4001. मनुष्य दो तरह के होते हैें। एक संसार को बोध्य करके जीनेवाले, दूसरे ब्रह्म को बोध्य करके जीनेवाले। आत्मा को बोध्य करके जीनेवाले अनश्वर होते हैं, अहंकार को बोध्य करके जीनेवाले नश्वर होते हैं। कारण जो पैदा होते हैं,वह सोच नहीं सकता कि दृश्य वस्तुएँ सब नहीं हैं। इसलिए वे अपने पंचेंद्रियों से जाननेवाली सब वस्तुओं को सत्य मानकर ही जीते हैं।
यह विचार उसमें होगा कि वस्तुएँ हैं सोचकर जीने पर ही निरंतर सुख का अनुभव कर सकते हैं। कालांतर में उसको मालूम होगा कि सुख देनेवाली विषय वस्तुएँ परिवर्तनशील और नश्वर होती हैं और वे अन्योन्याश्रित होकर ही चमकती हैं।
कालांतर में उन विषय वस्तुओं के खोने के बाद ही विषय सुख चाहक एहसास कर सकता है।
जो जीव सांसारिक विषय नश्वर जान समझ लेता है, वही अनश्वर वस्तुओं की खोज के विचार होंगे।
जिसका मन वैसे विषयों से विरक्ति होकर वैराग्य से अनश्वर वस्तु आत्मा को सीख लेता है.उसमें से अविद्या माया हट जाएगी और विद्या माया उसकी सहायता के लिए आ जाएगी। वैसे ही सत्य की खोज करनेवाला आत्मज्ञानी गुरु के पास जा सकता है। वही अनिर्वचनीय शांति,आनंद अपनी सहज स्वभाव से अनुभव कर सकता है. जो गुरु के वचन के द्वारा,शास्त्र वचन के द्वारा, आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हमारे पूर्वजों के जीवन के अनुभवों को बुद्धि में रखकर युक्ति, विवेक और भावना से ऊहापोह से स्वयं शरीर नहीं है, संसार नहीं है, मैं है का आत्मबोध मात्र बुद्धि में दृढ हो जाता है वैसा न करके दुखों के आने के बाद भी सत्य की खोज न करके, नश्वर विषय सुखों की चाह में लघु सुख काम सुख को विरक्ति के बिना अनुभव करने वाले अविवेकी मूर्ख जन केवल इस जन्म में ही नहीं,अगले जन्म में भी नित्य दुख को भोगकर माया चक्र भँवर में भटकते रहते हैं ।
4002. आत्मा में रमनेवाला कोई अपने सुख के लिए दूसरा कोई उपाधी या स्त्री की आवश्यक्ता नहीं कहते समय स्त्री यह कहती हुई निकट आएगी, स्त्री तुमको आवश्यक्ता नहीं है,पर पुरुष मुझे चाहिए। जो ब्रह्म को लक्ष्य बनाकर जी रहा है,
उसको चाहकर प्रकृतीश्वरी के प्रतिबिंब स्त्रियाँ आएँगी। कारण सभी संकल्पों को तजकर मन को प्राण को सम स्थिति बनाये ब्रह्मचर्य का वीर्य अर्थात् ऊर्जा उसमें ऊर्द्धव मुख से ही संचरण करेगा। वैसे लोगों को ही श्रेयस और प्रेयस रक्षा करेगा।
4003. कोई किसी को जितना आदर देता है, उतना ही अनादर आदर स्वीकार करनेवाले को भोगना पडेगा। सभी व्यवहार के लिए यह द्वैत् भाव प्रकृति की नियति ही है। इसलिए सभी कर्मों में विवेकी निर्विकार रूप में मन को सम स्थिति बनाकर एकात्म बुद्धि लेकर जिएगा। अर्थात् आत्मा को साक्षात्कार किए महात्माओं के शरीरों कई बातों के शरीरें को कई बातों का सामना करना पडेगा। केवल वही नहीं कई प्रकार के रोगों का भी सामना करना पडेगा। उनके शरीर और देखनेवाला शरीर उनको रस्सी में देखनेवाले साँप जैसे अनुभव ही होगा। अर्थात् रस्सी में साँप जैसे तीनों कालों में रहित है, वैसे ही अखंड बोध रूपी अपने में दीख पडनेवाले अपने शरीर और संसार के लिए है का अनुभव ही होगा। यह शास्त्र सत्य सही रूप में एहसास करनेवाले ही एहसास कर सकते हैं। उसे न समझनेवाले अविवेकी ही मन में वेदनाओं के साथ समाधिि बन जाती है। उसे जानना है तो शास्त्र सत्य को जानना चाहिए। शास्त्र सत्य जानना यथार्थ में कष्ट नहीं है। वह अति सरल है। कारण वह कई हजार सालों के पहले ऋषियों के आविष्कार वेदांत सार ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या ही है। वही शास्त्र सत्य है। उस शास्त्र सत्य को उसी अर्थ में लेते समय ही, एहसास कर सकते हैं कि सर्वत्र ब्रह्म होते हैं, उसका स्वभाव परमानंद है। जगत जड है,वह त्रिकालों में रहित है। सर्वत्र व्यापित मैं रूपी ब्रह्म से दूसरा एक जग या शरीर नहीं हो सकता। इसलिए शरीर या जग विषय
जिसमें ब्रह्म बोध है,उसपर असर नहीं डालता। ब्रह्म रूपी स्वयं को जन्म-मृत्यु नहीं होता। वह स्वयंभू है,स्वयं है। वही पूर्ण वस्तु है। पूर्ण वस्तु का स्वभाव ही परमानंद होता है। वैसे अपने स्वरूप ही परमानंद होते समय मन और शरीर न होने से दूसरा एक स्मरण कभी नहीं होगा। एक रूपी मैं रूपी अखंडबोध ब्रह्म मात्र ही नित्य सत्य आनंद रूप में होता है।
4004. समुद्र का पानी जैसे खारा होता है,फूल में जैसे सुगंध होता है, वैसे ही ब्रह्म में चलन शक्ति रूप में माया होती है। अर्थात् ब्रह्म का सर्वव्यापकत्व, निश्चलनत्व, निर्विकार अपरिवर्तनशील निश्चल ब्रह्म चलन शक्ति रूप में ही बाहर आता है। वह चलन शक्ति बनाकर दिखानेवाले लीला विलास ही यह शरीर सहित चौदह लोक होते हैं। उदाहरण स्वरूप रस्सी का साँप रस्सी से भिन्न नहीं है। जिसने साँप में रस्सी नहीं देखा, उसी को साँप मात्र वहाँ है। लेकिन साँप तीन कालों में रहित ही है।
अर्थात् शरीर और संसार रस्सी में साँप जैसे तीनों कालों में रहित ही है। रस्सी का साँप रस्सी जैसे तीनों कालों में रहित है। इसलिए शरीर और संसार ब्रह्म ही है। शरीर और संसार में जिसने ब्रह्म के दर्शन नहीं किए उसी को शरीर और संसार साँप ही लगता है। ब्रह्म में दीख पडनेवाले शरीर और संसार ब्रह्म ही है। ब्रह्म से भिन्न दूसरा एक संसार या शरीर किसी भी काल में नहीं है। ब्रह्म मात्र ही है। सभी विवेकी को मालूम है कि ब्रह्म सर्वत्र विद्यमान है। यह भी मालूम है कि ईश्वर से जुडे बिना दूसरा एक न बनेगा। वही बुद्धि जीवी शरीर और संसार को शाश्वत कहना माया ही है। जो कोई आभूषणों की दूकान में केवल स्वर्ण है का एहसास करता है .वह आभूषणों के नानात्व पर ध्यान न देगा। वह परेशान में न पडेगा। जो कोई स्वर्ण की दूकान में स्वर्ण को न देखकर आभूषणों में नानात्व को देखता है, उसको सोचकर समाप्त करने में कष्ट होगा। वैसे ही जो एहसास करता है कि शरीर और संसार को पूर्ण रूप से ईश्वर ही है, उसको आनंद मात्र ही होगा और परेशानी न होगी।
उसी समय शरीर और संसार में नानत्व देखनेवालों को सत्य न जानने से दुख ही होगा। अर्थात् दो देखनेवालों को दुख होंगे। एक ही देखनेवालों को सुख होगा। सत्य की खोज करनेवाले अपने से ही आरंभ करना चाहिए। स्वयं नहीं तो कुछ भी नहीं है। अपने संकल्प में ही संसार होता है। स्वयं संकल्प न करें तो संसार नहीं है। ऐसा एहसास करनेवाला ही धीर है,ब्रह्मज्ञानी है।वही ब्रह्म है।
4005. जो कोई ईश्वर के स्मरण से सांसारिक जीवन की ओर आ नहीं सकता, सांसारिक बंधन -स्नेह बंधन में जी नहीं सकता, वही भक्त है। वही ज्ञानी है, वही योगी है। वही ब्रह्मचारी है। ब्रह्म स्मरण से न हटकर जो दृढ रहता है,वही ब्रह्मचारी है। वैसे ब्रह्मचारी ही ब्रह्म स्थिति को पा सकते हैं। जिसने ब्रह्म स्थिति प्राप्त किया है,वही परमानंद रूप में रहनेवाला है।
4006. गलत करना प्रकृतीश्वरी की प्रतिबिंब स्त्री ही है। जो कहते हैं कि पुरुष गलत नहीं करेगा,उनको समझना चाहिए कि पुरुष शब्द का अर्थ आत्मा है। सर्वव्यापी आत्मा के सिवा दूसरा एक न होने से स्त्री गलत नहीं कर सकती। अर्थात् नामरूपात्मक चींटी से ब्रह्मा तक सभी रूप, रूपों को देखनेवाला संसार,ईश्वरीय शक्ति माया दिखानेवाले इंद्रजाल दृश्यों के सिवा शाश्वत है। परिवर्तन शील शाश्वत नहीं हो सकता। इसलिए वह माया ही है। अर्थात प्रपंच मिथ्या होने से ही ठीक और गलत करने कोई नहीं है। अर्थात् मैं रूपी आत्मा और अखंडबोध मात्र है। उसका स्वभाव ही परमानंद है। वह आनंद मौन गण अमृत सागर होता है।
4007. सहोदर और सहोदरी का स्नेह साथ जन्म लेना मात्र नहीं है, जाति और मत भेद के बिना सब के साथ एक जैसा होना चाहिए। वैसा व्यवहार वे ही कर सकते हैं, जो आत्म तत्व को जानते हैं और समझते हैं कि सब जीवों में एक ही आत्मा है। कारण सभी पंचभूत एक ही समान ही गतिशील है। जैसे एक ही बिजली सभी बल्बों को जलाती है, वैसे ही एक ही परमात्मा सभी जीवों में आत्मा के रूप में दीख पडता है। शारीरक उपाधियाँ लेकर ही एक रूप आत्मा विभिन्न आत्मा के रूप में दीख पडता है। उपाधि परिवर्तन के साथ परमात्मा एक ही है का एहसास कर सकते हैं। जो नहीं है,वह है सा लगने से ही रूप रहित आत्मा स्वयं को आकार शरीर है सा लगता है। इसलिए है सा लगनेवाले शरीर को विवेक से देखते समय ईश्वरीय शक्ति माया चलन रूपी प्राण ही पंचभूत पिंजडे के शरीर-सा लगता है। इसलिए स्वयं बने निश्चलन आत्मा में कोई चलन किसी भी काल में हो नहीं सकता। यह ज्ञान बुद्धि में दृढ बनते ही शरीक संसार माया भ्रम उपाधि बदलता है।
4008. अनश्वर धर्म शास्त्रों को पालन करनेवालों के संग के द्वारा ही लौकिक मनुष्यों के अधर्म मार्ग पर न जाने से रोककर धर्म के मार्ग पर ले जाकर जीव और संसार में शांति और आनंद के बीज बो सकते हैं। उसी समय अधर्म मार्ग के पालन करनेवाले संगों के जीवों को और संसार को भला नहीं कर सकते। अर्थात् अनश्वर धर्मशास्त्र अद्वैत रूपी आत्मज्ञान ही है। जिनमें भेद दर्शन है, वे सीख नहीं सकते। उसको पाने पर भी कार्यान्वित नहीं कर सकते। कारण वह पूर्णतः पवित्र है। वह पूर्ण वस्तु से बना है। संपूर्ण वस्तु का स्वभाव ही परमानंद और अनिर्वचनीय शांति है। आत्मज्ञान पूर्ण रूप में अद्वैत होता है। अद्वैत् ज्ञान की महिमा और शांति ही संसार के देशों को भारत की ओर ले आता है । अद्वैत् ज्ञान का आत्मज्ञान भारत माता का खजाना है। वह खजाना ही सनातन वेद है। सनातन वेद बोधाभिन्न जगत का ज्ञान ही देता है।वह ज्ञान ही सभी दुखों से सभी जीवों को मुक्त करेगा।
4009. रिश्तेदारों के आसक्ति तजकर सांसारिक प्रेम से जीवों के लिए परिश्रम करनेनालों को शासक बनाना चाहिए। तभी देश को और गृह को शांति पूर्ण जीवन मिलेगा। कुछ लोगों के त्याग से ही अनेक करोड लोगों को और देश को कल्याण होगा। शासन में अधर्म बढते समय धर्मानुयायी शासक होना प्रकृति की योजना है। धर्म-अधर्म, भला-बुरा, ज्ञान-अज्ञान, माया और आत्मा आदि में सफल और असफल का संघर्ष अनादी काल से चलते रहते हैं। भारतीय तत्व चिंतन के अनुसार,अर्थात् वेदांत तत्व के अनुसार अद्वैत ब्रह्म एक मात्र ही नित्य सत्य रूप में है। वही स्वयं की अनुभूति होती है। इसलिए है या नहीं है-नहीं का वाद-विवाद अद्वैत् में नहीं है। कारण मैं है के अनुभव की वस्तु मात्र ही सत्य है। वही अहंकार है। अहं मात्र ही है। इस अद्वैत् बोध स्थिति के अनुसार यह प्रपंच घास-लता के समान निस्सार है। क्योंकि स्वयं के संकल्प के बिना एक ब्रह्मांड नहीं बनेगा। संकल्प करने,संकल्प न करने की क्षमता बोध को है। बोध संकल्प न करने के साथ ब्रह्मांड मिट जाता है। मैं रूपी अखंडबोध मात्र सर्व व्यापी परमानंद नित्य सत्य रूप में स्थिर खडा रहेगा।
4010. मनुष्य के जन्म लेते ही अपने को असहाय एहसास करता है। जीवन यात्रा करने निर्बंधित् होने से उसको बंधन में लाने दूसरी शक्ति जो भी हो , उसकी स्तुति करने मात्र से कुशल रहेगा। इस बात को जान-समझकर दृढता से कर्म करना चाहिए। अर्थात् मनुष्य को नियंत्रण में लाने की शक्ति मैं रूपी आत्मा रूपी अखंड बोध ही है। इस बात के अनभिज्ञ लोग अविवेकी जीवात्माएँ ही इस बात पर विश्वास रखकर जी रहे हैं कि मैं शरीर से बना हूँ। मेरे अपने कर्तव्य होते हैं।शादी करके वंशवृद्धि करके जीवन बिताना ही यथार्थ जीवन है।लेकिन विश्व का इतिहास यही है कि जब यह संसार बना है,तब से सांसारिक पारीवारिक जीवन बितानेवाले सभी जीात्माएँ असंख्य दुख और कष्टों को झेलकर कर्म बंधनों में फँसकर तडपकर चल बसे।उसके कारण यही है कि नश्वर शरीर और नश्वर जग को अनश्वर मानना और सोचना ही है। यथार्थ में शरीर और संसार ईश्वरीय शक्ति अर्थात् मै रूपी अखंडबोध शक्ति बनानेवाले एक इंद्रजाल मात्र ही है। लेकिन किसी एक काल में कोई एक जीव ही सत्य को जानने की कोशिश करेगा। वैसे अनेक हज़ार लोगों में कोई एक ही संपूर्ण रूप में जानने की कोशिश करेगा। औरों से परमात्मा को जान नहीं सकता। जो कोई परमत्मा को पूर्ण रूप से साक्षात्कार करता है, वही परमात्मा होता है। आत्मा ही आत्मा को जान सकता है। अर्थात् परमात्मा एक ही है। वह परमात्मा सर्वव्यापी होने से दूसरा कोई सर्वव्यापी हो नहीं सकता। जो कोई स्वयं परमात्मा ही है को संपूर्ण रूप में साक्षात्कार करता है, उस परमात्मा में ही परमात्मा शक्ति माया देवी प्रपंच रूपी नाम रूप दृश्यों को बनाकर दर्शाता है। वे तीनों कालों में रहित ही है। कारण जो है,वह नाश नहीं होगा। जो नहीं है, वह बन नहीं सकता। आत्मज्ञानी ही इसकी यथार्थ स्थिति को समझ सकता है।
4011. लौकिक विषय भोगों को भोगकर सांसारिक जीवन चलानेववालों को शरीर को गतिशील बनानेवाले जीवों के बारे में मालूम नहीं है। इसीलिए संसार में जीकर प्राण की ओर यात्रा करनेवालों के जीवन की रीतियों को देखकर संसार को लक्ष्य बनाकर जीनेवाले हँसी उडाते हैं। इसलिए संसार को मुख्यत्व देनेवाले जीव के बारे में जीव को मुख्यत्व देनेवाले संसार के बारे में जो ज्ञान है, उनको ढंग से सीखने पर सब लोग समरस सन्मार्ग जीवन बिता सकते हैं। तभी परस्पर दुख रहित रहेंगे। इसलिए सांसारिक जीवन जीनेवालों को जानना -समझना चाहिए कि इस ब्रह्मांड बनने के बारे में अर्थात उत्पत्ति के बारे में इस संसार में कोई जान नहीं सकता। इस संसार के लिए कोई युक्ति नहीं हो सकती। वह नहीं के बराबर है। इसलिए
संसार की ओर यात्रा करनेवाले सब के सब दुख से मुक्ति पा नहीं सकते। कारण जड संसार को स्वत्व नहीं है। वह स्वयं ही नहीं है। इसलिए उसमें मन रखनेवाले को दुख ही देता है। उसी समय पूर्णत्व की एक वस्तु आत्मा मात्र ही है।पूर्ण वस्तु का स्वभाव मात्र ही परमानंद है। वह किसी से आश्रित नहीं है। वह स्वयं ही स्थिर ही है। इसीलिए जीव की ओर यात्रा करनेवालों को सदा आनंद होता है। जो दुख विमोचन की इच्छा रखते हैं, उनको आत्मा क्या है ? की खोज करके जानना और समझना चाहिए। आत्मा क्या है को जानने को शुरु करते ही वह जीवन दुख से मात्र ही नहीं, सभी दुखों से बाहर आ सकते हैं। आत्मा को पूर्ण रूप से साक्षात्कार करनेवाला ही भगवान है। अर्थात् एक रूप समुद्र में अनेक हज़ार बुलबुले होने के जैसे ही सर्वव्यापी एकात्मा परमात्मा में से अनेक जीव उत्पन्न होने के जैसे लगते हैं। अर्थात् एक एक बुलबुल टूटते समय समु्र एक रूप में ही होता है। कोई इस बात को प्रमाणित नहीं कर सकते हैं कि समुद्र से बने बुलबुल समुद्र के किस स्थान से आये हैं.
