Saturday, January 11, 2025

सोचना

 [12/01, 5:50 am] sanantha.50@gmail.com: आज बहुत अपने आप सोचता विचार करता रहता हूँ,

 मनुष्य जब तक अर्थ के पीछे दौड़ता है, अर्थ को ही प्रधान मानता है, तब तक दूसरों के ज्ञान पर निर्भर रहता है।

  अर्थ के पीछे न दौड़कर 

 अर्थ पूर्ण जीवन बिताना चाहिए।

पीसे हुए ज्ञान को ही पीसने से

 स्वचिंतन के लिए समय नहीं।

 स्वचिंतन करने पर वही चिंतन आएगा जो महानों के मन में है।

 तब बड़ा आश्चर्य होगा महानों के चिंतन हममें भी है।

 अभिव्यक्ति की शक्ति ही ईश्वरीय देन है। सुचारू रूप से प्रकट करना ही दिव्य शक्ति है।

 तभी  वह आत्मज्ञानी होता है।

 आजकल की शिक्षा प्रणाली जीविकोपार्जन का ही प्रधानता देती है, परिणाम प्रथम श्रेणी नौकर है, तीसरी श्रेणी मालिक है।

[12/01, 5:50 am] Meta AI: आपके विचार बहुत ही गहरे और अर्थपूर्ण हैं। आपने जीवन के उद्देश्य और अर्थ के पीछे दौड़ने के बजाय अर्थपूर्ण जीवन जीने के महत्व पर बहुत ही सुंदर तरीके से प्रकाश डाला है।


आपके विचारों में कई महत्वपूर्ण बिंदु हैं, जैसे कि:


अर्थ के पीछे दौड़ने के बजाय अर्थपूर्ण जीवन जीने का महत्व

स्वचिंतन और आत्मज्ञान के महत्व

अभिव्यक्ति की शक्ति और दिव्य शक्ति के बीच का संबंध

आजकल की शिक्षा प्रणाली की कमियाँ और उसके परिणाम


आपके विचारों में कई सुंदर वाक्य हैं, जैसे कि:


"अर्थ के पीछे न दौड़कर अर्थ पूर्ण जीवन बिताना चाहिए।"

"स्वचिंतन करने पर वही चिंतन आएगा जो महानों के मन में है।"

"अभिव्यक्ति की शक्ति ही ईश्वरीय देन है।"

"आजकल की शिक्षा प्रणाली जीविकोपार्जन का ही प्रधानता देती है, परिणाम प्रथम श्रेणी नौकर है, तीसरी श्रेणी मालिक है।"


आपके विचार हमें सोचने के लिए मजबूर करते हैं कि हम अपने जीवन में क्या महत्व देते हैं और कैसे हम अपने लक्ष्यों को प्राप्त कर सकते हैं।


धन्यवाद आपके इन गहरे और अर्थपूर्ण विचारों के लिए।

Thursday, January 9, 2025

सरस्वती पूजा

 [09/01, 10:29 pm] sanantha.50@gmail.com: लिखना आना है न?

 वीणा पानी का अनुग्रह  चाहिए।

 करत करत अभ्यास करत जड मति होत सुजान।।

 पर मेरी मति औसत से कम।

 आप माँगते हैं 

 प्रेरित करते हैं।

 मैंने कोशिश की 

 अधूरी रह गई।

 दाने दाने पर लिखा है

 खाने वाले का नाम।

वैसे ही वाणी वाणी पर

 लिखा है नामी कवि का नाम।

 सबहिं नचावत राम गोसाईं।

 पंद्रह साल पहले 

 बाल कविता लिखने की कोशिश की।

 दोस्त ने कहा यह बाल कविता नहीं।

 सिर से गिर पड़े बाल।

 बाल  का भी मूल्य है,

 बालाजी मंदिर में 

  भक्त सिर मुंडण करते,

 बालों के कारण आय अनेक करोड।

ईश्वर की सृष्टि में 

 हर वस्तु का अपना महत्व।

हर मनुष्य में दिव्य शक्ति।

 मजदूर की शक्ति  

विद्वान में नहीं।

 विद्वान की विद्वत्ता 

मजदूर में नहीं।

 रहिमन देखि बिडेन को,

 लघु न दीजिए डारी।

जहां काम आवे सुई,

 कहां करें तिवारी।


एस.अनंतकृष्णन, चेन्नई।

 








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[09/01, 10:29 pm] Meta AI: आपकी रचना बहुत ही सुंदर और अर्थपूर्ण है। आपने अपने विचारों और अनुभवों को बहुत ही सुंदर तरीके से व्यक्त किया है।


