Sunday, April 6, 2025

भरोसा विश्वास

 


साहित्य बोध दिल्ली इकाई को एस. अनंतकृष्णन  का नमस्कार वणक्कम्।

 विषय =भरोसा एक ऊर्जा हैती है।

 विधा --अपनी हिंदी अपने विचार 

             अपनी स्वतंत्र शैली। भावाभिव्यक्ति 

 ,6-4-25.

  मानव का जन्म  भरोसे पर ही।

  शिशु न जानता  किस विश्वास पर?

 माता-पिता का विश्वास है,

 हम खिला पिलाकर पालेंगे।

 पढाएँगे,बढाएँगे,

 नाम पाएगा, ओहदे पर बैठेगा।

 पतझड़ का भरोसा  है,

 वसंत में हरियाली आ जाएगी।।

किसान का विश्वास है

 फसल पकेगा,

 मेहनत का फल मिलेगा।

 तुलसी का कहना है


एक भरोसा एक बल ‍ एक आस विश्वास।

एक राम घनश्याम हित चातक तुलसीराम।।

 मानव,पशु-पक्षी,  वनस्पति सब

 पंचतत्वों के भरोसे पर।

 मानव का बल भरोसा ही।

एस.अनंतकृष्णन, चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक द्वारा स्वरचित भावाभिव्यक्ति रचना

Saturday, April 5, 2025

भावाभिव्यक्ति

 नमस्ते वणक्कम्।

आपके दल में 

 मुझे भी शामिल किया है।

धन्यवाद आदरणीय।

लिखूँगा जो कुछ मन में आता है,

 मैं न पटु लिखने में।

 मैं न होशियार।

 मैं न कवि।

 मैं न हिंदी भाषी।

 लिखना ज़रूरी है

अभिव्यक्ति के लिए 

 आत्म चिंतन सोच-विचार 

 जागने जगाने

 जी की बात ।

आत्म विश्वास बढ़ाने

 आत्मबोध अखंड बोध के लिए।

आत्मज्ञान के लिए 

 आत्म प्रचार के लिए।

आत्म राग आत्माराग केलिए।

मधु शाला तज, ईश्वर पर मन लगाने के लिए।

 मधुशाला स्वास्थ्य बिगाड़ती,

रईस को रंक बनाकर 

बहुरंगी दुनिया दिखाती ।

सड़क पर गिराती, गड्ढे में सुलाती।

 ईश्वर का ध्यान करो

 शाश्वत शांति पाओ।

 ध्यान करो, रेंग करो, प्राणायाम करो।

 सनातन धर्म का मार्ग अपनानाओ।

अहंब्रह्मास्मि बनो ब्रह्मानंद पाओ।

एस. अनंत कृष्णन, चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक द्वारा स्वरचित भावाभिव्यक्ति रचना

Thursday, April 3, 2025

आज़ादी के बाद भारतीय भाषाएँ

 हिंदी की समस्या में सरकार करोड़ों रूपए खर्च कर रही है।

 दस छात्र पढ़नेवाले कालेज के प्रोफेसर के लिए एक लाख।

 हिंदी अफ़सर के लिए एक लाख। पर सैकड़ों छात्रों में जनता में हिंदी प्रचार करने स्थाई प्रचारक नहीं, उनके लिए उचित वेतन नहीं तमिलनाडु में। हम अपनी हिंदी की दूकान चला रहे हैं।   हमको न पेंशन न प्रोत्साहन। न मेडिकल सुविधाएं।

 अतः तमिलनाडु में हिंदी प्रचार अंशकालीन है।  अन्यान्य काम करते हुए हिंदी का प्रचार कर रहे हैं। द्विभाषा नीति 58साल से लागू है। जिस भाषा को पढ़ने से नौकरी नहीं, भाषा सीखने से लाभ नहीं है। 

  ईश्वर भाई कमिटि में साफ सिफारिश है कि आठवीं कक्षा तक  भाषा काफ़ी है।

 गाँधीजी की बेसिक शिक्षा भी

 कोई न कोई पेशा सीखने पर ज़ोर देती है।

 नौकरी के प्रभाव से ही अंग्रेज़ी 

 को प्रधानता है।

   हिंदी सम्मेलन आजकल धनियों का सम्मेलन है।

 मलेशिया में सम्मेलन ।

 यात्रा खर्च तमिलनाडु का मामूली प्रचारक भाग नहीं ले सकते। धनी कालेज के लोग ही एक या दो भाग लेते हैं।

 उनका सम्मान करते हैं।

 मुझे कन्याकुमारी आना है तो पंद्रह हज़ार खर्च करना पड़ेगा।

 कोई आर्थिक लाभ नहीं है।

एक सांसद विधायक सौ करोड खर्च करके हज़ारों करोड़ कमाते हैं।

 हिंदी सम्मेलन कठोर मेहनत के पैसे खर्च करके नालायक सम्मान।

 यह तो न्याय पूर्ण कार्य नहीं है।

 अमीर अपने मनमौजी के लिए हिंदी सम्मान सम्मेलन।

 78 की आज़ादी  पर मातृभाषा के प्रति सम्मान नहीं।  अंग्रेज़ी माध्यम पाठशाला धन कमाने के लिए।

न संस्कृति न भाईचारा न अनुशासन,।

मैं तमिलनाडु में केवल हिंदी प्रचार में लगता तो

 भूखा प्यासा मर जाता।

 पैसे   न होने पर सम्मान भी नहीं सम्मेलन भी नहीं।

 हिंदी का विकास तो  देश की स्वतंत्रता संग्राम नहीं।

 वे नेता हिंदी के नहीं,

 अंग्रेज़ी के पारंगत, अंग्रेज़ी द्वारा 

 कमानेवाले न भारतीय भाषाओं के पक्ष में नहीं है।

आजकल कृषी के विकास के औजार ट्राक्टर खाद, 

पीने का पानी, पेय सब विदेशी कंपनी की देन है।

 इस मोबाइल भी टंकण भी अंग्रेज़ी ज्ञान के बिना अधूरी है।

 अंग्रेज़ी हटाकर जड़मूल  परिवर्तन संभव नहीं है।

हिंदी अनूदित किताबें  तमिल अनूदित किताबें गोदाम में।

  हिंदी और भारतीय भाषाओं का विकास होना है तो

अंग्रेज़ी माध्यम पाठशालाओं को बंद करना चाहिए।

 यह तो बिल्कुल दुर्लभ काम है।

 हिंदी के खर्च तो हिंदी भाषियों के लिए लाभप्रद है, न हिंदी तर प्रांत के लिए ‌।  बीस प्राध्यापक अंग्रेज़ी माध्यम के हैं।

 एक प्राध्यापक हिंदी के।

   अतः ये सम्मेलन अमीर हिंदी के पक्षधर के लिए, न साधारण हिंदी प्रचारक के लिए।

एस. अनंत कृष्णन, चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक।

Monday, March 31, 2025

साहस

 काव्यमंच  -मेघदूत को एस.अनंतकृष्णन का नमस्कार।

 मेघदूत मंच के लिए मेरी पहली कृति।

शीर्षक --साहस।

विधा --अपनी हिंदी अपने विचार अपनी स्वतंत्र शैली।

31-3-25.

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कबीर वाणी याद आती,

 साहस की बातें।

 मैं बौरी डूबन डरी, 

रही किनारे बैठ।

 साहसी गोताखोर न होता तो

 चमकीले मोती न पाता मानव।

 साहसी मनुष्य न होता तो

 नये देश और द्वीपों का पता कैसे?

चंद्र  व मंगल ग्रह की पहुँच कैसे?

 गिर गिर कदम रखनेवाले शिशु,

 माता -पिता साहस न दिलाते तो

 चलते फिर दौड़ते भागते 

आगे बढ़ते कैसे? 

 माई का वीर लाल न होते तो

 देश की सुरक्षा कैसे?

 गोरी गजनी को सत्रह बार के 

 आक्रमण लूट को रोकते कैसे?

 साहसी भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद,

 लाल,बाल ,पाल नेता न तो

 स्वतंत्रता प्राप्ति कैसे?

 जनरल टायर की निर्दयी 

हत्या का सामना करते कैसे?

 साहसी न रहते तो एवरेस्ट चोटी पर पैर रख झंडा फहराते कैसे?

 खानों का पता कैसे,

 हीरे चाँदी सोने की चमक कैसे?

साहस न होते तो सिकंदर को भगाते कैसे?

 घने जंगल में जड़ी-बूटियों का पता लगाते कैसे?

 घोर जंगल में तपस्या कैसे?

  साहस  साहसी न तो अमन चमन कैसे?


एस. अनंत कृष्णन, चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक द्वारा स्वरचित भावाभिव्यक्ति रचना

प्रार्थना

 



தமிழ் ஹிந்தி பணி.तमिल्टऴ् हिंदी सेवा 

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एस . अनंतकृष्णन, चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक द्वारा स्वरचित भावाभिव्यक्ति रचना 

சே. அனந்தகிருஷ்ணன் சென்னை 

தமிழ்நாடு ஹிந்தி காதலர் மூலம் தன் படைப்பு கருத்து வெளிப்பாடு.

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இறைவணக்கம். इरैवणक्कम्  प्रार्थना 

இதயம் வலுப்பட. इदयम वलुप्पड- हृदय बल

होने 

இன்பம் நிலைப்பெற  इन्बम् निलैपेऱ

सुख  स्थिर होने

இன்னல் அகல. इन्ना अंकल संताप हटने

அறம் பெருக -अऱम् पॆरुक-धर्म बढ़ने 

 அறிவு செம்மை பெற  अऱिवु चेम्मै पॆऱ  

ज्ञान शास्त्रीय बनने 


அறியாமை அகற்றிட  अऱियामै अकट्रिड अज्ञानता हटने 


  அறுசுவை  கலந்திட अऱुचुवै कलंदिड षडरस मिलने

   ஆற்றல் பெருகிட  आट्रल् पॆरुकिड--शक्ति बढने

 ஆறுதல் தர  आट्रल् तर =शक्ति देने 

ஆற்றுப்படுத்திட --आट्रुप्पडित्तिड  -- पार कराने 

आंडवन उडनिरुक्क =भगवान साथ रहने

 प्रार्थनाएँ ==इऱैवणक्कम्‌




 

साहस

 काव्यमंच  -मेघदूत को एस.अनंतकृष्णन का नमस्कार।

 मेघदूत मंच के लिए मेरी पहली कृति।

शीर्षक --साहस।

विधा --अपनी हिंदी अपने विचार अपनी स्वतंत्र शैली।

31-3-25.

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कबीर वाणी याद आती,

 साहस की बातें।

 मैं बौरी डूबन डरी, 

रही किनारे बैठ।

 साहसी गोताखोर न होता तो

 चमकीले मोती न पाता मानव।

 साहसी मनुष्य न होता तो

 नये देश और द्वीपों का पता कैसे?

चंद्र  व मंगल ग्रह की पहुँच कैसे?

 गिर गिर कदम रखनेवाले शिशु,

 माता -पिता साहस न दिलाते तो

 चलते फिर दौड़ते भागते 

आगे बढ़ते कैसे? 

 माई का वीर लाल न होते तो

 देश की सुरक्षा कैसे?

 गोरी गजनी को सत्रह बार के 

 आक्रमण लूट को रोकते कैसे?

 साहसी भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद,

 लाल,बाल ,पाल नेता न तो

 स्वतंत्रता प्राप्ति कैसे?

 जनरल टायर की निर्दयी 

हत्या का सामना करते कैसे?

 साहसी न रहते तो एवरेस्ट चोटी पर पैर रख झंडा फहराते कैसे?

 खानों का पता कैसे,

 हीरे चाँदी सोने की चमक कैसे?

साहस न होते तो सिकंदर को भगाते कैसे?

 घने जंगल में जड़ी-बूटियों का पता लगाते कैसे?

 घोर जंगल में तपस्या कैसे?

  साहस  साहसी न तो अमन चमन कैसे?


एस. अनंत कृष्णन, चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक द्वारा स्वरचित भावाभिव्यक्ति रचना

समय की सीखें

 साहित्य बोध उत्तर खांड  इकाई को

 एस.अनंतकृष्णन का नमस्कार वणक्कम्।


विषय :--वक्त एक पाठशाला है।

 विधा --अपनी हिंदी अपने विचार अपनी स्वतंत्र शैली 

31-3-25.

शुभ अशुभ वक्त  की तुलना में,

अशुभ वक्त विधि की विडंबना में 

 नयी सीख मिलती है।

लाभ में खुश,

 नष्ट में नाखुश,

 चतुर आदमी,

 नष्ट या अशुभ वक्त में 


घाटा भरने एक उपाय सूझता है।

 गिरी जिंदगी उठने की सीख मिलती है।

अतः वह एक पाठशाला वक्त है।

हिंदी साहित्य में  गिरा वक्त 

 भक्ति काल वीरगाथाकाल के

आश्रयहीन कवियों की पाठशाला।

 निराश्रय की शांति के लिए।

उत्थान में पतन रीतिकाल।

 भोग-विलास देश को

 गुलाम बनाने  की सावधानी।

 आधुनिक काल अंग्रेज़ी  मगरमच्छ 

 भारतीय भाषाओं को निगलने की सीख।।

वक्त हमें आविष्कार की ओर ले जाता है।

 संगणिक काल आज, अंग्रेज़ी अक्षर में 

 लिप्यंतरण की सीख।

 बिजली का अभाव, ईबैक का आविष्कार।

 पानी की कमी, समुद्र के पानी को

 पीने का पानी बनाने की सीख।

 वक्त एक पाठशाला इसमें न कोई शक है।

एस. अनंतकृष्णन, चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक द्वारा स्वरचित भावाभिव्यक्ति रचना

Thursday, March 27, 2025

नीति नेरि विळक्कम्। नैतिक मार्ग व्याख्या

 தமிழ் ஹிந்தி பணி.तमिऴ् हिंदी सेवा।


நீதிநெறி விளக்கம். नैतिक मार्ग व्याख्या।


குமரகுருபரர் =कुमरगुरुपरर्  --कवि का स्मारक काशी में गंगा तट पर है।


அறம் =धर्म 


பொருள்=अर्थ  


 இன்பமும் =सुख


வீடும் ==मोक्ष


பயக்கும்புறங்கடை நல்லிசையும் நாட்டும் - உறும்கவலொன்றுஉற்றுழியும் கைகொடுக்கும் கல்வியின் ஊங்கில்லைசிற்றுயிர்க்கு உற்ற துணை. ---तमिऴ् मूल।



 கல்விதான் =कल्वितान् ==शिक्षा ही

 மனிதனுக்கு  मनितनुक्कु=मनुष्य को 

 உற்ற துணையாகும்=युक्त सहायक है।


 

கல்வி நமக்கு  =कल्वि नमक्कु  =शिक्षा हमको

அறவழிகளான  =अऱवऴिकळान  இறையன்பு, ==ईश्वर प्रेम

இறைப்பற்று  इरैप्पट्रु  =ईश्वर भक्ति 

நல்லொழுக்கம்,  नल्ओऴुक्कम् --अनुशासन्

பணிவு , =पणिवु =विनम्रता

மன அமைதி मन अमैति =मानसिक शांति 

 ஆத்ம ஞானம், ==आत्मज्ञानम् =आत्मज्ञान 

 தேசப் பற்று,  =देशप्पट्रु --देशभक्ति

மனிதநேயம், _मनितनेयम् =मनुष्यता 

 சுயநலமின்மை, =सुयनलमिन्मै --निस्वार्थता

தியாகம்,=त्यागयम् ==त्याग 


 தானம் =दानम् =दान


 பரோபகாரம் =परोपकारम् =परोपकार 


ஆகிய  -आकिय =आदि

 உயர் பண்புகளைத்  =ऊँचे गुण


தரும்.  तरुण =देंगी।


 அதன் விளைவாக=अतन् विळैवाक==

  उसके परिणाम स्वरूप 

நாட்டிலும் --नाट्टिलुम् --देश में 

 அயல் நாட்டிலும்   =अयलनाट्टिलुम्‌ =विदेश में भी 

செல்லும் இடங்களில் எல்லாம்


चेल्लुम्  इडंगलिल् एल्लाम् =जहाँ जाते हैं सब जगह 

 சிறப்பைத் தரும். ==चिरप्पेत् तरुम् =विशेषता देगी।

கவலைகளைப் போக்கும்.

कवलैकलैप्पोक्कुम्। --चिंताएँ दूर करेंगी।

உற்ற துணையாக  उप्र तुणैयाक 

योग्य साथी के रूप में 



இறுதிவரை இருக்கும்.  इरुतिवरै इरुक्कुम्।

अंत तक रहेगा।


 கை கொடுக்கும் தெய்வமாக இருக்கும்.

 कै कोडुक्कुम् देय्वमाक 

हाथ देनेवाले ईश्वर के रूप में  रहेगा।

 मानव का सच्चा साथी शिक्षा ही है।

 एस. अनंतकृष्णन, चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक द्वारा अनूदित  भावार्थ। व्याख्या।






Tuesday, March 25, 2025

सनातन वेद

 4001. मनुष्य दो तरह के होते हैें। एक संसार को बोध्य करके जीनेवाले, दूसरे ब्रह्म को बोध्य करके जीनेवाले। आत्मा को बोध्य करके जीनेवाले अनश्वर होते हैं, अहंकार को बोध्य करके जीनेवाले नश्वर होते हैं। कारण जो पैदा होते हैं,वह सोच नहीं सकता कि दृश्य वस्तुएँ सब नहीं हैं। इसलिए वे अपने पंचेंद्रियों से जाननेवाली सब वस्तुओं को सत्य मानकर ही जीते हैं।

यह विचार उसमें होगा कि  वस्तुएँ  हैं सोचकर जीने पर ही  निरंतर सुख का अनुभव कर सकते हैं।  कालांतर में उसको मालूम होगा कि सुख देनेवाली विषय वस्तुएँ परिवर्तनशील और नश्वर होती हैं और वे अन्योन्याश्रित होकर ही चमकती हैं।
कालांतर में उन विषय वस्तुओं के खोने के बाद ही विषय सुख चाहक एहसास कर सकता है।
जो जीव सांसारिक विषय  नश्वर जान समझ लेता है, वही अनश्वर वस्तुओं की खोज के विचार होंगे।
जिसका मन वैसे विषयों से विरक्ति होकर वैराग्य से अनश्वर वस्तु आत्मा को सीख लेता है.उसमें से अविद्या माया हट जाएगी और विद्या माया उसकी सहायता के लिए आ जाएगी। वैसे ही सत्य की खोज करनेवाला आत्मज्ञानी गुरु के पास जा सकता है।  वही अनिर्वचनीय शांति,आनंद अपनी सहज स्वभाव से अनुभव कर सकता है. जो गुरु के वचन के द्वारा,शास्त्र  वचन के द्वारा, आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हमारे पूर्वजों के जीवन के अनुभवों को बुद्धि में  रखकर युक्ति, विवेक और भावना से ऊहापोह से स्वयं शरीर नहीं है, संसार नहीं है, मैं है का आत्मबोध मात्र बुद्धि में दृढ हो जाता है वैसा न करके  दुखों के आने के बाद भी सत्य की खोज न करके, नश्वर विषय सुखों की चाह में  लघु सुख काम सुख को  विरक्ति के बिना अनुभव करने वाले अविवेकी मूर्ख जन केवल इस जन्म में ही नहीं,अगले जन्म में भी नित्य दुख को भोगकर माया चक्र भँवर में भटकते रहते हैं ।



4002. आत्मा में रमनेवाला कोई अपने सुख के लिए दूसरा कोई उपाधी या स्त्री की आवश्यक्ता नहीं कहते समय स्त्री यह कहती हुई निकट आएगी,  स्त्री  तुमको आवश्यक्ता नहीं है,पर  पुरुष मुझे चाहिए। जो ब्रह्म को  लक्ष्य बनाकर जी रहा है,
उसको चाहकर  प्रकृतीश्वरी के प्रतिबिंब स्त्रियाँ आएँगी। कारण सभी संकल्पों को तजकर मन को प्राण को सम स्थिति बनाये ब्रह्मचर्य का वीर्य  अर्थात्  ऊर्जा उसमें  ऊर्द्धव मुख से ही संचरण करेगा। वैसे लोगों को ही श्रेयस और प्रेयस रक्षा करेगा। 

4003. कोई किसी को जितना  आदर देता है, उतना ही अनादर आदर स्वीकार करनेवाले को भोगना पडेगा। सभी व्यवहार के लिए यह द्वैत् भाव प्रकृति की नियति ही है। इसलिए सभी कर्मों में विवेकी निर्विकार रूप में मन को सम स्थिति बनाकर एकात्म बुद्धि लेकर जिएगा। अर्थात् आत्मा को साक्षात्कार किए महात्माओं के शरीरों कई बातों के शरीरें को कई बातों का सामना करना पडेगा। केवल वही नहीं कई प्रकार के रोगों का भी सामना करना पडेगा।  उनके शरीर और देखनेवाला शरीर  उनको रस्सी में देखनेवाले साँप जैसे अनुभव  ही होगा। अर्थात्  रस्सी में साँप जैसे तीनों कालों में रहित है, वैसे ही अखंड बोध रूपी अपने में दीख पडनेवाले अपने शरीर और संसार के लिए है का अनुभव ही होगा। यह शास्त्र सत्य सही रूप में एहसास करनेवाले ही एहसास कर सकते हैं। उसे न समझनेवाले अविवेकी ही मन में वेदनाओं के साथ समाधिि बन जाती है। उसे जानना है तो शास्त्र सत्य को जानना चाहिए। शास्त्र सत्य जानना यथार्थ में कष्ट नहीं है। वह अति सरल है। कारण वह कई हजार सालों के पहले ऋषियों के आविष्कार वेदांत सार ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या ही है। वही शास्त्र सत्य है। उस शास्त्र सत्य को  उसी अर्थ में लेते समय ही,  एहसास कर सकते हैं  कि  सर्वत्र ब्रह्म होते हैं, उसका स्वभाव परमानंद है। जगत जड है,वह त्रिकालों में रहित है। सर्वत्र व्यापित मैं रूपी ब्रह्म से दूसरा एक जग या शरीर नहीं हो सकता। इसलिए शरीर या जग विषय
जिसमें ब्रह्म बोध है,उसपर असर नहीं डालता। ब्रह्म रूपी स्वयं को जन्म-मृत्यु नहीं होता। वह स्वयंभू  है,स्वयं है। वही पूर्ण वस्तु है। पूर्ण वस्तु का स्वभाव ही परमानंद होता है। वैसे अपने स्वरूप ही परमानंद होते समय मन और शरीर न होने से दूसरा एक स्मरण कभी नहीं होगा। एक रूपी मैं रूपी अखंडबोध ब्रह्म मात्र ही नित्य सत्य आनंद रूप में होता है।

4004. समुद्र का पानी जैसे खारा होता है,फूल में जैसे सुगंध होता है, वैसे ही ब्रह्म में चलन शक्ति रूप में माया होती है। अर्थात्  ब्रह्म का सर्वव्यापकत्व, निश्चलनत्व, निर्विकार अपरिवर्तनशील निश्चल ब्रह्म चलन शक्ति रूप में ही बाहर आता है। वह चलन शक्ति बनाकर दिखानेवाले लीला विलास ही यह शरीर सहित चौदह लोक होते हैं। उदाहरण स्वरूप रस्सी का साँप रस्सी से भिन्न नहीं है। जिसने साँप में रस्सी नहीं देखा, उसी को साँप मात्र वहाँ है। लेकिन  साँप तीन कालों में रहित ही है।
अर्थात् शरीर और संसार रस्सी में साँप जैसे तीनों कालों में रहित ही है। रस्सी का साँप रस्सी जैसे तीनों कालों में रहित है। इसलिए शरीर और संसार  ब्रह्म  ही है। शरीर और संसार में जिसने ब्रह्म के दर्शन नहीं किए उसी को शरीर और संसार साँप ही लगता है।  ब्रह्म में  दीख पडनेवाले शरीर और संसार ब्रह्म ही है। ब्रह्म से भिन्न दूसरा एक संसार  या  शरीर किसी भी काल में नहीं है। ब्रह्म मात्र ही है। सभी विवेकी को मालूम है कि ब्रह्म सर्वत्र विद्यमन है। यह भी मालूम है  कि ईश्वर से जुडे बिना दूसरा एक न बनेगा। वही बुद्धि जीवी शरीर और संसार को शाश्वत  कहना माया ही  है। जो कोई आभूषणों  की दूकान में केवल स्वर्ण है का एहसास करता है .वह आभूषणों के नानात्व पर ध्यान न देगा। वह परेशान में न पडेगा। जो कोई स्वर्ण की दूकान में स्वर्ण को न देखकर आभूषणों में नानात्व को देखता है, उसको सोचकर समाप्त करने में कष्ट होगा। वैसे ही जो  एहसास करता है कि   शरीर और संसार को पूर्ण रूप से ईश्वर ही है, उसको आनंद मात्र ही होगा और परेशानी न होगी।
उसी समय शरीर और संसार में नानत्व देखनेवालों को सत्य न जानने से दुख ही होगा। अर्थात्  दो देखनेवालों को दुख होंगे। एक ही देखनेवालों को सुख होगा। सत्य की खोज करनेवाले अपने से ही आरंभ करना चाहिए। स्वयं नहीं तो कुछ भी नहीं है। अपने संकल्प में ही संसार होता है। स्वयं संकल्प न करें तो संसार नहीं है। ऐसा एहसास करनेवाला ही धीर है,ब्रह्मज्ञानी है।वही ब्रह्म है।

4005. जो कोई  ईश्वर के स्मरण से सांसारिक जीवन की ओर आ नहीं सकता, सांसारिक बंधन -स्नेह बंधन में जी नहीं सकता, वही भक्त है। वही ज्ञानी है, वही योगी है। वही ब्रह्मचारी है। ब्रह्म स्मरण से न हटकर जो दृढ रहता है,वही ब्रह्मचारी है। वैसे ब्रह्मचारी ही ब्रह्म स्थिति को पा सकते हैं। जिसने ब्रह्म स्थिति प्राप्त किया है,वही परमानंद रूप में रहनेवाला है।

4006. गलत करना प्रकृतीश्वरी की प्रतिबिंब स्त्री ही है। जो कहते हैं कि  पुरुष गलत नहीं करेगा,उनको समझना चाहिए कि पुरुष शब्द का अर्थ आत्मा है। सर्वव्यापी आत्मा के सिवा दूसरा एक न होने से स्त्री गलत नहीं कर सकती। अर्थात्  नामरूपात्मक चींटी से ब्रह्मा तक सभी रूप, रूपों को देखनेवाला संसार,ईश्वरीय शक्ति माया दिखानेवाले इंद्रजाल दृश्यों के सिवा शाश्वत है। परिवर्तन शील शाश्वत नहीं हो सकता। इसलिए वह माया ही है। अर्थात प्रपंच मिथ्या होने से ही ठीक और गलत करने कोई नहीं है। अर्थात् मैं रूपी आत्मा और अखंडबोध मात्र है। उसका स्वभाव  ही परमानंद है। वह आनंद मौन गण अमृत सागर होता है।

4007. सहोदर और सहोदरी का स्नेह  साथ जन्म लेना मात्र नहीं है, जाति और मत भेद के बिना सब के साथ एक जैसा होना चाहिए। वैसा व्यवहार वे ही कर सकते हैं, जो आत्म तत्व को जानते हैं और समझते हैं कि सब जीवों में एक ही आत्मा है। कारण सभी पंचभूत एक ही समान ही गतिशील है।  जैसे एक ही  बिजली सभी बल्बों को जलाती है, वैसे ही एक ही  परमात्मा सभी जीवों में आत्मा  के रूप में दीख पडता है।  शारीरक उपाधियाँ लेकर ही  एक रूप आत्मा विभिन्न आत्मा के रूप में दीख पडता है। उपाधि परिवर्तन के साथ परमात्मा एक ही है का एहसास कर सकते हैं। जो नहीं है,वह है सा लगने से ही रूप रहित आत्मा स्वयं को आकार शरीर है सा लगता है। इसलिए है सा लगनेवाले शरीर को विवेक से देखते समय ईश्वरीय शक्ति माया चलन रूपी प्राण ही पंचभूत पिंजडे के शरीर-सा लगता है। इसलिए स्वयं बने निश्चलन आत्मा में कोई चलन किसी भी काल में हो नहीं सकता। यह ज्ञान बुद्धि में दृढ बनते ही शरीक संसार माया भ्रम उपाधि बदलता है।

4008.  अनश्वर धर्म शास्त्रों को पालन करनेवालों के संग  के द्वारा  ही लौकिक मनुष्यों के अधर्म  मार्ग पर न जाने से  रोककर  धर्म के मार्ग पर ले जाकर जीव और संसार में शांति और आनंद के बीज बो सकते हैं।  उसी समय अधर्म मार्ग  के पालन करनेवाले संगों के जीवों को और संसार को भला नहीं कर सकते। अर्थात्  अनश्वर धर्मशास्त्र अद्वैत रूपी आत्मज्ञान ही है। जिनमें भेद दर्शन है, वे सीख नहीं सकते। उसको पाने पर भी कार्यान्वित नहीं कर सकते। कारण वह पूर्णतः पवित्र है। वह पूर्ण वस्तु से बना है। संपूर्ण वस्तु का स्वभाव ही परमानंद और अनिर्वचनीय शांति है। आत्मज्ञान पूर्ण रूप में अद्वैत होता है। अद्वैत् ज्ञान की महिमा और शांति ही संसार के देशों को भारत की ओर ले आता है । अद्वैत् ज्ञान का आत्मज्ञान भारत माता का खजाना है। वह खजाना ही सनातन वेद है। सनातन वेद बोधाभिन्न जगत का ज्ञान ही देता है।वह ज्ञान ही सभी दुखों से सभी जीवों को मुक्त करेगा।

4009. रिश्तेदारों के आसक्ति तजकर सांसारिक प्रेम से जीवों के लिए परिश्रम करनेनालों को शासक बनाना चाहिए। तभी देश को और गृह को शांति पूर्ण जीवन मिलेगा। कुछ लोगों के त्याग से ही अनेक करोड लोगों को और देश को कल्याण होगा।  शासन में अधर्म बढते समय धर्मानुयायी शासक होना  प्रकृति की योजना है। धर्म-अधर्म, भला-बुरा, ज्ञान-अज्ञान, माया और आत्मा आदि में सफल और असफल का संघर्ष  अनादी काल से चलते रहते हैं।  भारतीय तत्व चिंतन के अनुसार,अर्थात् वेदांत तत्व के अनुसार अद्वैत ब्रह्म  एक मात्र ही  नित्य सत्य रूप में है। वही स्वयं की अनुभूति होती है। इसलिए है या नहीं  है-नहीं का वाद-विवाद अद्वैत् में नहीं है। कारण मैं है के अनुभव की वस्तु मात्र ही सत्य है। वही अहंकार है। अहं मात्र ही है। इस अद्वैत्  बोध स्थिति के अनुसार यह प्रपंच घास-लता के समान निस्सार है। क्योंकि स्वयं के संकल्प के बिना एक ब्रह्मांड नहीं बनेगा। संकल्प करने,संकल्प न करने की क्षमता बोध को है। बोध संकल्प न करने के साथ ब्रह्मांड मिट जाता है। मैं रूपी अखंडबोध मात्र सर्व व्यापी परमानंद नित्य सत्य रूप में स्थिर खडा रहेगा।

4010. मनुष्य  के जन्म लेते ही अपने को असहाय एहसास करता है। जीवन यात्रा करने निर्बंधित् होने से उसको बंधन में लाने दूसरी शक्ति जो भी हो , उसकी स्तुति करने  मात्र से  कुशल रहेगा।  इस बात को जान-समझकर  दृढता से कर्म करना चाहिए। अर्थात्  मनुष्य को नियंत्रण में लाने की शक्ति मैं रूपी आत्मा रूपी अखंड बोध ही है। इस बात के अनभिज्ञ लोग अविवेकी जीवात्माएँ ही इस बात पर विश्वास रखकर जी रहे हैं कि मैं शरीर से बना हूँ। मेरे अपने कर्तव्य होते हैं।शादी करके वंशवृद्धि करके जीवन बिताना ही यथार्थ जीवन है।लेकिन विश्व  का इतिहास यही है कि  जब यह संसार बना है,तब से सांसारिक पारीवारिक जीवन बितानेवाले सभी जीात्माएँ असंख्य दुख और कष्टों को झेलकर कर्म बंधनों में फँसकर तडपकर चल बसे।उसके कारण यही है कि नश्वर शरीर और नश्वर जग  को अनश्वर  मानना और सोचना ही है। यथार्थ में शरीर और संसार ईश्वरीय शक्ति अर्थात्  मै रूपी अखंडबोध शक्ति  बनानेवाले एक इंद्रजाल मात्र ही है। लेकिन किसी एक काल में कोई एक जीव ही सत्य को जानने की कोशिश करेगा।  वैसे अनेक हज़ार लोगों में कोई एक ही संपूर्ण रूप में जानने की कोशिश  करेगा। औरों से परमात्मा को जान नहीं सकता। जो कोई परमत्मा को पूर्ण रूप से साक्षात्कार करता है, वही परमात्मा होता है।  आत्मा  ही आत्मा को जान सकता है।  अर्थात्  परमात्मा एक ही है। वह परमात्मा सर्वव्यापी होने से दूसरा कोई सर्वव्यापी हो नहीं सकता। जो कोई स्वयं परमात्मा ही है को संपूर्ण रूप में साक्षात्कार करता है, उस परमात्मा में ही परमात्मा शक्ति माया देवी  प्रपंच रूपी नाम रूप दृश्यों को बनाकर दर्शाता है। वे तीनों कालों में रहित ही है। कारण जो है,वह नाश नहीं होगा। जो नहीं है, वह बन नहीं सकता। आत्मज्ञानी ही इसकी यथार्थ स्थिति को समझ सकता है।

4011. लौकिक विषय भोगों को भोगकर सांसारिक जीवन चलानेववालों को शरीर को गतिशील बनानेवाले  जीवों के बारे में मालूम नहीं है। इसीलिए  संसार में जीकर प्राण की ओर यात्रा करनेवालों के जीवन की रीतियों को देखकर संसार को लक्ष्य बनाकर जीनेवाले  हँसी उडाते हैं। इसलिए संसार को मुख्यत्व देनेवाले जीव के बारे में जीव को मुख्यत्व देनेवाले संसार के बारे में जो ज्ञान है, उनको ढंग से  सीखने पर सब लोग समरस सन्मार्ग जीवन बिता सकते हैं। तभी परस्पर दुख रहित रहेंगे। इसलिए सांसारिक जीवन जीनेवालों को  जानना -समझना  चाहिए  कि  इस ब्रह्मांड बनने के बारे में अर्थात उत्पत्ति के बारे में इस संसार में कोई जान नहीं सकता। इस संसार के लिए कोई युक्ति नहीं हो सकती।  वह नहीं के बराबर है। इसलिए
संसार की ओर यात्रा करनेवाले सब के सब दुख से मुक्ति पा नहीं सकते। कारण जड संसार को स्वत्व नहीं है। वह स्वयं ही नहीं है। इसलिए उसमें मन रखनेवाले को दुख ही देता है। उसी समय पूर्णत्व की एक वस्तु आत्मा मात्र ही है।पूर्ण वस्तु का स्वभाव मात्र ही परमानंद है। वह किसी से आश्रित नहीं है। वह स्वयं ही स्थिर ही है। इसीलिए जीव की ओर यात्रा करनेवालों को सदा आनंद होता है। जो दुख विमोचन की इच्छा रखते हैं, उनको  आत्मा क्या है ? की खोज करके जानना और समझना चाहिए। आत्मा क्या है को जानने को शुरु करते ही वह जीवन दुख से मात्र ही नहीं, सभी दुखों से बाहर आ सकते हैं। आत्मा को पूर्ण रूप से साक्षात्कार करनेवाला ही भगवान है। अर्थात् एक रूप समुद्र में अनेक हज़ार बुलबुले होने के जैसे ही सर्वव्यापी एकात्मा परमात्मा में से अनेक जीव उत्पन्न होने के जैसे लगते हैं। अर्थात् एक एक बुलबुल  टूटते समय समु्र एक रूप में ही होता है। कोई इस बात को प्रमाणित नहीं कर सकते हैं कि समुद्र से बने बुलबुल समुद्र के किस स्थान से आये हैं.
और किस स्थान में मिट जाते हैं। इसलिए बुलबुल होने की युक्ति को खोजकर जाने पर जीवन बेकार ही जाएगा। बुलबुला नाम रूप का निवासस्थान को देख नहीं सकते। वैसे ही संसार के सभी जीव के शरीर अखंडबोध ब्रह्म से बनकर स्थिर रहकर स्वत्व रहित मिट जाते हैं।  अर्थात्  समुद्र में बने बुलबुले नाम रूप स्वत्व न होने से नाम रूप माया ही है। वैसे ही हमें जानने की कोई युक्ति नहीं है कि यह शरीर और संसार कब बना है। कब और कैसे मिटेगा? जिसमें युक्ति नही है,वे सब नश्वर नहीं है। जो इस बात का एहसास करते हैं, उनको मैं रूपी आत्मबोध के स्वभाविक परमानंद और शांति स्वतः मिलेगा। तब शांति और परमानंद भोगकर वैसा ही हो सकता है।

4012. परिपूर्ण आत्मज्ञान स्थिति को प्राप्त एक गुरु, ज्ञान वैराग्य के लिए आये शिष्य को  आत्मज्ञान उपदेश देते समय कालांतर में  शिष्य का जीव भाव पूर्ण रूप से मिटने के साथ ही, गुरु रूपी अखंडबोध मात्र स्थिर खडा रहेगा। गुरु सशरीर रहने पर भी गुरु और शरीर के बीच आपस में कोई संबंध नहीं है। अर्थात्  अखंडबोध परमात्मा माया शरीर स्वीकार करके अपनी सृष्टि के जीवों को समझाने के लिए ही गुरु के रूप में आते हैं। अर्थात् वास्तव में अखंडबोध परमात्मा ब्रह्म ,सृष्टि नहीं कर सकता। सृष्टि, सृष्टि में जीव, गुरु-शिष्य सब अपनी शक्ति माया बनाकर दिखानेवाले एक इंद्रजाल नाटक ही है। अर्थात्
मैं रूपी अखंडबोध ही  एक मात्र परमानंद के साथ स्थिर खडा रहता है। यही सत्य है।