और किस स्थान में मिट जाते हैं। इसलिए बुलबुल होने की युक्ति को खोजकर जाने पर जीवन बेकार ही जाएगा। बुलबुला नाम रूप का निवासस्थान को देख नहीं सकते। वैसे ही संसार के सभी जीव के शरीर अखंडबोध ब्रह्म से बनकर स्थिर रहकर स्वत्व रहित मिट जाते हैं। अर्थात् समुद्र में बने बुलबुले नाम रूप स्वत्व न होने से नाम रूप माया ही है। वैसे ही हमें जानने की कोई युक्ति नहीं है कि यह शरीर और संसार कब बना है। कब और कैसे मिटेगा? जिसमें युक्ति नही है,वे सब नश्वर नहीं है। जो इस बात का एहसास करते हैं, उनको मैं रूपी आत्मबोध के स्वभाविक परमानंद और शांति स्वतः मिलेगा। तब शांति और परमानंद भोगकर वैसा ही हो सकता है।
4012. परिपूर्ण आत्मज्ञान स्थिति को प्राप्त एक गुरु, ज्ञान वैराग्य के लिए आये शिष्य को आत्मज्ञान उपदेश देते समय कालांतर में शिष्य का जीव भाव पूर्ण रूप से मिटने के साथ ही, गुरु रूपी अखंडबोध मात्र स्थिर खडा रहेगा। गुरु सशरीर रहने पर भी गुरु और शरीर के बीच आपस में कोई संबंध नहीं है। अर्थात् अखंडबोध परमात्मा माया शरीर स्वीकार करके अपनी सृष्टि के जीवों को समझाने के लिए ही गुरु के रूप में आते हैं। अर्थात् वास्तव में अखंडबोध परमात्मा ब्रह्म ,सृष्टि नहीं कर सकता। सृष्टि, सृष्टि में जीव, गुरु-शिष्य सब अपनी शक्ति माया बनाकर दिखानेवाले एक इंद्रजाल नाटक ही है। अर्थात्
मैं रूपी अखंडबोध ही एक मात्र परमानंद के साथ स्थिर खडा रहता है। यही सत्य है।
4013. भगवद्गीता में श्रीकृष्ण भगवान ने शरीर को क्षेत्र और आत्मा को क्षेत्रज्ञ कहा हैं। अर्थात् क्षेत्रज्ञ रूपी और आत्मा रूपी मैं जन्म मृत्यु रहित परमात्मा हूँ। परमात्मा रूपी मैं नित्य,शाश्वत, निश्चल हूँ। केवल वही नहीं,परमात्मा रूपी अपने को उत्पत्ति,सच्चाई, विकास, परिवर्तन,जय-पराजय न होगा। वह परमात्मा स्वयं ही सभी जीवों में जीवात्मा के रूप में है। अर्जुन जीवात्मा है। श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा है कि मेरी माया ने ही इस संसार को और जीवों की सृष्टि की है। इस माया को जीतना अति कठिन कार्य है। यह भी कहा गया है कि श्रीकृष्ण भगवान को मात्र सोचकर और किसी विषय के संग में न रहकर जो शरणागति तत्व को अपनाता है ,वह मैं ही हूँ, मुझे तजकर वह नहीं. उसे छोडकर मै नहीं है। अर्थात् अर्जुन रूपी जीव, जिस दिन कृष्ण परमात्मा को मात्र सोचता है, साथ ही जीव भाव ओझल हो जाता है। जीव भाव के छिपते ही अर्जुन या कृष्ण के भेदभाव भी मिट जाता है। परमात्मा मात्र ही नित्य सत्य रूप में शाश्वत खडा रहता है। अर्थात् उसका जीवभाव आत्मविचार अग्नि में जलने के साथ ही जीवात्मा -परमत्मा भेद रहित हो जाता है। वास्तव में परमात्मा जीवात्मा या जीवात्मा परमात्मा के रूप में न बना सकते। सर्वव्यापी परमात्म सागर में स्वयं उमडकर दीखनेवाले नाम रूप ही चींटी से लेकर ब्रह्मा तक के सभी नाम रूप होते हैं। परमात्मा को छोडकर नामरूप एक नयी वस्तु को बनाते नहीं है। नामरूप नश्वर और माया होते हैं। परमात्मा रूपी मैं, मैं रूपी अखंडबोध मात्र नित्य सत्य रूप में होते है। जो जीव अपनी आत्मा को पूर्ण रूप से साक्षात करता है,वही कृष्ण है। उस परमात्मा का स्वभाव ही परमानंद है। वह नित्य आनंद है।
4014. ‘मैं” ही सभी समस्याओं के कारण रूप होता है।मैं नहीं है तो कोई भी समस्या न होगी। अहंकार रूपी मैं है,वही समस्या है। जब अहंकार रूपी मैं कौन है की खोज करते समय एहसास कर सकते हैं कि है के अनुभव को बनानेवाले आत्मा रूपी अखंडबोध ही यथार्थ मैं होता है। मैं रूपी अखंडबोध का स्वभाव ही परमानंद है। परमानंद स्वरूपी अपने को अकारण ही अपनी शक्ति शुद्ध शून्य रूप में दीखनेवाले आकाश से आकर अपने को छिपा देने से उस छिपे आकाश से त्रिपुटी उदय होकर आता है। त्रिपुटि का अर्थ है कि ज्ञाता,ज्ञेय और ज्ञान के एक साथ प्रकट होनेवाले ज्ञानोदय। उस त्रिपुटी के गुना ही इस ब्रह्मांड के रूप में बदल गया है। अर्थात् अपनी शक्ति माया अपने को छिपाने के लिए रोज़ नये नये रूपों को बनाकर ही इन ब्रह्मांडों को बनाया है। सब में दृष्टा,दृश्य और दृष्टि होते हैं। अर्थात् देखनेवाला, देखने की वस्तु, देखने की क्षमता आदि। जो देखता -जानता है, उससे भिन्न नहीं है दृश्य और दृष्टि। अर्थात् बुद्धि के बिना कुछ भी नहीं है।इस त्रिटी में दो मायाएँ हैं। 1. अज्ञान माया 2. ज्ञान माया। अज्ञान माया जीव को अनेक रूप दृश्यों से भ्रमित करती है। ज्ञान माया यह बुद्धि देती है कि कोई भी अनेक नहीं है, सब कुछ एक ही है। जो कोई सत्य साक्षात्कार के लिए मन से चाहता है, तब उनके संकल्प स्वयं मिट जाएँगे। जब संकल्प मिट जाते हैं, तब मन सम दशा पाएगा। जिसके मन समदशा पर पहुँचता है, वह अनिर्वचनीय शांति का अनुभव करेगा। पूर्णिमा चंद्र के समान शीतल सुख का अनुभव करने लगेगा। उसकी उच्चतम स्थति ही परमानंद है।
4015. अज्ञान रूपी जंग भरे पंचेंद्रियों को, अंतःकरणों को अहमात्मा अपनी ओर न मुग्ध करेगा। सत्व गुण से पवित्र बने पंचेंद्रियों को, अंतःकरणों को ही अहमात्मा अपनी ओर खींच लेगा। कारण राग द्वेषों से कलंकित मन राग-द्वेष से मिटकर जब पवित्र बनता है, तभी आत्मा अपने आनंद को प्रकट करेगा। जो कोई मन से दुख विमोचन चाहता है, तभी आत्मज्ञान उसके मन में उदय होगा। आत्म स्मरण होने के साथ,आत्मा पर पर्दा डालनेवाले माया गुण मिटेंगे। साथ ही अंतःकरण शुद्ध होंगे। जब पवित्र अंतःकरण में आत्मा प्रकाशित होती है, तभी निस्वार्थता से देश,राज्य और संसार के कल्याण कार्य कर सकते हैं।
4016. वैद्य,चिकित्सक ने वचन दिया है कि उसको कोई रोग नहीं है,स्वस्थ है, पर डाक्टर के वचन के विपरीत वह अचानक मर जाता है। तभी मानव को विवश होकर विश्वास करना पडेगा कि मनुष्य और डाक्टर के ऊपर एक अमानुष्य शक्ति है। वह शक्ति ही मैं रूपी अखंड बोध होती है। इस मैं रूपी अखंड बोध को अपनी शक्ति माया के छिपाने से ही प्रतिबिंब बोध जीवात्मा बनती है। उस जीव को ही जो शरीर और संसार नहीं है, वह है सा लगता है। वैसा लगना वासना में बदलकर ही शारीरिक अभिमान का अधिकार दृढ बनता है। वह अहंकार अज्ञानांधकार होने से सत्य को न पहचानकर जीव दुख झेलता है। जो जीव गहरे दिल से प्रकृतीश्वरी से प्रार्थना करता है कि सिवा प्रकृतीश्वरी के और कोई शक्ति मुझे दुख से विमोचन नहीं कर सकती,उसको महामाया देवी सत्य का द्वार खोल देगी। जो जीव वैसे सत्य द्वार खुला पाता है, वही अपने यथार्थ स्वरूप मैं रूपी बोध रूप परमात्मा के दर्शन और साक्षात्कार पुनःप्राप्त होगा। तभी अपने स्वभाव अर्थात् परमात्म स्वभाव परमानंद को निरुपाधिक रूप में भोगकर वैसा ही रह सकता है।
4017.बिजली से आश्रित होकर ही बल्ब जलता है। बिजली रहित बल्ब जहाँ रहता है, वह स्थान रात में अंधकार मय रहेगा। वहाँ बल्ब होने पर भी कोई प्रयोजन नहीं है। वैसे ही जीवन रूपी अंधकार में आत्मबोध रहित शरीर अभिमान और अहंकार से भरे जीव अज्ञान अंधकार में रहकर मार्ग न जानकर जीवन में फँसकर तडपते हैं। वैसे लोग ही स्वात्मा के प्रकाश न जानकर अर्थात् आत्मबोध रहित जीवन को व्यर्थ बनाकर सत्य न जानकर पुनर्जन्म के लिए बीज बोकर मर जाते हैं।इसलिए जीवन में आजीवन मन स्वयं प्रकाश स्वरूप आत्मा से मिलकर अर्थात् आत्म बोध के साथ कर्म करनेवालों को कोई दुख न होगा। कारण वह जहाँ भी जाता है,वहाँ आत्मा के प्रकाश होने से मार्ग पर कोई बाधा न होगी। इसलिए वह श्रेष्ठ जीवन बिता सकता है। अर्थात् पूर्व पुण्य या इस जन्म का पुण्य या गुरुपदेश या सत्य की खोज करनेवालों को ही आत्मबोध के साथ जीवन बिता सकता है। जो वैसा नहीं है, वे अहं बोध में ही जीवन बिताते हैं। अहं बोध में जीवन बितानेवालों को दुख ही होगा। आत्मबोध में जीवन बितानेवालों को दुख नहीं होगा। वे सब में शांत ही रहेंगे। जैसे भी जीवन जीने पर भी अनश्वर में मन रखनेवालों को ही आनंद होगा।
4018. अपने इच्छुक लोगों के साथ जीने से अपने को चाहनेवालों के साथ जीनेवालों का जीवन ही श्रेष्ठ रहेगा। स्वयं प्यार करनेवालों के साथ जीने से अपने से प्यार करनेवालों के साथ जीने की इच्छा होनी चाहिए, उसके लिए विवेक और बुद्धि होनी चाहिए। नहीं तो मन की इच्छा के अनुसार अपने से प्यार करनेवालों को छोडकर जिससे मन प्यार करते हैं,उनके इनकार करने पर जवानी चली जाएगी। इसलिए वही सुखी जीवन बिता सकता है, जो स्वस्थ रहते समय बुद्धि और विवेक से कार्य करता है। जो मन का आदर नहीं करता, वह आत्मा का आदर करता है। जो आत्मा का आदर करके जीता है, वही आत्मबोध प्राप्त व्यक्ति है। जिसमें आत्मबोध है, वह जानता है कि सुख का स्थान आत्मा है। जो मनमाना जीते हैं, वे शारीरिक अहंकार में ही चलेंगे। अहंकार अंधकारमय होता है। अहंकारी को आत्मप्रकाश न होने से किसी भी कार्य में मार्ग न जानकर तडपते रहेंगे। पुरुष को आत्मबोध के साथ जीना है तो अपने से प्यार करनेवालों के साथ जीना चाहिए। जो वैसा नहीं है,उनको आत्मबोध के साथ जीने में बाधा ही होगी। आत्मबोध रहित स्त्री -पुरुष मिलकर जीते समय उनका जीवन घोर अंधकार हो जाएगा। ऐसे दंपति ही हर एक परिवार को नरक तुल्य बनाते हैं। इसलिए जो जिंदगी आनंद पूर्वक जीना चाहते हैं, उन सबको आत्मप्रकाश देनेवाले आत्मज्ञान को पहलै सीखना चाहिए। तभी जीवन को आनंद बना सकते हैं। कारण आत्मा का स्वभाव आनंद मात्र है। केवल वही नहीं आत्मा ही स्वयं प्रकाश स्वरूप है।
4019. शरीर और संसार को मैं रूपी अखंडबोध ब्रह्म से अन्य रूप में न देखकर,
सर्वस्व बोध ब्रह्म के केंद्र से अन्य रूप में न देखकर सबको बोध ब्रह्म केंद्र के ज्ञान की दृढता प्राप्त मनुष्य के वचन और कार्य एक जैसे कार्यान्वित करने से उसका शरीर, मन और प्राण समस्थिति में आएँगी। इसलिए प्राण कोप,मन क्षोभ और गलत शारीरिक मनोभावना आदि न होंगी। मन,प्राण और पचेंद्रियों में सम स्थिति रहित स्थिति न होंगी। वैसे सम स्थिति प्राप्त आदमी ही आनंद से जिएगा। भेद बुद्धि सहित वचन, कर्म एक जैसे न चलनेवालों को ही सभी दुख होंगे। उनके लिए जीवन शांति और आनंद एक स्वप्न जैसा होगा।
4020.परमात्म शक्ति माया से सृष्टित कोई एक जीव अस्वतंत्र बंधन से विमोचन के लिए तडपता है तो वह जीव आगे-पीछे न देखकर सीधे भगवान की ओर ही जाएगा। वैसे लोग अंत में दिव्य स्थिति पर पहुँचेंगे। धन,पद, नाम,प्रसिद्धि चाहनेवाले इस अस्वतंत्र अर्थात् नियंत्रण जीवन की सहजता सोचकर आनंदरहित, संतोष रहित,शांति रहित संकट और समस्याओं में फँसकर भाग्य की प्रतीक्षा में सुख-दुख पूर्ण जीवन को ही सहज मानकर जी रहे हैं। उनके लिए आनंद स्वभाव की आत्मा बहुत दूर हो जाती है। इसलिए नित्यानंद प्राप्त करने मन को जिसमें स्थिर लगाना है,उसी नें लगाना चाहिए। वही परमानंद स्वरूप के परमात्मा होते हैं। वह परमात्मा ही जीव रूपी अपने यथार्थ स्वरूप है। इसका एहसास करके माया लोक में कार्य करते समय ही माया में भी अपने को दर्शन कर सकते हैं। उसका अंत ही आत्मसाक्षात्कार अर्थात् स्वआत्मसाक्षात्कार होता है।
4021. जब तक बोध में उत्पन्न लगनेवाले चराचर प्रपंच बोधा भिन्न है का जीव एहसास नहीं करता, तब तक माया में फँसकर तडपनेवाले काल को ही जीवन कहते हैं। अर्थात जीवन नरक तुल्य होता है। कारण लोकयुक्त सुखभोग सब प्राणियों के होते हैं।लेकिन जिस जीव को मनुष्य शरीर मिला है, वही स्वयं ब्रह्मा है या ईश्वर है का महसूस कर सकता है। उसकी बाधा है, जो नाम रूप ही भेद बुद्धि और रागद्वेष से बने हैं। उस बाधा को मिटाने के लिए मैं ब्रह्म हूँ, मैं अखंड बोध हूँ, मैं भगवान हूँ, मैं परमात्मा हूँ की भावना तैलधारा के जैसे बनता रहा करना चाहिए। जो इस भावना को कष्ट समझते हैं, वे अविवेकी होते हैं।
उनको समझ लेना चाहिए कि जो भोग विषय नहीं है, उसके लिए भावना करने लोरी गाने जीवन को बेकार करनेवाले ज्यादा लोग होते हैं। उसी समय जो अनश्वर शाश्वत है, उसकी भावना करने पर वह सत्य हो जाएगा। उसका नाश नहीं होगा। उसकी भावना के लिए ही विवेक का उपयोग करना चाहिए। और किसी का उपयोग करने पर शांति और आनंद कभी न मिलेगा। इसलिए जो शांति,आनंद,स्वतंत्र,सत्य और प्रेम चाहते हैं, उनको स्वयं ब्रह्म है का दृढ बना लेना चाहिए। साथ ही ब्रह्मानंद भोगकर ब्रह्म ही हो सकते हैं। मैं रूपी अखंडबोध बने ब्रह्म मात्र ही परमानंद स्वभाव के साथ नित्य सत्य रूप मे स्थिर खडा रह सकते हैं।