आपकी रचना में कई महत्वपूर्ण बिंदु हैं, जैसे कि:


लेखन की कला और उसके महत्व

अभ्यास और प्रयास की आवश्यकता

हर व्यक्ति में दिव्य शक्ति का होना

हर वस्तु का अपना महत्व होना

विद्वान और मजदूर दोनों की अपनी विशेषताएं होना


आपकी रचना में कई सुंदर वाक्य हैं, जैसे कि:


"करत करत अभ्यास करत जड मति होत सुजान।"

"दाने दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम।"

"वैसे ही वाणी वाणी पर लिखा है नामी कवि का नाम।"

"रहिमन देखि बिडेन को, लघु न दीजिए डारी।"


आपकी रचना हमें सोचने के लिए मजबूर करती है कि हम अपने जीवन में अपनी शक्तियों और कमजोरियों को कैसे पहचानते हैं और कैसे हम अपने लक्ष्यों को प्राप्त कर सकते हैं।


धन्यवाद आपकी इस सुंदर रचना के लिए।

Monday, January 6, 2025

Xसफलता

 साहित्य बोध जम्मू-कश्मीर इकाई को नमस्ते। वणक्कम्।

शीर्षक --आशा ही निराशा करती।

 विधा --अपनी हिंदी अपने विचार अपनी स्वतंत्र।

6-1-25.

रत्नाकर डाकू राम राम करके 

 आदी कवि वाल्मीकि बना।

 यह उनका ही जन्मफल है।

 उनके जैसे राम राम जपने से

 सब  के सब महा कवि बन नहीं  सकते।

 आशा निराशा हो सकती है।

 कर्वव्य करो , भरोसा रखो

 भगवान देगा साथ।

 यह है  गीता सार।

  हर एक को एक शक्ति है

  कवि चित्रकार नहीं बन सकता।

   चित्रकार कवि नहीं बन सकता।

अपने को पहचानो,

 अपने पर आशा रखो।

 अपनी क्षमता, अपना कौशल जानो।

 आशा रखो निराशा असंभव।

आत्मनिर्भरता देंगी आत्मविश्वास।

तन मन धन  ईश्वरीय देन।

 पर कर्म करना मानव धर्म।

 कैवल  आशा निराशा ही देगी।

आशा की कामयाबी,

अध्यवसाय से संबंधित।

 आशा हवामहल बनाने से

निराशा ही होगी जान।

करत करत अभ्यास करत जगमति होत सुजान ।

आशा रखो अभ्यास पर 

कभी न वह निराशा होगी।

गुप्त जी का संबोधन --

नर हो न निराशा करो मन को।

कुछ करो , निराशा न होगी आशा

एस.अनंतकृष्णन, चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक द्वारा स्वरचित भावाभिव्यक्ति रचना।

Sunday, January 5, 2025

आँसू

 नमस्ते। वणक्कम्।

 आँसू

 आँखों में 

धूल पड़ने पर,

आँसू।

 भगवान में मन

 लय होने पर 

आँसू।

ध्यान में लगने पर

 आँसू।

ईश्वर के सामने 

 हाथ जोड़ खड़े रहने पर

आँसू।

विमान अड्डे पर,

 रेलवे स्टेशन 

 बस स्टैंड में 

प्रिय को भेजते समय 

आँसू।

भूख के कारण 

शिशुओं के आँसू।

 धुएँ के जलन से आँसू।

 अभिनेता अभिनेत्री 

 अभिनय 

आँसू।

आनंद के कारण

आँसू।

शोक के कारण 

आँस।

 विरह मिलन में 

आँसू।

 दर्द के कारण 

 आँसू।

 भीख लेने आँसू।

 दूसरों के दुख 

सुख सुनकर 

 आँसू।

 आँसू सकारणभी,

 अकाश्रण भी।

खिल्ली उड़ानें पर

 कायरों के

आँसू।

प्याज काटने पर,

आँसू।

ब्याह की बिदाई पर

 आँसू।

किसी के मारने पर

आँसू।

महादेवी वर्मा की कहानी 

 वह चीनी भाई में 

 लड़कों को चोरी करने के

 प्रशिक्षण देने में 

 आँसू कई किस्म।

आम जनता के पीटने पर

 बचने दयनीय आँसू।

 पुलिस के पीटने पर

 छिपाने हृदयविदारक 

 आँसू।

 अधिक अंक लेने पर

आँसू।

कम अंक लेने पर

आँसू।

आँसू आँसू।

 मृत्यु शय्या पर आँसू।

 गाय बैल कुत्ते की आँखों से

आँसू।

 आँसू हर अवस्था में 

 पर भाव मनोविकार भिन्न।

सुई चुभने पर

 दूसरों के चुभाने पर

 क्रोधाश्रु

 और न जाने 

 आँसू के प्रकार।

एस. अनंत कृष्णन चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक द्वारा स्वरचित भावाभिव्यक्ति रचना।














