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Sunday, July 20, 2025

सनातन धर्म -वेद व्याख्या

    बसत4241. इस सांसारिक जीवन के दुख से बाहर आने के लिए मनुष्य  इस बात का एहसास करना चाहिए कि ईश्वरपहले अपने अहमात्मा बने  ईश्वर ही शरीर शरीर को उपकरण बनाकर सभी कार्य करते हैं।एहसास करना चाहिए कि वह शरीर जड कर्म चलन है। वह जड स्वभाव बनकर थोडी देर स्थिर खडे रहने के दृश्य बनाकर मिट जाता है। इसलिए इस बात को एहसास करना चाहिए कि माया शरीर के कारण मैं नामक अखंडबोध ही है। इस प्रकार शरीर और आत्मा को जिन्होंने विवेक से नहीं जाना, वे ही शरीर रूपी जड की उत्पत्ति को जन्म ,वह स्थिर खडे रहने के समय को जीवन और नाश को मृत्यु सोचते हैं। उनको एहसास करना चाहिए कि स्वयं शरीर या संसार नहीं है और इस प्रपंच की सृष्टि,स्थिति  प्रलयों के लिए परम कारण स्थिर खडे रहने का बोध आत्मा है। स्वयंभू  आत्मा को छिपाकर, आत्मा का स्वभाव आनंद को मिटाने का पर्दा बने शरीर को आत्मज्ञान से बदलकर स्वयं  निजी स्वरूप परमात्मा स्थिति को पाकर आत्मा का स्वभाव परमानंद और अनिर्वचनीय शांति को भोगकर वैसा ही स्थिर खडा रहना चाहिए।


4242. मंदिर में भगवान जिंदा रहें तो पुजारी रिश्वत न माँगेगा। उसे केवल शिला सोचनेवाला पुजारी ही निर्बंध से भक्त से रिश्वत माँगेगा। वैसे पुजरियों के जीवन ही दुख मय होता है। रामकृष्णपरमहँस ,ज्ञानपना के लेखक भक्त पूंदानम् , नारायणीयम के कवि वट्टत्री ,तिरुनाउक्करसर, माणिक्कवासकर,तिरुज्ञानसंबंधर,अप्पर, सुंदरर् जसे सगुण स्वरूप में देव-देवी को साक्षात्कार करनेवाली देवी- देव पूजाएँ ही यथार्थ सगुणेश्वर पूजाएँ हैं। वैसे लोग दूसरों से कुछ भी प्रतीक्षा न करेंगे। वे अपनी आवश्यक्ताओं को सीधे भगवान से ही माँगेंगे। भगवान उनकी माँगों को पूरा करेंगे। वैसे लोग भगवान की महिमा गाकर भगवद् लोक जाएँगे। वैसे गुण स्वरूप देव-देवी को  निराकार ब्रह्म ही शक्ति देते हैं। वह परब्रह्म स्वरूप अखंडबोध ही अपने अहमात्मा और स्वयं के रूप में है।  इस बात का जो  एहसास करता है,वही स्वआत्मा को पूर्ण रूप में साक्षात्कार कर सकता है। उस आत्म साक्षात्कार से मिलकर ही शरीर और संंसार के नाम रूप अपने में अपनी शक्ति माया स्वयं उमडकर दिखानेवाला मायाजाल है। इस स्थिति में ही सभी शरीर सांसारिक माया दुख से जीव मुक्ति स्थिति पाएगा। वह जीव भाव छिपी स्थिति ही शुद्ध परमात्म स्थिति है। उस शुद्ध परमात्म स्थिति को पाते समय ही परमात्मा के स्वभाविक परमानंद और अनिर्वचनीय शांति निरुपाधिक रूप में स्वयं भोगकर वैसा ही रह सकते हैं।

4243. स्वयं है को भोगनेवाला बोधात्मा रूपी  मैं स्वयं को जाननेवाला और दूसरे सबको जाननेवाला होता है। लेकिन जड नहीं जानता कि  स्वयं है। इसलिए जड के लिए जड नहीं है। अपने को स्वयं है के जैसे  जड को जड नहीं है। इसीलिए  वह उत्पन्न होने के जैसे लगकर छिपने के जैसे दृश्य को बनाता है। इस प्रकार दृश्य दिखाकर अदृश्य को बनानेवले जड तीनों कालों में रहित है। कारण जो है वह नाश नहीं होगा। जो नाश है,वह नहीं रहेगा। केवल वही नहीं तीनों कालों में रहित शरीर सांसारिक रूप दृश्यों में रहनेवाली आत्मा भरी रहती है। अर्थात्  वह आत्मा मैं नामक अखंडबोध सर्वत्र सर्वव्यापी है। बोध मात्र ही है। बोध रूपी अपने स्वभाव ही परमानंद और परमशांति है। यह ज्ञान तैल धारा के समान जिसमें है, वे उस  स्थिति को पाएँगे। तभी अखंड बोध रूप बने परमत्मा के स्वस्वभाविक परमानंद और परम शांति नित्य भोगकर वैसा ही रह सकता है। अस्थिर रहने का स्थान स्थिर रहने से भरा रहता है। स्वयं जाननेवला बोध ही सर्वव्यापी सत्य है।

4244. एक बिजली का पंखा चलते समय उसका यथार्थ रूप छिपकर दूसरे रूप में दीखता है। वैसे ही बुद्धि से ग्रहण न कर सकने के वेग से प्राणचलन घूमते समय इस प्राण का यथार्थ रूप न मालूम होकर उसी प्राण को ही शरीर रूप में देखता है।इसीलिए एक जीव एक मिनट भी कर्म किये बिना रह नहीं सकता। कर्म इच्छा ही भाव है। कारण कर्म सत्य को छिपा देगा। यों सोचकर कर्म करते हैं कि कर्म को बदलकर छिपाकर सुख बना सकते हैं। कर्म घोर अंधकार है।  कर्म को धीरे धीरे कम  करते रहने से अंधकार मिट जाएगा। कर्म के कम होते ही ज्ञान चमकेगा। काँटे से काँटे निकालने के समान कर्म से ही कर्म बाहर आ सकता है। अर्थत् संगमम रहित कर्म करने से ही ज्ञान मिलेगा। कर्म रहस्य जानते समय ही कर्म विमोचन होगा। कर्म तीनों कालों में रहित ही है। कर्म और अकर्म मिलकर न रहेगा। कर्म रेगिस्तान की मृगमरीचिका के समान है। मृगमरीचिका का आधार रेगिस्तान ही है। मृगमरीचिका रेगिस्तान में कैसे आयी? पूछने के जैसे ही कर्म बोध मे कहाँ से आया का प्रश्न। कर्म जड है। अर्थात् जड बोध में रस्सी में साँप जैसे भ्रम है। रस्सी के निकट जाते समय साँप नहीं दीख पडेगा। वैसे ही बोध में दीखनेवाला कर्म चलन की निश्चलनता बढते समय ब्रह्म अखंड रूप में प्रकाशित होगा। रेगिस्तान में मृगमरीचिका नहीं आयी। रस्सी में साँप नहीं आया। वैसे ही मैं नामक अखंड बोध में कर्म नहीं आया। यही कर्म रहस्य है।

