3926. मनुष्य मन उसकी अपनी आत्मा से विलीन न होने के काल में इस प्रपंच का,इस प्रपंच बनाकर देनेवाले जैसा भी दुख हो,उससे विमोचन न मिलेगा। इसलिए मन को आत्मा में मिलने के पहले निर्मल बना लेना चाहिए।मन निर्मल न होने के कारण अनेक विषयों के संकल्प ही हैं ।अनेक संकल्प होने के कारण सुख का केंद्र स्थान न जानना ही है। संकल्प रहित कोई भी विषय मन को सुख न देगा।
इसलिए विषय सुख के कारण संकल्प ही है। संकल्प से मिले सुख विषय नाश के साथ मिट जाएगा। इसलिए नित्य सुख के केंद्र की खोज से पता चलेगा कि वह अपनी अहमात्मा ही है। इसलिए दुख देनेवाले संकल्प दोषों को मिटाकर सुख स्वरूप आत्मा ही है,वह आत्मा स्वयं ही है का महसूस करते हैं। तब मन सुख की खोज में जड-भोग विषयों की ओर न जाएगा। वैसे मन को किसी भी प्रकार के संकल्प के बिना आत्मा से मिलाने पर शारीरिक दोष और प्रपंच दोष अपने पर असर न डालेगा। मन आत्मा से मिलने के साथ जीव भाव नाश हो जाएगा। साथ ही खंड बोध अखंडबोध होगा। अर्थात् सीमित जीवात्मा असीमित परमात्मा स्थिति को पाएगा। वही आत्मसाक्षात्कार है। तभी नित्य सुख और नित्य शांति को स्वयं निरुपाधिक रूप में भोगकर वैसा ही स्थिर खडा रहेगा।अर्थात् परमात्मा रूपी मैैं ही सदा सर्वव्यापी और अपरिवर्तन परमानंद ही शाश्वत है।अपनी शक्ति माया के द्वारा अपने अखंड को विस्मरण करते ही जीव और जीव संकल्प संसार उसका जीवन उसका लय सब बना सा लगता है। स्वरूप स्मरण के साथ पर्दा हटने से आत्मा रूपी अपने में कोई परिवर्तन नहीं होते। इसलिए सदा आनंद से ही रहेगा।
3927. हर एक जीव को हर एक मिनट जीवन में होनेवाले दुख रूपी काँटों से बचकर कोमल सुख रूपी फूल खिलने के लिए माया रूपी पर्दा हटाने के लिए आत्मविचार तैल धारा के जैसे होते समय एहसास कर सकते हैं कि वह स्वयं खिले नित्यानंद फूल ही था, काँटे केवल एक दृश्य मात्र हैं। अर्थात् आत्मा के बारे में जो नहीं पूछते,जो नहीं जानते ,आत्मा पर श्रद्धा नहीं रखते, वे ही जीव अक्षय
पात्र लेकर भीख माँगकर कष्ट सहकर, दुखी होकर जन्म मरण के संकल्प लोक मार्ग मर भटकते रहते हैं।
3928. मैं रूपी अखंडबोध सर्वव्यापी और सर्वत्र विद्यमान होने से दूसरी कोई स्थान या वस्तु नहीं है। इसलिए बोध का विकार नहीं होता। मैं रूपी अखंड बोध रूपी परमात्मा निर्विकार,निश्चलन,अनंत अनादी और आनंद हो जाते हैं। उस आनंद रूपी बोध में ही अपनी शक्ति स्पंदन रूपी चलन होने सा लगता है। अर्थात् आत्मा की शक्ति चलन से इस पंचभूतों से बने प्रपंच दृश्य होते समय शक्ति का आधार वस्तु सत्य या बोध या आत्मा निश्चलन ही खडा रहता है। इस निश्चलन परम कारण बने मैं रूपी अखंडबोध होने से ही चलन प्रपंच बनकर स्थिर रहकर मिट जाने के रूप माया को उत्पन्न करके दिखाते हैं। एक अपरिवर्तन शील वस्तु के सान्निद्य से ही परिवर्तन शील एक वस्तु बनेगी। अपरिवर्तन शील आत्मा रूपी मैं है तो आत्मा में उत्पन्न शरीर और संसार ही परिवर्तनशील होते हैं। जो बदलते हैं,वे वह स्थाई नहीं है। वह मृगमरीचिका है। केवल अखंडबोध ही अपरिवर्तनशील है और स्थाई है। मैं रूपी अखंडबोध के रेगिस्तान की मृगमरीचिका ही शरीर और संसार है।
3929. हर एक मनुष्य के मन में जो अंतरात्मा है, वह परम कारण स्वरूप परमात्मा ही है। जो व्यक्ति एहसास करता है कि वह खुद परमात्मा ही है, शरीर और प्रपंच अपनी आत्मा से भिन्न नहीं है। उस ज्ञान के प्राप्त होते ही शरीर और प्रपंच पर के प्रेम और आसक्ति नहीं होंगे।तभी परमार्थ रूपी स्वयं सर्वांतर्यामी का अनुभव होगा। जब उस स्थिति पर पहुँचते हैं, तब स्वभाविक परमानंद आनंद अनुभव करने लगते हैं। साथ ही एहसास होगा कि अपने में उत्पन्न सभी भूत अपने नियंत्रण में है। अर्थात् प्रपंच अपनी ओर नहीं खींच सकता। स्वयं मैं रूपी अखंड बोध स्वात्मा ही खींचेगा। जीवात्मा स्वयं ही सर्वस्व और सब कुछ है का न जानने से ही सत्य न समझकर संसार में भ्रमित होकर शरीर के भ्रम में संकल्प-विकल्प लेकर नित्य दुख का पात्र बनकर विविध प्रकार के जन्मों के बीज बोते रहते हैं।
3930. वर्तमानकाल में जिसका मन शारीरिक शारीरिक भावना के अतीत आत्म भावना में न चलकर अहंकार को केंद्र बनाकर जीता है,
उसके बीते काल के अनुभव उसमें से न टूटकर चालू होते रहेंगे। कारण अहंकार को स्थित खडा रखना ही बीते काल भविष्य काल के न टूटे चिंतनों को साथ लाने से ही है। जो एहसास करता है कि भविष्य और भूत का स्मरण अर्थ शून्य है, वही विस्मरित आत्मबोध के सभी कार्यों को करके जी सकते हैं। बीते काल पुनः वापस न आएगा। उसको सोचकर समय व्यर्थ करनेवाला मूर्ख ही है। वैसे ही आयु अनिश्चित होने से भविष्य को सोचकर समय बितानेवाला भी अविवेकी ही है। अर्थात् स्वयं बने बोध को सभी प्रपंच रूपों में पूर्ण रूप से देखना एकात्म दर्शन से नित्य कर्मों निस्संग रूप में जब जी सकता है,तभी वह अखंडबोध के स्वभाव परमानंद को निरूपाधिक सहजता से भोग सकता है।
3931. साधारणतः एक वाहन के चालक जैसे ही यह आत्मा शरीर में प्राण के रूप में रहकर इस शरीर का संचालन करता है। वह शारीरिक यात्रा संकल्प से ही इस संसार में बना है। इच्छाएँ यात्राओं को बढाती हैं। अनिच्छाएँ यात्राओं को घटाती हैं। दुख नयी इच्छाओं को मिटा देता है और सांसारिक आसक्ति को अनासक्ति बना देता है। तब से आत्म खोज शुरु होती है। उस आत्म खोज के वैराग्य में आत्मज्ञान प्राप्त जीवाग्नि में मन जलकर भस्म हो जाएा।मन के नाश होते ही शरीर और संसार विस्मरण हो जाएगा। तब मैं रूपी एक आत्म रूप अखंडबोध मात्र अपने स्वाभाविक परमानंद के साथ नित्य सत्य रूप में स्थिर खडा रहेगा ।
3932. पंचेंद्रियों को लेकर भोगनेवाला जीवन अनुभवों में अपरिवर्तनशील अनुभव असत्य को एहसास करता है। विषयों को भोगते समय होनेवाले अनुभव विषय नाश के साथ अस्त होता है। उसी समय मन आत्मा में विलीन होकर आत्मवस्तु अनश्वर होने से आत्मा का स्वभाव आनंद और शांति अनश्वर ही रहेंगी। नित्य रहेगा।
3933. माया के दो भाव ही विद्या माया और अविद्या माया होती हैं। अविद्या माया जीव को सत्य के निकट जाने न देगी।अविद्या माया से प्रभावित लोग प्रत्यक्ष देखनेवाले सबको अर्थात् इस शरीर और संसार को उसी रीति से सत्य मानकर विश्वास रखते हैं। लेकिन अप्रत्यक्ष अनेक प्राण चलन अपनी आँखों के सामने अदृश्य रहते हैं। लेकिन सूक्ष्मदर्शिनी के द्वारा देखते समय अनेक प्रकाश किरणें अपने सामने देख सकते हैं। उदाहरण रूप में अपने आँखों के सामने मेज़ पर सूक्ष्म दर्शिनी जैसे यंत्र रखकर देखते हैं तो उसमें प्रोटान,न्यूट्रान,ऍलक्ट्रान आदि को देख सकते हैं। इसलिए जो कुछ है,जो कुछ नहीं है आदि को विवेक से जाने बिना किसीको यथार्थ सत्य मालूम न होगा। वैसे विवेक से नहीं देखनेवालों को दुख न दूर होगा। संदेह भी न दूर होगा। लेकिन जो कोई इस शरीर को और संसार को समझकर जड,है, जड कर्म चलन है,चलन प्राण स्पंदन है, प्राण स्पंदन निश्चलन अखंडबोध में किसी भी काल में न होगा। जो इसका एहसास करता है,वही जान-समझ सकता है कि शरीर और संसार मिथ्या है। वह एहसास कर सकता है कि निश्चलन बोध मात्र सत्य है। वह सत्य स्वयं ही है,अपने स्वभाव ही शांति और आनंद है। ऐसी विवेकशीलता जिसमें नहीं है, उस जीवात्मा को नित्य दुख होगा। वह सुख और शांति स्वप्न में भी अनुभव नहीं कर सकते। कारण यह प्रपंच दुख पूर्ण है। यह अनादी काल से होकर छिपनेवाले सभी जीवात्मा के अनुभव की गोपनीय बात है। देखकर,सुनकर अनुभव करके भी सत्य क्या है? असत्य क्या है? की विवेकशीलता से न जाननेवाले अविवेकशील मनुष्य को मनुष्य कह नहीं सकते। कारण यवह अपने उत्पन्न स्थान की खोज करने के लिए समय न लेकर विषय भोग वस्तुओं के लिए धन केलिए दौडता भागता रहता है।
यह आत्मज्ञान रहस्यों में रहस्य,विज्ञापनों में विज्ञापन है। इसे विज्ञापन कमें न मिलेगा।
3934.एक मनुष्य की दिनचर्याएँ नहाना,कपडे पहनना आदि नित्य कर्माएँ करते समय वह एक प्रत्येक काम सा न लगेगा। वैसे ही मन में दिन दिन आनेवाले अच्छे बुरे चिंता कूडों को निरंतर शुद्ध करते समय ही शरीर भर में आत्म स्वयं प्रकाश होगा। कारण स्वयं बने आत्मप्रकाश स्वरूप, दूसरों को प्रकाशित कराने बना है। इसलिए स्वयं बनेे निश्चल परमात्म स्वरूप में अपनी शक्ति माया दिखानेवाले शरीर और सांसारिक दृश्य माया दवारा दिखानेवाले इंद्रजाल नाटक है। इसका एहसास करते समय शरीर और संसार मृगमरीचिका के समान तीनों कालों में रहित ही है। उस स्थिति में ही आत्मा का स्वभाव परमानंद और परमशांत अपने स्वभाव से भोग सकते हैं।
3935.हम जिस आकाश को देखते हैं, वह अपनी स्थिति में कोई परिवर्तन के बिना इस प्रपंच के सभी रूपों को ऊँचा उठाकर दिखाता है। वह आकाश सभी रूपों के पूर्ण अंगों में व्यापित रहता है। आकाश से ही ये रूप होते हैं। वैसे ही चिताकाश रूपी परमेशर पंच भूतों को बढा-चढाकर दिखाते हैं। उसे तीन वर्गों में ही दिखाते हैं। प्राण, आकाश,वायु आदि भूत होते हैं। वे सूक्ष्म जड दृढ बनकर ही
अग्नि,पानी,आदि भूत बनते हैं। उन भूतों का दृढ बनना ही यह भूमि है।अर्थात् समुद्र का पानी लहरें,जाग बनकर बरफ़ बनने के समान। बरफ़ पानी और भाप बनने के जैसे। वैसे ही परमात्मा रूपी अखंडबोध ,बोध रूपी परमत्मा, अपने निश्चलन में परिवर्तन किये बिना चलन शक्ति माया चित्त बनकर प्राणन के रूप में अनेक परिणामों में मिलकर इस ब्रह्मांड को बनाया है।लेकिन यह जड कर् चलन प्रपंच मृगतृष्णा होती है। कारण निश्चल परमात्मा में कोई चलन नहींं होगा।चलन होने पर परमात्मा का सर्वव्यापकत्व नष्ट होता है। इसलिए एकात्मा एक ही परमात्मा मात्र ही नित्य सत्य परमानंद मात्र स्थिर खडा रहता है। वह परमात्मा स्वयं ही है की अनुभूति करनेवाला ही ब्रह्म है। यही अहंब्रह्मास्मी है।
3936. परमत्मा के सान्निद्य में ही प्रकृति से सकल चराचर के यह विश्व प्रपंच बनता आता है। विविध प्रकार से परिणमित इस प्रपंच का साक्षी मात्र ही भगवान है। यह साक्षी ही हर एक जीव के हृदय में जीवात्मा के रूप में रहता है। जो यह महसूस करता है कि वह स्वयं शरीर या संसार नहीं है, शरीर और संसार अपने यथार्थ स्वरूप परमात्मा रूपी अखंड बोध में अपनी शक्ति माया अपने को अंधकार में छिपाकर दीखनेवाला स्वप्न है। ऐसी अनुभूति के जीव ही आत्मज्ञान को उपयोग करके शरीर और संसार को मृगमरीचिका के समान तजकर प्रतिबिंब जीव रूपी अपनी जीव स्थिति को भूलकर
बिंब बने अखंडबोध स्वरूप को अज्ञान निद्रा से पुनः जीवित करके निजी स्वरूप अखंडबोध स्थिति को प्राप्त करके उसके स्वभाविक परमानंद में स्थित खडा रह सकता है। इस संसार में बडा खज़ाना आत्मज्ञान ही है। इसको न जाननेवाले अविवेकी ही नाम,यश और धन के बंधन के लिए मनुष्य जीवन के आयु को बेकार कर रहे हैं वैसे लोग गुलाब की इच्छा के द्वारा वह काँटे के पौधे देनेवाले दर्द सहने तैयार रहते हैं। जो फूल को तजते हैं,केवल उसको ही दुख से विमोचन होगा।
3937.नाम पाने के लिए, धन के लिए,अधिकार के लिए शास्त्र सिखानेवाले गुुरु के शिष्यों और भक्तों के स्वभाव भी वैसे ही होंगे। वैसे लोग ही जो जग नहीं है, उसको स्थिर खडा करते हैं। वह प्रकृति के स्थिर खडा रखने का भाग है। उसी समय यथार्थ सत्य की खोज करनेवाले ही यथार्थ गुरु के पास जा सकते हैं। यथार्थ गुरु नित्य संतुष्ट रहेंगे। वे इस संसार में किसीसे कुछ भी प्रतीक्षा नहीं करते।
उनका पूर्ण मन सत्य आत्मा में मात्र रहेगा। वैसे आत्मज्ञानी के गुरु के यहाँ शिष्य और भक्त विरले ही रहेंगे। कारण माया गुणों से विषय वस्तुओं से भरा मन सत्य के निकट जा नहीं सकता। जो सत्य के निकट जा नहीं सकता, उसको दुख से विमोचन न होगा।उनसे शांति और आनंद बहुत दूर रहेंगे।
3938. अपनी अहमात्मा को कोई भी कलंकित नहीं कर सकता। वह सब के साक्षी रूप में ही रहता है। तीनों कालों में रहित
यह दृश्य प्रपंच में देखनेवाले सब के सब को प्रकाशित करनेवाला अपनी अहमात्मा ही है। रूपभेद,वर्ण भेद,जन्म-मरण आदि विकार के विविध भाव होनेवाले ही ये जड हैं। लेकिन बदल-बदलकर आनेवाले ये भाव कोई भी आत्मा पर प्रभाव नहीं डालता।उदाहरण स्वरूप
सूर्य प्रकाश से प्रकाशित वस्तुओं की कमियाँ कोई भी सूर्य पर अपना
प्रभाव डाल नहीं सकता।
3939.वेदांत सत्य जानकर उसमं जीनेवाले विवेकियों को ही उनके शरीर और मन स्वस्थ रहते समय ही वे अपने वचन और क्रिया को एक साथ लेकर चल सकते हैं। उसी समय शरीर और मन शिथिल होने के बाद सांसारिक जीवन में सत्य को जो महसूस नहीं करता,उसके लिए असाध्य कार्य ही है। कारण उनका मन शारीरिक बीमारी,रिशतेदार,घर,धन और संसार में ही रहेगा। वैसे लोग
मरते समय प्राण पखेरु उडते मिनट में उनका मन एक अमुक इच्छा में न रहेगा।कारण चित्त बदलते रहने से जीव जाते निमिष में घास.पशु, अच्छे-बुरे जो भी हो, जिसमें मन लगता है, वैसा ही जन्म लेता है।
अर्थात् उनके मन की परेशानी में जो सोचता है,वैसा ही जन्म लेगा।
कारण उनके जीवन में कोई अमुक लक्ष्य न होना ही है। जैसा चित्त होता है, जीवन भी वैसा ही है। चित्त ही किसी के संपूर्ण जीवन के लिए उसके देखने के जग के लिए कारण बनता है। इसलिए वह चित्त और प्रतिबिंब बोध मिलकर ही मरते समय शरीर को छोडकर बाहर जाता है। अर्थात् चित्त के बिना आत्मा प्रतिबिंबित हो नहीं सकती। बिना पानी के, अर्थात् प्रतिबिंब करनेवाली वस्तु के बिना सूर्य प्रतििंबित कर नहीं सकता। पानी की चंचलता प्रतिबिंब को भंग करने के जैेसे ही चित्त संकल्प सब प्रतिबिंब जीव पर असर डालने के समान लगता है। पानी नहीं तो सूर्य प्रतिबिंब भी नहीं रहेगा। वैसे ही चित्त नाश के साथ जीव भाव जीव भाव का भी नाश होगा। वैसे ही जीव जिंदा रहते समय ही जो चित्त को पवित्र बनाकर इच्छा रहित पूर्णतः शुद्ध रूप में रखता है, तब चित्त का कोई अस्तित्व न रहेगा।
कारण चित्त चित् रूप में बदलेगा। वह आत्मा के रूप में बदलेगा। तभी सभी दुखों से विमोचन होगा।
3940. एक पतिव्रता के सिवा साधारण स्त्री का मन, स्त्री को अनुसरण करनेवाले पुरुष का मन सत्यतः आत्मा के निकट जाने में कष्ट ही होगा। वह सत्य ही स्त्री और पुरुष को गतिशील रखता है। लेकिन वे सत्य को महत्व न देने से दुख उनसे दूर नहीं होगा। उनको नहीं मालूम है कि दुख के कारण असत्य ही है। उसके कारण शारीरिक अभिमान रूपी अहंकार ही है। उसको गुरु,माता-पिता और समाज ने नहीं सिखाया है कि अहंकार ही दुख के कारण है। केवल वही नहीं , उन्होंने शास्त्रों का अध्ययन नहीं किया है। वैेसे लोग दुख से और और दुख लेकर ही प्राण तजते हैं। जो कोई जीव और शरीर को विवेक से जानते हैं, वे जड रूपी शरीर को तजकर प्राण रूपी आत्मा को ही स्वयं है की अनुभूति करके आत्मा के स्वभाविक आनंद का अनुभव करेंगे।
3941. एक मंदिर के दीवार पर एक देव के चित्र को देखते समय वह चित्र दीवार से अन्य -सा लगेगा। वैेसे ही अपने को दृश्य के यह प्रपंच स्वयं बने आत्मा से अन्य-सा लगेगा। चित्र के मिटने पर भी दीवार में कोई परिवर्तन नहीं होते, वैसे ही दृश्य के न होने पर भी दृष्टा रूपी अर्थात आत्मा रूपी स्वयं मिटता नहीं है। वैसे ही कोई ज्ञानी अपने शरीर को ही स्वयं बने आत्मा रूपी बोध में चित्र खींचने के जैसे देखता है,अर्थात् बोध में अपने दृश्य रूपी चित्र जैसे अपने शरीर को देख सकताहै ,वह अनुभव कर सकता है कि उसके अपने शरीर का नाश होने पर भी उसका नाश न होकर स्थिर खडा है। इसलिए कुछ ज्ञानी स्वात्मा को अपने पूर्ण रूप से साक्षात्कार करते समय ऊपर नीचे आश्चर्य से देखेंगे कि अपने शरीर और संसार कहाँ गये हैं।अर्थात् यह एहसास कर सकते हैं कि शरीर और संसार आत्मा रूपी अपने में रस्सी में साँप जैसे और रेगिस्तान में मृगमरीचिका जैसे मिथ्या है।
3942. मनुष्य मन को कष्ट है कि आँखों से देखकर अनुभव करनेवाले यह शरीर और संसार नश्वर है। आत्मज्ञान की दृढता होने तक यह अविश्वसनीय है कि वैसे ही शरीर और संसार को जाननेवाले ज्ञान स्वरूप अनश्वर ही है। अपनी आँखों से ही अपनी आँखों को देख नहीं सकते,अपने से अन्य दर्पण में देखकर ही रस लेते हैं। वैसे ही सर्वव्यापी आत्मा अपने को ही माया रूपी दर्पण में अपने से अन्य रूप में प्रपंच रूप में देखते हैं। लेकिन दर्पण को तोडते ही प्रति बिंब मिट जाते हैं। वैसे ही आत्मज्ञान की दृढता होने के साथ
