अ4576. अपने संकल्प के लिए अनियंत्रित प्राणन,मन,शरीर,पंचेंद्रिय अर्थात् प्रपंच नहीं है।कारण मैं का बोध नहीं तो और किसी को अस्तित्व नहीं है। अर्थात् जिस दिन मैं खंडित जीवात्मा बोध को अखंड परमात्मा रूप में जानकर एहसास करके साक्षात्कार करता है,उस दिन अपने में उमडकर दीखनेवाली इच्छा,ज्ञान और क्रिया शक्तियाों को नियंत्रित रखना साध्य होगा।कारण इच्छा,ज्ञान और क्रिया शक्तियाँ अपने अखंड को विस्मरण करनवाली माया इंद्रजाल शक्तियाँ हैं। अपने अर्थात् बोध के अखंड में मैं स्थिर खडे रहते समय अपने को एहसास कर सकते हैं। अर्थात् मैं अपने स्वस्वरूप
परमात्मा बोध से एक क्षण भी बिना हटे रहने के साथ अपने अंतःकरणों के सहित शरीर और संसार आदि माया बने नामरूप अस्थिर हो जाएँगे। अर्थात् अपने में बनकर अपने में स्थिर खडे रहकर अपने में मिटजाने से लगनेवाले सब मैं रूपी अखंड बोध के सिवा दूसरा एक न हो सकता। निराकार परमानंद स्वभाव के साथ मैं है का अनुभव करनेवाले स्वयंभू रूपी मैं नामक अखंडबोध मात्र ही नित्य सत्य रूप में स्थिर खडे रहता है।
5577. हर एक मनुष्य को उम्र के बढते-बढते मृत्यु का भय शिकार करेगा। वैसे भय रहित रहना चाहिए तो स्वयं प्रश्न करना चाहिए कि मृत्यु भय मन का या आत्मा का?
साधरणतः मैं कहते समय शारीरिक अभिमान के अहंकार को ही मैं कहते हैं। वह अहंकार ही जीव है। उस जीव को विवेक से देखते समय समझ सकते हैं कि ऍनर्ज़ी अथवा प्राणन चलकर परिणमित होकर स्थूल रूप में जो आया है,वही जीव है। प्राणन का मतलब है, स्पंदन अर्थात् चलन है। वैसे प्राणन चलित उसको रूप मिलता है। वैसे प्राणन चलित रूप लिए प्रपंच भर में नाम रूप चलन ही है। बोध रूप आत्मा मेंही प्राण की उत्पत्ति खोजकर जाती है। आत्मा क्या है ? की खोज करते समय मैं है का अनुभव करनेवाले बोध है अर्थात् प्रज्ञा है अर्थात् ज्ञान है। उस ज्ञान को अर्थात् बोध को अपरिहार्य करने, समझने,देखने,दर्शन करने,सुनने, सूँघकर देखने कुछ भी कर नहीं सकते। कारण वह इन सबको जानने का ज्ञान है। जो ज्ञान जानते हैं, जान नहीं सकते।क्योंकि जो ज्ञान जानते हैं, वह असीम है। असीमित परम ज्ञान ही जानने का ज्ञान है। वह स्वयं जानने का ज्ञान है। वह स्वयं अनुभव आनंद स्वरूप है। उस ज्ञान से जुडे बिना प्राप्त ज्ञान की कोई स्थिरता नहीं है। जिस ज्ञान को जनना है,ज्ञात ज्ञान से भरा है।ज्ञात ज्ञान की स्थिरता नहीं है।इसलिए सर्वव्यापी असीमित मैं है का अनुभव करनेवाले परमानंद स्वभाव ज्ञान से अन्य कोई नहीं है।अर्थात् जानने कुछ रहित परम रूपी ज्ञान से ही अर्थात परमात्मा से ही अर्थात् अखंड बोध से ही ऍनर्ज़ी अथ्वा प्राणन