4245. भूमि पर जीनेवाला मनुष्य भेदबुद्धि और राग-द्वेष काम-क्रोध उससे होनेवाले अकरम,अनीति अधर्मों को जो भी आयें,ठीक करने में असमर्थ है। कारण जो है,उसे ठीक कर सकते हैं। जो नहीं है,उसे ठीक नहीं कर सकते। जो है,वह ठीक है। उसे ठीक करने की आवश्यक्ता नहीं है। जो नहीं है, नहीं ही है। उसे ठीक करना व्यर्थ काम है। उदाहरण के लिए अहिंसा अच्छा है।  उसका पालन करना मुश्किल है। अनेक जीव हर एक मिनट अनेक जीवों को नाश करके ही जी रहे हैं।हमारे साँस में अनेक कीटाणु होते हैं। सभी वनस्पतियों को प्राण होते हैं। एक जीव दूसरे जीव को मारकर खाकर जी रहे हैं। धनवान दरिद्र को,बुद्धिमान बुद्धिहीनों को, शक्तिमान दुर्बलों को, चार पैर के जीवन को  दो पैर के जीव को, दो पैर के जीव मनुष्य को चार पैर के जीवों को, बडे जीव  छोटे जीवों को, छोटे जीव बडे जीवो को परस्पर गुलम बनाकर, मारकर ,खाकर जी रहे हैं। वस्तव में जीव किसी  अन्य जीव को मारते नहीं है। कारण सभी बल्बों में एक ही बिजली के संचार जैेसे सभी जीवों में आत्मा एक ही है। इस आत्मा को तलवार से काट नहीं सकते।आग से जला नहीं सकते। हवा में सुखा नहीं सकते,बाढ में भिगोकर नाश नहीं कर सकते। किसीसे उसको मिटा नहीं सकते। आत्मा सदा अनश्वर है, नित्य शुद्ध, बुद्ध मुक्त है। वह निश्चलन, निर्विकार और निष्क्रिय है। उसको जन्म-मरण नहीं है। वह स्वयंभू है। वह सर्वव्यापी होने से उससे अन्य दूसरा एक हो नहीं सकता। लेकिन आत्मा किसी की हत्या नहीं करती, किसी से हत्या नहीं की जा सकती। केवल वही नहीं, शरीर,सांसारिक रूप, नामरूप आदि जड ही है। वे जड कर्म चलन होने से निश्चल ब्रह्म में कोई चलन किसी भी काल में न होगा। इसलिए वह चलन तीनों कालों में रहित है। ये सब निश्चल परमात्मा अपनी स्थिति से न बदलकर चलन शक्ति माया के रूप में खडे होकर दिखानेवाले एक इंद्रजाल नाटक ही है।  जो जड नहीं है, उसकी हत्या की ज़रूरत नहीं है। हत्या करने से लगना सब माया के भ्रम है,सत्य नहीं है। इसलिए आत्मज्ञानी जन्म-मरण, रोग-दुख, ,राग-द्वेष,स्पर्धा,ईर्ष्या आदि के बारे में चिंता नहीं करते। इसलिए  दुख विमोचन चाहनेवालों को यह शरीर और जीव तत्व को समदर्शन से देखकर कमल के पत्ते और पानी के जैसे इस माया प्रपंच में जीकप मुक्ति स्थिति को पाना चाहिए।

4246.  सभी के हृदय में अनंत गुणों के मूल के रूप में निर्गुण परब्रह्म होते हैं। वह ब्रह्म परमानंद स्वरूप है। वह परमानंद स्वरूप अहमात्मा को छिपानेवाले मन और प्राण  मन संकल्प करके बनाये शरीर सांसारिक रूप स्मरणों की भीड ही है। वही अविद्या माया है। इसीलिए उनका मन सांसारिक  शरीर का केंद्र होगा। वह अहमात्मा के निकट न जाएगा। मन अहमात्मा के निकट जाने के लिए अविद्या स्वरूप रहनवाले जड शरीर संसार के रूपों को  विवेक से जानना चाहिए। तभी शरीर और संसार आत्मा से आश्रित रहने से लगनेवाले चित्त संकल्प स्वरूप को एहसास कर सकते हैं। इसलिए शरीर और संसार के लिए चित्त को त्याग करना चाहिए। जब चलन चित्त निश्चलन अहमात्मा के निकट जाता है,तब चलन शील चित्त निश्चल ब्रह्म में मिट जाएगा।चलन निश्चलन हो जाएगा। यह  विवेकशीलता होने के लिए सदचिंताएँ  होनी चाहिए। सत्कर्म करना चाहिए। दानधर्म करना चाहिए। तभी विद्या देवी प्रसन्न होकर वर प्रसाद देगी। वैसे जो कोई चित्त को मिटा देता है,वह सच्चिदनंद स्वरूप हगा।

4247.यथार्थ सुंदरसा रूप-रंंग में नहीं है। मन अति गहराई में जाकर आत्मा से प्रार्थना करते समय प्रकट होनेवाले गुण ही  अन्यों को आकर्षित करेगा। वही आत्मसौंदर्य है। इस ब्रह्मांडे चौदह लोक में आत्म सौंदर्य ही सौंदर्य के रूप में है। आत्मा अति शोभा का रूप ही है। इस सारे संसार को जननेवाला बडा ज्ञान रूप है मैं, मैं के बिना प्रपंच नहीं है। सब कुछ जाननेवाली आत्मा  बने अपना सुंदरता ही प्रपंच रूप में चमकता है। वही प्रकाशित है।.