चित्त रूप के शरीर और संसार मिट जाएँगे। साथ ही जीवभाव छिप जाएगा। साथ ही आत्मा रूपी अखंडमात्र नित्य सत्य रूप में परमानंद रूप में स्थिर खडा रहेगा।
3943. कोई भक्त संपूर्ण परम कारण रहनेवाले परमात्मा बने परमेश्वरन को अभय प्राप्त है,उसके सामने मात्र ही महा माया फण फैलाये रहेगा। कारण भगवान और भक्त दो नहीं है। वही नहीं परमेश्वरन भक्त का दास ही है। भक्त के दुख को भगवान न सहेंगे। साधारणतः स्त्रियाँ आत्मवीचार के विरुद्ध हैं। उसका सूक्ष्म यही है कि जगत स्वरूपिनी स्त्री चलनशील है,परम कारण के परमात्मा निश्चलन है। इसलिए जो स्त्री हमेशा आत्मस्मरण को शुरु करती है,
उसके साथ स्त्री जन्म का अंत होगा। या परमात्मा की पराशक्ति से ऐक्य हो जाएगा। अर्थात् चलन ही निश्चलन होगा। इसलिए जो स्त्री
सदा आत्मा रूपी परमेश्वर को पति मानकर पतिव्रता बनती है,वह पराशक्ति परमेश्वर में ऐक्य हो जाएगी।
3944. जो कोई निरंतर दुख में रहता है, उसके हृदय में परमानंद स्वरूप परमात्मा मात्र नहीं, उसी के ही रूप में है। यह बात वह जानता नहीं है। जानने पर भी वह भरोसा नहीं रखता। विश्वास होने पर भी ज्ञान की दृढता नही होती। इसीलिए वह सदा दुखी रहता है। उसी समय जो कोई परमानंद स्वरूप परमात्मा अपने शरीर और प्राण है का एहसास करके सभी कर्म करने से वह सदा धैर्यशाली है। केवल वही नहीं , शांति और आनंद उसको छोडकर नहीं जाएँगे।
3945. स्त्री को उपदेश करके बुद्धिमान बना सकता है,यह मोह अर्थ शून्य है। उसके विषय चिंताओं के आवर्तन स्वभाव से समझ सकते हैं। केवल वही नहीं, उसका अनुसरण रहित रहना,सत्य के बिना रहना
स्पष्ट होगा। अर्थात् चलनात्मक प्रकृतीश्वरी चलनशील होने से मात्र ही वह स्थाई सा लगेगा। वह निश्चलन सत्य के निकट जाने पर प्रकृतीश्वरी का अस्तित्व नहीं रहेगा। कारण सत्य निश्चलन है। सत्य को चलन छूने के बाद वह निश्चल हो जाएगा। इसीलिए स्त्रियाँ पुरुष का अनुसरण नहीं करती। सत्य नहीं बोलती। जो स्त्री निश्चल परमात्मा में मन लगाती है, माया स्त्री मायावी पमेश्वर होगी। परमेश्वर बनकक परमात्मा बने परब्रह्म मात्र ही नित्य सत्य परमानंद स्वभाव में रहेगा।
3946. साधारण स्त्रियों को विवेकी पुरुषों की आवश्यक्ता नहीं है।
अविवेकी पुरुष की आवश्यक्ता है। कारण विवेकी पुरुष स्त्रियों के शरीर से प्रेम नहीं करेगा।अविवेकी पुरुष ही शरीर से प्रेम करते हैं।स्त्री के शरीर से प्रेम करनेवाले पुरुषों को रखकर ही स्त्री अपनी इच्छाओं को पूरी कर लेती है। स्त्री पहले अपनी कामवासना की पूर्ति के लिए पुरुष को क्रोधित करेगी। जब वह हो नहीं सकता,वह डराएगी। उसमें भी वह वश में नहीं आएगा तो उसको मृत्यु वेदनाएँ देगी। वह उसे सताएगी। उसमें भी वह नियंत्रण में नहीं आयेगा तो वह उसे छोडकर चली जाएगी। जब वह उसे हटकर नहीं जा सकती, आजीवन उसके नियंत्रण में रहेगी। उसी समय नियंत्रण में जो रहना नहीं चाहती,वह स्त्री ही पुरुष के बेसाहारे स्थिति में रहेगी। जो स्त्री पुरुष को अपने दिव्य पुरुष मानकर जीवन चलाती है, तो पति के बंधन में रहेगी। उसके जीवन में स्त्री जन्म से विमोचन होगा। ये सब
द्वैत बोध और भेद बुद्धि के साधारण मनुष्य के बारे में ही है। लेकिन सत्य यही है कि नाम रूप के सब असत्य ही है। केवल एक ही एक लिंग भेद रहित अरूप निश्चलन बने परमात्मा मैं रूपी अखंड बोध मात्र ही परमानंद स्थिर खडा रहता है।
3947. जो दुख को मात्र देनेवाले संसार में, उसके जीव और सांसारिक विषयों के बारे में निरंतर चिंतन में डूबकर कर्म करनेवालों को शारीरिक अभिमान बढेगा। वह अहंकार और दुर्रभिमान को बनाएगा। दुर्रभिमान और द्वैतबोध को उसके द्वारा राग-द्वेष को बनाएगा। वही निरंतर दुख के कारण है। इसलिए आत्म उपासक को कर्म में अकर्म को विषयों में विष को जीवों में एकात्म को दर्शन करके उपासना करनी चाहिए। आत्म उपासक की दृष्टि में शरीर और संसार सब के सब रूप रहित एक ही परमात्मा ही भरा रहेगा। वह परमात्मा ही मैं है के अनुभव को उत्पन्न करके अखंडबोध के रूप में रहता है। मैं रूपी अखंडबोध नहीं तो कुछ भी नहीं है। जो भी है, उसमें अखंड बोध भरा रहेगा। अर्थात् स्वयं बने बोध रहित कोई भी कहीं भी कभी नहीं है। इस शास्त्र सत्य को महसूस करके बडी क्रांति और आंदोलन करने पर भी कोई दुख नहीं होगा। मृत्यु भी नहीं होगी। कारण बोध पैदा नहीं हुआ है। इसलिए उसकी मृत्यु नहीं है। बोध में दृष्टित नाम रूपों को स्वयं कोई अस्तित्व नहीं है। कारण बोध सर्वव्यापी होने से नाम रूपों को स्थिर रहने कोई स्थान नहीं है। वह केवल दृश्य मात्र है। वह जो सत्य नहीं जानता, उसका दृश्य मात्र है।सत्य जाननेवाले नाम रूप में स्वयं बने बोध के दर्शन करने से अस्थिर हो जाता है। इसलिए उसको दूसरे दृश्य नहीं है।
3948. वही स्वयं को, आत्मा रूपी अखंडबोध को, एहसास करके उसमें दृढ रह सकता है ,जो नामरूपात्मक इस जड प्रपंच को अर्थात् कर्म चलन और यह दृश्य प्रपंच अर्थात् पंचेंद्रिय अनुभव करनेवाले प्रपंच तीनों कालों में स्थिर नहीं रहेगा। वैसे लोग ही बोध स्वभाव शांति और आनंद को अनुभव कर सकता है। इस स्थिति में एक ज्ञानी को जब कोई दर्शन करता है, तब उसी मिनट से दर्शक के मन से दोष बदलकर शांति और आनंद का एक शीतल अनुभव होगा। वह दर्शन ही शिव दर्शन होता है। कारण शिव परमात्मा है। आत्मा में सदा आनंद अनुभव करनेवाला है। नित्य आनंद का अनुभव करनेवाला शिव ही है। उस शिव स्थिति रूपी मैं के अखंड बोध को अपनी शक्ति माया अंधकार रूप में अपने स्वभाविक परमानंद
स्वरूप को छिपा देता है। उस अंधकार आकार से ही सभी प्रपंच बनते हैं।अर्थात् उस अंधकार से पहले उमडकर जो आया है,वही मैं रूपी अहंकार है। उससे अंतःकरण,बुद्धि, संकल्प मन नाम रूप विषय वस्तुओं को बढानेवाले चित्त ,चित्त विकसित दिखानेवाले दुख देनेवाले वर्ण प्रपंच होते हैं। उनसे बाहर आने मन को अनुमति न देनेवाले दृश्य अनादी काल से होते रहते हैं। जो जीव किसी एक काल में दुख निवृत्ति के लिए मन की यात्रा बाहरी यात्रा से अहमात्मा की शरणागति में जाता है, उसको मात्र ही दुख का विमोचन होगा। सिवा इसके जड-कर्म चलन प्रपंच में डूबकर उमडनेवाले किसी भी जीव को कर्म बंधन से मुक्ति या कर्म से तनिक भी आनंद या शांति किसी भी काल में न मिलेगा।
3949. प्रेमियों के दो हृदय अपने में अर्थात् शरीर रहित आत्मा और आत्मा से प्यार होते समय शरीर की सीमा पार करके एक रूपी असीमित बोध समुद्र के रूप में बदलता है। साथ ही इस वर्ण प्रपंच के प्रेमसागर में उत्पन्न होनेवाली लहरों,बुलबुलों और जागों को ही देखेंगे।अर्थात् बोध अभिन्न जगत के तत्व को साक्षातकार करेंगे।
3950.कलाओं में जो भी कला सीखें,तब सोचना चाहिए कि यह कला ईश्वरीय देन है। उसे स्वर्ण, धन और पद के लिए उपयोग करना नहीं चाहिए। ईश्वर के दर्शन के लिए ईश्वर के सामने कला का नैवेद्य चढाना चाहिए। वैसे करनेवाले ही ईश्वर के दर्शन करके आनंदसागर के तट पर पहुँचेंगे। वैसा न करके सृष्टा को भूलकर सृष्टि के समर्थन करने नित्य नरक ही परिणाम के रूप में मिलेंगे।उसी समय सृष्टा से एक निमिष मिलकर उन्हें न भूलकर कलाओं को जैसा भी प्रयोग करो,वह दुख न देगा। अर्थात् बुद्धि जड है। मन भी जड है। प्राण भी जड है, शरीर भी जड है। जड में कोई क्षमता नहीं रहेगी। वह स्वयं नहीं के बराबर है। स्वयं में परमात्मा बने मैं का बोध शरीर रूपी उपाधि में मिलकर स्वयं अनुभव करनेवाले अनुभवों का हिस्सा ही सभी कलाओं की रसिकता है। सभी चलन माया है। निश्चलन बोध मात्र नित्य सत्य है। इसका एहसास करके जो कलाकार केवल कला में मात्र मन लगाकर जीवन में खुश का अनुभव करते हैं,वे ही अंत में आनंद का अनुभव करके स्वयं आत्मा का साक्षातकार कर सकते हैं। या उनकी इष्टदेवता के लोक जा सकते हैं।
3951. जो सुंदरता को वरदान के रूप में प्राप्त किया है,वे अपने जीवन को सत्य साक्षात्कार के लिए उपयोग न करके असत्य साक्षात्कार के लिए उपयोग करने से ही उनका जीवन नरकमय बन जाता है। इसलिए उनको एहसास करना चाहिए कि अपने शरीर की सुंदरता की चमक अपनी अहमात्मा की चमक है। इस तत्व को भूलकर जीव सोचता है कि वह सुंदरता जड रूपी शरीर की है।यह सोच गलत है। ऐसी गलत सोच के कारण ही जीवन नरक बन जाता है। अर्थात् आत्म बोध नहीं तो सूर्य को प्रकाश नहीं है। बोध नहीं तो चंद्र को प्रकाश नहीं है। बोध नहीं तो फूल को प्रकाश नहीं है। बोध नहीं तो नक्षत्रों को प्रकाश नहीं है। बोध नहीं तो कुछ भी चमकता नहीं है। यह सारा प्रपंच मैं रूपी अखंडबोध प्रकाश ही है। अर्थात् एक ही अखंड बोध मात्र नित्य सत्य रूप में है।मैं रूपी अखंडबोध को ही ईश्वर, ब्रहम परमज्ञान,परमात्मा,सत् ,चित् आनंद आदि कहते हैं । जो जीव इस सत्य को नहीं जानते,वे ही इस संसार में निरंतर दुख भोगते रहते हैं। सत्य में दुख एक भ्रम मात्र है। भ्रम का मतलब है रेगिस्तान में मृगमरीचिका के जैसे,रस्सी में साँप जैसे है। भ्रम हर एक को एक एक रूप में असर डालता है। उदाहरण के लिए एक मील पत्थर आधी रात में किसी एक को भूत-सा लगता है। लेकिन एक चोर को पकडने आये पुलिस को वहीमील पत्थर चोर-सा लगता है। एक प्रेमी को प्रेमिका के जैसे,एक प्ेमिका को प्रेमी जैसे लगत है।
उसी समय दूर से आनेवाले वाहन की रोशनी में मील पत्थर साफ-साफ दीख पडने से सबका संदेह बदल जाएगा। वैसे ही जब तक आत्मज्ञान प्राप्त नहीं होगा तब तक संदेह और दुख न मिटेगा। सभी दुखों से विमोचन होने के लिए एक ही महा औषद आत्मज्ञान मात्र है।
3952 हर एक के मन में ये प्रश्न उठते रहेंगे कि मैं कौन हूँ? मेरी उत्पत्ति कहाँ हुई? कहाँ मिट जाऊँगा? कब मरूँगा या न मरूँगा? मैं कहाँ स्थिर रहूँगा? कैसी गति होगी? कौन मुझे गतिशील बनाता है? जिनको संदेह है, उनको दो बातें जान लेना चाहिए।१. नाम रूपात्मक यह सारा ब्रह्मांड जड है। वह तीनों कालों में रहित है। २. मैं है का अनुभव बोध। वह किसी के द्वारा बिना कहे ही मैं हूँ का बोध है ही। अर्थात यह सोच नहीं सकते कि मैं का बोध जन्म हुआ है और मिट गया है। उसका जन्म और मृत्यु नहीं है। अर्थात् बोध स्वयंभू है। इस बोध से मिले बिना किसी बात को देख नहीं सकते, सुन नहीं सकते,जान नहीं सकते, भोग नहीं सकते। अर्थात् आत्मा रूपी मैं का बोध ही सब कुछ है। जो स्थिर है, उसको किसी काल में बना नहीं सकते।इसकी निज स्थिति मनुष्य ही जान सकता है,जानवर जान नहीं सकता। इसलिए जो मनुष्य के महत्व को नहीं जानता, उसको सुख और शांति किसी भी काल में नहीं मिलेंगे। निरंतर दुख ही होगा। जो दुख विमोचन चाहते हैं, मूल्य जितना भी हो,त्याग जितना भी हो करके आत्मज्ञान सीखना चाहिए। जिसको इसमें विश्वास नहीं है,वे प्रश्न करके, परस्पर चर्चा करके शास्त्रों का अध्ययन करके सद्गुरुओं से प्रश्न करके ,आज तक संसार में जन्मे सभी महानों के अनुभवओं को लेकर उनके उपदेशों पर विश्वास रखकर स्वयं अभ्यास करके अनुभव करना चाहिए। जब विश्व का उदय हुआ,उस दिन से यह सत्य प्रकट होता रहता है। जितने भी महानों का जन्म हो,
ईश्वरीय अवतार हो,शास्त्र सत्य यही है कि अमीबा से ब्रह्मा तक के सभी नाम रूप तीनों कालों में रहित ही है। केवल मैं रूपी अखंडबोध मात्र ही नित्य सत्य रूप में एक और एक रस में परमानंद रूप में स्थिर खडा रहेगा। यह सत्य है कि जो जीव ये सब नहीं करते,उनको दुख ही होगा। सुख नहीं मिलेगा।
3953. दो परिवार आपस में वादविवाद करते समय एक दूसरे को देखकर कहेगा कि मुझे और मेरे परिवार को भगवान देख लेंगे। तब वे नहीं सोचते और एहसास नहीं करते कि जो भगवान उसके परिवार को देखता है,वही सामनेवाले परिवार को भी देखेगा। उसके कारण यही है कि शारीरिक अभिमान रूपी अहंकार और उसके द्वारा होनेवाली भेद बुद्धि दोनों के हृदय के एकात्मा को छिपा देता है। सांसारिक जीवन बितानेवाले सब के सब सदा दुख का अनुभव करता है। हर एक सोचते हैं कि मेरे देखने से ही तुम्हारा जीवन चलेगा। ऐसे सोचनेवाले अहंकारियों को भी भगवान ही देखता है।इस बात को समझ लेना चाहिए कि वह भगवान हर एक जीव के दिल में वास करता है। वही भगवान सब को सक्रिय बनाकर नचाता है। जिस दिन हर एक जीव अपने को गतिशील बनानेवाली शक्ति अर्थात आत्मा अर्थात बोध को एहसास करता है उस दिन तक दुख से बाहर नहीं आ सकता। यही सब जीवों का हालत है। आज या कल इसका महसूस करना ही चाहिए।इसे जानने और समझने के लिए ही सभी जीव जाने-अनजाने यात्रा करते रहते हैं। कारण वह आनंद खोज के लिए भटकना ही है। वह जीव नहीं जानता कि वह आनंद हर जीव का स्वभाव है।
3954.मिट्टी से बुत बनानेवाले शिल्पी की आँखों में मिट्टी के बिना आकार न बनेगा। वैेसे ही आत्मज्ञानी इस संसार में जितने भी रूप रहे, सिवा आत्मा के किसी भी लोक को देख नहीं सकता। अर्थात स्वआत्मा को उसकी पूर्णता में जो साक्षात्कार करने का प्रयत्न करता है,उसको ब्रह्मांड में तजने या स्वीकार करनेे कुछ भी नहीं है।वैसे लोग ही आत्मा को पूर्ण साक्षात्कार से आत्मा के स्वभव परमानंद को अनिर्वचनीय शांति कोो अपनेे स्वभाविक निरुपाधिक रूप में स्वयं अनुभव करके आनंद का अनुभव करेगा।
3955.स्वप्न में अपनी प्रेमिका को कोई चुराकर ले जाने के दुख को न सहकर आत्महत्या की कोशिश करने की दशा में नींद खुल जाती है तो मानसिक दर्द जैसे आये,वैसे ही दर्द गए। वैसे ही इस जागृत जीवन में भी अविवेकी एहसास नहीं कर सकता। लेकिन वह स्वप्न को मिथ्या, वह जागृत को सत्य मानता है। वह एहसास नहीं कर सकता कि रात में जो स्वप्न देखा,वैसे ही जागृत अवस्था में अज्ञान रूपी निद्रा में देखनेवाले स्वप्न अनुभव ही इस जागृत अवस्था के अनुभव ही उसके कारण होते हैं। इसे विवेक से न जाननेवाले आत्मज्ञान अप्राप्त बेवकूफ़ ही दुख का अनुभव करके जीवन को व्यर्थ करते हैं। अर्थात् स्वप्न जागृति और जागृत स्वप्न दोनों ही माया दर्शन ही है। ये दोनों ही असत्य ही है।मैं रूपी अखंडबोध में ही अपनी शक्ति माया चित्त बनाकर दिखानेवाला एक इंद्रजाल ही है। यह इंद्रजाल कभी सत्य नहीं होगा। जो इसका एहसास करता है, उसको दुख नहीं होगा। जो इसका अनुभव नहीं करते उनको नित्य दुख ही होगा। दुख विमोचन का एक मात्र मार्ग आत्मज्ञान मात्र ही है।
3956. सभी मनुष्यों के दिल में ये प्रश्न उठते रहते हैं कि मैं कौन हूँ? तुम कौन हो? मैं और तुम कहाँ से आये? हमारे माता-पिता और पूर्वज कहाँ से आये? क्यों और किसके लिए आये? इन प्रश्नों के उठने के पहले ही खोज करनी चाहिए कि इन प्रश्नों के उत्तर पहले ही हमारे पूर्वजनों ने कहे हैं? किसी शास्त्रों में लिखा है क्या? क्या इसके लिए कोई वेद है? . तभी एहसास कर सकते हैं कि कई हजार वर्षों के पहले ही वेदांत कहनेवाले उपनिषदों में इन प्रश्नों के उत्तर मिलते हैं। उनसे सत्य और असत्य को जान-समझ सकते हैं। इस प्रपंच का आधार अथवा परम कारण ब्रह्म ही है। अर्थात् मैं रूपी बोध ही है। वह बोध अखंड है। जैसे एक ही बिजली अनेक बल्ब प्रकाशित हैं, वैसे ही सभी जीवों में मैं रूपी अखंड बोध एक रूप में प्रकाशित है। इसका एहसास करके दृढ बुद्धि से जीने से ही बोध के स्वभाविक परमानंद और अनिर्वचनीय शांति का अनुभव होगा। उनको भोगने में बाधक हैं संकल्प और रागद्वेष। भेद संकल्प और राग-द्वेषों को आत्मविचार के द्वारा परिवर्तन कर सकते हैं। इस परमानंद को स्वयं भोग सकते हैं।