4022. जिसमें ब्रह्म अवबोध है,उनको अपमान करनेवाले अहंकार जिसमें है,उनको समझना चाहिए कि अपने को कर्म फल ही बना लेते है। क्योंकि ब्रह्म से आश्रित होकर ही अहंकार को स्थायित्व है। नहीं तो अहंकार को स्वत्व नहीं है। आत्मा से अनाश्रित अहंकार बिजली रहित बल्ब के जैसे होता है। जो आत्मबोध रहित अहंबोध मात्र लेकर जीते हैं, उनको शारीरिक दुख होगा। उस शारीरक दुख को ही रोग कहते हैं। वह मानसिक दुख भी देगा। वह मानसिक दुख भी देगा। उस मानसिक दुख को ही आदी कहते हैं। इस आदी और व्याधि के कारण अज्ञान ही है। अज्ञान के बढने पर वह अज्ञानताही इच्छाओं के रूप में बदलता है। वे इच्छाएँ अंत रहित एक के बाद एक आती रहेंगी। आशाएँ निराशा होने पर दुख के कारण बनते हैं। जो आशाएँ पूरी नहीं होती,तब परेशानी होती है। इस मानसिक परेशानियों के कारण जिंदगी दुख पूर्ण होती है। वही आदी है। आदी व्याधि होने के कारण आत्मज्ञान न होना ही है। आत्मज्ञान होने से संदेह दूर होगा। साथ ही नाम रूप प्रपंच जो नहीं है उसको हटाकर आत्मा मैं ही है को एहसास करके उस आत्मा का स्वभाव परमानंद का अनुभव करेगा।
4023. यह संसार कर्म स्वभाव का है। कर्म होने के कारण इच्छा ही है। इच्छा के कारण अज्ञान ही है। अज्ञान के बदलने के साथ इच्छाएँ मिट जाएँगी। इच्छाएँ न होने पर कर्म भी मिट जाएगा। चित्त ही इच्छा का स्वरूप है। इसलिए चित्त त्याग ही कर्म दुख से कर्म दुख से ही मुक्त होगा। ईश्वरीय शक्ति माया बनाये आशा स्वरूप चित्त बनाकर दिखानेवाले माया रूप ही यह दृश्य प्रपंच है। चित्त को त्याग करना कैसा है? शास्त्र सत्य एक निश्चलन,निर्विकार, सर्वव्यापी परमात्मा एक मात्र ही नित्य सत्य रूप में है। उसमें दूसरी एक शक्ति स्पंदन कभी नहीं हो सकता। शक्ति स्पंदन अर्थात् प्राण स्पंदन स्पंदित ही ये ब्रह्मांड सब बने हैं। शास्त्री सत्य यही है कि एक स्पंदन भी परमात्मा में नहीं हो सकता।
अर्थात् निश्चलन में एक चलन भी नहीं हो सकता। वह हजारों साल के पहले ऋषियों के द्वारा साक्षात्कार किया हुआ सत्य है। आज तक जितने महात्माओं ने सत्य का साक्षात्कार किया है,उन्होंने भी यही कहा है कि जगत मिथ्या और ब्रह्म सत्य है। वास्तव में जगत मिथ्या और ब्रह्म सत्य ही है। इसलिए वास्तव में प्रपंच तीनों कालों में रहित ही है। इस प्रपंच की सृष्टि के पहले अखंडबोध स्वरूप निश्चल परमात्मा मात्र स्थिर था। उससे पहले मैं रूपी शब्द के साथ अहंकार बना। इस प्रकार संसार में पैदा हुए सभी जीव एक एक शब्द लेकर जन्मे थे। उस शब्द की अभिव्यक्ति के द्वारा ही उसके अस्तित्व को अनय जीवों को वह जीवन समझता है। शब्द के रुकते ही सपंदन ब्रह्म स्थिति पाएगा। ये सब एक नाटक है। नाटक में कथा पात्र कोई नहीं है। जो कथा पात्र नही है,उनको बनाकर जीवन रूपी नाटक चलाकर वेश को बदलना ही माया की लीला होती है। माया की लीला ही यह प्रपंच है। अभिनय कराना माया है तो नट आत्मा होती है।इसलिए समझना चाहिए कि नाम और रूप जहाँ भी हो,वह जड होता है। कारण सत्य का रूप नहीं है। इसलिए सत्य शाश्वत है।सत्य में परिवर्तन नहींं है। जड बोध है। वे नाम रूप के हैं। नाम रूप जड कर्म चलनशील होने से निश्चल ब्रह्म में किसी भी काल में कोई चलन न होगा। सोने की चूडियों में स्वर्ण को मात्र देखना है, चूडियों को मिटा सकते हैं। वैसे ही प्रपंच रूपों में स्वयं बने बोध क मात्र देखकर नाम रूपों को तजना चाहिए। तब नाम रूप माया का अस्त होगा। बोध मात्र नित्य शांत रूप में स्थिर खडा रहेगा।
4024. उपासनाओं में प्रपंच नाद जो किसी से उदय न हुआ है, वह अनागत नाद श्रवण होता है। वही यथार्थ ओंकार नाद श्रवण है। क्योंकि वह ब्रह्म का नाम होता है। जो ओंकार की उपासना करते हैं, उसके मनो दोष सब स्वतः मिटकर वह परिशुद्ध हो जाएगा। यह ओंकार परब्रह्म और अपब्रह्म होगा। जो ओंकर की उपासना करताहै,उसकी चाहें स्वतः पूर्ति हो जाएँगी।ओंकार की उपासना करनेवाले को ब्रह्मलोक आराधना करेगा। हम जो कुछ देखते हैं, वे सब ओंकार ही है,ओंकार की व्याख्या यही होती है। अर्थात् भविष्य और वर्तमान ओंकार ही है। भूत,भविष्य और वर्तमान में जो कुछ हुआ, होगा और होता है, वे सब ओंकार ही हैं। कालातीत जो है, वह भी ओंकार ही है। इस ओंकार को प्रणव कहते हैं। मनो संकल्पित इस संसार में दिल के विचारों को समझाने के लिए प्रयोग करनेवाली भाषा के मूल शब्द ओंकार ही है। नाभी से बाहर आनेवाले वायु शब्द और अक्षर का रूप बनना कंठ से ओंठ तक के विविध स्थानों को स्पर्श करते समय ही है। ओम् के उच्चारण करते समय अकार स्थान कंठ में टकराकर होनेवाली ध्वनी सभी स्थानों को पार करके मकार स्थान ओंठ में टकराकर अंत होता है।
4025. एक व्यक्ति के ईश्वर ज्ञान का परिमाण जितना होता है, उतना ईश्वरत्व उसमें चमकेगा। अर्थात् ईश्वरत्व अपरिवर्तनशील ज्ञान होता है। अर्थात् अपरिवर्तनशील ज्ञान,अपरिवर्तन शील स्वतंत्र,अपरिवर्तनशील स्नेह, अपरिवर्तनशील स्वयं प्रकाश, अपरिवर्तन शील प्रेम,अपरिवर्तनशील सत्य, अपरिवर्तनशील शांति, अपरिवर्तनशील पवित्रता, अपरिवर्तनशील आत्मा, अपरिवर्तनशील मैं हूँ का अनुभव आदि सब मैं रूपी अखंडबोध ब्रह्म भगवान का स्वभाव होते हैं। जिस दिन जीव भगवान के ईश्वरीय स्वभाव की अनुभूति करता है, उसमें ईश्वरीय स्वभाव का परमानंद प्रकट होगा। स्वयं संकल्पित बनाया संसार अपने से भिन्न महसूस कर सकते है। वह स्वयं ही है। मैं नहीं का संकल्प नहीं कर सकते। मैं है,मैं मात्र ही है। अपने में अपने को दीखनेवाले कार्य रहित दूसरा एक अपने स्वभाविक शांति और आनंद को बिगडते नहीं है। अर्थात् अपने से अन्य जो भी लगें,वह अपने आनंद को बिगाड देगा। अर्थात् जो कोई किसी भी प्रकार के संकल्प के बिना रहता है, तब पर्दा हटकर अपने स्वभाविक आनंद और शांति के साथ स्वयं प्रकाशित होगा।
4026. संपूर्ण ब्रह्मचर्य ही संपन्न व्यक्ति है। संपूर्ण पतिव्रता स्त्री ही सभी ऐश्वर्यों का अड्डा है।
4027.असत्य रूपी लोक से सत्य संपन्न लोगों को नाश नहीं कर सकता। कारण जो सत्य को नाश करने का प्रयत्न करता है,उसीका नाश होगा।
4028.जिस मिनट में संकल्पित करते हैं, उस मिनट में संसार बनता है। इस संकल्प को लेकर वह स्थिर खडा रहता है। संकल्प के बिना बनने से वह आसान से मिट जाएगा। यह वास्तविक स्थिति न जानने से ही स्वयं संकल्पित संसार से डरने के कारण होते हैं। इसलिए ही यह संसार दुखमय लगता है। किसी भी प्रकार के संकल्प किये बिना बहुत जल्दी ही आकाश कालेबादल मिटे आकाश जैसे चित्त निर्मल होगा। यह एहसास कर सकते हैं कि चित्त निर्मल होने के साथ स्वयं शरीर नहीं है, स्वयं है का अनुभव करनेवाले आत्मबोध है। साथ ही सांसारिक दुख का अस्त होगा। वास्तव में सकल शक्ति के निश्चल परमात्मा ही अपने निश्चल,सर्वव्यापकत्व बदले बिना अपनी माया शक्ति मायादेवी प्रकट होनेवाले यह वर्ण प्रपंच नाटक के पीछे जाकर नाचते हैं।
4029.एक मनुष्य को दूसरों से होनेवाला प्रेम, शारीरिक अभिमान से होनेवाला दुर्राभिमान तजकर अधिकांश लोग उनको मिलनेवाले उनको मिलनेवाले गुणों को और आनंद को और शांति को नष्ट करते हैं। कारण यह अज्ञानता ही है कि स्वयं शरीर नहीं है,आत्मा है। तभी दुराभिमान बनता है। इसलिए विवेक के साथ पूर्वजों के द्वारा प्राप्त बंधुत्व और दुराभिमान का अनुकरण नहीं करना चाहिए। आत्मसुख के लिए ही किसी एक के प्रति प्रेम होता है। आत्मसुख न देनेवाले किसीसे प्रेम न होगा। आत्मसुख मिलना प्रेम की वस्तु से या प्रैमी से नहीं। जब एक व्यक्ति एहसास करता है कि यथार्थ आत्मा का अपना स्वभाव शांति और आनंद है, तब उसका सारा दुराभिमान और अहंकार मिट जाएगा। तभी आत्मा रूपी अपना स्वभाव परमानंद को निरुपाधिक रूप में स्वयं भोगकर वैसा ही रह सकते हैं।
4030. ईश्वर को जानना चाहिए तो ईश्वरीयज्ञान जिनमें है,उनके पास जाना चाहिए। संपूर्ण ईश्वरीय ज्ञान सिवा ईश्वर के और किसी को मालूम नहीं है। अर्थात् अपने से मिले बिना एक ईश्वर को चौदह लोक में खोजने पर भी न मिलेगा। कस्तूरी हिरन अपने में जो कस्तूरी है, उसको ढूँढ-ढूँढकर मर जाता है। उसको कस्तूरी न मिलेगा। वैसे ही ईश्वर की खोज करके जानेवाले खुद ईश्वर है के समझने के काल तक ईश्वर को देख नहीं सकते और दर्शन तक कर नहीं सकते। जिसने ईश्वर के दर्शन किये है,वे सब अपने संकल्प देव को ही देखते हैं। अर्थात् स्वयं बनी आत्मा रूपी अखंडबोध माया रूप ही ईश्वरीय दर्शन ही उन्होंने किया है। अर्थात् जो देखता है, देखनेवाले भगवान के रूप में वह देखता है। जब किसी को श्री कृष्ण के दर्शन होते समय उसको एहसास करना चाहिए कि उसकी अंतरात्मा ही श्री कृष्ण रूप में दर्शन दिये हैं। वैेसे ही सभी दर्शन होते हैं। अर्थात् अखंडबोध मात्र ही नित्य सत्य शास्त्रीय रूप का ईश्वर है। चींटी से लेकर ब्रह्मा तक के सभी शारीरिक रूप जड ही होते हैं। जड कर्मचलन होता है। इसलिए सभी जड रूप तीनों कालों में रहित हैं। अर्थात् मृगमरीचिका को देखनेवाले रेगिस्तान देख नहीं सकते।रेगिस्तान को देखनेवाले मृगमरीचिका देख नहीं सकते। स्वर्ण को मात्र देखनेवाले आभूषण नहीं देख सकते। आभूषण देखनेवाले स्वर्ण देख सकते। वैसे ही नामरूपों के प्रपंच मात्र देखनेवाले को बोध दर्शन नहीं होगा। बोध दर्शन जिसको हुआ, वह नाम रूप प्रपंच को दर्शन नहीं कर सकता। अखंड बोध मात्र ही स्थिर होता है। जो उस अखंडबोध भगवान स्वयं ही है का एहसास करता है वही प्रपंच का केंद्र है। अर्थात् यह प्रपंच रूपी कार्य के कारण ही मैं रूपी अखंडबोध ही है। कार्य और कारण दो नहीं है, एक ही है।
4031.मैं है का अनुभव करनेवाला मैं रूपी बोध रूप परमात्मा अपनी शक्ति माया मन माया बनाई वासनामयी चित्त बनाकर दिखानेवाला मोह विषय वस्तुओं के पीछे जाकर उसको मोहित करके भेद बुद्धि से स्वस्वरूप को खोकर आत्म छाया बने अहंकार को आत्म रूप बने स्वरूप खोकर आत्म छाया रूपी अहंकार को गलत से आत्मा सोचकर अहंकार घमंड से विषय भोग वस्तुओं में सुधबुध खोकर उनमें नियंत्रित होकर अहंकार के स्वभाव काम,क्रोध,लोभ,मोह,आदि विकारों में मन फँसकर पराधीन होकर दुख पूर्ण हालत ही आत्मज्ञान पाने तक हर एक मनुष्य की होती है। इसलिए ब्रह्म में से उत्पन्न माया मन को ड स्वरूप शरीर में न लगाकर आत्मा से लगाने से ही पुर्जन्म से बच सकते हैं। शरीर से लगनेवाले चित्त काल से शरीर मिटने के साथ अपनी इच्छाओं और वासनाओं का भार ढोकर अति सूक्ष्म शरीर छोडकर अपनी इच्छाओं को पूर्ण करने के लिए अगले जन्म के शरीर के लिए खुले मैदान को जाएँगे।
4032. शांति पूर्ण मन की समदशा को मिटाने के लिए प्रकृति अपने अस्तित्व के लिए मनपूर्वक कई परिस्थितियों को मनुष्य जीवन में उत्पन्न करेगी। उससे भी पार करके सहनशीलता के साथ रहने अपने अहमात्मा से बढकर श्रेष्ठ खजाना ब्रह्मांड में और कोई नहीं है और इस ज्ञान की दृढता से कार्य करके जीनेवाले मनुष्य में ही परमानंद प्राप्ति की अर्हता होती है। ये सब परमात्म शक्ति मामाया अकारण उत्पन्न करके दिखानेवाले इंद्रजाल नाटक ही है। एक जादूगर मंच पर एक जीव को टुकडे टुकडे करके फिर उसको एक बनाता है। उसे देखनेवालों को संकट, आश्चर्य,चमत्कार अद्भुत देखकर आनंदित होता है। जादूगारी सीखते समय इसका पता चलेगा। वैसे ही भगवान रूपी जादूगर इस संसार की सृष्टि करके उसमें सुख-दुख देकर अंत में आनंद देता है। वास्तव में जादूगर किसी एक जीव को टुकडे टुकडे नहीं करता। फिर जोडता भी नहीं है। जादूगरी सीखते समय ही उस सूक्ष्मता कोो समझ सकते हैं। तभी एहसास कर सकते हैं कि जादूई चमत्कार, अद्भुत, संकट आदि निस्सार होते हैं। वैज्ञानिक ढंग से चिंतन करने पर भी वेदांत प्रकार से चिंतन करने पर भी इस सांसारिक रूपों को कोई बल नहीं है। अर्थात स्वत्व नहीं है।अर्थात् साधारण कण लेकर विवेक से देखते समय वह आकाशमय में बदलेगा। वैसे ही इस संसार के सभी रूप कण मन से देखते समय सब आकाशमय परिवर्तन होगा। आसानी से समझने के लिए एक टुकडे बरफ़ की खोज़ करते समय वह पानी बनकर भाप बनकर तन्मात्राओं में आकाश में बदलेगा। संसार के सभी आकार छिप जाने पर भी आकाश में कोई उतार-चढाव न होगा। अर्थात् ये आकार आकाश में होना न होना बराबर ही है।आकाश की कोई कमी न होती। दूसरा एक उदाहरण देखिए,बिजली वज्रघात होते समय आकाश में भिन्न रूप दीखने पर भी आकाश में कोई संभव नहीं होता। आकाश तो शुद्ध शून्य ही रहेगा। वह आकाश भी एक सूक्ष्म जड ही होता है। वह आकाश अति सूक्ष्म रूपी जड ही है। वह सर्वव्यापी आकाश का आधार अखंडबोध मैं ही है का एहसास करना चाहिए। अर्थात् मैं रूपी अखंडबोध में एक एक प्राण चलन या आकाश या वायु या अग्नि या भूमि नहीं है। सब मैं रूपी अखंडबोध में उत्पन्न होकर दीख पडनेवाले एक दृश्य मात्र है। अर्थात् इस शरीर को स्थूल सूक्ष्म कारण शरीर होते हैं। इस स्थूल सूक्ष्म कारण आदि तीनों रहित स्थान ही मैं रूपी अखंडबोध होताा है। वह मैं रूपी अखंडबोध तत्व अनुभव को कहने के लिए ही पहले मैं रूपी अहं नाद के साथ माया छिपे आकाश के साथ बाहर आती है। उसमें से ही बुद्धि और मन आदि अंतःकरण सब शारीरिक रूप में बदलते हैं। उनमें समष्टि रूप ईश्वर के और व्यष्टि रूप जीव के होते हैं। ईश्वर और जी माया में ही है। जीव और ईश्वर के परम कारण बने मैं रूपी अखंडबोध मात्र सत्य है। जड रूप सब असत्य है। जो बोध है,उसको उत्पन्न होने की ज़रूरत नहीं है। जो जड नहीं है, वह नहीं है। वह नहीं हो सकता।
