Tuesday, November 19, 2019

जान पहचान

नमस्ते। प्रणाम। वणक्कम।
  जान-पहचान।
  मनुष्य  जीवन में,
जान -पहचान के बिना जीना,
 जानवर-तुल्य  जीवन
कहना गलत है या सही,
पता नहीं ,पर पशु वर्ग भी
अपने वर्ग  को जान पहचानकर
साथ चलता है, अपने झुंड  से
अलग होकर दुखी होता है।
मनुष्यों  में  पशु की तुलना में,
शक्ति  अधिक नहीं,
पर बुद्धि बल अधिक।
जान पहचान भी पहले सीमित।
ज्ञान  विज्ञान  के बढते बढते,
 जान पहचान के बढते बढते
मनुष्य  का विकास  होता है।
अकेलेपन  में  स्वार्थ।
मिलकर रहने में आनंद।
इसमें  ईश्वर  की तमाशा देखिए,
जान पहचान  नाते रिश्ते
बनाए रखने  में बाधाएँ अनेक।
प्रधान होते हैं भाव या मनोविकार।
प्रेम,नफरत,ईर्ष्या, क्रोध,करुणा,शोक।
 संकुचित  विकसित  स्वार्थ-परार्थ।
जान पहचान में  दरार।
बचपन का जान पहचान अलग।
जवानी में  अलग।
पेशे के कारण।
वैवाहिक  रिश्तों  के कारण।
बुढापे में  जान पहचान
एक एक करके एकांत अनुभव।
सर्वेश्वर  की याद  तभी।
बचपन से ही जान पहचान
ईश्वर  से हो जाए तो उत्तम जीवन।
 वाणी के डिक्टेटर 
कबीर  के अनुसार,
सुख में भी ईश्वर का पहचान
सदा शांति-संतोष  का पहचान।
स्वरचित स्वचिंतक
यस।अनंतकृष्णन

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