3957. एक सगुणोपासक के दिल में देवी देव के रूप में प्रतिष्ठा करने के जैसे ही आत्मोपासक की आत्मा से ज्ञानोदय होकर तत्वज्ञान रूप लेता है। वैसे प्रकृति को उपासना करनेवालों के मन में कला, काव्य, कविता,चरित्र बनता है। अर्थात् संकल्प जैसे ही मानना है। इसलिए जीवों में विवेकी मनुष्यों को मात्र ही अपने शरीर और संसार एक लंबे स्वप्न है, वह एक गंधर्व नगर जैसे हैं, वह तीनों कालों में रहित है। यह सब जानने के ज्ञान रूपी मैं रूपी परमात्मा बने अखंडबोध मात्र ही है। यह एहसास करके जड स्वभाव के शरीर और संसार को विस्मरण करके आनंद स्वभाव आत्मा स्वयं ही है को समझकर वैसा ही बनना चाहिए। सत्य को जानने की कोशिश न करके शरीर और संसार को भूल से आत्मा सोचकर जीनेवालों को दुख ही भोगना पडेगा। सुख कभी न होगा। जो दुख के कारण ईश्वर सोचते हैं, उनको एहसास करना चाहिए कि उनके दुखों के कारण हृदय में रहे ईश्वर को सोचकर आनंद स्वरूप ईश्वर की पूजा नहीं की है। अर्थात् विश्वविद्यालयों में आत्मज्ञान सिखानेवाले वेदग्रंथ न पाठ्यक्रम में होने से ही दुखों के बुनियाद आधार है। अर्थात् शिक्षा ज्ञान में और आत्मज्ञान के लिए मुख्यत्व न देने कारण राज्य की प्रगति नष्ट होगी। यह शासकों की गलतफ़हमी है।इसलिए उनको समझना चाहिए कि लौकिक ज्ञान से होनेवाली प्रगति से अनेक गुना शक्ति कर्म प्रगति आत्मज्ञान प्राप्त करनेवालों से ही कर सकते हैं।
आत्मज्ञान जिसमें है, उनसे बनाये कर्म प्रगति में दुख का अनुभव करने पर भी उनमें जो शांति और आनंद है,वे रहेंगे ही, न बदलेंगे।
3958. भगवान की खोज करने की आत्म उपासनाएँ हैं भक्ति,ज्ञान,कर्म योग मार्ग और रूप रहित अपरिवर्तनशीलआत्म उपासनाएँ होती हैं। उनमें श्रेष्ठ आत्मोपासना ही है। आत्मोपासना करना है तो आत्मज्ञान सीखना चाहिए। बाकी सब उपासनाएँ और सत्य की खोज़ इस आत्मज्ञान को प्राप्त करने के लिए ही है। अर्थात् सभी ईश्वर खोज का अंत आत्मज्ञान ही है। वह आत्मज्ञान अपने बारे में का ज्ञान ही है। सबको गहराई से खोजने पर जो ज्ञान अध्ययन द्वारा सीखते हैं,उनसे भिन्न है स्वयं अनुभव से प्राप्त ज्ञान। स्वयं रूपी परम ज्ञान सागर में ज्ञान की लहरें,ज्ञान के बुलबुले, ज्ञान के जाग में ही यह प्रपंच स्थिर खडा है। अर्थात् परम रूपी ज्ञान के स्वभाव ही परमानंद है। परमानंद स्वभाव के साथ मिलकर मैं रूपी परम ज्ञान सागर ही अपरिच्छिन्न सच्चिदानंद स्वरूप नित्य सत्य रूप में प्रकाशित होते रहते हैं।
3959. फूल और सुगंध,सूर्य और प्रकाश कैसे अलग करके देख नहीं सकते, वैसे ही वचन और अर्थ दोनों को अलग नहीं कर सकते। अर्थात जो कोई अपने सूक्ष्म अर्थ को गौरव में लेता है, वह जिस मंत्र को जप करके देव-देवियों की उपासना करता है,उसको एहसास करना चाहिए कि उस मंत्र के जप करने के निमिष में ही, उस मंत्र की देवता उसके सामने प्रत्यक्ष दर्शन देंगे।उदाहरण श्रीं के उच्चारण करते ही उसकी देवता महालक्ष्मी उसके सामने आएगी। शिवे के कहते ही पार्वती उसके प्रत्यक्ष आएगी। महा सरस्वती के जपते ही साक्षात सरस्वती उसके सामने आएगी। वैसे ही काल जो भी हो,समय जो भी हो, भाषा जो भी हो,संकल्प जो भी हो, चींटी से देव तक जो भी हो,मंत्रोच्चारण के करते ही संकल्प की देवता जो भी हो प्रत्यक्ष देवता, उसी भाव में उपासक के सामने प्रत्यक्ष होंगे। स्थूल नेत्रों से देख न सकें तो सूक्ष्म रूप में वे आएँगे। अविवेकियों को आजीवन दुख झेलते रहने के कारण अविवेकियों को मालूम नहीं है कि देवी-देवताओं को कैसे निमंत्रण करना चाहिए। उसी समय उसे जाननेवाले भक्त ही भगवान से परस्पर मिलकर सहयोगी बनकर जीवन में श्रेयस और प्रेयस से जी सकते हैं। अर्थात् आध्यात्मिक ज्ञान, भौतिक ऐश्वर्य के साथ जी सकते हैं। लेकिन जो विशेष और विशिष्ट जीवन बसाना चाहते हैं, उनके समझ लेना चाहिए कि सभी कर्म ,सभी उपदेशों का अंत मैं रूपी निराकार एक ही एक अखंड बोध ही है।इस संसार के सभी सुख-भोगों का स्थान मैं रूपी अखंड बोध ही है। इस बोध के सिवा सभी जीवन के अनुभव स्वप्न मात्र है। इसे खूब जान-पहचानकर जिंदगी बितनेवालों को किसी भी प्रकार का दुख न होगा। उसको मालूम है कि दुख भी स्वप्न है।
3960. जो कोई सांसारिक व्यवहारिक जीवन में दुख के समय मात्र ईश्वर का स्मरण करता है, वह बाकी समय में जड विषय वस्तुओं में मन लगा देने से सुख उसके लिए एक स्वप्न के समान होता है, दुख स्मरण के समान उसके जीवन में होगा। उसी समय जो कछुए के समान संयम रहता है,वह सुखी रहेगा। कछुआ आहार खाने के लिए मात्र सिर के बाहर लाता है, बाकी समय काबू में रखता है। वैसे ही मनुष्य को अपने पूरा समय ईश्वर पर ध्यान रखना चाहिए। तब दुख स्वप्न लगेगा और सुख स्मरण होगा। लेकिन जो जन्म से ईश्वर के शब्द न सुनकर सत्य धर्म नीति न जानकर पशु जीवन बिताता है, वह अविवेकी होता है, उसको जितनी भी सुविधा हो ,उसको सिवा दुख के सुख स्वप्न में भी न मिलेगा। कारण उसके मन में जड विषय,भेद बुद्धि,राग-द्वेष ही होगा। लेकिन जन्म से ईश्वरीय धुन सुननेवाले वातावरण में पलकर घर और देश में भगवत् कार्य में सोते-जागते,खाते सदा सर्वकाल लगे रहनेवालों के जीवन में आनंद और शांति शाश्वत रहेंगे। वैसे लोग उनकी आत्मा को साक्षात्कार करते समय ही यह अनुभव पाएँगे कि वे स्वयं निराकार निश्चलन परमात्मा है,वह परमात्मा रूपी मैं है के अनुभव के अखंड बोध के सिवा और कुछ कहीं कभी नहीं है। अर्थात् अखंडबोध स्थिति पाने के साथ नाम रूप खंड प्रपंच और शरीर अखंडबोध से अन्य रूप में स्थित खडे होने स्थान न होकर जादू सा ओझल हो जाएगा। बोध मात्र नित्य सत्य परमानंद रूप में प्रकाशित होते रहेंगे।
3961. जो कोई अपने को दंड देनेवाले को पुनःदंड नहीं देता है,तभी जिसने दंड दिया है, उसको दंड देने उसको दंड देने के लिए प्रकृति को संदर्भ मिलता है। जिसने दंड दिया है,उसमें अहंकार,स्वार्थ, भेद बुद्धि और राग द्वेष होने से उसको ईश्वरीय अनुग्रह न मिलेगा।वैसे ही प्रतिशोध के मन रहित दंड जो भोग चुका है,उसमें भेद-बुद्धि रागद्वेष न होने से ,उसको ईश्वरीय आशीषें मिलेंगी। ईश्वरीय कृपा-कटाक्ष अन्य रहित है,उसी को प्रकृति मदद करेगी। जिसपर ईश्वर की कृपा नहीं रहेगी, प्रकृति उसकी मदद न करेगी। जिनपर ईश्वर की आशीषें हैं,वह स्वयं ब्रह्म ही है। ब्रह्म और ब्रह्म से भिन्न एक प्रपंच नहीं है । अर्थात् बोधाभिन्न ही जगत है। वह ईश्वर मैं रूपी अखंडबोध से भिन्न नहीं है। अर्थात् मैं रूपी अखंडबोध ही ईश्वर है। उस अखंडबोध स्थिति को साक्षात्कार करते समय ही प्रपंच अपने से अन्य रहित होगा। अर्थात् बोधाभिन्न स्थिति को साक्षात्कार कर सकते हैं।
3962. अग्नि की शक्ति को आँखों से देख नहीं सकते।उसमें एक लकडी डालकर उस अग्नि से उसे जलाने पर ही पता चलेगा कि अग्नि में जलाने की शक्ति है। वैसे ही आत्मा की शक्ति जानने के लिए आत्मज्ञान से सांसारिक रूप सब को विवेक से जानते समय आत्मज्ञानाग्नि में सांसारिक रूप छिप जाते हैं । अर्थात् आत्मा सर्वव्यापी है। निश्चलन है। यह प्रपंच कर्मचलन है। सर्वव्यापी परमात्मा निश्चलन होने से आत्मा कर्म नहीं कर सकती। उसमें कर्म हो नहीं सकता। इसीलिए आत्मा को निष्क्रिय कहते हैं। निष्क्रिय आत्मा सर्वव्यापी होने से एक चलन रूप को भी उसमें रह नहीं सकता। इसीलिए नामरूपात्मक यह कर्म प्रपंच को मिथ्या कहते हैं। अर्थात् मैं रूपी अखंड बोध में दीखनेवाले नाम रूप ही यह प्रपंच है। लेकिन बोध के अखड में नामरूप स्थिर खडा रह नहीं सकता। अर्थात् नाम रूप मिथ्या है।
3963.इस प्रपंच रहस्य को जानना है तो पहले समझना चाहिए कि भगवान एक इंद्जाल मायाजाल व्यक्ति है। जादूगर शून्य से एक वस्तु को बनाकर दिखा सकता है। लेकिन देखनेवालों को मालूम है कि वह वस्तु सत्य नहीं है। वैसे ही भगवान अपनी मांत्रिक छडी द्वारा विश्व मन लेकर जो शरीर और संसार नहीं है, उनकी सृष्टि करके दर्शाते हैं। जो शरीर और संसार नहीं है, मिथ्या है,उन्हें सत्य माननेवालों को ही भ्रम होता है। रस्सी को साँप समझना ही भ्रम है।
प्रकाश की कमी के कारण ही रस्सी साँप-सा लगता है। वैसे ही ज्ञानप्रकाश की कमी के कारण ही जीव को संसार और शरीर सत्य-सा लगता है। प्रकाश जैसे भ्रम को मिटाता है,वैसे ही आत्मज्ञान शरीर और सांसारिक भ्रम को दूर कर देता है।
इसलिए विवेकी यही पूछेंगे कि इस भ्रम को कैसे मिटाना है,यह न पूछेंगे कि यह कैसे हुआ है। जिस जीव में सत्य जानने की तीव्र इच्छा होती है, उस जीव को सत्य ही परमानंद रूप में स्थित खडा रहेगा। यही अद्वैत् सत्य है।
3964. अंधकार में संचरण करनेवाले संदेह को छोड नहीं सकते। वह प्रकाश की ओर यात्रा न करेगा तो उसको नित्य नरक को ही भोगना पडेगा। अहंकार ही अंधकार है। आत्मा ही प्रकाश है। आज न तो कल सब को प्रकाश में आना ही पडेगा।नरक एक मनःसंकल्प ही है। मन के मिटते ही नरक भी मिट जाएगा। लेकिन जो मन नहीं है उसे मिटाने के प्रयत्न में जब तक लगेंगे,तब तक मन मिटेगा नहीं। जो मन नहीं है,उसे मिटाने का प्रयत्न न करनेवाला ही सत्य का एहसास करनेवाला है। जिसने सत्य का जाना है और माना है, उसको केवल सत्य ही मालूम है। वह नित्य रूप में,अनादी से आनंद रूप में मैं रूपी आत्मा रूप में स्वयंभू स्थिर खडा रहा करता है।
3965. जो स्वयं प्रकाशित है, स्वयं आनंदित है,स्वयं शांतिपूर्ण है,स्वयं स्वतंत्र है, स्वयं परिशुद्ध है, स्वयं नित्य सत्य है, सर्वज्ञ है,सर्वव्यापी है,वह अखंडबोध परमात्मा, ब्रह्म स्वरूप स्वयंभू,शाश्वत अपने से अन्य कोई दूसरा दृश्य,किसी भी काल में, कभी नहीं होगा। इस एहसास जिसमें कोई संकल्प रहित तैलधारा के जैसे चमकता है,वही यथार्थ स्वरूप आत्मा को साक्षात कर सकता है। उसी समय अपने यथार्थ स्वरूप अखंडबोध स्थिति को एक क्षण के विस्मरण करते ही अपनी शक्ति माया मन संकल्पों को बढाना शुरु करेगा।
इसलिए वह फिर प्रपंच के रूप में बदलेगा। इसलिए जो कोई अपने निज स्वरूप मैं रूपी अखंडरूप स्थिति में बहुत ध्यान से रहता है, वह मक्खन पिघलकर घी बनने के जैसे अपरिवर्तनशील ब्रह्म स्थिति को पाएगा। वही अहंब्रह्मास्मी है।
3966. मनुष्य मन को दृश्य रूपों में ही लगाव होता है,अदृश्य सत्य पर मन न लगने के कारण यही है कि सीमित रूपों में लगे मन सीमित रूपों में ही लगेगा। असीमित निराकार सत्य आत्मा में लगनेवाला मन सत्य को स्पर्श करने के पहले ही वापस आएगा। कारण विषय वस्तुओं में मिलनेवाले सद्यःफल के जैसे निराकार ब्रह्म की ओर चलनेवाले मन को तुरंत न मिलेगा। कारण आत्मा रूपी ज्ञानाग्नि के निकट जाते समय मन को मिलनेवाले सुख के बदले मन ही नदारद हो जाएगा। इस भय से ही मन अरूप आत्मा की ओर यात्रा करना नहीं चाहता। लघु सुख काम सुख तुरंत मिलकर तुरंत मिट जाएगा। केवल वही नहीं वह स्थाई दुख देकर जाएगा। उसी समय एक बार परमानंद को भोगने पर वह नित्य स्थाई रहेगा। इसीलिए विवेकी लघु सुख त्यागकर परमानंद के लिए तप करते हैं। जो कोई उस परमानंद को अपनी आत्मा का स्वभाव मानकर महसूस करता है, तब उसका मन विषय सुखों की ओर न जाएगा। कारण उसको मालूम है कि आत्मा रूपी परमानंद को ही जीव प्रपंच की उपाधि में मिलकर लघु सुख के रूप में अनुभव करते हैं।परमानंद को उपाधि में मिलकर अनुभव करते समय वह लघु सुख है,निरूपाधिक रूप में भोगते समय उसे परमानंद कहते हैं।
3926. मनुष्य मन उसकी अपनी आत्मा से विलीन न होने के काल में इस प्रपंच का,इस प्रपंच बनाकर देनेवाले जैसा भी दुख हो,उससे विमोचन न मिलेगा। इसलिए मन को आत्मा में मिलने के पहले निर्मल बना लेना चाहिए।मन निर्मल न होने के कारण अनेक विषयों के संकल्प ही हैं ।अनेक संकल्प होने के कारण सुख का केंद्र स्थान न जानना ही है। संकल्प रहित कोई भी विषय मन को सुख न देगा।
इसलिए विषय सुख के कारण संकल्प ही है। संकल्प से मिले सुख विषय नाश के साथ मिट जाएगा। इसलिए नित्य सुख के केंद्र की खोज से पता चलेगा कि वह अपनी अहमात्मा ही है। इसलिए दुख देनेवाले संकल्प दोषों को मिटाकर सुख स्वरूप आत्मा ही है,वह आत्मा स्वयं ही है का महसूस करते हैं। तब मन सुख की खोज में जड-भोग विषयों की ओर न जाएगा। वैसे मन को किसी भी प्रकार के संकल्प के बिना आत्मा से मिलाने पर शारीरिक दोष और प्रपंच दोष अपने पर असर न डालेगा। मन आत्मा से मिलने के साथ जीव भाव नाश हो जाएगा। साथ ही खंड बोध अखंडबोध होगा। अर्थात् सीमित जीवात्मा असीमित परमात्मा स्थिति को पाएगा। वही आत्मसाक्षात्कार है। तभी नित्य सुख और नित्य शांति को स्वयं निरुपाधिक रूप में भोगकर वैसा ही स्थिर खडा रहेगा।अर्थात् परमात्मा रूपी मैैं ही सदा सर्वव्यापी और अपरिवर्तन परमानंद ही शाश्वत है।अपनी शक्ति माया के द्वारा अपने अखंड को विस्मरण करते ही जीव और जीव संकल्प संसार उसका जीवन उसका लय सब बना सा लगता है। स्वरूप स्मरण के साथ पर्दा हटने से आत्मा रूपी अपने में कोई परिवर्तन नहीं होते। इसलिए सदा आनंद से ही रहेगा।
3927. हर एक जीव को हर एक मिनट जीवन में होनेवाले दुख रूपी काँटों से बचकर कोमल सुख रूपी फूल खिलने के लिए माया रूपी पर्दा हटाने के लिए आत्मविचार तैल धारा के जैसे होते समय एहसास कर सकते हैं कि वह स्वयं खिले नित्यानंद फूल ही था, काँटे केवल एक दृश्य मात्र हैं। अर्थात् आत्मा के बारे में जो नहीं पूछते,जो नहीं जानते ,आत्मा पर श्रद्धा नहीं रखते, वे ही जीव अक्षय
पात्र लेकर भीख माँगकर कष्ट सहकर, दुखी होकर जन्म मरण के संकल्प लोक मार्ग मर भटकते रहते हैं।
3928. मैं रूपी अखंडबोध सर्वव्यापी और सर्वत्र विद्यमान होने से दूसरी कोई स्थान या वस्तु नहीं है। इसलिए बोध का विकार नहीं होता। मैं रूपी अखंड बोध रूपी परमात्मा निर्विकार,निश्चलन,अनंत अनादी और आनंद हो जाते हैं। उस आनंद रूपी बोध में ही अपनी शक्ति स्पंदन रूपी चलन होने सा लगता है। अर्थात् आत्मा की शक्ति चलन से इस पंचभूतों से बने प्रपंच दृश्य होते समय शक्ति का आधार वस्तु सत्य या बोध या आत्मा निश्चलन ही खडा रहता है। इस निश्चलन परम कारण बने मैं रूपी अखंडबोध होने से ही चलन प्रपंच बनकर स्थिर रहकर मिट जाने के रूप माया को उत्पन्न करके दिखाते हैं। एक अपरिवर्तन शील वस्तु के सान्निद्य से ही परिवर्तन शील एक वस्तु बनेगी। अपरिवर्तन शील आत्मा रूपी मैं है तो आत्मा में उत्पन्न शरीर और संसार ही परिवर्तनशील होते हैं। जो बदलते हैं,वे वह स्थाई नहीं है। वह मृगमरीचिका है। केवल अखंडबोध ही अपरिवर्तनशील है और स्थाई है। मैं रूपी अखंडबोध के रेगिस्तान की मृगमरीचिका ही शरीर और संसार है।
3929. हर एक मनुष्य के मन में जो अंतरात्मा है, वह परम कारण स्वरूप परमात्मा ही है। जो व्यक्ति एहसास करता है कि वह खुद परमात्मा ही है, शरीर और प्रपंच अपनी आत्मा से भिन्न नहीं है। उस ज्ञान के प्राप्त होते ही शरीर और प्रपंच पर के प्रेम और आसक्ति नहीं होंगे।तभी परमार्थ रूपी स्वयं सर्वांतर्यामी का अनुभव होगा। जब उस स्थिति पर पहुँचते हैं, तब स्वभाविक परमानंद आनंद अनुभव करने लगते हैं। साथ ही एहसास होगा कि अपने में उत्पन्न सभी भूत अपने नियंत्रण में है। अर्थात् प्रपंच अपनी ओर नहीं खींच सकता। स्वयं मैं रूपी अखंड बोध स्वात्मा ही खींचेगा। जीवात्मा स्वयं ही सर्वस्व और सब कुछ है का न जानने से ही सत्य न समझकर संसार में भ्रमित होकर शरीर के भ्रम में संकल्प-विकल्प लेकर नित्य दुख का पात्र बनकर विविध प्रकार के जन्मों के बीज बोते रहते हैं।
3930. वर्तमानकाल में जिसका मन शारीरिक शारीरिक भावना के अतीत आत्म भावना में न चलकर अहंकार को केंद्र बनाकर जीता है,
उसके बीते काल के अनुभव उसमें से न टूटकर चालू होते रहेंगे। कारण अहंकार को स्थित खडा रखना ही बीते काल भविष्य काल के न टूटे चिंतनों को साथ लाने से ही है। जो एहसास करता है कि भविष्य और भूत का स्मरण अर्थ शून्य है, वही विस्मरित आत्मबोध के सभी कार्यों को करके जी सकते हैं। बीते काल पुनः वापस न आएगा। उसको सोचकर समय व्यर्थ करनेवाला मूर्ख ही है। वैसे ही आयु अनिश्चित होने से भविष्य को सोचकर समय बितानेवाला भी अविवेकी ही है। अर्थात् स्वयं बने बोध को सभी प्रपंच रूपों में पूर्ण रूप से देखना एकात्म दर्शन से नित्य कर्मों निस्संग रूप में जब जी सकता है,तभी वह अखंडबोध के स्वभाव परमानंद को निरूपाधिक सहजता से भोग सकता है।
3931. साधारणतः एक वाहन के चालक जैसे ही यह आत्मा शरीर में प्राण के रूप में रहकर इस शरीर का संचालन करता है। वह शारीरिक यात्रा संकल्प से ही इस संसार में बना है। इच्छाएँ यात्राओं को बढाती हैं। अनिच्छाएँ यात्राओं को घटाती हैं। दुख नयी इच्छाओं को मिटा देता है और सांसारिक आसक्ति को अनासक्ति बना देता है। तब से आत्म खोज शुरु होती है। उस आत्म खोज के वैराग्य में आत्मज्ञान प्राप्त जीवाग्नि में मन जलकर भस्म हो जाएा।मन के नाश होते ही शरीर और संसार विस्मरण हो जाएगा। तब मैं रूपी एक आत्म रूप अखंडबोध मात्र अपने स्वाभाविक परमानंद के साथ नित्य सत्य रूप में स्थिर खडा रहेगा ।