4033. मनुष्य समाज द्वारा बनायेे सहीऔर गल्तियों
को मनुष्य यथार्थ सही और गल्तियों की खोज किये बिना हर एक जीव स्वीकार करके उनकी अधीनता स्वीकार करके गल्तियाँ किया करता है। जो मन गल्तियाँ करती है, वह भयभीत रहता है। मन के भय के कारण शारीरक अंग दुर्बल होतेहैं। उस भय से छुटकारा पाने के लिए यथार्थ में समझना चाहिए कि गलत क्या है? सही क्या है? ईश्वर को भूलकर जीना यथार्थ गलत है।यह सोचकर जीना यथार्थ सही है कि ईश्वर मात्र ही है।इस शरीर के अहं में जो आत्मा है,वही भगवान है। उस ईश्वर के नियंत्रण में जीना यथार्थ सही है। मनःसाक्षी के नियंत्रण में जीना ही यथार्थ सही है।मनःसाक्षी के विरुद्ध चलना ही यथार्थ गलती है। गलत काम सुख भी देगा और दुख भी। मनःसाक्षी के अनुकूल कोई कार्य करते समय उसका मन अपरिवर्तनशील आत्मा में लीन होने से जीवन सुखमय बन जाता है। कारण आत्मस्वभाव ही आनंद होता है। उसी समय कोई गलत करते समय मन मनःसाक्षी के बिना अहंकार के साथ जड विषयों की ओर जाएगा। जड का स्वभाव दुख होने से ही गलत करनेवालों को दुख होता है। अर्थात् जड परिवर्तनशील है, नश्वर है, जो नहीं है,उसे है सा दिखाता है।इसीलिए जड दुख के कारण बनता है। अपरिवर्तनशील एक पूर्ण वस्तु ही आनंद दे सकती है। वह जीवात्मा,परमात्मा,प्रपंच रूप में सर्वव्यापी, आकार रहित बोध रूप मैं नामक परमात्मा ही है।उस परमात्म स्वरूप ही सभी आनंद का केंद्र बन सकता है। जो इसका एहसास करता है, वही परमानंद का अनुभव करेगा। इसलिए हर एक जीव को स्वयं परमात्मा है की भावना को धैर्य पूर्वक बढाना चाहिए। जिनको वह हिम्मत नहीं है, उनको खोज करके देखना चाहिए कि मैं नहीं तो संसार और ब्रह्म रहेगा क्या। मैं न होने पर भी अन्य है को सोचने के लिए मैं की आवश्यक्ता है। मैं नहीं है तो कुछ भी नहीं है का एहसास करके सत्य की खोज करनी चाहिए। सत्य नहीं है तो धैर्य न होगा। आनंद न होगा,शांति न होगी। दुख मात्र होगा। सत्य की खोज करनेवाले का मन सत्य से न हटने से सत्य स्वभाव का आनंद उसमें होता रहेगा।
4034. मन का प्रतिवास तीनों कालों में रहित ही है। कारण मन का स्थिर रहना स्मरण के कारण से ही। लेकिन स्मरण में कोई स्मरण सत्य नहीं है। सभी यादें असत्य होने से उन असत्य यादों का मन भी असत्य ही रहेगा। इसलिए मन में उत्पन्न होनेवाले स्वर्ग-नरक,पाप-पुण्य, बंधन-बंधु आदि सब असत्य ही है। उदाहरण के लिए एक व्यक्ति स्वप्न में देखता है कि एक हाथी खरीद लिया है। स्वप्न के छूटते ही मालूम होगा कि अपना खरीदा हाथी असत्य है। उस हाथी खरीदने के असत्य का कारण मन ही है। अतः मन भी असत्य है। इसलिए जो मन नहीं है, उस मन को नाश करना ही मोक्ष प्राप्त करने का अभ्यास ही है। उसके अलावा दूसरा दूसरा एक अभ्यास ही प्राण चलनों का निश्चलन बनाना। मन जिस स्थान में दबता है, उस स्थान में प्राण भी दबेगा। प्राण और मन दो तत्व होने पर भी वे दोनों परस्पर ऐक्य ही है। इसलिए एक को नियंत्रित करने पर,दूसरा स्वयं नियंत्रण में आएगा। साथ ही परमात्म स्मरण करते रहना चाहिए। कालांतर में आत्मा अपनी पूर्णता में चमकेगा। जो मन नहीं है,उसे मिटाने के लिए आत्मबोध से न हटकर किसी प्रकार के संकल्प किये बिना रहना ही पर्याप्त है। साथ ही एहसास कर सकते हैं कि जो प्राण और मन नहीं है, वे दोनों बनते नहीं है।
4035. एक मनुष्य जितना भी अमीर हो,स्वर्णाभूषण का ढेर हो,स्वर्ग सम सुविधा हो,उसका शरीर और मन उसके अनुकूल नहीं है तो वह स्वर्ग सब नरक हो जाएगा। अर्थात् उसके आवश्यक दुखी काल सब अर्थ शून्य हो जाता है। कुछ भी न होने पर भी मन और शरीर अपने अनुकूल होने पर ही स्वर्ण आभूषण से बढकर अपने लिए राजमहल बन जाएगा। वैसे मन अनुकूल होना है तो कोई संसार में जो कुछ भी करें, आत्मबोध को विस्मरण न करके कार्य करना चाहिए। वही मनुष्य जन्म के लिए मणिमंत्र है। मैं नामक अखंडबोध मणिमंत्र में यह ब्रह्मांड है। मैं नामक अखंडबोध के सिवा दूसरी एक वस्तु कहीं भी नहीं है। अर्थात् अपने को ही सभी में दर्शन करते समय ही निश्चलन परमानंद सागर रूप में ही स्थिर खडा रहता है।
4036.जन्मांत्र कर्मगति के अनुसरण से ही शरीर, मन,प्रकृति आदि एक व्यक्ति के अनुकूल होता है। इसलिए कर्म शुद्धि जीवन के लिए प्रधान है। कर्म शुद्धि का मतलब एकात्म दर्शन ही है। अर्थात् सबको स्व आत्मा के रूप में दर्शन करना ही है। वह केवल आत्मज्ञान से ही हो सकता है।वैसे जीवन चलानेवाला जहाँ भी रहें, जैसी भी परिस्थिति में रहें उसको सिवा आनंद के दुख एक बूंद बराबर भी न आएगा। कारण आत्मा का स्वभाव ही आनंद है। पहले समझ लेना चाहिए कि एकात्म दर्शन होना धर्म-कर्म चलन के साथ ही होगा। यह भी जानना चाहिए कि चलन जहाँ होता है, वहाँ जड होता है। जड आनंद नहीं दे सकता। चैतन्य ही आनंद दे सकता है। निश्चलन में एक चलन न हो सकता। इस ज्ञान की दृढता से ही सभी चलनों में निश्चल आत्मा के दर्शन कर सकते हैं। मृगमरीचिका में रेगिस्तान के दर्शन करना चाहें तो रेगिस्तान के बारे में संपूर्ण ज्ञान चाहिए। अर्थात् जिसने रेगिस्तान का अनुभव किया है, वही मृगमरीचिका में रेगिस्तान को देख सकता है। वैसे ही ब्रह्म प्राप्त होकर दृढ रहनेवाले को ही सभी प्रपंचों में ब्रह्म को मात्र दर्शन कर सकते हैं। कारण ब्रह्म के बिना दूसरी एक वस्तु कहीं कभी हो नहीं सकता। इस तत्व बुद्धि में दृढ रहनवाले एक को ही मृगमरीचिका के समान प्रपंच को देखकर सभी प्रपंच में ब्रह्म दर्शन करके ब्रह्म स्वभाव रूपी परमानंद को स्वयं भोगकर आनंदित होकर वैसा ही रह सकता है।
4037. अहंकारी को और किसी जीव को आनंद में रहना देखकर संकट ही देगा। क्योंकि अहंकार का स्वभाव आनंद को मिटाना ही है। अहंकार का स्वभाव दुख पूर्ण है। आत्मा का स्वभाव आनंद ही है। अहंकार और आत्मा के गुण एक दूसरे का विपरीत है। इसलिए विवेकी अहंकारी से सहवास न रखते। केवल वही नहीं अहंकार ज्ञान को छिपाएगा। ज्ञान आनंद स्वरूप है। ज्ञान के बिना कुछ भी नहीं है। सब कुछ ज्ञान ही है।
4038. अहंकार का स्वभाव ही अपने से दुर्बल लोगों को झुकाना ही है। लेकिन आत्मा को अन्य जीव नहीं है। कारण अहंकार को स्वअस्तित्व नहीं है। आत्मा को मात्र ही स्व अस्तित्व है। अहंकार माया रूप है। मायाा रूपी आत्मा को छिपाकर ही स्थिर रहने की झांकी दिखाता है। वास्तव में अहंकार एक भ्रम होता है। भ्रम स्थाई नहीं है। आत्मा मात्र स्थाई होती है। आत्मा अनश्वर होती है। उसका जन्म-मरण नहीं है। वह स्वयंभू है। जो अपने को स्वयंभू का एहसास करता है, उसको मृत्यु भय नहीं होगा। वह शांति और आनंद के लिए कहीं याचना नहीं करेगा। इसलिए सत्य को सत्य, मिथ्या को मिथ्या समझना चाहिए। तभी दुख का विमोचन होगा। अर्थात् निराकार सुख स्वरूप आत्मा शरीर को स्वीकार करने से ही दुख होता है। जिस दिन जीव एहसास करेगा कि शारीरिक बंधन माया बंधन है, उस दिन प्राण रूपी सोचे शरीर को भूलकर यथार्थ प्राण आत्मा ही है का एहसास कर सकते हैं। तभी शरीर से संकुचित बोध सीमा पारकर असीमित होता है। साथ ही एहसास कर सकते हैं कि असीमित बोध स्वरूप परमात्मा ही है। उस स्थिति में ही आत्मा का स्वभाव ही परमानंद को दिन जैसे अनुभव कर सकते हैं।
4039.देव सर्वांतर्यामी परमेश्वर को विस्मरण करके स्वर्ग सुखों में डूब गये। देवों को परमेश्वर स्मृति होने के लिए देवों के शत्रु असुरों को उनके मन चाहे और माँगे वर देकर देवों के घमंड को चकनाचूर करके फिर उनको दव लोक में बिठाने की लीलाएँ अनादी काल से होती रहती है। वही इस भूमि पर राजसी जीवन, राज्यों के राजनैतिक जीवन , सामाजिक , पारिवारिक और जीवन में चलता रहता है।लेकिन कोई भी शाश्वत आनंद और शांति का अनुभव नहीं करते। सदा डरते डरते जीवन बिताते रहते हैं। भय रहित पूर्ण धैर्य होना चाहें तो मैं ब्रह्मा हूँ का ब्रह्मात्मक बोध दृढ होना चाहिए। जिसमें मैं ब्रह्म हूँ का ज्ञान दृढ हो जाता है, उसको युद्ध क्षेत्र में भी कोई हानि न होगी। क्योंकि उसको शरीर होने पर भी शरीर का स्मरण नहीं होगा। ब्रह्म रूपी अपने को कोई मिटा नहीं सकता। शरीर हो या न हो, वह अपने पर प्रभाव न डालेगा। वह सदा आनंदमय रहेगा। वे माया शरीर स्वीकार और त्याग सकते हैं। उनको उपयोग करके देवगण यद्ध जीतने का इतिहास है। ये सब ब्रह्म शक्ति बनाकर दिखानेवाले एक इंद्रजाल है ,इसमें कोई सच्चाई नहीं है। सच्चा रहना मैं रूपी अखंडबोध मात्र है। वही परमानंद रूप में नित्य सत्य रूप में शाश्वत रूप में है।
4040. सभी उपाधियों में एकात्मक है मैं रूपी अखंडबोध। उस बोध में ही यह प्रपंच मिटता है और उत्पन्न होता है। अर्थात् प्रभव और प्रलय होता है। वह अखंडबोध ही सभी का नियंत्रण करता है। वही अखंडबोध ही ज्ञानियों को मोक्ष मार्ग को दिखाता है। भक्तों को उनकी अभिषटों को पूरा कर देता है। उस अखंडबोध को ही वेद प्रशंसा करते हैं और स्तुति करते हैं। वह अखंडबोध ही स्वयं प्रकाश स्वरूप है। मैं है के अनुभव उत्पन्न करनेवाले परमात्म स्वरूप है। जो जीव इसका एहसास करता है, वही स्वंभू है। उसका एहसास करके अपने स्वभाव परमानंद को भोगकर वैसा ही स्थिर खडा रह सकता है।
3041.आदी पराशक्ति महामाया के त्रिशूल के आक्रमण से ही संकल्प ग्रंथी बने शारीरिक अभिमान का अहंकार टूटकर छिन्न-भिन्न हो जाएगा। वैसे शारीरिक अभिमान रूपी अहंकार मिटे जीव मात्र ही चाह रहित अभयदान के लिए शरणागति के लिए आत्मा की ओर यात्रा करेगा। अर्थात् शक्ति की सजा हमेशा शक्त में चलकर शक्त बनाने के लिए ही है।
3042. इस ब्रह्मांड में धन कमानेवाले धनी से, शास्त्र और लोकापुध शास्त्रों के अध्ययन से,संसार के नामी और विख्यात पुरुषों से संसार के आदी आरंभ काल से आत्मज्ञानी को ही अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं। स्वर्ग में देवों के बीच इंद्र के सामने ही पहले पहल ब्रह्म विद्या देवी रूप में प्रत्यक्ष प्रकट हुई हैं,आत्म ज्ञान को भी प्रकट किया है। अर्थात् ब्रह्मज्ञान अर्थात् आत्मज्ञान पहले पहल देवेंद्र को ही मिला था। इसीलिए देवेंद्र श्रेष्ठ है। इंद्र के बाद द्वितीय अवसर ब्रह्म से बोलने के लिए अग्निदेव और वायु देव को ही मिला,अतः वे दोनों ही श्रेष्ठ है। इसलिए उनके द्वारा बताये ज्ञान मात्र देवों को मिला था। अंतःकरणों में रखकर मुख्य रूप में हैं वचन,प्राण और मन। इनको ही वायु,अग्नि और इंद्र कहते हैं। इन अंतःकरणों को ही वायु,अग्नि और इंद्र कहते हैं। इन अंतःकरणों को आत्मोनमुख रूप में कार्यान्वित करते समय ही आत्मज्ञान होगा।प्राण से,वचन से मन ही प्रधान होता है। उसी जीव को आत्मज्ञान मिलेगा, जिसके मन में असुर गुण होते हैं,अहंकार होता है, उन्हें मिटाकर आत्मा में मन विलीन होता है। उस जीव को ही आत्मज्ञान मिलेगा। मन विषय वासनाओं के पीछे पडता है तो उस जीव को ब्रह्मज्ञान न मिलेगा। ब्रह्म मात्र ही सुख स्वरूप होता है। जो कोई सदा आनंद स्वरूपी होता है, वही स्थित प्रज्ञ होता है। इसलिए वे भी दूसरों से श्रेष्ठ होता है। बाकी देवों को उन बताये ज्ञान ही मालूम होता है। अंतःकरणों में वचन,प्राण और मन ही प्रधान होते हैं। उनको ही वायु,अग्नि और इंद्र कहते हैं।
4043.विस्मरित स्वस्वरूप परमानंद को पुनःप्राप्त करने की खोज खोज में लगने पर ही कल्पनाएँ होती हैं। कल्पना रहित बोध को ही आत्मा कहते हैं। कल्पनाएँ होते समय अखंड बोध खंडबोध होता है। कल्पना रहित दशा में खंडबोध अखंड बोध होता है। उस स्थिति में खंड और अखंड दोनों को अभिन्न एहसास कर सकते हैं।अर्थात् एहसास कर सकते हैं कि जीवात्मा और परमात्मा अभिन्न है।
4044.इस जन्म में महसूस करनेवाले सांसारिक यादें,शारीरिक यादें जन्म लेते समय पूर्व जन्म से संचित साथ लायी कल्पनाएँ उसकी भावना देनेवाले माता-पिता से शुरुआत् कल्पनाएँ,बढते समय स्वयं बनानेवाली कल्पनाएँ बंधनों के कारण होते हैं।
उन बंधनों से छूटने के लिए कल्पनाओं को नाश करना चाहिए। कल्पना रहित जीवात्मा बोध ही परमात्म बोध पाने का सकारात्मक पक्ष है। उसके लिए विषय सुख खोजने का भ्रम बदलना चाहिए। भ्रम के कारण ब्रह्म स्वभाव आनंदविस्मृति ही है। भ्रम बदलने के लिए किसी भी प्रकार के संकल्प किये बिना तैलधारा के जैसे ब्रह्म की भावना करनी चाहिए। वह ब्रह्म भावना ही ब्रह्म ज्ञान को पूर्ण करना चाहिए। वह ब्रह्म भावना ही ब्रह्म ज्ञान को पूर्ण करना चाहिए। उस ब्रह्म ज्ञान की पूर्णता से ही अपना मन पसंद स्नेह, स्वतंत्रता, सत्य, शांति,प्रेम,आनंद,स्वयं बने ब्रह्म का स्वभाव है। इसका एहसास करके उनका अनुभव करके वैसा ही हो सकता है। उस स्थिति में ही वह एहसास कर सकता है कि स्वयं स्नेह स्वरूप है, स्वयंही सत्य स्वरूप है,स्वयं ही ज्ञान स्वरूप है और स्वयं ही परमानंद स्वरूप है। ये सब आत्मज्ञान से ही एहास कर सकते हैं। उस आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए आत्मा को संपूर्ण रूप में साक्षात्कार किये एक गुरु से ही हो सकता है। उस स्थान में ही गुरु के महत्व को समझ सकते हैं। जो अंतिम जन्म लेता है वही स्वयं ही आत्मज्ञान का एहसास कर सकता है। जो वैसा नहीं है, उसके लिए आत्मज्ञान के लिए एक गुरु की अत्यंत आवश्यक्ता है।