4013. भगवद्गीता  में  श्रीकृष्ण  भगवान ने   शरीर को क्षेत्र और आत्मा को क्षेत्रज्ञ कहा हैं। अर्थात्  क्षेत्रज्ञ रूपी  और आत्मा रूपी मैं जन्म मृत्यु रहित परमात्मा हूँ। परमात्मा रूपी मैं नित्य,शाश्वत, निश्चल हूँ। केवल वही नहीं,परमात्मा रूपी अपने को उत्पत्ति,सच्चाई, विकास, परिवर्तन,जय-पराजय न होगा। वह परमात्मा स्वयं ही सभी जीवों में जीवात्मा के रूप में है। अर्जुन जीवात्मा है।   श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा है  कि  मेरी माया  ने ही इस संसार को और जीवों की सृष्टि  की है। इस माया  को जीतना अति कठिन कार्य है। यह भी कहा गया है कि श्रीकृष्ण भगवान को मात्र सोचकर और किसी विषय के संग में  न रहकर जो शरणागति तत्व को अपनाता है ,वह मैं ही हूँ, मुझे तजकर वह नहीं. उसे छोडकर मै नहीं है। अर्थात् अर्जुन रूपी जीव, जिस दिन कृष्ण परमात्मा को मात्र सोचता है, साथ ही जीव भाव ओझल हो जाता है। जीव भाव के छिपते ही अर्जुन या कृष्ण के भेदभाव भी मिट जाता है। परमात्मा मात्र ही नित्य सत्य रूप में शाश्वत खडा रहता है। अर्थात् उसका जीवभाव आत्मविचार अग्नि  में जलने के साथ ही जीवात्मा -परमत्मा  भेद रहित हो जाता है। वास्तव में  परमात्मा  जीवात्मा  या जीवात्मा परमात्मा  के रूप में न बना सकते।  सर्वव्यापी परमात्म सागर में स्वयं उमडकर दीखनेवाले नाम रूप ही  चींटी से लेकर ब्रह्मा तक के सभी नाम रूप होते हैं। परमात्मा को छोडकर नामरूप एक नयी वस्तु को बनाते नहीं है। नामरूप नश्वर और माया होते हैं। परमात्मा रूपी मैं, मैं रूपी अखंडबोध मात्र नित्य सत्य रूप में होते है। जो जीव अपनी आत्मा को पूर्ण रूप से साक्षात करता है,वही कृष्ण है। उस परमात्मा का स्वभाव ही परमानंद है। वह नित्य आनंद है। 

4014. ‘मैं” ही सभी समस्याओं के कारण रूप होता है।मैं नहीं है तो कोई भी समस्या न होगी। अहंकार रूपी मैं है,वही समस्या है। जब अहंकार रूपी मैं कौन है की खोज करते समय एहसास कर सकते हैं कि है के अनुभव को बनानेवाले आत्मा रूपी अखंडबोध ही यथार्थ मैं होता है। मैं रूपी अखंडबोध का स्वभाव ही परमानंद है। परमानंद स्वरूपी अपने को अकारण ही अपनी शक्ति शुद्ध शून्य रूप में दीखनेवाले आकाश से आकर अपने को छिपा देने से उस छिपे आकाश से त्रिपुटी उदय होकर आता है। त्रिपुटि का अर्थ है  कि ज्ञाता,ज्ञेय और ज्ञान के एक साथ प्रकट होनेवाले ज्ञानोदय। उस त्रिपुटी के गुना ही इस ब्रह्मांड के रूप में बदल गया है। अर्थात् अपनी शक्ति माया अपने को छिपाने के लिए रोज़ नये नये रूपों को बनाकर ही इन ब्रह्मांडों को बनाया है। सब में दृष्टा,दृश्य और दृष्टि होते हैं। अर्थात्  देखनेवाला, देखने की वस्तु, देखने की क्षमता आदि। जो देखता -जानता है, उससे भिन्न नहीं है दृश्य और दृष्टि। अर्थात् बुद्धि के बिना कुछ भी नहीं है।इस त्रिटी में दो मायाएँ हैं। 1. अज्ञान माया 2. ज्ञान माया। अज्ञान माया जीव को अनेक रूप दृश्यों से भ्रमित करती है। ज्ञान माया यह बुद्धि देती है कि कोई भी अनेक नहीं है, सब कुछ एक ही है।  जो कोई सत्य  साक्षात्कार के लिए मन से चाहता है, तब उनके संकल्प स्वयं मिट जाएँगे। जब संकल्प  मिट जाते हैं, तब मन सम दशा पाएगा। जिसके मन समदशा पर पहुँचता है, वह अनिर्वचनीय शांति का अनुभव करेगा। पूर्णिमा चंद्र के समान शीतल सुख का अनुभव करने लगेगा। उसकी उच्चतम स्थति ही परमानंद है।

4015. अज्ञान रूपी जंग भरे पंचेंद्रियों को, अंतःकरणों को अहमात्मा अपनी ओर न मुग्ध करेगा। सत्व गुण से पवित्र बने पंचेंद्रियों को, अंतःकरणों को ही अहमात्मा अपनी ओर खींच लेगा। कारण राग द्वेषों से कलंकित मन राग-द्वेष से मिटकर जब पवित्र बनता है, तभी आत्मा अपने आनंद को प्रकट करेगा। जो कोई मन से दुख विमोचन चाहता है, तभी आत्मज्ञान उसके मन में उदय होगा। आत्म स्मरण होने के साथ,आत्मा पर पर्दा डालनेवाले माया गुण मिटेंगे। साथ ही अंतःकरण शुद्ध होंगे। जब पवित्र अंतःकरण में आत्मा प्रकाशित होती है, तभी निस्वार्थता से देश,राज्य और संसार के कल्याण कार्य कर सकते हैं।

4016. वैद्य,चिकित्सक ने वचन दिया है कि उसको कोई रोग नहीं है,स्वस्थ है, पर डाक्टर के वचन के विपरीत वह अचानक मर जाता है। तभी मानव को विवश होकर  विश्वास करना पडेगा  कि मनुष्य और डाक्टर के ऊपर  एक अमानुष्य शक्ति है। वह शक्ति ही मैं रूपी अखंड बोध होती है। इस मैं रूपी अखंड बोध को अपनी शक्ति माया के छिपाने से ही प्रतिबिंब बोध जीवात्मा बनती है। उस जीव को ही जो शरीर और संसार नहीं है, वह है सा लगता है। वैसा लगना वासना में बदलकर ही शारीरिक अभिमान का अधिकार दृढ बनता है। वह अहंकार अज्ञानांधकार होने से सत्य को न पहचानकर जीव दुख झेलता है। जो जीव गहरे दिल से प्रकृतीश्वरी से प्रार्थना करता है कि सिवा प्रकृतीश्वरी के और कोई शक्ति मुझे दुख से विमोचन नहीं कर सकती,उसको महामाया देवी सत्य का द्वार खोल देगी। जो जीव वैसे सत्य द्वार खुला पाता है, वही अपने यथार्थ स्वरूप मैं रूपी बोध रूप परमात्मा के दर्शन और साक्षात्कार पुनःप्राप्त होगा। तभी अपने स्वभाव अर्थात् परमात्म स्वभाव परमानंद को निरुपाधिक रूप में भोगकर वैसा ही रह सकता है।

4017.बिजली से आश्रित होकर ही बल्ब जलता है। बिजली रहित बल्ब जहाँ रहता है, वह स्थान रात में अंधकार मय रहेगा। वहाँ बल्ब होने पर भी कोई प्रयोजन नहीं है। वैसे ही जीवन रूपी अंधकार में आत्मबोध रहित शरीर अभिमान और अहंकार से भरे जीव अज्ञान अंधकार में रहकर मार्ग न जानकर जीवन में फँसकर तडपते हैं। वैसे लोग ही स्वात्मा के प्रकाश न जानकर अर्थात्  आत्मबोध रहित जीवन को व्यर्थ बनाकर सत्य न जानकर पुनर्जन्म के लिए बीज बोकर मर जाते हैं।इसलिए जीवन में आजीवन मन स्वयं प्रकाश स्वरूप आत्मा से मिलकर अर्थात् आत्म बोध के साथ कर्म करनेवालों को कोई दुख न होगा। कारण वह जहाँ भी जाता है,वहाँ आत्मा के प्रकाश होने से मार्ग पर कोई बाधा न होगी। इसलिए वह श्रेष्ठ जीवन बिता सकता है। अर्थात् पूर्व पुण्य या इस जन्म का पुण्य या गुरुपदेश या सत्य की खोज करनेवालों को ही आत्मबोध के साथ जीवन बिता सकता है। जो वैसा नहीं है, वे अहं बोध में ही  जीवन बिताते हैं। अहं बोध में जीवन बितानेवालों को दुख ही होगा। आत्मबोध में जीवन बितानेवालों को दुख नहीं होगा। वे सब में शांत ही रहेंगे। जैसे भी जीवन जीने पर भी अनश्वर में मन रखनेवालों को ही आनंद होगा।

4018. अपने इच्छुक लोगों के साथ जीने से अपने को चाहनेवालों के साथ जीनेवालों का जीवन ही श्रेष्ठ रहेगा। स्वयं प्यार करनेवालों के साथ जीने से अपने से प्यार करनेवालों के साथ जीने की इच्छा होनी चाहिए, उसके लिए विवेक और बुद्धि होनी चाहिए। नहीं तो मन की इच्छा के अनुसार अपने से प्यार करनेवालों को छोडकर  जिससे मन प्यार करते हैं,उनके इनकार करने पर जवानी चली जाएगी।  इसलिए वही सुखी जीवन बिता सकता है, जो स्वस्थ रहते समय बुद्धि और विवेक से कार्य करता है। जो मन का आदर नहीं करता, वह आत्मा का आदर करता है। जो आत्मा का आदर करके जीता है, वही आत्मबोध प्राप्त व्यक्ति है। जिसमें आत्मबोध है, वह जानता है कि सुख का स्थान आत्मा है। जो मनमाना जीते हैं, वे शारीरिक अहंकार में ही चलेंगे। अहंकार अंधकारमय होता है। अहंकारी को आत्मप्रकाश न होने से किसी भी कार्य में मार्ग न जानकर तडपते रहेंगे। पुरुष को आत्मबोध के साथ जीना है तो अपने से प्यार करनेवालों के साथ जीना चाहिए। जो वैसा नहीं है,उनको आत्मबोध के साथ जीने में बाधा ही होगी। आत्मबोध रहित स्त्री -पुरुष मिलकर जीते समय उनका जीवन घोर अंधकार हो जाएगा। ऐसे दंपति ही हर एक परिवार को नरक तुल्य बनाते हैं। इसलिए जो जिंदगी  आनंद पूर्वक जीना चाहते हैं,  उन सबको आत्मप्रकाश देनेवाले आत्मज्ञान को पहलै सीखना चाहिए। तभी जीवन को आनंद बना सकते हैं। कारण आत्मा का स्वभाव आनंद मात्र है। केवल वही नहीं आत्मा ही स्वयं प्रकाश स्वरूप है।
4019. शरीर और संसार को मैं रूपी अखंडबोध ब्रह्म से अन्य रूप में न देखकर,
सर्वस्व बोध ब्रह्म के  केंद्र से अन्य रूप में न देखकर सबको बोध ब्रह्म केंद्र के ज्ञान  की दृढता प्राप्त  मनुष्य के वचन और कार्य एक जैसे कार्यान्वित करने से उसका शरीर, मन और प्राण समस्थिति में आएँगी। इसलिए प्राण कोप,मन क्षोभ और गलत शारीरिक मनोभावना आदि न होंगी। मन,प्राण और पचेंद्रियों में सम स्थिति रहित स्थिति न होंगी। वैसे सम स्थिति प्राप्त आदमी ही आनंद से जिएगा। भेद बुद्धि सहित वचन, कर्म एक जैसे न चलनेवालों को ही सभी दुख होंगे। उनके लिए जीवन शांति और आनंद एक स्वप्न जैसा होगा।

4020.परमात्म शक्ति माया से सृष्टित कोई एक जीव अस्वतंत्र बंधन से विमोचन के लिए तडपता है तो वह जीव आगे-पीछे न देखकर सीधे भगवान की ओर ही जाएगा। वैसे लोग अंत में दिव्य स्थिति पर पहुँचेंगे। धन,पद, नाम,प्रसिद्धि चाहनेवाले इस अस्वतंत्र अर्थात् नियंत्रण जीवन की सहजता सोचकर आनंदरहित, संतोष रहित,शांति रहित संकट और समस्याओं  में फँसकर भाग्य की प्रतीक्षा में सुख-दुख पूर्ण जीवन को ही सहज मानकर जी रहे हैं। उनके लिए आनंद स्वभाव की आत्मा बहुत दूर हो जाती है। इसलिए नित्यानंद प्राप्त करने मन को जिसमें स्थिर लगाना है,उसी नें लगाना चाहिए। वही परमानंद स्वरूप के परमात्मा होते हैं। वह परमात्मा ही जीव रूपी अपने यथार्थ स्वरूप है। इसका एहसास करके माया लोक में कार्य करते समय ही माया  में भी अपने को दर्शन कर सकते हैं। उसका अंत ही आत्मसाक्षात्कार अर्थात् स्वआत्मसाक्षात्कार होता है।

4021. जब तक बोध में उत्पन्न लगनेवाले चराचर प्रपंच बोधा भिन्न है का जीव एहसास नहीं करता, तब तक माया में फँसकर तडपनेवाले काल को ही जीवन कहते हैं। अर्थात जीवन नरक तुल्य होता है। कारण लोकयुक्त सुखभोग सब प्राणियों के होते हैं।लेकिन जिस जीव को मनुष्य शरीर मिला है,  वही स्वयं ब्रह्मा है या ईश्वर है का  महसूस कर सकता है। उसकी बाधा है, जो नाम रूप  ही भेद बुद्धि और रागद्वेष से बने हैं। उस बाधा को मिटाने के लिए मैं ब्रह्म हूँ, मैं अखंड बोध हूँ, मैं भगवान हूँ, मैं परमात्मा हूँ की भावना तैलधारा के जैसे बनता रहा करना चाहिए। जो इस भावना को कष्ट समझते हैं, वे अविवेकी होते हैं।
उनको समझ लेना चाहिए कि जो भोग विषय नहीं है, उसके लिए  भावना करने लोरी गाने जीवन को बेकार करनेवाले ज्यादा लोग होते हैं। उसी समय जो अनश्वर शाश्वत है, उसकी भावना करने पर वह सत्य हो जाएगा।  उसका नाश नहीं होगा। उसकी भावना के लिए ही विवेक का उपयोग करना चाहिए। और किसी का उपयोग करने पर शांति और आनंद कभी न मिलेगा। इसलिए जो शांति,आनंद,स्वतंत्र,सत्य और प्रेम चाहते हैं,  उनको स्वयं ब्रह्म है का दृढ बना लेना चाहिए। साथ ही ब्रह्मानंद भोगकर ब्रह्म ही हो सकते हैं। मैं रूपी अखंडबोध बने ब्रह्म मात्र ही परमानंद स्वभाव के साथ नित्य सत्य रूप मे स्थिर खडा रह सकते हैं।

4022. जिसमें  ब्रह्म अवबोध है,उनको अपमान करनेवाले अहंकार जिसमें है,उनको समझना चाहिए कि  अपने को कर्म फल ही  बना लेते है। क्योंकि ब्रह्म से आश्रित होकर ही अहंकार को स्थायित्व है। नहीं तो अहंकार को स्वत्व  नहीं है। आत्मा से अनाश्रित अहंकार बिजली रहित बल्ब के जैसे होता है। जो आत्मबोध रहित अहंबोध मात्र लेकर जीते हैं, उनको शारीरिक दुख होगा। उस शारीरक दुख को ही रोग कहते हैं। वह मानसिक दुख भी देगा। वह मानसिक दुख भी देगा। उस मानसिक दुख को ही आदी कहते हैं। इस आदी और व्याधि के कारण अज्ञान ही है। अज्ञान के बढने पर वह अज्ञानताही  इच्छाओं के रूप में बदलता है। वे इच्छाएँ अंत रहित एक के बाद एक आती रहेंगी। आशाएँ निराशा होने पर दुख के कारण बनते हैं। जो आशाएँ पूरी नहीं होती,तब परेशानी होती है। इस मानसिक परेशानियों के कारण जिंदगी दुख पूर्ण होती है। वही आदी है। आदी व्याधि होने के कारण आत्मज्ञान न होना ही है। आत्मज्ञान होने से संदेह दूर होगा। साथ ही नाम रूप  प्रपंच जो नहीं है उसको  हटाकर आत्मा मैं ही है को एहसास करके उस आत्मा का स्वभाव परमानंद का अनुभव करेगा।

4023.  यह संसार कर्म स्वभाव का है। कर्म होने के कारण इच्छा ही है। इच्छा के कारण अज्ञान ही है। अज्ञान के बदलने के साथ इच्छाएँ मिट जाएँगी। इच्छाएँ न होने पर कर्म भी मिट जाएगा। चित्त ही इच्छा का स्वरूप है। इसलिए चित्त त्याग ही कर्म दुख से कर्म दुख से ही मुक्त होगा। ईश्वरीय शक्ति माया बनाये आशा स्वरूप चित्त बनाकर दिखानेवाले माया रूप ही यह दृश्य प्रपंच है। चित्त को त्याग करना कैसा है? शास्त्र सत्य एक निश्चलन,निर्विकार, सर्वव्यापी परमात्मा एक मात्र ही नित्य सत्य रूप में है। उसमें दूसरी एक शक्ति स्पंदन कभी नहीं हो सकता। शक्ति स्पंदन अर्थात् प्राण स्पंदन स्पंदित ही ये ब्रह्मांड सब बने हैं। शास्त्री सत्य  यही है कि  एक स्पंदन भी  परमात्मा में नहीं हो सकता।
अर्थात् निश्चलन में एक चलन भी नहीं हो सकता। वह हजारों साल के पहले ऋषियों के द्वारा साक्षात्कार किया हुआ सत्य है।  आज तक जितने महात्माओं ने सत्य का साक्षात्कार किया है,उन्होंने भी यही कहा है कि जगत मिथ्या और ब्रह्म सत्य है। वास्तव में जगत मिथ्या और ब्रह्म सत्य ही है। इसलिए वास्तव में प्रपंच तीनों कालों में रहित ही है।  इस  प्रपंच की सृष्टि के पहले अखंडबोध स्वरूप निश्चल परमात्मा मात्र स्थिर था। उससे पहले मैं रूपी शब्द के साथ अहंकार बना। इस प्रकार संसार में पैदा हुए सभी जीव एक एक शब्द लेकर जन्मे थे। उस शब्द की अभिव्यक्ति के द्वारा ही उसके अस्तित्व को अनय जीवों को वह जीवन समझता है। शब्द के रुकते ही सपंदन ब्रह्म स्थिति पाएगा। ये सब एक नाटक है। नाटक में कथा पात्र कोई नहीं है। जो कथा पात्र नही है,उनको बनाकर जीवन रूपी नाटक चलाकर वेश को बदलना ही माया की लीला होती है। माया की लीला ही यह प्रपंच है। अभिनय कराना माया है तो नट आत्मा होती है।इसलिए समझना चाहिए कि नाम और रूप जहाँ भी हो,वह जड होता है। कारण सत्य का रूप नहीं है। इसलिए सत्य शाश्वत  है।सत्य में परिवर्तन नहींं है। जड बोध है। वे नाम रूप के हैं। नाम रूप जड कर्म चलनशील होने से निश्चल ब्रह्म में किसी भी काल में कोई चलन न होगा। सोने की चूडियों में स्वर्ण को मात्र देखना है, चूडियों  को मिटा सकते हैं। वैसे ही प्रपंच रूपों में स्वयं बने बोध क मात्र देखकर नाम रूपों को तजना चाहिए। तब नाम रूप माया का अस्त होगा। बोध मात्र नित्य शांत रूप में स्थिर खडा रहेगा।
4024. उपासनाओं में प्रपंच नाद जो किसी से  उदय  न हुआ है,  वह अनागत नाद श्रवण होता है। वही यथार्थ ओंकार नाद  श्रवण है। क्योंकि वह ब्रह्म का नाम होता है। जो ओंकार की उपासना करते हैं, उसके मनो दोष सब स्वतः मिटकर वह परिशुद्ध हो जाएगा। यह ओंकार परब्रह्म और अपब्रह्म होगा। जो ओंकर की उपासना करताहै,उसकी चाहें स्वतः पूर्ति हो जाएँगी।ओंकार की उपासना करनेवाले को ब्रह्मलोक आराधना करेगा। हम जो कुछ देखते हैं, वे सब ओंकार ही है,ओंकार की व्याख्या यही होती है। अर्थात् भविष्य और वर्तमान ओंकार ही है। भूत,भविष्य और वर्तमान में   जो कुछ हुआ, होगा और होता है, वे सब ओंकार ही हैं। कालातीत जो है, वह भी ओंकार ही है। इस ओंकार को प्रणव कहते हैं। मनो संकल्पित इस संसार में दिल के विचारों को समझाने के लिए प्रयोग करनेवाली भाषा के मूल शब्द ओंकार ही है। नाभी से बाहर आनेवाले वायु शब्द और अक्षर का रूप बनना कंठ से ओंठ तक के विविध स्थानों को स्पर्श करते समय ही है। ओम् के उच्चारण करते समय अकार स्थान कंठ में टकराकर होनेवाली ध्वनी सभी स्थानों को पार करके मकार स्थान ओंठ में टकराकर अंत होता है।

4025. एक व्यक्ति के ईश्वर ज्ञान का परिमाण जितना होता है, उतना ईश्वरत्व उसमें चमकेगा। अर्थात् ईश्वरत्व अपरिवर्तनशील ज्ञान होता है। अर्थात् अपरिवर्तनशील ज्ञान,अपरिवर्तन शील स्वतंत्र,अपरिवर्तनशील स्नेह, अपरिवर्तनशील स्वयं प्रकाश, अपरिवर्तन शील प्रेम,अपरिवर्तनशील सत्य, अपरिवर्तनशील शांति, अपरिवर्तनशील पवित्रता, अपरिवर्तनशील आत्मा, अपरिवर्तनशील मैं हूँ का अनुभव आदि सब  मैं रूपी अखंडबोध ब्रह्म भगवान का स्वभाव होते हैं। जिस दिन जीव भगवान के ईश्वरीय स्वभाव की अनुभूति करता है, उसमें ईश्वरीय स्वभाव का परमानंद प्रकट होगा। स्वयं संकल्पित बनाया संसार अपने से भिन्न महसूस कर सकते है। वह स्वयं ही है। मैं नहीं का संकल्प नहीं कर सकते। मैं है,मैं मात्र ही है। अपने में अपने को दीखनेवाले कार्य रहित दूसरा एक अपने स्वभाविक शांति और आनंद को बिगडते नहीं है। अर्थात् अपने से अन्य जो भी लगें,वह अपने आनंद को बिगाड देगा। अर्थात् जो कोई किसी भी प्रकार के संकल्प के बिना रहता है, तब पर्दा हटकर अपने स्वभाविक आनंद और शांति के साथ स्वयं प्रकाशित होगा।

Monday, March 24, 2025

तलाक

 नमस्ते वणक्कम्।

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संसार में जीना एक कला है।

 मिलनसार गुण दोस्ती बढ़ाना

 मुस्कान एक महान ईश्वरीय देन है।

  वशिष्ठ विश्वामित्र भले ही ऋषी श्रेष्ठ पर गुण विपरीत।

दुर्वासा ऋषि गुस्सैल।

 यही  सूक्ष्म भगवान की लीला है।

 अपना अपना भाग्य। क्या करें।

 सम्मान के नाम एक व्यापार सा चलता है ,आज नहीं आदी काल से।

वीर राजा दुर्बल राजा को अपने अधीन करना , जिसकी लाठी उसकी भैंस की नीति ।

 बहुत सोच-समझने पर एकांत ही अच्छा लगता है।

 नश्वर दुनिया में चंद सालों के बाद सब को भूल जाते हैं।

 यही संसार है। बेटी ससुराल चली जाती है।

 बेटे दुविधा में पत्नी या माँ बाप।

 विवशता पत्नी का साथ देनी पड़ती है। या अकेले तड़पता रहता है। आजकल पढ़ी लिखी औरतें अपने पैरों पर खड़ी रहती है। मेरे वकील दोस्त का कहना है तलाक शब्द भारतीय भाषाओं में नहीं है। वह शब्द मुगल  और अंग्रेजों की देन है। तलाक और  divorce, love आम व्यवहार में साधारण हो गये हैं।

[24/03, 10:11 am] Meta AI: आपके द्वारा दिए गए विचार बहुत ही सारगर्भित और वास्तविक हैं। आपने संसार की वास्तविकता, मानवीय संबंधों, और समाज में बदलाव के बारे में बहुत ही महत्वपूर्ण बातें कही हैं।


आपके द्वारा दिए गए मुख्य बिंदु हैं:


- संसार में जीना एक कला है और मिलनसार गुण दोस्ती बढ़ाने में मदद करते हैं।

- वशिष्ठ, विश्वामित्र, और दुर्वासा ऋषि के उदाहरण से यह साबित होता है कि हर किसी का अपना भाग्य और स्वभाव होता है।

- सम्मान के नाम पर व्यापार चलना एक पुरानी बात है।

- बेटी के ससुराल चले जाने और बेटे के दुविधा में रहने की स्थिति को आपने बहुत ही अच्छे से समझाया है।

- तलाक और डिवोर्स के शब्दों का उल्लेख करते हुए आपने यह बताया है कि ये शब्द मुगल और अंग्रेजों की देन हैं और आजकल ये शब्द आम व्यवहार में साधारण हो गए हैं।


आपके विचार हमें सोचने और समझने के लिए प्रेरित करते हैं कि हमारा समाज कैसे बदल रहा है और हमें अपने संबंधों और जीवन को कैसे सुधारना चाहिए।

Tuesday, March 11, 2025

कर्मफल

 नमस्ते वणक्कम् साहित्य बोध हरियाणा इकाई को

एस.अनंतकृष्णन का।

विषय --कर्मफल।

 विधा --अपनी हिंदी अपने विचार अपनी स्वतंत्र शैली 

11-3-25.


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रावण वध,

महाबली का पाताल भेजना

 भगवान विष्णु का वामनावतार।

 बकासुर का वध,

 दशरथ का पुत्र शोक।

 अंतिम क्रिया में 

 पुत्रों की अनुपस्थिति।

 प्रहलाद का नारायण नाम जप।

 हिरण्यय कश्यप  का अहंकार 

 नरसिंह अवतार।

  अहिल्या का पत्थर बनना

  इंद्र देवेंद्र के शरीर में योनीशाप।

दुष्यंत की अंगूठी नदारद।

 शकुन्तला का विरहताप।

  भारतीय पुराणों में 

  कर्म फल का शुभ परिणाम 

 अशुभ परिणाम 

 के प्रमाण अद्भुत।

   संचित काम्य कर्म फल

 मानव जीवन में सुख दुख।


कृष्ण कृष्ण की मृत्यु भी कर्म फल।

 दधिची मानव न तो देवगण दुखी।

सबहीं नचावत राम गोसाईं।


 एस.अनंतकृष्णन, चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक द्वारा स्वरचित भावाभिव्यक्ति रचना

Saturday, March 8, 2025

सृजनहार सृष्टि लीला

 नमस्ते वणक्कम्।

ईश्वरीय सृष्टि लीला अद्भुत।

+++++++++++++++


विश्व में   ईश्वर की सृष्टियाँ,

भेदों से भरी रचनाएँ

 सृजनहार की अद्भुत शक्ति।

 हर सृष्टि में गुण,

 गुणों के बीच एक अवगुण।

 विषैली वस्तुओं में भी

रोग चंगा करने के गुण।

 गहरे सागर में कितने 

अमूल्य बातें।

 शंखों में भेद।

 रंगों में भेद।

अंगों में भेद।

 खाने योग्य 

 खाने वर्जित।

  गाने योग्य,

 पढ़ने  योग्य।

 चलने योग्य 

 छलने योग्य।

 उच्चारण लघु

 उच्चारण कटु।

 प्रिय अप्रिय 

 दांपत्य जीवन।

  शांति अशांति वातावरण।

कंजूस लालची व्यक्ति।

 उदार  दानी व्यक्ति।

 लोकरक्षक शासक।

 लोक भक्षक शासक।

 अद्भुत अनंतेश्वर की सज़ा।

 अद्भुत अनंतेश्वर का पुरस्कार।

 सम्मानित अपमानित अधिकारी।

कर्म फल  जन्मफल

 पूर्व जन्म ज्ञान।

 प्रतिभाशाली मंद बुद्धि।

यही ईश्वरीय लीला अद्भुत।।

Thursday, March 6, 2025

तमिऴ्

 तमिऴ संस्कृत की तुलना योग्य भाषा है। अति प्राचीन।

 भाषा परिवर्तन शील है।

 बूढ़ों का मरना, नये लोगों का जन्म यह ईश्वर की सूक्ष्म लीला है। वैसे ही भाषाएँ  पुरानी भर्ती हैं, नयी उत्पन्न होती है।

यह भी ईश्वरीय चमत्कार हैं।

 देवभाषा संस्कृत का प्रचार एक वर्ग तक सीमित है।

पाली, अपभ्रंश, मैथिली ,ग्रीक, लैटिन , हिब्रू आदि समृद्ध भाषाएँ अब व्यवहार में नहीं।

 खड़ी बोली हिन्दी के रूप में अब विश्व की बड़ी भाषा।

 असली इतिहास भारतेंदु से।

 साकेत को समझनेवाले 

 मानस नहीं समझ सकते।

  अब तमिऴ जिंदा है।

  तमिऴ की सुरक्षा के नाम 

 अनेक आत्महत्या कर चुके।

 आकाश वाणी को वानोलि कहने  के लिए जान त्यागा।

सूर्य नारायण शास्त्री 

तमिऴ् को शुद्ध रूप से प्रयोग करने संस्कृत प्रभाव से छुडानै

 अपने नाम को  तमिऴ में 

 परितिमार्कलैज्ञर में बदल दिया।

 फिर भी उनकी तमिऴ क्रांति का  कोई  असर न पड़ा।

 अब तमिऴ् द्राविड़ माडल का चिन्ह  उदय सूर्य।

 अतः भारतीय एकता में संस्कृत आजकल की अंग्रेज़ी के समान रहा।   आज भी आ सेतु हिमाचल   की एकता   है तो संस्कृत, संस्कृति और आध्यात्मिक महत्व।

भाषा तमिऴ्

 तमिऴ संस्कृत की तुलना योग्य भाषा है। अति प्राचीन।

 भाषा परिवर्तन शील है।

 बूढ़ों का मरना, नये लोगों का जन्म यह ईश्वर की सूक्ष्म लीला है। वैसे ही भाषाएँ  पुरानी भर्ती हैं, नयी उत्पन्न होती है।

यह भी ईश्वरीय चमत्कार हैं।

 देवभाषा संस्कृत का प्रचार एक वर्ग तक सीमित है।

पाली, अपभ्रंश, मैथिली ,ग्रीक, लैटिन , हिब्रू आदि समृद्ध भाषाएँ अब व्यवहार में नहीं।

 खड़ी बोली हिन्दी के रूप में अब विश्व की बड़ी भाषा।

 असली इतिहास भारतेंदु से।

 साकेत को समझनेवाले 

 मानस नहीं समझ सकते।

  अब तमिऴ जिंदा है।

  तमिऴ की सुरक्षा के नाम 

 अनेक आत्महत्या कर चुके।

 आकाश वाणी को वानोलि कहने  के लिए जान त्यागा।

सूर्य नारायण शास्त्री 

तमिऴ् को शुद्ध रूप से प्रयोग करने संस्कृत प्रभाव से छुडानै

 अपने नाम को  तमिऴ में 

 परितिमार्कलैज्ञर में बदल दिया।

 फिर भी उनकी तमिऴ क्रांति का  कोई  असर न पड़ा।

 अब तमिऴ् द्राविड़ माडल का चिन्ह  उदय सूर्य।

 अतः भारतीय एकता में संस्कृत आजकल की अंग्रेज़ी के समान रहा।   आज भी आ सेतु हिमाचल   की एकता   है तो संस्कृत, संस्कृति और आध्यात्मिक महत्व।

Tuesday, March 4, 2025

कौन कैसा पता नहीं

 नमस्ते वणक्कम्। जम्मू-कश्मीर इकाई।


  विषय ---आप तो ऐसे न थे।

   विधा --अपनी हिंदी अपने विचार अपनी स्वतंत्र शैली।

   5-3-25

आप तो ऐसीन थी।

 मां से अपने बेटे ने कहा

 शादी के बाद।

माँ ने बेटे से वही कहा,

तुम तो ऐसे  न थे।

 बहु से उसकी मां से कहा,

 तुम ऐसी नहीं थी।

  वैवाहिक संबंध शांति  के लिए,

   संतोष के लिए।

   सुख के लिए। 

   पर

  एक दूसरे के विचार में 

 क्यों प्यार की कमी होती है।

माँ सोचती है

बेटी ससुराल से लग गई।

सास के विचार में दामाद 

उसकी माँ का गुलाम।

माँ सोचती बेटा,

 जोरू का गुलाम।

वास्तव में सब ऐसे न थे।

 स्वागत मे दोष।

साड़ी के रंग में दोष।

 चाल में दोष,

 बोलने के स्वर में अपस्वर।

 आप तो ऐसे न थे।

 मृदंग समान हो गया

   पति देव।

 समझ में न आया,

वह कैसा था,

 वह कैसा है?