4248.शरीर और प्राण के बीच में घडी के लंगर जैसे सदा मन  दोलन करता रहता है। जिस दिन मन आत्मज्ञान से समझ लेता है शरीर मिथ्या है,उस दिन में मन आत्मा के निकट जाकर आत्मप्रकाश में जीवभाव भूलकर शरर और संसार की याद न करके सीमित जीवात्मा असीमित परमात्मा की स्थिति पाएगा। जो कोई इस परमात्म स्थिति को साक्षात्कार करता है, उसीको आत्मा का स्वभाविक परमानंद, परमशांति, परिपूर्ण स्नेह और सर्वस्वतंत्र भोगकर  नित्य सत्य रूप में स्थिर खडा रह सकते हैं।

4249. एक लाख मिट्टी की मू्तियाँ बनाने पर भी उसमें मिट्टी के सिवा और कुछ नहीं है। वैसे ही एक लाख स्वर्ण आभूषण बनाकर पिघलने पर उसमें सोने के सिवा और कुछ नहीं है। वैसे समुद्र की लहरें,बुलबुले,जाग आदि अनेक हज़ार  बनते रहने पर भी पानी के सिवा और कुछ नहीं है। जानने-समझने  के ज्ञान सब जाननेवाले ज्ञान के सिवा और कुछ नहीं है। वैसे ही निश्चल ब्रह्म से अनेक ब्रह्मांड रूप उमडकर आने को देखने पर भी वह सिवा ब्रह्म और कुछ नहीं है। अर्थात्  निश्चल परमात्मा को ही चलन प्रपंच दर्शन करता  है।  निश्चल रेगिस्तान में  ही चलन शील लगनेवाली मृगमरीचिका दीख पडती है।  वास्तव में मृगमरीचिका मरुभूमि में  नही है, वैसे ही कर्मचलन तीनों कालों में परमात्मा में नहीं है। कर्म चलन लगनेवाला शरीर और सांसारिक प्रपंच सब तीनों कालों में नहीं है। निश्चल परमात्मा रूपी ब्रह्म मात्र ही है।निश्चल ब्रह्म को ही कर्मचलन प्रपंच के रूप में देखते हैं। कारण  निश्चल ब्रह्म सर्वव्यापी होता है। और किसीको उससे अन्य रूप में स्थिर नहीं रह सकता। जो कोई जीव  और संसार को जान-समझकर स्वयं ब्रह्म मात्र है का एहसास करता है उसीको ही अद्वैत ब्रह्म तत्व  मैं नामक अखंडबोध रूपी परमात्मा का स्वभाविक परमानंद और परमशांति को स्वयं अनुभव करके वैसा ही अनुभव करके वैसा ही स्थिर खडा रह सकता है।

4250.  भगवान से माँगने पर जो कुछ माँगते हैं, वही मिलेगा। न माँगें तो माँगने के पहले ही जो कुछ मिलना है, वह मिल जाएगा। प्रश्न सीमित है। इसलिए मिलनेवाला भी सीमित है। जो प्रश्न नहीं है, वह असीमित है। अर्थात् ईश्वर की इच्छा मात्र ही पूरी होगी। कारण ईश्वर दूसरों के लिए याचना नहीं करते। सभी जीव के एक रूप है ईश्वर। ईश्वर रूपी मैं नामक एक रूप अखंडबोध रूप को स्वीकार करके ही सभी जीव आये हैं। अर्थात् एकात्मा अनेकात्मा बनकर लीला-क्रीडा करते हैं।
जो कोई अपने अहमात्मा रूपी भगवान के शरणागति में यह आत्मा ही सब कुछ करता है, आत्मा ही सब कुछ भोगता है, यह सोचकर कर्तृत्व भोगतृत्व का अहंकार अर्थात  मैंने किया, मैंने भोगा की अहंकार बुद्धि न तो उसके इर्दगिर्द चारों ओर ईश्वर का स्वभाव आनंद का खेल चलता रहेगा। कारण एक ही बिजली के संचरण से विद्युत यंत्र और अनेक वर्णों के बल्ब जल रहे हैं। बिजली नहीं तो सब जड वस्तुएँ हैं।  अर्थात आत्मा रूपी बोध नहीं तो सभी जीव जड ही है।  वैसे ही जो कोई  बोध रूपी परमात्मा ही है को दृढता से ही एहसास करता है,  वह एक क्षण भी अपने आप की आलोचना न करके  मनोमाया को जीतकर अपने को ही सभी जीवों में देखकर स्वयं के बोध को ही सभी प्रपंच जीवों में देखकर अद्वैत्  भाव में रहता है,उसी को ही परमानंद और अनिर्वचनीय अनश्वर शांति और सर्वस्वतंत्र पूर्ण स्नेह, सर्वज्ञत्व,सर्वशक्तित्व होगा। जो वैसा नहीं है,  वे नश्वर शरीर और प्रपंच को शाश्वत सोचकर उनपर विश्वास करके स्वभाविक आनंद को स्वयं भूलकर विषय मोह में फ़ँसकर जड वस्तुओं में आनंद को खोजकर जीवन को व्यर्थ बनाते हैं। अपने को स्वयं न पहचानकर अपने को ही खोजते रहते हैं।

4251. सत्य को लक्ष्य बनाकर जिसने जीवन नहीं बिताया,वह अपने वचन और कर्म को एक साथ लेकर जा नहीं सकता। मार्ग और उपाय लक्ष्य नहीं है। जिसने  अपने निजी घर को भूल गया है, उसके घर के मार्ग से कोई प्रयोजन नहीं है। वैसे ही स्वआत्मा को लक्ष्य न बनाकर पुण्य कर्मों में, दान-धर्मों में हवन-यज्ञ के कर्मों में आत्मबोध रहित अहंबोध अर्थात् मैं, मेरा है,अर्थात्  कर्तृत्व और भोगतृत्व के अहंकार से कर्म की इच्छा लेकर कर्म करनेवालों को कभी शांति और आनंद न मिलेगा। शांति और आनंद मिलना है तो आत्मबोध से न हटकर दृढ रहना चाहिए।कारण निश्चल परमात्मा का स्वभाव ही आनंद और शांति है। वह तीनों कालों में रहित चलन कर्मों से न मिलेगा। वैसे लोग लक्ष्य न जानने से मार्ग परिवर्तन करते करते अनुपयोगी जीवन चलाकर संकल्प माया कर्म लोक में घूमकर थक्कर दुखी रहेंगे। इसलिए जो कोई आत्मा बने ईश्वर को लक्ष्य बनाकर  भगवद् रहस्य जानने के लिए आत्मज्ञान को सीखता है,उसको जानने केलिए और कुछ नहीं है। जो  कोई आत्मज्ञान से शारीरिक बोध से आत्मबोध में जाकर  जब आत्मबोध की पूर्णता में अर्थात् अखंडबोध स्थिति को पाता है, उस मिनट में अब तक जिस संसार को देख रहा था, वह नदारद हो जाएगा। वैसे बोध उदय हुए ज्ञानी इस मिनट तक आश्चर्य से,हैरानी से, अद्भुत अनुभव अनुभव करनेवाले हैं। उस स्थिति में ही मैं नामक अखंडबोध का स्वभाव परमानंद को निरुपाधिक रूप में स्वयं भोगकर परमानंद स्वरूप में स्थिर खडा रह सकते हैं।

