता है। सीमित और नश्वर विषयों की पूजा करनेवालों को ही दुख होगा।असीमित, अनश्वर आत्मा की पूजा करनेवाले को सुख होगा। आत्मा की पूजा कहते समय परमानंद रूप परमत्मा ही “ स्वयं” को दृढ बनाना ही है।
926.परमात्मा को जो चिंतन करता है,उसको पूरा विश्व सौंदर्य उमडकर आता है। कारण सत्य ज्ञान सुंदर सर्वव्यापी आत्मा ही “मैं” होता है।
927. जब तक दुश्मनी बुद्धि है, तब तक परिशुद्ध न होगा। तब तक दुश्मनी न बदलेगी, जब दुश्मन स्वयं है का एहसास न होता। वह दुश्मनी बदलने का मार्ग आत्मज्ञान मात्र है।
928.निष्कलंकित हृदय सरोवर में हर दिन खिलनेवाले शांति पुष्पों का सौंदर्य ,सुगंध अनंत आनंद सागर को हर मिनट ले जाएगा। शांति का रूप, सौंदर्य केदार,अपने हृदय की आत्मा ही है का एहसास करते समय ही जीवन शांति की उपजाऊ खेती होगी। अर्थात एक क्षण स्व आत्म चिंतन करते समय इस प्रपंच का मालिन्य नाश हो जाएगा।
929.आत्मा रूपी पुरुष की शांति को मिटाये बिना प्रकृति रूपी स्त्री स्थिर खडी रह नहीं सकता। आत्मा निश्चल होती है,प्रकृति चलन होती है। मिथ्या चलन प्रकृति को सत्य निश्चल आत्मबोध ही है। मनुष्य शरीर में मन,प्राण, बुद्धि ,पंचेंद्रिय चलन प्रकृति के होते है। शरीर मिथ्या है। उसके आधार सत्य ज्ञान आत्मा होती है “ मैं “। चलन बंधनों से अपने स्वभाविक निश्चलन की पुनः प्राप्ति ही जीवन है। जिसमेें विवेक नहीं है, वही सत्य -असत्य का पता न लगाकर जिंदगी भर दुखी रहते हैं। विवेकी झूठ भूलकर सत्य का एहसास करके परमानंद में स्थिर खडा रहता है।
930.प्यार हृदय में भरकर रहने के लिए अहंकार अनुमति नहीं देगी। जो वह अहंकार त्रिकालों में नहीं रहेगा का एहसास करता है, उसमें मात्र प्यार परिपूर्ण होगा। वह स्नेह का रूप बनेगा।
931.मनःसाक्षी के साथ जीनेवाला व्यक्ति अपनी परिस्थितियों के कारण मनःसाक्षी के विपरीत कुछ करने पर होनेवाली विपत्ति का चित्र उसके सामने आने पर होनेवाली वेदनाओं से ही एक उत्तम पुरुष का जन्म होगा।
932. अपच भोजन को एक घंटा खिलाकर दो घंटे अनशन रहना व्रत नहीं है।मन,शरीर का सुध-बुध खोकर ईश्वर के स्मरण में ही स्थित रहने के योग्य आहार देना ही व्रत है।
933. मनुष्य जन्म भगवान को देखने के लिए ,भगवान को अनुसंधान करने के लिए हुआ है। मनुष्य जन्म संसार के सभी सुखों को भोगने के लिए हुआ है। इस सिद्धांत के अनुसरण करनेवालों को परमानंद स्वप्न में भी न मिलेगा।उसके जीवन में नित्य दुख का नरक ही है।
934. वर्णनातीत आत्म शांति को जिसने एक मिनट अनुभव किया है, वे ही ईश्वर के अनुग्रह प्राप्त व्यक्ति है।
935. निष्कलंक आदमी को कोई धोखा देगा तो पूर्ण रूप से ठगेगा। क्योंकि वह ठग को भी निष्कलंक रूप से ही देखेगा।
936. भूलोक की चिंताएँ होते समय भूमि जैसे सहने की शक्ति जिसमें हैं,उससे ही शांति-समझौते की जानकारी हमें मिलती हैं।
937.अनुभवी कहने के कार्यों पर श्रोताओं को विश्वास नहीं आएगा। उसी समय पूर्ण विश्वास पात्र के अनुभवी को भगवान या अहमात्मा का एहसास करनेवाला होगा।