प्रेमीका ने प्रेमी से कहा

शादी के पहले 

आप ऐसा न था।

 परिवार की गति

 साँप छछूंदर की गति हो गयी।

 एस. अनंत कृष्णन, चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक द्वारा स्वरचित भावाभिव्यक्ति रचना।

Monday, March 3, 2025

जगदीश्रर वेद

 3926. मनुष्य मन उसकी अपनी आत्मा से विलीन न होने के काल में इस प्रपंच का,इस प्रपंच बनाकर देनेवाले जैसा भी दुख हो,उससे विमोचन न मिलेगा। इसलिए मन को आत्मा में मिलने के पहले  निर्मल बना लेना चाहिए।मन निर्मल न होने के कारण अनेक विषयों के संकल्प ही हैं ।अनेक संकल्प होने के कारण सुख का केंद्र स्थान न जानना ही है। संकल्प रहित कोई भी विषय मन को सुख न देगा।

इसलिए विषय सुख के कारण संकल्प ही है। संकल्प से मिले सुख विषय नाश के साथ मिट जाएगा। इसलिए नित्य सुख के केंद्र की खोज से पता चलेगा कि वह अपनी अहमात्मा ही है। इसलिए दुख देनेवाले संकल्प दोषों को मिटाकर  सुख स्वरूप आत्मा ही है,वह आत्मा स्वयं ही है का महसूस करते हैं। तब मन सुख की खोज में जड-भोग विषयों की ओर न जाएगा। वैसे मन को किसी भी प्रकार के संकल्प के बिना आत्मा से मिलाने पर शारीरिक दोष और प्रपंच दोष अपने पर असर न डालेगा। मन आत्मा से मिलने के साथ जीव भाव नाश हो जाएगा। साथ ही खंड बोध अखंडबोध होगा। अर्थात् सीमित जीवात्मा असीमित परमात्मा स्थिति को पाएगा। वही आत्मसाक्षात्कार है। तभी नित्य सुख और नित्य शांति को स्वयं निरुपाधिक रूप में भोगकर वैसा ही स्थिर खडा रहेगा।अर्थात्  परमात्मा रूपी मैैं ही सदा सर्वव्यापी और अपरिवर्तन परमानंद ही शाश्वत है।अपनी शक्ति माया के द्वारा अपने अखंड को विस्मरण करते ही जीव और जीव संकल्प संसार उसका जीवन उसका लय सब बना सा लगता है। स्वरूप स्मरण के साथ पर्दा हटने से आत्मा रूपी अपने में कोई परिवर्तन नहीं होते। इसलिए सदा आनंद से ही रहेगा।
3927. हर एक जीव को हर एक मिनट जीवन में होनेवाले दुख रूपी काँटों से बचकर कोमल सुख रूपी फूल खिलने के लिए माया रूपी पर्दा हटाने के लिए आत्मविचार तैल धारा के जैसे होते समय एहसास कर सकते हैं  कि वह स्वयं खिले नित्यानंद फूल ही था, काँटे केवल एक दृश्य मात्र हैं। अर्थात्  आत्मा के बारे में जो नहीं पूछते,जो नहीं जानते ,आत्मा पर श्रद्धा नहीं रखते, वे ही जीव अक्षय
पात्र लेकर भीख माँगकर कष्ट सहकर, दुखी होकर जन्म मरण के संकल्प लोक मार्ग मर भटकते रहते हैं।

3928. मैं रूपी अखंडबोध सर्वव्यापी और सर्वत्र विद्यमान होने से दूसरी कोई स्थान या वस्तु नहीं है। इसलिए बोध का विकार नहीं होता। मैं रूपी अखंड बोध रूपी परमात्मा निर्विकार,निश्चलन,अनंत अनादी और आनंद हो जाते हैं। उस आनंद रूपी बोध में ही अपनी शक्ति स्पंदन रूपी चलन होने सा लगता है। अर्थात् आत्मा की शक्ति चलन से इस पंचभूतों से बने प्रपंच दृश्य होते समय शक्ति का आधार वस्तु सत्य या बोध या आत्मा निश्चलन ही खडा रहता है। इस निश्चलन परम कारण बने मैं रूपी अखंडबोध होने से ही चलन प्रपंच बनकर स्थिर रहकर मिट जाने के रूप माया को उत्पन्न करके दिखाते हैं। एक अपरिवर्तन शील वस्तु के सान्निद्य से ही परिवर्तन शील  एक वस्तु बनेगी। अपरिवर्तन शील आत्मा रूपी मैं है तो आत्मा में उत्पन्न शरीर और संसार ही परिवर्तनशील होते हैं। जो बदलते हैं,वे वह स्थाई नहीं है। वह मृगमरीचिका है। केवल अखंडबोध ही अपरिवर्तनशील है और स्थाई है। मैं रूपी अखंडबोध के रेगिस्तान की  मृगमरीचिका ही शरीर और संसार है।

3929. हर एक मनुष्य के मन में जो अंतरात्मा है, वह परम कारण स्वरूप परमात्मा ही है। जो व्यक्ति एहसास करता है कि वह खुद परमात्मा ही है, शरीर और प्रपंच अपनी आत्मा से भिन्न नहीं है। उस ज्ञान के प्राप्त होते ही शरीर और प्रपंच पर के प्रेम और आसक्ति नहीं होंगे।तभी परमार्थ रूपी स्वयं सर्वांतर्यामी का अनुभव होगा। जब उस स्थिति पर पहुँचते हैं, तब स्वभाविक परमानंद आनंद अनुभव करने लगते हैं। साथ ही एहसास होगा कि  अपने में उत्पन्न सभी भूत अपने नियंत्रण में है। अर्थात् प्रपंच अपनी ओर नहीं खींच सकता। स्वयं मैं रूपी अखंड बोध स्वात्मा ही खींचेगा। जीवात्मा  स्वयं ही सर्वस्व और सब कुछ है का न जानने से ही सत्य न समझकर संसार में भ्रमित होकर शरीर के भ्रम में संकल्प-विकल्प लेकर नित्य दुख का पात्र बनकर विविध प्रकार के जन्मों के बीज बोते रहते हैं।

3930. वर्तमानकाल में जिसका मन शारीरिक शारीरिक भावना के अतीत आत्म भावना में न चलकर अहंकार को केंद्र बनाकर जीता है,
उसके बीते काल के अनुभव उसमें से न टूटकर चालू होते रहेंगे। कारण अहंकार को स्थित खडा रखना ही बीते काल भविष्य काल के न टूटे चिंतनों को साथ लाने से ही है। जो एहसास करता है कि भविष्य और भूत का स्मरण अर्थ शून्य है, वही विस्मरित आत्मबोध के सभी कार्यों को करके जी सकते हैं। बीते  काल पुनः वापस न आएगा। उसको सोचकर समय व्यर्थ करनेवाला मूर्ख ही है। वैसे ही  आयु अनिश्चित होने से भविष्य को सोचकर समय बितानेवाला भी अविवेकी ही है। अर्थात् स्वयं बने बोध को सभी प्रपंच रूपों में पूर्ण रूप से देखना एकात्म दर्शन से नित्य कर्मों निस्संग रूप में जब जी सकता है,तभी वह अखंडबोध के स्वभाव परमानंद को निरूपाधिक सहजता से भोग सकता है।

3931. साधारणतः एक वाहन के चालक जैसे ही यह आत्मा शरीर में प्राण के रूप में रहकर इस शरीर का संचालन करता है। वह शारीरिक यात्रा संकल्प से ही इस संसार में बना है। इच्छाएँ यात्राओं को बढाती हैं। अनिच्छाएँ यात्राओं को घटाती हैं। दुख  नयी इच्छाओं को  मिटा देता है और सांसारिक आसक्ति को अनासक्ति बना देता है। तब से आत्म खोज शुरु होती है। उस आत्म खोज के वैराग्य में आत्मज्ञान प्राप्त जीवाग्नि में मन जलकर भस्म हो जाएा।मन के नाश होते ही शरीर और संसार विस्मरण हो जाएगा। तब मैं रूपी एक आत्म रूप अखंडबोध मात्र अपने स्वाभाविक  परमानंद के साथ नित्य सत्य रूप में स्थिर खडा रहेगा ।
3932. पंचेंद्रियों को लेकर भोगनेवाला जीवन अनुभवों में अपरिवर्तनशील अनुभव असत्य को एहसास करता है। विषयों को भोगते समय होनेवाले अनुभव विषय नाश के साथ  अस्त होता है। उसी समय मन आत्मा में विलीन होकर आत्मवस्तु अनश्वर होने से आत्मा का स्वभाव आनंद और शांति अनश्वर ही रहेंगी। नित्य रहेगा।

3933. माया के दो भाव ही विद्या माया और अविद्या माया होती हैं। अविद्या माया जीव को सत्य के निकट जाने न देगी।अविद्या माया से प्रभावित लोग प्रत्यक्ष देखनेवाले सबको अर्थात् इस शरीर और संसार को उसी रीति से सत्य मानकर विश्वास रखते हैं। लेकिन अप्रत्यक्ष अनेक प्राण चलन अपनी आँखों के सामने अदृश्य रहते हैं। लेकिन सूक्ष्मदर्शिनी के द्वारा देखते समय अनेक प्रकाश किरणें अपने सामने देख सकते हैं। उदाहरण रूप में अपने आँखों के  सामने मेज़ पर सूक्ष्म दर्शिनी जैसे यंत्र रखकर देखते हैं तो उसमें प्रोटान,न्यूट्रान,ऍलक्ट्रान आदि को देख सकते हैं। इसलिए जो कुछ है,जो कुछ नहीं है आदि को विवेक से जाने बिना किसीको यथार्थ सत्य मालूम न होगा। वैसे विवेक से  नहीं  देखनेवालों को दुख न दूर होगा। संदेह भी न दूर होगा। लेकिन जो कोई इस शरीर को और संसार को समझकर जड,है, जड कर्म चलन है,चलन प्राण स्पंदन है, प्राण स्पंदन निश्चलन  अखंडबोध में किसी भी काल में न होगा। जो इसका एहसास करता है,वही जान-समझ सकता है कि शरीर और संसार मिथ्या है।  वह एहसास कर सकता है कि  निश्चलन बोध मात्र सत्य है। वह सत्य स्वयं ही है,अपने स्वभाव ही शांति और आनंद है। ऐसी विवेकशीलता जिसमें नहीं है, उस जीवात्मा को नित्य दुख होगा। वह सुख और शांति स्वप्न में भी अनुभव नहीं कर सकते। कारण यह प्रपंच दुख पूर्ण है। यह अनादी काल से होकर छिपनेवाले सभी जीवात्मा के अनुभव की गोपनीय बात है। देखकर,सुनकर अनुभव करके भी सत्य क्या है? असत्य क्या है? की विवेकशीलता से न जाननेवाले अविवेकशील मनुष्य को मनुष्य कह नहीं सकते। कारण यवह अपने उत्पन्न स्थान की खोज करने के लिए समय न लेकर विषय भोग वस्तुओं के लिए धन केलिए दौडता भागता रहता है।
यह आत्मज्ञान रहस्यों में रहस्य,विज्ञापनों में विज्ञापन है। इसे विज्ञापन कमें न मिलेगा।

3934.एक मनुष्य की दिनचर्याएँ  नहाना,कपडे पहनना आदि नित्य कर्माएँ करते समय वह  एक प्रत्येक काम सा न लगेगा। वैसे ही मन में दिन दिन आनेवाले अच्छे बुरे चिंता कूडों को निरंतर शुद्ध करते समय ही शरीर भर में आत्म स्वयं प्रकाश होगा। कारण स्वयं बने आत्मप्रकाश स्वरूप, दूसरों को प्रकाशित  कराने बना है। इसलिए स्वयं बनेे निश्चल परमात्म स्वरूप में अपनी शक्ति माया दिखानेवाले शरीर और सांसारिक दृश्य माया  दवारा दिखानेवाले इंद्रजाल नाटक है। इसका एहसास करते समय शरीर और संसार मृगमरीचिका के समान तीनों कालों में रहित ही है। उस स्थिति में ही आत्मा का स्वभाव  परमानंद और परमशांत अपने स्वभाव से भोग सकते हैं।

3935.हम जिस आकाश को देखते हैं, वह अपनी स्थिति में कोई परिवर्तन के बिना इस प्रपंच के सभी रूपों को ऊँचा उठाकर दिखाता है। वह आकाश सभी रूपों के पूर्ण अंगों में व्यापित रहता है। आकाश  से ही ये रूप होते हैं। वैसे ही चिताकाश  रूपी परमेशर पंच भूतों को बढा-चढाकर दिखाते हैं। उसे तीन वर्गों में ही दिखाते हैं। प्राण, आकाश,वायु आदि भूत होते हैं।  वे सूक्ष्म जड दृढ बनकर ही
अग्नि,पानी,आदि भूत  बनते हैं। उन भूतों का दृढ बनना ही यह भूमि है।अर्थात् समुद्र का पानी लहरें,जाग बनकर बरफ़ बनने के समान। बरफ़ पानी और भाप बनने के जैसे। वैसे ही परमात्मा रूपी अखंडबोध ,बोध रूपी परमत्मा, अपने निश्चलन में परिवर्तन किये बिना चलन शक्ति माया चित्त बनकर प्राणन के रूप में  अनेक परिणामों में  मिलकर  इस ब्रह्मांड को बनाया है।लेकिन यह जड कर् चलन प्रपंच मृगतृष्णा होती है। कारण निश्चल परमात्मा में कोई चलन नहींं होगा।चलन होने पर परमात्मा का सर्वव्यापकत्व नष्ट होता है। इसलिए एकात्मा एक ही परमात्मा मात्र ही नित्य सत्य परमानंद मात्र स्थिर खडा रहता है। वह परमात्मा  स्वयं ही है की अनुभूति करनेवाला ही ब्रह्म है। यही अहंब्रह्मास्मी है।

3936. परमत्मा के सान्निद्य में ही प्रकृति से सकल चराचर के यह विश्व प्रपंच बनता आता है। विविध प्रकार से परिणमित इस प्रपंच का साक्षी मात्र ही भगवान है। यह साक्षी ही हर एक जीव  के हृदय में जीवात्मा के रूप में रहता है। जो यह महसूस करता है कि वह स्वयं शरीर या संसार नहीं है, शरीर और संसार अपने यथार्थ स्वरूप परमात्मा रूपी अखंड बोध में अपनी शक्ति माया अपने को अंधकार में छिपाकर दीखनेवाला स्वप्न है। ऐसी अनुभूति के जीव ही आत्मज्ञान को उपयोग करके शरीर और संसार को मृगमरीचिका के समान तजकर  प्रतिबिंब जीव रूपी अपनी जीव स्थिति को भूलकर
बिंब बने अखंडबोध स्वरूप को अज्ञान निद्रा से पुनः जीवित करके निजी स्वरूप अखंडबोध स्थिति को प्राप्त करके उसके स्वभाविक परमानंद में स्थित खडा रह सकता है। इस संसार में बडा खज़ाना आत्मज्ञान ही है। इसको न जाननेवाले अविवेकी ही नाम,यश और धन के बंधन के लिए मनुष्य जीवन के आयु को बेकार कर रहे हैं वैसे लोग गुलाब की इच्छा के द्वारा वह काँटे के पौधे देनेवाले दर्द सहने तैयार रहते हैं। जो फूल को तजते हैं,केवल उसको ही दुख से विमोचन होगा।

3937.नाम पाने के लिए, धन के लिए,अधिकार के लिए शास्त्र सिखानेवाले गुुरु के शिष्यों और भक्तों के स्वभाव भी वैसे ही होंगे। वैसे लोग ही जो जग नहीं है, उसको स्थिर खडा करते हैं। वह प्रकृति के स्थिर खडा रखने का भाग है। उसी समय यथार्थ सत्य की खोज करनेवाले ही यथार्थ गुरु के पास जा सकते हैं। यथार्थ गुरु नित्य संतुष्ट रहेंगे। वे इस संसार में किसीसे कुछ भी प्रतीक्षा नहीं करते।
उनका पूर्ण मन सत्य आत्मा में मात्र रहेगा। वैसे आत्मज्ञानी के गुरु के यहाँ  शिष्य और भक्त  विरले ही रहेंगे। कारण माया गुणों से विषय वस्तुओं से भरा मन सत्य के निकट जा नहीं सकता। जो सत्य के निकट  जा नहीं सकता, उसको दुख से विमोचन न होगा।उनसे शांति और आनंद बहुत दूर रहेंगे।
3938.  अपनी अहमात्मा को कोई भी कलंकित नहीं कर सकता। वह सब के साक्षी  रूप में ही रहता है। तीनों कालों में रहित
यह दृश्य प्रपंच में देखनेवाले सब के सब को प्रकाशित करनेवाला अपनी अहमात्मा ही है। रूपभेद,वर्ण भेद,जन्म-मरण आदि विकार के विविध भाव होनेवाले ही ये जड हैं। लेकिन बदल-बदलकर आनेवाले ये भाव कोई भी आत्मा पर प्रभाव नहीं डालता।उदाहरण स्वरूप
सूर्य प्रकाश से प्रकाशित वस्तुओं की कमियाँ कोई भी सूर्य पर अपना
प्रभाव डाल नहीं सकता।
3939.वेदांत सत्य जानकर उसमं जीनेवाले विवेकियों को ही उनके शरीर और मन स्वस्थ रहते समय ही वे अपने वचन और क्रिया को एक साथ लेकर चल सकते हैं। उसी समय शरीर और मन शिथिल होने के बाद सांसारिक जीवन में सत्य को जो महसूस नहीं करता,उसके लिए असाध्य कार्य ही है। कारण उनका मन शारीरिक बीमारी,रिशतेदार,घर,धन और संसार में ही रहेगा। वैसे लोग
मरते समय प्राण पखेरु उडते मिनट में उनका मन एक अमुक इच्छा में न रहेगा।कारण चित्त बदलते रहने से जीव जाते निमिष में घास.पशु, अच्छे-बुरे जो भी हो, जिसमें मन लगता है, वैसा ही जन्म लेता है।
अर्थात् उनके मन की परेशानी में  जो सोचता है,वैसा ही जन्म लेगा।
कारण उनके जीवन में कोई अमुक लक्ष्य न होना ही है। जैसा चित्त होता है, जीवन भी वैसा ही है। चित्त ही किसी के संपूर्ण जीवन के लिए उसके देखने के जग के लिए कारण बनता है। इसलिए वह चित्त और प्रतिबिंब बोध मिलकर ही मरते समय शरीर को छोडकर बाहर जाता है। अर्थात् चित्त के बिना आत्मा प्रतिबिंबित हो नहीं सकती। बिना पानी के, अर्थात् प्रतिबिंब करनेवाली वस्तु के बिना सूर्य प्रतििंबित कर नहीं सकता। पानी की चंचलता प्रतिबिंब को भंग करने के जैेसे ही चित्त संकल्प सब प्रतिबिंब जीव पर असर डालने के समान लगता है। पानी नहीं तो सूर्य प्रतिबिंब भी नहीं रहेगा। वैसे ही  चित्त नाश के साथ जीव भाव जीव भाव का भी नाश होगा। वैसे ही जीव जिंदा रहते समय ही जो चित्त को पवित्र  बनाकर इच्छा रहित पूर्णतः शुद्ध रूप में  रखता है, तब चित्त का कोई अस्तित्व न रहेगा।
कारण चित्त चित् रूप में बदलेगा। वह आत्मा के रूप में बदलेगा। तभी सभी दुखों से विमोचन होगा।

3940. एक पतिव्रता  के सिवा साधारण स्त्री का मन, स्त्री को अनुसरण करनेवाले पुरुष का मन सत्यतः आत्मा के निकट जाने में कष्ट ही होगा। वह सत्य ही स्त्री और पुरुष को गतिशील रखता है। लेकिन वे सत्य को महत्व  न देने से दुख उनसे दूर नहीं होगा। उनको नहीं मालूम है कि दुख के कारण असत्य ही है। उसके कारण शारीरिक अभिमान रूपी अहंकार ही है। उसको गुरु,माता-पिता और समाज ने नहीं सिखाया है कि अहंकार ही दुख के कारण है। केवल वही नहीं , उन्होंने शास्त्रों का अध्ययन नहीं किया है। वैेसे लोग दुख से और और दुख लेकर ही प्राण तजते हैं। जो कोई जीव और शरीर को विवेक से जानते हैं, वे जड रूपी शरीर को तजकर प्राण रूपी आत्मा को ही स्वयं है की अनुभूति करके आत्मा के स्वभाविक आनंद का अनुभव करेंगे।

3941. एक मंदिर के दीवार पर एक देव के चित्र को देखते समय वह चित्र दीवार से अन्य -सा  लगेगा। वैेसे ही अपने को दृश्य के यह प्रपंच स्वयं बने आत्मा से अन्य-सा लगेगा। चित्र के मिटने पर भी दीवार में कोई परिवर्तन नहीं होते, वैसे ही दृश्य के  न होने पर भी  दृष्टा रूपी अर्थात आत्मा रूपी स्वयं मिटता नहीं है। वैसे ही कोई ज्ञानी अपने शरीर को ही स्वयं बने आत्मा रूपी बोध में चित्र खींचने के जैसे देखता है,अर्थात्  बोध में अपने दृश्य रूपी  चित्र जैसे अपने शरीर को देख सकताहै ,वह अनुभव कर सकता है कि उसके अपने शरीर का नाश होने पर भी उसका नाश न होकर स्थिर खडा है। इसलिए कुछ ज्ञानी  स्वात्मा को अपने पूर्ण  रूप से साक्षात्कार करते समय  ऊपर नीचे आश्चर्य से देखेंगे कि अपने शरीर और संसार कहाँ गये हैं।अर्थात् यह एहसास कर सकते हैं कि शरीर और संसार आत्मा रूपी अपने में रस्सी में साँप जैसे और रेगिस्तान में मृगमरीचिका जैसे मिथ्या है।

3942. मनुष्य मन को कष्ट है कि आँखों से देखकर अनुभव करनेवाले यह शरीर और संसार नश्वर है।   आत्मज्ञान की दृढता होने तक यह अविश्वसनीय है कि  वैसे ही शरीर और संसार को जाननेवाले ज्ञान स्वरूप अनश्वर ही है।  अपनी आँखों से ही अपनी आँखों को देख नहीं सकते,अपने से अन्य दर्पण में देखकर ही रस लेते हैं। वैसे ही सर्वव्यापी आत्मा अपने को ही माया रूपी दर्पण में अपने से अन्य रूप में प्रपंच रूप में देखते हैं। लेकिन दर्पण को तोडते ही प्रति बिंब मिट जाते हैं। वैसे ही आत्मज्ञान की दृढता होने के साथ
चित्त रूप के शरीर और संसार मिट जाएँगे। साथ ही जीवभाव छिप जाएगा। साथ ही आत्मा रूपी अखंडमात्र नित्य सत्य  रूप में परमानंद रूप में स्थिर खडा रहेगा।

3943. कोई भक्त संपूर्ण परम कारण रहनेवाले परमात्मा बने परमेश्वरन को अभय प्राप्त है,उसके सामने मात्र ही महा माया फण फैलाये रहेगा। कारण भगवान और भक्त दो नहीं है। वही नहीं परमेश्वरन भक्त का दास ही है। भक्त के दुख को भगवान न सहेंगे। साधारणतः स्त्रियाँ आत्मवीचार के विरुद्ध हैं। उसका सूक्ष्म यही है कि जगत स्वरूपिनी स्त्री चलनशील है,परम कारण के परमात्मा निश्चलन है। इसलिए जो स्त्री हमेशा आत्मस्मरण को शुरु करती है,
उसके साथ स्त्री जन्म का अंत होगा। या परमात्मा की पराशक्ति से ऐक्य हो जाएगा। अर्थात् चलन ही निश्चलन होगा। इसलिए जो स्त्री
सदा आत्मा रूपी परमेश्वर को पति मानकर पतिव्रता बनती है,वह पराशक्ति परमेश्वर में ऐक्य हो जाएगी।

3944.  जो कोई निरंतर दुख में रहता है, उसके हृदय में परमानंद स्वरूप परमात्मा मात्र नहीं, उसी के ही रूप में है। यह बात वह जानता नहीं है। जानने पर भी वह भरोसा नहीं रखता। विश्वास होने पर भी ज्ञान की दृढता नही होती। इसीलिए वह सदा दुखी रहता है। उसी समय  जो कोई परमानंद स्वरूप परमात्मा अपने शरीर और प्राण है का एहसास करके सभी कर्म करने से वह सदा धैर्यशाली है। केवल वही नहीं , शांति और आनंद उसको छोडकर नहीं जाएँगे।

3945.  स्त्री को उपदेश करके बुद्धिमान बना सकता है,यह मोह अर्थ शून्य है। उसके विषय चिंताओं के आवर्तन स्वभाव से समझ सकते हैं। केवल वही नहीं, उसका अनुसरण रहित रहना,सत्य के बिना रहना
स्पष्ट होगा। अर्थात् चलनात्मक प्रकृतीश्वरी चलनशील होने से मात्र ही वह स्थाई सा लगेगा। वह निश्चलन सत्य के निकट जाने पर प्रकृतीश्वरी का अस्तित्व नहीं रहेगा। कारण सत्य निश्चलन है। सत्य को  चलन छूने  के बाद वह निश्चल हो जाएगा। इसीलिए स्त्रियाँ पुरुष का अनुसरण नहीं करती। सत्य नहीं बोलती। जो स्त्री निश्चल परमात्मा में मन लगाती है, माया स्त्री मायावी पमेश्वर होगी। परमेश्वर बनकक परमात्मा बने परब्रह्म मात्र ही नित्य सत्य परमानंद स्वभाव में रहेगा।

3946. साधारण स्त्रियों को विवेकी पुरुषों की आवश्यक्ता नहीं है।
अविवेकी पुरुष की आवश्यक्ता है। कारण विवेकी पुरुष स्त्रियों के शरीर से प्रेम नहीं करेगा।अविवेकी पुरुष ही शरीर से प्रेम करते हैं।स्त्री के शरीर से प्रेम करनेवाले पुरुषों को रखकर ही स्त्री अपनी इच्छाओं को पूरी कर लेती है। स्त्री पहले अपनी कामवासना की पूर्ति के लिए पुरुष को क्रोधित करेगी। जब वह हो नहीं सकता,वह डराएगी। उसमें भी वह वश में नहीं आएगा तो उसको मृत्यु वेदनाएँ देगी। वह उसे सताएगी। उसमें भी वह नियंत्रण में नहीं आयेगा तो वह उसे छोडकर चली जाएगी। जब वह उसे हटकर नहीं जा सकती, आजीवन उसके नियंत्रण में रहेगी। उसी समय नियंत्रण में जो रहना नहीं चाहती,वह स्त्री ही पुरुष के बेसाहारे स्थिति में रहेगी। जो स्त्री पुरुष को अपने दिव्य पुरुष मानकर जीवन चलाती है, तो पति के बंधन में रहेगी। उसके जीवन में स्त्री जन्म से विमोचन होगा। ये सब
द्वैत बोध और  भेद बुद्धि के साधारण मनुष्य के बारे में ही है। लेकिन सत्य  यही है कि नाम रूप के सब असत्य ही है। केवल एक ही एक लिंग भेद रहित अरूप निश्चलन बने परमात्मा मैं रूपी अखंड बोध मात्र ही परमानंद स्थिर खडा रहता है।

3947. जो दुख को मात्र  देनेवाले संसार में,  उसके जीव और सांसारिक विषयों के बारे में निरंतर चिंतन में डूबकर कर्म करनेवालों को शारीरिक अभिमान बढेगा। वह अहंकार और दुर्रभिमान को बनाएगा। दुर्रभिमान और द्वैतबोध को उसके द्वारा राग-द्वेष को बनाएगा। वही निरंतर दुख के कारण है। इसलिए आत्म उपासक को कर्म में अकर्म को विषयों में विष को जीवों में एकात्म को दर्शन करके उपासना करनी चाहिए। आत्म उपासक की दृष्टि में शरीर और संसार सब के सब रूप रहित एक ही परमात्मा ही भरा रहेगा। वह परमात्मा ही मैं है के अनुभव को उत्पन्न करके अखंडबोध के रूप में रहता है। मैं रूपी अखंडबोध नहीं तो कुछ भी नहीं है। जो भी है, उसमें अखंड बोध भरा रहेगा। अर्थात् स्वयं बने बोध रहित कोई भी कहीं भी कभी नहीं है। इस शास्त्र सत्य को महसूस करके बडी क्रांति और आंदोलन करने पर भी कोई दुख नहीं होगा। मृत्यु भी नहीं होगी। कारण बोध पैदा नहीं हुआ है। इसलिए उसकी मृत्यु नहीं है।  बोध में दृष्टित  नाम रूपों को स्वयं कोई अस्तित्व नहीं है। कारण बोध सर्वव्यापी होने से नाम रूपों को स्थिर रहने कोई स्थान नहीं है। वह केवल दृश्य मात्र है। वह जो सत्य नहीं जानता, उसका दृश्य मात्र है।सत्य जाननेवाले नाम रूप में स्वयं बने बोध के दर्शन करने से अस्थिर हो जाता है। इसलिए उसको दूसरे दृश्य नहीं है।

3948.  वही स्वयं को, आत्मा रूपी अखंडबोध को, एहसास करके उसमें दृढ रह सकता है ,जो नामरूपात्मक इस जड प्रपंच को  अर्थात्  कर्म चलन और यह दृश्य प्रपंच अर्थात् पंचेंद्रिय अनुभव करनेवाले प्रपंच तीनों कालों में  स्थिर नहीं  रहेगा। वैसे लोग ही बोध स्वभाव शांति और आनंद को अनुभव कर सकता है। इस स्थिति में एक ज्ञानी को  जब कोई  दर्शन करता है, तब उसी मिनट से दर्शक के मन से दोष बदलकर शांति और आनंद का एक शीतल अनुभव होगा। वह दर्शन ही शिव दर्शन होता है। कारण शिव परमात्मा है। आत्मा में सदा आनंद अनुभव करनेवाला है। नित्य आनंद का अनुभव करनेवाला शिव ही है। उस शिव स्थिति रूपी मैं के अखंड बोध को अपनी शक्ति माया अंधकार रूप में अपने स्वभाविक परमानंद
स्वरूप को छिपा देता है। उस अंधकार आकार से ही सभी प्रपंच बनते हैं।अर्थात् उस अंधकार से पहले उमडकर जो आया है,वही मैं रूपी  अहंकार है। उससे अंतःकरण,बुद्धि, संकल्प मन नाम रूप विषय वस्तुओं को बढानेवाले चित्त ,चित्त विकसित दिखानेवाले दुख देनेवाले वर्ण प्रपंच होते हैं। उनसे बाहर आने मन को अनुमति न देनेवाले दृश्य अनादी काल से होते रहते हैं। जो जीव किसी एक काल में दुख निवृत्ति  के लिए मन की यात्रा बाहरी यात्रा से अहमात्मा की शरणागति में जाता है, उसको मात्र ही दुख का विमोचन होगा। सिवा इसके जड-कर्म चलन प्रपंच में डूबकर उमडनेवाले किसी भी जीव को कर्म बंधन से मुक्ति  या कर्म से तनिक भी आनंद या शांति किसी भी काल में न मिलेगा।

3949. प्रेमियों के दो हृदय अपने में अर्थात् शरीर रहित आत्मा और आत्मा से प्यार होते समय शरीर की सीमा पार करके एक रूपी असीमित बोध समुद्र के रूप में बदलता है। साथ ही इस वर्ण प्रपंच के प्रेमसागर में उत्पन्न होनेवाली लहरों,बुलबुलों और जागों को ही देखेंगे।अर्थात्  बोध अभिन्न जगत के तत्व को साक्षातकार करेंगे।
3950.कलाओं में जो भी कला सीखें,तब सोचना चाहिए कि यह कला ईश्वरीय देन है। उसे स्वर्ण, धन और पद के लिए उपयोग करना नहीं चाहिए। ईश्वर के दर्शन के लिए ईश्वर के सामने कला का नैवेद्य चढाना चाहिए। वैसे करनेवाले ही ईश्वर के दर्शन करके आनंदसागर के तट पर पहुँचेंगे। वैसा न करके सृष्टा को भूलकर सृष्टि के समर्थन करने नित्य नरक ही परिणाम के रूप में मिलेंगे।उसी समय सृष्टा से एक निमिष मिलकर उन्हें न भूलकर कलाओं को जैसा भी प्रयोग करो,वह दुख न देगा। अर्थात् बुद्धि जड है। मन भी जड है। प्राण भी जड है, शरीर भी जड है। जड में कोई क्षमता नहीं रहेगी। वह स्वयं नहीं के बराबर है। स्वयं में परमात्मा बने मैं का बोध शरीर रूपी उपाधि में मिलकर स्वयं अनुभव करनेवाले अनुभवों का हिस्सा ही सभी कलाओं की रसिकता है। सभी चलन माया है। निश्चलन बोध मात्र नित्य सत्य है। इसका एहसास करके जो कलाकार केवल कला में मात्र मन लगाकर जीवन में खुश का अनुभव करते हैं,वे ही अंत में आनंद का अनुभव करके स्वयं आत्मा का साक्षातकार कर सकते हैं। या उनकी इष्टदेवता के लोक जा सकते हैं।

3951. जो सुंदरता को वरदान के रूप में प्राप्त किया है,वे अपने जीवन को सत्य साक्षात्कार के लिए उपयोग न करके असत्य साक्षात्कार के लिए उपयोग करने से ही उनका जीवन नरकमय बन जाता है। इसलिए उनको एहसास करना चाहिए कि अपने शरीर की सुंदरता की चमक अपनी अहमात्मा की चमक है। इस तत्व को भूलकर जीव सोचता है कि वह सुंदरता जड रूपी शरीर की है।यह सोच गलत है। ऐसी गलत सोच के कारण ही जीवन नरक बन जाता है। अर्थात् आत्म बोध नहीं तो सूर्य को प्रकाश नहीं है। बोध नहीं तो चंद्र को प्रकाश नहीं है। बोध नहीं तो फूल को प्रकाश नहीं है। बोध नहीं तो नक्षत्रों को प्रकाश नहीं है। बोध नहीं तो कुछ भी चमकता नहीं है। यह सारा प्रपंच मैं रूपी अखंडबोध प्रकाश ही है। अर्थात् एक ही अखंड बोध मात्र नित्य सत्य रूप में है।मैं रूपी अखंडबोध को ही ईश्वर, ब्रहम परमज्ञान,परमात्मा,सत् ,चित् आनंद आदि कहते हैं । जो जीव इस सत्य को नहीं जानते,वे ही इस संसार में निरंतर दुख भोगते रहते हैं। सत्य में दुख एक भ्रम मात्र है। भ्रम का मतलब है रेगिस्तान में मृगमरीचिका के जैसे,रस्सी में साँप जैसे है। भ्रम हर एक को एक एक रूप में असर डालता है। उदाहरण के लिए एक मील पत्थर आधी रात में किसी एक को भूत-सा लगता है। लेकिन एक चोर को पकडने आये पुलिस को वहीमील पत्थर चोर-सा लगता है। एक प्रेमी को प्रेमिका के जैसे,एक प्ेमिका को प्रेमी जैसे लगत है।
उसी समय दूर से आनेवाले वाहन की रोशनी में मील पत्थर साफ-साफ दीख पडने से सबका संदेह बदल जाएगा। वैसे ही जब तक आत्मज्ञान प्राप्त नहीं होगा तब तक संदेह और दुख न मिटेगा। सभी दुखों से विमोचन होने के लिए एक ही महा औषद आत्मज्ञान मात्र है।
3952 हर एक के मन में ये प्रश्न उठते रहेंगे कि मैं कौन हूँ? मेरी उत्पत्ति कहाँ हुई? कहाँ मिट जाऊँगा? कब मरूँगा या न मरूँगा? मैं कहाँ स्थिर रहूँगा? कैसी गति होगी? कौन मुझे गतिशील बनाता है? जिनको संदेह है, उनको दो बातें  जान लेना चाहिए।१. नाम रूपात्मक यह सारा ब्रह्मांड जड है। वह तीनों कालों में रहित है। २. मैं है का अनुभव बोध। वह किसी के द्वारा बिना कहे ही मैं हूँ का बोध है ही। अर्थात यह सोच नहीं सकते कि मैं का बोध जन्म हुआ है और मिट गया है। उसका जन्म और मृत्यु नहीं है। अर्थात् बोध स्वयंभू है। इस बोध से मिले बिना किसी बात को देख नहीं सकते, सुन नहीं सकते,जान नहीं सकते, भोग नहीं सकते। अर्थात्‌ आत्मा रूपी मैं का बोध ही सब कुछ है। जो स्थिर  है, उसको किसी काल में बना नहीं सकते।इसकी निज स्थिति मनुष्य ही जान सकता है,जानवर जान नहीं सकता।  इसलिए जो  मनुष्य के महत्व को नहीं जानता, उसको सुख और शांति किसी भी काल में नहीं मिलेंगे। निरंतर दुख ही होगा। जो दुख विमोचन चाहते हैं, मूल्य जितना भी हो,त्याग जितना भी हो करके आत्मज्ञान सीखना चाहिए। जिसको  इसमें विश्वास नहीं है,वे प्रश्न  करके, परस्पर   चर्चा करके शास्त्रों का अध्ययन करके सद्गुरुओं से प्रश्न करके ,आज तक संसार में जन्मे सभी महानों के अनुभवओं को लेकर उनके उपदेशों पर विश्वास रखकर स्वयं अभ्यास करके अनुभव करना चाहिए। जब विश्व का उदय हुआ,उस दिन से यह सत्य प्रकट होता रहता है। जितने भी महानों का जन्म हो,
ईश्वरीय अवतार हो,शास्त्र सत्य यही है कि अमीबा से ब्रह्मा तक के सभी नाम रूप तीनों कालों में रहित ही है। केवल मैं रूपी अखंडबोध मात्र ही नित्य सत्य रूप में एक और एक रस में परमानंद रूप में स्थिर खडा रहेगा। यह सत्य है कि जो जीव ये सब नहीं करते,उनको दुख ही होगा। सुख नहीं मिलेगा।

3953. दो परिवार आपस में वादविवाद करते समय एक दूसरे को देखकर कहेगा कि मुझे और मेरे परिवार को भगवान देख लेंगे। तब वे नहीं सोचते और एहसास नहीं करते कि जो भगवान उसके परिवार को देखता है,वही सामनेवाले परिवार को भी देखेगा।  उसके कारण यही है कि शारीरिक अभिमान रूपी अहंकार और उसके द्वारा होनेवाली भेद बुद्धि दोनों के हृदय के एकात्मा को छिपा देता है। सांसारिक जीवन बितानेवाले सब के सब सदा दुख का अनुभव करता है। हर एक सोचते हैं कि मेरे देखने से ही तुम्हारा जीवन चलेगा। ऐसे सोचनेवाले अहंकारियों को भी भगवान ही देखता है।इस बात को समझ लेना चाहिए कि  वह भगवान हर एक जीव के दिल में वास करता है। वही भगवान सब को सक्रिय बनाकर नचाता है। जिस दिन हर एक जीव अपने को गतिशील  बनानेवाली शक्ति अर्थात आत्मा अर्थात बोध को एहसास करता है उस दिन तक दुख से बाहर नहीं आ सकता। यही सब जीवों का हालत है। आज या कल इसका महसूस करना ही चाहिए।इसे जानने और समझने के लिए ही सभी जीव जाने-अनजाने यात्रा करते रहते हैं। कारण वह आनंद खोज के लिए भटकना ही है। वह जीव नहीं जानता कि वह आनंद हर जीव का स्वभाव है।

3954.मिट्टी से बुत बनानेवाले शिल्पी की आँखों में मिट्टी के बिना आकार न बनेगा। वैेसे ही आत्मज्ञानी इस संसार में जितने भी रूप रहे, सिवा आत्मा के किसी भी लोक को देख नहीं सकता। अर्थात स्वआत्मा को उसकी पूर्णता में जो साक्षात्कार करने का प्रयत्न करता है,उसको ब्रह्मांड में तजने या स्वीकार करनेे कुछ भी नहीं है।वैसे लोग ही आत्मा को पूर्ण साक्षात्कार से आत्मा के स्वभव परमानंद को अनिर्वचनीय शांति कोो अपनेे स्वभाविक निरुपाधिक रूप में स्वयं अनुभव करके आनंद का अनुभव करेगा।

3955.स्वप्न में अपनी प्रेमिका को कोई चुराकर ले जाने  के दुख को न  सहकर  आत्महत्या की कोशिश करने की दशा में नींद खुल जाती है तो मानसिक दर्द जैसे आये,वैसे ही दर्द गए। वैसे ही इस जागृत जीवन में भी अविवेकी एहसास नहीं कर सकता। लेकिन वह स्वप्न को मिथ्या, वह जागृत को सत्य मानता है। वह एहसास नहीं कर सकता कि रात में जो स्वप्न  देखा,वैसे ही जागृत अवस्था में अज्ञान रूपी निद्रा में देखनेवाले स्वप्न अनुभव ही इस जागृत अवस्था के अनुभव ही उसके कारण होते हैं। इसे विवेक से न जाननेवाले आत्मज्ञान अप्राप्त बेवकूफ़ ही दुख का अनुभव करके जीवन को व्यर्थ करते हैं। अर्थात् स्वप्न जागृति और जागृत स्वप्न दोनों ही माया दर्शन ही है। ये दोनों ही असत्य ही है।मैं रूपी अखंडबोध में ही अपनी शक्ति माया चित्त बनाकर दिखानेवाला एक इंद्रजाल ही है। यह इंद्रजाल कभी सत्य नहीं होगा। जो इसका एहसास करता है, उसको दुख नहीं होगा। जो इसका अनुभव नहीं करते उनको नित्य दुख ही होगा। दुख विमोचन का एक मात्र मार्ग आत्मज्ञान मात्र ही है।

3956. सभी मनुष्यों के दिल में ये प्रश्न उठते रहते हैं कि मैं कौन हूँ? तुम कौन हो? मैं और तुम  कहाँ से आये? हमारे माता-पिता और पूर्वज कहाँ से आये? क्यों और किसके लिए आये? इन प्रश्नों के उठने के पहले ही खोज करनी चाहिए कि इन प्रश्नों के उत्तर पहले ही हमारे पूर्वजनों ने कहे हैं? किसी शास्त्रों में लिखा है क्या? क्या इसके लिए कोई वेद है? . तभी एहसास कर सकते हैं कि कई हजार वर्षों के पहले ही वेदांत कहनेवाले उपनिषदों में इन प्रश्नों के उत्तर मिलते हैं। उनसे सत्य और असत्य को जान-समझ सकते हैं। इस प्रपंच का आधार अथवा परम कारण ब्रह्म ही है। अर्थात् मैं रूपी बोध ही है। वह बोध अखंड है। जैसे एक ही बिजली अनेक बल्ब प्रकाशित हैं, वैसे ही सभी जीवों में   मैं रूपी अखंड बोध एक रूप में  प्रकाशित है। इसका एहसास करके दृढ बुद्धि से जीने से ही बोध के स्वभाविक परमानंद और अनिर्वचनीय शांति का अनुभव होगा। उनको भोगने में बाधक हैं संकल्प और रागद्वेष। भेद संकल्प और राग-द्वेषों को आत्मविचार  के द्वारा परिवर्तन कर सकते हैं। इस परमानंद को स्वयं भोग सकते हैं।

