Thursday, April 21, 2016

तिरुक्कुरल --९३१ से ९४० तक अर्थ भाग - जुआ .

तिरुक्कुरल --९३१  से  ९४०  तक अर्थ भाग - जुआ .

१.   सफलता  मिलने  पर  भी जुआ खेलना  नहीं चाहिए;
जैसे   कांटे  के आहार  पकड़कर  मछली
जैसे अपने प्राणों  को  खो देती है ,
वैसे ही दुर्गति  हो  जायेगी.

२.  जुआ खेलने वाले  एक  बार  जीतने के  बाद
सौ   गुना  हारने  के बाद  भी  जुआ  खेलना नहीं  छोड़ेंगे.
 ऐसे जुआ खेलनेवालों   के  जीवन  में  सुख  कहाँ ?

३. लगातार  जुआ जो खेला करता है ,
  वह अपनी  सारी संपत्ति खो देगा
 और  आगे कमाने के तरीकों को भी भूल  जाएगा.

४.  कई प्रकार  के कष्ट घेरने ,
    सारी संपत्ति और प्रसिद्धी  को नष्ट करने  ,
    गरीबी  के  गद्दे में डालने
    जुआ   काफी  है.
 जुआरी  को अपयश  और  गरीबी घेर  लेगी.

५. जो जुआ  खेलने के यंत्र  , स्थान  और  उसके  प्रयत्न  को  नहीं  छोड़ता,
 वह  अत्यंत  गरीब हो  जाएगा.एक  पैसे  भी नहीं  रहेगा.

६. जो जुआ   ज्येष्ठा देवी  के प्यार करने लगता  है,
वह  भूखा प्यासा  रहकर गरीबी का  दुःख  भोगेगा ही.

७. जुआ घर में कोई समय  बिताएगा  तो
 वह  अपनी परंपरागत संपत्ति खो देगा ;
 साथ ही साथ  गुण भी.

८.  जुआ  एक व्यक्ति  के  सद्गुण ,सम्पत्ति  मात्र बरबाद  नहीं करेगा
   और उसको झूठा बना  देगा.
   बेरहमी   बनाएगा  न जाने
   कई प्रकार कष्टों  के  घेरे में  बाँध  देगा.

९. जुआ  के गुलामी को  छोड़कर
 उसकी  संपत्ति ,यश ,शिक्षा  ,कीर्ति ,खाना  ,वस्त्र  आदि
 सब  बहुत  दूर  चला  जाएगा.
१० . जैसे  मनुष्य को अपने शरीर पर दुःख के अनुभव   करते
       समय  प्यार बढेगा ,
       वैसे  ही धन को खोते खोते
    जुआ  खेलने  की इच्छा  बढ़ती  जायेगी.


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