Sunday, October 28, 2018

अतिथि देवो भव

नमस्कार !
अनजान मुख -पुस्तिका के साथियों को
बधाई देते हैं ;रोज़ कुछ न कुछ
सन्देश देते हैं ;पाते हैं;
पर अतिथि जो घर आते हैं
ज़रूर कोई न कोई जानते ही हैं ;
बच्चे ,आधुनिक युवक "है " कह
हस्त-दूर भाष में ऐक्य हो जाते हैं
अतिथि तुम कब जाओगे ?
ऐसा ही लगता है।
अतिथि देवो भव के देश में
द्वेष भरी नज़र कैसे ?
शिक्षा रिश्तों को जोड़ती नहीं ,
दूर हटाती जाती हैं।
अनपढ़ देश में कुल -पेशा में ही
कुल परिवार लग जाता।
रूखा-सूखा खाता ,
चैन से जीता।
अब स्नातक -स्नातकोत्तर
महाविद्यालय के साक्षात्कार में ही
नौकरी मिल जाते सुदूर या विदेश।
अतिथि देवो भाव नहीं ,
बन जाते भव् बाधा ..
तिथी बताकर ,
ठहरने का दिन बताकर
अनुमति लेकर जाना हैं।
यह -नाते रिश्तों का दोष नहीं ,
उच्च शिक्षा का दोष है ,
दोनों नौकरी करते हैं ,
कर्जा बढ़ाने सरकार की योजना।
बैंक की महिलाओं का मधुर पुकार;
टूटी -फूटी अंग्रेज़ी ,
युवक तो ताज़ी नौकरी ,
हर चीज़ ताजी लेना चाहता।
रूपये पुरानी हज़ार ,
भले ही अच्छा हो देना
बत्तीस हज़ार में लेना
मीयाद भरना ,
हर चीज़ कर्जा ,
तब अतिथि ?
अतिथि सेवा बेचारा भला कर्जदार कैसे करता।
सब के सब सरकारी नौकरी भी नहीं
कबीर के जमाने में यम -तलवार सर पर.
अब एम्.डी., ज़रा आँखें दिखाएँगे तो ,बस
नौकरी की न गैरंटी ,न वारंटी।
अतिथि कोई भी न आ न सकता ,
अचानक आना पड़ें तो ठहर नहीं सकता।
आने का सवाल ही नहीं उठता।
शिशु विद्यालय के तीन साल का शिशु
विद्यालय में अनुपस्थित हो जाता तो
निकाला जाता तो मंत्री की सिफारिश से मिली भर्ती ,
स्कूल से निकला जाता तो
अतिथि भला कैसे आता।
अब सवाल उठता ही नहीं ,
अतिथि तुम जाओगे कब ?

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