3957. एक सगुणोपासक के दिल में देवी देव के रूप में प्रतिष्ठा करने के जैसे ही आत्मोपासक की आत्मा से ज्ञानोदय होकर तत्वज्ञान रूप लेता है। वैसे प्रकृति को उपासना करनेवालों के मन में कला, काव्य, कविता,चरित्र बनता है। अर्थात् संकल्प जैसे ही मानना है। इसलिए जीवों में विवेकी मनुष्यों को मात्र ही अपने शरीर और संसार एक लंबे स्वप्न है, वह एक गंधर्व नगर जैसे हैं, वह तीनों कालों में रहित है। यह सब जानने के ज्ञान रूपी मैं रूपी परमात्मा बने अखंडबोध मात्र ही है। यह एहसास करके जड स्वभाव के शरीर और संसार को विस्मरण करके आनंद स्वभाव आत्मा स्वयं ही है को समझकर वैसा ही बनना चाहिए। सत्य को जानने की कोशिश न करके शरीर और संसार को  भूल से आत्मा सोचकर जीनेवालों को दुख ही भोगना पडेगा। सुख कभी न होगा। जो दुख के कारण ईश्वर सोचते हैं,  उनको एहसास करना चाहिए  कि  उनके दुखों के कारण हृदय में रहे ईश्वर को सोचकर आनंद स्वरूप ईश्वर की पूजा नहीं की है। अर्थात् विश्वविद्यालयों में आत्मज्ञान सिखानेवाले वेदग्रंथ न पाठ्यक्रम में  होने से ही दुखों के बुनियाद आधार है। अर्थात् शिक्षा ज्ञान में और आत्मज्ञान के लिए मुख्यत्व न देने  कारण राज्य की प्रगति नष्ट होगी। यह शासकों की गलतफ़हमी  है।इसलिए उनको समझना चाहिए कि लौकिक ज्ञान से होनेवाली प्रगति से अनेक गुना शक्ति कर्म प्रगति आत्मज्ञान प्राप्त करनेवालों से ही कर सकते हैं।
आत्मज्ञान जिसमें है, उनसे बनाये कर्म प्रगति  में  दुख का अनुभव करने पर भी उनमें जो शांति और आनंद है,वे रहेंगे ही, न बदलेंगे।

3958. भगवान की खोज करने की आत्म उपासनाएँ हैं भक्ति,ज्ञान,कर्म योग मार्ग और रूप रहित अपरिवर्तनशीलआत्म उपासनाएँ होती हैं। उनमें श्रेष्ठ  आत्मोपासना ही है। आत्मोपासना करना है तो आत्मज्ञान सीखना चाहिए। बाकी सब उपासनाएँ और सत्य की खोज़ इस आत्मज्ञान को प्राप्त करने के लिए ही है। अर्थात् सभी ईश्वर खोज का अंत आत्मज्ञान ही है। वह आत्मज्ञान अपने बारे में का ज्ञान  ही है। सबको गहराई से खोजने पर जो ज्ञान अध्ययन द्वारा सीखते हैं,उनसे भिन्न है स्वयं अनुभव से प्राप्त ज्ञान। स्वयं रूपी परम ज्ञान सागर में ज्ञान की लहरें,ज्ञान के बुलबुले, ज्ञान के जाग में ही यह प्रपंच स्थिर खडा है। अर्थात् परम रूपी ज्ञान के स्वभाव ही परमानंद है। परमानंद स्वभाव के साथ मिलकर मैं रूपी परम ज्ञान सागर ही अपरिच्छिन्न सच्चिदानंद स्वरूप नित्य सत्य रूप में प्रकाशित होते रहते हैं।

3959. फूल और सुगंध,सूर्य और प्रकाश कैसे अलग करके देख नहीं सकते, वैसे ही वचन और अर्थ दोनों को अलग नहीं कर सकते। अर्थात जो कोई अपने सूक्ष्म अर्थ को गौरव में लेता है, वह जिस मंत्र को जप करके देव-देवियों की उपासना करता है,उसको एहसास करना चाहिए कि उस मंत्र के जप करने के निमिष में ही, उस मंत्र की देवता उसके सामने प्रत्यक्ष दर्शन देंगे।उदाहरण श्रीं के उच्चारण करते ही उसकी देवता महालक्ष्मी उसके सामने आएगी। शिवे के कहते ही पार्वती उसके प्रत्यक्ष आएगी। महा सरस्वती के जपते ही साक्षात सरस्वती उसके सामने आएगी। वैसे ही काल जो भी हो,समय जो भी हो, भाषा जो भी हो,संकल्प जो भी हो, चींटी से देव तक जो भी हो,मंत्रोच्चारण के करते ही संकल्प की देवता जो भी हो प्रत्यक्ष देवता, उसी भाव में उपासक के सामने प्रत्यक्ष  होंगे। स्थूल नेत्रों से देख न सकें तो सूक्ष्म रूप में वे आएँगे। अविवेकियों को आजीवन दुख झेलते रहने के कारण  अविवेकियों को मालूम नहीं है कि देवी-देवताओं को कैसे निमंत्रण करना चाहिए। उसी समय उसे जाननेवाले भक्त  ही  भगवान से परस्पर  मिलकर सहयोगी बनकर जीवन में श्रेयस और प्रेयस से जी सकते हैं। अर्थात् आध्यात्मिक ज्ञान, भौतिक ऐश्वर्य के साथ जी सकते हैं। लेकिन जो विशेष  और विशिष्ट जीवन बसाना चाहते हैं, उनके समझ लेना चाहिए कि सभी कर्म ,सभी उपदेशों का अंत मैं रूपी निराकार एक ही एक अखंड बोध ही है।इस संसार के सभी सुख-भोगों का स्थान मैं रूपी अखंड बोध ही है। इस बोध के सिवा सभी जीवन के अनुभव स्वप्न मात्र है। इसे खूब जान-पहचानकर जिंदगी बितनेवालों को किसी भी प्रकार का दुख न होगा। उसको मालूम है कि दुख भी स्वप्न है।

3960. जो कोई सांसारिक व्यवहारिक जीवन में दुख के समय मात्र ईश्वर का स्मरण करता है, वह बाकी समय में जड विषय वस्तुओं में मन लगा देने से सुख उसके लिए एक स्वप्न के समान होता है, दुख स्मरण के समान उसके जीवन में होगा। उसी समय जो कछुए के समान संयम रहता है,वह सुखी रहेगा। कछुआ आहार खाने के लिए मात्र सिर के बाहर लाता है, बाकी समय काबू में रखता है। वैसे ही मनुष्य को अपने पूरा समय ईश्वर पर ध्यान रखना चाहिए। तब दुख स्वप्न लगेगा और सुख स्मरण होगा। लेकिन जो जन्म से ईश्वर के शब्द न सुनकर सत्य धर्म नीति न जानकर पशु जीवन बिताता है, वह अविवेकी होता है, उसको जितनी भी सुविधा हो ,उसको सिवा दुख के सुख स्वप्न में भी न मिलेगा। कारण उसके मन में जड विषय,भेद बुद्धि,राग-द्वेष ही होगा। लेकिन जन्म से ईश्वरीय धुन सुननेवाले वातावरण में पलकर घर और देश में भगवत् कार्य में सोते-जागते,खाते सदा सर्वकाल लगे रहनेवालों के जीवन में आनंद और शांति शाश्वत रहेंगे। वैसे लोग उनकी आत्मा को साक्षात्कार करते समय ही यह अनुभव पाएँगे कि वे स्वयं निराकार निश्चलन परमात्मा है,वह परमात्मा रूपी मैं है के अनुभव के अखंड बोध के सिवा और कुछ कहीं कभी नहीं है। अर्थात् अखंडबोध स्थिति पाने के साथ नाम रूप खंड प्रपंच और शरीर अखंडबोध से अन्य रूप में स्थित खडे होने स्थान न होकर जादू सा ओझल हो जाएगा। बोध मात्र नित्य सत्य परमानंद रूप में प्रकाशित होते रहेंगे।

3961. जो कोई अपने को दंड देनेवाले को पुनःदंड नहीं देता है,तभी जिसने दंड दिया है, उसको दंड देने उसको दंड देने के लिए प्रकृति को संदर्भ मिलता है। जिसने दंड दिया है,उसमें अहंकार,स्वार्थ, भेद बुद्धि और राग द्वेष होने से उसको ईश्वरीय अनुग्रह  न मिलेगा।वैसे ही प्रतिशोध  के मन रहित दंड जो भोग चुका है,उसमें भेद-बुद्धि रागद्वेष न होने से ,उसको ईश्वरीय आशीषें मिलेंगी। ईश्वरीय कृपा-कटाक्ष अन्य रहित है,उसी को प्रकृति मदद करेगी। जिसपर ईश्वर की कृपा नहीं रहेगी, प्रकृति उसकी मदद न करेगी। जिनपर ईश्वर की आशीषें हैं,वह स्वयं ब्रह्म ही है। ब्रह्म और ब्रह्म से भिन्न एक प्रपंच नहीं है । अर्थात् बोधाभिन्न ही जगत है। वह ईश्वर मैं रूपी अखंडबोध से भिन्न नहीं है। अर्थात् मैं रूपी अखंडबोध ही ईश्वर है। उस अखंडबोध स्थिति को साक्षात्कार करते समय ही प्रपंच अपने से अन्य रहित होगा। अर्थात् बोधाभिन्न स्थिति को साक्षात्कार कर सकते हैं।

3962. अग्नि की शक्ति को आँखों से देख नहीं सकते।उसमें एक लकडी डालकर उस अग्नि से उसे जलाने पर ही पता चलेगा कि अग्नि में जलाने की शक्ति है। वैसे ही आत्मा की शक्ति जानने के लिए आत्मज्ञान से सांसारिक रूप सब को विवेक से जानते समय आत्मज्ञानाग्नि में सांसारिक रूप छिप जाते हैं । अर्थात् आत्मा सर्वव्यापी है। निश्चलन है। यह प्रपंच कर्मचलन है। सर्वव्यापी परमात्मा निश्चलन होने से आत्मा कर्म नहीं कर सकती। उसमें कर्म हो नहीं सकता। इसीलिए आत्मा को निष्क्रिय कहते हैं। निष्क्रिय आत्मा सर्वव्यापी होने से एक चलन रूप को भी उसमें रह  नहीं सकता। इसीलिए नामरूपात्मक यह कर्म प्रपंच को मिथ्या कहते हैं। अर्थात् मैं रूपी अखंड बोध में दीखनेवाले नाम रूप ही यह प्रपंच है। लेकिन बोध के अखड में नामरूप स्थिर खडा रह नहीं सकता। अर्थात् नाम रूप मिथ्या है।
3963.इस प्रपंच रहस्य को जानना है तो पहले समझना चाहिए कि भगवान एक इंद्जाल मायाजाल व्यक्ति है। जादूगर शून्य से एक वस्तु को बनाकर दिखा सकता है। लेकिन देखनेवालों को मालूम है कि वह वस्तु सत्य नहीं है। वैसे ही भगवान अपनी मांत्रिक छडी द्वारा विश्व मन लेकर जो शरीर और संसार नहीं है, उनकी सृष्टि करके दर्शाते हैं। जो शरीर और संसार नहीं है,  मिथ्या है,उन्हें सत्य माननेवालों को ही भ्रम होता है। रस्सी को साँप समझना ही भ्रम है।
प्रकाश की कमी के कारण ही रस्सी साँप-सा लगता है। वैसे ही ज्ञानप्रकाश की कमी के कारण ही जीव को संसार और शरीर सत्य-सा लगता है। प्रकाश जैसे भ्रम को मिटाता है,वैसे ही आत्मज्ञान शरीर और सांसारिक भ्रम को दूर कर देता है।
इसलिए विवेकी यही पूछेंगे कि इस भ्रम को कैसे मिटाना है,यह न पूछेंगे कि यह कैसे हुआ है। जिस जीव में सत्य जानने की तीव्र इच्छा होती है, उस जीव को सत्य ही परमानंद रूप में स्थित खडा रहेगा। यही अद्वैत् सत्य है।

3964. अंधकार में संचरण करनेवाले  संदेह को छोड नहीं सकते। वह प्रकाश की ओर यात्रा न करेगा तो उसको नित्य नरक को ही भोगना पडेगा। अहंकार ही अंधकार है। आत्मा ही प्रकाश है। आज न तो कल सब को प्रकाश में आना ही पडेगा।नरक एक मनःसंकल्प ही है। मन के मिटते ही नरक भी मिट जाएगा। लेकिन जो मन नहीं है उसे मिटाने के प्रयत्न में जब तक लगेंगे,तब तक मन मिटेगा नहीं। जो मन नहीं है,उसे मिटाने का प्रयत्न न करनेवाला ही सत्य का एहसास करनेवाला है। जिसने सत्य का जाना है और माना है, उसको केवल सत्य ही मालूम है। वह नित्य रूप में,अनादी से आनंद रूप में मैं रूपी आत्मा रूप में स्वयंभू स्थिर खडा रहा करता है।

3965. जो स्वयं प्रकाशित है, स्वयं आनंदित है,स्वयं शांतिपूर्ण है,स्वयं स्वतंत्र है, स्वयं परिशुद्ध है, स्वयं नित्य सत्य है, सर्वज्ञ है,सर्वव्यापी है,वह अखंडबोध परमात्मा, ब्रह्म स्वरूप स्वयंभू,शाश्वत अपने से अन्य कोई दूसरा दृश्य,किसी भी काल में, कभी नहीं होगा। इस एहसास जिसमें कोई संकल्प रहित तैलधारा के जैसे चमकता है,वही यथार्थ स्वरूप आत्मा को साक्षात कर सकता है। उसी समय अपने यथार्थ स्वरूप अखंडबोध स्थिति को एक क्षण के विस्मरण करते ही अपनी शक्ति माया मन संकल्पों को बढाना शुरु करेगा।
इसलिए वह फिर प्रपंच के रूप में बदलेगा। इसलिए जो कोई अपने निज स्वरूप मैं रूपी अखंडरूप स्थिति में बहुत ध्यान से रहता है, वह मक्खन पिघलकर घी बनने के जैसे अपरिवर्तनशील ब्रह्म स्थिति को पाएगा। वही अहंब्रह्मास्मी है।

3966. मनुष्य मन को दृश्य  रूपों में ही लगाव होता है,अदृश्य  सत्य पर मन न लगने के कारण यही है कि सीमित रूपों में लगे मन सीमित रूपों में ही लगेगा। असीमित निराकार सत्य आत्मा में लगनेवाला मन सत्य को स्पर्श  करने के पहले ही वापस आएगा। कारण विषय वस्तुओं में मिलनेवाले सद्यःफल के जैसे निराकार  ब्रह्म की ओर चलनेवाले मन को तुरंत न मिलेगा। कारण आत्मा रूपी ज्ञानाग्नि के निकट जाते समय मन को मिलनेवाले सुख के बदले मन ही नदारद हो जाएगा। इस भय से ही मन अरूप आत्मा की ओर यात्रा करना नहीं चाहता। लघु सुख काम सुख तुरंत मिलकर तुरंत मिट जाएगा। केवल वही नहीं वह स्थाई दुख देकर जाएगा। उसी समय एक बार परमानंद को भोगने पर वह नित्य स्थाई रहेगा। इसीलिए विवेकी लघु सुख त्यागकर परमानंद के लिए तप करते हैं। जो कोई उस परमानंद को अपनी आत्मा का स्वभाव मानकर महसूस करता है, तब उसका मन विषय सुखों की ओर न जाएगा। कारण उसको मालूम है कि  आत्मा  रूपी परमानंद को ही जीव प्रपंच की उपाधि  में मिलकर लघु सुख  के रूप में अनुभव करते हैं।परमानंद को उपाधि में मिलकर अनुभव करते समय वह लघु सुख है,निरूपाधिक रूप में भोगते समय उसे परमानंद कहते हैं।
                                                                                                                                               

                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                               

 
                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                         
                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                     

 
                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                       

 
                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                           

3926. मनुष्य मन उसकी अपनी आत्मा से विलीन न होने के काल में इस प्रपंच का,इस प्रपंच बनाकर देनेवाले जैसा भी दुख हो,उससे विमोचन न मिलेगा। इसलिए मन को आत्मा में मिलने के पहले  निर्मल बना लेना चाहिए।मन निर्मल न होने के कारण अनेक विषयों के संकल्प ही हैं ।अनेक संकल्प होने के कारण सुख का केंद्र स्थान न जानना ही है। संकल्प रहित कोई भी विषय मन को सुख न देगा।
इसलिए विषय सुख के कारण संकल्प ही है। संकल्प से मिले सुख विषय नाश के साथ मिट जाएगा। इसलिए नित्य सुख के केंद्र की खोज से पता चलेगा कि वह अपनी अहमात्मा ही है। इसलिए दुख देनेवाले संकल्प दोषों को मिटाकर  सुख स्वरूप आत्मा ही है,वह आत्मा स्वयं ही है का महसूस करते हैं। तब मन सुख की खोज में जड-भोग विषयों की ओर न जाएगा। वैसे मन को किसी भी प्रकार के संकल्प के बिना आत्मा से मिलाने पर शारीरिक दोष और प्रपंच दोष अपने पर असर न डालेगा। मन आत्मा से मिलने के साथ जीव भाव नाश हो जाएगा। साथ ही खंड बोध अखंडबोध होगा। अर्थात् सीमित जीवात्मा असीमित परमात्मा स्थिति को पाएगा। वही आत्मसाक्षात्कार है। तभी नित्य सुख और नित्य शांति को स्वयं निरुपाधिक रूप में भोगकर वैसा ही स्थिर खडा रहेगा।अर्थात्  परमात्मा रूपी मैैं ही सदा सर्वव्यापी और अपरिवर्तन परमानंद ही शाश्वत है।अपनी शक्ति माया के द्वारा अपने अखंड को विस्मरण करते ही जीव और जीव संकल्प संसार उसका जीवन उसका लय सब बना सा लगता है। स्वरूप स्मरण के साथ पर्दा हटने से आत्मा रूपी अपने में कोई परिवर्तन नहीं होते। इसलिए सदा आनंद से ही रहेगा।
3927. हर एक जीव को हर एक मिनट जीवन में होनेवाले दुख रूपी काँटों से बचकर कोमल सुख रूपी फूल खिलने के लिए माया रूपी पर्दा हटाने के लिए आत्मविचार तैल धारा के जैसे होते समय एहसास कर सकते हैं  कि वह स्वयं खिले नित्यानंद फूल ही था, काँटे केवल एक दृश्य मात्र हैं। अर्थात्  आत्मा के बारे में जो नहीं पूछते,जो नहीं जानते ,आत्मा पर श्रद्धा नहीं रखते, वे ही जीव अक्षय
पात्र लेकर भीख माँगकर कष्ट सहकर, दुखी होकर जन्म मरण के संकल्प लोक मार्ग मर भटकते रहते हैं।

3928. मैं रूपी अखंडबोध सर्वव्यापी और सर्वत्र विद्यमान होने से दूसरी कोई स्थान या वस्तु नहीं है। इसलिए बोध का विकार नहीं होता। मैं रूपी अखंड बोध रूपी परमात्मा निर्विकार,निश्चलन,अनंत अनादी और आनंद हो जाते हैं। उस आनंद रूपी बोध में ही अपनी शक्ति स्पंदन रूपी चलन होने सा लगता है। अर्थात् आत्मा की शक्ति चलन से इस पंचभूतों से बने प्रपंच दृश्य होते समय शक्ति का आधार वस्तु सत्य या बोध या आत्मा निश्चलन ही खडा रहता है। इस निश्चलन परम कारण बने मैं रूपी अखंडबोध होने से ही चलन प्रपंच बनकर स्थिर रहकर मिट जाने के रूप माया को उत्पन्न करके दिखाते हैं। एक अपरिवर्तन शील वस्तु के सान्निद्य से ही परिवर्तन शील  एक वस्तु बनेगी। अपरिवर्तन शील आत्मा रूपी मैं है तो आत्मा में उत्पन्न शरीर और संसार ही परिवर्तनशील होते हैं। जो बदलते हैं,वे वह स्थाई नहीं है। वह मृगमरीचिका है। केवल अखंडबोध ही अपरिवर्तनशील है और स्थाई है। मैं रूपी अखंडबोध के रेगिस्तान की  मृगमरीचिका ही शरीर और संसार है।

3929. हर एक मनुष्य के मन में जो अंतरात्मा है, वह परम कारण स्वरूप परमात्मा ही है। जो व्यक्ति एहसास करता है कि वह खुद परमात्मा ही है, शरीर और प्रपंच अपनी आत्मा से भिन्न नहीं है। उस ज्ञान के प्राप्त होते ही शरीर और प्रपंच पर के प्रेम और आसक्ति नहीं होंगे।तभी परमार्थ रूपी स्वयं सर्वांतर्यामी का अनुभव होगा। जब उस स्थिति पर पहुँचते हैं, तब स्वभाविक परमानंद आनंद अनुभव करने लगते हैं। साथ ही एहसास होगा कि  अपने में उत्पन्न सभी भूत अपने नियंत्रण में है। अर्थात् प्रपंच अपनी ओर नहीं खींच सकता। स्वयं मैं रूपी अखंड बोध स्वात्मा ही खींचेगा। जीवात्मा  स्वयं ही सर्वस्व और सब कुछ है का न जानने से ही सत्य न समझकर संसार में भ्रमित होकर शरीर के भ्रम में संकल्प-विकल्प लेकर नित्य दुख का पात्र बनकर विविध प्रकार के जन्मों के बीज बोते रहते हैं।

3930. वर्तमानकाल में जिसका मन शारीरिक शारीरिक भावना के अतीत आत्म भावना में न चलकर अहंकार को केंद्र बनाकर जीता है,
उसके बीते काल के अनुभव उसमें से न टूटकर चालू होते रहेंगे। कारण अहंकार को स्थित खडा रखना ही बीते काल भविष्य काल के न टूटे चिंतनों को साथ लाने से ही है। जो एहसास करता है कि भविष्य और भूत का स्मरण अर्थ शून्य है, वही विस्मरित आत्मबोध के सभी कार्यों को करके जी सकते हैं। बीते  काल पुनः वापस न आएगा। उसको सोचकर समय व्यर्थ करनेवाला मूर्ख ही है। वैसे ही  आयु अनिश्चित होने से भविष्य को सोचकर समय बितानेवाला भी अविवेकी ही है। अर्थात् स्वयं बने बोध को सभी प्रपंच रूपों में पूर्ण रूप से देखना एकात्म दर्शन से नित्य कर्मों निस्संग रूप में जब जी सकता है,तभी वह अखंडबोध के स्वभाव परमानंद को निरूपाधिक सहजता से भोग सकता है।

3931. साधारणतः एक वाहन के चालक जैसे ही यह आत्मा शरीर में प्राण के रूप में रहकर इस शरीर का संचालन करता है। वह शारीरिक यात्रा संकल्प से ही इस संसार में बना है। इच्छाएँ यात्राओं को बढाती हैं। अनिच्छाएँ यात्राओं को घटाती हैं। दुख  नयी इच्छाओं को  मिटा देता है और सांसारिक आसक्ति को अनासक्ति बना देता है। तब से आत्म खोज शुरु होती है। उस आत्म खोज के वैराग्य में आत्मज्ञान प्राप्त जीवाग्नि में मन जलकर भस्म हो जाएा।मन के नाश होते ही शरीर और संसार विस्मरण हो जाएगा। तब मैं रूपी एक आत्म रूप अखंडबोध मात्र अपने स्वाभाविक  परमानंद के साथ नित्य सत्य रूप में स्थिर खडा रहेगा ।
3932. पंचेंद्रियों को लेकर भोगनेवाला जीवन अनुभवों में अपरिवर्तनशील अनुभव असत्य को एहसास करता है। विषयों को भोगते समय होनेवाले अनुभव विषय नाश के साथ  अस्त होता है। उसी समय मन आत्मा में विलीन होकर आत्मवस्तु अनश्वर होने से आत्मा का स्वभाव आनंद और शांति अनश्वर ही रहेंगी। नित्य रहेगा।

3933. माया के दो भाव ही विद्या माया और अविद्या माया होती हैं। अविद्या माया जीव को सत्य के निकट जाने न देगी।अविद्या माया से प्रभावित लोग प्रत्यक्ष देखनेवाले सबको अर्थात् इस शरीर और संसार को उसी रीति से सत्य मानकर विश्वास रखते हैं। लेकिन अप्रत्यक्ष अनेक प्राण चलन अपनी आँखों के सामने अदृश्य रहते हैं। लेकिन सूक्ष्मदर्शिनी के द्वारा देखते समय अनेक प्रकाश किरणें अपने सामने देख सकते हैं। उदाहरण रूप में अपने आँखों के  सामने मेज़ पर सूक्ष्म दर्शिनी जैसे यंत्र रखकर देखते हैं तो उसमें प्रोटान,न्यूट्रान,ऍलक्ट्रान आदि को देख सकते हैं। इसलिए जो कुछ है,जो कुछ नहीं है आदि को विवेक से जाने बिना किसीको यथार्थ सत्य मालूम न होगा। वैसे विवेक से  नहीं  देखनेवालों को दुख न दूर होगा। संदेह भी न दूर होगा। लेकिन जो कोई इस शरीर को और संसार को समझकर जड,है, जड कर्म चलन है,चलन प्राण स्पंदन है, प्राण स्पंदन निश्चलन  अखंडबोध में किसी भी काल में न होगा। जो इसका एहसास करता है,वही जान-समझ सकता है कि शरीर और संसार मिथ्या है।  वह एहसास कर सकता है कि  निश्चलन बोध मात्र सत्य है। वह सत्य स्वयं ही है,अपने स्वभाव ही शांति और आनंद है। ऐसी विवेकशीलता जिसमें नहीं है, उस जीवात्मा को नित्य दुख होगा। वह सुख और शांति स्वप्न में भी अनुभव नहीं कर सकते। कारण यह प्रपंच दुख पूर्ण है। यह अनादी काल से होकर छिपनेवाले सभी जीवात्मा के अनुभव की गोपनीय बात है। देखकर,सुनकर अनुभव करके भी सत्य क्या है? असत्य क्या है? की विवेकशीलता से न जाननेवाले अविवेकशील मनुष्य को मनुष्य कह नहीं सकते। कारण यवह अपने उत्पन्न स्थान की खोज करने के लिए समय न लेकर विषय भोग वस्तुओं के लिए धन केलिए दौडता भागता रहता है।
यह आत्मज्ञान रहस्यों में रहस्य,विज्ञापनों में विज्ञापन है। इसे विज्ञापन कमें न मिलेगा।

3934.एक मनुष्य की दिनचर्याएँ  नहाना,कपडे पहनना आदि नित्य कर्माएँ करते समय वह  एक प्रत्येक काम सा न लगेगा। वैसे ही मन में दिन दिन आनेवाले अच्छे बुरे चिंता कूडों को निरंतर शुद्ध करते समय ही शरीर भर में आत्म स्वयं प्रकाश होगा। कारण स्वयं बने आत्मप्रकाश स्वरूप, दूसरों को प्रकाशित  कराने बना है। इसलिए स्वयं बनेे निश्चल परमात्म स्वरूप में अपनी शक्ति माया दिखानेवाले शरीर और सांसारिक दृश्य माया  दवारा दिखानेवाले इंद्रजाल नाटक है। इसका एहसास करते समय शरीर और संसार मृगमरीचिका के समान तीनों कालों में रहित ही है। उस स्थिति में ही आत्मा का स्वभाव  परमानंद और परमशांत अपने स्वभाव से भोग सकते हैं।

3935.हम जिस आकाश को देखते हैं, वह अपनी स्थिति में कोई परिवर्तन के बिना इस प्रपंच के सभी रूपों को ऊँचा उठाकर दिखाता है। वह आकाश सभी रूपों के पूर्ण अंगों में व्यापित रहता है। आकाश  से ही ये रूप होते हैं। वैसे ही चिताकाश  रूपी परमेशर पंच भूतों को बढा-चढाकर दिखाते हैं। उसे तीन वर्गों में ही दिखाते हैं। प्राण, आकाश,वायु आदि भूत होते हैं।  वे सूक्ष्म जड दृढ बनकर ही
अग्नि,पानी,आदि भूत  बनते हैं। उन भूतों का दृढ बनना ही यह भूमि है।अर्थात् समुद्र का पानी लहरें,जाग बनकर बरफ़ बनने के समान। बरफ़ पानी और भाप बनने के जैसे। वैसे ही परमात्मा रूपी अखंडबोध ,बोध रूपी परमत्मा, अपने निश्चलन में परिवर्तन किये बिना चलन शक्ति माया चित्त बनकर प्राणन के रूप में  अनेक परिणामों में  मिलकर  इस ब्रह्मांड को बनाया है।लेकिन यह जड कर् चलन प्रपंच मृगतृष्णा होती है। कारण निश्चल परमात्मा में कोई चलन नहींं होगा।चलन होने पर परमात्मा का सर्वव्यापकत्व नष्ट होता है। इसलिए एकात्मा एक ही परमात्मा मात्र ही नित्य सत्य परमानंद मात्र स्थिर खडा रहता है। वह परमात्मा  स्वयं ही है की अनुभूति करनेवाला ही ब्रह्म है। यही अहंब्रह्मास्मी है।

3936. परमत्मा के सान्निद्य में ही प्रकृति से सकल चराचर के यह विश्व प्रपंच बनता आता है। विविध प्रकार से परिणमित इस प्रपंच का साक्षी मात्र ही भगवान है। यह साक्षी ही हर एक जीव  के हृदय में जीवात्मा के रूप में रहता है। जो यह महसूस करता है कि वह स्वयं शरीर या संसार नहीं है, शरीर और संसार अपने यथार्थ स्वरूप परमात्मा रूपी अखंड बोध में अपनी शक्ति माया अपने को अंधकार में छिपाकर दीखनेवाला स्वप्न है। ऐसी अनुभूति के जीव ही आत्मज्ञान को उपयोग करके शरीर और संसार को मृगमरीचिका के समान तजकर  प्रतिबिंब जीव रूपी अपनी जीव स्थिति को भूलकर
बिंब बने अखंडबोध स्वरूप को अज्ञान निद्रा से पुनः जीवित करके निजी स्वरूप अखंडबोध स्थिति को प्राप्त करके उसके स्वभाविक परमानंद में स्थित खडा रह सकता है। इस संसार में बडा खज़ाना आत्मज्ञान ही है। इसको न जाननेवाले अविवेकी ही नाम,यश और धन के बंधन के लिए मनुष्य जीवन के आयु को बेकार कर रहे हैं वैसे लोग गुलाब की इच्छा के द्वारा वह काँटे के पौधे देनेवाले दर्द सहने तैयार रहते हैं। जो फूल को तजते हैं,केवल उसको ही दुख से विमोचन होगा।

3937.नाम पाने के लिए, धन के लिए,अधिकार के लिए शास्त्र सिखानेवाले गुुरु के शिष्यों और भक्तों के स्वभाव भी वैसे ही होंगे। वैसे लोग ही जो जग नहीं है, उसको स्थिर खडा करते हैं। वह प्रकृति के स्थिर खडा रखने का भाग है। उसी समय यथार्थ सत्य की खोज करनेवाले ही यथार्थ गुरु के पास जा सकते हैं। यथार्थ गुरु नित्य संतुष्ट रहेंगे। वे इस संसार में किसीसे कुछ भी प्रतीक्षा नहीं करते।
उनका पूर्ण मन सत्य आत्मा में मात्र रहेगा। वैसे आत्मज्ञानी के गुरु के यहाँ  शिष्य और भक्त  विरले ही रहेंगे। कारण माया गुणों से विषय वस्तुओं से भरा मन सत्य के निकट जा नहीं सकता। जो सत्य के निकट  जा नहीं सकता, उसको दुख से विमोचन न होगा।उनसे शांति और आनंद बहुत दूर रहेंगे।
3938.  अपनी अहमात्मा को कोई भी कलंकित नहीं कर सकता। वह सब के साक्षी  रूप में ही रहता है। तीनों कालों में रहित
यह दृश्य प्रपंच में देखनेवाले सब के सब को प्रकाशित करनेवाला अपनी अहमात्मा ही है। रूपभेद,वर्ण भेद,जन्म-मरण आदि विकार के विविध भाव होनेवाले ही ये जड हैं। लेकिन बदल-बदलकर आनेवाले ये भाव कोई भी आत्मा पर प्रभाव नहीं डालता।उदाहरण स्वरूप
सूर्य प्रकाश से प्रकाशित वस्तुओं की कमियाँ कोई भी सूर्य पर अपना
प्रभाव डाल नहीं सकता।
3939.वेदांत सत्य जानकर उसमं जीनेवाले विवेकियों को ही उनके शरीर और मन स्वस्थ रहते समय ही वे अपने वचन और क्रिया को एक साथ लेकर चल सकते हैं। उसी समय शरीर और मन शिथिल होने के बाद सांसारिक जीवन में सत्य को जो महसूस नहीं करता,उसके लिए असाध्य कार्य ही है। कारण उनका मन शारीरिक बीमारी,रिशतेदार,घर,धन और संसार में ही रहेगा। वैसे लोग
मरते समय प्राण पखेरु उडते मिनट में उनका मन एक अमुक इच्छा में न रहेगा।कारण चित्त बदलते रहने से जीव जाते निमिष में घास.पशु, अच्छे-बुरे जो भी हो, जिसमें मन लगता है, वैसा ही जन्म लेता है।
अर्थात् उनके मन की परेशानी में  जो सोचता है,वैसा ही जन्म लेगा।
कारण उनके जीवन में कोई अमुक लक्ष्य न होना ही है। जैसा चित्त होता है, जीवन भी वैसा ही है। चित्त ही किसी के संपूर्ण जीवन के लिए उसके देखने के जग के लिए कारण बनता है। इसलिए वह चित्त और प्रतिबिंब बोध मिलकर ही मरते समय शरीर को छोडकर बाहर जाता है। अर्थात् चित्त के बिना आत्मा प्रतिबिंबित हो नहीं सकती। बिना पानी के, अर्थात् प्रतिबिंब करनेवाली वस्तु के बिना सूर्य प्रतििंबित कर नहीं सकता। पानी की चंचलता प्रतिबिंब को भंग करने के जैेसे ही चित्त संकल्प सब प्रतिबिंब जीव पर असर डालने के समान लगता है। पानी नहीं तो सूर्य प्रतिबिंब भी नहीं रहेगा। वैसे ही  चित्त नाश के साथ जीव भाव जीव भाव का भी नाश होगा। वैसे ही जीव जिंदा रहते समय ही जो चित्त को पवित्र  बनाकर इच्छा रहित पूर्णतः शुद्ध रूप में  रखता है, तब चित्त का कोई अस्तित्व न रहेगा।
कारण चित्त चित् रूप में बदलेगा। वह आत्मा के रूप में बदलेगा। तभी सभी दुखों से विमोचन होगा।

3940. एक पतिव्रता  के सिवा साधारण स्त्री का मन, स्त्री को अनुसरण करनेवाले पुरुष का मन सत्यतः आत्मा के निकट जाने में कष्ट ही होगा। वह सत्य ही स्त्री और पुरुष को गतिशील रखता है। लेकिन वे सत्य को महत्व  न देने से दुख उनसे दूर नहीं होगा। उनको नहीं मालूम है कि दुख के कारण असत्य ही है। उसके कारण शारीरिक अभिमान रूपी अहंकार ही है। उसको गुरु,माता-पिता और समाज ने नहीं सिखाया है कि अहंकार ही दुख के कारण है। केवल वही नहीं , उन्होंने शास्त्रों का अध्ययन नहीं किया है। वैेसे लोग दुख से और और दुख लेकर ही प्राण तजते हैं। जो कोई जीव और शरीर को विवेक से जानते हैं, वे जड रूपी शरीर को तजकर प्राण रूपी आत्मा को ही स्वयं है की अनुभूति करके आत्मा के स्वभाविक आनंद का अनुभव करेंगे।

3941. एक मंदिर के दीवार पर एक देव के चित्र को देखते समय वह चित्र दीवार से अन्य -सा  लगेगा। वैेसे ही अपने को दृश्य के यह प्रपंच स्वयं बने आत्मा से अन्य-सा लगेगा। चित्र के मिटने पर भी दीवार में कोई परिवर्तन नहीं होते, वैसे ही दृश्य के  न होने पर भी  दृष्टा रूपी अर्थात आत्मा रूपी स्वयं मिटता नहीं है। वैसे ही कोई ज्ञानी अपने शरीर को ही स्वयं बने आत्मा रूपी बोध में चित्र खींचने के जैसे देखता है,अर्थात्  बोध में अपने दृश्य रूपी  चित्र जैसे अपने शरीर को देख सकताहै ,वह अनुभव कर सकता है कि उसके अपने शरीर का नाश होने पर भी उसका नाश न होकर स्थिर खडा है। इसलिए कुछ ज्ञानी  स्वात्मा को अपने पूर्ण  रूप से साक्षात्कार करते समय  ऊपर नीचे आश्चर्य से देखेंगे कि अपने शरीर और संसार कहाँ गये हैं।अर्थात् यह एहसास कर सकते हैं कि शरीर और संसार आत्मा रूपी अपने में रस्सी में साँप जैसे और रेगिस्तान में मृगमरीचिका जैसे मिथ्या है।

3942. मनुष्य मन को कष्ट है कि आँखों से देखकर अनुभव करनेवाले यह शरीर और संसार नश्वर है।   आत्मज्ञान की दृढता होने तक यह अविश्वसनीय है कि  वैसे ही शरीर और संसार को जाननेवाले ज्ञान स्वरूप अनश्वर ही है।  अपनी आँखों से ही अपनी आँखों को देख नहीं सकते,अपने से अन्य दर्पण में देखकर ही रस लेते हैं। वैसे ही सर्वव्यापी आत्मा अपने को ही माया रूपी दर्पण में अपने से अन्य रूप में प्रपंच रूप में देखते हैं। लेकिन दर्पण को तोडते ही प्रति बिंब मिट जाते हैं। वैसे ही आत्मज्ञान की दृढता होने के साथ
चित्त रूप के शरीर और संसार मिट जाएँगे। साथ ही जीवभाव छिप जाएगा। साथ ही आत्मा रूपी अखंडमात्र नित्य सत्य  रूप में परमानंद रूप में स्थिर खडा रहेगा।