अथवा चलन उत्पत्ति होने सा लगता है। बोध सर्वत्र भरकर निश्चल होने से वह बन नहीं सकता। वह है,जो है उसको बनने की आवश्यकता नहीं है। जो स्वयं है , उस निराकार निश्चलन बोध से प्रपंच भरा है.उसमें बनकर मिटनेवाले चलन प्रपंच सब के सब अस्थिर होने का अनुभव कर सकते हैं। चलन रहित होने के साथ जीवभाव मिट जाता है। साथ ही मृत्यु भय भी अस्तमित हो जाता है। स्वयंभू रूपी मैं है का अनुभव करनेवाला अखंडबोध मात्र परमानंद रूप में नित्य सत्य रूप में स्थिर खडा रहता है।
4578.श्रद्धालुओं को ज्ञान मिलेगा। आत्मा पर श्रद्धा होना चाहिए। जिसमें आत्मा पर ध्यान देने समय नहीं है, उनको सत्य शास्त्र, उपनिषद, भगवद् गीता,ब्रह्मसूत्र,सत्यसाक्षात्कार,महात्मा रचित ग्रंथ पढने के लिए भी समय न रहेगा।
इसलिए अविवेकियों को देह बोध, लोकबोध,अर्थात् शारीरिक अभिमान, लौकिक अभिमान, उसमें भेदबुद्धि, रागद्वेष,साथ ही जीवन संग्राम से होनेवाले दुख से बचाने के लिए समय रहेगा। उनके लिए सुख एक स्वप्न मात्र है। जो विवेकी भगवान को लक्ष्य बनाकर जीवन बिताते हैं, वे सत्य को समझे एहसास किये ऋषियों के महा वाक्यों को
अति सूक्ष्म रूप में श्रद्धा के साथ विवेक से जानकर पढने से शरीर और संसार जड कर्म चलन स्वभाव से जुडे मिथ्या है,वे केवल नाम रूप भ्रम दर्शन ही है को सरलता से समझ सकते हैं। बुद्धि निश्चित कार्यों को क्रियान्वित करने के लिए मन बना है। आँख,नाक आदि ज्ञानेंद्रिय ,कर्मेंद्रिय, अहंकार सब बोध में बनकर मिटनेवाले स्पंदनों का परिणाम ही है। बोध अपरिवर्तनशील निश्चलन परमानंद रूप में सर्वत्र भरा है। परमानंद अनुभव स्वरूप से मिले अखंडबोध ब्रह्म रूप में रहनेवाले अपने में रेगिस्तान की मृगमरीचिका जैसे संकल्प अकारण बनकर आनंद को छिपा देता है। संकल्प के बिना इस संसार में कुछ भी अनुभव करने का साध्य नहीं है। सर्वव्यापी ब्रह्म बोध में नाम रूप प्रपंच बनाने का साध्य नहीं है। रेगिस्तान में पानी बनाकर दिखाने का स्वभाव
जैसा है, वैसे ब्रह्म को प्रपंच बनाकर दिखाने का स्वभाव है। रेगिस्तान में एक बूंद भी पानी नहीं है। वह पानी रेत को भिगाता नहीं है। वैसे ही जो प्रपंच नहीं है, वह किसी भी
प्रकार से ब्रह्म को स्पर्श नहीं करते। यह आत्मज्ञानियों के लिए,ब्रह्म ज्ञानियों के लिए मात्र एहसास करके अनुभव करना साध्य होगा।कारण रेगिस्तान को ही अविवेकी पानी के रूप में देखते हैं।वैसे ही सर्वव्यापी परमात्मा को न जाननेवाले सत्य से अज्ञात
अविवेकी ही प्रपंच को देखते हैं। अर्थात बोधाभिन्न जगत है। यही सत्य है।
4579. आध्यात्मिक शास्त्र, तत्व ज्ञान अर्थात् भेद बुद्धि रहित करनवाले आत्मज्ञान
सीखे बिना तत्व समझने साध्य नहीं है। अर्थात् दो रहित एकात्म स्वभाव रूपी परमानंद
अनुभव करना साध्य नहीं है। एक ही है। वह एक निष्कलंक है,निर्मल है। जो भी प्रकाश हो, उसका प्रकाश ही है। वही परमात्मा है। उस परमात्मा में एक कलंक जैसे
अकारण मैं नामक जीव संकल्प उमडकर आता है। वह रेगिस्तान की मृगमरीचिका जैसे उमडकर आने के जैसे ही है। रेगिस्तान स्वरूप में उसके स्वभाव रूप में उमडकर
