Tuesday, February 2, 2016

தபஸ்யா--तपस्या २६१ से २७० तक तिरुक्कुरल

तपस्या --२६१  से  २७०

१.  दूसरों के दुःख दूर करना   और अपने दुखों को सहना ही तपस्या का मूल आकार है.

२. पूर्व जन्म के पुण्य से ही तप करना संभव है ; नहीं तो तपस्या में मन लगना दुर्लभ है.

३. शायद   सन्यासियों की अर्थात तपस्वीं   की सेवा  के लिए ही अन्य लोग  तपस्या करना छोड़ दिया हो ?
४. तपोबल से बुरों को  दमन   करने  का बल और अच्छों की भलाई करने  का   बल  मिलेगा .
५. जो भी हमारी चाह  है ,वे सब कुछ तपस्या से  मिल जाएगा. अतः तमास्या में मग्न होना चाहिए.
६.तपस्या करनेवाले अपने कर्तव्य मात्र निभाएँगे. अन्य लौकिक इच्छाओं में न  लगनेवाले तपस्वी नहीं बन सकते.
७. आग  में सोना जितना तपता है ,उतना चमकेंगे;  वैसे ही तपस्वी जितना कष्ट भोगेंगे ,उतना  ज्ञान  चमकेंगे.
८. जिन तपस्वीं  में अहंकार और अपने प्राण से अनासक्त होता है,उन्हें सब प्रशंसा करेंगे.
९.तपोबल प्राप्त तपस्वी  में यम को जीतने की दिव्य शक्ति मिलेगी.
१० .संसार  में शक्तिहीन  लोगों की संख्या ज्यादा है ,बलवान और शक्तिवानों की संख्या कम है; इसका  कारण  यही   है  कि तपस्या करने वाले कम है. न  करनेवाले ज्यादा है.

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