3932. पंचेंद्रियों को लेकर भोगनेवाला जीवन अनुभवों में अपरिवर्तनशील अनुभव असत्य को एहसास करता है। विषयों को भोगते समय होनेवाले अनुभव विषय नाश के साथ अस्त होता है। उसी समय मन आत्मा में विलीन होकर आत्मवस्तु अनश्वर होने से आत्मा का स्वभाव आनंद और शांति अनश्वर ही रहेंगी। नित्य रहेगा।
3933. माया के दो भाव ही विद्या माया और अविद्या माया होती हैं। अविद्या माया जीव को सत्य के निकट जाने न देगी।अविद्या माया से प्रभावित लोग प्रत्यक्ष देखनेवाले सबको अर्थात् इस शरीर और संसार को उसी रीति से सत्य मानकर विश्वास रखते हैं। लेकिन अप्रत्यक्ष अनेक प्राण चलन अपनी आँखों के सामने अदृश्य रहते हैं। लेकिन सूक्ष्मदर्शिनी के द्वारा देखते समय अनेक प्रकाश किरणें अपने सामने देख सकते हैं। उदाहरण रूप में अपने आँखों के सामने मेज़ पर सूक्ष्म दर्शिनी जैसे यंत्र रखकर देखते हैं तो उसमें प्रोटान,न्यूट्रान,ऍलक्ट्रान आदि को देख सकते हैं। इसलिए जो कुछ है,जो कुछ नहीं है आदि को विवेक से जाने बिना किसीको यथार्थ सत्य मालूम न होगा। वैसे विवेक से नहीं देखनेवालों को दुख न दूर होगा। संदेह भी न दूर होगा। लेकिन जो कोई इस शरीर को और संसार को समझकर जड,है, जड कर्म चलन है,चलन प्राण स्पंदन है, प्राण स्पंदन निश्चलन अखंडबोध में किसी भी काल में न होगा। जो इसका एहसास करता है,वही जान-समझ सकता है कि शरीर और संसार मिथ्या है। वह एहसास कर सकता है कि निश्चलन बोध मात्र सत्य है। वह सत्य स्वयं ही है,अपने स्वभाव ही शांति और आनंद है। ऐसी विवेकशीलता जिसमें नहीं है, उस जीवात्मा को नित्य दुख होगा। वह सुख और शांति स्वप्न में भी अनुभव नहीं कर सकते। कारण यह प्रपंच दुख पूर्ण है। यह अनादी काल से होकर छिपनेवाले सभी जीवात्मा के अनुभव की गोपनीय बात है। देखकर,सुनकर अनुभव करके भी सत्य क्या है? असत्य क्या है? की विवेकशीलता से न जाननेवाले अविवेकशील मनुष्य को मनुष्य कह नहीं सकते। कारण यवह अपने उत्पन्न स्थान की खोज करने के लिए समय न लेकर विषय भोग वस्तुओं के लिए धन केलिए दौडता भागता रहता है।
यह आत्मज्ञान रहस्यों में रहस्य,विज्ञापनों में विज्ञापन है। इसे विज्ञापन कमें न मिलेगा।
3934.एक मनुष्य की दिनचर्याएँ नहाना,कपडे पहनना आदि नित्य कर्माएँ करते समय वह एक प्रत्येक काम सा न लगेगा। वैसे ही मन में दिन दिन आनेवाले अच्छे बुरे चिंता कूडों को निरंतर शुद्ध करते समय ही शरीर भर में आत्म स्वयं प्रकाश होगा। कारण स्वयं बने आत्मप्रकाश स्वरूप, दूसरों को प्रकाशित कराने बना है। इसलिए स्वयं बनेे निश्चल परमात्म स्वरूप में अपनी शक्ति माया दिखानेवाले शरीर और सांसारिक दृश्य माया दवारा दिखानेवाले इंद्रजाल नाटक है। इसका एहसास करते समय शरीर और संसार मृगमरीचिका के समान तीनों कालों में रहित ही है। उस स्थिति में ही आत्मा का स्वभाव परमानंद और परमशांत अपने स्वभाव से भोग सकते हैं।
3935.हम जिस आकाश को देखते हैं, वह अपनी स्थिति में कोई परिवर्तन के बिना इस प्रपंच के सभी रूपों को ऊँचा उठाकर दिखाता है। वह आकाश सभी रूपों के पूर्ण अंगों में व्यापित रहता है। आकाश से ही ये रूप होते हैं। वैसे ही चिताकाश रूपी परमेशर पंच भूतों को बढा-चढाकर दिखाते हैं। उसे तीन वर्गों में ही दिखाते हैं। प्राण, आकाश,वायु आदि भूत होते हैं। वे सूक्ष्म जड दृढ बनकर ही
अग्नि,पानी,आदि भूत बनते हैं। उन भूतों का दृढ बनना ही यह भूमि है।अर्थात् समुद्र का पानी लहरें,जाग बनकर बरफ़ बनने के समान। बरफ़ पानी और भाप बनने के जैसे। वैसे ही परमात्मा रूपी अखंडबोध ,बोध रूपी परमत्मा, अपने निश्चलन में परिवर्तन किये बिना चलन शक्ति माया चित्त बनकर प्राणन के रूप में अनेक परिणामों में मिलकर इस ब्रह्मांड को बनाया है।लेकिन यह जड कर् चलन प्रपंच मृगतृष्णा होती है। कारण निश्चल परमात्मा में कोई चलन नहींं होगा।चलन होने पर परमात्मा का सर्वव्यापकत्व नष्ट होता है। इसलिए एकात्मा एक ही परमात्मा मात्र ही नित्य सत्य परमानंद मात्र स्थिर खडा रहता है। वह परमात्मा स्वयं ही है की अनुभूति करनेवाला ही ब्रह्म है। यही अहंब्रह्मास्मी है।
3936. परमत्मा के सान्निद्य में ही प्रकृति से सकल चराचर के यह विश्व प्रपंच बनता आता है। विविध प्रकार से परिणमित इस प्रपंच का साक्षी मात्र ही भगवान है। यह साक्षी ही हर एक जीव के हृदय में जीवात्मा के रूप में रहता है। जो यह महसूस करता है कि वह स्वयं शरीर या संसार नहीं है, शरीर और संसार अपने यथार्थ स्वरूप परमात्मा रूपी अखंड बोध में अपनी शक्ति माया अपने को अंधकार में छिपाकर दीखनेवाला स्वप्न है। ऐसी अनुभूति के जीव ही आत्मज्ञान को उपयोग करके शरीर और संसार को मृगमरीचिका के समान तजकर प्रतिबिंब जीव रूपी अपनी जीव स्थिति को भूलकर
बिंब बने अखंडबोध स्वरूप को अज्ञान निद्रा से पुनः जीवित करके निजी स्वरूप अखंडबोध स्थिति को प्राप्त करके उसके स्वभाविक परमानंद में स्थित खडा रह सकता है। इस संसार में बडा खज़ाना आत्मज्ञान ही है। इसको न जाननेवाले अविवेकी ही नाम,यश और धन के बंधन के लिए मनुष्य जीवन के आयु को बेकार कर रहे हैं वैसे लोग गुलाब की इच्छा के द्वारा वह काँटे के पौधे देनेवाले दर्द सहने तैयार रहते हैं। जो फूल को तजते हैं,केवल उसको ही दुख से विमोचन होगा।
3937.नाम पाने के लिए, धन के लिए,अधिकार के लिए शास्त्र सिखानेवाले गुुरु के शिष्यों और भक्तों के स्वभाव भी वैसे ही होंगे। वैसे लोग ही जो जग नहीं है, उसको स्थिर खडा करते हैं। वह प्रकृति के स्थिर खडा रखने का भाग है। उसी समय यथार्थ सत्य की खोज करनेवाले ही यथार्थ गुरु के पास जा सकते हैं। यथार्थ गुरु नित्य संतुष्ट रहेंगे। वे इस संसार में किसीसे कुछ भी प्रतीक्षा नहीं करते।
उनका पूर्ण मन सत्य आत्मा में मात्र रहेगा। वैसे आत्मज्ञानी के गुरु के यहाँ शिष्य और भक्त विरले ही रहेंगे। कारण माया गुणों से विषय वस्तुओं से भरा मन सत्य के निकट जा नहीं सकता। जो सत्य के निकट जा नहीं सकता, उसको दुख से विमोचन न होगा।उनसे शांति और आनंद बहुत दूर रहेंगे।
3938. अपनी अहमात्मा को कोई भी कलंकित नहीं कर सकता। वह सब के साक्षी रूप में ही रहता है। तीनों कालों में रहित
यह दृश्य प्रपंच में देखनेवाले सब के सब को प्रकाशित करनेवाला अपनी अहमात्मा ही है। रूपभेद,वर्ण भेद,जन्म-मरण आदि विकार के विविध भाव होनेवाले ही ये जड हैं। लेकिन बदल-बदलकर आनेवाले ये भाव कोई भी आत्मा पर प्रभाव नहीं डालता।उदाहरण स्वरूप
सूर्य प्रकाश से प्रकाशित वस्तुओं की कमियाँ कोई भी सूर्य पर अपना
प्रभाव डाल नहीं सकता।
3939.वेदांत सत्य जानकर उसमं जीनेवाले विवेकियों को ही उनके शरीर और मन स्वस्थ रहते समय ही वे अपने वचन और क्रिया को एक साथ लेकर चल सकते हैं। उसी समय शरीर और मन शिथिल होने के बाद सांसारिक जीवन में सत्य को जो महसूस नहीं करता,उसके लिए असाध्य कार्य ही है। कारण उनका मन शारीरिक बीमारी,रिशतेदार,घर,धन और संसार में ही रहेगा। वैसे लोग
मरते समय प्राण पखेरु उडते मिनट में उनका मन एक अमुक इच्छा में न रहेगा।कारण चित्त बदलते रहने से जीव जाते निमिष में घास.पशु, अच्छे-बुरे जो भी हो, जिसमें मन लगता है, वैसा ही जन्म लेता है।
अर्थात् उनके मन की परेशानी में जो सोचता है,वैसा ही जन्म लेगा।
कारण उनके जीवन में कोई अमुक लक्ष्य न होना ही है। जैसा चित्त होता है, जीवन भी वैसा ही है। चित्त ही किसी के संपूर्ण जीवन के लिए उसके देखने के जग के लिए कारण बनता है। इसलिए वह चित्त और प्रतिबिंब बोध मिलकर ही मरते समय शरीर को छोडकर बाहर जाता है। अर्थात् चित्त के बिना आत्मा प्रतिबिंबित हो नहीं सकती। बिना पानी के, अर्थात् प्रतिबिंब करनेवाली वस्तु के बिना सूर्य प्रतििंबित कर नहीं सकता। पानी की चंचलता प्रतिबिंब को भंग करने के जैेसे ही चित्त संकल्प सब प्रतिबिंब जीव पर असर डालने के समान लगता है। पानी नहीं तो सूर्य प्रतिबिंब भी नहीं रहेगा। वैसे ही चित्त नाश के साथ जीव भाव जीव भाव का भी नाश होगा। वैसे ही जीव जिंदा रहते समय ही जो चित्त को पवित्र बनाकर इच्छा रहित पूर्णतः शुद्ध रूप में रखता है, तब चित्त का कोई अस्तित्व न रहेगा।
कारण चित्त चित् रूप में बदलेगा। वह आत्मा के रूप में बदलेगा। तभी सभी दुखों से विमोचन होगा।
3940. एक पतिव्रता के सिवा साधारण स्त्री का मन, स्त्री को अनुसरण करनेवाले पुरुष का मन सत्यतः आत्मा के निकट जाने में कष्ट ही होगा। वह सत्य ही स्त्री और पुरुष को गतिशील रखता है। लेकिन वे सत्य को महत्व न देने से दुख उनसे दूर नहीं होगा। उनको नहीं मालूम है कि दुख के कारण असत्य ही है। उसके कारण शारीरिक अभिमान रूपी अहंकार ही है। उसको गुरु,माता-पिता और समाज ने नहीं सिखाया है कि अहंकार ही दुख के कारण है। केवल वही नहीं , उन्होंने शास्त्रों का अध्ययन नहीं किया है। वैेसे लोग दुख से और और दुख लेकर ही प्राण तजते हैं। जो कोई जीव और शरीर को विवेक से जानते हैं, वे जड रूपी शरीर को तजकर प्राण रूपी आत्मा को ही स्वयं है की अनुभूति करके आत्मा के स्वभाविक आनंद का अनुभव करेंगे।
3941. एक मंदिर के दीवार पर एक देव के चित्र को देखते समय वह चित्र दीवार से अन्य -सा लगेगा। वैेसे ही अपने को दृश्य के यह प्रपंच स्वयं बने आत्मा से अन्य-सा लगेगा। चित्र के मिटने पर भी दीवार में कोई परिवर्तन नहीं होते, वैसे ही दृश्य के न होने पर भी दृष्टा रूपी अर्थात आत्मा रूपी स्वयं मिटता नहीं है। वैसे ही कोई ज्ञानी अपने शरीर को ही स्वयं बने आत्मा रूपी बोध में चित्र खींचने के जैसे देखता है,अर्थात् बोध में अपने दृश्य रूपी चित्र जैसे अपने शरीर को देख सकताहै ,वह अनुभव कर सकता है कि उसके अपने शरीर का नाश होने पर भी उसका नाश न होकर स्थिर खडा है। इसलिए कुछ ज्ञानी स्वात्मा को अपने पूर्ण रूप से साक्षात्कार करते समय ऊपर नीचे आश्चर्य से देखेंगे कि अपने शरीर और संसार कहाँ गये हैं।अर्थात् यह एहसास कर सकते हैं कि शरीर और संसार आत्मा रूपी अपने में रस्सी में साँप जैसे और रेगिस्तान में मृगमरीचिका जैसे मिथ्या है।
3942. मनुष्य मन को कष्ट है कि आँखों से देखकर अनुभव करनेवाले यह शरीर और संसार नश्वर है। आत्मज्ञान की दृढता होने तक यह अविश्वसनीय है कि वैसे ही शरीर और संसार को जाननेवाले ज्ञान स्वरूप अनश्वर ही है। अपनी आँखों से ही अपनी आँखों को देख नहीं सकते,अपने से अन्य दर्पण में देखकर ही रस लेते हैं। वैसे ही सर्वव्यापी आत्मा अपने को ही माया रूपी दर्पण में अपने से अन्य रूप में प्रपंच रूप में देखते हैं। लेकिन दर्पण को तोडते ही प्रति बिंब मिट जाते हैं। वैसे ही आत्मज्ञान की दृढता होने के साथ
चित्त रूप के शरीर और संसार मिट जाएँगे। साथ ही जीवभाव छिप जाएगा। साथ ही आत्मा रूपी अखंडमात्र नित्य सत्य रूप में परमानंद रूप में स्थिर खडा रहेगा।
3943. कोई भक्त संपूर्ण परम कारण रहनेवाले परमात्मा बने परमेश्वरन को अभय प्राप्त है,उसके सामने मात्र ही महा माया फण फैलाये रहेगा। कारण भगवान और भक्त दो नहीं है। वही नहीं परमेश्वरन भक्त का दास ही है। भक्त के दुख को भगवान न सहेंगे। साधारणतः स्त्रियाँ आत्मवीचार के विरुद्ध हैं। उसका सूक्ष्म यही है कि जगत स्वरूपिनी स्त्री चलनशील है,परम कारण के परमात्मा निश्चलन है। इसलिए जो स्त्री हमेशा आत्मस्मरण को शुरु करती है,
उसके साथ स्त्री जन्म का अंत होगा। या परमात्मा की पराशक्ति से ऐक्य हो जाएगा। अर्थात् चलन ही निश्चलन होगा। इसलिए जो स्त्री
सदा आत्मा रूपी परमेश्वर को पति मानकर पतिव्रता बनती है,वह पराशक्ति परमेश्वर में ऐक्य हो जाएगी।
3944. जो कोई निरंतर दुख में रहता है, उसके हृदय में परमानंद स्वरूप परमात्मा मात्र नहीं, उसी के ही रूप में है। यह बात वह जानता नहीं है। जानने पर भी वह भरोसा नहीं रखता। विश्वास होने पर भी ज्ञान की दृढता नही होती। इसीलिए वह सदा दुखी रहता है। उसी समय जो कोई परमानंद स्वरूप परमात्मा अपने शरीर और प्राण है का एहसास करके सभी कर्म करने से वह सदा धैर्यशाली है। केवल वही नहीं , शांति और आनंद उसको छोडकर नहीं जाएँगे।
3945. स्त्री को उपदेश करके बुद्धिमान बना सकता है,यह मोह अर्थ शून्य है। उसके विषय चिंताओं के आवर्तन स्वभाव से समझ सकते हैं। केवल वही नहीं, उसका अनुसरण रहित रहना,सत्य के बिना रहना
स्पष्ट होगा। अर्थात् चलनात्मक प्रकृतीश्वरी चलनशील होने से मात्र ही वह स्थाई सा लगेगा। वह निश्चलन सत्य के निकट जाने पर प्रकृतीश्वरी का अस्तित्व नहीं रहेगा। कारण सत्य निश्चलन है। सत्य को चलन छूने के बाद वह निश्चल हो जाएगा। इसीलिए स्त्रियाँ पुरुष का अनुसरण नहीं करती। सत्य नहीं बोलती। जो स्त्री निश्चल परमात्मा में मन लगाती है, माया स्त्री मायावी पमेश्वर होगी। परमेश्वर बनकक परमात्मा बने परब्रह्म मात्र ही नित्य सत्य परमानंद स्वभाव में रहेगा।
3946. साधारण स्त्रियों को विवेकी पुरुषों की आवश्यक्ता नहीं है।
अविवेकी पुरुष की आवश्यक्ता है। कारण विवेकी पुरुष स्त्रियों के शरीर से प्रेम नहीं करेगा।अविवेकी पुरुष ही शरीर से प्रेम करते हैं।स्त्री के शरीर से प्रेम करनेवाले पुरुषों को रखकर ही स्त्री अपनी इच्छाओं को पूरी कर लेती है। स्त्री पहले अपनी कामवासना की पूर्ति के लिए पुरुष को क्रोधित करेगी। जब वह हो नहीं सकता,वह डराएगी। उसमें भी वह वश में नहीं आएगा तो उसको मृत्यु वेदनाएँ देगी। वह उसे सताएगी। उसमें भी वह नियंत्रण में नहीं आयेगा तो वह उसे छोडकर चली जाएगी। जब वह उसे हटकर नहीं जा सकती, आजीवन उसके नियंत्रण में रहेगी। उसी समय नियंत्रण में जो रहना नहीं चाहती,वह स्त्री ही पुरुष के बेसाहारे स्थिति में रहेगी। जो स्त्री पुरुष को अपने दिव्य पुरुष मानकर जीवन चलाती है, तो पति के बंधन में रहेगी। उसके जीवन में स्त्री जन्म से विमोचन होगा। ये सब
द्वैत बोध और भेद बुद्धि के साधारण मनुष्य के बारे में ही है। लेकिन सत्य यही है कि नाम रूप के सब असत्य ही है। केवल एक ही एक लिंग भेद रहित अरूप निश्चलन बने परमात्मा मैं रूपी अखंड बोध मात्र ही परमानंद स्थिर खडा रहता है।
3947. जो दुख को मात्र देनेवाले संसार में, उसके जीव और सांसारिक विषयों के बारे में निरंतर चिंतन में डूबकर कर्म करनेवालों को शारीरिक अभिमान बढेगा। वह अहंकार और दुर्रभिमान को बनाएगा। दुर्रभिमान और द्वैतबोध को उसके द्वारा राग-द्वेष को बनाएगा। वही निरंतर दुख के कारण है। इसलिए आत्म उपासक को कर्म में अकर्म को विषयों में विष को जीवों में एकात्म को दर्शन करके उपासना करनी चाहिए। आत्म उपासक की दृष्टि में शरीर और संसार सब के सब रूप रहित एक ही परमात्मा ही भरा रहेगा। वह परमात्मा ही मैं है के अनुभव को उत्पन्न करके अखंडबोध के रूप में रहता है। मैं रूपी अखंडबोध नहीं तो कुछ भी नहीं है। जो भी है, उसमें अखंड बोध भरा रहेगा। अर्थात् स्वयं बने बोध रहित कोई भी कहीं भी कभी नहीं है। इस शास्त्र सत्य को महसूस करके बडी क्रांति और आंदोलन करने पर भी कोई दुख नहीं होगा। मृत्यु भी नहीं होगी। कारण बोध पैदा नहीं हुआ है। इसलिए उसकी मृत्यु नहीं है। बोध में दृष्टित नाम रूपों को स्वयं कोई अस्तित्व नहीं है। कारण बोध सर्वव्यापी होने से नाम रूपों को स्थिर रहने कोई स्थान नहीं है। वह केवल दृश्य मात्र है। वह जो सत्य नहीं जानता, उसका दृश्य मात्र है।सत्य जाननेवाले नाम रूप में स्वयं बने बोध के दर्शन करने से अस्थिर हो जाता है। इसलिए उसको दूसरे दृश्य नहीं है।
3948. वही स्वयं को, आत्मा रूपी अखंडबोध को, एहसास करके उसमें दृढ रह सकता है ,जो नामरूपात्मक इस जड प्रपंच को अर्थात् कर्म चलन और यह दृश्य प्रपंच अर्थात् पंचेंद्रिय अनुभव करनेवाले प्रपंच तीनों कालों में स्थिर नहीं रहेगा। वैसे लोग ही बोध स्वभाव शांति और आनंद को अनुभव कर सकता है। इस स्थिति में एक ज्ञानी को जब कोई दर्शन करता है, तब उसी मिनट से दर्शक के मन से दोष बदलकर शांति और आनंद का एक शीतल अनुभव होगा। वह दर्शन ही शिव दर्शन होता है। कारण शिव परमात्मा है। आत्मा में सदा आनंद अनुभव करनेवाला है। नित्य आनंद का अनुभव करनेवाला शिव ही है। उस शिव स्थिति रूपी मैं के अखंड बोध को अपनी शक्ति माया अंधकार रूप में अपने स्वभाविक परमानंद