938.आत्मा से संकल्प बीज टूटकर अंकुरित शरीर वृक्ष में संकल्प कली खिलने का मनः पुष्प ही यह प्रपंच होता है।
939. मनःसाक्षी के विपरीत कोई काम न करनेवाले निष्कलंक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति बहुत बडा द्रोह करने पर भी उससे कोई दुश्मनी या घृणा न करेगा।कारण वह सब जीवों को अपना ही समझनेवाला एकात्म बुद्धिवाला है।अर्थात ब्रह्मात्म बुद्धिवाला है।
940.द्रोह करनेवाली की दुश्मनी बुद्धि हृदय में न होने की स्थिति पाने पर ही हृदय तल में वर्णनातीत निर्मल शांति का शीतल अनुभव होगा।कारण वैसा व्यक्ति सबको सम स्थिति को लानेवाला होगा।
941. विवेक हीन आदमी ही चित्त वासनाओं के अनुसरण करके विवश होकर, असहाय, दुर्बल ,उदासीन पापी होकर मिथ्या शरीर से खडा रहता है। उसके कारण कई जन्मों से अभ्यस्त शारीरिक स्मरण ही है। उससे बाहर आकर जीवन को कौतूहल
आनंद स्वभाव बनाने आत्म स्मरण होना ही आत्मज्ञान है।
942. अपने को क्रोधित करनेवाले मिटते समय सुख होता है। अपनी दृष्टि में उनके द्वारा ही सुख-दुख आने से लगने पर भी अपने निजी कर्म फल के कारण ही चिंता होती है दूसरों के कारण नहीं होते। कारण स्वयं के बिना दसरे नहीं है।
943. सत् चिंतन के कारण ही अहमात्मा को सोचते हैं। और सभी स्मरण आते हैं।
944.यह प्रपंच बनकर करोडों साल हो गये। यह वैज्ञानिक रूप में ज्ञात हुआ कि इसमें जीवाणु होते हैं। वह सूर्य मंडल को पारकर नक्षत्र मंडल तक अनुसंधान करके
भूमि में कुछ होने पर मनुष्य की सुरक्षा के लिए किसी एक जीने के मंडल में जी सकते हैं के विचार वैज्ञानिकों के मन में आया है। जब तक बुद्धि ,कौशल अचिंतनीय अहमात्मा से आया है का एहसास नहीं होता,तब तक विज्ञान का अंत नहीं होता।
945.नाम रूपों से बने इस संसार में उसके आधार स्वरूप आत्मा को मात्र दर्शन करते समय दृष्टा,दृश्य,दृग दृश्य ज्ञान आदि सिवा आत्मा के और कुछ नहीं है। परमात्मा बोध में जन्म लेकर मिटनेवाले ये जीव,जीव के दुख,दुख निवृत्ति के प्रयत्न आदि संकल्प उस आत्म ज्ञानाग्नि में जलकर परमानंद रूप में ही जन्म-मरण रहित स्वयंभू के रूप में ही स्थित खडा रहता है का अनुभव कर सकते हैं।
946.स्व आत्म विचाराग्नि में मन के नाश के साथ लाभ-नष्ट और सभी द्वैत भावनाएँ मिट जाएँगीं।साथ ही हृदय ईश्वर स्वयं प्रज्वलित होगा।
947. ईश्वर के स्मरण आने के लिए ही मनुष्यों को लाभ-नष्ट, जय-पराजय, सुख-दुख होते हैं। जब उसको एहसास होता है कि ये दोनों मिथ्या संकल्प मात्र है, तब मन उसके हृदेश्वर को देखता है।
948. जो लाभ-नष्ट तत्वों को समझता है, वही निस्संग कर्म कर सकता है। लाभ नष्ट जीव का मिथ्या संकल्प है। संसार और जीव स्वप्न बराबर है। इस शास्त्र सत्य समझनेवाले ही कमल के पत्ते और पानी के जैसे निस्संग संसार में जी सकते हैं।
