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Thursday, February 22, 2018

मानव अद्भुत सृष्टि

कुछ न कुछ
लिख सकते हैं,
क्या लिखना है,
वही सोच.
तभी याद आई-
शीर्षक समिति का
एक शीर्षक.
प्रेरित गीत.
निराश मन बैठा तो
कबीर अनपढ की प्रेरित
देव वाणी याद आई.
जाके राखै साइयाँ,
मारी न सके कोय.
हाँ, भगवान ने मेरी सृष्टि की है.
जरूर उनकी कृपाकटाक्ष मिलेगी ही.
गुप्त जी की याद आई
नर हो, न निराश करो मन को,
हाँ मैं नर हूँ,. सिंह हूँ,
शेर हूँ, सियार हूँ, भेडिया हूँ,
हाथी हूँ, साँप हूँ, हिरण हूँ
सब पशु पक्षियों की तुलना
कर
जी रहा हूँ.
कोयल स्वर,
गरुड नजर,
उल्लू की दृष्टि,
मीन लोचन,
कमल नयन,
वज्र देह
ईश्वर की अद्भुत सृष्टि हूँ.
अद्वैत हँ.
अहं ब्रह्मास्मि,
मैं भगवान हूँ,
भगवान को नाना रूप देकर
खुद भगवान तुल्य बन जाऊँगा.
विवेक है, विवेकानंद बन सकता हूँ.
आदी शंकराचार्य बन सकता हूँ.
खारे पानी को मीठे पानी
बना सकता हूँ,
पंख हीन , पर
आकाश में उड सकता हूँ.
उमड़ती नदी को बाँध
बनाकर रोक सकता हूँ.
मैं मानव हूँ,
अद्भुत सृष्टि हूँ.

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