हथेली में छिपी भविष्य भूलकर ,
भिक्षा पात्र उठाकर खडी हैं
नन्हीं नन्हीं उंगलियाँ.
परिपक्व के उम्र होते ही ,
द्वार तक जाने को निरोध,
रूप ढकने की पोशाक बताकर,
नारी के बड़प्पन बोलनेवाले
नाते -रिश्ते
मालिकों के घर
मजदूरिन के रूप भेजेंगे.
दरिद्रता के क्रूर करों के
दलित ,
सुविधाओं के बरामदों पर
वे हैं किशोर पीड़ित .
न्याय के गले
घोंटने की वज़ह ,
गली में पडी
ब्रह्मा की संतानें.
महानगर की सडकों के चौराहों पर,
चौराहों की संधियों में
खुले खतरों को पारकर,
चालाकों द्वार
भीख माँगनेवाले
नन्हीं -नन्हीं उंगलियाँ.
न तो यही नदी का कसर
न तो विधि का कसर
जिन्होंने जन्म दिया ,
उनकी निधी की कमी ,
इनसे बराबर होती हैं
ये अत्याचार.
अक्षर ज्ञान
अर्जित करने की आयु में ,
ये भविष्य के ज्ञाता ,
जूठे बर्तन
साफ करने की दुर्दशा,
तडके पुस्तकें पढने के बजाय ,
सबेरे होने के पहले
कार्यशाला की ओर
चलने वाले पददलित .
खेल प्रतियोगिता के
विजयी खिलाड़ी बन
विजय पताका ले उठानेवाले कर,
झुककर कूड़े उठाने में लगे हैं.
रंगबिरंगे चित्र खींचनेवाले कर ,
ऊंचे विचारों के चित्र खींचने के कर
जूतों की चमक करने में लगे हैं.
फूलों के बोझ भी
जो न सह सकी ,
कोमल हंस ,
बोझा ढोने के गधा बने हैं.
भूतल पर
ताज़े सुगंध बन ,
खिले फूल से वे ,
बारूद के कारखाने में
चन्दन के पेड़ जैसे
जल रही है.
दियासलाई की लकड़ी
रिसकर प्रकाश देने के पीछे
यअन्धकार में
टूटे पंखों के पक्षी जैसे ,
गम में चीख रहे हैं.
दियासलाई की लकड़ी बनने ,
ये अन्धकार में
टूटे पंखों के पक्षी जैसे
,गम में चीख रहे हैं.
सुन्दर अभिव्यक्ति आदरणीय जी!
ReplyDeleteधरती की गोद