949. पुण्य कर्म न करके जन्म लेने से ही भूख और कष्ट होते हैं। तब गलत मार्ग में धन कमाने की कोशिश करते हैं। वह जीवन को नाश कर देगा। मनःसाक्षी के अनुसार जीना ही पुण्य है।वैसे लोगों के जीवन में शांति होगी। उनकी इच्छाएँ स्वतः पूरी होंगी।चाहें सोचने के पहले उनको पसंद करके आएँगी। वही दिव्य नियति होती है।
950. पुण्य करके जीना है तो माया भ्रम होगा। शारीरिक बोध के शुरुआत से जो अहमात्मा को बिना भूले जी रहा है ,वही पुण्य काम करके जी सकता है। वैसे जीने के लिए उसके माता-पिता को आत्मबोध प्राप्त होना चाहिए। उसको प्रकृति किसी भी काल में कष्ट न देगी। जिसको आत्म बोध नहीं है, उनको प्रकृति का दंड मिलेगा। परिस्थिति के कारण ही उनका मन अहमात्मा का स्पर्श करेगा।
951. संकल्प देवताओं को आराधना करनेवालों से हृदय देवता की आराधना करनेवाले ही मैं ही सत्य हूँ का एहसास कर सकते हैं।क्योंंकि सभी देवताओं को शक्ति देनेवाला हृदय देव ही है।
952. सब के हृदय से भगवान बोलते हैं। उसे सुनकर कर्म कर्म करनेवालों को कर्म बंधन असर न डालेगा। उसे न सुनकर अहंकार से कर्म करनेवालों को कर्म बंधन असर डालता है। कारण भगवान के बिना कुछ भी न होगाा।
953. साधारण मनुष्य को प्यार न होने का कारण वे नहीं समझते कि अपने में जो भगवान है,वही अन्यों के हृदय में है।वे नहीं समझते कि दूसरों को द्रोह करना अपने आप को द्रोह करना है। उसी समय सब मैं ही है के अखंड बोध सत्य रूप मैं है,मैं ही के अखंड बोध सत्य रूप के सिवा दूसरा कुछ नहीं है। ऐसे ज्ञान की दृढता प्राप्त व्यक्ति की दृष्टि में करुणा ,प्यार के दृश्य कुछ भी नही होगा।
954.अपने हृदय में जो भगवान है,उसीने इस प्रपंच की सृष्टि की है। उससे बडे भगवान को जानने ,दर्शन करने किसी भी काल में न होगा।
955. अहंकार गुलाम बनने को अनुमति न देने पर दूसरों से ईर्ष्या होती है , अपमान करते हैं। उसके कारण आत्म बोध न होना,उसके कारण बने भेद बुद्धि और रागद्वेष।ये सब नित्य दुख देनेवाले हैं। इसलिए स्वयं बने आत्मबोध मात्र सत्य है। बाकी सब असत्य है। इसका एहसास करके अपने स्वभाविक अनिर्वचनीय शांति का अनुभव करके आनंद होना चाहिए।
956. खुद देखनेवाले सब में अपने को ही दर्शन करनेवालों को मनःशांति दूर नहीं,पास ही है।
957.जो कोई भेद बु्द्धि रहित सम भावनाओं और कारुण्य के साथ किसीको मुख्यत्व न देकर जीता है, वही विश्व कल्याण कर्म कर सकता है और जीवन के अर्थ बना सकता है।
958. हम अपने द्रोहियों से हमारे स्नेहियों के द्वारा ही बली का बकरा बनते हैं।कारण किसीको भी दूसरों की प्रतीक्षा के बिना प्यार नहीं कर सकता।अर्थात प्रतीक्षा प्यार करनेवालों को अन्य की जरूरत नहीं है। उसने एहसास किया है कि स्नेह का रूप वही है।
959.संसार से द्रोह का एहसास होते ही मन अपने में रहनेवाले निर्मल ,परिशुद्ध अहमात्मा की ओर चलता है। वह नानात्व माया दुख से यथार्थ स्वयं बने एकत्व परमानंद सत्य की यात्रा है। यह अनादी काल से सदा चलते रहते हैं।