स्वरूप को छिपा देता है। उस अंधकार आकार से ही सभी प्रपंच बनते हैं।अर्थात् उस अंधकार से पहले उमडकर जो आया है,वही मैं रूपी अहंकार है। उससे अंतःकरण,बुद्धि, संकल्प मन नाम रूप विषय वस्तुओं को बढानेवाले चित्त ,चित्त विकसित दिखानेवाले दुख देनेवाले वर्ण प्रपंच होते हैं। उनसे बाहर आने मन को अनुमति न देनेवाले दृश्य अनादी काल से होते रहते हैं। जो जीव किसी एक काल में दुख निवृत्ति के लिए मन की यात्रा बाहरी यात्रा से अहमात्मा की शरणागति में जाता है, उसको मात्र ही दुख का विमोचन होगा। सिवा इसके जड-कर्म चलन प्रपंच में डूबकर उमडनेवाले किसी भी जीव को कर्म बंधन से मुक्ति या कर्म से तनिक भी आनंद या शांति किसी भी काल में न मिलेगा।
3949. प्रेमियों के दो हृदय अपने में अर्थात् शरीर रहित आत्मा और आत्मा से प्यार होते समय शरीर की सीमा पार करके एक रूपी असीमित बोध समुद्र के रूप में बदलता है। साथ ही इस वर्ण प्रपंच के प्रेमसागर में उत्पन्न होनेवाली लहरों,बुलबुलों और जागों को ही देखेंगे।अर्थात् बोध अभिन्न जगत के तत्व को साक्षातकार करेंगे।
3950.कलाओं में जो भी कला सीखें,तब सोचना चाहिए कि यह कला ईश्वरीय देन है। उसे स्वर्ण, धन और पद के लिए उपयोग करना नहीं चाहिए। ईश्वर के दर्शन के लिए ईश्वर के सामने कला का नैवेद्य चढाना चाहिए। वैसे करनेवाले ही ईश्वर के दर्शन करके आनंदसागर के तट पर पहुँचेंगे। वैसा न करके सृष्टा को भूलकर सृष्टि के समर्थन करने नित्य नरक ही परिणाम के रूप में मिलेंगे।उसी समय सृष्टा से एक निमिष मिलकर उन्हें न भूलकर कलाओं को जैसा भी प्रयोग करो,वह दुख न देगा। अर्थात् बुद्धि जड है। मन भी जड है। प्राण भी जड है, शरीर भी जड है। जड में कोई क्षमता नहीं रहेगी। वह स्वयं नहीं के बराबर है। स्वयं में परमात्मा बने मैं का बोध शरीर रूपी उपाधि में मिलकर स्वयं अनुभव करनेवाले अनुभवों का हिस्सा ही सभी कलाओं की रसिकता है। सभी चलन माया है। निश्चलन बोध मात्र नित्य सत्य है। इसका एहसास करके जो कलाकार केवल कला में मात्र मन लगाकर जीवन में खुश का अनुभव करते हैं,वे ही अंत में आनंद का अनुभव करके स्वयं आत्मा का साक्षातकार कर सकते हैं। या उनकी इष्टदेवता के लोक जा सकते हैं।
3951. जो सुंदरता को वरदान के रूप में प्राप्त किया है,वे अपने जीवन को सत्य साक्षात्कार के लिए उपयोग न करके असत्य साक्षात्कार के लिए उपयोग करने से ही उनका जीवन नरकमय बन जाता है। इसलिए उनको एहसास करना चाहिए कि अपने शरीर की सुंदरता की चमक अपनी अहमात्मा की चमक है। इस तत्व को भूलकर जीव सोचता है कि वह सुंदरता जड रूपी शरीर की है।यह सोच गलत है। ऐसी गलत सोच के कारण ही जीवन नरक बन जाता है। अर्थात् आत्म बोध नहीं तो सूर्य को प्रकाश नहीं है। बोध नहीं तो चंद्र को प्रकाश नहीं है। बोध नहीं तो फूल को प्रकाश नहीं है। बोध नहीं तो नक्षत्रों को प्रकाश नहीं है। बोध नहीं तो कुछ भी चमकता नहीं है। यह सारा प्रपंच मैं रूपी अखंडबोध प्रकाश ही है। अर्थात् एक ही अखंड बोध मात्र नित्य सत्य रूप में है।मैं रूपी अखंडबोध को ही ईश्वर, ब्रहम परमज्ञान,परमात्मा,सत् ,चित् आनंद आदि कहते हैं । जो जीव इस सत्य को नहीं जानते,वे ही इस संसार में निरंतर दुख भोगते रहते हैं। सत्य में दुख एक भ्रम मात्र है। भ्रम का मतलब है रेगिस्तान में मृगमरीचिका के जैसे,रस्सी में साँप जैसे है। भ्रम हर एक को एक एक रूप में असर डालता है। उदाहरण के लिए एक मील पत्थर आधी रात में किसी एक को भूत-सा लगता है। लेकिन एक चोर को पकडने आये पुलिस को वहीमील पत्थर चोर-सा लगता है। एक प्रेमी को प्रेमिका के जैसे,एक प्ेमिका को प्रेमी जैसे लगत है।
उसी समय दूर से आनेवाले वाहन की रोशनी में मील पत्थर साफ-साफ दीख पडने से सबका संदेह बदल जाएगा। वैसे ही जब तक आत्मज्ञान प्राप्त नहीं होगा तब तक संदेह और दुख न मिटेगा। सभी दुखों से विमोचन होने के लिए एक ही महा औषद आत्मज्ञान मात्र है।
3952 हर एक के मन में ये प्रश्न उठते रहेंगे कि मैं कौन हूँ? मेरी उत्पत्ति कहाँ हुई? कहाँ मिट जाऊँगा? कब मरूँगा या न मरूँगा? मैं कहाँ स्थिर रहूँगा? कैसी गति होगी? कौन मुझे गतिशील बनाता है? जिनको संदेह है, उनको दो बातें जान लेना चाहिए।१. नाम रूपात्मक यह सारा ब्रह्मांड जड है। वह तीनों कालों में रहित है। २. मैं है का अनुभव बोध। वह किसी के द्वारा बिना कहे ही मैं हूँ का बोध है ही। अर्थात यह सोच नहीं सकते कि मैं का बोध जन्म हुआ है और मिट गया है। उसका जन्म और मृत्यु नहीं है। अर्थात् बोध स्वयंभू है। इस बोध से मिले बिना किसी बात को देख नहीं सकते, सुन नहीं सकते,जान नहीं सकते, भोग नहीं सकते। अर्थात् आत्मा रूपी मैं का बोध ही सब कुछ है। जो स्थिर है, उसको किसी काल में बना नहीं सकते।इसकी निज स्थिति मनुष्य ही जान सकता है,जानवर जान नहीं सकता। इसलिए जो मनुष्य के महत्व को नहीं जानता, उसको सुख और शांति किसी भी काल में नहीं मिलेंगे। निरंतर दुख ही होगा। जो दुख विमोचन चाहते हैं, मूल्य जितना भी हो,त्याग जितना भी हो करके आत्मज्ञान सीखना चाहिए। जिसको इसमें विश्वास नहीं है,वे प्रश्न करके, परस्पर चर्चा करके शास्त्रों का अध्ययन करके सद्गुरुओं से प्रश्न करके ,आज तक संसार में जन्मे सभी महानों के अनुभवओं को लेकर उनके उपदेशों पर विश्वास रखकर स्वयं अभ्यास करके अनुभव करना चाहिए। जब विश्व का उदय हुआ,उस दिन से यह सत्य प्रकट होता रहता है। जितने भी महानों का जन्म हो,
ईश्वरीय अवतार हो,शास्त्र सत्य यही है कि अमीबा से ब्रह्मा तक के सभी नाम रूप तीनों कालों में रहित ही है। केवल मैं रूपी अखंडबोध मात्र ही नित्य सत्य रूप में एक और एक रस में परमानंद रूप में स्थिर खडा रहेगा। यह सत्य है कि जो जीव ये सब नहीं करते,उनको दुख ही होगा। सुख नहीं मिलेगा।
3953. दो परिवार आपस में वादविवाद करते समय एक दूसरे को देखकर कहेगा कि मुझे और मेरे परिवार को भगवान देख लेंगे। तब वे नहीं सोचते और एहसास नहीं करते कि जो भगवान उसके परिवार को देखता है,वही सामनेवाले परिवार को भी देखेगा। उसके कारण यही है कि शारीरिक अभिमान रूपी अहंकार और उसके द्वारा होनेवाली भेद बुद्धि दोनों के हृदय के एकात्मा को छिपा देता है। सांसारिक जीवन बितानेवाले सब के सब सदा दुख का अनुभव करता है। हर एक सोचते हैं कि मेरे देखने से ही तुम्हारा जीवन चलेगा। ऐसे सोचनेवाले अहंकारियों को भी भगवान ही देखता है।इस बात को समझ लेना चाहिए कि वह भगवान हर एक जीव के दिल में वास करता है। वही भगवान सब को सक्रिय बनाकर नचाता है। जिस दिन हर एक जीव अपने को गतिशील बनानेवाली शक्ति अर्थात आत्मा अर्थात बोध को एहसास करता है उस दिन तक दुख से बाहर नहीं आ सकता। यही सब जीवों का हालत है। आज या कल इसका महसूस करना ही चाहिए।इसे जानने और समझने के लिए ही सभी जीव जाने-अनजाने यात्रा करते रहते हैं। कारण वह आनंद खोज के लिए भटकना ही है। वह जीव नहीं जानता कि वह आनंद हर जीव का स्वभाव है।
3954.मिट्टी से बुत बनानेवाले शिल्पी की आँखों में मिट्टी के बिना आकार न बनेगा। वैेसे ही आत्मज्ञानी इस संसार में जितने भी रूप रहे, सिवा आत्मा के किसी भी लोक को देख नहीं सकता। अर्थात स्वआत्मा को उसकी पूर्णता में जो साक्षात्कार करने का प्रयत्न करता है,उसको ब्रह्मांड में तजने या स्वीकार करनेे कुछ भी नहीं है।वैसे लोग ही आत्मा को पूर्ण साक्षात्कार से आत्मा के स्वभव परमानंद को अनिर्वचनीय शांति कोो अपनेे स्वभाविक निरुपाधिक रूप में स्वयं अनुभव करके आनंद का अनुभव करेगा।
3955.स्वप्न में अपनी प्रेमिका को कोई चुराकर ले जाने के दुख को न सहकर आत्महत्या की कोशिश करने की दशा में नींद खुल जाती है तो मानसिक दर्द जैसे आये,वैसे ही दर्द गए। वैसे ही इस जागृत जीवन में भी अविवेकी एहसास नहीं कर सकता। लेकिन वह स्वप्न को मिथ्या, वह जागृत को सत्य मानता है। वह एहसास नहीं कर सकता कि रात में जो स्वप्न देखा,वैसे ही जागृत अवस्था में अज्ञान रूपी निद्रा में देखनेवाले स्वप्न अनुभव ही इस जागृत अवस्था के अनुभव ही उसके कारण होते हैं। इसे विवेक से न जाननेवाले आत्मज्ञान अप्राप्त बेवकूफ़ ही दुख का अनुभव करके जीवन को व्यर्थ करते हैं। अर्थात् स्वप्न जागृति और जागृत स्वप्न दोनों ही माया दर्शन ही है। ये दोनों ही असत्य ही है।मैं रूपी अखंडबोध में ही अपनी शक्ति माया चित्त बनाकर दिखानेवाला एक इंद्रजाल ही है। यह इंद्रजाल कभी सत्य नहीं होगा। जो इसका एहसास करता है, उसको दुख नहीं होगा। जो इसका अनुभव नहीं करते उनको नित्य दुख ही होगा। दुख विमोचन का एक मात्र मार्ग आत्मज्ञान मात्र ही है।
3956. सभी मनुष्यों के दिल में ये प्रश्न उठते रहते हैं कि मैं कौन हूँ? तुम कौन हो? मैं और तुम कहाँ से आये? हमारे माता-पिता और पूर्वज कहाँ से आये? क्यों और किसके लिए आये? इन प्रश्नों के उठने के पहले ही खोज करनी चाहिए कि इन प्रश्नों के उत्तर पहले ही हमारे पूर्वजनों ने कहे हैं? किसी शास्त्रों में लिखा है क्या? क्या इसके लिए कोई वेद है? . तभी एहसास कर सकते हैं कि कई हजार वर्षों के पहले ही वेदांत कहनेवाले उपनिषदों में इन प्रश्नों के उत्तर मिलते हैं। उनसे सत्य और असत्य को जान-समझ सकते हैं। इस प्रपंच का आधार अथवा परम कारण ब्रह्म ही है। अर्थात् मैं रूपी बोध ही है। वह बोध अखंड है। जैसे एक ही बिजली अनेक बल्ब प्रकाशित हैं, वैसे ही सभी जीवों में मैं रूपी अखंड बोध एक रूप में प्रकाशित है। इसका एहसास करके दृढ बुद्धि से जीने से ही बोध के स्वभाविक परमानंद और अनिर्वचनीय शांति का अनुभव होगा। उनको भोगने में बाधक हैं संकल्प और रागद्वेष। भेद संकल्प और राग-द्वेषों को आत्मविचार के द्वारा परिवर्तन कर सकते हैं। इस परमानंद को स्वयं भोग सकते हैं।
3957. एक सगुणोपासक के दिल में देवी देव के रूप में प्रतिष्ठा करने के जैसे ही आत्मोपासक की आत्मा से ज्ञानोदय होकर तत्वज्ञान रूप लेता है। वैसे प्रकृति को उपासना करनेवालों के मन में कला, काव्य, कविता,चरित्र बनता है। अर्थात् संकल्प जैसे ही मानना है। इसलिए जीवों में विवेकी मनुष्यों को मात्र ही अपने शरीर और संसार एक लंबे स्वप्न है, वह एक गंधर्व नगर जैसे हैं, वह तीनों कालों में रहित है। यह सब जानने के ज्ञान रूपी मैं रूपी परमात्मा बने अखंडबोध मात्र ही है। यह एहसास करके जड स्वभाव के शरीर और संसार को विस्मरण करके आनंद स्वभाव आत्मा स्वयं ही है को समझकर वैसा ही बनना चाहिए। सत्य को जानने की कोशिश न करके शरीर और संसार को भूल से आत्मा सोचकर जीनेवालों को दुख ही भोगना पडेगा। सुख कभी न होगा। जो दुख के कारण ईश्वर सोचते हैं, उनको एहसास करना चाहिए कि उनके दुखों के कारण हृदय में रहे ईश्वर को सोचकर आनंद स्वरूप ईश्वर की पूजा नहीं की है। अर्थात् विश्वविद्यालयों में आत्मज्ञान सिखानेवाले वेदग्रंथ न पाठ्यक्रम में होने से ही दुखों के बुनियाद आधार है। अर्थात् शिक्षा ज्ञान में और आत्मज्ञान के लिए मुख्यत्व न देने कारण राज्य की प्रगति नष्ट होगी। यह शासकों की गलतफ़हमी है।इसलिए उनको समझना चाहिए कि लौकिक ज्ञान से होनेवाली प्रगति से अनेक गुना शक्ति कर्म प्रगति आत्मज्ञान प्राप्त करनेवालों से ही कर सकते हैं।
आत्मज्ञान जिसमें है, उनसे बनाये कर्म प्रगति में दुख का अनुभव करने पर भी उनमें जो शांति और आनंद है,वे रहेंगे ही, न बदलेंगे।
3958. भगवान की खोज करने की आत्म उपासनाएँ हैं भक्ति,ज्ञान,कर्म योग मार्ग और रूप रहित अपरिवर्तनशीलआत्म उपासनाएँ होती हैं। उनमें श्रेष्ठ आत्मोपासना ही है। आत्मोपासना करना है तो आत्मज्ञान सीखना चाहिए। बाकी सब उपासनाएँ और सत्य की खोज़ इस आत्मज्ञान को प्राप्त करने के लिए ही है। अर्थात् सभी ईश्वर खोज का अंत आत्मज्ञान ही है। वह आत्मज्ञान अपने बारे में का ज्ञान ही है। सबको गहराई से खोजने पर जो ज्ञान अध्ययन द्वारा सीखते हैं,उनसे भिन्न है स्वयं अनुभव से प्राप्त ज्ञान। स्वयं रूपी परम ज्ञान सागर में ज्ञान की लहरें,ज्ञान के बुलबुले, ज्ञान के जाग में ही यह प्रपंच स्थिर खडा है। अर्थात् परम रूपी ज्ञान के स्वभाव ही परमानंद है। परमानंद स्वभाव के साथ मिलकर मैं रूपी परम ज्ञान सागर ही अपरिच्छिन्न सच्चिदानंद स्वरूप नित्य सत्य रूप में प्रकाशित होते रहते हैं।
3959. फूल और सुगंध,सूर्य और प्रकाश कैसे अलग करके देख नहीं सकते, वैसे ही वचन और अर्थ दोनों को अलग नहीं कर सकते। अर्थात जो कोई अपने सूक्ष्म अर्थ को गौरव में लेता है, वह जिस मंत्र को जप करके देव-देवियों की उपासना करता है,उसको एहसास करना चाहिए कि उस मंत्र के जप करने के निमिष में ही, उस मंत्र की देवता उसके सामने प्रत्यक्ष दर्शन देंगे।उदाहरण श्रीं के उच्चारण करते ही उसकी देवता महालक्ष्मी उसके सामने आएगी। शिवे के कहते ही पार्वती उसके प्रत्यक्ष आएगी। महा सरस्वती के जपते ही साक्षात सरस्वती उसके सामने आएगी। वैसे ही काल जो भी हो,समय जो भी हो, भाषा जो भी हो,संकल्प जो भी हो, चींटी से देव तक जो भी हो,मंत्रोच्चारण के करते ही संकल्प की देवता जो भी हो प्रत्यक्ष देवता, उसी भाव में उपासक के सामने प्रत्यक्ष होंगे। स्थूल नेत्रों से देख न सकें तो सूक्ष्म रूप में वे आएँगे। अविवेकियों को आजीवन दुख झेलते रहने के कारण अविवेकियों को मालूम नहीं है कि देवी-देवताओं को कैसे निमंत्रण करना चाहिए। उसी समय उसे जाननेवाले भक्त ही भगवान से परस्पर मिलकर सहयोगी बनकर जीवन में श्रेयस और प्रेयस से जी सकते हैं। अर्थात् आध्यात्मिक ज्ञान, भौतिक ऐश्वर्य के साथ जी सकते हैं। लेकिन जो विशेष और विशिष्ट जीवन बसाना चाहते हैं, उनके समझ लेना चाहिए कि सभी कर्म ,सभी उपदेशों का अंत मैं रूपी निराकार एक ही एक अखंड बोध ही है।इस संसार के सभी सुख-भोगों का स्थान मैं रूपी अखंड बोध ही है। इस बोध के सिवा सभी जीवन के अनुभव स्वप्न मात्र है। इसे खूब जान-पहचानकर जिंदगी बितनेवालों को किसी भी प्रकार का दुख न होगा। उसको मालूम है कि दुख भी स्वप्न है।
3960. जो कोई सांसारिक व्यवहारिक जीवन में दुख के समय मात्र ईश्वर का स्मरण करता है, वह बाकी समय में जड विषय वस्तुओं में मन लगा देने से सुख उसके लिए एक स्वप्न के समान होता है, दुख स्मरण के समान उसके जीवन में होगा। उसी समय जो कछुए के समान संयम रहता है,वह सुखी रहेगा। कछुआ आहार खाने के लिए मात्र सिर के बाहर लाता है, बाकी समय काबू में रखता है। वैसे ही मनुष्य को अपने पूरा समय ईश्वर पर ध्यान रखना चाहिए। तब दुख स्वप्न लगेगा और सुख स्मरण होगा। लेकिन जो जन्म से ईश्वर के शब्द न सुनकर सत्य धर्म नीति न जानकर पशु जीवन बिताता है, वह अविवेकी होता है, उसको जितनी भी सुविधा हो ,उसको सिवा दुख के सुख स्वप्न में भी न मिलेगा। कारण उसके मन में जड विषय,भेद बुद्धि,राग-द्वेष ही होगा। लेकिन जन्म से ईश्वरीय धुन सुननेवाले वातावरण में पलकर घर और देश में भगवत् कार्य में सोते-जागते,खाते सदा सर्वकाल लगे रहनेवालों के जीवन में आनंद और शांति शाश्वत रहेंगे। वैसे लोग उनकी आत्मा को साक्षात्कार करते समय ही यह अनुभव पाएँगे कि वे स्वयं निराकार निश्चलन परमात्मा है,वह परमात्मा रूपी मैं है के अनुभव के अखंड बोध के सिवा और कुछ कहीं कभी नहीं है। अर्थात् अखंडबोध स्थिति पाने के साथ नाम रूप खंड प्रपंच और शरीर अखंडबोध से अन्य रूप में स्थित खडे होने स्थान न होकर जादू सा ओझल हो जाएगा। बोध मात्र नित्य सत्य परमानंद रूप में प्रकाशित होते रहेंगे।