4252.  विषय जो भी हो, कर्म करते समय अनुभव के पहले किसी पर विश्वास रखना नहीं चाहिए। कारण अनुभव अपरिहार्य है। अनुभव के पहले ही उम्मीद करके धोखा खाने के कारण अनुभव न होना ही है। धोखा खाने से बचने के लिए विश्वास करने के लिए सब्रता से रहना चाहिए। इस संसार में सभी रिश्ता प्यार के लिए अनुभव रहित विश्वास करकेे धोखा खाये रिश्ता ही है। अर्थात्  इस संसार का शास्त्र सत्य एक ही है। वह एक है आत्मा बने मैं नामक अखंडबोध ही है। वह सर्वव्यापी 
होने से ही स्वयं नामक सत्य से अन्य लगनेवाले वस्तु जो भी हो वह असत्य और अर्द्ध सत्य है। कारण सत्य से  आश्रित  दूसरी वस्तु है सा लगना मिथ्या है। उदाहरण के लिए एक प्रेमी अपनी प्रेमिका से प्यार करता है।प्रेमी और प्रेमिका दोनों का अहमात्मा एक ही है। वह एक बनी आत्मा स्वयं ही है का जान-समझकर एहसास करने पर शेष दूसरे रूप में देखनेवाली प्रेमिका का शरीर मिथ्या है। उस मिथ्या नामरूप को गलत से आत्मा समझकर रिश्ता जोडने से ही वह रिश्ता टूट जाता है।
इसलिए सत्य एक ही है। दूसरा जो देखते हैं, वह नाम रूप ै। नाम रूप सत्य नहीं है। सत्य के लिए रूप नहीं है। जिसका रूप है,वह सत्य नहीं है। कारण सत्य सर्वव्यापी है। इसलिए निराकार सर्वव्यापी सत्य को अपने से मिेले बिना दूसरा एक सत्य है। इसलिए दो देखनेवाले स्थान ही दुख होेने के कारण है।

4253. शारीरिक रूप में जीव बनकर  देखते समय ही लगेगा कि संसार के रूप हैं। वह मनुष्य के संकल्प ही शरीर और संसार के रूप देखते हैं।मन के छिपने के साथ संकल्प शरीर और संसार छिप जाएँगे। अर्थात् एक शिशु जन्म लेने के पहले माँ के गर्भ की थैली में एक कण के रूप में ही था। उस कण से एक विचित्र शरीर कैसे उत्पन्न हुआ? यह वैज्ञानिकों से पूछा तो कहेंगे कि यह प्रकृति का स्वभाव या ईश्वर की सृष्टि है। कारण हर एक शरीर में अनेक हज़ार नाडी- नशें हैं,हड्डियाँ सब कुछ है। केवल वह मात्र नहीं है,  देखने की शक्ति, श्रवण शक्ति, रसना शक्ति,स्पर्श शक्ति, सुगंध शक्ति, उनसे न मिेले विचार और विकार हैं। वैसे ही शारीरिक अभिमान रूपी मैं नामक सोच, उसमें काम,क्रोध, लोभ, मोह, मद,मत्सर,रूप,रस,गंध, स्पर्श आदि मनोविकार, रक्त संचार, हृदय धडकन, होते हैं। इन सबको मनुष्य एक अद्भुत् दृश्य के रूप में ही देख सकता है। इन सबको ईश्वरीय सृष्टि कहने के सिवा और कोई  स्पष्ट उत्तर दे नहीं सकता। लेकिन मनुष्य को समझना चाहिए कि भगवान ने ही अंग,प्रत्यंग और उपांगों को बनाया है यह बात किसने कहा है?  कहनेवाले से अन्य  एक ईश्वर हो नहीं सकता। इसलिए  ईश्वर के पहले ही मैं है को अनुभव करनेवाले मैं है। मैं नहीं है तो भगवान शब्द को भी कह नहीं सकते। इसलिए शरीर बनाया रहस्य अपने को मालूम है  क्या? के प्रश्न करने पर जवाब है नहीं मालूम। लेकिन इस शरीर के कारण बने अपने निज स्वरूप मै है को अनुभव करनेवाले आत्मा बने अखंडबोध से बना है के प्रश्न करते समय मैं नामक अखंडबोध निराकार, निर्विकार,निष्क्रिय, सर्वव्यापी, अपरिवर्तन शील, परिशुद्ध,निष्कलंक,निश्चलन, निर्मल, बनकर रहता है। इसको स्वयं एहसास करके साक्षातस्वप्न कर सकते है। जितने लोगों ने साक्षात्कार किया है, उनका अनुभव है। अनुभव ही सत्यस्वरूप है। यही शास्त्र सत्य है। यह अद्भुत मनुष्य रूप उत्पन्न रहस्य ही सोते समय स्वप्न में स्वप्न जीवन बनता है। उस स्वप्न जीवन में जागृतावस्था में देखनेवाले शारीरिक रूप के सब स्वप्न जीवन में है। स्वप्न अनुभव करते समय सब कुछ सत्य ही लगेगा। स्वप्न में हाथ तोडने पर रक्त बहेगा। उस खून को स्वप्न जीवन जीव सत्य ही मानेगा। आँखें नष्ट होने पर अंधा हो जाएगा। स्वप्न जीव अपने को अंधा ही समझेगा। स्वप्न के टूटते ही सब मिथ्या लगेगा। स्वप्न को बनानेवाला अपने से अन्य एक व्यक्ति अपने में आकर बनाया नहीं है। स्वयं भी बनाया नहीं है। वह अपने सान्निध्य में स्वयं ही बना है। कारण स्वयं सर्वव्यापी है। इसलिए अपने सर्वव्यापकत्व बिना बदले अर्थात् अपनी स्थिति न बदले अर्थात् अपनी शक्ति माया अकारण चलन रूप में चित्त के रूप में खडे होकर चित्त बनाकर दिखानेवाले इंद्रजाल ही स्वप्न अनुभव और जागृत अनुभव होते हैं। वह रेगिस्तान की मृगमरीचिका बनाकर दिखाने की क्षमता रेगिस्तान को जैसे है, वैसे ही परमेश्वरन  जगतीश्वरन की अलौकिक क्षमता ही जगत है। जगतीश्वरन ने जगत की सृष्टि नहीं की है। कारण विश्व भर में विश्वनाथ सर्वव्यापी है। सर्वव्यापी जगतीश्वरन मात्र ही नित्य सत्य है। अर्थात्  बोधा अभिन्न जगत् है।

