मनुष्य पशुओं से श्रैष्ठ कयों ?
मान - अपमान की करता है चिंता।
मित्रता निभाता है, मितव्ययी होता है,
मार्ग भ्रष्ट होने पर भी,
मर्यादा की रक्षा ही चाहता है।
मनुष्यता कुचलके जीना दुश्वार है।
धन - बल, चरित्र बल दोनों में
केवल धन बल को ही प्रधान मानना
चरित्र बल को अवहेलना ,
मनुष्यता खो दैना, पशुत्व जीवन।
एक लुटेरा गुरु नानक सत्संग में आया,
उनसे कहा, मैं अपने कर्मों से हूँ दुखी,
मैं तो निर्दयी, लूट मार कभी छोड नहीं सकता।
ऐसा उपाय बताना, मैं अपना धंधा भी करूँ,
मानसिक शांति भी पाऊँ।
गुरु ने प्रसन्न मन से सलाह दी--
न छोडो,अपना कर्म ,पर एक काम करना।
दिन भर के तेरे कर्मों की सूची बनाना,
कल सत्संग में आकर सूची पढना।
वह तो चला गया , फिर वापस नहीं आया।
चंद दिनों के बाद सत्संग में भाग लेने आया,
आया तो वह रहा अति विनम्र, सज्जनता का प्रतीक।
गुरु चरणों पर गिर पडा।
कहा- आप की सलाह अक्षरसः मानी।
मेरे कुकर्मों की सूची बढी।
खुद पढ - सोच अति शर्मिंदा हूँ।
कैसे भरी सभा में पढूँ ,सुनाऊँ।
छोड| दिया अपना सारा बुरा कर्म।
मिल गई मानसिक शांति। संतोष।
मान -मर्यादा चरित्र बल में,
धन बल में तो भ्रष्ट धनमें तो
केवल बचता अपमान , बेचैनी, असंतुष्ट।
चरित्र निज गढना, मानसिक शांति।
तुलसी का यह दोहा हमेशा याद रखना--
गो धन, गज धन , बाजी धनल,रतन धन खान।
जब तक न आवे संतोष धन सब धन धूरी समान ।।
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