आयी है मृगमरीचिका है। अर्थात् समुद्र के स्वरूप में उसके स्वभाव के रूप में उमडकर आये हैं बुलबलें। स्वरूप और स्वभाव एक ही है। वैसे ही परमात्म स्वरूप में उसके स्वरूप में उमडकर आया है जीवसंकल्प। जीव नामरूप हैं। नाम रूप के बहिरंग और अंतरंग में संपूर्ण भाग में परमात्म वस्तु भरी है। अर्थात् बोध वस्तु भरी है। अर्थात् ब्रह्म भरा है। वह आभूषणों के नाम रूप में स्वर्ण भरे रहने के जैसे। वह आभरण रूपी नाम रूपों में स्वर्ण भरे रहने के जैसे स्वर्ण भरे रहने के जैसे स्वर्ण को देखनेवालों के सामने
आभूषणों के नाम रूप नहीं है। वैसे ही सर्वत्र ब्रह्म दर्शन में प्रपंच दृश्य कोई नहीं है।
एक ही वस्तु मैं है का अनुभव करनेवाला अखंडबोध मात्र है। यही उपनिषद सत्य है।
4580. कार्य जो भी हो,अभ्यास करनेवालों के लिए निस्सार है। अभ्यासी अभ्यास करते समय अभ्यास जिसने नहीं किया है, उसी को आश्चर्य और अद्भुत होगा। वह भौतिक में हो,आध्यात्मक हो एक जैसे ही है। उदाहरण के लिए सडक के किनारे पर
बच्चे एक रस्सी पर दिखानेवाले अभ्यास पंडित,क्षमता शील अभिमान करनेवाले
की ओर ही खडा कर सकता है। वैसे दिखा नहीं सकता। वैसे छोटी उम्र से अर्थात्
विवेक हुए दिन से यहाँ एक ही अखंडबोध मात्र ही नित्य,सत्य है, उस बोध को ही
परम कारण और परब्रह्म,पराशक्ति रूप में संसार मे सभी ईश्वर के रूप में,पराशक्ति रूप में, संसार में सभी ईश्वर के रूप में, मनुष्य एक एक नाम से कह रहा है।
अर्थात् अखंडबोध रूपी अपने को मात्र है का अनुभव है। है का अनुभव होने का स्वभाव मात्र है परमानंद,परमशांति,सर्व स्वतंत्र। उस परमानंद अखंड बोध रूपी अपने में मृगमरीचिका के रूप में उमडकर देखनेवाले नाम रूप जड कर्म चलन ही है। जीव रूप में रहकर स्वयं देखनेवाले सभी नाम रूप बनकर मिटनेवाले ही है। वे सब नहीं है। जो नहीं है,वह बन नहीं सकता। जो है उसको बनने की आवशयक्ता नहीं है। मैं है का अखंडबोध है। वह अपरिवर्तनशील नित्य आदि अंत रहित अनादि रूप में स्वयंभू रूप में स्थिर खडा रहता है। यह ज्ञान आवर्तन करके बुद्धि में दृढ बनाकर उस ज्ञान की दृढता में अर्थात् इस परम रूपी ज्ञान के प्रकाश आनंद दीप्ति में पंचभूत प्रपंच स्मरण भी नहीं होते। जो सत्य नहीं जानते और अविवेकी ही कल्पित कहते हैं कि प्रपंच है अविवेकी
कल्पना में ही भेदबुद्धि और रागद्वेष,लाभ-नष्ट,धर्मऔरअधर्म, पाप-पुण्य,सुख-दुख,जन्म-मरण, आदि सभी द्वैत, भाव पाप-पुण्य,सुख-दुख होने सा लगता है। दुख निवृत्ति की याचना परमानंद स्वभाव अखंडबोध रूपी स्वयं मात्र
नित्य सत्य रूप में है। इसकी बुद्धि में भावना लेकर अभ्यास करना चाहिए। जिसने अभ्यास नहीं किया है, उसको अपना निजी स्वरूप परमानंद है को जानकर अनुभव करके वैसा रहने का साध्य नहीं है। जो अभ्यास करते हैं,उनको मात्र ही साध्य होगा।