4045. अपने हृदय को तडपाना,साँस खींचना, रक्त संचार करना, यादों का उदित करना, बुद्धि में विवेक देना, दृष्टि देना, श्रवण शक्ति देना, भूख लगाना, सुलाना,महसूस कराना,मलमूत्र निकालना आदि जो कराता है, वही सभी क्रियाएँ करते हैं , जो जीव इसका एहसास करता है। उसका अहंकार काम न करेगा। जब अहंकार का कोई काम नहीं होता, तब जीव भाव न रहेगा। जब जीव भाव नहीं होता,
तब प्रतिबिंब जीव बोध, जीव भाव छोडकर बिंब रूप अखंड बोध स्थिति पाकर अखंड बोध स्थिति के स्वभाव परमानंद को स्वयं भोगकर आनंदित होकर वैसा ही रह सकता है।
4046.जो कोई जिसको अधिक चाहता है,जिसकी याचना करता है, उससे संबंधित सब वस्तुएँ उसके पास आती रहेंगी। जिस वस्तु की याचना करता है,वह पर्याप्त मिलने पर भी जब तक चाहें होती हैं, तब तक चाहें पीछा करती रहती हैं। वह तभी चाह रहित रहेगा जब उसकी इच्छाएँ कठोर दुख और क्रूर कष्ट देने लगेंगी।जिस दिन वह पूर्ण रूप में अनासक्त रहेगा, उस दिन में उसका मन समदशा पर रहेगा। सम दशा प्राप्त मन आत्मा ही है। तभी वह एहसास कर सकता है कि अपनी इच्छित वस्तु आनंद नहीं दे सकती,आत्मा का स्वभाव ही आनंद देनेवाला है।
4047. अहं,अपना जब मिटने लगता है, तभी एहसास कर सकता है कि स्वयं शरीर नहीं है,संसार नहीं है, शरीर और संसार के कारण बने आत्मा ही यथार्थ मैं है। तभी स्वात्मा निश्चित रूप में बनता है। मैं आत्मा हूँ का भाव दृढ होता है। तभी आत्मा का स्वभाव आनंद को स्वयं भोग सकते हैं। जो उस स्थिति तक नहीं पहुँचे,उनका नाश निश्चित है। जो अपने नाश देखकर डरते हैं, उनको आत्मतत्व के बारे में जानने की कोशिश करनी चाहिए। तभी मरण रहित महान जीवन जी सकते हैं। मरण रहित महा जीवन की स्थिति है कि स्वयं बोध स्वरूप परमात्मा है, परमात्मा को जन्म मरण नहीं है, वह सर्वव्यापी है, वह निराकार है, परमानंद स्वभाव का है। इनको एहसास करने की स्थिति है। उस अनुभूति में दूसरा एक न होने से मृत्यु भय न रहेगा। वह नित्य है का एहसास होगा। वही अहं ब्र्मास्मी है।
4048. इस संसार सागर में कर्म बंधन में सब सदा दुख का अनुभव करते रहते हैं। उस दुख से मुक्त होने के लिए शास्त्र -पुराण सीखना,सुनना, प्रवचन देना,मंदिर में जाकर प्रार्थना करना,प्रायश्चित्त करना व्यर्थ ही है। दुख से छुटकारा पाना असंभव है। लड्डु के खाने से ही मिठास का अनुभव होगा। उसके वर्णन सुनने से नहीं होगा। वैसे ही जीवन का अनुभव मधुर होना है तो समझना चाहिए कि कैसे जीना चाहिए। आत्मज्ञान में ही जीवन का रहस्य होता है। कारण संसारिक व्यवहार करनेवाले शरीर, पंचेंद्रिय, करचरण अवयव,कर्म करने की प्रार्थी होना उनके पृष्ठभूमि में आत्मबोध होने से ही है। उसकी स्पष्टता यही है कि बोध नहीं है तो शरीर और संसार नहीं है।इस ज्ञान को गहराई से खोज करके बुद्धि में रखकर बाद में व्याख्या करनी चाहिए। मुख्य रूप में जानना चाहिए कि बोध स्वभाव सुख स्वरूप होता है।
शरीर और संसार जड स्वरूप होते हैं। वे सुख नहीं दे सकते। तभी मन शरीर और संसार को छोडकर बोध से मिलकर कार्यों को कार्यान्वित कर सकता है। जो बोध,शरीर,और संसार को विवेक से जान समझकर जीवन नहीं बिताता, वह सदा दुख देनेवाले माया संसार में बोध सुख अनुभव करके जी नहीं सकता।
4049. किसी एक के स्वप्न में चित्त रहित संसार को गुना करके देखने के जैसे समुद्र में बुलबुले अकारण उमडकर आने के जैसे, सृष्टि में,परमात्मा में,अखंड बोध में असंख्य जीव पैदा होते रहते हैं। लेकिन सभी जीव माया कर्मबंधन में अपने निज स्वरूप न जानकर दुखी रहते हैं। बोध से उत्पन्न सब बोध के बिना और नहीं बन सकता। इसीलिए हर एक जीव अपने निज स्वरूप के लिए जाने अनजाने कोशिश करते रहते हैं। कारण जीव को बोध का स्वभाव परमानंद नष्ट हुआ है। उस आनंद को ही जीव अपने सभी विषयों में ढूँढ रहा है। उस खोज में जीव को भूख और प्यास रहता है। भूख मिटे बिना जीव क अपनी सृष्टि की खोज नहीं कर सकता। लेकिन भूख और विषय सुखों में मिलकर ही अपने अस्तित्व के लिए माया जीवात्माओं को नियंत्रण में रखती है। मनुष्य में जो जीव विषय वस्तुओं और खाद्य वस्तुओं पर की चाहों को तजकर जीने के लिए मात्र वस्तुओं को कमाकर बाकी समय अपने निज स्वरूप को पुनःप्राप्त करने की कोशिश करता है,वैसे जीव को ही ब्रह्म अर्थात् सत्य अर्थात उनकी अंतरात्मा सदा सर्वकाल ईश्वरीय स्थिति में जीने के लिए संदर्भ परिस्थितियों को बनाकर सत्यमार्ग को दिखाता है।
4050. सत्य त्यागकर बोलने बोलने पर भी सत्य विश्वासी भी भरोसा नहीं करेंगे। वही सत्य का रहस्य है। इसीलिए सत्य समझनेवाला मन मौन रहता है। अर्थात् सत्य बोल नहीं सकते।कारण सत्य से अन्य कोई नहीं है। वैसे ही विश्वास रखने की आवश्यक्ता नहीं है। कारण सत्य अनुभव है। अनुभव के लिए विश्वास की ज़रूरत नहीं है।
4051. स्त्री जो गलत करती है, उसे प्रकृति पुरुष को त्यागकर बोलने की अनुमति न देगी। क्योंकि प्रकृति का प्रतिबिंब रूपी स्त्री सत्य को छिपाकर रखने का प्रयत्न करेगी। कारण सत्य को छिपाकर ही प्रकृति स्थिर खडी रहती है। प्रकृति का स्वभाव ही साधारणतः सब स्त्रियों में है। इसीलिए स्त्रियाँ पुरुष को आत्मोन्मुख होने न देकर बहिर्मुख के लिए कोशिश करती है। अर्थात् पुरुष की बुद्धि,प्राण,मन,शरीर को आत्मा के निकट न जाने देने में प्रकृतीश्वरी सदा सन्नद्ध रहती है। लेकिन विवेकी पुरुष प्रकतीश्वरी रूपी सत्य मार्ग को त्यागकर देनेवाली विद्या माया को उपयोग करके मनको आत्मा से लीन करके पुनर्जन्म रहित मुक्ति स्थिति पाएगा। उसी समय अविवेकी सत्यमार्ग को बंद करनेवाली अविद्या माया में रहने से मन को शरीर से जुडकर मृत्यु प्राप्त करके अनंतर जन्म का पात्र बनता है। अर्थात् ईश्वरीय स्मरण दिलानेवाली माया सब विद्या माया है, ईश्वर को अविस्मरण कराने की माया अविद्या माया है। लेकिन इस बात का एहसास करना चाहिए कि सत्य रूपी आत्मा को पूर्ण रूप से साक्षात्कार करने के साथ ही विद्या माया और अविद्या माया तीनों कालों में रहित है,परमात्मा मात्र ही सर्वव्यापी है।वह परमात्मा ही परमात्मा का स्वभाव ही परमानंद को अनुभव करके वैसा ही हो सकता है।
4052.साधारणतः एक मनुष्य, उसके शारीरिक अभिमान से इच्छा शक्ति,क्रिया शक्ति,ज्ञान शक्ति को एहसास नहीं कर सकता। इसलिए ब्रह्म से ही सृष्टि स्थिति की संहार मूर्तियाँ उत्पन्न होती हैं। लेकिन जो कोई इस शरीर और संसार को तजकर
सत्य रूपी आत्मबोध में लग सकते हैं। वैसे जो कोई खंडबोध रूपी जीव भाव को आत्मविचार से मिटाता है तो खंडबोध सीमा तजकर अखंडबोध स्थिति को पाता है। उस अखंडबोध स्थिति में ही अपनी शक्ति माया,इच्छा,ज्ञान ,क्रिया आदि रूप में अपने में प्रकट होते रहने को एहसास कर सकते हैं। उस स्थिति में संकल्प लेकर ही इस प्रपंच का अस्तित्व है। एहसास कर सकते हैं कि संकल्पनाश लेकर उसे मिटा सकते हैं। अर्थात् स्वसंकल्प के बिना कुछ भी इस संसार में दर्शन नहीं कर सकते। संकल्प ही संसार है। संकल्प न हो तो यह संसार मिट जाएगा। संकल्प करनेवाला मात्र स्थिर खडा रहेगा। वही मैं रूपी अखंडबोध है।
4053. पंचेंद्रियों को लेकर जो कुछ जानते हैं,वे सब द्वैत बोध में ही है। लेकिन असीमित है उसके आधार में खडे मैं है के अनुभव करनेवाला अखंडबोध ही है। उस स्थान को इंद्रिय,मन,बुद्धि आदि जा नहीं सकता। कारण इंद्रिय,मन,बुद्धि सीमित बोध में बोध शक्ति बनाकर देखरेख करने से वह तीनों कालों में रहित ही है। कारण असीमित मैं नामक अखंडबोध में एक प्राण चलन किसी भी स्थान में हो नहीं सकता। कारण बोध निश्चलन परमात्मा है। वह सर्वव्यापी है। वह सर्वत्र विद्यमान है। बोध रहित स्थान कहीं नहीं है। इसलिए उससे कोई चलन कभी नहीं होगा। चलन होने से लगना भ्रम ही है। भ्रम माया से बनाया स्वरूप विस्मृति ही है। अर्थात् माया के द्वारा स्वरूप को विस्मरण करते समय माया बदलकर स्वरूप को स्मरण करते समय स्वरूप में कोई परिवर्तन न होगा। इसलिए इस भ्रम में भी ब्रह्म को दर्शन करनेवालों पर माया कोई प्रभाव नहीं डाल सकता। अर्थात रेगिसतान से पूर्ण जानकारी प्राप्त मनुष्य के सामने मृगमरीचिका कोई असर नहीं डाल सकता। वैसे ही भ्रम वस्तु में भी ब्रह्म को जो देखता है,ब्रह्मबोध नष्ट नहीं होता। इस संसार में दृष्टा,दृश्य,दृष्टि आदि तीनों भावों में ही इस प्रपंच में सब कुछ निहित है। लेकिन दृष्टा को छोडकर दृश्य, दृष्टा और दृश्य को छोडकर ज्ञा न होगा। दृष्टा के बिना दृश्य, दृगदृश्य ज्ञान न होगा। अर्थात दृष्टा रूपी बोध ही दृश्य और ज्ञान के रूप में होते हैं। काण बोध अखंड है। निाकार अखंडबोध में कोई दृश्य नहीं हो सकता। दृश्य न होने से दृश्य ज्ञान नहीं हो सकता। होने से लगना भ्रम ही है। भ्रम के कारण माया ही है। माया को विवेक से जान नहीं सकते। कारण माया रहित है। माया पटल जीवन को बेकार करेगा। युक्ति रहित नाम ही माया है। सवा अपने के किसी में युक्ति न रहेगी। स्वयं ही सब कुछ है। वह बोध रूप में ही है। वह मैं है का अनुभव है।
4054.इस संसार में कोई भी अपने से अन्य एक वस्तु या जीव का अनुभव नहीं करते। ज्ञानियों को मालूम है कि वे ही सर्वेसर्वा होते हैं। वही सत्य है। केवल वही नहीं मैं नामक अखंडबोध निर्विकार होता है। कारण बोध बननेवाले ब्रह्म से अन्य दूसरी वस्तु न हो सकने से ब्रह्म विकार नहीं हो सकता।इसलिए ब्रह्म निर्वीकार है। केवल वही नहीं,जगत मिथ्या,ब्रह्म सत्यम् के वेदांत सत्य के अनुसार यह शरीर,संसार आदि तीनों कालों में रहित है। बोध रूपी स्वयं मात्र अखंड है। माया के द्वारा छिपे ब्रह्म प्रतिबिंब बोध बननेवाले जीव को द्वैत्व बोध होता है। जीव को ही लगता है कि दूसरे एक को अनुभव करते हैं।माया के परिवर्तन के समय ही स्वयं है का बोध होता है। अर्थात् सभी द्वैत् विकार माया में ही है। माया तीेनों कालों में रहित होने से ये विकार तीनों कालों में रहित ही है। मैं नामक अखंडबोध एक मात्र ही नित्य सत्य रूप में है। ब्रह्म सुख स्वरूप है। जो कोई अपने को ब्रह्म का एहसास करता है, उसको ब्रह्म के जैसे सुख भी नित्य रहेगा।
4055. ब्रह्म से प्यार करनेवाले आकार से प्यार नहीं कर सकते। आकार से प्रेम करनेवाले ईश्वर से प्रेम नहीं कर सकते। अर्थात् निराकार ईश्वर से प्रेम करनेवाले को ही निराकार ब्रह्म बन सकता है। आकार ईश्वर से प्यार करनेवाले आकार ईश्वर लोक को ही जा सकते हैं। आकार सब माया पूर्ण है। अर्थात् जहाँ चलन होता है,वहाँ सब जड होते हैं। जड कर्म है,कर्म चलनशील है। चलन निश्चलन में अस्थिर है। इसलिए आकार ईश्वर, आकार देवलोक , आकार भक्त निराकार परमेश्वर बनने तक अर्थात् परमात्मा बनने तक माया बंधन न छूटेगा। सर्वस्व बदलता रहेगा।परिवर्तन में अपरिवर्तन का सुख न मिलेगा। अपरिवर्तनशील नित्य सुख निराकार परमात्मा का ही स्वभाव है।
4056.इस संसार के दुख रोग का महौषध केवल आत्मज्ञान मात्र ही है। जो कोई आत्मज्ञान सीखना चाहता है,उसको पहले अपने मन को भोग्य विषय वस्तुओं से मुक्त करके पंचेंद्रियों को नियंत्रण में रखकर आत्मविचार में लीन होना चाहिए। अर्थात् शास्त्रविहित कर्मों को निष्काम रूप में चित्त शुद्ध के साथ करना चाहिए। चित्त पवित्र नहीं तो गुरु के उपदेश मिलने पर भी,शास्त्रों के अध्ययन करने पर भी आत्मज्ञान न चमकेगा। वह सूक्ष्म ज्ञान ग्राह्य नहीं कर सकता। उसकी बाधाएँ हैं, उसमें बसे अहंकार, काम-क्रोध,भेद बुद्धि,राग-द्वेष आदि चित्त मल होते हैं। इसलिए पहले मन को पवित्र करना है। वह तैलधारा जैसे रहनेवाले आत्मविचार से ही साध्य होता है।तभी आत्मतत्व ग्राह्य होगा,जब परिशुद्ध मन से वेद,उपनिषद,भगवद्गीता आदि
पवित्र ग्रंथों को विधिवत् पढते समय आत्मतत्व ग्राह्य होगा। आत्मज्ञान ग्रहण करते समय अपने अहमात्मा नामक जीवात्मा को पूर्ण रूप से साक्षात्कार कर सकते हैं। साथ ही शरीर,संसार विस्मृति और ब्रह्म स्मृति होगी। तभी अपने में परमानंद भोगकर
वैसा ही रह सकते हैं। उस स्थिति में मैं नामक आत्मबोध शांत गंभीर रूप में रहेगा, मौन गण रूप में रहेगा, अमृत सागर रूप में रहेगा।
