Monday, February 8, 2016

अस्थिरता ---तिरुक्कुरल --३३१ से ३४० तक

अस्थिरता  ---तिरुक्कुरल --३३१ से   ३४०  तक 
१.
अस्थिरता को स्थिर मानकर जीना अज्ञानता  है.
२.
अति संपत्ति का आना नाटक सभा में  दर्शकों के आने के समान है . वैसे  ही संपत्ति का चले जाना भी नाटक  के बाद दर्शकों  के जाने  के समान   है.
३.
अशाश्वत   संपत्ति  के मिलते  ही शाश्वत धर्म कर्म में लग जाना  है.
४.
जीवन में एक दिन का कटना तलवार से जीने के दिन को काटने के सामान है. जीवन अस्थिर है ,एक एक दिन कटता जाता  है.
५.
अशाश्वत जीवन को जान समझकर  हमें जीते जी शाश्वत धर्म कर्म में लग जाना चाहिए .
६.
दुनिया का बड़प्पन  यही है  कि जो कल था ,वह आज नहीं  है .
७.
जो जीवन की अस्थिरता को नहीं सोचते ,वे अज्ञानी है ,वे ही बेकार ही करोड़ों के विचार में लगेंगे.
८.
शरीर और प्राण का सम्बन्ध अंडे छोड़कर   निकले पक्षी के समान  उडनेवाला  है; 
९.
मृत्यु  नींद जैसी है; जन्म नींद से जगने के सामान  है.
१० .
शरीर से निकले प्राण को कोई आश्रय स्थल नहीं  है. 

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