4254. इस संसार में सब के सब ईश्वर की खोज में ईश्वरीय अनुभूति के लिए भटकते रहते हैं। उनको समझना चाहिए कि सबके अनुभव ईश्वरीय अनुभव ही है। सब के सब ईश्वरीय अनुभव को भोगते ही रहते हैं। कारण शरीर अनुभव कर नहीं सकता कि स्वयं है। इसलिए शरीर कह नहीं सकता कि मैं अनुभव नहीं कर सकता। कारण शरीर कह नहीं सकता कि मैं भोगता हूँ। कारण शरीर जड है। ईश्वर रूपी आत्मा बने मैं नामक बोध के उपकरण ही यह जड करन चलन स्वभाव से मले पंचभूत पिंजडे का शरीर है। मैं नामक अखंडबोध आँखों से ही संसार को देखता है। आँख अपने अनुभव नहीं बोलती। बोध ही कहता है। वैसे ही सब इंद्रियों के अनुभव को बोध ही कह सकता है।  बोध ही शास्त्र परम भगवान है। बाकी सब संकल्प ही है। संकल्प देवों को बोध ही अनुभव करता है। बोध ही सर्वव्यापी होता है। बोध नहीं है तो संकल्प नहीं है। संकल्प लोक और संकल्प ईश्वर नहीं है। जो हमारे अनुभव है, सब के सब बोध अनुभव ही है। बोध ही सर्वत्र भरा रहता है। इसलिए  बोध से अन्य कोई वस्तु नहीं है। बोध से न मिले कोई दर्शन  साध्य नहीं है। बोध मात्र है। बोध का अर्थ है स्वयं है का अनुभव करनेवाला  आत्मा ब्रह्म ही है। मैं नामक बोध ही प्रपंच के केंद्र बिंदु है। जहाँ है का अनुभव है, वहीं आनंद और शांति है। उस आनंद और शांति को नष्ट करनेवाला बोध में दीखनेवाला माया कर्मचलन ही है। कर्म वासना ही भाव है। कर्म जड है। कर्म ही जड बनाकर नाश करता है। इसलिए कर्म भी जड है। प्राण सूक्ष्म जड है। जड सत्य है का विश्वास ही भाव है। सत्य को कर्म छिपाता है। लेकिन कर्म  रहित है। जहाँ कर्म है सोचते हैं, वहीं पाप का आरंभ होता है। इसलिए पाप विमोचन के लिए शास्त्रीय ढंग से कर्म और आत्मा के बारे में पढना चाहिए। अध्ययन करने से आत्मा में शरणागति पाकर आत्मज्ञानअग्नि में सारे पाप जल जाएँगे। चलन निश्चलन हो जाएगा। कर न होने से पाप भी न होगा। आत्म ज्ञान ही पापों को मिटाएगा।

4255.भारत के रामायण पौराणिक कथा में राम और रावण दोनों मुख्य पात्र हैं। उनमें रावण अहंकार का पात्र है,राम आत्मा का प्रतीक है।  अहंकारी  रावण के हृदय में अहंकार स्थिर रहने के कारण रावण   के हृदय में  राम रूपी परमातमा होने से ही है। अर्थात्  रावण का अस्तित्व  रावण के हृदय में बसे राम रूपी आत्मा से आश्रित होकर ही है को न जानने से ही राम से भिडता है, राम की बात न मानकर राम के शरणार्थी न बनकर नाश हो जाता है । अर्थात्  अहंकार माने अज्ञान रूपी अंधकार ही है। किसी भी काल में अंधकार राम क् शरण में   जा नहीं  सकता। राम खुद प्रकाशित दूसरों को भी प्रकाश देनेवाले हैं। राम स्वयं प्रकाश स्वरूप है। राम रूपी परमात्मा के पूर्ण प्रकाश में अहंकार अंधकार पूर्ण रूप में मिट जाएगा। केवल वही नहीं राम  नित्य सत्य पर ब्रह्म ही है। अर्थात् इस माया प्रपंच में जीवों को प्राकृतिक प्रकोप द्वारा होेनेवाले दुखों के कारण  पचभूत सुविधाएँ  न होना ही है। परिवार हो या समाज हो या देश हो या राज्य  एक जीव जीने के लिए पंचभूत सुविधाएँ होनी चाहिए। पंचभूत अनुकूल होना चाहिए। पंचभूत प्रतिकूल होने पर घोर वर्षा  होकर खेत पानी में डूबकर फ़सल  नष्ट होते हैं। सूर्य की गर्मी से पौधे सूख जाते हैं। पहाडों पर होनेवाली ज्वालामुखी, भूमि स्खलन, आँधी-तूफ़ान घोर हवा,भूकंप बिजली-वज्रपात, काले बादलों से हवाई जहाज दुर्घटनाएँ, दावानल आदि प्राकृतिक प्रकोपों के कारण हजारों जीवों की मृत्यु,जंगली जानवरों की मृत्यु , संक्रामक रोग आदि अहंकार के कारण नाश ही नाश होते हैं। इन प्राकृतिक कोप होने के कारण यही है कि अधिकांश जीव भगवान को भूलकर अहंकारी बनकर बनाया है। अहंकारी कहता है कि मैं नहीं तो कुछ नहीं होगा। मैं, मेरा के अहंकार से भेद बुद्धि बनाकर उसके द्वारा राग-द्वेष ,कामक्रोध से जीव परस्पर संग्राम करते हैं। इसीलिए  इन पंचभूत दुखोंं को दूर करने के लिए घरों में, समाज में ,देश में,राज्यों में यज्ञ-हवन करते हैं। देवों की स्तुति करके खुश करते हैं। जिस स्थान में पंचभूतों को स्तुति करते हैं, उस स्थान में पंचभूत खुश होकर सुविधा देते हैं और समृद्ध बनाते हैं। जहाँ-जहाँ  ईशवरत्व को मुख्यत्व नहीं देते, वहाँ -वहाँ सब स्थान नाश हो जाएगा। ईश्वर को अधिक मुख्यत्व देनेवाले घर, देश, ऱाज्य आनंद नृत्य करेगा। वहाँ शांति की लहरें उठेंगे। उच्च वोलटेज बिजली से देश और घर के विद्युत साधनों का उपयोग करके आनंद   का उपयोग नहीं कर सकते। अतः उस उच्च वोल्टेज को कम वोल्टेज में बदलकर ही घर के विद्युत उपकरणों में उपयोग करके आनंद का अनुभव कर सकते हैं। वैसे ही सांसारिक जीवन में ब्रह्म के  प्रतिबिंब  रूप पंचभूतों को, गुण सवरूपों के, देव-देवियों को हर दिन स्तुति करने से ही श्रेष्ठ जीवन बिता सकते हैं।