4581. एक सूखी आम के बीज लेकर हिलाने पर उसके अंदर की गुठली अंदर अलग रहेगा। वह बीज के ऊपर भाग और गुठली का कोई संबंध नहीं वैसे ही मैं शरीर नहीं,बोध है का जान समझकर बोध के अखंड स्थिति पाकर अखंडबोध रूप के एक जीव के लिए उसका शरीर रूप मैैं है का अनुभव करनेवाले अखंड बोध में दीख पडनेवाले एक भ्रम दृश्य और बोध का कोई संबंध रहित है का अनुभव कर सकते हैं। अर्थात् प्रपंच भर में चित्र पट पर चित्रपट देखने के जैसे बोध में प्रपंच का अनुभव कर सकते हैं। उससे शरीर संसार कार्य में होेवाले काम-क्रोध नृत्य कलह उससे होनेवाले दुख सब एक स्वप्न जीव जैसे ही है। आत्मा को समझने अर्थात् स्वयं आत्मा है का एहसास करनेवाले को लगता है। वैसे स्वप् जीवन जीेनेवालों के स्वप्न लोक मं ही अपने शरीर यात्रा करता है अखंडबोध अनुभव प्राप्त एक निस्संग रूप में अनुभव कर सकते हैं। लोक दृश्य होते रहने पर भी उन सबको स्वप्न रूप में ही वे देखते हैं। इसलिए जितना भी मूल्य हो,उतना चुकाकर, शारीरिक स्मरण रहित अखंड बोध रूप में रहकर बोध का स्वभाव अनिर्वचनीय शांति होेनेवाले दुख विमोचन मोक्ष स्थिति को प्राप्त करना चाहिए।
4582.मैं है का अनुभव करनेवाला बोध ही अपने पंचेंदरयों से अनभव करनेवाले संपूर्ण प्रपंच भर है का अनुभव करता है। अर्थात् बोध कहते समय शरीर ें अंतरंग ें रहनेवाले बोध को ही साधारण जीव चिंतन करता है। लेकिन शाश्वत मैं नाम रूप रहित अखंडबोध रूप में ही है। अपने में स्वयं उमडकर आये अहंकार से जुडकर ही इस अखंड के बारे में कह सकते हैं। अपने यथार्थ स्वरूप बने अखंडबोध अनुभव पूर्ण रूप में अनुभव करना चाहें तो यह अहंकार बढकर बनाये शरीर संसार के प्रपंच भर बोध के छिपाये पर्दा प्राण को मन को स्वरूप बने बोध के अखंड की भावना कर न सकें तो भावना करके, वैसे संकल्प न कर सकें तो संकल्प तैलधारा जैसे बनने के साथ प्राण, मन,स्वरूप,शरीर और प्रपंच सब विस्मरण हो जाएगा। अर्थात् तैलधारा के जैसे अखंडबोध स्मरण करते समय स्मरण स्मरण करने के लिए मन मिट जाने की स्थिति ही बोध की अखंडता है। उस अखंड स्थिति को पाते समय मात्र ही बोध में आवर्तन करके दिखानेवाली माया के इंद्रजाल नृत्य के बारे में एहसास होगा। तभी माया में भी निराकार अखंड स्थिति को दर्शन करके स्वस्वरूप अखंडबोध स्थिति में से न हटकर
बोध के स्वभाव परमानंद को अनुभव करके वैसा ही रहना साध्य होगा। अर्थात् जो शरीर और संसार को संकल्प करके मनुष्य लघु सुख अनुभव करते समय आत्मा को संकल्प करें तो आत्मा का स्वभाव परमानंद मिले बिना न रहेगा।
4583.मैं है का अनुभव करनेवाला बोध ही सत्य है।सत्य अनुभव को गुरु शिष्य को उपदेश नहीं कर सकते। इसलिए गुरु परंपरा एक मार्गदर्शन मात्र है। इसलिए एहसास करना चाहिए कि स्वयं कौन है। तभी मैं नामक सत्य का अनंत आनंद को स्वयं भोगकर वैसा ही रह सकते हैं। जो सत्य की खोज करता है, उसको जानने का अधिक