4057.परस्पर विरोध रहने वाले इस प्रपंच दृश्य में सर्वांतर्यामी परमात्मा ही अपने हृदय में अहमात्मा के रूप में बसते हैं।अर्थात अपने अहमात्मा रूपी बोध ही सारे प्रपंच में व्याप्त रहता है। अर्थात् मैं नामक अखंडबोध बने ब्रह्म की शक्ति ही माया है। इन माया शक्तियों के द्वारा इस संसार को ब्रह्म अपने से अर्थात् निश्चलन से न बदलकर निस्संग रूप में सृष्टि करना,रक्षा करना,संहार करना आदि करते हैं। लेकिन वह माया देवी लोक को जितना मोह करता है, जीवों को घूमकर घुमाकर फँसाकर तडपाती है, उतना अपने नाथ को ब्रह्म को मोहित नहीं करता। एक साँप का विष साँप पर असर नहीं डालता। वैसे ही ब्रह्म शक्ति माया सांसारिक जीव पर असर डालने पर भी, ब्रह्म पर प्रभाव नहीं डालता। इस संसार को बनाकर इंद्रजाल दिखानेवाली माया की उत्पत्ति स्थान को जाननेवाला माया मुक्त हो जाएगा।
उसको जन्म या मृत्यु नहीं है। सूर्य प्रकाश में जो कुछ भी करें, वह सूर्य पर प्रभाव न डालेगा।वैसे ही माया के द्वारा प्रतिबिंबित ब्रह्म प्रतिबिंब बने जीव संकल्प करके बनानेवाला प्रपंच का कोई दुख बिंब रूपी परमात्मा अर्थात् ब्रह्म पर कोई असर न डालता। जो कोई एहसास करता है कि इस संसार और शरीर के परमकारण अखंडबोध मात्र है, वह अपनी शक्ति बनाकर दिखानेवाली माया का इंद्रजाल जो भी हो,वह असर नहीं डाल सकता। अर्थात उसको स्वरूप विस्मृति न होगी। इसलिए स्वरूप विस्मृति लेकर जीव के रूप में दुखित जीवात्माओं को पहले जानना चाहिए कि नाम रूप की चींटी से ब्रह्मा तक के स्थूल और सूक्ष्म के सभी शारीरिक रूप तीनों कालों में रहित है। मैं नामक अखंडबोध मात्र ही नित्य और सत्य है। परमानंद है।इस बात को बुद्धि में दृढ बनाकर स्वयं साक्षात्कार करना चाहिए।
4058.ईश्वर के स्मरण आते ही ये स्मरण मिट जाएगा कि भगवान सर्वव्यापी,सर्वस्व होने से ईश्वर ऊपर हैै,नीचे हैंं,बाये हैं,दाये हैं,भीतर है.बाहर हैं।
के रूप में ईश्वर के रूप में आते हैं। हर मिनट हमें ईश्वर के दर्शन होते हैं। उस ईश्वर के निज स्वरूप माया माया पर्दा को हटाकर ईश्वर को दिखा देगा। ईश्वर की तलाश करनेवाला ही ईश्वर होता है। इसे वह एहसास कर सकता है।
4059. एक और एक रस के ईश्वर को अपनी शक्ति माया अनेक रसवाला,बहुरंगीवाले रूप को बनाकर दिखाता है।ब्रह्म सदा एक रस,एकन, निराकार, सर्वव्यापी ही है।वही नहीं माया ये सब उत्पत्ति करके दिखाता है कि ईश्वरीय गुण रहित स्वभाव को, सत्य विकास को परिवर्तन करके जय और नाश भगवान में है का एक दृश्य बनाकर दिखाता है। उत्पन्न करना,सत्य,विकास,परिवर्तन, जय और नाश माया का स्वभाव है।अर्थात् माया स्वभाव को ईश्वर में आरोप लगाकर ही माया देवी प्रकृतीश्वरी स्थिर खडी रहती है। सत्य की खोज करनेवाले को समझ लेना चाहिए कि असत्य को कोई अस्तित्व नहीं है। शरीर और संसार ही असत्य है। समझ लेना चाहिए कि यह स्थाई सत्य आत्मा स्वयं ही है। दीखनेवाले सभी रूपों में निराकार अपने को ही दर्शन करना चाहिए।
स्वयं नहीं है की भावना को मिटाना चाहिए। तभी अपने स्वभाविक परमानंद को पूर्णरूप में साक्षात्कार करना चाहिए।
4060. किसी एक जमाने में विज्ञान के द्वारा मनुष्य जिसे असाध्य समझ रहा था, वह दूसरे जमाने में साध्य हो जाता है।कारण सबको साध्य होने के कारण मनुष्य में सब को साध्य बनाने का सामार्थ्य होता है। अर्थात् कोई एक क्षण मन बुद्धि अधिक बोध को स्पर्श करने पर ही साध्य होता है।
4061. जो कोई भक्त किस किस देवता को तैलधारा के जैसे उपासना करता है,उनके मन में उस देवता का रूप स्थान पाएगा। इसलिए उनके दुश्मन उनको देनेवाले दुखों को देवता के शस्त्र जवाब देंगे। वैसे ही सत् चिंतन से देवता भक्तों को सुरक्षा करेगा।
4062. जो रत्न का मूल्य जानता है,रत्न कीचड में रहने पर भी उसको किसी न किसी प्रकार से अपनाना चाहेगा। वैसे ही आत्मज्ञान को विवेकी सविनय जाति-धर्म वर्ण भेद रहित स्वीकार करेंगे। हीरे की परख जौहरी जानता है। कपडे के व्यापारी नहीं जानता। वैसे ही आत्म ज्ञान की महिमा जिसमें आत्मबोध है वही जानता है।अहंकारी को मालूम नहीं है।
4063. देहाभिमान के अहंकार में जड पकडते समय मन अधर्म करना चाहेगा।
कारण अधर्म अहंकार का स्वभाव होता है। वैसे ही मन आत्मा में जड पकडते समय
मन धर्मकर्म करना चाहेगा। मन आत्मा की ओर न जाने पर अहंकार प्रकृति के दंड से विनाश होगा। शरीर से आत्मा की ओर गया मन मुक्त होगा। साधारणतः संसार में सब असत्य पर विश्वास करके ही जी रहे हैं। सत्य ज्ञान के परिमाण के अनुसार ही विमोचन होगा।जैसे पूर्ण प्रकाश में अंधकार नहीं रह सकता,वैसे ही पूर्ण ज्ञान में दुख देनेवाले शरीर और संसार नहीं रहता।
4064. इस संसार में जो कोई ब्रह्मात्म बोध में अर्थात आत्मा रूपी स्वयं ही ब्रह्मा का एहसास करके ब्रह्म स्थिति पर रहता है,वह ब्रह्म का स्वभाव परमानंद में रहेगा।
उसी समय जो कोई ब्रह्म बोध रहनेवाले पर उसकी अपनी बुरी सोच से तीर चलाना चाहता है, वह ब्रह्म बोध रहनेवालों के निकट जाने के पहले ही कई गुना बढकर
जिसने तीर चलाया,उसके पास वापस आएगा। वही वह सोच ही उसकी सजा होती है। कारण जिसमें ब्रह्म बोध होता है, उसको शरीर और सांसारिक सोच न रहेगा।
इसीलिए शत्रुओं के बुरे चिंता शर ब्रह्म निष्ठ तक न जाकर शून्य में ठकराकर जिसने तीर चलाया,उसी के पास वापस आएगा। जो तीर चलाता है,वह वापस आकर उसपर असर डालने से ही बुरा मनुष्य अच्छा हो जाता है। वैसे प्रकृति के हर कार्य खाली स्थान भरने के समान ही है। जहाँ दो देखते हैं, वहाँ दुख आरंभ होगा। जहाँ एक ही है का एहसास करते हैं, वहाँ सुख शुरु होगा।
4065.जो मन पत्नी,बच्चे,संपत्ति,सुख आदि पर आसक्त रहता है, वह मन निराकार परमात्मा तक जाने की कोशिश करते समय एक क्षण भी आत्मा को सोचकर उसमें स्थिर खडा रहना दुर्लभ हो जाता है। केवल वही नहीं,मन तुरत किसी एक रूप की खोज में वापस आ जाएगा। कारण मन किसी नाम रूप से आश्रित रहे बिना स्थिर नहीं रह सकता। जो कोई रूप की मिथ्या स्थिति को जीव रूपी मन को समझाता है,उसको समझे मन को पीछे विषयों में लगने की वासना न रहेगी।विषय सब मिथ्या है के ज्ञान में अर्थात ज्ञानाग्नि में विषयों के आकार सब नाश होने से मन इच्छा रहित विषयों को छोडकर अपने निराकार वासस्थान ब्रह्म में वापस आकर उसमें ऐक्य हो जाएगा। जो संपूर्ण आत्मज्ञान सीखना चाहता है, उनको सब को अपना ही समझना चाहिए, चाहें वह अपना परिवार हो या समाज हो या राज्य हो सब में अपने को ही देखने का अभ्यास करना चाहिए। रूप सब बल्ब है तो सब में एक ही बिजली जैसे आत्मा है की भावना को विकसित करना चाहिए।तब
कालांतर में एहसास कर सकते हैं कि रूप मिटनेवाले हैं, एक रूप बोध ही परमात्मा है,बाकी सब रूप बनकर मिटनेवाली माया है। साथ ही बोध के स्वभाविक परमानंद को भोगकर स्वयं अनुभव करके आनंदित रह सकते हैं।
4066. यह शरीर संसार के उत्पन्न होेने के पहले ही एक बोध रूप भगवान ही रहा था। उस परमात्मा को पराशक्ति बनी महामाया अकारण आकाश रूप में
ढककर छिपा देने से स्वरूप को भूलकर शुद्ध शून्य आकाश बन गया। आनंद नाश का बोध माया बनाये चित्त में प्रतिबिंबित होकर जीव बनकर जीव देखनेवाले शरीर और संसार वासनमयी चित्त अपने को ही भूलने के लिए बनाते रहने के रूप ही अब हम देखनेवाले शरीर और प्रपंच होते हैं। नाश हुए आनंद को प्राप्त करने के लिए ही
इस माया भरे संसार में सभी जीव प्रयत्न कर रहे हैं। परमात्मा रूपी भगवान,अपनी चलनशक्ति माया को प्रयोग करके अन्य जीवों को सृजन करके उनको उनकी वास्तविकता को अनजान रखकर अंतःकरणों को बनाकर उनके संकल्प लोक में वे जीकर धीरे धीरे ईश्वर की ओर पहुँचने के लीला विनोद देखकर रसिक होना ही इस सृष्टि का रहस्य होता है। परमात्मा स्वयं स्वस्वरूप विस्मृति से बनकर देखनेवाले दृश्य ही यह शरीर और संसार है। शरीर और संसार तीनों कालों में रहित ही है। यह शरीर और प्रपंच चलनात्मक होने से माया है। कारण निश्चलन अखंडबोध में कोई चलन हो नहीं सकता।
4067. राज्य को शासन करनेवाले एकाधिपति या राष्ट्रपति को विविध प्रकार की बाधाओं का सामना करना पडेगा। जो राजा अपनी इच्छा के अनुसार
शासन करना चाहता है, उनको समझना चाहिए कि अपनी प्रजाएँ शिलाएँ नहीं हैं।
उनको एहसास करना चाहिए कि मन-बुद्धि, विवेक-अविवेक,धर्म-अधर्म,राग-द्वेष, काम-क्रोध, विकारों से भरे हर एक प्रतिभास है। कौन सी जीव किस मिनट क्या होगा ?किसी को मालूम नहीं है। केवल वही नहीं, यह शरीर और यह संसार माया कल्पित है,तीनों कालों में रहित एक गंदर्व नगर में ही राज्य शासन करता है। इस संसार में किसी को भी एक युक्ति नहींं है। जिसमें युक्ति नहीं है, वह रहित ही है। राज्य नहीं है, प्रजाएँ नहीं है राजा नहीं है,इस ज्ञान दृढता के बाद ही राज्य का शासन करना चाहिए।अर्थात् इस शरीर और संसार के परम कारण मैं नामक अखंडबोध एक मात्र ही शाश्वत सत्य है। इसको समझकर संसार में न प्रजा,न राजा ,न शासन यों सोचने से ही पूर्ण धैर्य के साथ राज्य का शासन कर सकते हैं। वैसे ही जनक महाराज शासन करते थे।
4068. हमेशा सकल चराचरों को अपने प्राण जैसे स्नेह करने की मनोभावना पैदा करना ही आदर्श है। वैसे सिद्धांतों को धन के लिए, पद के लिए,यश के लिए बली देनेवालों को मनुष्य नहीं कह सकते। मनुष्य जन्म लेकर मनुष्यत्व नहीं है ,मनुष्य आत्मा का महत्व न जानकर जीनेवालों को कीडा भी कह नहीं सकते। वैसे लोगों को जानना चाहिए कि मनुष्य का जीना उसके खोये नित्य आनंद और शांति को पुनःप्राप्त करना। पुनःप्राप्त करने के लिए मार्ग सत्य,धर्म,कारुण्य ,ब्रह्म चिंतन के उपदेश देनेवाले सत्संग को समझकर कर्म करना चाहिए। नहीं तो जीवन के दुखों में तडप तडपकर मरना पडेगा। कारण शरीर संसार के जड के लिए जीनेवालों को स्वप्न में भी शांति और आनंद न मिलेगा। यह शरीर और सांसारिक विषय भोग नरक ही देंगे।.इन बातों को बच्चा सोने के लिए नानी कहने की कहानी की प्राचीन कहानी जैसे एहसास करके शास्त्र सत्य रूपी मैं नामक अखंड बोध परमात्मा के लिए जीनेवाले को ही परमात्मा के स्वभाव अवर्णनीय शांति असीमित आनंद निरंतर रूप में नित्य अनुभव करके वैसे ही हो सकते हैं। मैं नामक अखंडबोध मात्र ही सत्य है। अर्थात् यहाँ बोध रूप परमात्मा मात्र है। बाकी सब माया है और भ्रम है।
4069. राज्य नियम, समुदाय नियम,पारीवारिक नियम , सांसारिक नियम आदि और हर एक जीव और शारीरिक नियम भारत की रामायण पुराण के राम-रावण संघर्ष ही है। आत्मा और अहंकार दोनों हमारा संघर्ष है। परमात्मा और प्रकृति में संघर्ष है। केवल सत्य में कोई संघर्ष नहीं है। ईश्वरीय शक्ति महामायादेवी अखंड और एक रूपी मैं नामक अखंडबोध को विविध बनाकर दिखानेवाले इंद्रजाल नाटक ही शरीर और सांसारिक प्रपंच दृश्य और अनुभव ही है।
4070. किसी एक मनुष्य को संदेह आते समय मन के मार्ग पर जाने पर विविध प्रकार की झंझटें होंगी। केवल वही नहीं, सही उत्तर न मिलेगा। मन में जो प्रश्न
आते हैं,उसे बुद्धि के द्वारा हृदय में रहनेवाले आत्मा को देकर आत्मा से आनेवाल उत्तर ही संदेह को दूर करेगा। कारण मन,बुद्धि और शरीर अंधकार पूर्ण है। आत्मा
प्रकाशमय है। कारण मन,बुद्धि और शरीर ब्रह्म बनी आत्मा के उपकरण मात्र है। इस शरीर को आत्मा ही क्रियाशील बनाती है। एक गायक गाते समय बोध ही गाता है,आदमी नहीं। कारण बोध नहीं है तो शरीर हिलेगा नहीं।
एक कवि कविता लिखते समय बुद्धि और शरीर नहीं, बुद्धि उपाधि मात्र है, बोध ही लिखता है। वैसे ही एक सुंदरी की विशेष सु्ंदरता होने के कारण शरीर नहीं है।
उस शरीर में मिलकर चमकती है आत्मबोध ही। कारण बोध नहीं है तो सुंदरता नहीं है। वैसे ही फ़ुटबाल विजेता की विजय उसकी क्षमता नहीं है।उसके शरीर का बोध ही खेलता है। क्योंकि बोध नहीं है तो शरीर खेल नहीं सकता। वैसे ही सभी जीवों की क्षमताएँ शरीर का नहीं है,प्राण की है। अर्थात् एक एलक्ट्रिकल मोटार चलते समय पानी आता है।वैसे रात में बल्ब जलते समय बल्ब की रोशनी ,प्रकाश बल्ब नहीं , पानी लाना मोटार नहीं, बिजली ही है।क्योंकि बिजली नहीं है तो मोटर,बल्ब चालू नहीं होगा। वे केवल जड ही हैं। वैसे ही नाम रूपात्मक से मिलनेवाले गुण
जड नहीं देते,परमात्मा रूपी अखंडबोध ही देते। जब जीव इन बातों का एहसास करता है, तब शारीरिक अभिमान अहंकार असहाय स्थिति पर आएगी। अहंकार असहाय स्थिति पर न आएगा तो आत्मा का आनंद अनुभव नहीं कर सकते। कारण आनंद को छिपानेवाला अहंकार ही है। अर्थात आत्मा के महत्व को एहसास
करके अहंकार की निस्सारता प्रकट होते समय ही जीवन में आनंद और शांति होगी।
4071. निष्कलंक हृदयवाले को कलंकित आदमी है का आरोप लगानेवाला ब्रह्महत्या पाप का पात्र बनेगा। क्योंकि जो ब्रह्म बोध में रहता है, उसको उस स्थिति से उसके मन को माया बंधन की ओर खींचकर लाने से ही पाप का पात्र बनेगा। जो ब्रह्म बोध में रहनेवाले को द्रोह करता है,उसपर प्रकृति से दंड मिलेंगे।