4256.  स्वप्न जागृति में अर्थात् स्वप्न के वर्तमान में स्वप्न शरीर के जीवन  जैसे स्वप्न जीवन में जीने का प्रयत्न करता है, वैसे ही जागृत जीवन में भी कोशिश करता है। स्वप्न में जीव जो कुछ करता है, वह सोचता है कि वह बोध पूर्व करके ही करता है। लेकिन इस यथार्थ शरीर के स्मरण आने के बाद ही सच्चाई समझते हैं कि आत्म स्मरण रहित संकल्प लोक में जिया है। वैसे ही वर्तमान जीवन में भी जीव सोचता है कि  बोध पूर्व ही जीता है, पूर्ण आत्मबोध में नहीं है। वह जान-समझ सकता है कि इस शरीर से यथार्थ स्वयं बने अहमात्मा को अनुभव करते समय ही संकल्प शरीर बोध मिलकर ही जिया था। दृढ रूप में जान-समझ सकते हैं कि यह संसारिक जीवन एक स्वप्न लोक है।

4257.जो सोचता है कि अपने को प्रारब्ध है?  तो उनको अनेक प्रश्न अपने से ही पूछना चाहिए कि यह प्रारब्ध कैसे आया?  किसको आया? किसलिए आया? कैसे इसे मिटा सकते हैं?  क्या प्रारब्ध नामक कुछ है? यह किस शास्त्र में है? तभी एहसास कर सकते हैं कि प्रारब्ध सब आत्मा के लिए नहीं है।  तीनों कालों में रहित मन को है। आत्म तत्व का अध्ययन करते समय एहसास कर सकते हैं कि आत्मा निष्क्रिय है। कारण आत्मा सर्वव्यापी है। सर्वव्यापी कर्म नहीं कर सकता। केवल सर्वव्यापी चलन नहीं कर सकता। इसलिए आत्मा निश्चलन है। निश्चलन आत्मा में एक चलन होना असंभव है, जैसे प्रकाश से अंधकार होना, ज्ञान से अज्ञान होना,रेगिस्तान से मृगमरिचिका होना,रस्सी से साँप होना असाध्य है। वैसे युक्ति से आत्मा और शरीर को विवेक से जान लेना चाहिए। यह ज्ञान यज्ञ-हवन से, प्रार्थना से,आराधना से तुरंत न मिलेगा। उसके लिए विचार करना है, आत्मविचार करना है,तत्व विचार करना है,चिंतन करना है। तब ऐसा ज्ञान प्राप्त होगा कि शरीर शरीर सदा चलनशील है, शरीर और मन चलन क्रिया से बाहर नहीं आ सकता।  सूक्ष्म चलन संकल्प गाँठ के होने से वह जड है। तब यह ज्ञान होगा कि जड स्वभाव कर्म चलन स्वभाव के साथ होने से निश्चलन आत्मा में कोई चलन न होगा। कारण निश्चलन में चलन युक्ति जुडी नहीं है। वस्तु जो भी हो,युक्ति नहीं तो कोई वस्तु नहीं है। जो वस्तु नहीं है, उसको कोई युक्ति नहीं होगी। इसलिए इस संसार की और शरीर की यक्ति को कोई पता लगा नहीं सकता।वैसे युक्ति लेकर,बुद्धि लेकर ऊहापोह से अनुमान से शास्त्र ज्ञान लेकर विवेक से  एहसास कर सकते हैं कि शरीर   तीनों कालों में रहित है, वह परम४त्म शक्ति माया देवी बनाकर दिखानेवाले शक्ति माया देवी दिखानेवाली एक मायाजाल है। साथ ही सर्वव्यापी आत्मा रूपी अपने को कर्तृत्व भोगतृत्व न होने से कोई वासना नहीं है। वासना न है तो किसी भी प्रकार की प्राप्ति या कर्तव्य नहीं है। केवल वही नहीं, अपने को जन्म-मरण नहीं है। स्वयं नित्य सत्य स्वरूप, अपने स्वभाव ही परमानंद और परमशांति का एहसास कर सकते हैं। ऐसा ही प्रारब्ध कर्तव्य दोनों आत्म ज्ञान अग्नि में जलकर भस्म हो जाएगा।

4258.  मनुष्य को परमानंद चाहिए तो अहमात्मा की ओर यात्रा करनी चाहिए। लेकिन सब के सब परमानंद को चाहकर लघु-सुख देनेवाले संसार की ओर यात्रा कर रहे हैं। कारण मनुुष्य सोचता है कि लघु-सुख आसान है,सद्यःफल देनेवाले हैं। लघु-सुख माने काम और लौकिक वासनाएँ। परमानंद कठिन है,फल मिलने में देरी होगी। सच यही है कि आसानी से मिलनेवाला है परमानंद। अविवेकियों को मालूम नहीं है कि परमानंदस्वभाव परमात्मा बने अखंडबोध ही है। यह भी समझ लेना चाहिए कि  संभोग से उत्पन्न यह मनुष्य शरीर ज्ञान रहित होने से वह दुख का आधार है। कारण प्रकृतीश्वरी महामाया देवी का प्रतिबिंब स्त्री के प्रसव के कारण ही यह शरीर है। केवल वही नहीं हड्डी ,चर्बी, माँस, चमडा से बना शरीर है। इस शरीर में मल,मूत्र, पित्त और कफ से भरा है।  ऐसे शरीर में जीनेवाला मनुष्य जीव दुख विमोचन देनेवाले आत्मज्ञान के लिए परमेश्वर से शरणागति होकर आत्मज्ञान जानने के मार्ग की कामना करने पर ईश्वर मनुष्य रूप लेकर गुरु रूप में आकर शिष्य को आत्मज्ञान देगा। आत्मज्ञानी गुरु ही शरीर और आत्मा के बारे में सिखाकर विवेक देगा। जीव पंचेंद्रिय देखनेवाले विषय वस्तुओं के पीछे जाने पर जीव को आत्मा का पता न लगेगा। इसलिए आत्मा का स्वभाविक  आनंद और शांति जीव को न मिलेगा। जब जीव इसको समझता है,तभी बाहरी आकर्षण छोडकर जीव अहमात्मा की ओर जाएगा। वैसे अहमात्मा के पूर्ण साक्षात्कार के लिए तप करते समय आत्मज्ञान मिलेगा। आत्मज्ञान से जो मन को समस्थिति पर लाता है, उसी को आत्मोध होगा। आत्मबोध होने के साथ शरीर शरीर और संसार के स्मरण भूलकर खंडित प्रतिबिंब जीव जीवभाव भूलकर खंड को छोडकर अखंड आत्मबोध स्थिति को जाएगा। साथ ही अखंडबोध बने परात्मा का स्वभाविक परमानंद और परम शांति को अनुभव करके वैसा ही बदल सकते हैं।