960. आत्मा रूपी स्वर्ण से बनाये गये आभूषण ही इस प्रपंच के दृश्य रूप हैं। जैसे आभूषणों को देखते समय स्वर्ण को भूल जाते हैं, वैसे ही संसार के दृश्यों को देखते समय मनुष्य आत्मा को भूल जाता है। स्वर्ण को आभूषण बनाने एक सुनार की आवश्यक्ता है।वैसे ही एक ही आत्मा अपनी शक्ति माया को उपयोग करके स्वयं नानात्व दर्शन बनाकर दर्शाती है।
961. आत्मा को लक्ष्य बनाकर जीेनेवाले को हर दिन होनेवाले अनुभव अपने को भला-बुरा लगने पर भी आत्मसाक्षात्कार के अनुकूल ही ले जाएँगे। कारण आत्मा मात्र है।
962.इस जीव बोध का विस्तार ही दृष्टित शरीर,भूमि,आकाश,नक्षत्रों से भरा यह प्रपंच है। इसका बोध कराना चाहिए। जीवात्मा अपनी शक्ति माया प्रतिबिंब बोध है।
प्रतिबिंब छाया है। छाया सत्य नहीं है। आत्म के लिए छाया नहीं है।आत्मा मात्र सर्वव्यापी है। बाकी दृश्य सब भ्रम है।
963. समुद्र की बडी लहरें बनकर समुद्र में ही दब जाती हैं। लहरें समुद्र को खींचकर जा नहीं सकती। वैसे ही अपनी आत्मा को विस्मरण न करने के काल तक अर्थात स्वयं आत्मा रहने के काल तक कल्पना की लहरें हमें कुछ नहीं कर सकते।
964.समुद्र में लहरें, बुलबुले बनकर अस्थिर होकर पानी हो जाता है। वैसे ही आत्मा रूपी समुद्र में यह संसार बनकर स्थिर होकर अदृश्य हो जाता है। पर सर्वव्यापी आत्मा में कोई परिवर्तन नहीं होता। परिवर्तन -सा लगना बोध का भ्रम ही है।
965. मरुभूमि की मृगमरीचिका के पीछे जाने की तरह ही आत्मा को भूलकर मनुष्य सांसारिक विषयों के पीछे जाना । उसका जीवन मृगमरीचिका की तरह ही है। मरुभूमि की मृगमरीचिका के जैसे ही है, आत्मा से बने यह संसार।
966. साधारणतः कोई एक मनुष्य अपनी मृत्यु को सामने देखते समय जितने बडे दुश्मन सामने आने पर भी उसका अहंकार और घृणा चले जाएँगे। वैसे लोगों को ही ज्ञान को छिपे अहंकार मिटते समय आत्मानुभुति अगले जन्म में होगी। लेकिन रावण के जैसे ज्ञान रूपी आत्मा रूपी राम के नियंत्रण बंधन में न आये अहंकारी को मृत्यु में भी अहंकार न तजनेवालों को आत्मबोध न होगा।
967. जन्मांत्र वासनाओं को इस जन्म में जो अपने ज्ञान से मिटा सकता है, वही इस जन्म में जीव मुक्ति पा सकता है।
968. जो गलत कर सकता है, वह गलत को सही भी कर सकता है। वह गलत से बचने से असमर्थ होने से सही नहीं कर सकता। गलत और सही जन्मांतर वासनानाओं की प्रेरणा ही है। अर्थात् दुर्वासनाओं से बनी खबरें कठोर दुख को देते समय ही वह सुविचार और सुचिंतन में लगेगा। सत् चिंतन बढते समय ही मनुष्य आत्मविचार करेगा। आत्म विचार के बढते ही सभी वासनाएँ मिटेंगी। तभी वह मोक्ष का अधिकारी बनेगा।
969.आत्मा को स्वरूप विस्मृति होने से ही यह संसार और शरीर बनता है। जीवात्मा समाधि स्थिति में लेकर अखंड बोध स्वरूप को एहसास करते समय शरीर और संसार स्वप्न बन जाते हैं। अर्थात् वासनाओं का जीव सुसुप्ति में छिपते समय वासना रहित जीव निर्विकल्प समाधि में छिप जाता है।
970. स्वप्न में देखनेवाले अनुभवों को,वासनाओं को एहसास होते समय जितनी शक्ति होती है, उतनी ही शक्ति हमारी जन्मांत्र वासनाओं को होती है। अर्थात् कोई शक्ति नहीं होती।