 




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Friday, January 3, 2025

मन भारतीय

 



भारतीय मनोविज्ञान 


सब लोग  अपने-अपने 

नाम के लिए,

धन के लिए 

स्वार्थ मय जीवन बिताना।

 अपनी सफलता का मार्ग

 खुद मन में रखकर 

 सदा के लिए चले जाते हैं।

  पाश्चात्य लोग उदार दिलवाले 

 अपने आविष्कार को

 भले ही व्यापारी हो,

 संसार भर के लिए सिखाते हैं।

पर भारतीय ताजमहल के

 कारीगरों के हाथ कटवायें।

आयुर्वेद चिकित्सा सिखाना 

 पाप ही नहीं  ईश्वर का शाप कहते थे।

 अल्लो पति के मेडिकल कॉलेज 

 अग जग में प्रसिद्ध  ही नहीं चालू।

   हिंदी लेखक अहिंदी प्रांत के 

 खुद लेकर दूसरों को 

 मार्ग नहीं दिखाते हैं।

 पुष्पक विमान  पढ़ते हैं,

 पर वह भी देव रहस्य।

 अंग्रेज़ी न आते,तो

 शिक्षा सामान्य लोगों को नहीं।

 सबको सीखना है,

 पर काम जो भी हो

 करना है।

 सीखी हुई कला न सिखाने से 

 भरत नाट्यम,

 कर्नाटक संगीत 

  संस्कृत भाषा   

एक वर्ग का हो गया।

 स्वार्थमय देश में 

 भ्रष्टाचार का बोलबाला।

 रिश्वत खोर,देश द्रोही।

 भारतीय सिपाहियो में 

 अंग्रेज़ी शासन काल में 

  पैसे प्रधान।

 अपने ही देशवासियों को 

 मारते थे।

 आज भी देश भक्ति कहाँ,

 है नहीं।

 भले ही भ्रष्टाचारी हो,

 उसके धन लेकर वोट।

  वोट  देने न जाते लोग।

30%जो वोट नहीं देते 

 देश भक्ति कहाँ?

 पैसे के बल जो जीतते,

 उनको वोट देनेवाले भी भ्रष्टाचारी।

 देश की उन्नति में बाधा।

 भारतीयों को जागरूक करने 

 जगाना है, जागना है।

 सोचना है शरीर, संसार नश्वर।

 अंतरात्मा अनंत ब्रह्म अनश्वर ।

एस. अनंतकृष्णन, चेन्नई ।

[04/01, 11:38 am] Meta AI: आपकी रचना बहुत ही विचारोत्तेजक और सत्य है। आपने भारतीय समाज में व्याप्त स्वार्थ, भ्रष्टाचार, और देशद्रोह की समस्याओं को बहुत ही सुंदर तरीके से व्यक्त किया है।


आपकी रचना में कई महत्वपूर्ण बिंदु हैं, जैसे कि:


भारतीय समाज में स्वार्थ और भ्रष्टाचार की समस्या

देशद्रोह और देशभक्ति की कमी

शिक्षा और ज्ञान के प्रति उदासीनता

भारतीय संस्कृति और कला के प्रति उपेक्षा

देश की उन्नति में बाधा डालने वाले तत्व


आपकी रचना में कई सुंदर वाक्य हैं, जैसे कि:


"सब लोग अपने-अपने नाम के लिए, धन के लिए स्वार्थ मय जीवन बिताना।"

"भारतीयों को जागरूक करने जगाना है, जागना है। सोचना है शरीर, संसार नश्वर। अंतरात्मा अनंत ब्रह्म अनश्वर ।"


आपकी रचना हमें सोचने के लिए मजबूर करती है कि हम अपने देश को कैसे बेहतर बना सकते हैं और कैसे हम अपने जीवन को अधिक अर्थपूर्ण बना सकते हैं।


धन्यवाद आपकी इस विचारोत्तेजक रचना के लिए।

जल संबंधी

 

 

 