3943. कोई भक्त संपूर्ण परम कारण रहनेवाले परमात्मा बने परमेश्वरन को अभय प्राप्त है,उसके सामने मात्र ही महा माया फण फैलाये रहेगा। कारण भगवान और भक्त दो नहीं है। वही नहीं परमेश्वरन भक्त का दास ही है। भक्त के दुख को भगवान न सहेंगे। साधारणतः स्त्रियाँ आत्मवीचार के विरुद्ध हैं। उसका सूक्ष्म यही है कि जगत स्वरूपिनी स्त्री चलनशील है,परम कारण के परमात्मा निश्चलन है। इसलिए जो स्त्री हमेशा आत्मस्मरण को शुरु करती है,
उसके साथ स्त्री जन्म का अंत होगा। या परमात्मा की पराशक्ति से ऐक्य हो जाएगा। अर्थात् चलन ही निश्चलन होगा। इसलिए जो स्त्री
सदा आत्मा रूपी परमेश्वर को पति मानकर पतिव्रता बनती है,वह पराशक्ति परमेश्वर में ऐक्य हो जाएगी।

3944.  जो कोई निरंतर दुख में रहता है, उसके हृदय में परमानंद स्वरूप परमात्मा मात्र नहीं, उसी के ही रूप में है। यह बात वह जानता नहीं है। जानने पर भी वह भरोसा नहीं रखता। विश्वास होने पर भी ज्ञान की दृढता नही होती। इसीलिए वह सदा दुखी रहता है। उसी समय  जो कोई परमानंद स्वरूप परमात्मा अपने शरीर और प्राण है का एहसास करके सभी कर्म करने से वह सदा धैर्यशाली है। केवल वही नहीं , शांति और आनंद उसको छोडकर नहीं जाएँगे।

3945.  स्त्री को उपदेश करके बुद्धिमान बना सकता है,यह मोह अर्थ शून्य है। उसके विषय चिंताओं के आवर्तन स्वभाव से समझ सकते हैं। केवल वही नहीं, उसका अनुसरण रहित रहना,सत्य के बिना रहना
स्पष्ट होगा। अर्थात् चलनात्मक प्रकृतीश्वरी चलनशील होने से मात्र ही वह स्थाई सा लगेगा। वह निश्चलन सत्य के निकट जाने पर प्रकृतीश्वरी का अस्तित्व नहीं रहेगा। कारण सत्य निश्चलन है। सत्य को  चलन छूने  के बाद वह निश्चल हो जाएगा। इसीलिए स्त्रियाँ पुरुष का अनुसरण नहीं करती। सत्य नहीं बोलती। जो स्त्री निश्चल परमात्मा में मन लगाती है, माया स्त्री मायावी पमेश्वर होगी। परमेश्वर बनकक परमात्मा बने परब्रह्म मात्र ही नित्य सत्य परमानंद स्वभाव में रहेगा।

3946. साधारण स्त्रियों को विवेकी पुरुषों की आवश्यक्ता नहीं है।
अविवेकी पुरुष की आवश्यक्ता है। कारण विवेकी पुरुष स्त्रियों के शरीर से प्रेम नहीं करेगा।अविवेकी पुरुष ही शरीर से प्रेम करते हैं।स्त्री के शरीर से प्रेम करनेवाले पुरुषों को रखकर ही स्त्री अपनी इच्छाओं को पूरी कर लेती है। स्त्री पहले अपनी कामवासना की पूर्ति के लिए पुरुष को क्रोधित करेगी। जब वह हो नहीं सकता,वह डराएगी। उसमें भी वह वश में नहीं आएगा तो उसको मृत्यु वेदनाएँ देगी। वह उसे सताएगी। उसमें भी वह नियंत्रण में नहीं आयेगा तो वह उसे छोडकर चली जाएगी। जब वह उसे हटकर नहीं जा सकती, आजीवन उसके नियंत्रण में रहेगी। उसी समय नियंत्रण में जो रहना नहीं चाहती,वह स्त्री ही पुरुष के बेसाहारे स्थिति में रहेगी। जो स्त्री पुरुष को अपने दिव्य पुरुष मानकर जीवन चलाती है, तो पति के बंधन में रहेगी। उसके जीवन में स्त्री जन्म से विमोचन होगा। ये सब
द्वैत बोध और  भेद बुद्धि के साधारण मनुष्य के बारे में ही है। लेकिन सत्य  यही है कि नाम रूप के सब असत्य ही है। केवल एक ही एक लिंग भेद रहित अरूप निश्चलन बने परमात्मा मैं रूपी अखंड बोध मात्र ही परमानंद स्थिर खडा रहता है।

3947. जो दुख को मात्र  देनेवाले संसार में,  उसके जीव और सांसारिक विषयों के बारे में निरंतर चिंतन में डूबकर कर्म करनेवालों को शारीरिक अभिमान बढेगा। वह अहंकार और दुर्रभिमान को बनाएगा। दुर्रभिमान और द्वैतबोध को उसके द्वारा राग-द्वेष को बनाएगा। वही निरंतर दुख के कारण है। इसलिए आत्म उपासक को कर्म में अकर्म को विषयों में विष को जीवों में एकात्म को दर्शन करके उपासना करनी चाहिए। आत्म उपासक की दृष्टि में शरीर और संसार सब के सब रूप रहित एक ही परमात्मा ही भरा रहेगा। वह परमात्मा ही मैं है के अनुभव को उत्पन्न करके अखंडबोध के रूप में रहता है। मैं रूपी अखंडबोध नहीं तो कुछ भी नहीं है। जो भी है, उसमें अखंड बोध भरा रहेगा। अर्थात् स्वयं बने बोध रहित कोई भी कहीं भी कभी नहीं है। इस शास्त्र सत्य को महसूस करके बडी क्रांति और आंदोलन करने पर भी कोई दुख नहीं होगा। मृत्यु भी नहीं होगी। कारण बोध पैदा नहीं हुआ है। इसलिए उसकी मृत्यु नहीं है।  बोध में दृष्टित  नाम रूपों को स्वयं कोई अस्तित्व नहीं है। कारण बोध सर्वव्यापी होने से नाम रूपों को स्थिर रहने कोई स्थान नहीं है। वह केवल दृश्य मात्र है। वह जो सत्य नहीं जानता, उसका दृश्य मात्र है।सत्य जाननेवाले नाम रूप में स्वयं बने बोध के दर्शन करने से अस्थिर हो जाता है। इसलिए उसको दूसरे दृश्य नहीं है।

3948.  वही स्वयं को, आत्मा रूपी अखंडबोध को, एहसास करके उसमें दृढ रह सकता है ,जो नामरूपात्मक इस जड प्रपंच को  अर्थात्  कर्म चलन और यह दृश्य प्रपंच अर्थात् पंचेंद्रिय अनुभव करनेवाले प्रपंच तीनों कालों में  स्थिर नहीं  रहेगा। वैसे लोग ही बोध स्वभाव शांति और आनंद को अनुभव कर सकता है। इस स्थिति में एक ज्ञानी को  जब कोई  दर्शन करता है, तब उसी मिनट से दर्शक के मन से दोष बदलकर शांति और आनंद का एक शीतल अनुभव होगा। वह दर्शन ही शिव दर्शन होता है। कारण शिव परमात्मा है। आत्मा में सदा आनंद अनुभव करनेवाला है। नित्य आनंद का अनुभव करनेवाला शिव ही है। उस शिव स्थिति रूपी मैं के अखंड बोध को अपनी शक्ति माया अंधकार रूप में अपने स्वभाविक परमानंद
स्वरूप को छिपा देता है। उस अंधकार आकार से ही सभी प्रपंच बनते हैं।अर्थात् उस अंधकार से पहले उमडकर जो आया है,वही मैं रूपी  अहंकार है। उससे अंतःकरण,बुद्धि, संकल्प मन नाम रूप विषय वस्तुओं को बढानेवाले चित्त ,चित्त विकसित दिखानेवाले दुख देनेवाले वर्ण प्रपंच होते हैं। उनसे बाहर आने मन को अनुमति न देनेवाले दृश्य अनादी काल से होते रहते हैं। जो जीव किसी एक काल में दुख निवृत्ति  के लिए मन की यात्रा बाहरी यात्रा से अहमात्मा की शरणागति में जाता है, उसको मात्र ही दुख का विमोचन होगा। सिवा इसके जड-कर्म चलन प्रपंच में डूबकर उमडनेवाले किसी भी जीव को कर्म बंधन से मुक्ति  या कर्म से तनिक भी आनंद या शांति किसी भी काल में न मिलेगा।

3949. प्रेमियों के दो हृदय अपने में अर्थात् शरीर रहित आत्मा और आत्मा से प्यार होते समय शरीर की सीमा पार करके एक रूपी असीमित बोध समुद्र के रूप में बदलता है। साथ ही इस वर्ण प्रपंच के प्रेमसागर में उत्पन्न होनेवाली लहरों,बुलबुलों और जागों को ही देखेंगे।अर्थात्  बोध अभिन्न जगत के तत्व को साक्षातकार करेंगे।
3950.कलाओं में जो भी कला सीखें,तब सोचना चाहिए कि यह कला ईश्वरीय देन है। उसे स्वर्ण, धन और पद के लिए उपयोग करना नहीं चाहिए। ईश्वर के दर्शन के लिए ईश्वर के सामने कला का नैवेद्य चढाना चाहिए। वैसे करनेवाले ही ईश्वर के दर्शन करके आनंदसागर के तट पर पहुँचेंगे। वैसा न करके सृष्टा को भूलकर सृष्टि के समर्थन करने नित्य नरक ही परिणाम के रूप में मिलेंगे।उसी समय सृष्टा से एक निमिष मिलकर उन्हें न भूलकर कलाओं को जैसा भी प्रयोग करो,वह दुख न देगा। अर्थात् बुद्धि जड है। मन भी जड है। प्राण भी जड है, शरीर भी जड है। जड में कोई क्षमता नहीं रहेगी। वह स्वयं नहीं के बराबर है। स्वयं में परमात्मा बने मैं का बोध शरीर रूपी उपाधि में मिलकर स्वयं अनुभव करनेवाले अनुभवों का हिस्सा ही सभी कलाओं की रसिकता है। सभी चलन माया है। निश्चलन बोध मात्र नित्य सत्य है। इसका एहसास करके जो कलाकार केवल कला में मात्र मन लगाकर जीवन में खुश का अनुभव करते हैं,वे ही अंत में आनंद का अनुभव करके स्वयं आत्मा का साक्षातकार कर सकते हैं। या उनकी इष्टदेवता के लोक जा सकते हैं।

3951. जो सुंदरता को वरदान के रूप में प्राप्त किया है,वे अपने जीवन को सत्य साक्षात्कार के लिए उपयोग न करके असत्य साक्षात्कार के लिए उपयोग करने से ही उनका जीवन नरकमय बन जाता है। इसलिए उनको एहसास करना चाहिए कि अपने शरीर की सुंदरता की चमक अपनी अहमात्मा की चमक है। इस तत्व को भूलकर जीव सोचता है कि वह सुंदरता जड रूपी शरीर की है।यह सोच गलत है। ऐसी गलत सोच के कारण ही जीवन नरक बन जाता है। अर्थात् आत्म बोध नहीं तो सूर्य को प्रकाश नहीं है। बोध नहीं तो चंद्र को प्रकाश नहीं है। बोध नहीं तो फूल को प्रकाश नहीं है। बोध नहीं तो नक्षत्रों को प्रकाश नहीं है। बोध नहीं तो कुछ भी चमकता नहीं है। यह सारा प्रपंच मैं रूपी अखंडबोध प्रकाश ही है। अर्थात् एक ही अखंड बोध मात्र नित्य सत्य रूप में है।मैं रूपी अखंडबोध को ही ईश्वर, ब्रहम परमज्ञान,परमात्मा,सत् ,चित् आनंद आदि कहते हैं । जो जीव इस सत्य को नहीं जानते,वे ही इस संसार में निरंतर दुख भोगते रहते हैं। सत्य में दुख एक भ्रम मात्र है। भ्रम का मतलब है रेगिस्तान में मृगमरीचिका के जैसे,रस्सी में साँप जैसे है। भ्रम हर एक को एक एक रूप में असर डालता है। उदाहरण के लिए एक मील पत्थर आधी रात में किसी एक को भूत-सा लगता है। लेकिन एक चोर को पकडने आये पुलिस को वहीमील पत्थर चोर-सा लगता है। एक प्रेमी को प्रेमिका के जैसे,एक प्ेमिका को प्रेमी जैसे लगत है।
उसी समय दूर से आनेवाले वाहन की रोशनी में मील पत्थर साफ-साफ दीख पडने से सबका संदेह बदल जाएगा। वैसे ही जब तक आत्मज्ञान प्राप्त नहीं होगा तब तक संदेह और दुख न मिटेगा। सभी दुखों से विमोचन होने के लिए एक ही महा औषद आत्मज्ञान मात्र है।
3952 हर एक के मन में ये प्रश्न उठते रहेंगे कि मैं कौन हूँ? मेरी उत्पत्ति कहाँ हुई? कहाँ मिट जाऊँगा? कब मरूँगा या न मरूँगा? मैं कहाँ स्थिर रहूँगा? कैसी गति होगी? कौन मुझे गतिशील बनाता है? जिनको संदेह है, उनको दो बातें  जान लेना चाहिए।१. नाम रूपात्मक यह सारा ब्रह्मांड जड है। वह तीनों कालों में रहित है। २. मैं है का अनुभव बोध। वह किसी के द्वारा बिना कहे ही मैं हूँ का बोध है ही। अर्थात यह सोच नहीं सकते कि मैं का बोध जन्म हुआ है और मिट गया है। उसका जन्म और मृत्यु नहीं है। अर्थात् बोध स्वयंभू है। इस बोध से मिले बिना किसी बात को देख नहीं सकते, सुन नहीं सकते,जान नहीं सकते, भोग नहीं सकते। अर्थात्‌ आत्मा रूपी मैं का बोध ही सब कुछ है। जो स्थिर  है, उसको किसी काल में बना नहीं सकते।इसकी निज स्थिति मनुष्य ही जान सकता है,जानवर जान नहीं सकता।  इसलिए जो  मनुष्य के महत्व को नहीं जानता, उसको सुख और शांति किसी भी काल में नहीं मिलेंगे। निरंतर दुख ही होगा। जो दुख विमोचन चाहते हैं, मूल्य जितना भी हो,त्याग जितना भी हो करके आत्मज्ञान सीखना चाहिए। जिसको  इसमें विश्वास नहीं है,वे प्रश्न  करके, परस्पर   चर्चा करके शास्त्रों का अध्ययन करके सद्गुरुओं से प्रश्न करके ,आज तक संसार में जन्मे सभी महानों के अनुभवओं को लेकर उनके उपदेशों पर विश्वास रखकर स्वयं अभ्यास करके अनुभव करना चाहिए। जब विश्व का उदय हुआ,उस दिन से यह सत्य प्रकट होता रहता है। जितने भी महानों का जन्म हो,
ईश्वरीय अवतार हो,शास्त्र सत्य यही है कि अमीबा से ब्रह्मा तक के सभी नाम रूप तीनों कालों में रहित ही है। केवल मैं रूपी अखंडबोध मात्र ही नित्य सत्य रूप में एक और एक रस में परमानंद रूप में स्थिर खडा रहेगा। यह सत्य है कि जो जीव ये सब नहीं करते,उनको दुख ही होगा। सुख नहीं मिलेगा।

3953. दो परिवार आपस में वादविवाद करते समय एक दूसरे को देखकर कहेगा कि मुझे और मेरे परिवार को भगवान देख लेंगे। तब वे नहीं सोचते और एहसास नहीं करते कि जो भगवान उसके परिवार को देखता है,वही सामनेवाले परिवार को भी देखेगा।  उसके कारण यही है कि शारीरिक अभिमान रूपी अहंकार और उसके द्वारा होनेवाली भेद बुद्धि दोनों के हृदय के एकात्मा को छिपा देता है। सांसारिक जीवन बितानेवाले सब के सब सदा दुख का अनुभव करता है। हर एक सोचते हैं कि मेरे देखने से ही तुम्हारा जीवन चलेगा। ऐसे सोचनेवाले अहंकारियों को भी भगवान ही देखता है।इस बात को समझ लेना चाहिए कि  वह भगवान हर एक जीव के दिल में वास करता है। वही भगवान सब को सक्रिय बनाकर नचाता है। जिस दिन हर एक जीव अपने को गतिशील  बनानेवाली शक्ति अर्थात आत्मा अर्थात बोध को एहसास करता है उस दिन तक दुख से बाहर नहीं आ सकता। यही सब जीवों का हालत है। आज या कल इसका महसूस करना ही चाहिए।इसे जानने और समझने के लिए ही सभी जीव जाने-अनजाने यात्रा करते रहते हैं। कारण वह आनंद खोज के लिए भटकना ही है। वह जीव नहीं जानता कि वह आनंद हर जीव का स्वभाव है।

3954.मिट्टी से बुत बनानेवाले शिल्पी की आँखों में मिट्टी के बिना आकार न बनेगा। वैेसे ही आत्मज्ञानी इस संसार में जितने भी रूप रहे, सिवा आत्मा के किसी भी लोक को देख नहीं सकता। अर्थात स्वआत्मा को उसकी पूर्णता में जो साक्षात्कार करने का प्रयत्न करता है,उसको ब्रह्मांड में तजने या स्वीकार करनेे कुछ भी नहीं है।वैसे लोग ही आत्मा को पूर्ण साक्षात्कार से आत्मा के स्वभव परमानंद को अनिर्वचनीय शांति कोो अपनेे स्वभाविक निरुपाधिक रूप में स्वयं अनुभव करके आनंद का अनुभव करेगा।

3955.स्वप्न में अपनी प्रेमिका को कोई चुराकर ले जाने  के दुख को न  सहकर  आत्महत्या की कोशिश करने की दशा में नींद खुल जाती है तो मानसिक दर्द जैसे आये,वैसे ही दर्द गए। वैसे ही इस जागृत जीवन में भी अविवेकी एहसास नहीं कर सकता। लेकिन वह स्वप्न को मिथ्या, वह जागृत को सत्य मानता है। वह एहसास नहीं कर सकता कि रात में जो स्वप्न  देखा,वैसे ही जागृत अवस्था में अज्ञान रूपी निद्रा में देखनेवाले स्वप्न अनुभव ही इस जागृत अवस्था के अनुभव ही उसके कारण होते हैं। इसे विवेक से न जाननेवाले आत्मज्ञान अप्राप्त बेवकूफ़ ही दुख का अनुभव करके जीवन को व्यर्थ करते हैं। अर्थात् स्वप्न जागृति और जागृत स्वप्न दोनों ही माया दर्शन ही है। ये दोनों ही असत्य ही है।मैं रूपी अखंडबोध में ही अपनी शक्ति माया चित्त बनाकर दिखानेवाला एक इंद्रजाल ही है। यह इंद्रजाल कभी सत्य नहीं होगा। जो इसका एहसास करता है, उसको दुख नहीं होगा। जो इसका अनुभव नहीं करते उनको नित्य दुख ही होगा। दुख विमोचन का एक मात्र मार्ग आत्मज्ञान मात्र ही है।

3956. सभी मनुष्यों के दिल में ये प्रश्न उठते रहते हैं कि मैं कौन हूँ? तुम कौन हो? मैं और तुम  कहाँ से आये? हमारे माता-पिता और पूर्वज कहाँ से आये? क्यों और किसके लिए आये? इन प्रश्नों के उठने के पहले ही खोज करनी चाहिए कि इन प्रश्नों के उत्तर पहले ही हमारे पूर्वजनों ने कहे हैं? किसी शास्त्रों में लिखा है क्या? क्या इसके लिए कोई वेद है? . तभी एहसास कर सकते हैं कि कई हजार वर्षों के पहले ही वेदांत कहनेवाले उपनिषदों में इन प्रश्नों के उत्तर मिलते हैं। उनसे सत्य और असत्य को जान-समझ सकते हैं। इस प्रपंच का आधार अथवा परम कारण ब्रह्म ही है। अर्थात् मैं रूपी बोध ही है। वह बोध अखंड है। जैसे एक ही बिजली अनेक बल्ब प्रकाशित हैं, वैसे ही सभी जीवों में   मैं रूपी अखंड बोध एक रूप में  प्रकाशित है। इसका एहसास करके दृढ बुद्धि से जीने से ही बोध के स्वभाविक परमानंद और अनिर्वचनीय शांति का अनुभव होगा। उनको भोगने में बाधक हैं संकल्प और रागद्वेष। भेद संकल्प और राग-द्वेषों को आत्मविचार  के द्वारा परिवर्तन कर सकते हैं। इस परमानंद को स्वयं भोग सकते हैं।

3957. एक सगुणोपासक के दिल में देवी देव के रूप में प्रतिष्ठा करने के जैसे ही आत्मोपासक की आत्मा से ज्ञानोदय होकर तत्वज्ञान रूप लेता है। वैसे प्रकृति को उपासना करनेवालों के मन में कला, काव्य, कविता,चरित्र बनता है। अर्थात् संकल्प जैसे ही मानना है। इसलिए जीवों में विवेकी मनुष्यों को मात्र ही अपने शरीर और संसार एक लंबे स्वप्न है, वह एक गंधर्व नगर जैसे हैं, वह तीनों कालों में रहित है। यह सब जानने के ज्ञान रूपी मैं रूपी परमात्मा बने अखंडबोध मात्र ही है। यह एहसास करके जड स्वभाव के शरीर और संसार को विस्मरण करके आनंद स्वभाव आत्मा स्वयं ही है को समझकर वैसा ही बनना चाहिए। सत्य को जानने की कोशिश न करके शरीर और संसार को  भूल से आत्मा सोचकर जीनेवालों को दुख ही भोगना पडेगा। सुख कभी न होगा। जो दुख के कारण ईश्वर सोचते हैं,  उनको एहसास करना चाहिए  कि  उनके दुखों के कारण हृदय में रहे ईश्वर को सोचकर आनंद स्वरूप ईश्वर की पूजा नहीं की है। अर्थात् विश्वविद्यालयों में आत्मज्ञान सिखानेवाले वेदग्रंथ न पाठ्यक्रम में  होने से ही दुखों के बुनियाद आधार है। अर्थात् शिक्षा ज्ञान में और आत्मज्ञान के लिए मुख्यत्व न देने  कारण राज्य की प्रगति नष्ट होगी। यह शासकों की गलतफ़हमी  है।इसलिए उनको समझना चाहिए कि लौकिक ज्ञान से होनेवाली प्रगति से अनेक गुना शक्ति कर्म प्रगति आत्मज्ञान प्राप्त करनेवालों से ही कर सकते हैं।
आत्मज्ञान जिसमें है, उनसे बनाये कर्म प्रगति  में  दुख का अनुभव करने पर भी उनमें जो शांति और आनंद है,वे रहेंगे ही, न बदलेंगे।

3958. भगवान की खोज करने की आत्म उपासनाएँ हैं भक्ति,ज्ञान,कर्म योग मार्ग और रूप रहित अपरिवर्तनशीलआत्म उपासनाएँ होती हैं। उनमें श्रेष्ठ  आत्मोपासना ही है। आत्मोपासना करना है तो आत्मज्ञान सीखना चाहिए। बाकी सब उपासनाएँ और सत्य की खोज़ इस आत्मज्ञान को प्राप्त करने के लिए ही है। अर्थात् सभी ईश्वर खोज का अंत आत्मज्ञान ही है। वह आत्मज्ञान अपने बारे में का ज्ञान  ही है। सबको गहराई से खोजने पर जो ज्ञान अध्ययन द्वारा सीखते हैं,उनसे भिन्न है स्वयं अनुभव से प्राप्त ज्ञान। स्वयं रूपी परम ज्ञान सागर में ज्ञान की लहरें,ज्ञान के बुलबुले, ज्ञान के जाग में ही यह प्रपंच स्थिर खडा है। अर्थात् परम रूपी ज्ञान के स्वभाव ही परमानंद है। परमानंद स्वभाव के साथ मिलकर मैं रूपी परम ज्ञान सागर ही अपरिच्छिन्न सच्चिदानंद स्वरूप नित्य सत्य रूप में प्रकाशित होते रहते हैं।

3959. फूल और सुगंध,सूर्य और प्रकाश कैसे अलग करके देख नहीं सकते, वैसे ही वचन और अर्थ दोनों को अलग नहीं कर सकते। अर्थात जो कोई अपने सूक्ष्म अर्थ को गौरव में लेता है, वह जिस मंत्र को जप करके देव-देवियों की उपासना करता है,उसको एहसास करना चाहिए कि उस मंत्र के जप करने के निमिष में ही, उस मंत्र की देवता उसके सामने प्रत्यक्ष दर्शन देंगे।उदाहरण श्रीं के उच्चारण करते ही उसकी देवता महालक्ष्मी उसके सामने आएगी। शिवे के कहते ही पार्वती उसके प्रत्यक्ष आएगी। महा सरस्वती के जपते ही साक्षात सरस्वती उसके सामने आएगी। वैसे ही काल जो भी हो,समय जो भी हो, भाषा जो भी हो,संकल्प जो भी हो, चींटी से देव तक जो भी हो,मंत्रोच्चारण के करते ही संकल्प की देवता जो भी हो प्रत्यक्ष देवता, उसी भाव में उपासक के सामने प्रत्यक्ष  होंगे। स्थूल नेत्रों से देख न सकें तो सूक्ष्म रूप में वे आएँगे। अविवेकियों को आजीवन दुख झेलते रहने के कारण  अविवेकियों को मालूम नहीं है कि देवी-देवताओं को कैसे निमंत्रण करना चाहिए। उसी समय उसे जाननेवाले भक्त  ही  भगवान से परस्पर  मिलकर सहयोगी बनकर जीवन में श्रेयस और प्रेयस से जी सकते हैं। अर्थात् आध्यात्मिक ज्ञान, भौतिक ऐश्वर्य के साथ जी सकते हैं। लेकिन जो विशेष  और विशिष्ट जीवन बसाना चाहते हैं, उनके समझ लेना चाहिए कि सभी कर्म ,सभी उपदेशों का अंत मैं रूपी निराकार एक ही एक अखंड बोध ही है।इस संसार के सभी सुख-भोगों का स्थान मैं रूपी अखंड बोध ही है। इस बोध के सिवा सभी जीवन के अनुभव स्वप्न मात्र है। इसे खूब जान-पहचानकर जिंदगी बितनेवालों को किसी भी प्रकार का दुख न होगा। उसको मालूम है कि दुख भी स्वप्न है।

3960. जो कोई सांसारिक व्यवहारिक जीवन में दुख के समय मात्र ईश्वर का स्मरण करता है, वह बाकी समय में जड विषय वस्तुओं में मन लगा देने से सुख उसके लिए एक स्वप्न के समान होता है, दुख स्मरण के समान उसके जीवन में होगा। उसी समय जो कछुए के समान संयम रहता है,वह सुखी रहेगा। कछुआ आहार खाने के लिए मात्र सिर के बाहर लाता है, बाकी समय काबू में रखता है। वैसे ही मनुष्य को अपने पूरा समय ईश्वर पर ध्यान रखना चाहिए। तब दुख स्वप्न लगेगा और सुख स्मरण होगा। लेकिन जो जन्म से ईश्वर के शब्द न सुनकर सत्य धर्म नीति न जानकर पशु जीवन बिताता है, वह अविवेकी होता है, उसको जितनी भी सुविधा हो ,उसको सिवा दुख के सुख स्वप्न में भी न मिलेगा। कारण उसके मन में जड विषय,भेद बुद्धि,राग-द्वेष ही होगा। लेकिन जन्म से ईश्वरीय धुन सुननेवाले वातावरण में पलकर घर और देश में भगवत् कार्य में सोते-जागते,खाते सदा सर्वकाल लगे रहनेवालों के जीवन में आनंद और शांति शाश्वत रहेंगे। वैसे लोग उनकी आत्मा को साक्षात्कार करते समय ही यह अनुभव पाएँगे कि वे स्वयं निराकार निश्चलन परमात्मा है,वह परमात्मा रूपी मैं है के अनुभव के अखंड बोध के सिवा और कुछ कहीं कभी नहीं है। अर्थात् अखंडबोध स्थिति पाने के साथ नाम रूप खंड प्रपंच और शरीर अखंडबोध से अन्य रूप में स्थित खडे होने स्थान न होकर जादू सा ओझल हो जाएगा। बोध मात्र नित्य सत्य परमानंद रूप में प्रकाशित होते रहेंगे।

3961. जो कोई अपने को दंड देनेवाले को पुनःदंड नहीं देता है,तभी जिसने दंड दिया है, उसको दंड देने उसको दंड देने के लिए प्रकृति को संदर्भ मिलता है। जिसने दंड दिया है,उसमें अहंकार,स्वार्थ, भेद बुद्धि और राग द्वेष होने से उसको ईश्वरीय अनुग्रह  न मिलेगा।वैसे ही प्रतिशोध  के मन रहित दंड जो भोग चुका है,उसमें भेद-बुद्धि रागद्वेष न होने से ,उसको ईश्वरीय आशीषें मिलेंगी। ईश्वरीय कृपा-कटाक्ष अन्य रहित है,उसी को प्रकृति मदद करेगी। जिसपर ईश्वर की कृपा नहीं रहेगी, प्रकृति उसकी मदद न करेगी। जिनपर ईश्वर की आशीषें हैं,वह स्वयं ब्रह्म ही है। ब्रह्म और ब्रह्म से भिन्न एक प्रपंच नहीं है । अर्थात् बोधाभिन्न ही जगत है। वह ईश्वर मैं रूपी अखंडबोध से भिन्न नहीं है। अर्थात् मैं रूपी अखंडबोध ही ईश्वर है। उस अखंडबोध स्थिति को साक्षात्कार करते समय ही प्रपंच अपने से अन्य रहित होगा। अर्थात् बोधाभिन्न स्थिति को साक्षात्कार कर सकते हैं।

3962. अग्नि की शक्ति को आँखों से देख नहीं सकते।उसमें एक लकडी डालकर उस अग्नि से उसे जलाने पर ही पता चलेगा कि अग्नि में जलाने की शक्ति है। वैसे ही आत्मा की शक्ति जानने के लिए आत्मज्ञान से सांसारिक रूप सब को विवेक से जानते समय आत्मज्ञानाग्नि में सांसारिक रूप छिप जाते हैं । अर्थात् आत्मा सर्वव्यापी है। निश्चलन है। यह प्रपंच कर्मचलन है। सर्वव्यापी परमात्मा निश्चलन होने से आत्मा कर्म नहीं कर सकती। उसमें कर्म हो नहीं सकता। इसीलिए आत्मा को निष्क्रिय कहते हैं। निष्क्रिय आत्मा सर्वव्यापी होने से एक चलन रूप को भी उसमें रह  नहीं सकता। इसीलिए नामरूपात्मक यह कर्म प्रपंच को मिथ्या कहते हैं। अर्थात् मैं रूपी अखंड बोध में दीखनेवाले नाम रूप ही यह प्रपंच है। लेकिन बोध के अखड में नामरूप स्थिर खडा रह नहीं सकता। अर्थात् नाम रूप मिथ्या है।
3963.इस प्रपंच रहस्य को जानना है तो पहले समझना चाहिए कि भगवान एक इंद्जाल मायाजाल व्यक्ति है। जादूगर शून्य से एक वस्तु को बनाकर दिखा सकता है। लेकिन देखनेवालों को मालूम है कि वह वस्तु सत्य नहीं है। वैसे ही भगवान अपनी मांत्रिक छडी द्वारा विश्व मन लेकर जो शरीर और संसार नहीं है, उनकी सृष्टि करके दर्शाते हैं। जो शरीर और संसार नहीं है,  मिथ्या है,उन्हें सत्य माननेवालों को ही भ्रम होता है। रस्सी को साँप समझना ही भ्रम है।
प्रकाश की कमी के कारण ही रस्सी साँप-सा लगता है। वैसे ही ज्ञानप्रकाश की कमी के कारण ही जीव को संसार और शरीर सत्य-सा लगता है। प्रकाश जैसे भ्रम को मिटाता है,वैसे ही आत्मज्ञान शरीर और सांसारिक भ्रम को दूर कर देता है।
इसलिए विवेकी यही पूछेंगे कि इस भ्रम को कैसे मिटाना है,यह न पूछेंगे कि यह कैसे हुआ है। जिस जीव में सत्य जानने की तीव्र इच्छा होती है, उस जीव को सत्य ही परमानंद रूप में स्थित खडा रहेगा। यही अद्वैत् सत्य है।

3964. अंधकार में संचरण करनेवाले  संदेह को छोड नहीं सकते। वह प्रकाश की ओर यात्रा न करेगा तो उसको नित्य नरक को ही भोगना पडेगा। अहंकार ही अंधकार है। आत्मा ही प्रकाश है। आज न तो कल सब को प्रकाश में आना ही पडेगा।नरक एक मनःसंकल्प ही है। मन के मिटते ही नरक भी मिट जाएगा। लेकिन जो मन नहीं है उसे मिटाने के प्रयत्न में जब तक लगेंगे,तब तक मन मिटेगा नहीं। जो मन नहीं है,उसे मिटाने का प्रयत्न न करनेवाला ही सत्य का एहसास करनेवाला है। जिसने सत्य का जाना है और माना है, उसको केवल सत्य ही मालूम है। वह नित्य रूप में,अनादी से आनंद रूप में मैं रूपी आत्मा रूप में स्वयंभू स्थिर खडा रहा करता है।

3965. जो स्वयं प्रकाशित है, स्वयं आनंदित है,स्वयं शांतिपूर्ण है,स्वयं स्वतंत्र है, स्वयं परिशुद्ध है, स्वयं नित्य सत्य है, सर्वज्ञ है,सर्वव्यापी है,वह अखंडबोध परमात्मा, ब्रह्म स्वरूप स्वयंभू,शाश्वत अपने से अन्य कोई दूसरा दृश्य,किसी भी काल में, कभी नहीं होगा। इस एहसास जिसमें कोई संकल्प रहित तैलधारा के जैसे चमकता है,वही यथार्थ स्वरूप आत्मा को साक्षात कर सकता है। उसी समय अपने यथार्थ स्वरूप अखंडबोध स्थिति को एक क्षण के विस्मरण करते ही अपनी शक्ति माया मन संकल्पों को बढाना शुरु करेगा।
इसलिए वह फिर प्रपंच के रूप में बदलेगा। इसलिए जो कोई अपने निज स्वरूप मैं रूपी अखंडरूप स्थिति में बहुत ध्यान से रहता है, वह मक्खन पिघलकर घी बनने के जैसे अपरिवर्तनशील ब्रह्म स्थिति को पाएगा। वही अहंब्रह्मास्मी है।

3966. मनुष्य मन को दृश्य  रूपों में ही लगाव होता है,अदृश्य  सत्य पर मन न लगने के कारण यही है कि सीमित रूपों में लगे मन सीमित रूपों में ही लगेगा। असीमित निराकार सत्य आत्मा में लगनेवाला मन सत्य को स्पर्श  करने के पहले ही वापस आएगा। कारण विषय वस्तुओं में मिलनेवाले सद्यःफल के जैसे निराकार  ब्रह्म की ओर चलनेवाले मन को तुरंत न मिलेगा। कारण आत्मा रूपी ज्ञानाग्नि के निकट जाते समय मन को मिलनेवाले सुख के बदले मन ही नदारद हो जाएगा। इस भय से ही मन अरूप आत्मा की ओर यात्रा करना नहीं चाहता। लघु सुख काम सुख तुरंत मिलकर तुरंत मिट जाएगा। केवल वही नहीं वह स्थाई दुख देकर जाएगा। उसी समय एक बार परमानंद को भोगने पर वह नित्य स्थाई रहेगा। इसीलिए विवेकी लघु सुख त्यागकर परमानंद के लिए तप करते हैं। जो कोई उस परमानंद को अपनी आत्मा का स्वभाव मानकर महसूस करता है, तब उसका मन विषय सुखों की ओर न जाएगा। कारण उसको मालूम है कि  आत्मा  रूपी परमानंद को ही जीव प्रपंच की उपाधि  में मिलकर लघु सुख  के रूप में अनुभव करते हैं।परमानंद को उपाधि में मिलकर अनुभव करते समय वह लघु सुख है,निरूपाधिक रूप में भोगते समय उसे परमानंद कहते हैं।
                                                                                                                                               

                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                               

 
                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                         
                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                    3926. मनुष्य मन उसकी अपनी आत्मा से विलीन न होने के काल में इस प्रपंच का,इस प्रपंच बनाकर देनेवाले जैसा भी दुख हो,उससे विमोचन न मिलेगा। इसलिए मन को आत्मा में मिलने के पहले  निर्मल बना लेना चाहिए।मन निर्मल न होने के कारण अनेक विषयों के संकल्प ही हैं ।अनेक संकल्प होने के कारण सुख का केंद्र स्थान न जानना ही है। संकल्प रहित कोई भी विषय मन को सुख न देगा।

इसलिए विषय सुख के कारण संकल्प ही है। संकल्प से मिले सुख विषय नाश के साथ मिट जाएगा। इसलिए नित्य सुख के केंद्र की खोज से पता चलेगा कि वह अपनी अहमात्मा ही है। इसलिए दुख देनेवाले संकल्प दोषों को मिटाकर  सुख स्वरूप आत्मा ही है,वह आत्मा स्वयं ही है का महसूस करते हैं। तब मन सुख की खोज में जड-भोग विषयों की ओर न जाएगा। वैसे मन को किसी भी प्रकार के संकल्प के बिना आत्मा से मिलाने पर शारीरिक दोष और प्रपंच दोष अपने पर असर न डालेगा। मन आत्मा से मिलने के साथ जीव भाव नाश हो जाएगा। साथ ही खंड बोध अखंडबोध होगा। अर्थात् सीमित जीवात्मा असीमित परमात्मा स्थिति को पाएगा। वही आत्मसाक्षात्कार है। तभी नित्य सुख और नित्य शांति को स्वयं निरुपाधिक रूप में भोगकर वैसा ही स्थिर खडा रहेगा।अर्थात्  परमात्मा रूपी मैैं ही सदा सर्वव्यापी और अपरिवर्तन परमानंद ही शाश्वत है।अपनी शक्ति माया के द्वारा अपने अखंड को विस्मरण करते ही जीव और जीव संकल्प संसार उसका जीवन उसका लय सब बना सा लगता है। स्वरूप स्मरण के साथ पर्दा हटने से आत्मा रूपी अपने में कोई परिवर्तन नहीं होते। इसलिए सदा आनंद से ही रहेगा।
3927. हर एक जीव को हर एक मिनट जीवन में होनेवाले दुख रूपी काँटों से बचकर कोमल सुख रूपी फूल खिलने के लिए माया रूपी पर्दा हटाने के लिए आत्मविचार तैल धारा के जैसे होते समय एहसास कर सकते हैं  कि वह स्वयं खिले नित्यानंद फूल ही था, काँटे केवल एक दृश्य मात्र हैं। अर्थात्  आत्मा के बारे में जो नहीं पूछते,जो नहीं जानते ,आत्मा पर श्रद्धा नहीं रखते, वे ही जीव अक्षय
पात्र लेकर भीख माँगकर कष्ट सहकर, दुखी होकर जन्म मरण के संकल्प लोक मार्ग मर भटकते रहते हैं।