वैसे जो दंड अनुभव करते हैं,वे भावी जीवन में सज्जनों से मिलकर सत्य को सीखकर सत्य ही बन जाता है। इस प्रकृति का नियम आदीकाल से आवर्तन करता रहता है। मन को कोई परिवर्तन नहीं है। वह मैं नामक अखंडबोध ही है। जो परिवर्तनशील है, वह है ही नहीं है। जो अपरिवर्तन है, वह परिवर्तन होने की झाँकी ही आवर्तन होता रहना है। अर्थात् जो है,उसे नहीं ,जो नहीं, उसे है का एहसास करना चाहिए। तभी दुख का विमोचन होगा। उसी समय जो नहीं है, उसपर विश्वास करके जीने से ही निरंतर दुख होता रहता है। इसलिए अविवेकशील मनुष्य को दुखी देखकर दुखी होना निरर्थक ही है। कारण अपने दुख का कारण खुद ही है।
4072.आत्मबोध रहित एक व्यक्ति स्त्री की बातें सुनकर विवेक रहित दूसरों से टकराते समय उसको मालूम नहीं है कि वह अपने जीवन को नरकमय बनाने का पहला सोपान है। कारण स्त्रियों का स्वभाव समस्याओं को हल करने के बदले समस्याओं को बनाने की भूमिका बनेगी। अर्थात् प्रकृति शांति के विरुद्ध ही कार्य करेगा। अर्थात् प्रकृतीश्वरी चलन शील शक्ति की है। परमातमा निश्चलन सत्य होता है। निश्चलन सत्य में चलन शक्ति को काम नहीं है। जो नहीं है,उसे बनाकर दिखाना ही प्रकृतीश्वरी का काम है। प्रकृतीश्वरी के दो चेहरे हैं विद्या और अविद्या।विद्या जीव को निश्चलन सत्य कीओर ले जाएगा। अविद्या एकरूपी परमात्मा को अनेक रूप में दिखाकर जीव को मोहित करके दुख देगा। जिसको सबमें समदर्शन है, उसको स्वर्ग द्वार खुलेगा। अर्थात परमानंद की चाबी मिलेगी।
4073. आत्मबोध रहित पुरुष गलत सोचता है कि बंधन जो भी हो, कार्य साधना के लिए स्त्री पुरुष को उपयोग करते समय वह आत्मार्थ प्रेम है। कुछ परिस्थितियों मे स्त्री की कुछ चाहों को पुरुष पूरा नहीं कर सकता। स्त्री पुरुष की की गई मदद को भूलकर निस्सार बनाकर स्त्री पुरुष को मन से या शरीर से दूर रखेगी। उसके द्वारा उसको स्त्री के प्रति के स्नेह बंधन को छोड न सकने से दुख होगा। चिंता के कारण व्याधि,मानसिक परेशानियाँ आदि के कारण विवेक हीन शारीरिक शिथिलता के कारण आयु व्यर्थ होगा। स्त्री से आनेवाला सत्य और स्नेह स्वप्न ही होगा। साधारण पुरुष को समझ में नहीं आता कि साधारणतः स्त्रियों की मनोगति कार्य साध्य में ही रहेगी। जैसे प्रकृति अस्थिर है, वैसे ही स्त्रियों के मन भी।
ये सब अज्ञान रूपी अविद्या माया की करतूत ही है। जिस दिन कोई विद्या माया के अनुग्रह से एहसास करता है कि शरीर और संसार जड है, जड सुख नहीं दे सकते, आत्मा का स्वभाव ही सभी आनंद है, वह आत्मा ही स्वयं है, तभी उसके सामने वह धैर्य,धीर और स्वस्थ रह सकता है, शांति और आनंद के साथ सर्वस्वतंत्रता के साथ इस माया संसार के भ्रम में न पडकर कमल के पत्ते पर के पानी जैसे निस्संग जीवन जीकर दिखा सकते हैं।
4074. पति पर दोषारोपन करके उसकी शांति को बिगाडने स्त्री ज़रा भी संकोच नहीं करती। कारण उसमें से ही वह स्थिर खडा रहती है। प्रकृति रूपी स्त्री रूपी मन चलन शक्ति निश्चलन के निकट जाते समय जीव अपना जन्म तजेगा। मन रूपी जीव अस्थिर हो जाएगा। कारण सर्वव्यापी और निश्चलबोध रूप परमत्मा में कोई चलन नहीं हो सकता।वह शास्त्र सत्य है।इसीलिए आत्मबोध रहित स्त्री,पुरुष प्रकृति के आराधक सब निश्चल सत्य के विरोध करते हैं। अर्थात् वास्तव में निश्चल सत्य में अर्थात् अखंडबोध मेंं ,परमात्मा मेंं कोई चलन नहीं हो सकता। किसी को मालूम नहीं है कि मनोमाया कहाँ से आयी, कहाँ खडी है? कहाँ जाती है? केवल वही नहीं,मन के कार्यों को कोई युक्ति नहीं है। अर्थात् ब्रह्म में उत्पन्न होनेवाले सब आत्मबोध रहित माने ब्रह्मबोध रहित शारीरिक अहंबोध से देखते समय शरीर और संसार को स्वप्न जैसे भोगते समय ही सच सा लगेगा।
वास्तव में वह नहीं है। जैसे जीव को स्वप्न लोक मिथ्या है, वैसे ही ब्रह्म बोध के एहसास करते ही अहं बोध तजकर शरीर और संसार मिट जाएँगे। कारण ब्रह्म सर्वव्यापी होने से मनोमाया बोध को वहाँ स्थान नहीं है। जो मन नहीं है,वह बनाकर दिखानेवाले शरीर और संसार है सा लगते हैं। उसके कारण यही है कि काल देश निमित्त को सोनेवाले के स्वप्न में मायाचित्त बनाकर दिखाता है। अर्थात् स्वप्न जीवन उसको अनुभव करते रहते हैं। स्वप्न में हाथी आते समय वह स्वप्न का हाथी समझकर बिना भागे नहीं रहते। स्वप्न देखते समय स्वप्न का एहसास नहीं होता।एहसास होने पर हाथी का भय नहीं रहते। वे नहीं भागते।लेकिन स्वप्न के छूटते ही काल देश निमित्त स्वप्न जीव कोई भी नहीं है। अतः हम अनुभव से जो संसार देखते हैं, वह सच नहीं है। उसके नाश से ही सच और झूठ को समझना पडता है। कारण सत्य अनश्वर है। जो नश्वर है, वह सत्य नहीं है।सत्य रहित दृश्य सब माया भ्रम ही है। अर्थात् समुद्र में बुलबुले,जाग ,लहरें आदि अलग अलग होने पर भी सब समुद्र का पानी ही है। दूसरी एक वस्तु बनता नहीं है। अंधेरे में रस्सी साँप-सा लगने पर भी साँप अंधकार में तीनों कालों में रहित ही है। वैसे ही मैं नामक अखंडबोध में एक प्राण स्पंदन बन नहीं सकता। प्राण स्पंदन न होने से प्राण रूपी शरीर और प्रपंच रहित ही है। प्राण चलन ही यह प्रपंच और शरीर होते हैं।चलन है का दृश्य प्रकाश में अंधकार है कहने के जैसे ही है। वैसे ही अखंडबोध में अंधकार आकार का एक प्राण चलन कभी नहीं होगा। निश्चलन में चलन असंभव ही है। पूर्ण प्रकाश में अंधकार टिक नहीं सकता। वैसे ही खंडबोध खंड रूपी जीव बोध अखंड स्थिति पाने के साथ शरीर और संसार छिप जाएगा। अर्थात् स्वयं प्रकाशित अखंडबोध पूर्ण प्रकाश में शरीर और संसार का अंधकार अस्त हो जाएगा।
4075. अब मुझे रूप है। इसलिए भगवान को भी रूप होगा। मैं अपने को विवेक से जानते समय मेरा अहंकार मैं रूपी शरीर रूप के साथ दिव्य रूप भी बोध में छिपकर निरंतर मैं नामक अखंड बोध स्थिति को पाएगा। अब मुझे शरीर रूप है।इसलिए सोच सकते हैं कि इस शरीर के सृजनहार को भी रूप होगा। लेकिन मैं अपने को विवेक से जानते समय एहसास होगा कि शरीर और संसार नहीं, शरीर और संसार के साक्षी रूप यथार्थ मैं ही है। तब यह भी एहसास होगा कि शरीर,संसार,मन,संकल्प स्थूल सूक्ष्म जड है,जड कर्म है,कर्म चलन स्वभाव का है। चलन-निश्चलन अखंडबोध में स्थिर खडा रह नहीं सकता। अपने शरीर,संसार, स्वयं संकल्पित ब्रह्म रूप तीनों कालों में रहित है। मैं नामक बोध स्वरूप निराकार परमात्मा मात्र ही नित्य सत्य है,वह परमात्मा का स्वभाव परमानंद है। स्वयं अनुभव करे वैसा ही हो सकता है।
4076. वे ही ब्रह्म है, जो सभी जीव को अपने प्राण के रूप में, सभी जीवों को अपना शरीर मानता है।
4077.अपने से अन्य एक प्राण और दृश्य है का स्मरण रहते तक ही अपने बारे में पूर्ण रूप में जानते नहीं है। वैसे ही अपने से अन्य एक चींटी को भी द्रोह करने से या सोचने से भेद बुद्धि और राग द्वेष भी अपने को छोडकर न जाएगा। जब तक भेदबुद्धि राग -द्वेष होते हैं, तब तक अपने से दुख दूर नहीं होगा।साधारण मनुष्य को भेदबुद्धि राग द्वेष के बिना जी नहीं सकता। उनको यह बात समझने की खोज करनी चाहिए कि बोध को छोडकर एक प्राण,संसार, संसार के सूर्य-चंद्र है कि नहीं। वैसे खोज करते समय ही एहसास कर सकते हैं कि मैं नामक अखंडबोध उसमें दीखनेवाले अनेक नाम रूप मात्र ही हैं। बोध ही नाम रूप में है। बोध की पूर्णता में नाम रूपों का अस्त हो जाएगा। भेदबुद्धि और रागद्वेष ही संसार के सभी दुखों के, अशांति के अहमात्मात्मज्ञान ही भेद भावों
भेदबुद्धि को मिटा सकता है।इसलिए इस आत्मज्ञान को झोंपडी से लेकर बंगला तक, प्रारंभिक पाठशाला से लेकर विश्वविद्यालय तक प्रधान विषय के जैसे सिखाना चाहिए। तभी भेदभाव और रागद्वेष मिट जाएँगे।दुख भी दूर हो जाएँगे। आत्मज्ञान न सिखाएँगे तो हर एक जीव दुख में ही मर जाएगा। एहसास करना चाहिए कि मनुष्य खोजकरनेवाले सुख का निवास स्थान् अपने अहमात्मा का स्वभाव ही है। यही सत्य है। इस सत्य को त्यागनेवाले सबको दुख ही मिलेगा। सुख स्वप्न में भी न मिलेगा। मैं नामक अखंडबोध मात्र स्वयं अहमात्माा है। उस बोध का स्वभाव परमानंद को छिपानेवाली माया काा पर्दा ही यह शरीर,संसार और सब नाम रूप होते हैं।. जो बोध के अखंड को एहसास कर लेता है,उसके सामने नामम रूप न रहेगा। मैं नामक बोध ब्रह्मम मात्र ही नित्य सत्य है।
4078. मन में जिसने कुछ नहीं सोचा, उससे कोई कहता है कि तुम जैसे सोचते हो, वैसा मैं नहीं हूँ। वैसे कहनेवाला एक मूर्ख हैं, जो अपने बारे में भी नहीं जानता,उसके बारे में भी नहीं जानता। उससे बोलकर समय को बरबाद करनेवाला
जीवन को व्यर्थ करनेवाला है। कारण जिसमें आत्मबोध नहीं है, उनसे मित्रता रखना ,बोलना माया दृश्य को पक्का कर देगा,मुक्ति के लिए साथ नहीं देगा।
4079. सत्य के अनुकूल न रहनेवाला छोटी सी सोच या कल्पना या भावना होने पर वह अपने सत्यबोध साक्षात्कार करने की बाधा होती हैं। कारण सत्य से आश्रित जीवन बिताते समय ही जीवन का मार्ग खुला रहेगा। अर्थात् पंचेंद्रियों और संसार पर विश्वास करके जीने पर जीवन के आधार सत्य वस्तु के बारे में सही ज्ञान के बदले गलत ज्ञान की जानकारी ही मिलेगी। इसलिए शरीर और संसार को मिथ्या समझकर सत्य रूपी ज्ञान आत्मज्ञान को ग्रहण करना चाहिए। आत्म ज्ञान का मतलब है आत्मा का ज्ञान ही है। अर्थात् आत्मा को जन्म-मरण नहीं है। उसका कोई रूप नहीं है। वह सर्वव्यापी है। वह स्वयं प्रकाश ही है। वह स्वयं आनंद स्वरूप होता है। उसके होने से ही बाकी सब होने सा लगता है। जिसको जानने से बाकी सब को जान सकते हैं,वह मैं रूपी अखंडबोध स्वरूप ही है। इसलिए मैं नामक अखंड बोध के सिवा उसमें दृष्टिगोचर होनेवाले सब तीनों कालों में रहित ही है। एहसास करना चाहिए कि वह माया दिखानेवाला भ्रम ही है। लेकिन जो बोध के अखंड को विस्मरण नहीं करते, उसके सामने माया नहीं आएगी। उतना ही नहीं, उन्हींको मात्र माया सत्य दर्शन के पर्दा को बदलकर देगी। जो सत्यबोध से बिना हटे दृढ रहता है, उसके सामने से माया नदारद हो जाएगी।
4080, सदा परिवर्तन शील दुख मात्र देनेवाले शरीर और लौकिक विषय भोग वस्तुओं की माया कार्यों का मात्र मुख्यत्व देकर आत्मबोध को नष्ट करके जीनेवालों का जीवन में आनंद मरता रहेगा। आत्मबोध को दृढ बनाकर माया कार्यों को नष्ट करनेवालों के जीवन में आनंद बढता रहेगा। कारण आत्म स्वभाव आनंद है, जड स्वभाव दुख है।
4081.जिसका मन आत्मा में मात्र रमता रहता है, उसकी कुंडलिनी शक्ति रूपी प्राण स्वभाविक रूप में मूलाधार पार करके स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनागत,विशुद्धि आज्ञा से छे आधारों को पार करके ब्रह्म द्वार अर्थात् परम पद द्वार सातवाँ चक्र ब्रह्म रंध्र भेदकर चिताकाश जाकर परम स्थिति को पाएगा। तब होनेवाले अनिर्वचनीय आत्मानुभूति का प्रतीक ही सहस्रार में विस्तृत होते सहस्रदल पद्म रूप में योगी विस्तृत करते हैं। अर्थात् जीवात्मा परमात्मा। का साक्षात्कार स्थिति प्राप्त करने तक शरीर को स्वस्थता और पवित्रता से सुरक्षित रखते समय मन और प्राण स्वभाविक रूप में सम स्थिति की ओर जाएँगे। सम स्थिति प्राप्त मन और प्राण ही अखंडबोध रूप परमात्मा को अपने एकांत में प्रकाश के लिए पर्दा हटाएगी। अर्थात् अखंडबोध संपूर्ण आत्म स्वरूप स्थिति में मन और प्राण का अस्त होगा। उसका लक्ष्य अखंडबोध का साक्षात करना होना चाहिए। अर्थात् लक्ष्य ब्रह्म बनना चाहिए। वैसे लोगों को ही महामायाा देवी शरीर और शरीर जीनेवाले वातावरनों को उसके अनुकूल बनाएगी।
4082. इस बात का एहसास करके सत्यदर्शी को कार्य करना चाहिए कि असत्य प्रेमियों को निकटतम लाकर सत्य पर पर्दा डालने असत्य सन्नद्ध है। ज्ञानी जैसे भी हो सत्य बोध से नीचे लाकर माया में फँसाने महामाया देवी विद्या माया रूप में तैयार रहता है। कारण जो आत्मज्ञान में अधपक्के ज्ञानी हैं, उनमें ज्ञान अहंकार देकर उसके द्वारा नाम और यश का मोह उत्पन्न करके फँसाएगी। इसलिए चित्त को त्याग करनेवाले आत्मज्ञानी को मात्र ह महामायादेवी मोह मुक्त करेगी।
4083.सत्यदर्शी कोई भी गलत न करने पर भी उसको दुख देकर ही प्रकृति उसको संपूर्ण बनाती है। कारण लौकिक विषय जहरीला है। इसका एहसास करके बुद्धि में दृढ बनाने का प्रकृति का कार्य ही है। सत्य को साक्षात्कार करते समय ही एहसास कर सकते हैं कि प्रकृति,दुख, दुख विमोचन आदि कुछ भी नहीं है,ये सब केवल भ्रम है।