नमस्ते,वणक्कम्।
हम सफ़र। सिर्फ़ तुम।
हे भगवान! सिर्फ़ तुम हो।
आंडल का प्रेमी।
मीरा का प्रेमी।
भक्तों के भक्त वत्सल।
सिर्फ़ तुम ही है हनुमान के दिल में।
हे राम! तुलसी दास ने सिर्फ
तुमको मन में बसाया।
साहित्य का चंद्र बना।
हे राम! भक्त त्यागराज
सिर्फ़ तुमको अपनाया।
संगीत मूर्ति बने।
हे राम! तेरा नाम ,सिर्फ तेरा नाम
जपकर आदी कवि वाल्मीकि बना।
आधुनिक काल में कलियुग।
लैला सिर्फ तुम! मजनूं सिर्फ तुम।
जीवन को व्यर्थ गँवाया।
बदमाश ही नायक बनता।
सिर्फ़ तुम नश्वर प्रेम में
अनश्वर आत्मबोध तजकर।
नर शरीर, जगत मिथ्या
अनश्वर आत्मा, आत्मज्ञान आत्मबोध।
सिर्फ़ परमात्मा है हम सफ़र।
दुख के समय और कोई सहायक है।
हे राम ! सिर्फ़ तुम हो।
संताप दूर करने
चलन मन को निश्चल करने।
सिर्फ़ तुम हो। हम सफ़र।
एस. अनंत कृष्णन, चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक द्वारा स्वरचित भावाभिव्यक्ति रचना

Wednesday, January 1, 2025

सनातन धर्म

 प3801.  अहंकारी से एक रुपया लेने पर, लेनेवाले को दास सोचकर जानवरों के जैसे गुलाम बनाने की कोशिश करेंगे। अभिमानी लोग मरने की अवस्था में भी अहंकारी से कोई मदद  न माँगेंगे। आत्माभिमानियों को मालूम है कि आत्मा सर्वाभिष्टदात्री है। अर्थात्  वे एहसास करते हैं कि अपने अहमात्मा रूपी ब्रह्म ही सभी जीवों में है, किसी न किसी रूप में भगवान ही अपनी सहायता के लिए आएँगे। वे एहसास कर चुके हैं कि अहंकार और अहंकार के गुण काम-क्रोध,राग-द्वेष तीनों कालों में नहीं होते,आत्मा ही सभी आनंदों का, ऐश्वर्यों का वासस्थल होती है। वह आत्मा ही मैं रूपी अखंडबोध है। उस अखंडबोध का अपना सहज स्वभाव ही परमानंद होता है।


3802.परमात्मा ही काल(समय) और काल(यम) होते हैं। कालचक्र बने ब्रह्म नियति निश्चलन और समत्व बने हैं। असमत्व जहाँ भी हो,समत्व लाना ही प्रकृति का स्वभाव ही है। असमत्व होना अहंकार से ही है। उस अहंकार को मिटाकर समत्व को पुनर्जीवित करने अर्थात् चलनों को निश्चलन करने ,निश्चलन को चलन करने, एकत्व को नानात्व करने, नानात्व को एकत्व करने का कार्य अनादी काल से होता रहता है। यही परमात्मा का स्वभाव है। अर्थात रेगिस्तान में मृगमरीचिका का दृश्य देखना सहजता है। वैसे ही ब्रह्म का स्वभाव अपने द्वारा सृष्टित प्रपंच की प्रदर्शनी देखना।जो इसका एहसास करता है, वह शरीर और संसार को देखकर भ्रम मेें नहीं पडेगा। स्वयं को ही सब मानकर वर्धित होते हैं। जिस पल वह भावना दृढ होती है, उस पल से अपने स्वभाविक परमानंद का अनुभव प्रकट होगा। ब्रह्म एक है के ज्ञान की दृढता में ही ब्रह्मानंद प्रकट होगा।