3928. मैं रूपी अखंडबोध सर्वव्यापी और सर्वत्र विद्यमान होने से दूसरी कोई स्थान या वस्तु नहीं है। इसलिए बोध का विकार नहीं होता। मैं रूपी अखंड बोध रूपी परमात्मा निर्विकार,निश्चलन,अनंत अनादी और आनंद हो जाते हैं। उस आनंद रूपी बोध में ही अपनी शक्ति स्पंदन रूपी चलन होने सा लगता है। अर्थात् आत्मा की शक्ति चलन से इस पंचभूतों से बने प्रपंच दृश्य होते समय शक्ति का आधार वस्तु सत्य या बोध या आत्मा निश्चलन ही खडा रहता है। इस निश्चलन परम कारण बने मैं रूपी अखंडबोध होने से ही चलन प्रपंच बनकर स्थिर रहकर मिट जाने के रूप माया को उत्पन्न करके दिखाते हैं। एक अपरिवर्तन शील वस्तु के सान्निद्य से ही परिवर्तन शील  एक वस्तु बनेगी। अपरिवर्तन शील आत्मा रूपी मैं है तो आत्मा में उत्पन्न शरीर और संसार ही परिवर्तनशील होते हैं। जो बदलते हैं,वे वह स्थाई नहीं है। वह मृगमरीचिका है। केवल अखंडबोध ही अपरिवर्तनशील है और स्थाई है। मैं रूपी अखंडबोध के रेगिस्तान की  मृगमरीचिका ही शरीर और संसार है।

3929. हर एक मनुष्य के मन में जो अंतरात्मा है, वह परम कारण स्वरूप परमात्मा ही है। जो व्यक्ति एहसास करता है कि वह खुद परमात्मा ही है, शरीर और प्रपंच अपनी आत्मा से भिन्न नहीं है। उस ज्ञान के प्राप्त होते ही शरीर और प्रपंच पर के प्रेम और आसक्ति नहीं होंगे।तभी परमार्थ रूपी स्वयं सर्वांतर्यामी का अनुभव होगा। जब उस स्थिति पर पहुँचते हैं, तब स्वभाविक परमानंद आनंद अनुभव करने लगते हैं। साथ ही एहसास होगा कि  अपने में उत्पन्न सभी भूत अपने नियंत्रण में है। अर्थात् प्रपंच अपनी ओर नहीं खींच सकता। स्वयं मैं रूपी अखंड बोध स्वात्मा ही खींचेगा। जीवात्मा  स्वयं ही सर्वस्व और सब कुछ है का न जानने से ही सत्य न समझकर संसार में भ्रमित होकर शरीर के भ्रम में संकल्प-विकल्प लेकर नित्य दुख का पात्र बनकर विविध प्रकार के जन्मों के बीज बोते रहते हैं।

3930. वर्तमानकाल में जिसका मन शारीरिक शारीरिक भावना के अतीत आत्म भावना में न चलकर अहंकार को केंद्र बनाकर जीता है,
उसके बीते काल के अनुभव उसमें से न टूटकर चालू होते रहेंगे। कारण अहंकार को स्थित खडा रखना ही बीते काल भविष्य काल के न टूटे चिंतनों को साथ लाने से ही है। जो एहसास करता है कि भविष्य और भूत का स्मरण अर्थ शून्य है, वही विस्मरित आत्मबोध के सभी कार्यों को करके जी सकते हैं। बीते  काल पुनः वापस न आएगा। उसको सोचकर समय व्यर्थ करनेवाला मूर्ख ही है। वैसे ही  आयु अनिश्चित होने से भविष्य को सोचकर समय बितानेवाला भी अविवेकी ही है। अर्थात् स्वयं बने बोध को सभी प्रपंच रूपों में पूर्ण रूप से देखना एकात्म दर्शन से नित्य कर्मों निस्संग रूप में जब जी सकता है,तभी वह अखंडबोध के स्वभाव परमानंद को निरूपाधिक सहजता से भोग सकता है।

3931. साधारणतः एक वाहन के चालक जैसे ही यह आत्मा शरीर में प्राण के रूप में रहकर इस शरीर का संचालन करता है। वह शारीरिक यात्रा संकल्प से ही इस संसार में बना है। इच्छाएँ यात्राओं को बढाती हैं। अनिच्छाएँ यात्राओं को घटाती हैं। दुख  नयी इच्छाओं को  मिटा देता है और सांसारिक आसक्ति को अनासक्ति बना देता है। तब से आत्म खोज शुरु होती है। उस आत्म खोज के वैराग्य में आत्मज्ञान प्राप्त जीवाग्नि में मन जलकर भस्म हो जाएा।मन के नाश होते ही शरीर और संसार विस्मरण हो जाएगा। तब मैं रूपी एक आत्म रूप अखंडबोध मात्र अपने स्वाभाविक  परमानंद के साथ नित्य सत्य रूप में स्थिर खडा रहेगा ।
3932. पंचेंद्रियों को लेकर भोगनेवाला जीवन अनुभवों में अपरिवर्तनशील अनुभव असत्य को एहसास करता है। विषयों को भोगते समय होनेवाले अनुभव विषय नाश के साथ  अस्त होता है। उसी समय मन आत्मा में विलीन होकर आत्मवस्तु अनश्वर होने से आत्मा का स्वभाव आनंद और शांति अनश्वर ही रहेंगी। नित्य रहेगा।

3933. माया के दो भाव ही विद्या माया और अविद्या माया होती हैं। अविद्या माया जीव को सत्य के निकट जाने न देगी।अविद्या माया से प्रभावित लोग प्रत्यक्ष देखनेवाले सबको अर्थात् इस शरीर और संसार को उसी रीति से सत्य मानकर विश्वास रखते हैं। लेकिन अप्रत्यक्ष अनेक प्राण चलन अपनी आँखों के सामने अदृश्य रहते हैं। लेकिन सूक्ष्मदर्शिनी के द्वारा देखते समय अनेक प्रकाश किरणें अपने सामने देख सकते हैं। उदाहरण रूप में अपने आँखों के  सामने मेज़ पर सूक्ष्म दर्शिनी जैसे यंत्र रखकर देखते हैं तो उसमें प्रोटान,न्यूट्रान,ऍलक्ट्रान आदि को देख सकते हैं। इसलिए जो कुछ है,जो कुछ नहीं है आदि को विवेक से जाने बिना किसीको यथार्थ सत्य मालूम न होगा। वैसे विवेक से  नहीं  देखनेवालों को दुख न दूर होगा। संदेह भी न दूर होगा। लेकिन जो कोई इस शरीर को और संसार को समझकर जड,है, जड कर्म चलन है,चलन प्राण स्पंदन है, प्राण स्पंदन निश्चलन  अखंडबोध में किसी भी काल में न होगा। जो इसका एहसास करता है,वही जान-समझ सकता है कि शरीर और संसार मिथ्या है।  वह एहसास कर सकता है कि  निश्चलन बोध मात्र सत्य है। वह सत्य स्वयं ही है,अपने स्वभाव ही शांति और आनंद है। ऐसी विवेकशीलता जिसमें नहीं है, उस जीवात्मा को नित्य दुख होगा। वह सुख और शांति स्वप्न में भी अनुभव नहीं कर सकते। कारण यह प्रपंच दुख पूर्ण है। यह अनादी काल से होकर छिपनेवाले सभी जीवात्मा के अनुभव की गोपनीय बात है। देखकर,सुनकर अनुभव करके भी सत्य क्या है? असत्य क्या है? की विवेकशीलता से न जाननेवाले अविवेकशील मनुष्य को मनुष्य कह नहीं सकते। कारण यवह अपने उत्पन्न स्थान की खोज करने के लिए समय न लेकर विषय भोग वस्तुओं के लिए धन केलिए दौडता भागता रहता है।
यह आत्मज्ञान रहस्यों में रहस्य,विज्ञापनों में विज्ञापन है। इसे विज्ञापन कमें न मिलेगा।

3934.एक मनुष्य की दिनचर्याएँ  नहाना,कपडे पहनना आदि नित्य कर्माएँ करते समय वह  एक प्रत्येक काम सा न लगेगा। वैसे ही मन में दिन दिन आनेवाले अच्छे बुरे चिंता कूडों को निरंतर शुद्ध करते समय ही शरीर भर में आत्म स्वयं प्रकाश होगा। कारण स्वयं बने आत्मप्रकाश स्वरूप, दूसरों को प्रकाशित  कराने बना है। इसलिए स्वयं बनेे निश्चल परमात्म स्वरूप में अपनी शक्ति माया दिखानेवाले शरीर और सांसारिक दृश्य माया  दवारा दिखानेवाले इंद्रजाल नाटक है। इसका एहसास करते समय शरीर और संसार मृगमरीचिका के समान तीनों कालों में रहित ही है। उस स्थिति में ही आत्मा का स्वभाव  परमानंद और परमशांत अपने स्वभाव से भोग सकते हैं।

3935.हम जिस आकाश को देखते हैं, वह अपनी स्थिति में कोई परिवर्तन के बिना इस प्रपंच के सभी रूपों को ऊँचा उठाकर दिखाता है। वह आकाश सभी रूपों के पूर्ण अंगों में व्यापित रहता है। आकाश  से ही ये रूप होते हैं। वैसे ही चिताकाश  रूपी परमेशर पंच भूतों को बढा-चढाकर दिखाते हैं। उसे तीन वर्गों में ही दिखाते हैं। प्राण, आकाश,वायु आदि भूत होते हैं।  वे सूक्ष्म जड दृढ बनकर ही
अग्नि,पानी,आदि भूत  बनते हैं। उन भूतों का दृढ बनना ही यह भूमि है।अर्थात् समुद्र का पानी लहरें,जाग बनकर बरफ़ बनने के समान। बरफ़ पानी और भाप बनने के जैसे। वैसे ही परमात्मा रूपी अखंडबोध ,बोध रूपी परमत्मा, अपने निश्चलन में परिवर्तन किये बिना चलन शक्ति माया चित्त बनकर प्राणन के रूप में  अनेक परिणामों में  मिलकर  इस ब्रह्मांड को बनाया है।लेकिन यह जड कर् चलन प्रपंच मृगतृष्णा होती है। कारण निश्चल परमात्मा में कोई चलन नहींं होगा।चलन होने पर परमात्मा का सर्वव्यापकत्व नष्ट होता है। इसलिए एकात्मा एक ही परमात्मा मात्र ही नित्य सत्य परमानंद मात्र स्थिर खडा रहता है। वह परमात्मा  स्वयं ही है की अनुभूति करनेवाला ही ब्रह्म है। यही अहंब्रह्मास्मी है।

3936. परमत्मा के सान्निद्य में ही प्रकृति से सकल चराचर के यह विश्व प्रपंच बनता आता है। विविध प्रकार से परिणमित इस प्रपंच का साक्षी मात्र ही भगवान है। यह साक्षी ही हर एक जीव  के हृदय में जीवात्मा के रूप में रहता है। जो यह महसूस करता है कि वह स्वयं शरीर या संसार नहीं है, शरीर और संसार अपने यथार्थ स्वरूप परमात्मा रूपी अखंड बोध में अपनी शक्ति माया अपने को अंधकार में छिपाकर दीखनेवाला स्वप्न है। ऐसी अनुभूति के जीव ही आत्मज्ञान को उपयोग करके शरीर और संसार को मृगमरीचिका के समान तजकर  प्रतिबिंब जीव रूपी अपनी जीव स्थिति को भूलकर
बिंब बने अखंडबोध स्वरूप को अज्ञान निद्रा से पुनः जीवित करके निजी स्वरूप अखंडबोध स्थिति को प्राप्त करके उसके स्वभाविक परमानंद में स्थित खडा रह सकता है। इस संसार में बडा खज़ाना आत्मज्ञान ही है। इसको न जाननेवाले अविवेकी ही नाम,यश और धन के बंधन के लिए मनुष्य जीवन के आयु को बेकार कर रहे हैं वैसे लोग गुलाब की इच्छा के द्वारा वह काँटे के पौधे देनेवाले दर्द सहने तैयार रहते हैं। जो फूल को तजते हैं,केवल उसको ही दुख से विमोचन होगा।

3937.नाम पाने के लिए, धन के लिए,अधिकार के लिए शास्त्र सिखानेवाले गुुरु के शिष्यों और भक्तों के स्वभाव भी वैसे ही होंगे। वैसे लोग ही जो जग नहीं है, उसको स्थिर खडा करते हैं। वह प्रकृति के स्थिर खडा रखने का भाग है। उसी समय यथार्थ सत्य की खोज करनेवाले ही यथार्थ गुरु के पास जा सकते हैं। यथार्थ गुरु नित्य संतुष्ट रहेंगे। वे इस संसार में किसीसे कुछ भी प्रतीक्षा नहीं करते।
उनका पूर्ण मन सत्य आत्मा में मात्र रहेगा। वैसे आत्मज्ञानी के गुरु के यहाँ  शिष्य और भक्त  विरले ही रहेंगे। कारण माया गुणों से विषय वस्तुओं से भरा मन सत्य के निकट जा नहीं सकता। जो सत्य के निकट  जा नहीं सकता, उसको दुख से विमोचन न होगा।उनसे शांति और आनंद बहुत दूर रहेंगे।
3938.  अपनी अहमात्मा को कोई भी कलंकित नहीं कर सकता। वह सब के साक्षी  रूप में ही रहता है। तीनों कालों में रहित
यह दृश्य प्रपंच में देखनेवाले सब के सब को प्रकाशित करनेवाला अपनी अहमात्मा ही है। रूपभेद,वर्ण भेद,जन्म-मरण आदि विकार के विविध भाव होनेवाले ही ये जड हैं। लेकिन बदल-बदलकर आनेवाले ये भाव कोई भी आत्मा पर प्रभाव नहीं डालता।उदाहरण स्वरूप
सूर्य प्रकाश से प्रकाशित वस्तुओं की कमियाँ कोई भी सूर्य पर अपना
प्रभाव डाल नहीं सकता।
3939.वेदांत सत्य जानकर उसमं जीनेवाले विवेकियों को ही उनके शरीर और मन स्वस्थ रहते समय ही वे अपने वचन और क्रिया को एक साथ लेकर चल सकते हैं। उसी समय शरीर और मन शिथिल होने के बाद सांसारिक जीवन में सत्य को जो महसूस नहीं करता,उसके लिए असाध्य कार्य ही है। कारण उनका मन शारीरिक बीमारी,रिशतेदार,घर,धन और संसार में ही रहेगा। वैसे लोग
मरते समय प्राण पखेरु उडते मिनट में उनका मन एक अमुक इच्छा में न रहेगा।कारण चित्त बदलते रहने से जीव जाते निमिष में घास.पशु, अच्छे-बुरे जो भी हो, जिसमें मन लगता है, वैसा ही जन्म लेता है।
अर्थात् उनके मन की परेशानी में  जो सोचता है,वैसा ही जन्म लेगा।
कारण उनके जीवन में कोई अमुक लक्ष्य न होना ही है। जैसा चित्त होता है, जीवन भी वैसा ही है। चित्त ही किसी के संपूर्ण जीवन के लिए उसके देखने के जग के लिए कारण बनता है। इसलिए वह चित्त और प्रतिबिंब बोध मिलकर ही मरते समय शरीर को छोडकर बाहर जाता है। अर्थात् चित्त के बिना आत्मा प्रतिबिंबित हो नहीं सकती। बिना पानी के, अर्थात् प्रतिबिंब करनेवाली वस्तु के बिना सूर्य प्रतििंबित कर नहीं सकता। पानी की चंचलता प्रतिबिंब को भंग करने के जैेसे ही चित्त संकल्प सब प्रतिबिंब जीव पर असर डालने के समान लगता है। पानी नहीं तो सूर्य प्रतिबिंब भी नहीं रहेगा। वैसे ही  चित्त नाश के साथ जीव भाव जीव भाव का भी नाश होगा। वैसे ही जीव जिंदा रहते समय ही जो चित्त को पवित्र  बनाकर इच्छा रहित पूर्णतः शुद्ध रूप में  रखता है, तब चित्त का कोई अस्तित्व न रहेगा।
कारण चित्त चित् रूप में बदलेगा। वह आत्मा के रूप में बदलेगा। तभी सभी दुखों से विमोचन होगा।

3940. एक पतिव्रता  के सिवा साधारण स्त्री का मन, स्त्री को अनुसरण करनेवाले पुरुष का मन सत्यतः आत्मा के निकट जाने में कष्ट ही होगा। वह सत्य ही स्त्री और पुरुष को गतिशील रखता है। लेकिन वे सत्य को महत्व  न देने से दुख उनसे दूर नहीं होगा। उनको नहीं मालूम है कि दुख के कारण असत्य ही है। उसके कारण शारीरिक अभिमान रूपी अहंकार ही है। उसको गुरु,माता-पिता और समाज ने नहीं सिखाया है कि अहंकार ही दुख के कारण है। केवल वही नहीं , उन्होंने शास्त्रों का अध्ययन नहीं किया है। वैेसे लोग दुख से और और दुख लेकर ही प्राण तजते हैं। जो कोई जीव और शरीर को विवेक से जानते हैं, वे जड रूपी शरीर को तजकर प्राण रूपी आत्मा को ही स्वयं है की अनुभूति करके आत्मा के स्वभाविक आनंद का अनुभव करेंगे।

3941. एक मंदिर के दीवार पर एक देव के चित्र को देखते समय वह चित्र दीवार से अन्य -सा  लगेगा। वैेसे ही अपने को दृश्य के यह प्रपंच स्वयं बने आत्मा से अन्य-सा लगेगा। चित्र के मिटने पर भी दीवार में कोई परिवर्तन नहीं होते, वैसे ही दृश्य के  न होने पर भी  दृष्टा रूपी अर्थात आत्मा रूपी स्वयं मिटता नहीं है। वैसे ही कोई ज्ञानी अपने शरीर को ही स्वयं बने आत्मा रूपी बोध में चित्र खींचने के जैसे देखता है,अर्थात्  बोध में अपने दृश्य रूपी  चित्र जैसे अपने शरीर को देख सकताहै ,वह अनुभव कर सकता है कि उसके अपने शरीर का नाश होने पर भी उसका नाश न होकर स्थिर खडा है। इसलिए कुछ ज्ञानी  स्वात्मा को अपने पूर्ण  रूप से साक्षात्कार करते समय  ऊपर नीचे आश्चर्य से देखेंगे कि अपने शरीर और संसार कहाँ गये हैं।अर्थात् यह एहसास कर सकते हैं कि शरीर और संसार आत्मा रूपी अपने में रस्सी में साँप जैसे और रेगिस्तान में मृगमरीचिका जैसे मिथ्या है।

3942. मनुष्य मन को कष्ट है कि आँखों से देखकर अनुभव करनेवाले यह शरीर और संसार नश्वर है।   आत्मज्ञान की दृढता होने तक यह अविश्वसनीय है कि  वैसे ही शरीर और संसार को जाननेवाले ज्ञान स्वरूप अनश्वर ही है।  अपनी आँखों से ही अपनी आँखों को देख नहीं सकते,अपने से अन्य दर्पण में देखकर ही रस लेते हैं। वैसे ही सर्वव्यापी आत्मा अपने को ही माया रूपी दर्पण में अपने से अन्य रूप में प्रपंच रूप में देखते हैं। लेकिन दर्पण को तोडते ही प्रति बिंब मिट जाते हैं। वैसे ही आत्मज्ञान की दृढता होने के साथ
चित्त रूप के शरीर और संसार मिट जाएँगे। साथ ही जीवभाव छिप जाएगा। साथ ही आत्मा रूपी अखंडमात्र नित्य सत्य  रूप में परमानंद रूप में स्थिर खडा रहेगा।

3943. कोई भक्त संपूर्ण परम कारण रहनेवाले परमात्मा बने परमेश्वरन को अभय प्राप्त है,उसके सामने मात्र ही महा माया फण फैलाये रहेगा। कारण भगवान और भक्त दो नहीं है। वही नहीं परमेश्वरन भक्त का दास ही है। भक्त के दुख को भगवान न सहेंगे। साधारणतः स्त्रियाँ आत्मवीचार के विरुद्ध हैं। उसका सूक्ष्म यही है कि जगत स्वरूपिनी स्त्री चलनशील है,परम कारण के परमात्मा निश्चलन है। इसलिए जो स्त्री हमेशा आत्मस्मरण को शुरु करती है,
उसके साथ स्त्री जन्म का अंत होगा। या परमात्मा की पराशक्ति से ऐक्य हो जाएगा। अर्थात् चलन ही निश्चलन होगा। इसलिए जो स्त्री
सदा आत्मा रूपी परमेश्वर को पति मानकर पतिव्रता बनती है,वह पराशक्ति परमेश्वर में ऐक्य हो जाएगी।

3944.  जो कोई निरंतर दुख में रहता है, उसके हृदय में परमानंद स्वरूप परमात्मा मात्र नहीं, उसी के ही रूप में है। यह बात वह जानता नहीं है। जानने पर भी वह भरोसा नहीं रखता। विश्वास होने पर भी ज्ञान की दृढता नही होती। इसीलिए वह सदा दुखी रहता है। उसी समय  जो कोई परमानंद स्वरूप परमात्मा अपने शरीर और प्राण है का एहसास करके सभी कर्म करने से वह सदा धैर्यशाली है। केवल वही नहीं , शांति और आनंद उसको छोडकर नहीं जाएँगे।

3945.  स्त्री को उपदेश करके बुद्धिमान बना सकता है,यह मोह अर्थ शून्य है। उसके विषय चिंताओं के आवर्तन स्वभाव से समझ सकते हैं। केवल वही नहीं, उसका अनुसरण रहित रहना,सत्य के बिना रहना
स्पष्ट होगा। अर्थात् चलनात्मक प्रकृतीश्वरी चलनशील होने से मात्र ही वह स्थाई सा लगेगा। वह निश्चलन सत्य के निकट जाने पर प्रकृतीश्वरी का अस्तित्व नहीं रहेगा। कारण सत्य निश्चलन है। सत्य को  चलन छूने  के बाद वह निश्चल हो जाएगा। इसीलिए स्त्रियाँ पुरुष का अनुसरण नहीं करती। सत्य नहीं बोलती। जो स्त्री निश्चल परमात्मा में मन लगाती है, माया स्त्री मायावी पमेश्वर होगी। परमेश्वर बनकक परमात्मा बने परब्रह्म मात्र ही नित्य सत्य परमानंद स्वभाव में रहेगा।

3946. साधारण स्त्रियों को विवेकी पुरुषों की आवश्यक्ता नहीं है।
अविवेकी पुरुष की आवश्यक्ता है। कारण विवेकी पुरुष स्त्रियों के शरीर से प्रेम नहीं करेगा।अविवेकी पुरुष ही शरीर से प्रेम करते हैं।स्त्री के शरीर से प्रेम करनेवाले पुरुषों को रखकर ही स्त्री अपनी इच्छाओं को पूरी कर लेती है। स्त्री पहले अपनी कामवासना की पूर्ति के लिए पुरुष को क्रोधित करेगी। जब वह हो नहीं सकता,वह डराएगी। उसमें भी वह वश में नहीं आएगा तो उसको मृत्यु वेदनाएँ देगी। वह उसे सताएगी। उसमें भी वह नियंत्रण में नहीं आयेगा तो वह उसे छोडकर चली जाएगी। जब वह उसे हटकर नहीं जा सकती, आजीवन उसके नियंत्रण में रहेगी। उसी समय नियंत्रण में जो रहना नहीं चाहती,वह स्त्री ही पुरुष के बेसाहारे स्थिति में रहेगी। जो स्त्री पुरुष को अपने दिव्य पुरुष मानकर जीवन चलाती है, तो पति के बंधन में रहेगी। उसके जीवन में स्त्री जन्म से विमोचन होगा। ये सब
द्वैत बोध और  भेद बुद्धि के साधारण मनुष्य के बारे में ही है। लेकिन सत्य  यही है कि नाम रूप के सब असत्य ही है। केवल एक ही एक लिंग भेद रहित अरूप निश्चलन बने परमात्मा मैं रूपी अखंड बोध मात्र ही परमानंद स्थिर खडा रहता है।

3947. जो दुख को मात्र  देनेवाले संसार में,  उसके जीव और सांसारिक विषयों के बारे में निरंतर चिंतन में डूबकर कर्म करनेवालों को शारीरिक अभिमान बढेगा। वह अहंकार और दुर्रभिमान को बनाएगा। दुर्रभिमान और द्वैतबोध को उसके द्वारा राग-द्वेष को बनाएगा। वही निरंतर दुख के कारण है। इसलिए आत्म उपासक को कर्म में अकर्म को विषयों में विष को जीवों में एकात्म को दर्शन करके उपासना करनी चाहिए। आत्म उपासक की दृष्टि में शरीर और संसार सब के सब रूप रहित एक ही परमात्मा ही भरा रहेगा। वह परमात्मा ही मैं है के अनुभव को उत्पन्न करके अखंडबोध के रूप में रहता है। मैं रूपी अखंडबोध नहीं तो कुछ भी नहीं है। जो भी है, उसमें अखंड बोध भरा रहेगा। अर्थात् स्वयं बने बोध रहित कोई भी कहीं भी कभी नहीं है। इस शास्त्र सत्य को महसूस करके बडी क्रांति और आंदोलन करने पर भी कोई दुख नहीं होगा। मृत्यु भी नहीं होगी। कारण बोध पैदा नहीं हुआ है। इसलिए उसकी मृत्यु नहीं है।  बोध में दृष्टित  नाम रूपों को स्वयं कोई अस्तित्व नहीं है। कारण बोध सर्वव्यापी होने से नाम रूपों को स्थिर रहने कोई स्थान नहीं है। वह केवल दृश्य मात्र है। वह जो सत्य नहीं जानता, उसका दृश्य मात्र है।सत्य जाननेवाले नाम रूप में स्वयं बने बोध के दर्शन करने से अस्थिर हो जाता है। इसलिए उसको दूसरे दृश्य नहीं है।

3948.  वही स्वयं को, आत्मा रूपी अखंडबोध को, एहसास करके उसमें दृढ रह सकता है ,जो नामरूपात्मक इस जड प्रपंच को  अर्थात्  कर्म चलन और यह दृश्य प्रपंच अर्थात् पंचेंद्रिय अनुभव करनेवाले प्रपंच तीनों कालों में  स्थिर नहीं  रहेगा। वैसे लोग ही बोध स्वभाव शांति और आनंद को अनुभव कर सकता है। इस स्थिति में एक ज्ञानी को  जब कोई  दर्शन करता है, तब उसी मिनट से दर्शक के मन से दोष बदलकर शांति और आनंद का एक शीतल अनुभव होगा। वह दर्शन ही शिव दर्शन होता है। कारण शिव परमात्मा है। आत्मा में सदा आनंद अनुभव करनेवाला है। नित्य आनंद का अनुभव करनेवाला शिव ही है। उस शिव स्थिति रूपी मैं के अखंड बोध को अपनी शक्ति माया अंधकार रूप में अपने स्वभाविक परमानंद
स्वरूप को छिपा देता है। उस अंधकार आकार से ही सभी प्रपंच बनते हैं।अर्थात् उस अंधकार से पहले उमडकर जो आया है,वही मैं रूपी  अहंकार है। उससे अंतःकरण,बुद्धि, संकल्प मन नाम रूप विषय वस्तुओं को बढानेवाले चित्त ,चित्त विकसित दिखानेवाले दुख देनेवाले वर्ण प्रपंच होते हैं। उनसे बाहर आने मन को अनुमति न देनेवाले दृश्य अनादी काल से होते रहते हैं। जो जीव किसी एक काल में दुख निवृत्ति  के लिए मन की यात्रा बाहरी यात्रा से अहमात्मा की शरणागति में जाता है, उसको मात्र ही दुख का विमोचन होगा। सिवा इसके जड-कर्म चलन प्रपंच में डूबकर उमडनेवाले किसी भी जीव को कर्म बंधन से मुक्ति  या कर्म से तनिक भी आनंद या शांति किसी भी काल में न मिलेगा।

3949. प्रेमियों के दो हृदय अपने में अर्थात् शरीर रहित आत्मा और आत्मा से प्यार होते समय शरीर की सीमा पार करके एक रूपी असीमित बोध समुद्र के रूप में बदलता है। साथ ही इस वर्ण प्रपंच के प्रेमसागर में उत्पन्न होनेवाली लहरों,बुलबुलों और जागों को ही देखेंगे।अर्थात्  बोध अभिन्न जगत के तत्व को साक्षातकार करेंगे।
3950.कलाओं में जो भी कला सीखें,तब सोचना चाहिए कि यह कला ईश्वरीय देन है। उसे स्वर्ण, धन और पद के लिए उपयोग करना नहीं चाहिए। ईश्वर के दर्शन के लिए ईश्वर के सामने कला का नैवेद्य चढाना चाहिए। वैसे करनेवाले ही ईश्वर के दर्शन करके आनंदसागर के तट पर पहुँचेंगे। वैसा न करके सृष्टा को भूलकर सृष्टि के समर्थन करने नित्य नरक ही परिणाम के रूप में मिलेंगे।उसी समय सृष्टा से एक निमिष मिलकर उन्हें न भूलकर कलाओं को जैसा भी प्रयोग करो,वह दुख न देगा। अर्थात् बुद्धि जड है। मन भी जड है। प्राण भी जड है, शरीर भी जड है। जड में कोई क्षमता नहीं रहेगी। वह स्वयं नहीं के बराबर है। स्वयं में परमात्मा बने मैं का बोध शरीर रूपी उपाधि में मिलकर स्वयं अनुभव करनेवाले अनुभवों का हिस्सा ही सभी कलाओं की रसिकता है। सभी चलन माया है। निश्चलन बोध मात्र नित्य सत्य है। इसका एहसास करके जो कलाकार केवल कला में मात्र मन लगाकर जीवन में खुश का अनुभव करते हैं,वे ही अंत में आनंद का अनुभव करके स्वयं आत्मा का साक्षातकार कर सकते हैं। या उनकी इष्टदेवता के लोक जा सकते हैं।

3951. जो सुंदरता को वरदान के रूप में प्राप्त किया है,वे अपने जीवन को सत्य साक्षात्कार के लिए उपयोग न करके असत्य साक्षात्कार के लिए उपयोग करने से ही उनका जीवन नरकमय बन जाता है। इसलिए उनको एहसास करना चाहिए कि अपने शरीर की सुंदरता की चमक अपनी अहमात्मा की चमक है। इस तत्व को भूलकर जीव सोचता है कि वह सुंदरता जड रूपी शरीर की है।यह सोच गलत है। ऐसी गलत सोच के कारण ही जीवन नरक बन जाता है। अर्थात् आत्म बोध नहीं तो सूर्य को प्रकाश नहीं है। बोध नहीं तो चंद्र को प्रकाश नहीं है। बोध नहीं तो फूल को प्रकाश नहीं है। बोध नहीं तो नक्षत्रों को प्रकाश नहीं है। बोध नहीं तो कुछ भी चमकता नहीं है। यह सारा प्रपंच मैं रूपी अखंडबोध प्रकाश ही है। अर्थात् एक ही अखंड बोध मात्र नित्य सत्य रूप में है।मैं रूपी अखंडबोध को ही ईश्वर, ब्रहम परमज्ञान,परमात्मा,सत् ,चित् आनंद आदि कहते हैं । जो जीव इस सत्य को नहीं जानते,वे ही इस संसार में निरंतर दुख भोगते रहते हैं। सत्य में दुख एक भ्रम मात्र है। भ्रम का मतलब है रेगिस्तान में मृगमरीचिका के जैसे,रस्सी में साँप जैसे है। भ्रम हर एक को एक एक रूप में असर डालता है। उदाहरण के लिए एक मील पत्थर आधी रात में किसी एक को भूत-सा लगता है। लेकिन एक चोर को पकडने आये पुलिस को वहीमील पत्थर चोर-सा लगता है। एक प्रेमी को प्रेमिका के जैसे,एक प्ेमिका को प्रेमी जैसे लगत है।
उसी समय दूर से आनेवाले वाहन की रोशनी में मील पत्थर साफ-साफ दीख पडने से सबका संदेह बदल जाएगा। वैसे ही जब तक आत्मज्ञान प्राप्त नहीं होगा तब तक संदेह और दुख न मिटेगा। सभी दुखों से विमोचन होने के लिए एक ही महा औषद आत्मज्ञान मात्र है।
3952 हर एक के मन में ये प्रश्न उठते रहेंगे कि मैं कौन हूँ? मेरी उत्पत्ति कहाँ हुई? कहाँ मिट जाऊँगा? कब मरूँगा या न मरूँगा? मैं कहाँ स्थिर रहूँगा? कैसी गति होगी? कौन मुझे गतिशील बनाता है? जिनको संदेह है, उनको दो बातें  जान लेना चाहिए।१. नाम रूपात्मक यह सारा ब्रह्मांड जड है। वह तीनों कालों में रहित है। २. मैं है का अनुभव बोध। वह किसी के द्वारा बिना कहे ही मैं हूँ का बोध है ही। अर्थात यह सोच नहीं सकते कि मैं का बोध जन्म हुआ है और मिट गया है। उसका जन्म और मृत्यु नहीं है। अर्थात् बोध स्वयंभू है। इस बोध से मिले बिना किसी बात को देख नहीं सकते, सुन नहीं सकते,जान नहीं सकते, भोग नहीं सकते। अर्थात्‌ आत्मा रूपी मैं का बोध ही सब कुछ है। जो स्थिर  है, उसको किसी काल में बना नहीं सकते।इसकी निज स्थिति मनुष्य ही जान सकता है,जानवर जान नहीं सकता।  इसलिए जो  मनुष्य के महत्व को नहीं जानता, उसको सुख और शांति किसी भी काल में नहीं मिलेंगे। निरंतर दुख ही होगा। जो दुख विमोचन चाहते हैं, मूल्य जितना भी हो,त्याग जितना भी हो करके आत्मज्ञान सीखना चाहिए। जिसको  इसमें विश्वास नहीं है,वे प्रश्न  करके, परस्पर   चर्चा करके शास्त्रों का अध्ययन करके सद्गुरुओं से प्रश्न करके ,आज तक संसार में जन्मे सभी महानों के अनुभवओं को लेकर उनके उपदेशों पर विश्वास रखकर स्वयं अभ्यास करके अनुभव करना चाहिए। जब विश्व का उदय हुआ,उस दिन से यह सत्य प्रकट होता रहता है। जितने भी महानों का जन्म हो,
ईश्वरीय अवतार हो,शास्त्र सत्य यही है कि अमीबा से ब्रह्मा तक के सभी नाम रूप तीनों कालों में रहित ही है। केवल मैं रूपी अखंडबोध मात्र ही नित्य सत्य रूप में एक और एक रस में परमानंद रूप में स्थिर खडा रहेगा। यह सत्य है कि जो जीव ये सब नहीं करते,उनको दुख ही होगा। सुख नहीं मिलेगा।

3953. दो परिवार आपस में वादविवाद करते समय एक दूसरे को देखकर कहेगा कि मुझे और मेरे परिवार को भगवान देख लेंगे। तब वे नहीं सोचते और एहसास नहीं करते कि जो भगवान उसके परिवार को देखता है,वही सामनेवाले परिवार को भी देखेगा।  उसके कारण यही है कि शारीरिक अभिमान रूपी अहंकार और उसके द्वारा होनेवाली भेद बुद्धि दोनों के हृदय के एकात्मा को छिपा देता है। सांसारिक जीवन बितानेवाले सब के सब सदा दुख का अनुभव करता है। हर एक सोचते हैं कि मेरे देखने से ही तुम्हारा जीवन चलेगा। ऐसे सोचनेवाले अहंकारियों को भी भगवान ही देखता है।इस बात को समझ लेना चाहिए कि  वह भगवान हर एक जीव के दिल में वास करता है। वही भगवान सब को सक्रिय बनाकर नचाता है। जिस दिन हर एक जीव अपने को गतिशील  बनानेवाली शक्ति अर्थात आत्मा अर्थात बोध को एहसास करता है उस दिन तक दुख से बाहर नहीं आ सकता। यही सब जीवों का हालत है। आज या कल इसका महसूस करना ही चाहिए।इसे जानने और समझने के लिए ही सभी जीव जाने-अनजाने यात्रा करते रहते हैं। कारण वह आनंद खोज के लिए भटकना ही है। वह जीव नहीं जानता कि वह आनंद हर जीव का स्वभाव है।

3954.मिट्टी से बुत बनानेवाले शिल्पी की आँखों में मिट्टी के बिना आकार न बनेगा। वैेसे ही आत्मज्ञानी इस संसार में जितने भी रूप रहे, सिवा आत्मा के किसी भी लोक को देख नहीं सकता। अर्थात स्वआत्मा को उसकी पूर्णता में जो साक्षात्कार करने का प्रयत्न करता है,उसको ब्रह्मांड में तजने या स्वीकार करनेे कुछ भी नहीं है।वैसे लोग ही आत्मा को पूर्ण साक्षात्कार से आत्मा के स्वभव परमानंद को अनिर्वचनीय शांति कोो अपनेे स्वभाविक निरुपाधिक रूप में स्वयं अनुभव करके आनंद का अनुभव करेगा।

3955.स्वप्न में अपनी प्रेमिका को कोई चुराकर ले जाने  के दुख को न  सहकर  आत्महत्या की कोशिश करने की दशा में नींद खुल जाती है तो मानसिक दर्द जैसे आये,वैसे ही दर्द गए। वैसे ही इस जागृत जीवन में भी अविवेकी एहसास नहीं कर सकता। लेकिन वह स्वप्न को मिथ्या, वह जागृत को सत्य मानता है। वह एहसास नहीं कर सकता कि रात में जो स्वप्न  देखा,वैसे ही जागृत अवस्था में अज्ञान रूपी निद्रा में देखनेवाले स्वप्न अनुभव ही इस जागृत अवस्था के अनुभव ही उसके कारण होते हैं। इसे विवेक से न जाननेवाले आत्मज्ञान अप्राप्त बेवकूफ़ ही दुख का अनुभव करके जीवन को व्यर्थ करते हैं। अर्थात् स्वप्न जागृति और जागृत स्वप्न दोनों ही माया दर्शन ही है। ये दोनों ही असत्य ही है।मैं रूपी अखंडबोध में ही अपनी शक्ति माया चित्त बनाकर दिखानेवाला एक इंद्रजाल ही है। यह इंद्रजाल कभी सत्य नहीं होगा। जो इसका एहसास करता है, उसको दुख नहीं होगा। जो इसका अनुभव नहीं करते उनको नित्य दुख ही होगा। दुख विमोचन का एक मात्र मार्ग आत्मज्ञान मात्र ही है।