3961. जो कोई अपने को दंड देनेवाले को पुनःदंड नहीं देता है,तभी जिसने दंड दिया है, उसको दंड देने उसको दंड देने के लिए प्रकृति को संदर्भ मिलता है। जिसने दंड दिया है,उसमें अहंकार,स्वार्थ, भेद बुद्धि और राग द्वेष होने से उसको ईश्वरीय अनुग्रह न मिलेगा।वैसे ही प्रतिशोध के मन रहित दंड जो भोग चुका है,उसमें भेद-बुद्धि रागद्वेष न होने से ,उसको ईश्वरीय आशीषें मिलेंगी। ईश्वरीय कृपा-कटाक्ष अन्य रहित है,उसी को प्रकृति मदद करेगी। जिसपर ईश्वर की कृपा नहीं रहेगी, प्रकृति उसकी मदद न करेगी। जिनपर ईश्वर की आशीषें हैं,वह स्वयं ब्रह्म ही है। ब्रह्म और ब्रह्म से भिन्न एक प्रपंच नहीं है । अर्थात् बोधाभिन्न ही जगत है। वह ईश्वर मैं रूपी अखंडबोध से भिन्न नहीं है। अर्थात् मैं रूपी अखंडबोध ही ईश्वर है। उस अखंडबोध स्थिति को साक्षात्कार करते समय ही प्रपंच अपने से अन्य रहित होगा। अर्थात् बोधाभिन्न स्थिति को साक्षात्कार कर सकते हैं।
3962. अग्नि की शक्ति को आँखों से देख नहीं सकते।उसमें एक लकडी डालकर उस अग्नि से उसे जलाने पर ही पता चलेगा कि अग्नि में जलाने की शक्ति है। वैसे ही आत्मा की शक्ति जानने के लिए आत्मज्ञान से सांसारिक रूप सब को विवेक से जानते समय आत्मज्ञानाग्नि में सांसारिक रूप छिप जाते हैं । अर्थात् आत्मा सर्वव्यापी है। निश्चलन है। यह प्रपंच कर्मचलन है। सर्वव्यापी परमात्मा निश्चलन होने से आत्मा कर्म नहीं कर सकती। उसमें कर्म हो नहीं सकता। इसीलिए आत्मा को निष्क्रिय कहते हैं। निष्क्रिय आत्मा सर्वव्यापी होने से एक चलन रूप को भी उसमें रह नहीं सकता। इसीलिए नामरूपात्मक यह कर्म प्रपंच को मिथ्या कहते हैं। अर्थात् मैं रूपी अखंड बोध में दीखनेवाले नाम रूप ही यह प्रपंच है। लेकिन बोध के अखड में नामरूप स्थिर खडा रह नहीं सकता। अर्थात् नाम रूप मिथ्या है।
3963.इस प्रपंच रहस्य को जानना है तो पहले समझना चाहिए कि भगवान एक इंद्जाल मायाजाल व्यक्ति है। जादूगर शून्य से एक वस्तु को बनाकर दिखा सकता है। लेकिन देखनेवालों को मालूम है कि वह वस्तु सत्य नहीं है। वैसे ही भगवान अपनी मांत्रिक छडी द्वारा विश्व मन लेकर जो शरीर और संसार नहीं है, उनकी सृष्टि करके दर्शाते हैं। जो शरीर और संसार नहीं है, मिथ्या है,उन्हें सत्य माननेवालों को ही भ्रम होता है। रस्सी को साँप समझना ही भ्रम है।
प्रकाश की कमी के कारण ही रस्सी साँप-सा लगता है। वैसे ही ज्ञानप्रकाश की कमी के कारण ही जीव को संसार और शरीर सत्य-सा लगता है। प्रकाश जैसे भ्रम को मिटाता है,वैसे ही आत्मज्ञान शरीर और सांसारिक भ्रम को दूर कर देता है।
इसलिए विवेकी यही पूछेंगे कि इस भ्रम को कैसे मिटाना है,यह न पूछेंगे कि यह कैसे हुआ है। जिस जीव में सत्य जानने की तीव्र इच्छा होती है, उस जीव को सत्य ही परमानंद रूप में स्थित खडा रहेगा। यही अद्वैत् सत्य है।
3964. अंधकार में संचरण करनेवाले संदेह को छोड नहीं सकते। वह प्रकाश की ओर यात्रा न करेगा तो उसको नित्य नरक को ही भोगना पडेगा। अहंकार ही अंधकार है। आत्मा ही प्रकाश है। आज न तो कल सब को प्रकाश में आना ही पडेगा।नरक एक मनःसंकल्प ही है। मन के मिटते ही नरक भी मिट जाएगा। लेकिन जो मन नहीं है उसे मिटाने के प्रयत्न में जब तक लगेंगे,तब तक मन मिटेगा नहीं। जो मन नहीं है,उसे मिटाने का प्रयत्न न करनेवाला ही सत्य का एहसास करनेवाला है। जिसने सत्य का जाना है और माना है, उसको केवल सत्य ही मालूम है। वह नित्य रूप में,अनादी से आनंद रूप में मैं रूपी आत्मा रूप में स्वयंभू स्थिर खडा रहा करता है।
3965. जो स्वयं प्रकाशित है, स्वयं आनंदित है,स्वयं शांतिपूर्ण है,स्वयं स्वतंत्र है, स्वयं परिशुद्ध है, स्वयं नित्य सत्य है, सर्वज्ञ है,सर्वव्यापी है,वह अखंडबोध परमात्मा, ब्रह्म स्वरूप स्वयंभू,शाश्वत अपने से अन्य कोई दूसरा दृश्य,किसी भी काल में, कभी नहीं होगा। इस एहसास जिसमें कोई संकल्प रहित तैलधारा के जैसे चमकता है,वही यथार्थ स्वरूप आत्मा को साक्षात कर सकता है। उसी समय अपने यथार्थ स्वरूप अखंडबोध स्थिति को एक क्षण के विस्मरण करते ही अपनी शक्ति माया मन संकल्पों को बढाना शुरु करेगा।
इसलिए वह फिर प्रपंच के रूप में बदलेगा। इसलिए जो कोई अपने निज स्वरूप मैं रूपी अखंडरूप स्थिति में बहुत ध्यान से रहता है, वह मक्खन पिघलकर घी बनने के जैसे अपरिवर्तनशील ब्रह्म स्थिति को पाएगा। वही अहंब्रह्मास्मी है।
3966. मनुष्य मन को दृश्य रूपों में ही लगाव होता है,अदृश्य सत्य पर मन न लगने के कारण यही है कि सीमित रूपों में लगे मन सीमित रूपों में ही लगेगा। असीमित निराकार सत्य आत्मा में लगनेवाला मन सत्य को स्पर्श करने के पहले ही वापस आएगा। कारण विषय वस्तुओं में मिलनेवाले सद्यःफल के जैसे निराकार ब्रह्म की ओर चलनेवाले मन को तुरंत न मिलेगा। कारण आत्मा रूपी ज्ञानाग्नि के निकट जाते समय मन को मिलनेवाले सुख के बदले मन ही नदारद हो जाएगा। इस भय से ही मन अरूप आत्मा की ओर यात्रा करना नहीं चाहता। लघु सुख काम सुख तुरंत मिलकर तुरंत मिट जाएगा। केवल वही नहीं वह स्थाई दुख देकर जाएगा। उसी समय एक बार परमानंद को भोगने पर वह नित्य स्थाई रहेगा। इसीलिए विवेकी लघु सुख त्यागकर परमानंद के लिए तप करते हैं। जो कोई उस परमानंद को अपनी आत्मा का स्वभाव मानकर महसूस करता है, तब उसका मन विषय सुखों की ओर न जाएगा। कारण उसको मालूम है कि आत्मा रूपी परमानंद को ही जीव प्रपंच की उपाधि में मिलकर लघु सुख के रूप में अनुभव करते हैं।परमानंद को उपाधि में मिलकर अनुभव करते समय वह लघु सुख है,निरूपाधिक रूप में भोगते समय उसे परमानंद कहते हैं।
जगदीश्रर वेद 3926. मनुष्य मन उसकी अपनी आत्मा से विलीन न होने के काल में इस प्रपंच का,इस प्रपंच बनाकर देनेवाले जैसा भी दुख हो,उससे विमोचन न मिलेगा। इसलिए मन को आत्मा में मिलने के पहले निर्मल बना लेना चाहिए।मन निर्मल न होने के कारण अनेक विषयों के संकल्प ही हैं ।अनेक संकल्प होने के कारण सुख का केंद्र स्थान न जानना ही है। संकल्प रहित कोई भी विषय मन को सुख न देगा।
इसलिए विषय सुख के कारण संकल्प ही है। संकल्प से मिले सुख विषय नाश के साथ मिट जाएगा। इसलिए नित्य सुख के केंद्र की खोज से पता चलेगा कि वह अपनी अहमात्मा ही है। इसलिए दुख देनेवाले संकल्प दोषों को मिटाकर सुख स्वरूप आत्मा ही है,वह आत्मा स्वयं ही है का महसूस करते हैं। तब मन सुख की खोज में जड-भोग विषयों की ओर न जाएगा। वैसे मन को किसी भी प्रकार के संकल्प के बिना आत्मा से मिलाने पर शारीरिक दोष और प्रपंच दोष अपने पर असर न डालेगा। मन आत्मा से मिलने के साथ जीव भाव नाश हो जाएगा। साथ ही खंड बोध अखंडबोध होगा। अर्थात् सीमित जीवात्मा असीमित परमात्मा स्थिति को पाएगा। वही आत्मसाक्षात्कार है। तभी नित्य सुख और नित्य शांति को स्वयं निरुपाधिक रूप में भोगकर वैसा ही स्थिर खडा रहेगा।अर्थात् परमात्मा रूपी मैैं ही सदा सर्वव्यापी और अपरिवर्तन परमानंद ही शाश्वत है।अपनी शक्ति माया के द्वारा अपने अखंड को विस्मरण करते ही जीव और जीव संकल्प संसार उसका जीवन उसका लय सब बना सा लगता है। स्वरूप स्मरण के साथ पर्दा हटने से आत्मा रूपी अपने में कोई परिवर्तन नहीं होते। इसलिए सदा आनंद से ही रहेगा।
3927. हर एक जीव को हर एक मिनट जीवन में होनेवाले दुख रूपी काँटों से बचकर कोमल सुख रूपी फूल खिलने के लिए माया रूपी पर्दा हटाने के लिए आत्मविचार तैल धारा के जैसे होते समय एहसास कर सकते हैं कि वह स्वयं खिले नित्यानंद फूल ही था, काँटे केवल एक दृश्य मात्र हैं। अर्थात् आत्मा के बारे में जो नहीं पूछते,जो नहीं जानते ,आत्मा पर श्रद्धा नहीं रखते, वे ही जीव अक्षय
पात्र लेकर भीख माँगकर कष्ट सहकर, दुखी होकर जन्म मरण के संकल्प लोक मार्ग मर भटकते रहते हैं।
3928. मैं रूपी अखंडबोध सर्वव्यापी और सर्वत्र विद्यमान होने से दूसरी कोई स्थान या वस्तु नहीं है। इसलिए बोध का विकार नहीं होता। मैं रूपी अखंड बोध रूपी परमात्मा निर्विकार,निश्चलन,अनंत अनादी और आनंद हो जाते हैं। उस आनंद रूपी बोध में ही अपनी शक्ति स्पंदन रूपी चलन होने सा लगता है। अर्थात् आत्मा की शक्ति चलन से इस पंचभूतों से बने प्रपंच दृश्य होते समय शक्ति का आधार वस्तु सत्य या बोध या आत्मा निश्चलन ही खडा रहता है। इस निश्चलन परम कारण बने मैं रूपी अखंडबोध होने से ही चलन प्रपंच बनकर स्थिर रहकर मिट जाने के रूप माया को उत्पन्न करके दिखाते हैं। एक अपरिवर्तन शील वस्तु के सान्निद्य से ही परिवर्तन शील एक वस्तु बनेगी। अपरिवर्तन शील आत्मा रूपी मैं है तो आत्मा में उत्पन्न शरीर और संसार ही परिवर्तनशील होते हैं। जो बदलते हैं,वे वह स्थाई नहीं है। वह मृगमरीचिका है। केवल अखंडबोध ही अपरिवर्तनशील है और स्थाई है। मैं रूपी अखंडबोध के रेगिस्तान की मृगमरीचिका ही शरीर और संसार है।
3929. हर एक मनुष्य के मन में जो अंतरात्मा है, वह परम कारण स्वरूप परमात्मा ही है। जो व्यक्ति एहसास करता है कि वह खुद परमात्मा ही है, शरीर और प्रपंच अपनी आत्मा से भिन्न नहीं है। उस ज्ञान के प्राप्त होते ही शरीर और प्रपंच पर के प्रेम और आसक्ति नहीं होंगे।तभी परमार्थ रूपी स्वयं सर्वांतर्यामी का अनुभव होगा। जब उस स्थिति पर पहुँचते हैं, तब स्वभाविक परमानंद आनंद अनुभव करने लगते हैं। साथ ही एहसास होगा कि अपने में उत्पन्न सभी भूत अपने नियंत्रण में है। अर्थात् प्रपंच अपनी ओर नहीं खींच सकता। स्वयं मैं रूपी अखंड बोध स्वात्मा ही खींचेगा। जीवात्मा स्वयं ही सर्वस्व और सब कुछ है का न जानने से ही सत्य न समझकर संसार में भ्रमित होकर शरीर के भ्रम में संकल्प-विकल्प लेकर नित्य दुख का पात्र बनकर विविध प्रकार के जन्मों के बीज बोते रहते हैं।
3930. वर्तमानकाल में जिसका मन शारीरिक शारीरिक भावना के अतीत आत्म भावना में न चलकर अहंकार को केंद्र बनाकर जीता है,
उसके बीते काल के अनुभव उसमें से न टूटकर चालू होते रहेंगे। कारण अहंकार को स्थित खडा रखना ही बीते काल भविष्य काल के न टूटे चिंतनों को साथ लाने से ही है। जो एहसास करता है कि भविष्य और भूत का स्मरण अर्थ शून्य है, वही विस्मरित आत्मबोध के सभी कार्यों को करके जी सकते हैं। बीते काल पुनः वापस न आएगा। उसको सोचकर समय व्यर्थ करनेवाला मूर्ख ही है। वैसे ही आयु अनिश्चित होने से भविष्य को सोचकर समय बितानेवाला भी अविवेकी ही है। अर्थात् स्वयं बने बोध को सभी प्रपंच रूपों में पूर्ण रूप से देखना एकात्म दर्शन से नित्य कर्मों निस्संग रूप में जब जी सकता है,तभी वह अखंडबोध के स्वभाव परमानंद को निरूपाधिक सहजता से भोग सकता है।
3931. साधारणतः एक वाहन के चालक जैसे ही यह आत्मा शरीर में प्राण के रूप में रहकर इस शरीर का संचालन करता है। वह शारीरिक यात्रा संकल्प से ही इस संसार में बना है। इच्छाएँ यात्राओं को बढाती हैं। अनिच्छाएँ यात्राओं को घटाती हैं। दुख नयी इच्छाओं को मिटा देता है और सांसारिक आसक्ति को अनासक्ति बना देता है। तब से आत्म खोज शुरु होती है। उस आत्म खोज के वैराग्य में आत्मज्ञान प्राप्त जीवाग्नि में मन जलकर भस्म हो जाएा।मन के नाश होते ही शरीर और संसार विस्मरण हो जाएगा। तब मैं रूपी एक आत्म रूप अखंडबोध मात्र अपने स्वाभाविक परमानंद के साथ नित्य सत्य रूप में स्थिर खडा रहेगा ।
3932. पंचेंद्रियों को लेकर भोगनेवाला जीवन अनुभवों में अपरिवर्तनशील अनुभव असत्य को एहसास करता है। विषयों को भोगते समय होनेवाले अनुभव विषय नाश के साथ अस्त होता है। उसी समय मन आत्मा में विलीन होकर आत्मवस्तु अनश्वर होने से आत्मा का स्वभाव आनंद और शांति अनश्वर ही रहेंगी। नित्य रहेगा।
3933. माया के दो भाव ही विद्या माया और अविद्या माया होती हैं। अविद्या माया जीव को सत्य के निकट जाने न देगी।अविद्या माया से प्रभावित लोग प्रत्यक्ष देखनेवाले सबको अर्थात् इस शरीर और संसार को उसी रीति से सत्य मानकर विश्वास रखते हैं। लेकिन अप्रत्यक्ष अनेक प्राण चलन अपनी आँखों के सामने अदृश्य रहते हैं। लेकिन सूक्ष्मदर्शिनी के द्वारा देखते समय अनेक प्रकाश किरणें अपने सामने देख सकते हैं। उदाहरण रूप में अपने आँखों के सामने मेज़ पर सूक्ष्म दर्शिनी जैसे यंत्र रखकर देखते हैं तो उसमें प्रोटान,न्यूट्रान,ऍलक्ट्रान आदि को देख सकते हैं। इसलिए जो कुछ है,जो कुछ नहीं है आदि को विवेक से जाने बिना किसीको यथार्थ सत्य मालूम न होगा। वैसे विवेक से नहीं देखनेवालों को दुख न दूर होगा। संदेह भी न दूर होगा। लेकिन जो कोई इस शरीर को और संसार को समझकर जड,है, जड कर्म चलन है,चलन प्राण स्पंदन है, प्राण स्पंदन निश्चलन अखंडबोध में किसी भी काल में न होगा। जो इसका एहसास करता है,वही जान-समझ सकता है कि शरीर और संसार मिथ्या है। वह एहसास कर सकता है कि निश्चलन बोध मात्र सत्य है। वह सत्य स्वयं ही है,अपने स्वभाव ही शांति और आनंद है। ऐसी विवेकशीलता जिसमें नहीं है, उस जीवात्मा को नित्य दुख होगा। वह सुख और शांति स्वप्न में भी अनुभव नहीं कर सकते। कारण यह प्रपंच दुख पूर्ण है। यह अनादी काल से होकर छिपनेवाले सभी जीवात्मा के अनुभव की गोपनीय बात है। देखकर,सुनकर अनुभव करके भी सत्य क्या है? असत्य क्या है? की विवेकशीलता से न जाननेवाले अविवेकशील मनुष्य को मनुष्य कह नहीं सकते। कारण यवह अपने उत्पन्न स्थान की खोज करने के लिए समय न लेकर विषय भोग वस्तुओं के लिए धन केलिए दौडता भागता रहता है।
यह आत्मज्ञान रहस्यों में रहस्य,विज्ञापनों में विज्ञापन है। इसे विज्ञापन कमें न मिलेगा।
3934.एक मनुष्य की दिनचर्याएँ नहाना,कपडे पहनना आदि नित्य कर्माएँ करते समय वह एक प्रत्येक काम सा न लगेगा। वैसे ही मन में दिन दिन आनेवाले अच्छे बुरे चिंता कूडों को निरंतर शुद्ध करते समय ही शरीर भर में आत्म स्वयं प्रकाश होगा। कारण स्वयं बने आत्मप्रकाश स्वरूप, दूसरों को प्रकाशित कराने बना है। इसलिए स्वयं बनेे निश्चल परमात्म स्वरूप में अपनी शक्ति माया दिखानेवाले शरीर और सांसारिक दृश्य माया दवारा दिखानेवाले इंद्रजाल नाटक है। इसका एहसास करते समय शरीर और संसार मृगमरीचिका के समान तीनों कालों में रहित ही है। उस स्थिति में ही आत्मा का स्वभाव परमानंद और परमशांत अपने स्वभाव से भोग सकते हैं।
3935.हम जिस आकाश को देखते हैं, वह अपनी स्थिति में कोई परिवर्तन के बिना इस प्रपंच के सभी रूपों को ऊँचा उठाकर दिखाता है। वह आकाश सभी रूपों के पूर्ण अंगों में व्यापित रहता है। आकाश से ही ये रूप होते हैं। वैसे ही चिताकाश रूपी परमेशर पंच भूतों को बढा-चढाकर दिखाते हैं। उसे तीन वर्गों में ही दिखाते हैं। प्राण, आकाश,वायु आदि भूत होते हैं। वे सूक्ष्म जड दृढ बनकर ही
अग्नि,पानी,आदि भूत बनते हैं। उन भूतों का दृढ बनना ही यह भूमि है।अर्थात् समुद्र का पानी लहरें,जाग बनकर बरफ़ बनने के समान। बरफ़ पानी और भाप बनने के जैसे। वैसे ही परमात्मा रूपी अखंडबोध ,बोध रूपी परमत्मा, अपने निश्चलन में परिवर्तन किये बिना चलन शक्ति माया चित्त बनकर प्राणन के रूप में अनेक परिणामों में मिलकर इस ब्रह्मांड को बनाया है।लेकिन यह जड कर् चलन प्रपंच मृगतृष्णा होती है। कारण निश्चल परमात्मा में कोई चलन नहींं होगा।चलन होने पर परमात्मा का सर्वव्यापकत्व नष्ट होता है। इसलिए एकात्मा एक ही परमात्मा मात्र ही नित्य सत्य परमानंद मात्र स्थिर खडा रहता है। वह परमात्मा स्वयं ही है की अनुभूति करनेवाला ही ब्रह्म है। यही अहंब्रह्मास्मी है।
3936. परमत्मा के सान्निद्य में ही प्रकृति से सकल चराचर के यह विश्व प्रपंच बनता आता है। विविध प्रकार से परिणमित इस प्रपंच का साक्षी मात्र ही भगवान है। यह साक्षी ही हर एक जीव के हृदय में जीवात्मा के रूप में रहता है। जो यह महसूस करता है कि वह स्वयं शरीर या संसार नहीं है, शरीर और संसार अपने यथार्थ स्वरूप परमात्मा रूपी अखंड बोध में अपनी शक्ति माया अपने को अंधकार में छिपाकर दीखनेवाला स्वप्न है। ऐसी अनुभूति के जीव ही आत्मज्ञान को उपयोग करके शरीर और संसार को मृगमरीचिका के समान तजकर प्रतिबिंब जीव रूपी अपनी जीव स्थिति को भूलकर
बिंब बने अखंडबोध स्वरूप को अज्ञान निद्रा से पुनः जीवित करके निजी स्वरूप अखंडबोध स्थिति को प्राप्त करके उसके स्वभाविक परमानंद में स्थित खडा रह सकता है। इस संसार में बडा खज़ाना आत्मज्ञान ही है। इसको न जाननेवाले अविवेकी ही नाम,यश और धन के बंधन के लिए मनुष्य जीवन के आयु को बेकार कर रहे हैं वैसे लोग गुलाब की इच्छा के द्वारा वह काँटे के पौधे देनेवाले दर्द सहने तैयार रहते हैं। जो फूल को तजते हैं,केवल उसको ही दुख से विमोचन होगा।