971. स्वप्न में आत्मा जैसे स्वप्न लोक में जीने का प्रयत्न करती है, वैसे ही इस सांसारिक जीवन में जीने का प्रयत्न करता है। स्वप्न में जीव सोचता है कि बोध पूर्ण जीवन जीता है। पर यथार्थ जीवन में आने के बाद ही उसको मालूम होता है कि वह अबोध स्वप्न लोक में जी रही थी। वैसे ही जागृत अवस्था में जीवन बोध पूर्ण -सा लगता है। पर पूर्ण बोध में नहीं है। इस शरीर से बचकर अहमात्मा को मनुष्य एहसास करते समय ही यह सच्चाई मालूम होती है कि यह संसार और शरीर अबोध में और स्वप्न में मात्र बने हैं।
972. जो सृष्टि नहीं है,जो अहंकार नहीं है ,वही प्रयत्न है। कारण आत्मा निष्क्रिय, निश्चल ,निर्मल,निस्संग और सर्वव्यापी होती है।
973. “ मैं “ सत्य होने से मुझे नाश नहीं होगा। मरते समय यह प्रकट होता है कि अब तक लगे मैं का शरीर मिथ्या है। शरीर के लिए साक्षी अखंड ज्ञान बोध मात्र ही सत्य है। हम अब तक देखे,सुने,भोगे सब अनुभव “ मैं “ के मिथ्या घमंड की कल्पना मात्र है। वह एक स्वप्न ही है।
974. किसी एक को नियंत्रण में लाना है तो एक मात्र उपाय है उसकी चाह और माँग को स्वीकार करना। उसके बाद ही समझाना है कि भला क्या है? बुरा क्या है? हानियाँ क्या है? सत्य-असत्य क्या है?
975. चित्रपट के निर्देशक की आज्ञा के अनुसार ही नायक खलनायक के सैकडों दुश्मनों को अकेले ही सामना करके विजय प्राप्त करता है।वैसे ही ईश्वर की आज्ञा से ही जितने अधिक विरोध आने पर भी इस संसार में एक व्यक्ति महान बनता है। अपनी अंतरात्मा के ब्रह्म अपनी शक्ति माया के द्वारा निस्संग दिखानेवाला इंद्रजाल में ही सृष्टि होती है। ईश्वर को ईश्वर के सिवा अन्य एक सृष्टि नही कर सकते। कारण इत्र-तत्र- सर्वत्र सर्वव्यापी ईश्वर मात्र हैं।
976.जिसमें आत्म तत्व निश्चित नहीं है,उसके यहाँ ईश्वर सीधे आकर मदद माँगने पर भी मनुष्य अपनी स्वार्थता के कारण मन मदद न करने के कारण माया की अपू्र्व शक्ति ही है। अर्थात ब्रह्म स्वयं शरीर स्वीकार कर, स्मरण मात्र में शरीर मिटा सकता है। लेकिन मनुष्य के हृदय में भगवान होने पर भी प्रतिबिंब जीव को स्वयं शरीर धारण नहीं कर सकता। जीव स्वयं शरीर धारण करके ही आया है। लेकिन उसको इसका स्मरण नहीं है। उसके लिए अखंड बोध दशा पानी चाहिए।
977.प्रणवोपासक का जीवन पवित्र होता है। उसके पास जानेवाले को पवित्र जीवन मिलेगा। प्रणव मंत्र के बराबर अन्य मंत्र कोई नहीं है। वह ब्रह्म मंत्र है। उसकी लहरें ही यह प्रपंच है।
978.मंदिर जैसे पवित्र स्थानों को जाते समय, महानों की बातों को सुनते समय ध्यान पीठों पर बैठते समय मन शांति पाते हैं, बार बार वहाँ जाकर शांति पाने मन चाहता है। कारण वे अपनी अहमात्मा को शांति का एहसास कराते हैं। लेकिन वहाँ से निकलते ही शांति भंग हो जाती है। क्योंकि विषय वासनाएँ मिटती नहीं है।उनको मिटाने के लिए निरंतर सत्संग पर्याप्त है।