मुख्य विषय हैऔर अपनी बुद्धि को आज्ञा देनी चाहिए कि अपने मन को किसी एक नाम रूप जीव को समर्पण करके अखंडबोध रूप अपने स्वभाविक परमानंद को नष्ट नहीं करना चाहिए।अर्थात बोध अखंड होने से उसमें देखनेवाले नाम रूप सब मिथ्या है। इसे जानने किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं है। उदाहरण के रूप में आभूषण की दूकान में स्वर्ण के दर्शन करते समय आभूषण के नाम रूपों को तीनों कालों में स्थायित्व नहीं है। जिसकी बुद्धि में यह बात निश्चित है,वह समझ लेता है कि प्रपंच में किसी भी प्रकार के बंधन को बनानेवाले नामरूपों को तीनों कालों में स्थायित्व नहीं है। वह नाम रूपों में बोध मात्र दर्शन करकेअखंड बोध रूप में रहकर अनंत आनंद को सहज रूप में अनुभव कर सकता है।
4584. दैनिक जीवन में अपनी आवश्यक्ता केलिए अथक परिश्रमी मनुष्य प्रपंच सत्य को समझ नहीं सकता। यह भी वहनहीं जानता कि प्रपंच सत्य किसके लिए समझना चाहिए। ऐसे भी प्रश्न है,यह न जाननेवाले भी अनेक लोग होते हैं। ऐसे लोगों का ध्यान ईश्वर की ओर ध्यान खींचने के लिए ही रोग,मृत्यु, सब की व्यवस्था प्रकृति ने बनाकर रखा है। केवल वही नहीं, कर्म करने में बाधा भी जीव को सोचने विचारने के लिए ही है। केवल वह मात्र नहीं है, वह सही नहीं है,यह सही नहीं है, ऐसा करना चाहिए,वैसा करना चाहिए, यों कहनेवालों को समझना चाहिए कि जैसा भी करो,वह ठीक नहीं होगा। कारण कर्म सब के सब चलनशील होते हैैं। एक ही निश्चलन अखंडबोध है। यही शास्त्र सत्य है कि कर्म रहित ब्रह्म एक है,लेकिन कर्म रहित ब्रह्म में कर्म चलन
होने -सा लगता है। हर चलन को नाम भी है और रूप भी है। तीनों कालों में रहित नाम रूप से मिले प्राण चलन की गाँठ ही यह प्रपंच गती है। ऐसा लगना मैं है का अनुभव करनेवाला सर्वव्यापी निश्चलन निराकार बोध में ही है।सर्वव्यापी अखंडबोध मैं है को जानकर बोध को विस्मरण न करके रहने के साथ बोध के स्वभाव शांति,आनंद,स्वतंत्र,स्नेह,सत्य सब अपने स्वभाव के रूप में, स्व अनुभव अनुभूति रूप में,नित्य निश्चलन रूप में स्थिर खडे रहेंगे। उस स्थिति में प्राण प्रपंच के बारे में स्मरण तक न होगा।
4585. जिस मनुष्य का चंचल मन सत्य जानने,ब्रह्म को जानने,परमात्मा को जानने और स्वयं को जाने भटकता रहता है, उस मनुष्य को अपने चंचल मन को अचंचल या स्थिर रखना मुश्किल है। उस कष्ट को सहने की सहनशीलता,आत्म पिपासा न होने से ही मनुष्य सत्य को जानने का इच्छुक नहीं बनता, आसानी से मिलनेवाली अज्ञानता को चाहता है। जो सत्य को जानता है,वह अंतर्मुखी होता है, असत्य काचाहक बहिर्मुखी होता है। जिसमें स्वचिंतन करने की क्षमता नहीं है, धैर्य नहीं है, जो कार्य करने में आलसी है, वही दुख के समय गुरु की तलाश में, क्षेत्र दर्शन करने जाते हैं। गुरु उपदेश, क्षेत्र दर्शन,उपदेश क्रम, आचार क्रम आदि में लगते हैं। लेकिन विषय सुखों को चाहकर जानेवालों से श्रेष्ठस्थिति में ही गुरु की तलाश में जानेवाले और क्षेत्र दर्शन करनेवाले हैं। शिष्य की योग्यता उसकी प्रज्ञा परिशुद्ध रूप में रहना चाहिए। अर्थात् बोध में भेदबुद्धि,रागद्वेष, कामक्रोध आदि आवरण बोध को छिपाना नहीं चाहिए। बोध वस्तु एक को जाननेपर सबको जान सकते हैं।