3956. सभी मनुष्यों के दिल में ये प्रश्न उठते रहते हैं कि मैं कौन हूँ? तुम कौन हो? मैं और तुम  कहाँ से आये? हमारे माता-पिता और पूर्वज कहाँ से आये? क्यों और किसके लिए आये? इन प्रश्नों के उठने के पहले ही खोज करनी चाहिए कि इन प्रश्नों के उत्तर पहले ही हमारे पूर्वजनों ने कहे हैं? किसी शास्त्रों में लिखा है क्या? क्या इसके लिए कोई वेद है? . तभी एहसास कर सकते हैं कि कई हजार वर्षों के पहले ही वेदांत कहनेवाले उपनिषदों में इन प्रश्नों के उत्तर मिलते हैं। उनसे सत्य और असत्य को जान-समझ सकते हैं। इस प्रपंच का आधार अथवा परम कारण ब्रह्म ही है। अर्थात् मैं रूपी बोध ही है। वह बोध अखंड है। जैसे एक ही बिजली अनेक बल्ब प्रकाशित हैं, वैसे ही सभी जीवों में   मैं रूपी अखंड बोध एक रूप में  प्रकाशित है। इसका एहसास करके दृढ बुद्धि से जीने से ही बोध के स्वभाविक परमानंद और अनिर्वचनीय शांति का अनुभव होगा। उनको भोगने में बाधक हैं संकल्प और रागद्वेष। भेद संकल्प और राग-द्वेषों को आत्मविचार  के द्वारा परिवर्तन कर सकते हैं। इस परमानंद को स्वयं भोग सकते हैं।

3957. एक सगुणोपासक के दिल में देवी देव के रूप में प्रतिष्ठा करने के जैसे ही आत्मोपासक की आत्मा से ज्ञानोदय होकर तत्वज्ञान रूप लेता है। वैसे प्रकृति को उपासना करनेवालों के मन में कला, काव्य, कविता,चरित्र बनता है। अर्थात् संकल्प जैसे ही मानना है। इसलिए जीवों में विवेकी मनुष्यों को मात्र ही अपने शरीर और संसार एक लंबे स्वप्न है, वह एक गंधर्व नगर जैसे हैं, वह तीनों कालों में रहित है। यह सब जानने के ज्ञान रूपी मैं रूपी परमात्मा बने अखंडबोध मात्र ही है। यह एहसास करके जड स्वभाव के शरीर और संसार को विस्मरण करके आनंद स्वभाव आत्मा स्वयं ही है को समझकर वैसा ही बनना चाहिए। सत्य को जानने की कोशिश न करके शरीर और संसार को  भूल से आत्मा सोचकर जीनेवालों को दुख ही भोगना पडेगा। सुख कभी न होगा। जो दुख के कारण ईश्वर सोचते हैं,  उनको एहसास करना चाहिए  कि  उनके दुखों के कारण हृदय में रहे ईश्वर को सोचकर आनंद स्वरूप ईश्वर की पूजा नहीं की है। अर्थात् विश्वविद्यालयों में आत्मज्ञान सिखानेवाले वेदग्रंथ न पाठ्यक्रम में  होने से ही दुखों के बुनियाद आधार है। अर्थात् शिक्षा ज्ञान में और आत्मज्ञान के लिए मुख्यत्व न देने  कारण राज्य की प्रगति नष्ट होगी। यह शासकों की गलतफ़हमी  है।इसलिए उनको समझना चाहिए कि लौकिक ज्ञान से होनेवाली प्रगति से अनेक गुना शक्ति कर्म प्रगति आत्मज्ञान प्राप्त करनेवालों से ही कर सकते हैं।
आत्मज्ञान जिसमें है, उनसे बनाये कर्म प्रगति  में  दुख का अनुभव करने पर भी उनमें जो शांति और आनंद है,वे रहेंगे ही, न बदलेंगे।

3958. भगवान की खोज करने की आत्म उपासनाएँ हैं भक्ति,ज्ञान,कर्म योग मार्ग और रूप रहित अपरिवर्तनशीलआत्म उपासनाएँ होती हैं। उनमें श्रेष्ठ  आत्मोपासना ही है। आत्मोपासना करना है तो आत्मज्ञान सीखना चाहिए। बाकी सब उपासनाएँ और सत्य की खोज़ इस आत्मज्ञान को प्राप्त करने के लिए ही है। अर्थात् सभी ईश्वर खोज का अंत आत्मज्ञान ही है। वह आत्मज्ञान अपने बारे में का ज्ञान  ही है। सबको गहराई से खोजने पर जो ज्ञान अध्ययन द्वारा सीखते हैं,उनसे भिन्न है स्वयं अनुभव से प्राप्त ज्ञान। स्वयं रूपी परम ज्ञान सागर में ज्ञान की लहरें,ज्ञान के बुलबुले, ज्ञान के जाग में ही यह प्रपंच स्थिर खडा है। अर्थात् परम रूपी ज्ञान के स्वभाव ही परमानंद है। परमानंद स्वभाव के साथ मिलकर मैं रूपी परम ज्ञान सागर ही अपरिच्छिन्न सच्चिदानंद स्वरूप नित्य सत्य रूप में प्रकाशित होते रहते हैं।

3959. फूल और सुगंध,सूर्य और प्रकाश कैसे अलग करके देख नहीं सकते, वैसे ही वचन और अर्थ दोनों को अलग नहीं कर सकते। अर्थात जो कोई अपने सूक्ष्म अर्थ को गौरव में लेता है, वह जिस मंत्र को जप करके देव-देवियों की उपासना करता है,उसको एहसास करना चाहिए कि उस मंत्र के जप करने के निमिष में ही, उस मंत्र की देवता उसके सामने प्रत्यक्ष दर्शन देंगे।उदाहरण श्रीं के उच्चारण करते ही उसकी देवता महालक्ष्मी उसके सामने आएगी। शिवे के कहते ही पार्वती उसके प्रत्यक्ष आएगी। महा सरस्वती के जपते ही साक्षात सरस्वती उसके सामने आएगी। वैसे ही काल जो भी हो,समय जो भी हो, भाषा जो भी हो,संकल्प जो भी हो, चींटी से देव तक जो भी हो,मंत्रोच्चारण के करते ही संकल्प की देवता जो भी हो प्रत्यक्ष देवता, उसी भाव में उपासक के सामने प्रत्यक्ष  होंगे। स्थूल नेत्रों से देख न सकें तो सूक्ष्म रूप में वे आएँगे। अविवेकियों को आजीवन दुख झेलते रहने के कारण  अविवेकियों को मालूम नहीं है कि देवी-देवताओं को कैसे निमंत्रण करना चाहिए। उसी समय उसे जाननेवाले भक्त  ही  भगवान से परस्पर  मिलकर सहयोगी बनकर जीवन में श्रेयस और प्रेयस से जी सकते हैं। अर्थात् आध्यात्मिक ज्ञान, भौतिक ऐश्वर्य के साथ जी सकते हैं। लेकिन जो विशेष  और विशिष्ट जीवन बसाना चाहते हैं, उनके समझ लेना चाहिए कि सभी कर्म ,सभी उपदेशों का अंत मैं रूपी निराकार एक ही एक अखंड बोध ही है।इस संसार के सभी सुख-भोगों का स्थान मैं रूपी अखंड बोध ही है। इस बोध के सिवा सभी जीवन के अनुभव स्वप्न मात्र है। इसे खूब जान-पहचानकर जिंदगी बितनेवालों को किसी भी प्रकार का दुख न होगा। उसको मालूम है कि दुख भी स्वप्न है।

3960. जो कोई सांसारिक व्यवहारिक जीवन में दुख के समय मात्र ईश्वर का स्मरण करता है, वह बाकी समय में जड विषय वस्तुओं में मन लगा देने से सुख उसके लिए एक स्वप्न के समान होता है, दुख स्मरण के समान उसके जीवन में होगा। उसी समय जो कछुए के समान संयम रहता है,वह सुखी रहेगा। कछुआ आहार खाने के लिए मात्र सिर के बाहर लाता है, बाकी समय काबू में रखता है। वैसे ही मनुष्य को अपने पूरा समय ईश्वर पर ध्यान रखना चाहिए। तब दुख स्वप्न लगेगा और सुख स्मरण होगा। लेकिन जो जन्म से ईश्वर के शब्द न सुनकर सत्य धर्म नीति न जानकर पशु जीवन बिताता है, वह अविवेकी होता है, उसको जितनी भी सुविधा हो ,उसको सिवा दुख के सुख स्वप्न में भी न मिलेगा। कारण उसके मन में जड विषय,भेद बुद्धि,राग-द्वेष ही होगा। लेकिन जन्म से ईश्वरीय धुन सुननेवाले वातावरण में पलकर घर और देश में भगवत् कार्य में सोते-जागते,खाते सदा सर्वकाल लगे रहनेवालों के जीवन में आनंद और शांति शाश्वत रहेंगे। वैसे लोग उनकी आत्मा को साक्षात्कार करते समय ही यह अनुभव पाएँगे कि वे स्वयं निराकार निश्चलन परमात्मा है,वह परमात्मा रूपी मैं है के अनुभव के अखंड बोध के सिवा और कुछ कहीं कभी नहीं है। अर्थात् अखंडबोध स्थिति पाने के साथ नाम रूप खंड प्रपंच और शरीर अखंडबोध से अन्य रूप में स्थित खडे होने स्थान न होकर जादू सा ओझल हो जाएगा। बोध मात्र नित्य सत्य परमानंद रूप में प्रकाशित होते रहेंगे।

3961. जो कोई अपने को दंड देनेवाले को पुनःदंड नहीं देता है,तभी जिसने दंड दिया है, उसको दंड देने उसको दंड देने के लिए प्रकृति को संदर्भ मिलता है। जिसने दंड दिया है,उसमें अहंकार,स्वार्थ, भेद बुद्धि और राग द्वेष होने से उसको ईश्वरीय अनुग्रह  न मिलेगा।वैसे ही प्रतिशोध  के मन रहित दंड जो भोग चुका है,उसमें भेद-बुद्धि रागद्वेष न होने से ,उसको ईश्वरीय आशीषें मिलेंगी। ईश्वरीय कृपा-कटाक्ष अन्य रहित है,उसी को प्रकृति मदद करेगी। जिसपर ईश्वर की कृपा नहीं रहेगी, प्रकृति उसकी मदद न करेगी। जिनपर ईश्वर की आशीषें हैं,वह स्वयं ब्रह्म ही है। ब्रह्म और ब्रह्म से भिन्न एक प्रपंच नहीं है । अर्थात् बोधाभिन्न ही जगत है। वह ईश्वर मैं रूपी अखंडबोध से भिन्न नहीं है। अर्थात् मैं रूपी अखंडबोध ही ईश्वर है। उस अखंडबोध स्थिति को साक्षात्कार करते समय ही प्रपंच अपने से अन्य रहित होगा। अर्थात् बोधाभिन्न स्थिति को साक्षात्कार कर सकते हैं।

3962. अग्नि की शक्ति को आँखों से देख नहीं सकते।उसमें एक लकडी डालकर उस अग्नि से उसे जलाने पर ही पता चलेगा कि अग्नि में जलाने की शक्ति है। वैसे ही आत्मा की शक्ति जानने के लिए आत्मज्ञान से सांसारिक रूप सब को विवेक से जानते समय आत्मज्ञानाग्नि में सांसारिक रूप छिप जाते हैं । अर्थात् आत्मा सर्वव्यापी है। निश्चलन है। यह प्रपंच कर्मचलन है। सर्वव्यापी परमात्मा निश्चलन होने से आत्मा कर्म नहीं कर सकती। उसमें कर्म हो नहीं सकता। इसीलिए आत्मा को निष्क्रिय कहते हैं। निष्क्रिय आत्मा सर्वव्यापी होने से एक चलन रूप को भी उसमें रह  नहीं सकता। इसीलिए नामरूपात्मक यह कर्म प्रपंच को मिथ्या कहते हैं। अर्थात् मैं रूपी अखंड बोध में दीखनेवाले नाम रूप ही यह प्रपंच है। लेकिन बोध के अखड में नामरूप स्थिर खडा रह नहीं सकता। अर्थात् नाम रूप मिथ्या है।
3963.इस प्रपंच रहस्य को जानना है तो पहले समझना चाहिए कि भगवान एक इंद्जाल मायाजाल व्यक्ति है। जादूगर शून्य से एक वस्तु को बनाकर दिखा सकता है। लेकिन देखनेवालों को मालूम है कि वह वस्तु सत्य नहीं है। वैसे ही भगवान अपनी मांत्रिक छडी द्वारा विश्व मन लेकर जो शरीर और संसार नहीं है, उनकी सृष्टि करके दर्शाते हैं। जो शरीर और संसार नहीं है,  मिथ्या है,उन्हें सत्य माननेवालों को ही भ्रम होता है। रस्सी को साँप समझना ही भ्रम है।
प्रकाश की कमी के कारण ही रस्सी साँप-सा लगता है। वैसे ही ज्ञानप्रकाश की कमी के कारण ही जीव को संसार और शरीर सत्य-सा लगता है। प्रकाश जैसे भ्रम को मिटाता है,वैसे ही आत्मज्ञान शरीर और सांसारिक भ्रम को दूर कर देता है।
इसलिए विवेकी यही पूछेंगे कि इस भ्रम को कैसे मिटाना है,यह न पूछेंगे कि यह कैसे हुआ है। जिस जीव में सत्य जानने की तीव्र इच्छा होती है, उस जीव को सत्य ही परमानंद रूप में स्थित खडा रहेगा। यही अद्वैत् सत्य है।

3964. अंधकार में संचरण करनेवाले  संदेह को छोड नहीं सकते। वह प्रकाश की ओर यात्रा न करेगा तो उसको नित्य नरक को ही भोगना पडेगा। अहंकार ही अंधकार है। आत्मा ही प्रकाश है। आज न तो कल सब को प्रकाश में आना ही पडेगा।नरक एक मनःसंकल्प ही है। मन के मिटते ही नरक भी मिट जाएगा। लेकिन जो मन नहीं है उसे मिटाने के प्रयत्न में जब तक लगेंगे,तब तक मन मिटेगा नहीं। जो मन नहीं है,उसे मिटाने का प्रयत्न न करनेवाला ही सत्य का एहसास करनेवाला है। जिसने सत्य का जाना है और माना है, उसको केवल सत्य ही मालूम है। वह नित्य रूप में,अनादी से आनंद रूप में मैं रूपी आत्मा रूप में स्वयंभू स्थिर खडा रहा करता है।

3965. जो स्वयं प्रकाशित है, स्वयं आनंदित है,स्वयं शांतिपूर्ण है,स्वयं स्वतंत्र है, स्वयं परिशुद्ध है, स्वयं नित्य सत्य है, सर्वज्ञ है,सर्वव्यापी है,वह अखंडबोध परमात्मा, ब्रह्म स्वरूप स्वयंभू,शाश्वत अपने से अन्य कोई दूसरा दृश्य,किसी भी काल में, कभी नहीं होगा। इस एहसास जिसमें कोई संकल्प रहित तैलधारा के जैसे चमकता है,वही यथार्थ स्वरूप आत्मा को साक्षात कर सकता है। उसी समय अपने यथार्थ स्वरूप अखंडबोध स्थिति को एक क्षण के विस्मरण करते ही अपनी शक्ति माया मन संकल्पों को बढाना शुरु करेगा।
इसलिए वह फिर प्रपंच के रूप में बदलेगा। इसलिए जो कोई अपने निज स्वरूप मैं रूपी अखंडरूप स्थिति में बहुत ध्यान से रहता है, वह मक्खन पिघलकर घी बनने के जैसे अपरिवर्तनशील ब्रह्म स्थिति को पाएगा। वही अहंब्रह्मास्मी है।

3966. मनुष्य मन को दृश्य  रूपों में ही लगाव होता है,अदृश्य  सत्य पर मन न लगने के कारण यही है कि सीमित रूपों में लगे मन सीमित रूपों में ही लगेगा। असीमित निराकार सत्य आत्मा में लगनेवाला मन सत्य को स्पर्श  करने के पहले ही वापस आएगा। कारण विषय वस्तुओं में मिलनेवाले सद्यःफल के जैसे निराकार  ब्रह्म की ओर चलनेवाले मन को तुरंत न मिलेगा। कारण आत्मा रूपी ज्ञानाग्नि के निकट जाते समय मन को मिलनेवाले सुख के बदले मन ही नदारद हो जाएगा। इस भय से ही मन अरूप आत्मा की ओर यात्रा करना नहीं चाहता। लघु सुख काम सुख तुरंत मिलकर तुरंत मिट जाएगा। केवल वही नहीं वह स्थाई दुख देकर जाएगा। उसी समय एक बार परमानंद को भोगने पर वह नित्य स्थाई रहेगा। इसीलिए विवेकी लघु सुख त्यागकर परमानंद के लिए तप करते हैं। जो कोई उस परमानंद को अपनी आत्मा का स्वभाव मानकर महसूस करता है, तब उसका मन विषय सुखों की ओर न जाएगा। कारण उसको मालूम है कि  आत्मा  रूपी परमानंद को ही जीव प्रपंच की उपाधि  में मिलकर लघु सुख  के रूप में अनुभव करते हैं।परमानंद को उपाधि में मिलकर अनुभव करते समय वह लघु सुख है,निरूपाधिक रूप में भोगते समय उसे परमानंद कहते हैं।
                                                                                                                                               

                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                               

 
                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                         
                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                               

 
                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                       

 
                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                 

                                                                                                                जगदीश्रर वेद                                                                       3926. मनुष्य मन उसकी अपनी आत्मा से विलीन न होने के काल में इस प्रपंच का,इस प्रपंच बनाकर देनेवाले जैसा भी दुख हो,उससे विमोचन न मिलेगा। इसलिए मन को आत्मा में मिलने के पहले  निर्मल बना लेना चाहिए।मन निर्मल न होने के कारण अनेक विषयों के संकल्प ही हैं ।अनेक संकल्प होने के कारण सुख का केंद्र स्थान न जानना ही है। संकल्प रहित कोई भी विषय मन को सुख न देगा।

इसलिए विषय सुख के कारण संकल्प ही है। संकल्प से मिले सुख विषय नाश के साथ मिट जाएगा। इसलिए नित्य सुख के केंद्र की खोज से पता चलेगा कि वह अपनी अहमात्मा ही है। इसलिए दुख देनेवाले संकल्प दोषों को मिटाकर  सुख स्वरूप आत्मा ही है,वह आत्मा स्वयं ही है का महसूस करते हैं। तब मन सुख की खोज में जड-भोग विषयों की ओर न जाएगा। वैसे मन को किसी भी प्रकार के संकल्प के बिना आत्मा से मिलाने पर शारीरिक दोष और प्रपंच दोष अपने पर असर न डालेगा। मन आत्मा से मिलने के साथ जीव भाव नाश हो जाएगा। साथ ही खंड बोध अखंडबोध होगा। अर्थात् सीमित जीवात्मा असीमित परमात्मा स्थिति को पाएगा। वही आत्मसाक्षात्कार है। तभी नित्य सुख और नित्य शांति को स्वयं निरुपाधिक रूप में भोगकर वैसा ही स्थिर खडा रहेगा।अर्थात्  परमात्मा रूपी मैैं ही सदा सर्वव्यापी और अपरिवर्तन परमानंद ही शाश्वत है।अपनी शक्ति माया के द्वारा अपने अखंड को विस्मरण करते ही जीव और जीव संकल्प संसार उसका जीवन उसका लय सब बना सा लगता है। स्वरूप स्मरण के साथ पर्दा हटने से आत्मा रूपी अपने में कोई परिवर्तन नहीं होते। इसलिए सदा आनंद से ही रहेगा।
3927. हर एक जीव को हर एक मिनट जीवन में होनेवाले दुख रूपी काँटों से बचकर कोमल सुख रूपी फूल खिलने के लिए माया रूपी पर्दा हटाने के लिए आत्मविचार तैल धारा के जैसे होते समय एहसास कर सकते हैं  कि वह स्वयं खिले नित्यानंद फूल ही था, काँटे केवल एक दृश्य मात्र हैं। अर्थात्  आत्मा के बारे में जो नहीं पूछते,जो नहीं जानते ,आत्मा पर श्रद्धा नहीं रखते, वे ही जीव अक्षय
पात्र लेकर भीख माँगकर कष्ट सहकर, दुखी होकर जन्म मरण के संकल्प लोक मार्ग मर भटकते रहते हैं।

3928. मैं रूपी अखंडबोध सर्वव्यापी और सर्वत्र विद्यमान होने से दूसरी कोई स्थान या वस्तु नहीं है। इसलिए बोध का विकार नहीं होता। मैं रूपी अखंड बोध रूपी परमात्मा निर्विकार,निश्चलन,अनंत अनादी और आनंद हो जाते हैं। उस आनंद रूपी बोध में ही अपनी शक्ति स्पंदन रूपी चलन होने सा लगता है। अर्थात् आत्मा की शक्ति चलन से इस पंचभूतों से बने प्रपंच दृश्य होते समय शक्ति का आधार वस्तु सत्य या बोध या आत्मा निश्चलन ही खडा रहता है। इस निश्चलन परम कारण बने मैं रूपी अखंडबोध होने से ही चलन प्रपंच बनकर स्थिर रहकर मिट जाने के रूप माया को उत्पन्न करके दिखाते हैं। एक अपरिवर्तन शील वस्तु के सान्निद्य से ही परिवर्तन शील  एक वस्तु बनेगी। अपरिवर्तन शील आत्मा रूपी मैं है तो आत्मा में उत्पन्न शरीर और संसार ही परिवर्तनशील होते हैं। जो बदलते हैं,वे वह स्थाई नहीं है। वह मृगमरीचिका है। केवल अखंडबोध ही अपरिवर्तनशील है और स्थाई है। मैं रूपी अखंडबोध के रेगिस्तान की  मृगमरीचिका ही शरीर और संसार है।

3929. हर एक मनुष्य के मन में जो अंतरात्मा है, वह परम कारण स्वरूप परमात्मा ही है। जो व्यक्ति एहसास करता है कि वह खुद परमात्मा ही है, शरीर और प्रपंच अपनी आत्मा से भिन्न नहीं है। उस ज्ञान के प्राप्त होते ही शरीर और प्रपंच पर के प्रेम और आसक्ति नहीं होंगे।तभी परमार्थ रूपी स्वयं सर्वांतर्यामी का अनुभव होगा। जब उस स्थिति पर पहुँचते हैं, तब स्वभाविक परमानंद आनंद अनुभव करने लगते हैं। साथ ही एहसास होगा कि  अपने में उत्पन्न सभी भूत अपने नियंत्रण में है। अर्थात् प्रपंच अपनी ओर नहीं खींच सकता। स्वयं मैं रूपी अखंड बोध स्वात्मा ही खींचेगा। जीवात्मा  स्वयं ही सर्वस्व और सब कुछ है का न जानने से ही सत्य न समझकर संसार में भ्रमित होकर शरीर के भ्रम में संकल्प-विकल्प लेकर नित्य दुख का पात्र बनकर विविध प्रकार के जन्मों के बीज बोते रहते हैं।

3930. वर्तमानकाल में जिसका मन शारीरिक शारीरिक भावना के अतीत आत्म भावना में न चलकर अहंकार को केंद्र बनाकर जीता है,

उसके बीते काल के अनुभव उसमें से न टूटकर चालू होते रहेंगे।                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                    कारण अहंकार को स्थित खडा रखना ही बीते काल भविष्य काल के न टूटे चिंतनों को साथ लाने से ही है। जो एहसास करता है कि भविष्य और भूत का स्मरण अर्थ शून्य है, वही विस्मरित आत्मबोध के सभी कार्यों को करके जी सकते हैं। बीते  काल पुनः वापस न आएगा। उसको सोचकर समय व्यर्थ करनेवाला मूर्ख ही है। वैसे ही  आयु अनिश्चित होने से भविष्य को सोचकर समय बितानेवाला भी अविवेकी ही है। अर्थात् स्वयं बने बोध को सभी प्रपंच रूपों में पूर्ण रूप से देखना एकात्म दर्शन से नित्य कर्मों निस्संग रूप में जब जी सकता है,तभी वह अखंडबोध के स्वभाव परमानंद को निरूपाधिक सहजता से भोग सकता है।


3931. साधारणतः एक वाहन के चालक जैसे ही यह आत्मा शरीर में प्राण के रूप में रहकर इस शरीर का संचालन करता है। वह शारीरिक यात्रा संकल्प से ही इस संसार में बना है। इच्छाएँ यात्राओं को बढाती हैं। अनिच्छाएँ यात्राओं को घटाती हैं। दुख  नयी इच्छाओं को  मिटा देता है और सांसारिक आसक्ति को अनासक्ति बना देता है। तब से आत्म खोज शुरु होती है। उस आत्म खोज के वैराग्य में आत्मज्ञान प्राप्त जीवाग्नि में मन जलकर भस्म हो जाएा।मन के नाश होते ही शरीर और संसार विस्मरण हो जाएगा। तब मैं रूपी एक आत्म रूप अखंडबोध मात्र अपने स्वाभाविक  परमानंद के साथ नित्य सत्य रूप में स्थिर खडा रहेगा ।
3932. पंचेंद्रियों को लेकर भोगनेवाला जीवन अनुभवों में अपरिवर्तनशील अनुभव असत्य को एहसास करता है। विषयों को भोगते समय होनेवाले अनुभव विषय नाश के साथ  अस्त होता है। उसी समय मन आत्मा में विलीन होकर आत्मवस्तु अनश्वर होने से आत्मा का स्वभाव आनंद और शांति अनश्वर ही रहेंगी। नित्य रहेगा।

3933. माया के दो भाव ही विद्या माया और अविद्या माया होती हैं। अविद्या माया जीव को सत्य के निकट जाने न देगी।अविद्या माया से प्रभावित लोग प्रत्यक्ष देखनेवाले सबको अर्थात् इस शरीर और संसार को उसी रीति से सत्य मानकर विश्वास रखते हैं। लेकिन अप्रत्यक्ष अनेक प्राण चलन अपनी आँखों के सामने अदृश्य रहते हैं। लेकिन सूक्ष्मदर्शिनी के द्वारा देखते समय अनेक प्रकाश किरणें अपने सामने देख सकते हैं। उदाहरण रूप में अपने आँखों के  सामने मेज़ पर सूक्ष्म दर्शिनी जैसे यंत्र रखकर देखते हैं तो उसमें प्रोटान,न्यूट्रान,ऍलक्ट्रान आदि को देख सकते हैं। इसलिए जो कुछ है,जो कुछ नहीं है आदि को विवेक से जाने बिना किसीको यथार्थ सत्य मालूम न होगा। वैसे विवेक से  नहीं  देखनेवालों को दुख न दूर होगा। संदेह भी न दूर होगा। लेकिन जो कोई इस शरीर को और संसार को समझकर जड,है, जड कर्म चलन है,चलन प्राण स्पंदन है, प्राण स्पंदन निश्चलन  अखंडबोध में किसी भी काल में न होगा। जो इसका एहसास करता है,वही जान-समझ सकता है कि शरीर और संसार मिथ्या है।  वह एहसास कर सकता है कि  निश्चलन बोध मात्र सत्य है। वह सत्य स्वयं ही है,अपने स्वभाव ही शांति और आनंद है। ऐसी विवेकशीलता जिसमें नहीं है, उस जीवात्मा को नित्य दुख होगा। वह सुख और शांति स्वप्न में भी अनुभव नहीं कर सकते। कारण यह प्रपंच दुख पूर्ण है। यह अनादी काल से होकर छिपनेवाले सभी जीवात्मा के अनुभव की गोपनीय बात है। देखकर,सुनकर अनुभव करके भी सत्य क्या है? असत्य क्या है? की विवेकशीलता से न जाननेवाले अविवेकशील मनुष्य को मनुष्य कह नहीं सकते। कारण यवह अपने उत्पन्न स्थान की खोज करने के लिए समय न लेकर विषय भोग वस्तुओं के लिए धन केलिए दौडता भागता रहता है।
यह आत्मज्ञान रहस्यों में रहस्य,विज्ञापनों में विज्ञापन है। इसे विज्ञापन कमें न मिलेगा।

3934.एक मनुष्य की दिनचर्याएँ  नहाना,कपडे पहनना आदि नित्य कर्माएँ करते समय वह  एक प्रत्येक काम सा न लगेगा। वैसे ही मन में दिन दिन आनेवाले अच्छे बुरे चिंता कूडों को निरंतर शुद्ध करते समय ही शरीर भर में आत्म स्वयं प्रकाश होगा। कारण स्वयं बने आत्मप्रकाश स्वरूप, दूसरों को प्रकाशित  कराने बना है। इसलिए स्वयं बनेे निश्चल परमात्म स्वरूप में अपनी शक्ति माया दिखानेवाले शरीर और सांसारिक दृश्य माया  दवारा दिखानेवाले इंद्रजाल नाटक है। इसका एहसास करते समय शरीर और संसार मृगमरीचिका के समान तीनों कालों में रहित ही है। उस स्थिति में ही आत्मा का स्वभाव  परमानंद और परमशांत अपने स्वभाव से भोग सकते हैं।

3935.हम जिस आकाश को देखते हैं, वह अपनी स्थिति में कोई परिवर्तन के बिना इस प्रपंच के सभी रूपों को ऊँचा उठाकर दिखाता है। वह आकाश सभी रूपों के पूर्ण अंगों में व्यापित रहता है। आकाश  से ही ये रूप होते हैं। वैसे ही चिताकाश  रूपी परमेशर पंच भूतों को बढा-चढाकर दिखाते हैं। उसे तीन वर्गों में ही दिखाते हैं। प्राण, आकाश,वायु आदि भूत होते हैं।  वे सूक्ष्म जड दृढ बनकर ही
अग्नि,पानी,आदि भूत  बनते हैं। उन भूतों का दृढ बनना ही यह भूमि है।अर्थात् समुद्र का पानी लहरें,जाग बनकर बरफ़ बनने के समान। बरफ़ पानी और भाप बनने के जैसे। वैसे ही परमात्मा रूपी अखंडबोध ,बोध रूपी परमत्मा, अपने निश्चलन में परिवर्तन किये बिना चलन शक्ति माया चित्त बनकर प्राणन के रूप में  अनेक परिणामों में  मिलकर  इस ब्रह्मांड को बनाया है।लेकिन यह जड कर् चलन प्रपंच मृगतृष्णा होती है। कारण निश्चल परमात्मा में कोई चलन नहींं होगा।चलन होने पर परमात्मा का सर्वव्यापकत्व नष्ट होता है। इसलिए एकात्मा एक ही परमात्मा मात्र ही नित्य सत्य परमानंद मात्र स्थिर खडा रहता है। वह परमात्मा  स्वयं ही है की अनुभूति करनेवाला ही ब्रह्म है। यही अहंब्रह्मास्मी है।

3936. परमत्मा के सान्निद्य में ही प्रकृति से सकल चराचर के यह विश्व प्रपंच बनता आता है। विविध प्रकार से परिणमित इस प्रपंच का साक्षी मात्र ही भगवान है। यह साक्षी ही हर एक जीव  के हृदय में जीवात्मा के रूप में रहता है। जो यह महसूस करता है कि वह स्वयं शरीर या संसार नहीं है, शरीर और संसार अपने यथार्थ स्वरूप परमात्मा रूपी अखंड बोध में अपनी शक्ति माया अपने को अंधकार में छिपाकर दीखनेवाला स्वप्न है। ऐसी अनुभूति के जीव ही आत्मज्ञान को उपयोग करके शरीर और संसार को मृगमरीचिका के समान तजकर  प्रतिबिंब जीव रूपी अपनी जीव स्थिति को भूलकर
बिंब बने अखंडबोध स्वरूप को अज्ञान निद्रा से पुनः जीवित करके निजी स्वरूप अखंडबोध स्थिति को प्राप्त करके उसके स्वभाविक परमानंद में स्थित खडा रह सकता है। इस संसार में बडा खज़ाना आत्मज्ञान ही है। इसको न जाननेवाले अविवेकी ही नाम,यश और धन के बंधन के लिए मनुष्य जीवन के आयु को बेकार कर रहे हैं वैसे लोग गुलाब की इच्छा के द्वारा वह काँटे के पौधे देनेवाले दर्द सहने तैयार रहते हैं। जो फूल को तजते हैं,केवल उसको ही दुख से विमोचन होगा।

3937.नाम पाने के लिए, धन के लिए,अधिकार के लिए शास्त्र सिखानेवाले गुुरु के शिष्यों और भक्तों के स्वभाव भी वैसे ही होंगे। वैसे लोग ही जो जग नहीं है, उसको स्थिर खडा करते हैं। वह प्रकृति के स्थिर खडा रखने का भाग है। उसी समय यथार्थ सत्य की खोज करनेवाले ही यथार्थ गुरु के पास जा सकते हैं। यथार्थ गुरु नित्य संतुष्ट रहेंगे। वे इस संसार में किसीसे कुछ भी प्रतीक्षा नहीं करते।
उनका पूर्ण मन सत्य आत्मा में मात्र रहेगा। वैसे आत्मज्ञानी के गुरु के यहाँ  शिष्य और भक्त  विरले ही रहेंगे। कारण माया गुणों से विषय वस्तुओं से भरा मन सत्य के निकट जा नहीं सकता। जो सत्य के निकट  जा नहीं सकता, उसको दुख से विमोचन न होगा।उनसे शांति और आनंद बहुत दूर रहेंगे।
3938.  अपनी अहमात्मा को कोई भी कलंकित नहीं कर सकता। वह सब के साक्षी  रूप में ही रहता है। तीनों कालों में रहित
यह दृश्य प्रपंच में देखनेवाले सब के सब को प्रकाशित करनेवाला अपनी अहमात्मा ही है। रूपभेद,वर्ण भेद,जन्म-मरण आदि विकार के विविध भाव होनेवाले ही ये जड हैं। लेकिन बदल-बदलकर आनेवाले ये भाव कोई भी आत्मा पर प्रभाव नहीं डालता।उदाहरण स्वरूप
सूर्य प्रकाश से प्रकाशित वस्तुओं की कमियाँ कोई भी सूर्य पर अपना
प्रभाव डाल नहीं सकता।
3939.वेदांत सत्य जानकर उसमं जीनेवाले विवेकियों को ही उनके शरीर और मन स्वस्थ रहते समय ही वे अपने वचन और क्रिया को एक साथ लेकर चल सकते हैं। उसी समय शरीर और मन शिथिल होने के बाद सांसारिक जीवन में सत्य को जो महसूस नहीं करता,उसके लिए असाध्य कार्य ही है। कारण उनका मन शारीरिक बीमारी,रिशतेदार,घर,धन और संसार में ही रहेगा। वैसे लोग
मरते समय प्राण पखेरु उडते मिनट में उनका मन एक अमुक इच्छा में न रहेगा।कारण चित्त बदलते रहने से जीव जाते निमिष में घास.पशु, अच्छे-बुरे जो भी हो, जिसमें मन लगता है, वैसा ही जन्म लेता है।
अर्थात् उनके मन की परेशानी में  जो सोचता है,वैसा ही जन्म लेगा।
कारण उनके जीवन में कोई अमुक लक्ष्य न होना ही है। जैसा चित्त होता है, जीवन भी वैसा ही है। चित्त ही किसी के संपूर्ण जीवन के लिए उसके देखने के जग के लिए कारण बनता है। इसलिए वह चित्त और प्रतिबिंब बोध मिलकर ही मरते समय शरीर को छोडकर बाहर जाता है। अर्थात् चित्त के बिना आत्मा प्रतिबिंबित हो नहीं सकती। बिना पानी के, अर्थात् प्रतिबिंब करनेवाली वस्तु के बिना सूर्य प्रतििंबित कर नहीं सकता। पानी की चंचलता प्रतिबिंब को भंग करने के जैेसे ही चित्त संकल्प सब प्रतिबिंब जीव पर असर डालने के समान लगता है। पानी नहीं तो सूर्य प्रतिबिंब भी नहीं रहेगा। वैसे ही  चित्त नाश के साथ जीव भाव जीव भाव का भी नाश होगा। वैसे ही जीव जिंदा रहते समय ही जो चित्त को पवित्र  बनाकर इच्छा रहित पूर्णतः शुद्ध रूप में  रखता है, तब चित्त का कोई अस्तित्व न रहेगा।
कारण चित्त चित् रूप में बदलेगा। वह आत्मा के रूप में बदलेगा। तभी सभी दुखों से विमोचन होगा।

3940. एक पतिव्रता  के सिवा साधारण स्त्री का मन, स्त्री को अनुसरण करनेवाले पुरुष का मन सत्यतः आत्मा के निकट जाने में कष्ट ही होगा। वह सत्य ही स्त्री और पुरुष को गतिशील रखता है। लेकिन वे सत्य को महत्व  न देने से दुख उनसे दूर नहीं होगा। उनको नहीं मालूम है कि दुख के कारण असत्य ही है। उसके कारण शारीरिक अभिमान रूपी अहंकार ही है। उसको गुरु,माता-पिता और समाज ने नहीं सिखाया है कि अहंकार ही दुख के कारण है। केवल वही नहीं , उन्होंने शास्त्रों का अध्ययन नहीं किया है। वैेसे लोग दुख से और और दुख लेकर ही प्राण तजते हैं। जो कोई जीव और शरीर को विवेक से जानते हैं, वे जड रूपी शरीर को तजकर प्राण रूपी आत्मा को ही स्वयं है की अनुभूति करके आत्मा के स्वभाविक आनंद का अनुभव करेंगे।