3937.नाम पाने के लिए, धन के लिए,अधिकार के लिए शास्त्र सिखानेवाले गुुरु के शिष्यों और भक्तों के स्वभाव भी वैसे ही होंगे। वैसे लोग ही जो जग नहीं है, उसको स्थिर खडा करते हैं। वह प्रकृति के स्थिर खडा रखने का भाग है। उसी समय यथार्थ सत्य की खोज करनेवाले ही यथार्थ गुरु के पास जा सकते हैं। यथार्थ गुरु नित्य संतुष्ट रहेंगे। वे इस संसार में किसीसे कुछ भी प्रतीक्षा नहीं करते।
उनका पूर्ण मन सत्य आत्मा में मात्र रहेगा। वैसे आत्मज्ञानी के गुरु के यहाँ शिष्य और भक्त विरले ही रहेंगे। कारण माया गुणों से विषय वस्तुओं से भरा मन सत्य के निकट जा नहीं सकता। जो सत्य के निकट जा नहीं सकता, उसको दुख से विमोचन न होगा।उनसे शांति और आनंद बहुत दूर रहेंगे।
3938. अपनी अहमात्मा को कोई भी कलंकित नहीं कर सकता। वह सब के साक्षी रूप में ही रहता है। तीनों कालों में रहित
यह दृश्य प्रपंच में देखनेवाले सब के सब को प्रकाशित करनेवाला अपनी अहमात्मा ही है। रूपभेद,वर्ण भेद,जन्म-मरण आदि विकार के विविध भाव होनेवाले ही ये जड हैं। लेकिन बदल-बदलकर आनेवाले ये भाव कोई भी आत्मा पर प्रभाव नहीं डालता।उदाहरण स्वरूप
सूर्य प्रकाश से प्रकाशित वस्तुओं की कमियाँ कोई भी सूर्य पर अपना
प्रभाव डाल नहीं सकता।
3939.वेदांत सत्य जानकर उसमं जीनेवाले विवेकियों को ही उनके शरीर और मन स्वस्थ रहते समय ही वे अपने वचन और क्रिया को एक साथ लेकर चल सकते हैं। उसी समय शरीर और मन शिथिल होने के बाद सांसारिक जीवन में सत्य को जो महसूस नहीं करता,उसके लिए असाध्य कार्य ही है। कारण उनका मन शारीरिक बीमारी,रिशतेदार,घर,धन और संसार में ही रहेगा। वैसे लोग
मरते समय प्राण पखेरु उडते मिनट में उनका मन एक अमुक इच्छा में न रहेगा।कारण चित्त बदलते रहने से जीव जाते निमिष में घास.पशु, अच्छे-बुरे जो भी हो, जिसमें मन लगता है, वैसा ही जन्म लेता है।
अर्थात् उनके मन की परेशानी में जो सोचता है,वैसा ही जन्म लेगा।
कारण उनके जीवन में कोई अमुक लक्ष्य न होना ही है। जैसा चित्त होता है, जीवन भी वैसा ही है। चित्त ही किसी के संपूर्ण जीवन के लिए उसके देखने के जग के लिए कारण बनता है। इसलिए वह चित्त और प्रतिबिंब बोध मिलकर ही मरते समय शरीर को छोडकर बाहर जाता है। अर्थात् चित्त के बिना आत्मा प्रतिबिंबित हो नहीं सकती। बिना पानी के, अर्थात् प्रतिबिंब करनेवाली वस्तु के बिना सूर्य प्रतििंबित कर नहीं सकता। पानी की चंचलता प्रतिबिंब को भंग करने के जैेसे ही चित्त संकल्प सब प्रतिबिंब जीव पर असर डालने के समान लगता है। पानी नहीं तो सूर्य प्रतिबिंब भी नहीं रहेगा। वैसे ही चित्त नाश के साथ जीव भाव जीव भाव का भी नाश होगा। वैसे ही जीव जिंदा रहते समय ही जो चित्त को पवित्र बनाकर इच्छा रहित पूर्णतः शुद्ध रूप में रखता है, तब चित्त का कोई अस्तित्व न रहेगा।
कारण चित्त चित् रूप में बदलेगा। वह आत्मा के रूप में बदलेगा। तभी सभी दुखों से विमोचन होगा।
3940. एक पतिव्रता के सिवा साधारण स्त्री का मन, स्त्री को अनुसरण करनेवाले पुरुष का मन सत्यतः आत्मा के निकट जाने में कष्ट ही होगा। वह सत्य ही स्त्री और पुरुष को गतिशील रखता है। लेकिन वे सत्य को महत्व न देने से दुख उनसे दूर नहीं होगा। उनको नहीं मालूम है कि दुख के कारण असत्य ही है। उसके कारण शारीरिक अभिमान रूपी अहंकार ही है। उसको गुरु,माता-पिता और समाज ने नहीं सिखाया है कि अहंकार ही दुख के कारण है। केवल वही नहीं , उन्होंने शास्त्रों का अध्ययन नहीं किया है। वैेसे लोग दुख से और और दुख लेकर ही प्राण तजते हैं। जो कोई जीव और शरीर को विवेक से जानते हैं, वे जड रूपी शरीर को तजकर प्राण रूपी आत्मा को ही स्वयं है की अनुभूति करके आत्मा के स्वभाविक आनंद का अनुभव करेंगे।
3941. एक मंदिर के दीवार पर एक देव के चित्र को देखते समय वह चित्र दीवार से अन्य -सा लगेगा। वैेसे ही अपने को दृश्य के यह प्रपंच स्वयं बने आत्मा से अन्य-सा लगेगा। चित्र के मिटने पर भी दीवार में कोई परिवर्तन नहीं होते, वैसे ही दृश्य के न होने पर भी दृष्टा रूपी अर्थात आत्मा रूपी स्वयं मिटता नहीं है। वैसे ही कोई ज्ञानी अपने शरीर को ही स्वयं बने आत्मा रूपी बोध में चित्र खींचने के जैसे देखता है,अर्थात् बोध में अपने दृश्य रूपी चित्र जैसे अपने शरीर को देख सकताहै ,वह अनुभव कर सकता है कि उसके अपने शरीर का नाश होने पर भी उसका नाश न होकर स्थिर खडा है। इसलिए कुछ ज्ञानी स्वात्मा को अपने पूर्ण रूप से साक्षात्कार करते समय ऊपर नीचे आश्चर्य से देखेंगे कि अपने शरीर और संसार कहाँ गये हैं।अर्थात् यह एहसास कर सकते हैं कि शरीर और संसार आत्मा रूपी अपने में रस्सी में साँप जैसे और रेगिस्तान में मृगमरीचिका जैसे मिथ्या है।
3942. मनुष्य मन को कष्ट है कि आँखों से देखकर अनुभव करनेवाले यह शरीर और संसार नश्वर है। आत्मज्ञान की दृढता होने तक यह अविश्वसनीय है कि वैसे ही शरीर और संसार को जाननेवाले ज्ञान स्वरूप अनश्वर ही है। अपनी आँखों से ही अपनी आँखों को देख नहीं सकते,अपने से अन्य दर्पण में देखकर ही रस लेते हैं। वैसे ही सर्वव्यापी आत्मा अपने को ही माया रूपी दर्पण में अपने से अन्य रूप में प्रपंच रूप में देखते हैं। लेकिन दर्पण को तोडते ही प्रति बिंब मिट जाते हैं। वैसे ही आत्मज्ञान की दृढता होने के साथ
चित्त रूप के शरीर और संसार मिट जाएँगे। साथ ही जीवभाव छिप जाएगा। साथ ही आत्मा रूपी अखंडमात्र नित्य सत्य रूप में परमानंद रूप में स्थिर खडा रहेगा।
3943. कोई भक्त संपूर्ण परम कारण रहनेवाले परमात्मा बने परमेश्वरन को अभय प्राप्त है,उसके सामने मात्र ही महा माया फण फैलाये रहेगा। कारण भगवान और भक्त दो नहीं है। वही नहीं परमेश्वरन भक्त का दास ही है। भक्त के दुख को भगवान न सहेंगे। साधारणतः स्त्रियाँ आत्मवीचार के विरुद्ध हैं। उसका सूक्ष्म यही है कि जगत स्वरूपिनी स्त्री चलनशील है,परम कारण के परमात्मा निश्चलन है। इसलिए जो स्त्री हमेशा आत्मस्मरण को शुरु करती है,
उसके साथ स्त्री जन्म का अंत होगा। या परमात्मा की पराशक्ति से ऐक्य हो जाएगा। अर्थात् चलन ही निश्चलन होगा। इसलिए जो स्त्री
सदा आत्मा रूपी परमेश्वर को पति मानकर पतिव्रता बनती है,वह पराशक्ति परमेश्वर में ऐक्य हो जाएगी।
3944. जो कोई निरंतर दुख में रहता है, उसके हृदय में परमानंद स्वरूप परमात्मा मात्र नहीं, उसी के ही रूप में है। यह बात वह जानता नहीं है। जानने पर भी वह भरोसा नहीं रखता। विश्वास होने पर भी ज्ञान की दृढता नही होती। इसीलिए वह सदा दुखी रहता है। उसी समय जो कोई परमानंद स्वरूप परमात्मा अपने शरीर और प्राण है का एहसास करके सभी कर्म करने से वह सदा धैर्यशाली है। केवल वही नहीं , शांति और आनंद उसको छोडकर नहीं जाएँगे।
3945. स्त्री को उपदेश करके बुद्धिमान बना सकता है,यह मोह अर्थ शून्य है। उसके विषय चिंताओं के आवर्तन स्वभाव से समझ सकते हैं। केवल वही नहीं, उसका अनुसरण रहित रहना,सत्य के बिना रहना
स्पष्ट होगा। अर्थात् चलनात्मक प्रकृतीश्वरी चलनशील होने से मात्र ही वह स्थाई सा लगेगा। वह निश्चलन सत्य के निकट जाने पर प्रकृतीश्वरी का अस्तित्व नहीं रहेगा। कारण सत्य निश्चलन है। सत्य को चलन छूने के बाद वह निश्चल हो जाएगा। इसीलिए स्त्रियाँ पुरुष का अनुसरण नहीं करती। सत्य नहीं बोलती। जो स्त्री निश्चल परमात्मा में मन लगाती है, माया स्त्री मायावी पमेश्वर होगी। परमेश्वर बनकक परमात्मा बने परब्रह्म मात्र ही नित्य सत्य परमानंद स्वभाव में रहेगा।
3946. साधारण स्त्रियों को विवेकी पुरुषों की आवश्यक्ता नहीं है।
अविवेकी पुरुष की आवश्यक्ता है। कारण विवेकी पुरुष स्त्रियों के शरीर से प्रेम नहीं करेगा।अविवेकी पुरुष ही शरीर से प्रेम करते हैं।स्त्री के शरीर से प्रेम करनेवाले पुरुषों को रखकर ही स्त्री अपनी इच्छाओं को पूरी कर लेती है। स्त्री पहले अपनी कामवासना की पूर्ति के लिए पुरुष को क्रोधित करेगी। जब वह हो नहीं सकता,वह डराएगी। उसमें भी वह वश में नहीं आएगा तो उसको मृत्यु वेदनाएँ देगी। वह उसे सताएगी। उसमें भी वह नियंत्रण में नहीं आयेगा तो वह उसे छोडकर चली जाएगी। जब वह उसे हटकर नहीं जा सकती, आजीवन उसके नियंत्रण में रहेगी। उसी समय नियंत्रण में जो रहना नहीं चाहती,वह स्त्री ही पुरुष के बेसाहारे स्थिति में रहेगी। जो स्त्री पुरुष को अपने दिव्य पुरुष मानकर जीवन चलाती है, तो पति के बंधन में रहेगी। उसके जीवन में स्त्री जन्म से विमोचन होगा। ये सब
द्वैत बोध और भेद बुद्धि के साधारण मनुष्य के बारे में ही है। लेकिन सत्य यही है कि नाम रूप के सब असत्य ही है। केवल एक ही एक लिंग भेद रहित अरूप निश्चलन बने परमात्मा मैं रूपी अखंड बोध मात्र ही परमानंद स्थिर खडा रहता है।
3947. जो दुख को मात्र देनेवाले संसार में, उसके जीव और सांसारिक विषयों के बारे में निरंतर चिंतन में डूबकर कर्म करनेवालों को शारीरिक अभिमान बढेगा। वह अहंकार और दुर्रभिमान को बनाएगा। दुर्रभिमान और द्वैतबोध को उसके द्वारा राग-द्वेष को बनाएगा। वही निरंतर दुख के कारण है। इसलिए आत्म उपासक को कर्म में अकर्म को विषयों में विष को जीवों में एकात्म को दर्शन करके उपासना करनी चाहिए। आत्म उपासक की दृष्टि में शरीर और संसार सब के सब रूप रहित एक ही परमात्मा ही भरा रहेगा। वह परमात्मा ही मैं है के अनुभव को उत्पन्न करके अखंडबोध के रूप में रहता है। मैं रूपी अखंडबोध नहीं तो कुछ भी नहीं है। जो भी है, उसमें अखंड बोध भरा रहेगा। अर्थात् स्वयं बने बोध रहित कोई भी कहीं भी कभी नहीं है। इस शास्त्र सत्य को महसूस करके बडी क्रांति और आंदोलन करने पर भी कोई दुख नहीं होगा। मृत्यु भी नहीं होगी। कारण बोध पैदा नहीं हुआ है। इसलिए उसकी मृत्यु नहीं है। बोध में दृष्टित नाम रूपों को स्वयं कोई अस्तित्व नहीं है। कारण बोध सर्वव्यापी होने से नाम रूपों को स्थिर रहने कोई स्थान नहीं है। वह केवल दृश्य मात्र है। वह जो सत्य नहीं जानता, उसका दृश्य मात्र है।सत्य जाननेवाले नाम रूप में स्वयं बने बोध के दर्शन करने से अस्थिर हो जाता है। इसलिए उसको दूसरे दृश्य नहीं है।
3948. वही स्वयं को, आत्मा रूपी अखंडबोध को, एहसास करके उसमें दृढ रह सकता है ,जो नामरूपात्मक इस जड प्रपंच को अर्थात् कर्म चलन और यह दृश्य प्रपंच अर्थात् पंचेंद्रिय अनुभव करनेवाले प्रपंच तीनों कालों में स्थिर नहीं रहेगा। वैसे लोग ही बोध स्वभाव शांति और आनंद को अनुभव कर सकता है। इस स्थिति में एक ज्ञानी को जब कोई दर्शन करता है, तब उसी मिनट से दर्शक के मन से दोष बदलकर शांति और आनंद का एक शीतल अनुभव होगा। वह दर्शन ही शिव दर्शन होता है। कारण शिव परमात्मा है। आत्मा में सदा आनंद अनुभव करनेवाला है। नित्य आनंद का अनुभव करनेवाला शिव ही है। उस शिव स्थिति रूपी मैं के अखंड बोध को अपनी शक्ति माया अंधकार रूप में अपने स्वभाविक परमानंद
स्वरूप को छिपा देता है। उस अंधकार आकार से ही सभी प्रपंच बनते हैं।अर्थात् उस अंधकार से पहले उमडकर जो आया है,वही मैं रूपी अहंकार है। उससे अंतःकरण,बुद्धि, संकल्प मन नाम रूप विषय वस्तुओं को बढानेवाले चित्त ,चित्त विकसित दिखानेवाले दुख देनेवाले वर्ण प्रपंच होते हैं। उनसे बाहर आने मन को अनुमति न देनेवाले दृश्य अनादी काल से होते रहते हैं। जो जीव किसी एक काल में दुख निवृत्ति के लिए मन की यात्रा बाहरी यात्रा से अहमात्मा की शरणागति में जाता है, उसको मात्र ही दुख का विमोचन होगा। सिवा इसके जड-कर्म चलन प्रपंच में डूबकर उमडनेवाले किसी भी जीव को कर्म बंधन से मुक्ति या कर्म से तनिक भी आनंद या शांति किसी भी काल में न मिलेगा।
3949. प्रेमियों के दो हृदय अपने में अर्थात् शरीर रहित आत्मा और आत्मा से प्यार होते समय शरीर की सीमा पार करके एक रूपी असीमित बोध समुद्र के रूप में बदलता है। साथ ही इस वर्ण प्रपंच के प्रेमसागर में उत्पन्न होनेवाली लहरों,बुलबुलों और जागों को ही देखेंगे।अर्थात् बोध अभिन्न जगत के तत्व को साक्षातकार करेंगे।
3950.कलाओं में जो भी कला सीखें,तब सोचना चाहिए कि यह कला ईश्वरीय देन है। उसे स्वर्ण, धन और पद के लिए उपयोग करना नहीं चाहिए। ईश्वर के दर्शन के लिए ईश्वर के सामने कला का नैवेद्य चढाना चाहिए। वैसे करनेवाले ही ईश्वर के दर्शन करके आनंदसागर के तट पर पहुँचेंगे। वैसा न करके सृष्टा को भूलकर सृष्टि के समर्थन करने नित्य नरक ही परिणाम के रूप में मिलेंगे।उसी समय सृष्टा से एक निमिष मिलकर उन्हें न भूलकर कलाओं को जैसा भी प्रयोग करो,वह दुख न देगा। अर्थात् बुद्धि जड है। मन भी जड है। प्राण भी जड है, शरीर भी जड है। जड में कोई क्षमता नहीं रहेगी। वह स्वयं नहीं के बराबर है। स्वयं में परमात्मा बने मैं का बोध शरीर रूपी उपाधि में मिलकर स्वयं अनुभव करनेवाले अनुभवों का हिस्सा ही सभी कलाओं की रसिकता है। सभी चलन माया है। निश्चलन बोध मात्र नित्य सत्य है। इसका एहसास करके जो कलाकार केवल कला में मात्र मन लगाकर जीवन में खुश का अनुभव करते हैं,वे ही अंत में आनंद का अनुभव करके स्वयं आत्मा का साक्षातकार कर सकते हैं। या उनकी इष्टदेवता के लोक जा सकते हैं।
3951. जो सुंदरता को वरदान के रूप में प्राप्त किया है,वे अपने जीवन को सत्य साक्षात्कार के लिए उपयोग न करके असत्य साक्षात्कार के लिए उपयोग करने से ही उनका जीवन नरकमय बन जाता है। इसलिए उनको एहसास करना चाहिए कि अपने शरीर की सुंदरता की चमक अपनी अहमात्मा की चमक है। इस तत्व को भूलकर जीव सोचता है कि वह सुंदरता जड रूपी शरीर की है।यह सोच गलत है। ऐसी गलत सोच के कारण ही जीवन नरक बन जाता है। अर्थात् आत्म बोध नहीं तो सूर्य को प्रकाश नहीं है। बोध नहीं तो चंद्र को प्रकाश नहीं है। बोध नहीं तो फूल को प्रकाश नहीं है। बोध नहीं तो नक्षत्रों को प्रकाश नहीं है। बोध नहीं तो कुछ भी चमकता नहीं है। यह सारा प्रपंच मैं रूपी अखंडबोध प्रकाश ही है। अर्थात् एक ही अखंड बोध मात्र नित्य सत्य रूप में है।मैं रूपी अखंडबोध को ही ईश्वर, ब्रहम परमज्ञान,परमात्मा,सत् ,चित् आनंद आदि कहते हैं । जो जीव इस सत्य को नहीं जानते,वे ही इस संसार में निरंतर दुख भोगते रहते हैं। सत्य में दुख एक भ्रम मात्र है। भ्रम का मतलब है रेगिस्तान में मृगमरीचिका के जैसे,रस्सी में साँप जैसे है। भ्रम हर एक को एक एक रूप में असर डालता है। उदाहरण के लिए एक मील पत्थर आधी रात में किसी एक को भूत-सा लगता है। लेकिन एक चोर को पकडने आये पुलिस को वहीमील पत्थर चोर-सा लगता है। एक प्रेमी को प्रेमिका के जैसे,एक प्ेमिका को प्रेमी जैसे लगत है।
उसी समय दूर से आनेवाले वाहन की रोशनी में मील पत्थर साफ-साफ दीख पडने से सबका संदेह बदल जाएगा। वैसे ही जब तक आत्मज्ञान प्राप्त नहीं होगा तब तक संदेह और दुख न मिटेगा। सभी दुखों से विमोचन होने के लिए एक ही महा औषद आत्मज्ञान मात्र है।
3952 हर एक के मन में ये प्रश्न उठते रहेंगे कि मैं कौन हूँ? मेरी उत्पत्ति कहाँ हुई? कहाँ मिट जाऊँगा? कब मरूँगा या न मरूँगा? मैं कहाँ स्थिर रहूँगा? कैसी गति होगी? कौन मुझे गतिशील बनाता है? जिनको संदेह है, उनको दो बातें जान लेना चाहिए।१. नाम रूपात्मक यह सारा ब्रह्मांड जड है। वह तीनों कालों में रहित है। २. मैं है का अनुभव बोध। वह किसी के द्वारा बिना कहे ही मैं हूँ का बोध है ही। अर्थात यह सोच नहीं सकते कि मैं का बोध जन्म हुआ है और मिट गया है। उसका जन्म और मृत्यु नहीं है। अर्थात् बोध स्वयंभू है। इस बोध से मिले बिना किसी बात को देख नहीं सकते, सुन नहीं सकते,जान नहीं सकते, भोग नहीं सकते। अर्थात् आत्मा रूपी मैं का बोध ही सब कुछ है। जो स्थिर है, उसको किसी काल में बना नहीं सकते।इसकी निज स्थिति मनुष्य ही जान सकता है,जानवर जान नहीं सकता। इसलिए जो मनुष्य के महत्व को नहीं जानता, उसको सुख और शांति किसी भी काल में नहीं मिलेंगे। निरंतर दुख ही होगा। जो दुख विमोचन चाहते हैं, मूल्य जितना भी हो,त्याग जितना भी हो करके आत्मज्ञान सीखना चाहिए। जिसको इसमें विश्वास नहीं है,वे प्रश्न करके, परस्पर चर्चा करके शास्त्रों का अध्ययन करके सद्गुरुओं से प्रश्न करके ,आज तक संसार में जन्मे सभी महानों के अनुभवओं को लेकर उनके उपदेशों पर विश्वास रखकर स्वयं अभ्यास करके अनुभव करना चाहिए। जब विश्व का उदय हुआ,उस दिन से यह सत्य प्रकट होता रहता है। जितने भी महानों का जन्म हो,