4084. माता-पिता आत्मा में आँखें खोलकर रखने से ही संतानों को नाश बोेवाला अहंकार न होगा। नहीं तो दुर्योधन को उसके माता-पिता में जो अनुभव था, वही होगा। अर्थात् कृष्णपरमात्मा नामक अखंडबोध को माया चित्त अंधकार रूप में आकर पर्दा डाल देने का प्रतिबिंब ही दु्योधन के अंधे पिता धृतराष्ट्र है। माया रूपी अंधकार से ही अहंकारी दुर्योधन का जन्म होता है। पंचपांडव पंचेंद्रियहै तो पांचाली मन है। आत्मा ही कृष्ण है। आत्माा रूपी श्री कृष्ण से न पूछकर अहंकारी दुर्योधन के साथ पंचेंद्रिय रूपी पांडव जुआ खेलने से ही सभी दुरित हुआ है। अज्ञानी शकुनी ही उसका छाता ताना। .ये सब हर मनुष्य जीव में दिन दिन होनेवाला संघर्ष ही है। उसी का जीवन ऐश्वर्य से भरपूर रहेगा, जो कोई अपने मन और पंचेंद्रियों को अंतर्मुखी बनाकर अहंकार तजकर आत्मा को मात्र स्मरण करके सब में आत्मा का दर्शन करके आत्मा के लिए जीता है।अर्थात् आत्म स्मरण के साथ करनेवाले सब कार्यों में कामयाबी मिलेगी। कृष्णन के साथ रहते कृष्ण को साथ न मिलाने का फल ही पंचपांडवों के दुखों के कारण हैं। हर एक हृदय में आत्मा के रूप में कृष्ण रहते हैं। जो आनंद और शांति चाहते हैं, उनके तैलधारा के समान आत्म स्मरण के साथ सभी कार्यों को करना चाहिए। आत्मा के रूप में कार्य करना चाहिए। तभी जीवन आनंद पूर्ण होगा। कारण आत्मा का स्वभाव ही आनंद होता है।
4085. खींचकर दिखानेवले नक्शे की तरह जीवन चलानेवाले का जीवन सफल होगा। वैसा न होकर खींचे हुए नक्शे की तरह जीने की कोशिश करनेवाले का जीव पानी में खींचे रंगोली के समान अर्थ शून्य होगा।
4086. जो कोई अपने जीवन में सबसे मिलनेवाली मदद सबको ईश्वर की देन मानता है,ईश्वर की देन का एहसास करके जिंदगी भर जीवन चलाता है,उसको ईश्वर ही उसमें बसकर उनके अज्ञान के पर्दे को हटाकर ब्रह्म ज्ञान की अनुभूति देगा। ब्रह्म ज्ञान आतमज्ञान के मिलने के साथ ही अद्वैत ज्ञान बोध होगा कि अहमात्मा ब्रह्म स्वयं ही है, अपने से अन्य कोई दृश्य न होगा, जो कुछ दृश्य है,वे सब स्वयं ही है। उस स्थिति में आत्म रूपी अपने स्वभाविक परमानंद को निरुपादिक रूप में स्वयं भोगकर वैसे ही स्वयं स्थिर खडा रह सकते हैं।
4087.अपनी स्वीकृति के बिना अपने में उदय होनेवाले सोच को भगवान शारीरिक बोध स्वयं बने अहंकार केंद्र नहीं है। अहंकार का आधार जो आत्मबोध है का एहसास करता है,उसके जीवन में मार्ग गलत न होगा। वैसे आत्मबोध के साथ जो सभी कार्य करता है, वह माया कर्म बंधनों से आसान से मुक्ति पाएगा। सााथ ही शरीर से संकुचित जीव बने आत्मा उसके पूर्ण स्वरूप परमात्म स्थिति को साक्षात्कार करेगा। जब उस परमात्म स्थिति को प्राप्त करते हैं, तभी एहसास कर सकते हैं कि स्वयं सर्वज्ञ है और अपने से ही सभी वेद शास्त्र उत्पन्न हुए हैं।अर्थात् इस संसार के कार्य दीखने के कारण मैं रूपी परमात्म स्वरूप ही है। केवल वही नहीं, लौकिक विषयों को अनुभव करनेवाले सभी सुखों का स्थान स्वयं ही है का एहसास कर सकते हैं। अर्थात् इस कार्य में रहनेवाला सब के सब कारण से अन्य रह नहीं सकता। यह परम कारण रहने के परमात्मा का स्वभाव ही परमानंद है। यही अद्वैत स्थिति है। इस अद्वैत स्थिति को वर्तित करते समय माया की छाया भी वहाँ नहीं रहेगा।
4088. हर मिनट दूसरों को दुख देकर रस लेनेवाला भय भीत होकर मार्ग न जानकर अज्ञान अंधकार में लडखडा रहे हैं। लेकिन उनके दुष्कर्म सज्जनों को ज्ञान पाठ सिखाएँगे। जैसे कमल के अस्तित्व के लिए कीचड मुख्य होता हैं, वैसे ही सज्जनों के ज्ञान विकास के लिए अज्ञानियों की क्रियाएँ प्रधान रहेगा। कमल तोडकर मिट्टी में डालने पर मिट्टी हो जाएगा। मिट्टी को देखते समय वह आकाश में बदलेगा। आकाश को देखते समय समझ में आएगा कि वह माया रूप है। माया रूप को विवेक से देखते समय समझ में आएगा कि ईश्वरीय शक्ति है। ईश्वरीय शक्ति ब्रह्म से अभिन्न है। मृगमरीचिका दृश्य रेगिस्तान का सहज रूप होता है। वास्तव में मृगमरीचिका नहीं है। लेकिन जो नहीं है,उसे है के रूप में बनाकर दिखाने की क्षमता रेगिस्तान को है। रेगिस्तान बदलकर मृगमरीचिका नहीं बनती।रेगिस्तान अपरिवर्तन शील रहकर ही मृगपरिचिका का रूप दिखाता है। वैसे ही मैं नामक अखंडबोध ब्रह्म मात्र ही नित्य सत्य परमानंद स्वरूप में स्थिर खडा रहता है।
4089. जो कहता है कि यह ठीक नहीं है, वह ठीक नहीं है, वह इसकी खोज भी करनी चाहिए कि उसके आविष्कारक कैसा है। वैसे आविष्कारक की खोज करते समय एहसास होगा कि आविष्कारक अपने से अन्य नहीं है। वह स्वयं ही है।
कारण मैं के बोध होने से ही यह संसार है सा लगता है। मैं नामक बोध नहीं है तो कुछ नहीं रहेगा।बोध नहीं है,सोचना भी बोध है। वह बना नहीं है, वह नित्य है, वह स्वयंभू ही मैं नामक सत्य है।
4090.धन,पद, यश, सुंदर,स्पर्धा, ईर्ष्या और अहंकार आदि से जो तांडव कर रहे थे, वे कालांतर में ये धन,पद,यश,सुंदरता आदि मिटकर दरिद्रता के वेश में अपने घर को अतिथि के रूप में आएँगे। तभी यथार्थ मैं मैं की खोज करने लगेगा। तब एहसास होगा कि अनश्वर आत्मा रूपी अपने को गलत से नश्वर शरीर समझकर नश्वर शरीर को स्थिर रखने की कोशिश ही जीवन है। इसलिए शरीर को स्थिर रखने की कोशिश करनेवाले अज्ञानियों को एहसास करना चाहिए कि यथार्थ में मैं शरीर नहीं हूँ, संसार नहीं हूँ, यह शरीर और संसार तीनों कालों में रहित है,स्वयं यह शरीर और संसार का आधार आत्मा है, वह आत्मा ही स्वयं जन्म-मरण रहित स्वयंभू है, वह स्वयंभू रूपी स्वयं ही परमानंद स्वभाव से मिलकर नित्य सत्य रूप में स्थिर खडा रहता है।
4091. जो कोई आत्मानुरागी या आत्मा में रमता रहता है, उसमें आत्मा का स्वभाव आनंद उसके मुख और वचन में चकेगा। वह जहाँ भी जाए,जहाँ भी रहें उसके चारों ओर एक चुंबकीय शक्ति बनती रहेगी। आत्म तेजस उसमें से प्रकट होता रहेगा। वैसे लोगों के दर्शन करना,स्पर्श करना,उनसे आशीषें लेन आदि आत्मानंद को बनाएगा। कोई एक आत्मविचार तैलधारा जैसे चाहता है तो उसमें विषय वासनाएँ नहीं होनी चाहिए। जिसमें विषय वासनाएँ होती हैं, वह आत्मविचार कर नहीं सकता। जो विषय सुखों से आत्मा को महत्वपूर्ण एहसास करता है,वही आत्मविचार कर सकता है।
4092. हनुमान का स्वास ही श्रीराम हैं। अर्थात् जैसे स्वास के बिना जी नहीं सकते,वैसे ही राम के बिना हनुमान जी नहीं सकता। अर्थात् हनुमान के अंदर और बाहर रोम रोम में श्रीराम रहते हैं। संक्षेप में कहें तो राम ही हनुमान हैं। इसी को भगवद् गीता में श्री कृष्ण कहते हैं कि जो कोई अन्य चिंतन न करके अपने को मात्र सोचकर और किसी को न सोचकर मुझसे रम जाते हैं, सिवा मेरे और किसी और के चिंतनन न करते हैं, उसके सभी योगक्षेम को मैं देख लेता हूँ। मुझे छोडकर वह, उसे छोडकर वह रह नहीं सकता है।अर्थात् वही मैं हूँ, मैं ही वह है। यही उच्च कोटी की भक्ति है।
4093. जैसा सोच-विचार है,वैसा ही जीवन है यों कहते समय संकल्प अपनी सहमति के बिना अपने में उमडकर आना एक जीव के लिए सही है। उसी समय स्वात्म निश्चित जीव अर्थात् जिसमें स्वयं आत्मा है का दृढ निश्चय होता है, उसको उसकी सहमति के बिना कोई संकल्प उदय नहीं होगा।आत्मबोध रहित संकल्प लोक में जीनेवालों को ही भावनाएँ होंगी। वह निश्चित रूप में नहीं जानता कि वह शरीर नहीं है,आत्मा है। जो संकल्प लोक में है, उसी को ही भविष्य के संकल्प होंगे। वे सोचते हैं कि उनका जीवन उनकी कोशिश से बना है। वे नहीं जानते हैं कि उनका शरीर और संसार तीनों कालों में नहीं रहता और वे असत्य है। जो शरीर और संसार नहीं है, उन्हें वे सत्य मानकर जीते हैं।उनका संकल्प और संकल्प सत्य
संकल्प रहित यथार्थ सत्य नहीं है। कारण आत्मा मात्र सत्य है। आत्मा को संकल्प नहीं होता। कारण आत्मा सर्वेसर्वा और सर्वव्यापी है। इसलिए भावना के अनुसार मानना जीव पर निर्भर है। जीव का आधार परमात्मा पर निर्भर नहीं है। जो आत्मा को सत्य रूप में साक्षात्कार करता है,वही सुखस्वरूप है। वह उसका एहसास करके भोग सकता है। जो स्वयं आत्मा है का नहीं जानता, शारीरिक अभिमान से जीता है,
वे जो शरीर और संसार नहीं है,संकल्प नहीं है,वैसा ही जी रहे हैं। आत्मबोध रहित जीवात्माओं को निरंतर दुख ही होगा।
4095. मैं नामक अहंकार तभी मिटेगा,जब यह जान-समझ लेगा कि हृदय का
धडकन,स्वास,श्रवण,पाचनक्रिया,मल-मूत्रनिकलना,देखना,सुलाना,भाव,मनोविकार,रक्त संचार,हाथ-पैर चलन आदि शारीरिक अभिमान अहंकार नहीं है, वे सब शरीर का आधार बोध ही है,शरीर और शारीरिक अंगों को स्व सत्ता नहीं है।. वे जड हैं।आत्मबोध नामक सान्निध्य से ही शारीरिक अंग,प्रत्यंग,उपांग आदि काम करते हैं। जहाँ अहंकार नहीं है,वही बोध का प्रकाश होगा।जब संसार में इस भाव से काम करते हैं कि मैं शरीर नहीं है,आत्मबोध है,तब कर्तृत्व और भोकतृत्व नहीं होंगे। अर्थात् मैं कर्ता हूँ,भोक्ता हूँ का अभिमान न होगा। जो कोई शारीरिक अभिमान मिटाकर आत्माभिमान को विकसित करते हैं,केवल उसीको ही आत्मा का सवभाव परमानंद का अनुभव कर सकते हैं।
4096. हजार खाली घडाएँ आकाश में यात्रा करने पर भी घडा ही यात्रा करते हैं,न आकाश।वैसे ही हर एक जीवात्माएँ यात्रा करने पर भी, जीवात्मा का बोध अर्थात् आत्मा यात्रा नहीं करती। बोध नामक आत्मा निश्चलन,निर्विकार,अपरिवर्तनशील है। जो है का अनुभव है, अखंडबोध मात्र है। अर्थात् किसी एक का बोध जिस स्थान में जाकर सत्य का दृढ होता है, उसी स्थान में मैं है का अनुभव होगा। मैं है के अनुभव वस्तु जो है,उसका स्वभाव मात्र ही आनंद है। वह मैं रूपी अखंडबोध ही है। जिसमें इस ज्ञान की दृढता होती है,उसका शरीर हो या न हो बोध पर असर न डालेगा। इसलिए जो जीव दुख विमोचन चाहते हैं, उनको मैं हूँ के अनुभव से हटना नहीं चाहिए। तभी माया शरीर जीवात्मा अनुभव करनेवाले दुख जो भी हो, परमात्मा रूपी अपने को अर्थात् मैं रूपी अखंड बोध पर कोई प्रभाव डाल नहीं सकते दुख मार्ग रहित अवस्था ही मुक्ति है।
4097. इस ब्रह्मांड में सभी जीवों में विरुद्ध लिंग से जुडनेे की इच्छा सहजवासना शरीर से जो उत्पन्न करता है,वह शक्ति ही मैं नामक अखंडबोध होता है। अर्थात् बोध रूप परमात्मा है।उस परमात्मा का केंद्र ही मैं नामक बोध है। इस मैं नामक बोध नहींं तो ब्रह्मांड नहीं है। मैं नामक बोध होने से ही सब कुछ है सा लगता है।
अर्थात् मैं नामक बोध को ही मैं हैै का अनुभव होता है। मैं है के अनुभव की वस्तु ही सुख स्वरूप है। इसीलिए सभी जीव सुख की खोज में भटकते हैं। वह स्वस्वरूप विस्मृति से स्वरूप स्मरण में यात्रा की है। उस यात्रा का नाम ही जीवन है।
4098. अहमात्मा को हृदय में साक्षात्कार करने के लिए ओंकार उपासना के जैसे दूसरी उपासनाओंं से नहीं हो सकता। कारण ब्रह्म का नाम ही ओम् हैl शरीर के सभी अवयवों को कार्यान्वित चैतन्य हृदय से ही होता हैl यह चैतन्य नाडियों से मिलकर ही आता है। सभी नाडियों का केंद्र हृदय ही है। यह हृदय ही मैं नामक केंद्र है। प्रणवोपासक ओंकार को उच्चारण करते समय इस संसार के अज्ञान पर्दाएँ एक एक करके बदल जाएँगी। सांसारिक रूप होने के पहले एक ब्रह्म मात्र ही था। निश्चलन ब्रह्म से चलन शक्ति माया नाद शक्ति पहले आयी।वही ओम् .इसलिए ओंकार उपासना करते समय वह नाद कम होने के स्थान को ब्रह्म केंद्र का एहसाल कर सकते हैं। ओंकर में अकार,उकार,मकार अमात्रा ये चार पादओंकार में होते हैं। “अ”स्थूल, “उ”सूक्ष्म, “म” कारण,”अमात्रा” त्रिकालातीत अवस्था से बना है। जीव को जागृत,स्वप्न और सुसुप्ति आदि तीन अवस्थाएँ होती हैं। उसीको स्थूल,सूक्ष्म,और कारण कहते हैं। जो ज्ञानी सत्यऔर असत्य को विवेक से जानते हैं,वे इन तीन अवस्थाओं को तजकर उसके साक्षी स्वरूप बोध स्वरूप को मात्र स्मरण करते रहेंगे। क्योंकि ब्रह्म स्थूल,सूक्ष्म,कारण,सत्व,तमो,रजो गुण, जागृत,स्वप्न,सुसुप्ति के अपार होते हैं। केवल वही नहीं,मैं नामक अखंड बोध में जो है लगता है, वह शरीर,और संसार माया दृष्टित इंद्रजाल के भाग ही हैं। यह शरीर और संसार सत्य नहीं है। वह स्वयं अस्थिर है, आत्मा से आश्रित मात्र है। वह एक माया वस्तु है। वह एक भ्रम मात्र है।
4099. जो ज्ञान मार्ग पर यात्रा करते हैं, वे हर मिनट अपने में से उदय होकर मुख से निकलने वाले वचनों के नित्य-अनित्य को विवेक से जानते समय निस्संदेह मालूम होगा कि सब अनित्य हैं। उसमें अनित्य को छोडकर नित्य को स्वीकार करते समय चित्त सम स्थिति पाएगा। साथ ही आत्मा के स्वभाविक परमानंद को निरूपादिक रूप में अनुभव कर सकते हैं।
4100. अपना अस्तित्व का मतलब है इस शरीर और अंतःकरणों का आधार,अपने में से अपरिहार्य बोध रुप आत्मा ही है। वह आत्मा रूपी अपने को स्थिर खडा रखने की आवश्यक्ता नहीं है। वह स्वयं ही स्थिर खडा रहता है। उसको आदी-अंत नहीं है। इसलिए उसका जन्म मरण नहीं है। यह ज्ञान सुदृढ होने पर स्वात्मा निश्चय होगा। स्वयं आत्मा है का निश्चय होगा। केवल वही नहीं उस आत्मा रूपी अखंडबोध में उदय होकर अस्त होनेवाली माया भ्रम है,दृश्य शरीर और दृश्य जगत भ्रम है। तब आत्मा का स्वभाविक परमानंद को निूपादिक सहजता से अनुभव कर सकते हैं।
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