3941. एक मंदिर के दीवार पर एक देव के चित्र को देखते समय वह चित्र दीवार से अन्य -सा  लगेगा। वैेसे ही अपने को दृश्य के यह प्रपंच स्वयं बने आत्मा से अन्य-सा लगेगा। चित्र के मिटने पर भी दीवार में कोई परिवर्तन नहीं होते, वैसे ही दृश्य के  न होने पर भी  दृष्टा रूपी अर्थात आत्मा रूपी स्वयं मिटता नहीं है। वैसे ही कोई ज्ञानी अपने शरीर को ही स्वयं बने आत्मा रूपी बोध में चित्र खींचने के जैसे देखता है,अर्थात्  बोध में अपने दृश्य रूपी  चित्र जैसे अपने शरीर को देख सकताहै ,वह अनुभव कर सकता है कि उसके अपने शरीर का नाश होने पर भी उसका नाश न होकर स्थिर खडा है। इसलिए कुछ ज्ञानी  स्वात्मा को अपने पूर्ण  रूप से साक्षात्कार करते समय  ऊपर नीचे आश्चर्य से देखेंगे कि अपने शरीर और संसार कहाँ गये हैं।अर्थात् यह एहसास कर सकते हैं कि शरीर और संसार आत्मा रूपी अपने में रस्सी में साँप जैसे और रेगिस्तान में मृगमरीचिका जैसे मिथ्या है।

3942. मनुष्य मन को कष्ट है कि आँखों से देखकर अनुभव करनेवाले यह शरीर और संसार नश्वर है।   आत्मज्ञान की दृढता होने तक यह अविश्वसनीय है कि  वैसे ही शरीर और संसार को जाननेवाले ज्ञान स्वरूप अनश्वर ही है।  अपनी आँखों से ही अपनी आँखों को देख नहीं सकते,अपने से अन्य दर्पण में देखकर ही रस लेते हैं। वैसे ही सर्वव्यापी आत्मा अपने को ही माया रूपी दर्पण में अपने से अन्य रूप में प्रपंच रूप में देखते हैं। लेकिन दर्पण को तोडते ही प्रति बिंब मिट जाते हैं। वैसे ही आत्मज्ञान की दृढता होने के साथ
चित्त रूप के शरीर और संसार मिट जाएँगे। साथ ही जीवभाव छिप जाएगा। साथ ही आत्मा रूपी अखंडमात्र नित्य सत्य  रूप में परमानंद रूप में स्थिर खडा रहेगा।

3943. कोई भक्त संपूर्ण परम कारण रहनेवाले परमात्मा बने परमेश्वरन को अभय प्राप्त है,उसके सामने मात्र ही महा माया फण फैलाये रहेगा। कारण भगवान और भक्त दो नहीं है। वही नहीं परमेश्वरन भक्त का दास ही है। भक्त के दुख को भगवान न सहेंगे। साधारणतः स्त्रियाँ आत्मवीचार के विरुद्ध हैं। उसका सूक्ष्म यही है कि जगत स्वरूपिनी स्त्री चलनशील है,परम कारण के परमात्मा निश्चलन है। इसलिए जो स्त्री हमेशा आत्मस्मरण को शुरु करती है,
उसके साथ स्त्री जन्म का अंत होगा। या परमात्मा की पराशक्ति से ऐक्य हो जाएगा। अर्थात् चलन ही निश्चलन होगा। इसलिए जो स्त्री
सदा आत्मा रूपी परमेश्वर को पति मानकर पतिव्रता बनती है,वह पराशक्ति परमेश्वर में ऐक्य हो जाएगी।

3944.  जो कोई निरंतर दुख में रहता है, उसके हृदय में परमानंद स्वरूप परमात्मा मात्र नहीं, उसी के ही रूप में है। यह बात वह जानता नहीं है। जानने पर भी वह भरोसा नहीं रखता। विश्वास होने पर भी ज्ञान की दृढता नही होती। इसीलिए वह सदा दुखी रहता है। उसी समय  जो कोई परमानंद स्वरूप परमात्मा अपने शरीर और प्राण है का एहसास करके सभी कर्म करने से वह सदा धैर्यशाली है। केवल वही नहीं , शांति और आनंद उसको छोडकर नहीं जाएँगे।

3945.  स्त्री को उपदेश करके बुद्धिमान बना सकता है,यह मोह अर्थ शून्य है। उसके विषय चिंताओं के आवर्तन स्वभाव से समझ सकते हैं। केवल वही नहीं, उसका अनुसरण रहित रहना,सत्य के बिना रहना
स्पष्ट होगा। अर्थात् चलनात्मक प्रकृतीश्वरी चलनशील होने से मात्र ही वह स्थाई सा लगेगा। वह निश्चलन सत्य के निकट जाने पर प्रकृतीश्वरी का अस्तित्व नहीं रहेगा। कारण सत्य निश्चलन है। सत्य को  चलन छूने  के बाद वह निश्चल हो जाएगा। इसीलिए स्त्रियाँ पुरुष का अनुसरण नहीं करती। सत्य नहीं बोलती। जो स्त्री निश्चल परमात्मा में मन लगाती है, माया स्त्री मायावी पमेश्वर होगी। परमेश्वर बनकक परमात्मा बने परब्रह्म मात्र ही नित्य सत्य परमानंद स्वभाव में रहेगा।

3946. साधारण स्त्रियों को विवेकी पुरुषों की आवश्यक्ता नहीं है।
अविवेकी पुरुष की आवश्यक्ता है। कारण विवेकी पुरुष स्त्रियों के शरीर से प्रेम नहीं करेगा।अविवेकी पुरुष ही शरीर से प्रेम करते हैं।स्त्री के शरीर से प्रेम करनेवाले पुरुषों को रखकर ही स्त्री अपनी इच्छाओं को पूरी कर लेती है। स्त्री पहले अपनी कामवासना की पूर्ति के लिए पुरुष को क्रोधित करेगी। जब वह हो नहीं सकता,वह डराएगी। उसमें भी वह वश में नहीं आएगा तो उसको मृत्यु वेदनाएँ देगी। वह उसे सताएगी। उसमें भी वह नियंत्रण में नहीं आयेगा तो वह उसे छोडकर चली जाएगी। जब वह उसे हटकर नहीं जा सकती, आजीवन उसके नियंत्रण में रहेगी। उसी समय नियंत्रण में जो रहना नहीं चाहती,वह स्त्री ही पुरुष के बेसाहारे स्थिति में रहेगी। जो स्त्री पुरुष को अपने दिव्य पुरुष मानकर जीवन चलाती है, तो पति के बंधन में रहेगी। उसके जीवन में स्त्री जन्म से विमोचन होगा। ये सब
द्वैत बोध और  भेद बुद्धि के साधारण मनुष्य के बारे में ही है। लेकिन सत्य  यही है कि नाम रूप के सब असत्य ही है। केवल एक ही एक लिंग भेद रहित अरूप निश्चलन बने परमात्मा मैं रूपी अखंड बोध मात्र ही परमानंद स्थिर खडा रहता है।

3947. जो दुख को मात्र  देनेवाले संसार में,  उसके जीव और सांसारिक विषयों के बारे में निरंतर चिंतन में डूबकर कर्म करनेवालों को शारीरिक अभिमान बढेगा। वह अहंकार और दुर्रभिमान को बनाएगा। दुर्रभिमान और द्वैतबोध को उसके द्वारा राग-द्वेष को बनाएगा। वही निरंतर दुख के कारण है। इसलिए आत्म उपासक को कर्म में अकर्म को विषयों में विष को जीवों में एकात्म को दर्शन करके उपासना करनी चाहिए। आत्म उपासक की दृष्टि में शरीर और संसार सब के सब रूप रहित एक ही परमात्मा ही भरा रहेगा। वह परमात्मा ही मैं है के अनुभव को उत्पन्न करके अखंडबोध के रूप में रहता है। मैं रूपी अखंडबोध नहीं तो कुछ भी नहीं है। जो भी है, उसमें अखंड बोध भरा रहेगा। अर्थात् स्वयं बने बोध रहित कोई भी कहीं भी कभी नहीं है। इस शास्त्र सत्य को महसूस करके बडी क्रांति और आंदोलन करने पर भी कोई दुख नहीं होगा। मृत्यु भी नहीं होगी। कारण बोध पैदा नहीं हुआ है। इसलिए उसकी मृत्यु नहीं है।  बोध में दृष्टित  नाम रूपों को स्वयं कोई अस्तित्व नहीं है। कारण बोध सर्वव्यापी होने से नाम रूपों को स्थिर रहने कोई स्थान नहीं है। वह केवल दृश्य मात्र है। वह जो सत्य नहीं जानता, उसका दृश्य मात्र है।सत्य जाननेवाले नाम रूप में स्वयं बने बोध के दर्शन करने से अस्थिर हो जाता है। इसलिए उसको दूसरे दृश्य नहीं है।

3948.  वही स्वयं को, आत्मा रूपी अखंडबोध को, एहसास करके उसमें दृढ रह सकता है ,जो नामरूपात्मक इस जड प्रपंच को  अर्थात्  कर्म चलन और यह दृश्य प्रपंच अर्थात् पंचेंद्रिय अनुभव करनेवाले प्रपंच तीनों कालों में  स्थिर नहीं  रहेगा। वैसे लोग ही बोध स्वभाव शांति और आनंद को अनुभव कर सकता है। इस स्थिति में एक ज्ञानी को  जब कोई  दर्शन करता है, तब उसी मिनट से दर्शक के मन से दोष बदलकर शांति और आनंद का एक शीतल अनुभव होगा। वह दर्शन ही शिव दर्शन होता है। कारण शिव परमात्मा है। आत्मा में सदा आनंद अनुभव करनेवाला है। नित्य आनंद का अनुभव करनेवाला शिव ही है। उस शिव स्थिति रूपी मैं के अखंड बोध को अपनी शक्ति माया अंधकार रूप में अपने स्वभाविक परमानंद
स्वरूप को छिपा देता है। उस अंधकार आकार से ही सभी प्रपंच बनते हैं।अर्थात् उस अंधकार से पहले उमडकर जो आया है,वही मैं रूपी  अहंकार है। उससे अंतःकरण,बुद्धि, संकल्प मन नाम रूप विषय वस्तुओं को बढानेवाले चित्त ,चित्त विकसित दिखानेवाले दुख देनेवाले वर्ण प्रपंच होते हैं। उनसे बाहर आने मन को अनुमति न देनेवाले दृश्य अनादी काल से होते रहते हैं। जो जीव किसी एक काल में दुख निवृत्ति  के लिए मन की यात्रा बाहरी यात्रा से अहमात्मा की शरणागति में जाता है, उसको मात्र ही दुख का विमोचन होगा। सिवा इसके जड-कर्म चलन प्रपंच में डूबकर उमडनेवाले किसी भी जीव को कर्म बंधन से मुक्ति  या कर्म से तनिक भी आनंद या शांति किसी भी काल में न मिलेगा।

3949. प्रेमियों के दो हृदय अपने में अर्थात् शरीर रहित आत्मा और आत्मा से प्यार होते समय शरीर की सीमा पार करके एक रूपी असीमित बोध समुद्र के रूप में बदलता है। साथ ही इस वर्ण प्रपंच के प्रेमसागर में उत्पन्न होनेवाली लहरों,बुलबुलों और जागों को ही देखेंगे।अर्थात्  बोध अभिन्न जगत के तत्व को साक्षातकार करेंगे।
3950.कलाओं में जो भी कला सीखें,तब सोचना चाहिए कि यह कला ईश्वरीय देन है। उसे स्वर्ण, धन और पद के लिए उपयोग करना नहीं चाहिए। ईश्वर के दर्शन के लिए ईश्वर के सामने कला का नैवेद्य चढाना चाहिए। वैसे करनेवाले ही ईश्वर के दर्शन करके आनंदसागर के तट पर पहुँचेंगे। वैसा न करके सृष्टा को भूलकर सृष्टि के समर्थन करने नित्य नरक ही परिणाम के रूप में मिलेंगे।उसी समय सृष्टा से एक निमिष मिलकर उन्हें न भूलकर कलाओं को जैसा भी प्रयोग करो,वह दुख न देगा। अर्थात् बुद्धि जड है। मन भी जड है। प्राण भी जड है, शरीर भी जड है। जड में कोई क्षमता नहीं रहेगी। वह स्वयं नहीं के बराबर है। स्वयं में परमात्मा बने मैं का बोध शरीर रूपी उपाधि में मिलकर स्वयं अनुभव करनेवाले अनुभवों का हिस्सा ही सभी कलाओं की रसिकता है। सभी चलन माया है। निश्चलन बोध मात्र नित्य सत्य है। इसका एहसास करके जो कलाकार केवल कला में मात्र मन लगाकर जीवन में खुश का अनुभव करते हैं,वे ही अंत में आनंद का अनुभव करके स्वयं आत्मा का साक्षातकार कर सकते हैं। या उनकी इष्टदेवता के लोक जा सकते हैं।

3951. जो सुंदरता को वरदान के रूप में प्राप्त किया है,वे अपने जीवन को सत्य साक्षात्कार के लिए उपयोग न करके असत्य साक्षात्कार के लिए उपयोग करने से ही उनका जीवन नरकमय बन जाता है। इसलिए उनको एहसास करना चाहिए कि अपने शरीर की सुंदरता की चमक अपनी अहमात्मा की चमक है। इस तत्व को भूलकर जीव सोचता है कि वह सुंदरता जड रूपी शरीर की है।यह सोच गलत है। ऐसी गलत सोच के कारण ही जीवन नरक बन जाता है। अर्थात् आत्म बोध नहीं तो सूर्य को प्रकाश नहीं है। बोध नहीं तो चंद्र को प्रकाश नहीं है। बोध नहीं तो फूल को प्रकाश नहीं है। बोध नहीं तो नक्षत्रों को प्रकाश नहीं है। बोध नहीं तो कुछ भी चमकता नहीं है। यह सारा प्रपंच मैं रूपी अखंडबोध प्रकाश ही है। अर्थात् एक ही अखंड बोध मात्र नित्य सत्य रूप में है।मैं रूपी अखंडबोध को ही ईश्वर, ब्रहम परमज्ञान,परमात्मा,सत् ,चित् आनंद आदि कहते हैं । जो जीव इस सत्य को नहीं जानते,वे ही इस संसार में निरंतर दुख भोगते रहते हैं। सत्य में दुख एक भ्रम मात्र है। भ्रम का मतलब है रेगिस्तान में मृगमरीचिका के जैसे,रस्सी में साँप जैसे है। भ्रम हर एक को एक एक रूप में असर डालता है। उदाहरण के लिए एक मील पत्थर आधी रात में किसी एक को भूत-सा लगता है। लेकिन एक चोर को पकडने आये पुलिस को वहीमील पत्थर चोर-सा लगता है। एक प्रेमी को प्रेमिका के जैसे,एक प्ेमिका को प्रेमी जैसे लगत है।
उसी समय दूर से आनेवाले वाहन की रोशनी में मील पत्थर साफ-साफ दीख पडने से सबका संदेह बदल जाएगा। वैसे ही जब तक आत्मज्ञान प्राप्त नहीं होगा तब तक संदेह और दुख न मिटेगा। सभी दुखों से विमोचन होने के लिए एक ही महा औषद आत्मज्ञान मात्र है।
3952 हर एक के मन में ये प्रश्न उठते रहेंगे कि मैं कौन हूँ? मेरी उत्पत्ति कहाँ हुई? कहाँ मिट जाऊँगा? कब मरूँगा या न मरूँगा? मैं कहाँ स्थिर रहूँगा? कैसी गति होगी? कौन मुझे गतिशील बनाता है? जिनको संदेह है, उनको दो बातें  जान लेना चाहिए।१. नाम रूपात्मक यह सारा ब्रह्मांड जड है। वह तीनों कालों में रहित है। २. मैं है का अनुभव बोध। वह किसी के द्वारा बिना कहे ही मैं हूँ का बोध है ही। अर्थात यह सोच नहीं सकते कि मैं का बोध जन्म हुआ है और मिट गया है। उसका जन्म और मृत्यु नहीं है। अर्थात् बोध स्वयंभू है। इस बोध से मिले बिना किसी बात को देख नहीं सकते, सुन नहीं सकते,जान नहीं सकते, भोग नहीं सकते। अर्थात्‌ आत्मा रूपी मैं का बोध ही सब कुछ है। जो स्थिर  है, उसको किसी काल में बना नहीं सकते।इसकी निज स्थिति मनुष्य ही जान सकता है,जानवर जान नहीं सकता।  इसलिए जो  मनुष्य के महत्व को नहीं जानता, उसको सुख और शांति किसी भी काल में नहीं मिलेंगे। निरंतर दुख ही होगा। जो दुख विमोचन चाहते हैं, मूल्य जितना भी हो,त्याग जितना भी हो करके आत्मज्ञान सीखना चाहिए। जिसको  इसमें विश्वास नहीं है,वे प्रश्न  करके, परस्पर   चर्चा करके शास्त्रों का अध्ययन करके सद्गुरुओं से प्रश्न करके ,आज तक संसार में जन्मे सभी महानों के अनुभवओं को लेकर उनके उपदेशों पर विश्वास रखकर स्वयं अभ्यास करके अनुभव करना चाहिए। जब विश्व का उदय हुआ,उस दिन से यह सत्य प्रकट होता रहता है। जितने भी महानों का जन्म हो,
ईश्वरीय अवतार हो,शास्त्र सत्य यही है कि अमीबा से ब्रह्मा तक के सभी नाम रूप तीनों कालों में रहित ही है। केवल मैं रूपी अखंडबोध मात्र ही नित्य सत्य रूप में एक और एक रस में परमानंद रूप में स्थिर खडा रहेगा। यह सत्य है कि जो जीव ये सब नहीं करते,उनको दुख ही होगा। सुख नहीं मिलेगा।

3953. दो परिवार आपस में वादविवाद करते समय एक दूसरे को देखकर कहेगा कि मुझे और मेरे परिवार को भगवान देख लेंगे। तब वे नहीं सोचते और एहसास नहीं करते कि जो भगवान उसके परिवार को देखता है,वही सामनेवाले परिवार को भी देखेगा।  उसके कारण यही है कि शारीरिक अभिमान रूपी अहंकार और उसके द्वारा होनेवाली भेद बुद्धि दोनों के हृदय के एकात्मा को छिपा देता है। सांसारिक जीवन बितानेवाले सब के सब सदा दुख का अनुभव करता है। हर एक सोचते हैं कि मेरे देखने से ही तुम्हारा जीवन चलेगा। ऐसे सोचनेवाले अहंकारियों को भी भगवान ही देखता है।इस बात को समझ लेना चाहिए कि  वह भगवान हर एक जीव के दिल में वास करता है। वही भगवान सब को सक्रिय बनाकर नचाता है। जिस दिन हर एक जीव अपने को गतिशील  बनानेवाली शक्ति अर्थात आत्मा अर्थात बोध को एहसास करता है उस दिन तक दुख से बाहर नहीं आ सकता। यही सब जीवों का हालत है। आज या कल इसका महसूस करना ही चाहिए।इसे जानने और समझने के लिए ही सभी जीव जाने-अनजाने यात्रा करते रहते हैं। कारण वह आनंद खोज के लिए भटकना ही है। वह जीव नहीं जानता कि वह आनंद हर जीव का स्वभाव है।

3954.मिट्टी से बुत बनानेवाले शिल्पी की आँखों में मिट्टी के बिना आकार न बनेगा। वैेसे ही आत्मज्ञानी इस संसार में जितने भी रूप रहे, सिवा आत्मा के किसी भी लोक को देख नहीं सकता। अर्थात स्वआत्मा को उसकी पूर्णता में जो साक्षात्कार करने का प्रयत्न करता है,उसको ब्रह्मांड में तजने या स्वीकार करनेे कुछ भी नहीं है।वैसे लोग ही आत्मा को पूर्ण साक्षात्कार से आत्मा के स्वभव परमानंद को अनिर्वचनीय शांति कोो अपनेे स्वभाविक निरुपाधिक रूप में स्वयं अनुभव करके आनंद का अनुभव करेगा।

3955.स्वप्न में अपनी प्रेमिका को कोई चुराकर ले जाने  के दुख को न  सहकर  आत्महत्या की कोशिश करने की दशा में नींद खुल जाती है तो मानसिक दर्द जैसे आये,वैसे ही दर्द गए। वैसे ही इस जागृत जीवन में भी अविवेकी एहसास नहीं कर सकता। लेकिन वह स्वप्न को मिथ्या, वह जागृत को सत्य मानता है। वह एहसास नहीं कर सकता कि रात में जो स्वप्न  देखा,वैसे ही जागृत अवस्था में अज्ञान रूपी निद्रा में देखनेवाले स्वप्न अनुभव ही इस जागृत अवस्था के अनुभव ही उसके कारण होते हैं। इसे विवेक से न जाननेवाले आत्मज्ञान अप्राप्त बेवकूफ़ ही दुख का अनुभव करके जीवन को व्यर्थ करते हैं। अर्थात् स्वप्न जागृति और जागृत स्वप्न दोनों ही माया दर्शन ही है। ये दोनों ही असत्य ही है।मैं रूपी अखंडबोध में ही अपनी शक्ति माया चित्त बनाकर दिखानेवाला एक इंद्रजाल ही है। यह इंद्रजाल कभी सत्य नहीं होगा। जो इसका एहसास करता है, उसको दुख नहीं होगा। जो इसका अनुभव नहीं करते उनको नित्य दुख ही होगा। दुख विमोचन का एक मात्र मार्ग आत्मज्ञान मात्र ही है।

3956. सभी मनुष्यों के दिल में ये प्रश्न उठते रहते हैं कि मैं कौन हूँ? तुम कौन हो? मैं और तुम  कहाँ से आये? हमारे माता-पिता और पूर्वज कहाँ से आये? क्यों और किसके लिए आये? इन प्रश्नों के उठने के पहले ही खोज करनी चाहिए कि इन प्रश्नों के उत्तर पहले ही हमारे पूर्वजनों ने कहे हैं? किसी शास्त्रों में लिखा है क्या? क्या इसके लिए कोई वेद है? . तभी एहसास कर सकते हैं कि कई हजार वर्षों के पहले ही वेदांत कहनेवाले उपनिषदों में इन प्रश्नों के उत्तर मिलते हैं। उनसे सत्य और असत्य को जान-समझ सकते हैं। इस प्रपंच का आधार अथवा परम कारण ब्रह्म ही है। अर्थात् मैं रूपी बोध ही है। वह बोध अखंड है। जैसे एक ही बिजली अनेक बल्ब प्रकाशित हैं, वैसे ही सभी जीवों में   मैं रूपी अखंड बोध एक रूप में  प्रकाशित है। इसका एहसास करके दृढ बुद्धि से जीने से ही बोध के स्वभाविक परमानंद और अनिर्वचनीय शांति का अनुभव होगा। उनको भोगने में बाधक हैं संकल्प और रागद्वेष। भेद संकल्प और राग-द्वेषों को आत्मविचार  के द्वारा परिवर्तन कर सकते हैं। इस परमानंद को स्वयं भोग सकते हैं।

3957. एक सगुणोपासक के दिल में देवी देव के रूप में प्रतिष्ठा करने के जैसे ही आत्मोपासक की आत्मा से ज्ञानोदय होकर तत्वज्ञान रूप लेता है। वैसे प्रकृति को उपासना करनेवालों के मन में कला, काव्य, कविता,चरित्र बनता है। अर्थात् संकल्प जैसे ही मानना है। इसलिए जीवों में विवेकी मनुष्यों को मात्र ही अपने शरीर और संसार एक लंबे स्वप्न है, वह एक गंधर्व नगर जैसे हैं, वह तीनों कालों में रहित है। यह सब जानने के ज्ञान रूपी मैं रूपी परमात्मा बने अखंडबोध मात्र ही है। यह एहसास करके जड स्वभाव के शरीर और संसार को विस्मरण करके आनंद स्वभाव आत्मा स्वयं ही है को समझकर वैसा ही बनना चाहिए। सत्य को जानने की कोशिश न करके शरीर और संसार को  भूल से आत्मा सोचकर जीनेवालों को दुख ही भोगना पडेगा। सुख कभी न होगा। जो दुख के कारण ईश्वर सोचते हैं,  उनको एहसास करना चाहिए  कि  उनके दुखों के कारण हृदय में रहे ईश्वर को सोचकर आनंद स्वरूप ईश्वर की पूजा नहीं की है। अर्थात् विश्वविद्यालयों में आत्मज्ञान सिखानेवाले वेदग्रंथ न पाठ्यक्रम में  होने से ही दुखों के बुनियाद आधार है। अर्थात् शिक्षा ज्ञान में और आत्मज्ञान के लिए मुख्यत्व न देने  कारण राज्य की प्रगति नष्ट होगी। यह शासकों की गलतफ़हमी  है।इसलिए उनको समझना चाहिए कि लौकिक ज्ञान से होनेवाली प्रगति से अनेक गुना शक्ति कर्म प्रगति आत्मज्ञान प्राप्त करनेवालों से ही कर सकते हैं।
आत्मज्ञान जिसमें है, उनसे बनाये कर्म प्रगति  में  दुख का अनुभव करने पर भी उनमें जो शांति और आनंद है,वे रहेंगे ही, न बदलेंगे।

3958. भगवान की खोज करने की आत्म उपासनाएँ हैं भक्ति,ज्ञान,कर्म योग मार्ग और रूप रहित अपरिवर्तनशीलआत्म उपासनाएँ होती हैं। उनमें श्रेष्ठ  आत्मोपासना ही है। आत्मोपासना करना है तो आत्मज्ञान सीखना चाहिए। बाकी सब उपासनाएँ और सत्य की खोज़ इस आत्मज्ञान को प्राप्त करने के लिए ही है। अर्थात् सभी ईश्वर खोज का अंत आत्मज्ञान ही है। वह आत्मज्ञान अपने बारे में का ज्ञान  ही है। सबको गहराई से खोजने पर जो ज्ञान अध्ययन द्वारा सीखते हैं,उनसे भिन्न है स्वयं अनुभव से प्राप्त ज्ञान। स्वयं रूपी परम ज्ञान सागर में ज्ञान की लहरें,ज्ञान के बुलबुले, ज्ञान के जाग में ही यह प्रपंच स्थिर खडा है। अर्थात् परम रूपी ज्ञान के स्वभाव ही परमानंद है। परमानंद स्वभाव के साथ मिलकर मैं रूपी परम ज्ञान सागर ही अपरिच्छिन्न सच्चिदानंद स्वरूप नित्य सत्य रूप में प्रकाशित होते रहते हैं।

3959. फूल और सुगंध,सूर्य और प्रकाश कैसे अलग करके देख नहीं सकते, वैसे ही वचन और अर्थ दोनों को अलग नहीं कर सकते। अर्थात जो कोई अपने सूक्ष्म अर्थ को गौरव में लेता है, वह जिस मंत्र को जप करके देव-देवियों की उपासना करता है,उसको एहसास करना चाहिए कि उस मंत्र के जप करने के निमिष में ही, उस मंत्र की देवता उसके सामने प्रत्यक्ष दर्शन देंगे।उदाहरण श्रीं के उच्चारण करते ही उसकी देवता महालक्ष्मी उसके सामने आएगी। शिवे के कहते ही पार्वती उसके प्रत्यक्ष आएगी। महा सरस्वती के जपते ही साक्षात सरस्वती उसके सामने आएगी। वैसे ही काल जो भी हो,समय जो भी हो, भाषा जो भी हो,संकल्प जो भी हो, चींटी से देव तक जो भी हो,मंत्रोच्चारण के करते ही संकल्प की देवता जो भी हो प्रत्यक्ष देवता, उसी भाव में उपासक के सामने प्रत्यक्ष  होंगे। स्थूल नेत्रों से देख न सकें तो सूक्ष्म रूप में वे आएँगे। अविवेकियों को आजीवन दुख झेलते रहने के कारण  अविवेकियों को मालूम नहीं है कि देवी-देवताओं को कैसे निमंत्रण करना चाहिए। उसी समय उसे जाननेवाले भक्त  ही  भगवान से परस्पर  मिलकर सहयोगी बनकर जीवन में श्रेयस और प्रेयस से जी सकते हैं। अर्थात् आध्यात्मिक ज्ञान, भौतिक ऐश्वर्य के साथ जी सकते हैं। लेकिन जो विशेष  और विशिष्ट जीवन बसाना चाहते हैं, उनके समझ लेना चाहिए कि सभी कर्म ,सभी उपदेशों का अंत मैं रूपी निराकार एक ही एक अखंड बोध ही है।इस संसार के सभी सुख-भोगों का स्थान मैं रूपी अखंड बोध ही है। इस बोध के सिवा सभी जीवन के अनुभव स्वप्न मात्र है। इसे खूब जान-पहचानकर जिंदगी बितनेवालों को किसी भी प्रकार का दुख न होगा। उसको मालूम है कि दुख भी स्वप्न है।

3960. जो कोई सांसारिक व्यवहारिक जीवन में दुख के समय मात्र ईश्वर का स्मरण करता है, वह बाकी समय में जड विषय वस्तुओं में मन लगा देने से सुख उसके लिए एक स्वप्न के समान होता है, दुख स्मरण के समान उसके जीवन में होगा। उसी समय जो कछुए के समान संयम रहता है,वह सुखी रहेगा। कछुआ आहार खाने के लिए मात्र सिर के बाहर लाता है, बाकी समय काबू में रखता है। वैसे ही मनुष्य को अपने पूरा समय ईश्वर पर ध्यान रखना चाहिए। तब दुख स्वप्न लगेगा और सुख स्मरण होगा। लेकिन जो जन्म से ईश्वर के शब्द न सुनकर सत्य धर्म नीति न जानकर पशु जीवन बिताता है, वह अविवेकी होता है, उसको जितनी भी सुविधा हो ,उसको सिवा दुख के सुख स्वप्न में भी न मिलेगा। कारण उसके मन में जड विषय,भेद बुद्धि,राग-द्वेष ही होगा। लेकिन जन्म से ईश्वरीय धुन सुननेवाले वातावरण में पलकर घर और देश में भगवत् कार्य में सोते-जागते,खाते सदा सर्वकाल लगे रहनेवालों के जीवन में आनंद और शांति शाश्वत रहेंगे। वैसे लोग उनकी आत्मा को साक्षात्कार करते समय ही यह अनुभव पाएँगे कि वे स्वयं निराकार निश्चलन परमात्मा है,वह परमात्मा रूपी मैं है के अनुभव के अखंड बोध के सिवा और कुछ कहीं कभी नहीं है। अर्थात् अखंडबोध स्थिति पाने के साथ नाम रूप खंड प्रपंच और शरीर अखंडबोध से अन्य रूप में स्थित खडे होने स्थान न होकर जादू सा ओझल हो जाएगा। बोध मात्र नित्य सत्य परमानंद रूप में प्रकाशित होते रहेंगे।

3961. जो कोई अपने को दंड देनेवाले को पुनःदंड नहीं देता है,तभी जिसने दंड दिया है, उसको दंड देने उसको दंड देने के लिए प्रकृति को संदर्भ मिलता है। जिसने दंड दिया है,उसमें अहंकार,स्वार्थ, भेद बुद्धि और राग द्वेष होने से उसको ईश्वरीय अनुग्रह  न मिलेगा।वैसे ही प्रतिशोध  के मन रहित दंड जो भोग चुका है,उसमें भेद-बुद्धि रागद्वेष न होने से ,उसको ईश्वरीय आशीषें मिलेंगी। ईश्वरीय कृपा-कटाक्ष अन्य रहित है,उसी को प्रकृति मदद करेगी। जिसपर ईश्वर की कृपा नहीं रहेगी, प्रकृति उसकी मदद न करेगी। जिनपर ईश्वर की आशीषें हैं,वह स्वयं ब्रह्म ही है। ब्रह्म और ब्रह्म से भिन्न एक प्रपंच नहीं है । अर्थात् बोधाभिन्न ही जगत है। वह ईश्वर मैं रूपी अखंडबोध से भिन्न नहीं है। अर्थात् मैं रूपी अखंडबोध ही ईश्वर है। उस अखंडबोध स्थिति को साक्षात्कार करते समय ही प्रपंच अपने से अन्य रहित होगा। अर्थात् बोधाभिन्न स्थिति को साक्षात्कार कर सकते हैं।

3962. अग्नि की शक्ति को आँखों से देख नहीं सकते।उसमें एक लकडी डालकर उस अग्नि से उसे जलाने पर ही पता चलेगा कि अग्नि में जलाने की शक्ति है। वैसे ही आत्मा की शक्ति जानने के लिए आत्मज्ञान से सांसारिक रूप सब को विवेक से जानते समय आत्मज्ञानाग्नि में सांसारिक रूप छिप जाते हैं । अर्थात् आत्मा सर्वव्यापी है। निश्चलन है। यह प्रपंच कर्मचलन है। सर्वव्यापी परमात्मा निश्चलन होने से आत्मा कर्म नहीं कर सकती। उसमें कर्म हो नहीं सकता। इसीलिए आत्मा को निष्क्रिय कहते हैं। निष्क्रिय आत्मा सर्वव्यापी होने से एक चलन रूप को भी उसमें रह  नहीं सकता। इसीलिए नामरूपात्मक यह कर्म प्रपंच को मिथ्या कहते हैं। अर्थात् मैं रूपी अखंड बोध में दीखनेवाले नाम रूप ही यह प्रपंच है। लेकिन बोध के अखड में नामरूप स्थिर खडा रह नहीं सकता। अर्थात् नाम रूप मिथ्या है।
3963.इस प्रपंच रहस्य को जानना है तो पहले समझना चाहिए कि भगवान एक इंद्जाल मायाजाल व्यक्ति है। जादूगर शून्य से एक वस्तु को बनाकर दिखा सकता है। लेकिन देखनेवालों को मालूम है कि वह वस्तु सत्य नहीं है। वैसे ही भगवान अपनी मांत्रिक छडी द्वारा विश्व मन लेकर जो शरीर और संसार नहीं है, उनकी सृष्टि करके दर्शाते हैं। जो शरीर और संसार नहीं है,  मिथ्या है,उन्हें सत्य माननेवालों को ही भ्रम होता है। रस्सी को साँप समझना ही भ्रम है।
प्रकाश की कमी के कारण ही रस्सी साँप-सा लगता है। वैसे ही ज्ञानप्रकाश की कमी के कारण ही जीव को संसार और शरीर सत्य-सा लगता है। प्रकाश जैसे भ्रम को मिटाता है,वैसे ही आत्मज्ञान शरीर और सांसारिक भ्रम को दूर कर देता है।
इसलिए विवेकी यही पूछेंगे कि इस भ्रम को कैसे मिटाना है,यह न पूछेंगे कि यह कैसे हुआ है। जिस जीव में सत्य जानने की तीव्र इच्छा होती है, उस जीव को सत्य ही परमानंद रूप में स्थित खडा रहेगा। यही अद्वैत् सत्य है।

3964. अंधकार में संचरण करनेवाले  संदेह को छोड नहीं सकते। वह प्रकाश की ओर यात्रा न करेगा तो उसको नित्य नरक को ही भोगना पडेगा। अहंकार ही अंधकार है। आत्मा ही प्रकाश है। आज न तो कल सब को प्रकाश में आना ही पडेगा।नरक एक मनःसंकल्प ही है। मन के मिटते ही नरक भी मिट जाएगा। लेकिन जो मन नहीं है उसे मिटाने के प्रयत्न में जब तक लगेंगे,तब तक मन मिटेगा नहीं। जो मन नहीं है,उसे मिटाने का प्रयत्न न करनेवाला ही सत्य का एहसास करनेवाला है। जिसने सत्य का जाना है और माना है, उसको केवल सत्य ही मालूम है। वह नित्य रूप में,अनादी से आनंद रूप में मैं रूपी आत्मा रूप में स्वयंभू स्थिर खडा रहा करता है।

3965. जो स्वयं प्रकाशित है, स्वयं आनंदित है,स्वयं शांतिपूर्ण है,स्वयं स्वतंत्र है, स्वयं परिशुद्ध है, स्वयं नित्य सत्य है, सर्वज्ञ है,सर्वव्यापी है,वह अखंडबोध परमात्मा, ब्रह्म स्वरूप स्वयंभू,शाश्वत अपने से अन्य कोई दूसरा दृश्य,किसी भी काल में, कभी नहीं होगा। इस एहसास जिसमें कोई संकल्प रहित तैलधारा के जैसे चमकता है,वही यथार्थ स्वरूप आत्मा को साक्षात कर सकता है। उसी समय अपने यथार्थ स्वरूप अखंडबोध स्थिति को एक क्षण के विस्मरण करते ही अपनी शक्ति माया मन संकल्पों को बढाना शुरु करेगा।
इसलिए वह फिर प्रपंच के रूप में बदलेगा। इसलिए जो कोई अपने निज स्वरूप मैं रूपी अखंडरूप स्थिति में बहुत ध्यान से रहता है, वह मक्खन पिघलकर घी बनने के जैसे अपरिवर्तनशील ब्रह्म स्थिति को पाएगा। वही अहंब्रह्मास्मी है।

3966. मनुष्य मन को दृश्य  रूपों में ही लगाव होता है,अदृश्य  सत्य पर मन न लगने के कारण यही है कि सीमित रूपों में लगे मन सीमित रूपों में ही लगेगा। असीमित निराकार सत्य आत्मा में लगनेवाला मन सत्य को स्पर्श  करने के पहले ही वापस आएगा। कारण विषय वस्तुओं में मिलनेवाले सद्यःफल के जैसे निराकार  ब्रह्म की ओर चलनेवाले मन को तुरंत न मिलेगा। कारण आत्मा रूपी ज्ञानाग्नि के निकट जाते समय मन को मिलनेवाले सुख के बदले मन ही नदारद हो जाएगा। इस भय से ही मन अरूप आत्मा की ओर यात्रा करना नहीं चाहता। लघु सुख काम सुख तुरंत मिलकर तुरंत मिट जाएगा। केवल वही नहीं वह स्थाई दुख देकर जाएगा। उसी समय एक बार परमानंद को भोगने पर वह नित्य स्थाई रहेगा। इसीलिए विवेकी लघु सुख त्यागकर परमानंद के लिए तप करते हैं। जो कोई उस परमानंद को अपनी आत्मा का स्वभाव मानकर महसूस करता है, तब उसका मन विषय सुखों की ओर न जाएगा। कारण उसको मालूम है कि  आत्मा  रूपी परमानंद को ही जीव प्रपंच की उपाधि  में मिलकर लघु सुख  के रूप में अनुभव करते हैं।परमानंद को उपाधि में मिलकर अनुभव करते समय वह लघु सुख है,निरूपाधिक रूप में भोगते समय उसे परमानंद कहते हैं।