Wednesday, June 13, 2012

अर्द्धांगिनी--11



तिरुक्कुरल में संतान-भाग्य के नव कुरलों में
 माता-पिता के कर्तव्य पर जोर देते हैं।
माता -पिता दोनों को   शिक्षित होना ज़रूरी है।

उनका ज्ञान ,उनका व्यवहार अच्छे और आदर्श हो तो
 बच्चे भी उनका अनुसरण करेंगे|

ऐसे होने पर वे बुरे गुणों से और बद-चलन से दूर रहेंगे।

बुराइयाँ,नीच संगती,अनपढ़,जुआ,नशीली चीजों को छोड़ना,आदि  गुण
 उत्कृष्ट  माता-पिता ही अपने  बच्चों को   सिखा   सकते  हैं ।

गुरु की बात मानकर उनके पथ पर चलने  का उपदेश

 शिक्षित  माता-पिता  के द्वारा आसान होजायेगा;

वे ही अपने गुरु का महत्त्व जानेंगे।।

अतः माता-पिता का कर्त्तव्य है,
 अपने संतानों को सुमार्ग दिखाना।
इस पर वल्लुवर ने अपना अलग विशेष ध्यान दिया है।


पिता  ने   अपने अध्यवसाय से पुत्र को चतुर ,शिक्षित और आदर्श बनाया है तो
 पुत्र का व्यावहार ऐसा होना चाहिए कि  उसके व्यवहार से दुसरे लोग यह कहें ,
पिता ने कठोर तपस्या करके इस पुत्र रत्न को जन्म  दिया है।यह पुत्र का कर्तव्य  है।

कुरल: "मकन तन्तैक्कू  आटरूम  उदवी इवन  तनतै  एन्नोटरान कोल एनुम सोल।"

  रत्नकुमार:  children"s duty is to bring pride and glory to their parents.
पुत्र भाग्य में पुत्री शब्द भी छिपी है;
 लेकिन परिमेलालाकर केवल पुत्र अर्थ माना है।
यह तो गलत व्याख्या है।

नक्कीरन आपने इरैयानार अकप्पोरुल मालै  ग्रन्थ की आलोचना में
नायक-और नायिका दोनों को समान
शिक्षा की जरूरत पर जोर दिया है।

यह धारणा गलत है -पुत्र ही चतुर और होशियार है।पुत्री नहीं।



शिवप्रकाशर  नामक मुनि ने अपने देवी पार्वती  की स्तुति में कहा है --

सब लोग शादी के दिन नव-दम्पति को

यही आशीर्वाद देते हैं ---पुत्र रत्न का जन्म हो!
पर राजा मलयरसन  ने पेरियानायाकी अर्थात बृहद नायकी  को जनम लेकर
 यह आशीर्वाद करनेवालों को लज्जित कर दिया है।
अतः संतान भाग्य में पुत्र-पुत्री दोनों का महत्त्व है।
पुत्र को  जन्म लेने में  ही  श्रेष्ठता मानना  उचित  नहीं है।

अतिथि सत्कार करने के लिए अर्द्धांगिनी ही प्रधान है।
पति-पत्नी दोनों में एक के भाव में अतिथि सत्कार करना मुश्किल है।
अतः शिलाप्पतिकारम की नायिका दुखी होती है  कि
 पति के न होने से अतिथि -सत्कार कर न सकी ।

दावत  का   मतलब है सत्कार करना।

जो नया आया है ,उसको स्वागत करके खिलाना-पिलाना।

मेहमान कौन है/?

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