979.मंदिर का घंटा बजते समय,दीपाराधना के दर्शन करते समय चंदन,कुंकुम,विभूति का सुगंध सूँघते समय, बाहर का मन अंदर आकर निज स्वरूप आत्मा से मिलकर शांति उमडकर आने को शरीर अनुभव करते समय उसे एहसास करने मंदिर एक कारण होता है।वही मंदिर का मुख्यत्व होता है। तब तक मंदिर की आवश्यक्ता है, जब शरीर को ही मंदिर बनाकर हृदयेश्वर ही स्वयं का एहसास करते हैं।
980.अपनी अहमात्मा का यथार्थ स्वरूप अपरिछिन्न,सच्चिदानंद,परिपूर्ण .केवल कैवल्य स्वूरूप ही है। उसे सीमित शरीर रूप,मन,बुद्धि से समझ सकते हैं। कारण पंचेंद्रिय मन,प्राण,आत्मा के निकट जाते समय सूर्य के सामने के बरफ़ के समान नदारद हो जाएगा। अर्थात् नामरूपात्मक शरीर और संसार त्रिकालों में नहीं है जैसे दिखानेवाली ईश्वरीय शक्ति “माया “ संकल्प स्वरूप है।लेकिन इसमें सब में सर्वांतर्यामी ,सर्वव्यापी,सर्वस्व,निस्संग,निर्विकार,एक रस ,एक ,अरूप, स्वरूप है।
981.समुद्र के बुलबुले की खोज करने की आवश्यक्ता समुद्र को नहीं है।वैसे ही अनादि अखंडबोध आत्मा को इस संसार को जानने,समझने,तजने के प्रयत्न की आवश्यक्ता नहीं है। यही सत्य पवित्र ज्ञान है।
982. मन किसी को, कैसे,किसी भी प्रकार चाहने पर भी वह बंधन ही है। किसी को न चाहना ही मोक्ष है।
983. भावना जैसा ही भाव होता है। इसीलिए बंधनस्थ विचारवाले बंधनस्थ बनता है। स्वतंत्र विचार वाले स्वतंत्र बनता है। वह सोच दृढ होना चाहिए।
984. जो अपने अहमात्मा को मात्र प्यार करता है,
उसको संसार के सभी जीव जाल समीप जाकर वंदना करेंगे। क्योंकि अपनी अहमात्मा ही सभी जीव जालों में होती है। उसी समय आत्मतत्व में अनिश्चित घमंडी के समीप जाकर कोई भी वंदना न करेंगे।
985.आत्म ज्ञान पाकर निर्मलानंद स्वरूप बोध ही “मै” हूँ को समझना है तो आत्मानुभूति को अनुभव करना चाहिए।उसे साधारण लोग रति क्रीडा में,योगी समाधि स्थिति में अनुभव करते हैं। रति सुख स्वभावाधिक और समाधि निरूपाधिक होता है। स्वभावाधिक से निरूपाधिक समाधि में अनुभव करनेवला सुख ही आत्मा का स्वभाविक आनंद होता है। स्वापाधिक सुख अल्प है तो निरूपाधिक सुख दीर्घ होता है। उस अनुभव के स्मरण से मैं यथार्थ में आनंद स्वरूप परमात्मा है को आतमज्ञान से पूर्ण रूप से एहसास करते समय ही शारीरिक सांसारिक भ्रम बिलकुल छूट जाएगा।
986.माया भ्रम के कारण ही नित्य रूपी आत्मा बंधनस्त जीव के रूप में दुखी होता है। भ्रम से बचने के लिए सांसारिक सुखों से ज्यादा सुख आत्मा से मिलना चाहिए।
उसके लिए जानना चाहिए कि योग समाधि ही नित्य सुख देगी। योग समाधि सुख मिलते तक भ्रम लगातार रहेगा। अर्थात निष्काम कर्म योग से ,भक्ति योग से राजयोग से ज्ञानयोग से मार्ग जो भी हो,अखंड बोध सत्य ही “मैं” का एहसास करते समय परमात्मा के स्वभाव परमानंद स्थिति को पा सकते हैं।
987.जो शांति चाहते हैं,उनको शांति को बिगाडनेवाले नियंत्रण और कर्तव्यों में लगना नहीं चाहिए।
988. अपनी अपनी वेदनाएँ सिवा अपने के दूसरे समझ न पाएँगे। यह सोचना नहीं चाहिए कि दूसरे समझना चाहिए।उसी को अपनी वेदना दूसरों को समझना चाहिए का विचार नहीं आएगा,जो अपने चित्त संकल्प रहता है,वह चित्त अपने से अलग नहीं है। कारण अपने के बिना दूसरा एक नहीं है। “ स्वयं ही सर्वस्व है। आत्मबोध होने से ही सभी ब्रह्मांड होते हैं। वह नहीं तो ब्रह्मांड नहीं है।