4259.  मनुष्य के जन्म होने पर मनुष्य आत्मा का महत्व जान लेना चाहिए। जो शरीर और संसार नहीं है, उनको सत्य और शाश्वत मानकर न जीना चाहिए। आत्मा को स्वयंं मानकर अस्तंत्र जीवन सेे  स्वयं खोजनेवाले स्वतंत्र और मिथ्याा प्यार देनेवालेे नाते रिश्तों से दूर रहना चाहिए। यह जान लेना चाहिए कि सत्य प्रेम और शांति आत्मा का स्वभाव है। आत्मा को लक्ष्य मानकर आत्माा के पूर्ण साक्षात्कार के लिए जीवन को पूर्ण रूप में अर्पण करके अपने प्राण जैसे सभी जीवों को समदर्शनन से देखकर आत्मज्ञान को समझानेवाले सद्कर्मम ,धर्मकर्म,पुण्य कर्म आदि को निस्संग रूप में करके कमल के पत्ते पर पानी के जैसे सांसारिक विषयों को स्पर्श-अस्पर्श करके जीकर तैल धारा जैसे आत्म विचार करते समय सत्य रहित असत्य विषय स्मरण सब आत्मज्ञान अग्नि में जलकर नष्ट हो जाएगा। साथ ही मनोनाश संभव होगा। मनोनाश संभव होने पर ज्ञान की दृढता होगी। उस ज्ञान की दृढता में ही आत्मदर्शन हृदय में एक दीप ज्योति के जैसे प्रत्यक्ष होगा। उसका विकास ही परमात्म प्रकाश है। परमात्म प्रकाश में शरीर और सांसारिक अंधकार मिटकर सर्व में आत्मा रूपी स्वंय भरे रहने का अनुभव होकर आत्मा का स्वभाव परमानंद और परमशांति को निरुपाधिक रूप में स्वयं आनंदित होकर वैसा ही स्थिर खडा रहेगा।

4260.  स्वस्वरूप विस्मृति अर्थात् स्वयं परमात्मा की स्मृति पर पर्दा डालनेवाली स्वशक्ति माया चलन रूप में एकात्मक अपने को ही अपने स्वरूप को छिपाकर अनेकात्मक प्रतीक को बनाकर जीव को भ्रम में डालते समय जो जीव स्वस्वरूप आत्मा को तैलधारा जैसे स्मरण करता है, उसके सामने कर्मचलन माया रुक नहीं सकती। कारण आत्मा सर्वव्यापी और निश्चलन है। निश्चलन में चलन कभी नहीं होगा। वैसे आत्मविचार से जो कोई सभी कर्मों में निश्चलन आत्मा को अर्थात्  स्वस्वरूप के दर्शन करता है, वह कर्म बंधन से कर्म इच्छा से मुक्त हो जाएगा। अर्थात् परमात्मा कर्म की एक बूंद रहित निश्चल निर्मल स्वरूप होते हैं जो स्वस्वरूप स्मरण लेकर कर्म नाश बनाता है, वह सभी  कर्म बंधन से मुक्त हो जाएगा। वी संपूर्ण आत्मज्ञान और आत्मज्ञान का स्वभाव परमानंद और परमशांति के निरपाधिक को स्वयं भोगकर आनंद का अनुभव करके वैसा ही रह सकता है।

4261. जो कोई जीव को भूलकर शरीर और रिश्तों के लिए मात्र जीता है, उसके लिए सुख एक स्वप्न मात्र ही है। दुख सहोदर के समान है। अर्थात्  निरंतर जो प्रकृति के दंड का पात्र बनकर नाते-रिश्तों,ज्ञानी और महानों के घृणा के पात्र बनकर असहाय स्थिति में सत्य की खोज में भगवान की ओर यात्रा करता है, तब देख-सुनकर अनुभव करके नित्य-अनित्य को विवेक से जानकर एहसास करता है कि शरीर और संसार मिथ्या है,तब वह अपनी अहमात्मा की ओर यात्रा करता है, वही एहसास करता है कि वह स्वयं आत्मा है। वैसी आत्मा सूक्ष्म से सूक्ष्म अर्थात् अणु से भी सूक्ष्म से सूक्ष्म महत्व में रखकर महत्व है। इसीलिए स्वयं शरीर या संसार नहीं है।. सभी जीवों के अहं में एकात्म रूप के परमात्मा ही यथार्थ स्वयं के रूप में अपने अहमात्मा के रूप में होते हैं। इसका एहसास करके आत्मराम अर्थात् तैलधारा के जैसे आत्मविचार लेकर समय बिताते हैं, कालांतर में उनका जीव भाव खुद ही छिप जाएगा। जीवभाव छिपने के साथ शरीर और संसार के स्मरण पूर्ण रूप में रहित हो जाएगा। तभी सीमित आत्मा असीमित सर्वव्यापी परमात्म स्थिति पीएगा। तभी परमात्म के स्वभाविक परमानंद और परमशांतु को भोगकर उसके जैसे ही स्थिर खडा रह सकता है।

4262. आसक्ति ,प्रेम,रिश्तों के कारण लाश को सुरक्षित घर में रख नहीं सकते। कारण घर मं रखें तो चंद दिनों में उसमें से बदबू आने लगेगा। साथ ही जिसने  लाश को सुरक्षित रखा ,वही छोड देगा। वैसे ही अमृत रूपी आत्मबोध रहित अहं बोध लेकर रिश्तों को बनाने के लिए भूमि,स्त्री और स्वर्ण के लिए जीवन को समर्पण करनेवालों के साथ रिश्ता रखें तो सडे वचनों से कर्मों से बनानेवाले बुरे अनुभवों का पात्र बनकर दुख ही सहना पडेगा। विवेकी मनुष्य जो भी हो,अहमात्मा कामधेनु को छोडकर भीख नहीं माँगेगा।