कारण बोध रहित स्थान नहीं है। बोध रहित कुछ भी नहीं है। यह जानते समय प्रश्न और उत्तर बोध ही है। यह ज्ञान होने के लिए ही दूसरे सब आचार क्रम होते हैं। अर्थात् भक्त्, क्षेत्र,भगवान आदि भगवान ही है। जो भगवान बहिर्मुख है, वही अंतर्मुखी है। शरीर और संसार भी वही भगवान है। भक्त ऐसे समझकर जानते समय ज्ञानी भगवान को बोध के रूप में ही जानता है। जाननेवाले बोध ही यथार्थ भगवान है। जाननेवाला न तो कुछ भी नहीं है।
स्वयं समझे अखंडबोध भगवान ही मैं है,को दृढ बनाना ही बोध साक्षात्कार है। अर्थात् आत्मसाक्षात्कार है। वही ब्रह्म साक्षात्कार है।
4586. जो सत्य को अनुभव करने सिखाते हैं, वे ही यथार्थ गुरु हैं। अर्थात् तीनों कालें में रहित मन,बुद्धि,अहंकार,आदि पंचभूत प्रपंच छोडकर ये सब जाननेवाले ज्ञान आत्मा अर्थात् सत्य को अर्थात् बोध को अनुभव करने सिखानेवाले एक गुरु मात्र ही यथार्थ गुरु होते हैं। कारण प्राणन,मन,बुद्धि,प्रपंच,अर्थात् ब्रह्मांड भर मैं है का अनुभव करनेवाले अखंडबोध मात्र है। अर्थात् चलन रूपी प्राण में,मनमें, बुद्धि में ,प्रपंच में मैं नामक निश्चलन बोध भरा है।साथ ही पंचभूत है का दिखाई पडे नामरूप सब मिट जाते हैं। मैं नामक अखंडबोध मात्र नित्य सत्य स्थिर रहता है। वह नित्य सत्य निराकर निश्चलन अखंडबोध स्वभाव परमानंद को ही सब जीव सदा चाह रहा है।
4587. एकाग्रता, ईर्ष्या, समय आदि तीनों जिसमें है, वही प्रपंच सत्य स्वयं है को समझकर अनुभव करके वैसा ही रह सकता है।
4588. सत्यवादी के सामने सब असत्य को अपने यथार्थता प्रकट करना पडेगा।
4590. संसार में अनेक लोग भागवद में उद्धव के जैसे, भगवद् गीता में अर्जुन जैसे है।
कारण अर्जुन के साथ कृष्णन आरंभ में कहा कि रहित प्रपंच त्रिकालों नहीं बनेगा।
जो है,उसका नाश नहीं होगा। जो आत्मा है,उसका स्वभाव परमानंद है। श्री कृष्ण के उपदेश सुनकर भी आत्मा रहित प्रश्नों को ही श्रीकृष्ण से अधिक किये गये। वैसे ही उद्धव अपनी छोटी उम्र से श्री कृष्ण के स्वर्ग आरोहण तक चलकर,स्तुति,कीर्तन,स्मरण करके,खेलकर भी श्रीकृष्ण के रूप में मात्र नहीं, कृष्ण बाहर भी सर्वव्यापी है को समझ न सके। इसलिए श्री कृष्ण शरीर त्यागते समय उद्धव श्रीकृष्ण से कहते हैं कि एक क्षण भी आपको तजकर जी नहीं सकता। अनेक संदर्भ में श्री कृष्ण के शरीर माया है को समझाने पर भी माया रूपी नाम रूपों पर विश्वास करके अर्जुन और उद्धव रहने के कारण दोनों दुखी थे। जो स्थाई है,वह आत्मा मात्र है। वह सर्वव्यापी है।उसका स्वभाव परमानंद है। वह परमात्मा स्वयं ही है को दृढ बनाना ही भक्ति,मुक्ति और साक्षात्कार है।
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