दुर्ग -शास्त्र ---दुर्ग --राजनीती . अर्थ -भाग --तिरुक्कुरल --७४१ से ७५० तक.
१. दुर्ग दोनों को लाभ प्रद और अत्यंत ज़रूरी है ---१. आक्रमण करनेवाले २. बिना आक्रमण करके भयभीत रक्षा चाहनेवाले.
२. दुर्ग के उचित स्थान हैं -- स्वच्छ पानी , खुले मैदान ,घने जंगल ,पहाड़ आदि से घिरे हुए स्थान . खाई .
३. सुरक्षित दुर्ग के लक्षण चार हैं , १. ऊंचाई , २. चौड़ी ,३. पक्की
४. और शत्रुओं से आसान से न पहुँचने की योज़ना,
४. सुरक्षित स्थान संकीर्ण , बाकी भीतरी स्थान विस्तृत , शत्रुओं के साहस को
नष्ट करनेवाला आदि ही किले के लक्षण हैं .
५. कई दिन शत्रुओं के घिरे रहने पर भी सुरक्षित ,
अन्दर रहनेवाले लोगों को कई दिनों तक भोजन सामग्रियों से सुरक्षित ,
अन्दर रहनेवाले स्थायी रूप में रहने की सुविधायुक्त व्यवस्था आदि
दुर्ग के लिए अत्यंत आवश्यक है.
६. युद्ध की आवश्यक सभी सामग्रियों से भरे,
बाहरी शत्रुओं को नाश करनेवाले वीरों से भरे दुर्ग ही
शक्तिशाली और विशेष दुर्ग है.
७. किसी भी हालत में शत्रुओं के वश में न जाना एक दुर्ग की विशेषता है.
भले ही दुश्मन से घेरे या न घेरे या जो भी षड्यंत्र शत्रु करें ,तब भी सुरक्षित जो है वही किला है.
८. घिरे हुए अति शक्तिशाली शत्रुओं को ,
किले के अंदर से ही सामना करके हराने की हिम्मत
रखनेवाला ही किला है.
९. किले मज़बूत होने पर भी
भीतर रहनेवालों में साहस और चतुराई न होने पर
बेकार ही होगा. किला से कोई लाभ नहीं है.
No comments:
Post a Comment