ईश्वरीय अवतार हो,शास्त्र सत्य यही है कि अमीबा से ब्रह्मा तक के सभी नाम रूप तीनों कालों में रहित ही है। केवल मैं रूपी अखंडबोध मात्र ही नित्य सत्य रूप में एक और एक रस में परमानंद रूप में स्थिर खडा रहेगा। यह सत्य है कि जो जीव ये सब नहीं करते,उनको दुख ही होगा। सुख नहीं मिलेगा।
3953. दो परिवार आपस में वादविवाद करते समय एक दूसरे को देखकर कहेगा कि मुझे और मेरे परिवार को भगवान देख लेंगे। तब वे नहीं सोचते और एहसास नहीं करते कि जो भगवान उसके परिवार को देखता है,वही सामनेवाले परिवार को भी देखेगा। उसके कारण यही है कि शारीरिक अभिमान रूपी अहंकार और उसके द्वारा होनेवाली भेद बुद्धि दोनों के हृदय के एकात्मा को छिपा देता है। सांसारिक जीवन बितानेवाले सब के सब सदा दुख का अनुभव करता है। हर एक सोचते हैं कि मेरे देखने से ही तुम्हारा जीवन चलेगा। ऐसे सोचनेवाले अहंकारियों को भी भगवान ही देखता है।इस बात को समझ लेना चाहिए कि वह भगवान हर एक जीव के दिल में वास करता है। वही भगवान सब को सक्रिय बनाकर नचाता है। जिस दिन हर एक जीव अपने को गतिशील बनानेवाली शक्ति अर्थात आत्मा अर्थात बोध को एहसास करता है उस दिन तक दुख से बाहर नहीं आ सकता। यही सब जीवों का हालत है। आज या कल इसका महसूस करना ही चाहिए।इसे जानने और समझने के लिए ही सभी जीव जाने-अनजाने यात्रा करते रहते हैं। कारण वह आनंद खोज के लिए भटकना ही है। वह जीव नहीं जानता कि वह आनंद हर जीव का स्वभाव है।
3954.मिट्टी से बुत बनानेवाले शिल्पी की आँखों में मिट्टी के बिना आकार न बनेगा। वैेसे ही आत्मज्ञानी इस संसार में जितने भी रूप रहे, सिवा आत्मा के किसी भी लोक को देख नहीं सकता। अर्थात स्वआत्मा को उसकी पूर्णता में जो साक्षात्कार करने का प्रयत्न करता है,उसको ब्रह्मांड में तजने या स्वीकार करनेे कुछ भी नहीं है।वैसे लोग ही आत्मा को पूर्ण साक्षात्कार से आत्मा के स्वभव परमानंद को अनिर्वचनीय शांति कोो अपनेे स्वभाविक निरुपाधिक रूप में स्वयं अनुभव करके आनंद का अनुभव करेगा।
3955.स्वप्न में अपनी प्रेमिका को कोई चुराकर ले जाने के दुख को न सहकर आत्महत्या की कोशिश करने की दशा में नींद खुल जाती है तो मानसिक दर्द जैसे आये,वैसे ही दर्द गए। वैसे ही इस जागृत जीवन में भी अविवेकी एहसास नहीं कर सकता। लेकिन वह स्वप्न को मिथ्या, वह जागृत को सत्य मानता है। वह एहसास नहीं कर सकता कि रात में जो स्वप्न देखा,वैसे ही जागृत अवस्था में अज्ञान रूपी निद्रा में देखनेवाले स्वप्न अनुभव ही इस जागृत अवस्था के अनुभव ही उसके कारण होते हैं। इसे विवेक से न जाननेवाले आत्मज्ञान अप्राप्त बेवकूफ़ ही दुख का अनुभव करके जीवन को व्यर्थ करते हैं। अर्थात् स्वप्न जागृति और जागृत स्वप्न दोनों ही माया दर्शन ही है। ये दोनों ही असत्य ही है।मैं रूपी अखंडबोध में ही अपनी शक्ति माया चित्त बनाकर दिखानेवाला एक इंद्रजाल ही है। यह इंद्रजाल कभी सत्य नहीं होगा। जो इसका एहसास करता है, उसको दुख नहीं होगा। जो इसका अनुभव नहीं करते उनको नित्य दुख ही होगा। दुख विमोचन का एक मात्र मार्ग आत्मज्ञान मात्र ही है।
3956. सभी मनुष्यों के दिल में ये प्रश्न उठते रहते हैं कि मैं कौन हूँ? तुम कौन हो? मैं और तुम कहाँ से आये? हमारे माता-पिता और पूर्वज कहाँ से आये? क्यों और किसके लिए आये? इन प्रश्नों के उठने के पहले ही खोज करनी चाहिए कि इन प्रश्नों के उत्तर पहले ही हमारे पूर्वजनों ने कहे हैं? किसी शास्त्रों में लिखा है क्या? क्या इसके लिए कोई वेद है? . तभी एहसास कर सकते हैं कि कई हजार वर्षों के पहले ही वेदांत कहनेवाले उपनिषदों में इन प्रश्नों के उत्तर मिलते हैं। उनसे सत्य और असत्य को जान-समझ सकते हैं। इस प्रपंच का आधार अथवा परम कारण ब्रह्म ही है। अर्थात् मैं रूपी बोध ही है। वह बोध अखंड है। जैसे एक ही बिजली अनेक बल्ब प्रकाशित हैं, वैसे ही सभी जीवों में मैं रूपी अखंड बोध एक रूप में प्रकाशित है। इसका एहसास करके दृढ बुद्धि से जीने से ही बोध के स्वभाविक परमानंद और अनिर्वचनीय शांति का अनुभव होगा। उनको भोगने में बाधक हैं संकल्प और रागद्वेष। भेद संकल्प और राग-द्वेषों को आत्मविचार के द्वारा परिवर्तन कर सकते हैं। इस परमानंद को स्वयं भोग सकते हैं।
3957. एक सगुणोपासक के दिल में देवी देव के रूप में प्रतिष्ठा करने के जैसे ही आत्मोपासक की आत्मा से ज्ञानोदय होकर तत्वज्ञान रूप लेता है। वैसे प्रकृति को उपासना करनेवालों के मन में कला, काव्य, कविता,चरित्र बनता है। अर्थात् संकल्प जैसे ही मानना है। इसलिए जीवों में विवेकी मनुष्यों को मात्र ही अपने शरीर और संसार एक लंबे स्वप्न है, वह एक गंधर्व नगर जैसे हैं, वह तीनों कालों में रहित है। यह सब जानने के ज्ञान रूपी मैं रूपी परमात्मा बने अखंडबोध मात्र ही है। यह एहसास करके जड स्वभाव के शरीर और संसार को विस्मरण करके आनंद स्वभाव आत्मा स्वयं ही है को समझकर वैसा ही बनना चाहिए। सत्य को जानने की कोशिश न करके शरीर और संसार को भूल से आत्मा सोचकर जीनेवालों को दुख ही भोगना पडेगा। सुख कभी न होगा। जो दुख के कारण ईश्वर सोचते हैं, उनको एहसास करना चाहिए कि उनके दुखों के कारण हृदय में रहे ईश्वर को सोचकर आनंद स्वरूप ईश्वर की पूजा नहीं की है। अर्थात् विश्वविद्यालयों में आत्मज्ञान सिखानेवाले वेदग्रंथ न पाठ्यक्रम में होने से ही दुखों के बुनियाद आधार है। अर्थात् शिक्षा ज्ञान में और आत्मज्ञान के लिए मुख्यत्व न देने कारण राज्य की प्रगति नष्ट होगी। यह शासकों की गलतफ़हमी है।इसलिए उनको समझना चाहिए कि लौकिक ज्ञान से होनेवाली प्रगति से अनेक गुना शक्ति कर्म प्रगति आत्मज्ञान प्राप्त करनेवालों से ही कर सकते हैं।
आत्मज्ञान जिसमें है, उनसे बनाये कर्म प्रगति में दुख का अनुभव करने पर भी उनमें जो शांति और आनंद है,वे रहेंगे ही, न बदलेंगे।
3958. भगवान की खोज करने की आत्म उपासनाएँ हैं भक्ति,ज्ञान,कर्म योग मार्ग और रूप रहित अपरिवर्तनशीलआत्म उपासनाएँ होती हैं। उनमें श्रेष्ठ आत्मोपासना ही है। आत्मोपासना करना है तो आत्मज्ञान सीखना चाहिए। बाकी सब उपासनाएँ और सत्य की खोज़ इस आत्मज्ञान को प्राप्त करने के लिए ही है। अर्थात् सभी ईश्वर खोज का अंत आत्मज्ञान ही है। वह आत्मज्ञान अपने बारे में का ज्ञान ही है। सबको गहराई से खोजने पर जो ज्ञान अध्ययन द्वारा सीखते हैं,उनसे भिन्न है स्वयं अनुभव से प्राप्त ज्ञान। स्वयं रूपी परम ज्ञान सागर में ज्ञान की लहरें,ज्ञान के बुलबुले, ज्ञान के जाग में ही यह प्रपंच स्थिर खडा है। अर्थात् परम रूपी ज्ञान के स्वभाव ही परमानंद है। परमानंद स्वभाव के साथ मिलकर मैं रूपी परम ज्ञान सागर ही अपरिच्छिन्न सच्चिदानंद स्वरूप नित्य सत्य रूप में प्रकाशित होते रहते हैं।
3959. फूल और सुगंध,सूर्य और प्रकाश कैसे अलग करके देख नहीं सकते, वैसे ही वचन और अर्थ दोनों को अलग नहीं कर सकते। अर्थात जो कोई अपने सूक्ष्म अर्थ को गौरव में लेता है, वह जिस मंत्र को जप करके देव-देवियों की उपासना करता है,उसको एहसास करना चाहिए कि उस मंत्र के जप करने के निमिष में ही, उस मंत्र की देवता उसके सामने प्रत्यक्ष दर्शन देंगे।उदाहरण श्रीं के उच्चारण करते ही उसकी देवता महालक्ष्मी उसके सामने आएगी। शिवे के कहते ही पार्वती उसके प्रत्यक्ष आएगी। महा सरस्वती के जपते ही साक्षात सरस्वती उसके सामने आएगी। वैसे ही काल जो भी हो,समय जो भी हो, भाषा जो भी हो,संकल्प जो भी हो, चींटी से देव तक जो भी हो,मंत्रोच्चारण के करते ही संकल्प की देवता जो भी हो प्रत्यक्ष देवता, उसी भाव में उपासक के सामने प्रत्यक्ष होंगे। स्थूल नेत्रों से देख न सकें तो सूक्ष्म रूप में वे आएँगे। अविवेकियों को आजीवन दुख झेलते रहने के कारण अविवेकियों को मालूम नहीं है कि देवी-देवताओं को कैसे निमंत्रण करना चाहिए। उसी समय उसे जाननेवाले भक्त ही भगवान से परस्पर मिलकर सहयोगी बनकर जीवन में श्रेयस और प्रेयस से जी सकते हैं। अर्थात् आध्यात्मिक ज्ञान, भौतिक ऐश्वर्य के साथ जी सकते हैं। लेकिन जो विशेष और विशिष्ट जीवन बसाना चाहते हैं, उनके समझ लेना चाहिए कि सभी कर्म ,सभी उपदेशों का अंत मैं रूपी निराकार एक ही एक अखंड बोध ही है।इस संसार के सभी सुख-भोगों का स्थान मैं रूपी अखंड बोध ही है। इस बोध के सिवा सभी जीवन के अनुभव स्वप्न मात्र है। इसे खूब जान-पहचानकर जिंदगी बितनेवालों को किसी भी प्रकार का दुख न होगा। उसको मालूम है कि दुख भी स्वप्न है।
3960. जो कोई सांसारिक व्यवहारिक जीवन में दुख के समय मात्र ईश्वर का स्मरण करता है, वह बाकी समय में जड विषय वस्तुओं में मन लगा देने से सुख उसके लिए एक स्वप्न के समान होता है, दुख स्मरण के समान उसके जीवन में होगा। उसी समय जो कछुए के समान संयम रहता है,वह सुखी रहेगा। कछुआ आहार खाने के लिए मात्र सिर के बाहर लाता है, बाकी समय काबू में रखता है। वैसे ही मनुष्य को अपने पूरा समय ईश्वर पर ध्यान रखना चाहिए। तब दुख स्वप्न लगेगा और सुख स्मरण होगा। लेकिन जो जन्म से ईश्वर के शब्द न सुनकर सत्य धर्म नीति न जानकर पशु जीवन बिताता है, वह अविवेकी होता है, उसको जितनी भी सुविधा हो ,उसको सिवा दुख के सुख स्वप्न में भी न मिलेगा। कारण उसके मन में जड विषय,भेद बुद्धि,राग-द्वेष ही होगा। लेकिन जन्म से ईश्वरीय धुन सुननेवाले वातावरण में पलकर घर और देश में भगवत् कार्य में सोते-जागते,खाते सदा सर्वकाल लगे रहनेवालों के जीवन में आनंद और शांति शाश्वत रहेंगे। वैसे लोग उनकी आत्मा को साक्षात्कार करते समय ही यह अनुभव पाएँगे कि वे स्वयं निराकार निश्चलन परमात्मा है,वह परमात्मा रूपी मैं है के अनुभव के अखंड बोध के सिवा और कुछ कहीं कभी नहीं है। अर्थात् अखंडबोध स्थिति पाने के साथ नाम रूप खंड प्रपंच और शरीर अखंडबोध से अन्य रूप में स्थित खडे होने स्थान न होकर जादू सा ओझल हो जाएगा। बोध मात्र नित्य सत्य परमानंद रूप में प्रकाशित होते रहेंगे।
3961. जो कोई अपने को दंड देनेवाले को पुनःदंड नहीं देता है,तभी जिसने दंड दिया है, उसको दंड देने उसको दंड देने के लिए प्रकृति को संदर्भ मिलता है। जिसने दंड दिया है,उसमें अहंकार,स्वार्थ, भेद बुद्धि और राग द्वेष होने से उसको ईश्वरीय अनुग्रह न मिलेगा।वैसे ही प्रतिशोध के मन रहित दंड जो भोग चुका है,उसमें भेद-बुद्धि रागद्वेष न होने से ,उसको ईश्वरीय आशीषें मिलेंगी। ईश्वरीय कृपा-कटाक्ष अन्य रहित है,उसी को प्रकृति मदद करेगी। जिसपर ईश्वर की कृपा नहीं रहेगी, प्रकृति उसकी मदद न करेगी। जिनपर ईश्वर की आशीषें हैं,वह स्वयं ब्रह्म ही है। ब्रह्म और ब्रह्म से भिन्न एक प्रपंच नहीं है । अर्थात् बोधाभिन्न ही जगत है। वह ईश्वर मैं रूपी अखंडबोध से भिन्न नहीं है। अर्थात् मैं रूपी अखंडबोध ही ईश्वर है। उस अखंडबोध स्थिति को साक्षात्कार करते समय ही प्रपंच अपने से अन्य रहित होगा। अर्थात् बोधाभिन्न स्थिति को साक्षात्कार कर सकते हैं।
3962. अग्नि की शक्ति को आँखों से देख नहीं सकते।उसमें एक लकडी डालकर उस अग्नि से उसे जलाने पर ही पता चलेगा कि अग्नि में जलाने की शक्ति है। वैसे ही आत्मा की शक्ति जानने के लिए आत्मज्ञान से सांसारिक रूप सब को विवेक से जानते समय आत्मज्ञानाग्नि में सांसारिक रूप छिप जाते हैं । अर्थात् आत्मा सर्वव्यापी है। निश्चलन है। यह प्रपंच कर्मचलन है। सर्वव्यापी परमात्मा निश्चलन होने से आत्मा कर्म नहीं कर सकती। उसमें कर्म हो नहीं सकता। इसीलिए आत्मा को निष्क्रिय कहते हैं। निष्क्रिय आत्मा सर्वव्यापी होने से एक चलन रूप को भी उसमें रह नहीं सकता। इसीलिए नामरूपात्मक यह कर्म प्रपंच को मिथ्या कहते हैं। अर्थात् मैं रूपी अखंड बोध में दीखनेवाले नाम रूप ही यह प्रपंच है। लेकिन बोध के अखड में नामरूप स्थिर खडा रह नहीं सकता। अर्थात् नाम रूप मिथ्या है।
3963.इस प्रपंच रहस्य को जानना है तो पहले समझना चाहिए कि भगवान एक इंद्जाल मायाजाल व्यक्ति है। जादूगर शून्य से एक वस्तु को बनाकर दिखा सकता है। लेकिन देखनेवालों को मालूम है कि वह वस्तु सत्य नहीं है। वैसे ही भगवान अपनी मांत्रिक छडी द्वारा विश्व मन लेकर जो शरीर और संसार नहीं है, उनकी सृष्टि करके दर्शाते हैं। जो शरीर और संसार नहीं है, मिथ्या है,उन्हें सत्य माननेवालों को ही भ्रम होता है। रस्सी को साँप समझना ही भ्रम है।
प्रकाश की कमी के कारण ही रस्सी साँप-सा लगता है। वैसे ही ज्ञानप्रकाश की कमी के कारण ही जीव को संसार और शरीर सत्य-सा लगता है। प्रकाश जैसे भ्रम को मिटाता है,वैसे ही आत्मज्ञान शरीर और सांसारिक भ्रम को दूर कर देता है।
इसलिए विवेकी यही पूछेंगे कि इस भ्रम को कैसे मिटाना है,यह न पूछेंगे कि यह कैसे हुआ है। जिस जीव में सत्य जानने की तीव्र इच्छा होती है, उस जीव को सत्य ही परमानंद रूप में स्थित खडा रहेगा। यही अद्वैत् सत्य है।
3964. अंधकार में संचरण करनेवाले संदेह को छोड नहीं सकते। वह प्रकाश की ओर यात्रा न करेगा तो उसको नित्य नरक को ही भोगना पडेगा। अहंकार ही अंधकार है। आत्मा ही प्रकाश है। आज न तो कल सब को प्रकाश में आना ही पडेगा।नरक एक मनःसंकल्प ही है। मन के मिटते ही नरक भी मिट जाएगा। लेकिन जो मन नहीं है उसे मिटाने के प्रयत्न में जब तक लगेंगे,तब तक मन मिटेगा नहीं। जो मन नहीं है,उसे मिटाने का प्रयत्न न करनेवाला ही सत्य का एहसास करनेवाला है। जिसने सत्य का जाना है और माना है, उसको केवल सत्य ही मालूम है। वह नित्य रूप में,अनादी से आनंद रूप में मैं रूपी आत्मा रूप में स्वयंभू स्थिर खडा रहा करता है।
3965. जो स्वयं प्रकाशित है, स्वयं आनंदित है,स्वयं शांतिपूर्ण है,स्वयं स्वतंत्र है, स्वयं परिशुद्ध है, स्वयं नित्य सत्य है, सर्वज्ञ है,सर्वव्यापी है,वह अखंडबोध परमात्मा, ब्रह्म स्वरूप स्वयंभू,शाश्वत अपने से अन्य कोई दूसरा दृश्य,किसी भी काल में, कभी नहीं होगा। इस एहसास जिसमें कोई संकल्प रहित तैलधारा के जैसे चमकता है,वही यथार्थ स्वरूप आत्मा को साक्षात कर सकता है। उसी समय अपने यथार्थ स्वरूप अखंडबोध स्थिति को एक क्षण के विस्मरण करते ही अपनी शक्ति माया मन संकल्पों को बढाना शुरु करेगा।
इसलिए वह फिर प्रपंच के रूप में बदलेगा। इसलिए जो कोई अपने निज स्वरूप मैं रूपी अखंडरूप स्थिति में बहुत ध्यान से रहता है, वह मक्खन पिघलकर घी बनने के जैसे अपरिवर्तनशील ब्रह्म स्थिति को पाएगा। वही अहंब्रह्मास्मी है।
3966. मनुष्य मन को दृश्य रूपों में ही लगाव होता है,अदृश्य सत्य पर मन न लगने के कारण यही है कि सीमित रूपों में लगे मन सीमित रूपों में ही लगेगा। असीमित निराकार सत्य आत्मा में लगनेवाला मन सत्य को स्पर्श करने के पहले ही वापस आएगा। कारण विषय वस्तुओं में मिलनेवाले सद्यःफल के जैसे निराकार ब्रह्म की ओर चलनेवाले मन को तुरंत न मिलेगा। कारण आत्मा रूपी ज्ञानाग्नि के निकट जाते समय मन को मिलनेवाले सुख के बदले मन ही नदारद हो जाएगा। इस भय से ही मन अरूप आत्मा की ओर यात्रा करना नहीं चाहता। लघु सुख काम सुख तुरंत मिलकर तुरंत मिट जाएगा। केवल वही नहीं वह स्थाई दुख देकर जाएगा। उसी समय एक बार परमानंद को भोगने पर वह नित्य स्थाई रहेगा। इसीलिए विवेकी लघु सुख त्यागकर परमानंद के लिए तप करते हैं। जो कोई उस परमानंद को अपनी आत्मा का स्वभाव मानकर महसूस करता है, तब उसका मन विषय सुखों की ओर न जाएगा। कारण उसको मालूम है कि आत्मा रूपी परमानंद को ही जीव प्रपंच की उपाधि में मिलकर लघु सुख के रूप में अनुभव करते हैं।परमानंद को उपाधि में मिलकर अनुभव करते समय वह लघु सुख है,निरूपाधिक रूप में भोगते समय उसे परमानंद कहते हैं।