989.आत्मज्ञानियों को अपमानित करना,उनसे ईर्ष्या होना, आदि से उनका अहंकार मिटेगा ही। उन पर प्रभाव न डालेगा। कारण उनसे भी आत्मज्ञानी आत्मा को ही देखेंगे।
990.प्रेम आत्म बोध से देह बोध में आकर फिर आत्मबोध की ओर जाने की अनुमति न मिलने के संदर्भ परिस्थिति में ही प्रेम को चिंतित करता है। प्रेम केवल प्रेम के लिए है।प्रेम स्वयं बनकर मिटने से ही पूर्ण होता है। प्रेम में किसी भी प्रकार की प्रतीक्षा नहीं है।
991. सर्वत्र मिलनेवाला ज्ञान अपने अहमात्मा से ही मिलता है। जो इस बात को जानता है, वह जान सकता है कि बाहर का प्रकाश ,अंतर का प्रकाश ही है।
992. अखंड बोध स्वरूप ही आत्मा है। वह अरूप असीमित ज्ञान का रूप है।
993.मन एक भूत होने से मन में आनेवाली भूत कल्पनाओं को मुख्यत्व देने की आवश्यक्ता नहीं है। उसे जानने के लिए निश्चल, सर्वस्व सर्वव्यापी आत्मा में कोई चलन न होगा। चलन होने के दृश्य को मन ही बनाता है। मन माया है।वह तीन कालौं में नहीं रहता,जब मनुष्य को यह ज्ञान होता है ,तब वह मानसिक दुख से मुक्त होगा।
994. आत्मा और मन ही “ मैं “ और मेरे देखने का संसार है। मैं और मेरे मन के सिवा और कोई कहीं भी और कभी भी नहीं है।इसलिए कर्तव्य और जिम्मेदारी नहीं होगी।
चित्त के नाश के साथ कर्तव्य भी मिट जाता है। चित्त जड है। वह माया चित्त संकल्प से ही यह शरीर और संसार है। इस शरीर का आधार बोध ही “मैं” नामक सत्य है।
995. आत्म विचार बल होते समय यादें शक्तिहीन हो जाती हैं। पिंजडे में तोता बंद हो जाने के जैसे मन आत्मा में समा हो जाता है।तब शुद्ध बोध स्थिर खडा रहता है। उस समय मन अपने इर्द-गिर्द में होनेवाले चलन को जानकर भी उसे ग्रहण करने की शक्ति खोकर आत्मा में मिश्रित हो जाता है।
996. पंचेंद्रियों और मन को नियंत्रण में लाकर अहंकार मिटाकर आत्मा का एहसास करने के लिए किसी भी प्रकार की प्रतीक्षा किये बिना कर्म करनेवाला ही यथार्थ कर्मयोगी होता है।
997. आत्म बोध सर्वत्र विस्तृत है। उसे समझाने और एक नहीं है। इसलिए उसे एहसास किये योगी मौन मुनि हो जाता है।
998.शरीर और मन को पार करके बोध से बोध में खडे होकर अबोध को न जाकर जीव जीव भाव मिटे अखंड बोध ही सभी सिद्धियों का मूल है। वह अखंडबोध ही
“ मैं” की ज्ञान दृढता ही आत्म सिद्धि का लक्षण है। जिसमें इस ज्ञान की दृढता है, उसी को नित्यानंद होगा। स्थिर रहना ही बहुत बडी सिद्धि है। उसका फल परमनंद ही है।
999.सूक्ष्म शरीर और सूक्ष्म आत्मा को जाननेवाला ही सूक्ष्म ज्ञानी है।उनको मन नहीं होता। कारण वह समझता है कि आत्मा रूपी उसके बिना दूसरा एक नहीं है।
1000.जिसका मन अंतरात्मा के महत्व को जानता है,वह अपने को छोडकर अन्य विषयों में न लगेगा।
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