4263. ईश्वर के बारे में एक व्यक्त सफ़ाई व्याख्या न होने पर भी, मनुष्य भगवान पर भरोसा रखने के निर्बंधन में विवश है। उसके कारण सत्य की खोज  नहीं करना, असहाय स्थिति ,विवेक, बुद्धि, युक्ति रहित है। वैसे लोगों को समझना चाहिए कि एक ही बिजली से अनेक बल्बों को प्रकाश मिलते हैं, वैसे ही एक ही भगवान इस प्रपंच को प्रकाश दे रहा है। भगवान रहित कोई स्थान या वस्तु देखने को न मिलेगा। केवल वही नहीं, आत्मा  रूपी भगवान ही सभी जीवों के शरीर को उपयोग करके सभी कर्मों को करके विषयों को भोग रहा है।सब के सभी अनुभव ईश्वरीय अनुभव ही है। जो इसको नहीं जानते और समझते वे ही ईश्वरीय अनुभव के लिए दौड-धूप करते रहते हैं। साधारणतः  मनुष्य यही कहता है कि मैं हूँ, मेरा है, मैं यह करूँगा,वह करूँगा, मैं ही करता हूँ,मैं ही भोगूँगा। यों कहकर सुख चाहते हुए दुख ही भोग रहे हैं । एक रूपी भगवान ही इस प्रपंच आकार में और और जीवों के रूप में रहकर स्वयं अपने को दो आकार बनाकर दो रूप को अनेक बनाकर माया के नाम बताकर लीला क्रीडा करते हैं। जो माया को अन्य समझते हैं, उनको पहले जानना और समझना चाहिए कि शास्त्र परम ईश्वर बने अखंड बोध भगवान से अन्य रूप में एक स्थान से माया को नहीं आ सकता। इसलिए भगवान से आनेवाले सब सिवा भगवान के और कुछ नहीं हो सकता। लेकिन भगवान से कुछ नहीं आता। भगवान क्रीडा भी नहीं करता। कारण निराकार सर्वव्यापी ब्रह्म से कुछ भी नहीं आ सकता। उस निराकार ब्रह्म में दीखनेवाले सब भ्रम के सिवा और कुछ नहीं है। लेकिन भ्रम ब्रह्म को नहीं होगा। भ्रम भ्रमित जीव के लिए होगा।  जीव कें मिटते ही भ्रम भी नदारद हो जाएगा। ब्रह्म मात्र सत्य रूप में नित्य रूप में एक रूप में, एक रस रूप में, परमानंद रूप में, अनिर्वचनीय शांति रूप में शाश्वत रूप में स्थिर खडा रहता है।

4264. जन्म दिन से बच्चे बच्चे बडों के अनुसरण के आदी होने से अधिकांश बच्चों को चिंतन शक्ति न रहती। इसीलिए  महान लोग विरले होते हैं। कारण महानों में कोई भी  माता-पिता के अनुसरण में नहीं पले हैं।
बिना अनुसरण के पले हैं। इसीलिए वे स्वयं चिंतन करने  , चिंतन को कार्यान्वित करने समर्थ होते हैं। कारण आत्मा किसी का अनुसरण नहीं करता और न किसी का अनुसरण कराता। एक रूपी आत्मा ही नित्यसत्य रूप में है। बाकी शरीर और संसार आत्मा से आश्रित है। आत्मा नहीं तो शरीर और संसार नहीं है। माया बनाकर दिखानेवालेे एक माया जाल ही यह शरीर और संसार है। माया जाल शरीर और संसार को नियंत्रण में लाने की शक्ति आत्मा को ही है।. अहंकार से हो नहीं सकता। अनुसरण करनेवाला और अनुसरण करानेवाला दोनों अहंकारी ही है। अहंकार एक परछाई है। उसके लिए स्वसत्ता नहीं है।स्वसत्ता न होकर अहं बोध में मात्र जीनेवालों को कोई बडा कार्य कर नहीं सकते। जिनमें आत्म बोध है, वे ही संसार में
महद्कार्य कर सकते हैं। उन्होंने ही महदकार्य किया है। वे ही महान बनते हैं।

4265.रेगिस्तान में कई जानवर मृगमरीचिका को पानी समझकर प्यास बुझाने के लिए दौड-दौडकर बहुत दूर जाकर बिना पानी के मर जाते हैं।  वैसे ही मनुष्य इस संसार रूपी रेगिस्तान में मृगमरीचिका जैसे विषय सुख के लिए  जिंदगी भर दौड-दौडकर  सुख और आनंद न मिलने से दुखी होकर मर जाता है। उसके कारण उनको यह समझने में विवेक नहीं है कि  यह शरीर और संसार माया है,भ्रम है। इस अविवेकशीलता के कारण बचपन से ही इस शरीर और संसार को सत्य मानकर विश्वास करके जी रहे हैं। केवल सत्य की खोज करने के लिए बुद्धि,विवेक और युक्ति नहीं है। इसलिए पहले समझना चाहिए कि दुख मात्र देनेवाले  शरीर और संसार से जब तक बाहर न आएँगे तब तक दुख निवृत्ति नहीं होगी। शरीर और संसार बल्ब जैसे जड है। विद्युत शक्ति के कारण बल्ब जलता है। इसलिए समझना चाहिए कि मैं नामक अखंडबोध होने से ही यह शरीर और संसार चमकता है। शरीर और जड चलन शील होने से तीनों कालों में रहित है। बल्ब बिजली नहीं बन सकता। कारण बल्ब अपने मूल रूप में आकाशमय बन जाता है। आकाश एक सूक्ष्म जड है। वह सूक्ष्म जड रूपी आकाश सूक्ष्म चलन है। अर्थात् निश्चलन बोध में कभी चलन नहीं हो सकता। इसलिए प्रतिबिंब बोध जीव औरजीव  स्थिर रहनेवाले शरीर निश्चलन बोध न होगा। वह बोध में बनकर थोडी देर स्थिर रहकर मिट जाता है।इसलिए इस तत्व को जान लेना चाहिए कि जो  बनते हैं और सृष्टियाँ होती हैंं, वे सब मिट जातेे हैं। इस तत्व को भी जानना चाहिए कि जो नहीं है,वह बन नहीं सकता। वैसे आत्मा और शरीर को विवेक से जानने से ही रहित शरीर और संसार को बनाकर दिखानेवाली माया के दुख से बाहर आ सकते हैं।

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