Wednesday, February 10, 2016

शिक्षा --अर्थ --तिरुक्कुरल ३९१ से ४००

शिक्षा --धर्म --तिरुक्कुरल ३९१ से ४०० 
१.  हमें  बिना किसी कसर के सीखना चाहिए.  सीखने के बाद प्राप्त ज्ञान का अक्षरसः  पालन करना चाहिए. धर्म मार्ग से फिसलना नहींचाहिये. 

२. अंक  और अक्षर ज्ञान  ही वास्तविक आँखें है. मनुष्य  जीवन के प्राण ये ही हैं.

३.  शिक्षित अंधे को कोई भी अँधा नहीं कहेंगे ; नेत्र होकर भी जो अशिक्षित हैं, उसे  अंधे कहेंगे.अशिक्षितों  की आँखें आँखें नहीं ,वे तो दो घाव है.

४.ज्ञानी  मिलकर रहते समय आनंदप्रद  व्यवहार करेंगे  ; बिछुड़ते समय ऐसी खुशी की बातें छोड़कर जायेंगे  कि   फिर मिलने के विचार  से पछताना  पडेगा.. यही कवियों का पेशा है. 

५.  रायीशों  के सामने  रंक अपने को हीन मानेंगे ; वैसे ही शिक्षितों के सामने अशिक्षित हीनता का महसूस करेंगे.

६.  खोदते खोदते जैसे पानी   ज्यादा निकालता हैं स्त्रोत से  वैसे ही शिक्षा भी पढ़ते -पढ़ते  बढ़ती रहेगी. 
७. शिक्षितों का आदर सर्वत्र होता है ,ऐसी हालत  में क्यों मनुष्य अशिक्षित है ?पता नहीं .
८. मनुष्य को एक जन्म में सीखी शिक्षा, कई  जन्मों तक लाभप्रद रहेगी. 
९.. अपनी सीखी शिक्षा से मिले सुख  को खुद अनुभव करके,
 संसार के लोगों को  भी शिक्षा  से मिले  आनंद  देखकर
  शिक्षित  और  अधिक पढने में  लग जायेंगे. 
१०. शिक्षा ही शाश्वत निधि है ; उसके सामान शाश्वत संपत्ति और कोई  नहीं  है. 


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