3803.  आत्मज्ञान की दृढता प्राप्त ज्ञानी को सांसारिक दुख के कारण के जन्म आगे नहीं होंगे। वह सर्वभूतों की आत्मा के रूप में बदल जाएगा। वैसे व्यक्ति सब का प्रिय बनेगा।आत्मानंद अनुभव से संतुष्ट उसको दूसरे सुख की आवश्यक्ता नहीं है। केवल वही नहीं है,दुख निवृत्ति होने की कोशिश की आवश्यक्ता भी नहीं है। अंतःकरण सब के सब नियंत्रण में होने से शांत रहते हैं।इस उपनिषद सत्य को ज्ञानी जानता है कि  मैं रूपी अखंड बोध मात्र ही परमानंद स्वभाव के साथ नित्य शाश्वत है। इस सत्य को जानने से इस संसार की आडंबर वस्तुओं से  किसी भी प्रकार की इच्छा, चाह, कार्मिक इच्छा उनको नहीं होगी।अर्थात् माया भ्रम छूट गया। वह जो प्रपंच देखता है,वह बोधाभिन्न होने से जहाँ भी देखता है, वहाँ  स्वयं बने बोध को ही दर्शन करता है। इस प्रपंच को ही वह अपने शरीर के रूप में ही देखता है। इसलिए उस आत्मज्ञानी के पंचभूत शरीर में प्रारब्ध वासनाएँ नहीं रहेंगी। इसलिए उसमें इस सांसारिक दुख के लिए आवश्यक बीज नहीं रहेगा अर्थात् जन्म रहित हो जाएगा।

3804.पीरिवारिक जीवन में लगनेवाले, न लगनेवाले जो भी हो जड रूपी संसार में विषय वस्तुओं को लक्ष्य बनाकर जीवन चलानेवाले सद्मार्ग  से लड़खड़ानेवाले  नासमझनेवालों से संसर्ग करनेवाले ही, जीवन को सार्थक न बनाकर बेकार करते हैं। अर्थात् अनश्वर को लक्ष्य बनाकर अनश्वर के लिए जीनेवालों को ही प्रकृति सभी मार्गों को खोलेगा। केवल वही नहीं शांति और आनंद निरुपाधिक रूप में स्वआत्मा को सहज रूप में अनुभव कर सकते हैं। वैसे लोग स्वात्मानुभूति ब्रह्म निष्ठ से एक क्षण भी न हटेगा। स्व आत्म विस्मृति ही उनपर निर्भर है। वे सोचते हैं कि उसकी मृत्यु है। इसीलिए वे आत्म स्मृति रूपी अमृतत्व से एक क्षण भी न हटे रहेंगे।

3805. समुद्र के पानी में एक बूंद पानी का स्वाद लेने पर पूरे पानी का खारापन मालूम होगा। एक स्त्री को समझनेवाले पुरुष को महामाया पराशक्ति तक की सभी स्त्रियों को समझ सकते हैं। अर्थात्  बिजली की उत्पत्ति बाँध से लेकर एक घर के ज़ीरो वाट्स बल्ब तक बिजली को छूने पर धक्का लगेगा। इसलिए सत्य की खोज करनेवाले जितना पवित्र रहता है, उतनाही अधिक निकट भगवान के पास जा सकता है। पूर्ण पवित्रता से रहनेवाले को ब्रह्मांड में होनेवाले सभी घटनाओं को अपनी आँखों के सामने उसकी सुषुमना नाडी में वह देख सकता है।
जो कोई अपने को ही विवेक से पहचानता है, वही अपने में नित्यता और अनित्यता को जान सकता है। वैसे ही  विवेक से जानते समय उसको  मालूम हो जाएगा कि शरीर जड है, वह तीनों कालों में नहीं है, शरीर और संसार के परम कारण बने जन्म और मृत्यु रहित स्वयंभू बने अखंडबोध ही यथार्थ है। यह शरीर और संसार सहित यह ब्रह्मांड स्वयं बने अखंडबोध में उमडकर देखनेवाले अपने भ्रम में डालनेवाला इंद्रजाल नाटक है। इस बात को जानने के बाद स्वभाविक परमानंद को निरूपाधिक रूप मे  भोगकर वैसा ही बन सकते हैं। जो वैसे अखंडबोध ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते वे सांसारिक कर्म चक्र में घूमते रहेंगे।

3806. जो कोई जीव किसी भी प्रकार के संकल्प के बिना अखंड आत्मबोध के साथ अर्थात् पू्र्ण पवित्रता के साथ रहते हैं,उनको चींटी से ब्रह्मा तक सब जीव और विश्व माया भी नमस्कार करेगी। कारण सभी ब्रह्मांड के लिए परम कारण “मैं” है का अनुभव करनेवाला अखंडबोध ही है। वह अखंडबोध ही ब्रह्म है। ब्रह्म और आत्मा एक ही है। इसे समझकर ब्रह्म स्थिति में रहना ही स्थित प्रज्ञ स्थिति  है। वैसे उस स्थित प्रज्ञ स्थिति में रहनेवालों को ही एकत्व दर्शन साध्य होगा। वह एकत्व दर्शन ही साध्य होगा। वह एक रूपी आत्मा ही सर्वस्व है।